Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
अंगुट्टयस्स मूले जत्ति अमिताऊ थूलरेहाओ।
ते हुंति भाविआकिर तणुआहिँ होति बहिणीओ ॥28॥ (अंगुठ्ठयस्समूले) अंगूठे के मूल में (जत्ति अमिताऊ घूलरेहाओ) जिसरी स्थूल रेखा हो (ते हुंति भाविआकिर) उतने ही उस मनुष्य के भाई होते हैं (तणुअहिं होतिबहिणीओ) और जितनी सूक्ष्म रेखा हो उतनी ही उसकी बहिनें होती है।
भावार्थ-अंगूठे के मूल में जितनी स्थूल रेखा होती है। उतने ही उस मनुष्य के भाई होते हैं। और जितनी सूक्ष्म रेखा हो तो उसकी उतनी ही बहनें होती है।। 28 ॥
पुत्र पुत्रियों की रेखा अंगुट्टयस्स हिढे रेहाओ जस्स जत्तिआ हंति।
तत्ति अमित्ता पुत्ता तणु आहिं दारिया हुंति ।। 29॥
(अंगुद्वयस्स हिढे) अंगूठे के नीचे (जस्स जत्तिआ हुंति) जिस के जितनी रेखा मोटी हो (तत्ति अमित्तापुत्रा) उतने ही उसके पुत्र होते हैं (तणु आहिं दारिया हुंति) अगर वही रेखा सूक्ष्म हो तो उतनी ही उसकी पुत्रियों होती है।
भावार्थ-अंगूठे के नीचे जिसके जितनी मोटी रेखा हो उतने ही उसके पुत्र होते हैं। और जितनी छोटी रेखा हो उतनी ही उसकी पुत्रियाँ होती है।। 29 ॥
जत्तियभित्ता छिण्णाभिण्णा ते दारिआ मुआ जाण।
अच्छिण्णा अन्भिण्णा जीवंति अतत्तिआतणुआ। 30 ।। (जत्तियमित्ताछिण्णाभिण्णा) जितनी रेखा छिन्न-भिन्न हो (ते दारिआ मुआजाण) उतनी ही उसकी सन्तान मरी हुई जानो, (अच्छिण्णा अन्भिण्णा) और जितनी अखण्ड हो (जीवंति अतत्ति आतणुआ) उतनी ही जीवित जानो।
भावार्थ-जितनी रेखा उसमें छिन्न-भिन्न हो उतनी ही सन्तान मरी हुई जानो। और जितनी अखण्ड हो उतनी ही जीवित जानो।। 30 ।।