Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भल्लेहिगंध
निमित्त शास्त्रम्:
धूवेहि पुज्जावलि बहुवियार देवेहि । संति तव्वदेवा सति तत्थंणिवेदेति ॥ ९० ॥
तू
( भल्लेहिगंध धूवेहि ) जलगंध आदि द्रव्यों से (पूज्जावलिबहुवियारं देवेहि) बहुत प्रकार की पूजा करनी चाहिये (तू संति तव्वदेवा सति तत्थ) उससे वे देव तुष्ट होते हैं ऐसा ( णिवेदंति ) निवेदन किया है।
भावार्थ — देवों को सन्तुष्ट करने से सारे उत्पात की शान्ति हो जाती है, जल गन्ध अक्षतादि से पूजा करनी चाहिये, उससे देव उपद्रव को शान्त कर देते हैं ॥ ९० ॥
करंति
अवमनियाविणासं देवणिच्चंपूया तम्हापुण
( अवमानिया विणासं करंति) देवों का अपमान करने से विनाश होता है ( पूइया अपूएहिं ) अतः उन्हें अपूज्य कभी नहीं रखना चाहिये ( तम्हा) इसलिये ( देवणिच्वंपूया) देव पूजानित्य करना चाहिये (पुणसोहणा भणिया ) इसीमें भलाई
पूड़या
सोहणा
अपूएहिं । भणिया ।। ९१ ॥
भावार्थ — देवों को अपूज्य नहीं रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करनी चाहिये नहीं तो विनाश करते हैं, इसलिये उनकी पूजा प्रतिदिन करे, इसीमें भलाई है ॥ ९१ ॥ णयकुव्वंति विणासं पाय रोये येण दुक्खसंतावं । देवाविआइ विरूधा हवंतिपुर्ण पूइया संत ॥ ९९ ॥
(णयकुब्वंति विणासं) वे देव पूजा करने से विनाश नहीं करते हैं (णय रोये येण दुक्खसंतावं) और दुःख शोक सन्ताप भी नहीं देते है (देवाविआइ विरूधाहवंति ) और विरुद्ध भी नहीं होते हैं (पुणपूइयासंत) इसलिये उनकी पूजा करते रहना चाहिये । भावार्थ- वह देव पूजा करते रहने से सन्तुष्ट रहते है, फिर वह दु:ख, सन्ताप, शोकादिक नहीं देते हैं, विरुद्ध भी नहीं होते हैं। इसलिये उनकी पूजा करते रहना चाहिये ॥ ९२ ॥