Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
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अहिर्वा वृश्चिक: कीटो यं स्वप्ने दशते नरम्।
प्राप्नुयात् सोऽर्थवान् य: स यदि भीतो न शोचति ॥५३॥ (स्वप्ने) स्वप्न में (यं) जिस (नरम्) मनुष्य को (अहिर्वा वृश्चिक: कीटो) सांप बिच्छू या कीड़ा (दशते) काटता है और (स:) वह (यदि भीतो न शोचति) यदि डरता नहीं है और जाग्रत हो जाता है तो (सो) वो (ऽर्थवान् प्राप्नुयात्) अर्थ को प्राप्त करता है। ___ भावार्थ-स्वप्न में जिस मनुष्य को सांप या बिच्छू कीड़ा काटता है और वह डरता नहीं है जाग्रत हो जाता है तो उसको बहुत धन की प्राप्ति होती है।। ५३॥
पुरीषं छर्दनं यस्तु भक्षयेन्न च शंकयेत्।
मूत्रं रेत्तश्च रक्तं च स शोकात् परिमुच्यते॥५४॥ जो मनुष्य स्वप्न में (पुरीष) टट्टी (छर्दन) वमन् (मूत्र) मूत्र (रतच्च) वीर्य और (रक्तं) रक्त (यस्तुभक्षयेन च शंकयेत्) आदि इन पदार्थों का भक्षण करता है (सशोकात् परिमुच्यते) वह शोक से शीघ्र छूट जाता है।
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में मल, वमन, मूत्र, वीर्य, रक्त आदि का भक्षण करता हुआ देखता है, वह शोक से शीघ्र छूट जाता है॥५४॥
कालेयं चन्दनं रो धं घर्षणे च प्रशस्यते।
अत्र लेपानि पिष्टानि तान्येव धनवृद्धये॥५५॥ जो मनुष्य में स्वप्न में (कालेयं चन्दनं रोधं) कालागुरु चन्दन, रोन (धर्षणे च प्रशस्यते) को घिसता हुआ प्रशंसा करता है (अत्रलेपानियिष्टानि) उनका लेप करता हुआ व घिसता हुआ देखे तो (तान्येव धनवृद्धये) उसको धन की वृद्धि होती है।
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में कालागुरु चन्दन, रोध्र को घिसता हुआ प्रंशसा करे अथवा उसका अपने पर लेप करे एवं इन पदार्थों को घिसता हुआ देखे तो समझो उसको धन की वृद्धि होती है || ५५ ।।