Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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षड्वंशतितमोऽध्यायः
यानं सितमाल्यस्य
श्वेतमांसासनं श्वेतानां वाऽपि द्रव्याणां स्वप्ने
धारणम् । दर्शनमुत्तमम् ॥ ६९ ॥
( श्वेतमांसासन) श्वेतमांस श्वेत आसन, (यानं सितमाल्यस्य धारणम्) श्वेत सवारी, श्वेत माला का धारण करना दिखे अथवा (श्वेतानां वाऽपि द्रव्याणां ) श्वेत द्रव्यों का देखना (स्वप्ने दर्शनमुत्तमम् ) स्वप्न उत्तम होता है इनका दर्शन अच्छा फल देता है।
भावार्थ-यदि स्वप्न में सफेद मांस, सफेद सवारी, सफेद आसन व सफेद माला का धारण करना दिखे तो वा अन्य कोई सफेद द्रव्य दिखे तो समझो इसका फल दृष्टा को अच्छा होगा यह स्वप्न उसके लिये उत्तम है । ६९ ॥
योऽभिरूढः
बलीवर्दयुतं यानं
प्रधावति । प्राची दिशमुदीचीं वा सोऽर्थलाभमवाप्नुयात् ॥ ७० ॥
जो व्यक्ति स्वप्न में (प्राचीं दिशमुदीचीं वा ) पूर्व या उत्तर दिशा की और ( बलीवर्दयुतं यानं) बल से युक्त सवारी पर ( योऽभिरूढ: प्रधावित) आरोहण कर दौड़ता है (सो) वह (अर्थलाभमवाप्नुयात्) अर्थ लाभ को प्राप्त करता है।
भावार्थ — जो व्यक्ति स्वप्नमें पूर्व या उत्तर दिशा की और बैल से युक्त सवारी पर आरोहण कर दौड़ता है तो उसे बहुत धन की प्राप्ति होती है ॥ ७० ॥
नगवेश्म पुराणं तु दीप्तानां तु शिरस्थितः ।
यः स्वप्ने मानवः सोऽपि महीं भोक्तुं निरामयः ॥ ७१ ॥
( यः स्वप्ने ) जो स्वप्न में (मानव:) मनुष्य ( नग वेश्मपुराणं तु) पर्वत या घर पुराणा ( दीप्तानां ) खंडहर को ( शिरस्थितः ) शिर पर स्थित देखता है (सोऽपि मंहीं भोक्तुं निरामयः) वह भी इस पृथ्वी को निरामय होकर भोगता है।
भावार्थ- जो मनुष्य स्वप्न में पर्वत, महल या पुराना खंडहर को अपने सिर पर स्थित देखता है वह पृथ्वी का निरामय होकर पालन करता है ॥ ७१ ॥
मृण्मयं
नागमारूढः
सागरे
प्लवतेहितः । तथैव च विबुध्येत सोऽचिराद् वसुधाधिपः ॥ ७२ ॥