Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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परिशिष्टाऽध्यायः
निजान्नैवेष्टयेद् ग्रामं स भवेन् मण्डलाधिपः ।
नगरं वेष्टयेद्यस्तु स पुनः पृथिवीपतिः ।। ११२॥ जो स्वप्न में (निजान्नै र्वेष्टयेद् ग्रामं) शरीर की नशों से ग्राम को वेष्टित करता हुआ देखे तो समझो (स) वह (मण्डलाधिप: भवेन्) मण्डलेश्वर होता है (नगरं वेष्ययेद्यस्तु) अगर नगर को वेष्टित करता हुआ देखे तो (स) वह (पुनः) द्वारा (पृथिवीपतिः) पृथ्वीपति हो जाता है।
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने शरीर की नशों से ग्राम को वेष्टित करता हुआ देखे तो वह मंडलाधिप बनता है और नगर को वेष्टित करता हुआ दिखे तो वह पृथ्वीपति होता है॥११३ ।।
सरोमध्ये स्थित: पात्रे पायसं यो हि भक्षते।
आसनस्थस्तुनिश्चिन्त: स महाभूमियो भवेत्॥११३॥ (यो हि) जो व्यक्ति स्वप्न में (सरोमध्येस्थित: पात्रे) सरोवर के मध्य में खड़ा होकर पात्र में (पायसं भक्ष्यति) क्षीर को खाता हुआ देखे और वह भी (आसनस्थ स्तुनिश्चिन्त:) निश्चित आसन से तो (समहाभूमिपोभवे) वह महा भूमिपति होता
भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में सरोवर के अन्दर पात्र में खीर खाता हुआ देखे और वह भी एक आसन से तो वह मनुष्य भूमिपति होता है ।। ११३॥
देवेष्टा पितरो गात्रो लिङ्गिनो मुखस्थस्त्रियः।
वरं ददति यं स्वप्ने सस्तथैव भविष्यति ॥११४॥
जो (स्वप्ने) स्वप्न में (देवेष्टापतिरो) देव पितर (लिङ्गिनोगात्रो) लिङ्धारी (मुखस्थस्त्रियः) एवं साधु भक्त स्त्री पूजा करने वाली (वरंददाति) अगर वर को देती है तो (सस्तथैवभविस्यति) उसको वैसा ही फल होता है।
__ भावार्थ-जो स्वप्न में देव पितर एवं साधु भक्त स्त्री अगर वरदान देती हुई दिखे तो उसको वैसा ही फल प्राप्त होता है।। ११४ ।।