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________________ अनेकान्त प्राचीनता - श्वेताम्बर समाजमें सबसे प्राचीन श्रीपाल चरित्र श्री रत्नशेखरसूरिजी रचित है जो कि प्राकृत भाषा में सं० १४२८ में बनाया गया है। इससे पहले किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थमें प्रस्तुत श्रीपालजीका नाम तक जननेमें नहीं आया । अतः यह प्रश्न सहज ही होता है कि कथावस्तु आई कहाँ से ? इसके लिये उक्त प्रन्थ में कोई उल्लेख नहीं है । इस ग्रन्थमें कथाका प्रारंभ, 'गोतम स्वामी श्रेणिक राजाके समक्ष नवपद श्राराधनके महात्म्य व सुफलपर यह दृष्टांत रूपसे कथा कही' इस रूपसे किया गया है । कथावस्तुकी प्राचीनताका इससे कोई पता नहीं लग सकता, अतएव उपलब्ध साधनों से ही इसकी नींव खोजनी पड़ेगी । दिगम्बर साहित्य में नरदेव या नरसेन कृत प्राकृत चरित्रादि सभी ग्रन्थोंको अवलोकन कर सबसे प्राचीन चरित्र कौनसा व किस समयका रचित है और उसमें कथावस्तु कहाँसे ली गई है, उसके सम्बन्ध में क्या कुछ उल्लेख है ? जैनोंके अतिरिक्त अन्य जैनेतर ग्रन्थोंमें इस कथाका कोई रूप उपलब्ध है या नहीं ? इन सब विषयोंका पूरा अन्वेरण किया जाना परमावश्यक है । खोज-शोध के प्रेमी दिगम्बर विद्वानोंको इस सम्बन्धमें विशेष ज्ञातव्य प्रगट करनेका अनुरोध है । १५६ इसीप्रकार होलिका आदि कई पत्रकी कथाऐं भी दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंमें लगभग एकसी प्रचलित हैं और श्राचार्योंके जीवन-चरित्र प्रन्थोंके नामादि + में भी बहुत अधिक साम्य देखा जाता है । अत: उनका मूल भी खोजना + देखें वीर वर्ष १५ अङ्क ३४ में 1 [मार्गशिर वीर निर्वाण सं० २४६५ वश्यक है कि कौनसी कौनसी कथाएँ दिगम्बर साहित्यसे श्वेताम्बरोंने अपनाई और कौनसी श्वेताम्बर साहित्य से दिगम्बरोंने अपनाई हैं । प्रचार व लोकादर - श्वेताम्बर समाजमें प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ला ७ * से पूर्णिमा तक तथा चैत्र शुक्ला ७ से पूर्णिमा तक ६ दिन श्रीसिद्धचक्र नवपद + की आराधनाकी जाती । उन दिनों में प्रस्तुत चरित्र ६ - ६ महीने से पढ़ा जाता है; फिर भी कथा बड़ी सरस है, लोगोंको बड़ी प्रिय एवं रुचिकर है । श्वेताम्बर समाज में इस कथाका प्रचार व आदर कितना अधिक है तो यह परिशिष्टमें दी हुई चरित्र साहित्य-सूची से स्पष्ट ही है । खरतर गच्छ, तपागच्छ [वृद्धतपा, नागपुरीय तपा (पीछेसे पायचंदगच्छ) आदि कई शाखाओंके ] अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, पूर्णिमागच्छ, नायलगच्छ, संडेरकगच्छ, विवंदनीक्गच्छीय विद्वानोंने इसपर अपनी कलम चलाई है, जो कि चरित्रकी * रत्नशेखरसूरिके प्राकृत चरित्रानुसार सुदी = से ही यह तप प्रारम्भ होता था, पर अभी बहुत समय से सप्तमीसे ही प्रारम्भकी प्रवृत्ति है । श्वे० साहित्य सूचीसे स्पष्ट है कि इसका प्रचार १८ वीं शताब्दीसे बहुत अधिक हो गया है और तभीसे एतद्विपयक ग्रन्थ अधिक बने हैं। + श्वेताम्बर समाजमें नवपद पर पूजाएँ आदि बहुत साहित्य है जिसकी सूची मेरे 'पूजासाहित्य' लेखमें प्रकाशित होगी ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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