Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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द्वितीयोऽध्यायः
भावार्थ यहाँ तक उल्काओं का वर्णन संक्षेप से कहा, अब आगे विस्तार से उल्का का स्वरूप कहूंगा॥१२॥
विशेष—इस अध्याय में भद्रबाहु श्रुत केवली उल्काओं का वर्णन किया है, प्रथम आचार्य ने कहा कि वस्तु स्वभाव विपरीत दिखना ही, उपद्रव का कारण होता, जल, आकाश, वृक्ष, तारा, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र, अग्नि, पवन आदि का जो-जो स्वभाव है उसी रूप रहना तो कुछ उपद्रव का कारण नहीं होता, किन्तु इनमें विपरीतता दिखना ही अनिष्ट का कारण होता है, उसी को लेकर आचार्य कहते हैं, उत्पात तीन प्रकार के रहे हैं। उनमें भूमिगत, अन्तरिक्ष और दिव्य। भूमि में विकार दिखना, भूमिगत उत्पात है, अन्तरिक्ष में विपरीत दिखना, आकाशगत उत्पात है, दिव्य उत्पात, जो दिव्यरूप होते हैं, प्रथम इन उत्पातों में उल्काओं का वर्णन किया है, उल्काओं की उत्पत्ति, फल, आकृति, प्रमाण को कहा, उल्का किसको कहा ? उल्का पाँच भूतों से तैयार होने वाले देवों का शरीर जब स्वर्ग से च्युत होने पर जो प्रकाश दिखता है, उसी का नाम उल्का कहा, उल्का चार प्रकार से कही, तारा, धिष्ण्य, विद्युत, असनी। ये सब उल्का विकार रूप होगी हैं निमित्त पाकर गिरती हैं, तारा उल्का का जो प्रमाण है उससे दुगनी लम्बी उल्का धिष्ण्या है, विद्युत नाम की उल्का बड़ी कुटिल, टेढ़ी-मेड़ी और शीघ्र दौड़ लगाने वाली होती है, असनी नाम की उल्का चक्राकार होती है, पौरूषी उल्का स्वभाव से ही लम्बी और पतन के समय बढ़ती जाती है। तारा नाम की उल्का का फल चतुर्थांस होता है, धिष्ण्या का आधा फल होता है, कमलाकार उल्का का फल शुभ रूप और मंगलकारी होती है, पूजने योग्य होती है। उल्का शुभ रूप और अशुभ रूप दोनों ही प्रकार की होती है, शुभ रूप शुभफल देती है, अशुभ रूप अशुभ फल देती है। जो मिश्ररूप होती है उन का फल मिश्ररूप होता है, किंचित सुख तो किंचित दुःख उत्पन्न करती है, उल्कानो एक पुद्गल है। इन पुद्गलों का ऐसा स्वभाव ही है निमित्तों को पाकर शुभ-अशुभ, मिश्ररूप को धारण करती हैं। इस दूसरे अध्याय में ये ही सब बातों का वर्णन आचार्य ने किया है।
विवेचन—प्रकृति विपरीत परिणमन होते ही अनिष्ट घटनाओं के घटने की संभावना समझ लेनी चाहिए। जब तक प्रकृति अपने स्वभाव रूप में परिणमन करती