Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भदाहु संहिता |
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सौराष्ट्र सिन्धु सौवीरान् प्रासीलान् द्राविडाङ्गनाम्। पाञ्चालान् सौरसेनान् वा वाहीकान् नकुलान् वधेत्॥२८॥ मेखलान् वाऽप्य वन्त्यांश्च पार्वतांश्च नृपैःसह।
जिघां सति तदा भौमो ब्रह्म क्षत्रं विरोधयेत्॥२९॥ उक्त प्रकार (भौमो) मंगल (सौराष्ट्र सिन्धु सौवीरान्) सौराष्ट्र देश, सिन्धु देश, सौवीर देश, (प्रासीलान् द्राविडङ्गनाम्) प्रसिल देश, द्रविड देश (पश्चिालान्) पांचाल देश (सौरसेनान) सौरसेन देश (वा वाहीकान्) वाहीक देश व (नकुलान् वधेत्) नकुलों का वध करता है। (मेखलान्) मेखला प्रदेश (वाऽप्यवन्त्यांश्चपार्वतांश्च नृपैःसह) व अवन्ती देश, पार्वती देश के राजाओं का (जिघां सति) विनाश होता है (तदा) तब (ब्रह्मक्षत्र विरोधयेत) ब्राह्मण, क्षत्रियों में भी विरोध होता है।
___ भावार्थ उक्त प्रकार मंगल सौराष्ट्र देश, सिन्धु, सौवीर, प्रसिल देश द्राविड, अङ्ग पांचाल, सौरसेन, वाह्रींक, नकुल, मेखला, अवन्ति, पार्वतीय स्थान के राजाओं सहित सबका नाश करता है या सबको पीडा देता है।। २८-२९ ।।
मैत्रादीनि च सप्तव यदा सेवेत लोहितः।
वक्रेण पापगत्या वा महता मनयं वदेत्॥३०॥ (यदा) जब (लोहितः) मंगल (मैत्रादीनि च सप्तैव सेवेत) अनुराधा आदि सात नक्षत्रों की सेवा करता है और (वक्रेण पापगत्वा) वक्र हो पाप रूप गमन हो (व महता मनयं वदेत्) तो बहुत ही अन्याय होता है, ऐसा कहना चाहिये।
भावार्थ-जब मंगल अनुराधादि सात नक्षत्रों की वक्र रूप या पाप रूप सेवा करता है, तो महान् अन्याय होता है॥३०॥
राजानश्च विरुध्यन्ते चातुर्दिश्यो विलुप्तये।
कुरु पाञ्चालदेशानां मूर्च्छते तद् भयानि च॥३१॥ उक्त प्रकार के वक्र मंगल में (राजानश्च विरुध्यन्ते) राजा का विरोध होता है (चातुर्दिश्योविलुप्तये) चारों वर्गों का लोप होता है (कुरु पाञ्चाल देशानां) कुरु व पांचाल देशों के लोग (मूर्च्छते तद् भयानि च) मूर्छा को प्राप्त होते हैं या वहाँ भय होता है।