Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाह संहिता
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(तस्य) उन निमित्तों के (भौमान्तरिक्षादि अष्टौभेदा) भौम अंतरिक्षादिक के भेद से आठ भेद (बुधैर्मता) ज्ञानीयों को जानना चाहिये (ते सर्वेऽप्यत्रविज्ञेया:) उन सब को यहां जानना चाहिये (प्रज्ञावद्भिर्विशेषत:) और विशेष कर बुद्धिमानों को।
भावार्थ-उन निमित्तों के भौम अन्तरिक्ष आदि के भेद से आठ भेद होते हैं। उन आठ प्रकार के निमित्तों का उपयोग आयु ज्ञान के लिए वर्णन विशेषकर विद्वानों को यहाँ जानना चाहिये ॥३॥
व्याधेः कोटय:पञ्च भवन्त्यष्टाधिकषष्टिलक्षाणि।
नवनवति सहस्राणि पत्रशती चतरशीत्यधिकाः॥४॥ मनुष्य के शरीर में (पञ्च कोटयः) पाँच करोड़ (भवन्त्याष्टधिकषष्टिलक्षाणि) अड़सठ लाख (नवनवति सहस्राणि) निन्यानवे हजार (पञ्चशतीचतुरशीत्यधिकाः व्याधे:) पांच सौ चौरासी रोग होते है।
भावार्थ-मनुष्य के इस शरीर में पांच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पांच सौ चौरासी रोगों की संख्या बताई गई है।। ४ ।।
एतत्संख्यान् महारोगान् पश्यन्नपि न पश्यति।
इन्द्रियैर्मोहितो मूढः परलोकपराङ्मुखः ॥५॥ (एतत्संख्यान् महारोगान्) इतनी संख्या से युक्त यह मनुष्य शरीर महारोगों से भरा हुआ है (पश्यन्नपि न पश्यति) जो देखता हुआ भी नहीं देखता है (इन्द्रियैर्मोहितो मूढः) इन्द्रियों के विषय में मूढ होता हुआ (परलोकपराङ्मुख:) परलोक से पराङ् मुख हो रहा है
भावार्थ-यह मनुष्य शरीर इतने प्रकार के महारोग से ग्रसित है फिर भी मनुष्य इसको देखता हुआ भी नहीं देख रहा है और परलोक से पराङ्मुख होता हुआ इन्द्रिय के विषय में मूढ़ हो रहा है।॥५॥
नरत्वे दुर्लभेप्राप्ते जिनधर्मे महोन्नते।
द्विधासल्लेखनां कर्तुं कोऽपि भव्यः प्रवर्तते॥६॥ (दुर्लभे नरत्वे प्राप्ते) दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त कर (जिन धर्मेमहोन्नते) जिसने
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