Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
जो स्वप्न में (अलंकृत्वारसंपीत्वा) अपने को वस्त्राभरणों से अलंकृत देखता है रस पीता हुआ देखे (यस्य वस्त्रयाश्चयद् भवेत्) जिस के वस्त्र सुन्दर से और (अगभ्यागमनं चैव) जो स्त्री पूज्य है उसके साथ रमण करता देखे तो (सौभाग्यस्याभिवृद्धये) सौभाग्य की वृद्धि होती है ऐसा समझो।
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में अपने को वस्त्राभरणों से अलंकृत देखे, रस पीता हुआ देखे और अगम्य स्त्री के साथ रमण करता हुआ देखे तो सौभाग्य की। वृद्धि होती है।। २८॥
शून्यं चतुष्पथं स्वप्ने यो भयं विश्य बुध्यते।
पुत्रं न लभते भार्या सुरूपं सुपरिच्छदम् ।। २९॥ (यो स्वप्ने) जो स्वप्न में (शून्यं चतुष्पथं) शून्यनिर्जन स्थान चौराहे पर (भयं विश्य बुध्यते) भय से अपने को देखता है और फिर नींद से जाग्रत हो जाय तो (सुरूपं) सुन्दर (सुपरिच्छदम्) और गुणों से युक्त (पुत्रं न लभते) पुत्र प्राप्त नहीं करती (भार्या) उसकी स्त्री।
भावार्थ-जो स्वप्न में शून्य चौराहे पर भय से प्रविष्ट होता हुआ अपने आपको देखे और उसकी नींद खुल जावे तो उसकी स्त्री सुन्दर और गुणों से युक्त पुत्र की प्राप्ति नहीं करती है अर्थात् उसके सुन्दर पुत्र पैदा नही होता है॥२९॥
वीणां विषं च वल्लकी स्वप्ने गृह्य विबुध्यते।
कन्यां तु लभते भार्या कुलरूपविभूषिताम् ।।३०॥ (स्वप्ने) स्वप्न में जो व्यक्ति (वीणां विषंच बल्लकी) वीणा, विष और वल्ली को (गृह्य) ग्रहण कर (विबुध्यते) जाग्रत हो जाता है उसकी (भार्या) स्त्री (कुलरूपविभूषिताम्) कुल रूप यौवन से विभूषित (कन्यां तु लभते) कन्या होती
है।
भावार्थ-जो व्यक्ति स्वप्न में वीणा, विष और लता को ग्रहण कर जाग्रत हो जाता है उसकी स्त्री रूप से व कुल से विभूषित कन्या की प्राप्ति करती है। अर्थात उसके लड़की होती है॥३०॥