Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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निमित्त शास्त्रम्
(सयभिसु भद्दवआऊ ) शतभिषा पूर्वाभाद्रपद (पुव्वुत्तरयाविं बहुजलद्दीति ) उत्तराभाद्रपद में पानी बरसे तो बहुत जल की वृष्टि होगी, (रेवई अस्सिणां भरणी) रेवती अश्विनी भरणी ( वसारते सुहिंदित्ति ) में बरसे तो वस्तुओं का भाव श्रेष्ठ होगा । भावार्थ — शतभिषा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद में पानी बरसे तो बहुत जल की वर्षा होती है, रेवती अश्विनी भरणी में वर्षा होने से वस्तुओं का भाव श्रेष्ठ होता है ॥ ९७४ ॥
है।
ए ए रिक्ख व योगा वासास्त्रस्स गब्भकालम्मि | णिच्चं वचिंतयंतोणाणविदगसो हणो होदी ।। १७५ ॥
( ए ए रिक्ख व योगा वासास्त्रस्स) जो नक्षत्रों का योग बताता है (वासास्त्रस्सगब्भकालम्मि) उसी को गर्भ काल माना है ( णिच्चं व चिंतयं तोणाणविदगसोहणी होदी ) ऐसा ज्ञानियों ने कहा है, वैसा ही उसका फल होता
भावार्थ - जो नक्षत्रों का योग बताया है, उसको ही गर्भ काल कहा है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है उसका फल वैसा ही होता है ।। १७५ ।।
केतु योग
अह कालपुत्त चरियं केतुस्स हाणिदु..
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.दि चत्तारिणियमेण ॥ ९७६ ॥
( अहकालपुत्त चरियं) अब काल पुत्र का (केतुस्सहाणिदु) केतु के हानि लाभ का चरित्र कहते है (दि चत्तारिणिपमेण) जो कि चार प्रकार का होता है ।
भावार्थ- अब काल पुत्र केतु का वर्णन आचार्य करते हैं, उसका चरित्र चार प्रकार का है ॥ १७६ ॥
केउस्स सुहानिपुणो सयमिक्कं होड़ असुहरूवेण ।
जत्थेण जत्थ केऊ तं दिसणि सासया होई ॥। १७७ ॥