Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पइविंशतितमोऽध्यायः
होकर (द्विगाद हस्तिनारूढः) द्विगाढरूप हाथी के ऊपर आरोहण करे (स्वप्ने जायते भीतः) स्वप्न में भयभीत हो तो (सद्धिं लभते सतीम्) निश्चय से समृद्धि को प्राप्त करता है।
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में शुक्ल वस्त्र पहन कर आभुषणों से अंलकृत होता हुआ हाथी के ऊपर सवारी करके डरता है, उसको अवश्य ही समृद्धि प्राप्त होती है।।१९॥
देवान् साधु द्विजान् प्रेतान् स्वप्ने पश्यन्ति तुष्टिभिः।
सर्वे ते सुखमिच्छन्ति विपरीते विपर्ययः॥२०॥ जो (स्वप्ने) स्वप्न में (तुष्टिभिः) संतुष्ट होकर (देवान् साधु द्विजान् प्रेतान्) देवों को, साधुओं को या ब्राह्मणों को देखता है (सर्वे ते सुख मिच्छन्ति) उसको सब प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं (विपरीते विपर्ययः) और उपर्युक्त से विपरीत देखे तो उल्टा फल होता है।
भावार्थ—जो स्वप्न में संतुष्ट होकर देव साधु ब्राह्मण को देखता है उसको सभी प्रकार के सुख मिलते हैं विपरीत देखने पर विपरीत फल होता है॥२० ।।
गृहद्वारविवर्णमभिज्ञाद्वा यो गृहं नरः ।
व्यसनान्मुच्यते शीघ्रं स्वप्नं दृष्ट्वा हि तादृशम्॥२१॥ (यो) जो मनुष्य स्वप्न में (गृहद्वारं) घर द्वार को (विवर्णमभिज्ञाद्वा) विवर्ण रूप देखता है (गृहनर:) उस घर का स्वामी (शीघ्रं व्यसनान्मुच्यते) शीघ्र ही विपत्ति से छूट जाता है (स्वप्नं दृष्ट्वा हि तादृशम्) क्योंकि उसने वैसा ही स्वप्न देखा
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में घर द्वार को विवर्ण रूप देखता है उस घर का स्वामी शीघ्र व्यसन से मुक्त हो जाता है कष्टों से छूट जाता है क्योंकि वह वैसा ही स्वप्न देखता है ।। २१॥
प्रपानं य: पिबेत् पानं बद्धो वा योऽभिमुच्यते।
विप्रस्य सोमपानाय शिष्याणामर्थवृद्धये ॥२२॥ (य:) जो मनुष्य (प्रपानंपिबेत् पानं) स्वप्न में शर्बतादि पीता हुआ देखे (वा: