Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
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हो तो उसकी प्रारम्भ से ही सब लोग पूजा करते हैं। अगर वाम हाथ में हो तो बुढ़ापे में सब उसकी पूजा करते हैं। 39॥
सत रेखा का फल जिट्ठा अणामिआर्ण मज्झओ णिग्गयाउ वयरेहा।
तम्मूले जाओ पुण ताओ इह धम्मरेहाओ॥ 40॥ (जिट्ठा अणामिआणंमज्झओ) ज्येष्ठा और अनामिका के मध्य से (णिग्गयाउ वयरेहा) निकलने वाली व्रत रेखा होती है। (तम्मूले जाओ पुण) उसके मूल से जो प्रकट होती है (ताओ इह धम्मरेहाओ) उसे धर्म रेखा कहते हैं।
भावार्थ-मध्यमा और अनामिका के मध्य से निकलने वाली रेखा को बुध रेखा कहते हैं। और उसके नीचे से निकलने वाली रेखा को धर्म रेखा कहते हैं। 40 ।।
खोज करने वाली रेखा तासुवरि तिरित्था जा सा पुण मग्गत्तणे भवे रेहा।
अप्फुडिआपल्लवदीहराहिं सो चैव तत्थ घिरो॥4॥ (तासुवरि तिरित्था) उसके ऊपर की रेखा यदि तिरछी हो तो (जा सा पुण मग्यत्तणे भवे रेहा) वह रेखा विशेष पदार्थों की खोज करने वाली रेखा होती है (अप्फुडिआपल्लवदीहराहिं) अगर वह रेखा अस्फुटित हो, अपल्लवित हो और दीर्घ हो तो (सो चैव तत्थ घिरो) उसको अपने कार्य में स्थिर जानो।।
भावार्थ-धर्म रेखा से निकलने वाली रेखा यदि तिरछी हो तो उसकी वह रेखा (मार्गण) विशेष खोज पूर्ण दृष्टि वाली रेखा होती है और वह मार्गण रेखा, फूटी हुई न हो, अपल्लवित हो और दीर्घ हो तो ऐसा मनुष्य खोजपूर्ण कार्य में स्थिर रहने वाला होता है ।। 411।
कुलरेहाए उरि मूलम्भि पएसिणीइ जा रहा। गुरुदेव समरणं तस्स सा वि णिद्देसइ पुरिसस्स ।। 42॥