Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
भद्रबाहु संहिता
नागाग्रे वेश्मनः सालो यः स्वप्ने चरते नरः । सोऽचिराद् वमते लक्ष्मी क्लेशं चाप्नोति दारुणम् ॥ ४० ॥
७१८
(यः) जो ( नरः) मनुष्य (स्वप्ने) स्वप्न में (नागाग्रेवेश्मनः सालो चरते ) महल, कोट, परकोटा पर चढ़ता हुआ देखे तो (सोऽचिराद् वमते लक्ष्मी ) वह चिरकाल की प्राप्त की हुई लक्ष्मी का त्याग करता है (दारुणम् क्लेशं चाप्नोति ) और भयंकर दुःख उठाता है।
भावार्थ -- जो मनुष्य स्वप्न में अपने को परकोटे अथवा महल पर चढ़ता हुआ दिखे तो चिरकाल तक प्राप्त की हुई उसकी लक्ष्मी नष्ट हो जाती है और उसको भयंकर कष्ट उठाना पडता है ॥ ४० ॥
च ।
दर्शनं ग्रहणं भनं शयनासन मेव प्रशस्तमाम मांसं च स्वप्ने वृद्धिकरं हितम् ॥ ४१ ॥
( स्वप्ने) स्वप्न में (मांस) मांस का ( दर्शनंग्रहणं भनं ) दर्शन, ग्रहण, भन ( शयनासनमेवच ) और शयन, आसन करना ( प्रशस्तमाम वृद्धिकरं हितम् ) प्रशस्त और वृद्धि कारक व हितकर होता है।
भावार्थ - यदि स्वप्न में मनुष्य मांस का दर्शन करता है अथवा ग्रहण करता है, भग्न होता है अथवा शयन आसन करना प्रशस्त माना गया है वृद्धि कारक माना गया है और हित कर माना गया है ॥ ४१ ॥
पक्कमांसस्य
घासाय भक्षणं ग्रहणं
तथा ।
स्वप्ने व्याधि भयं विन्द्याद् भद्रबाहुवचो यथा ॥ ४२ ॥
(स्वप्ने) स्वप्न में (पक्कमांसस्य) पका हुआ मांस का ( घासाय भक्षणं ग्रहण तथा ) घास तथा खाना व ग्रहण करना देखे तो ( व्याधि भयं विन्द्याद्) व्याधिभय होता है ऐसा जानना चाहिये (भद्रवाहुवचोयथा ) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का बचन
है।
भावार्थ — यदि स्वप्न में मनुष्य पका मांस का भक्षण करे ग्रहण करे तो उसे रोग भय होगा ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है ॥ ४२ ॥
!