Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 1232
________________ | बबाहु संहिता | १०५२ चन्द्रबिम्बसमं वक्त्रं धर्मशीलं विनिर्दिशेत् । अश्ववक्त्रो नरो यस्तु दुःखदारिद्रयभाजनम्॥ - यदि मुंह नन्द्रा के जिम्ब जैमा हो, तो धर्मशील, बोड़े के मुख जैसा हो, तो दुःखी और दरिद्र होता हैं। अथ तत् सम्प्रवक्ष्यामि देहावयवलक्षणम् । उत्तमं मध्यमं हीनं समासेन हि कथ्यते॥ अब मैं संक्षेप में शरीर के उन लक्षणों को कहता हूँ जिनसे उत्तम, मध्यम और अधम का ज्ञान होता है। पादौ समांसलौ स्निग्धौ रक्तावर्तिमशोभनौ। उन्नतौ स्वेदरहितौ शिराहिनौ प्रजापतिः ।। जिस पुरुष के पैर मांसयुक्त, चिकने, रक्तिमा लिये हुये, सुन्दर उन्नत और पसीना न देने वाले तथा शिराहीन (ऊपर से शिरा न दिखाई दे-ऐसे) हों वह बहुत प्रजा (सन्तानों) का मालिक होता है। यस्य प्रदेशिनी दीर्घा अंगुष्ठादतिवर्द्धिता। स्त्रीभोगं लभते नित्यं पुरुषो नात्र संशयः॥ जिसकी प्रदेशिनी (पैर के अंगूठे के पास वाली अंगुली) अंगूठे से भी बड़ी हो वह पुरुष नि:सन्देह नित्य ही स्त्रीभोग पाता है। तथा च विकृतैरू: खैर्दारिद् यसाप्नुयात् । पतिताश्च नखा नीला ब्रह्महत्यां विनिर्दिशेत् ॥ विकृत, रूखे नखों वाला पुरुष दरिद्र होता है। गिरे हुए और नील वर्ण के नख से ब्रह्महत्या का निर्देश करना चाहिये।

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