Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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| कविंशतितमोऽध्यायः
विषेण नियते यस्तु विषं वाऽपि पिबेन्नरः।
सयुक्तो धनधान्येन वध्यते न चिराद्धि सः॥३१॥ जो मनुष्य स्वप्न में (विषं पिबेन्नरः) विषको पीता हुआ देखे (वाऽपि) और भी (विषेणम्रियतेयस्तु) विष से मरता हुआ तो (सयुक्तो धनधान्येन) वह धन धान्य से युक्त होता है (स:) वह (चिराद्धि न वध्यते) चिरकाल तक बंधन में नहीं पड़ता
भावार्थ-जो मनुष्य स्वप्न में विषको पीता हुआ देखे वा उससे मरता हुआ देखे तो वह शीघ्र ही धन धान्य से पूर्ण होता है और चिरकाल तक धन में नहीं पड़ता है।। ३१॥
उपाचरन्नासवाज्ये मृति गत्वाप्यकिञ्चनः।
बूयाद् वै सद्वचः किञ्चिन्नासत्यं वृद्धये हितम् ।। ३२॥ यदि स्वप्न में (उपाचरन्नासवाज्ये) व्यक्ति आसव या घृत को पीते हुए दिखे (मृति गत्वाप्यकिञ्चनः) अथवा निसहाय होकर अपने को मरता हुआ देखे तो (बूयाद् वैसद्वचः) निमित्त ज्ञानी को सत्य वचन बोलना चाहिये (किञ्चिन्नासत्यंवृद्धयेहितम्) कुछ भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये क्योंकि वृद्ध पुरुषों के लिये हितकारी
नहीं है।
भावार्थ-जब स्वप्न में व्यक्ति अपने आपको आसव पीता हुआ देखे अथवा घृत पीता हुआ देखे तो निमित्त ज्ञानी को वहां पर सत्य वचन बोलना चाहिये कुछ भी असत्य न कहे क्योंकि वृद्ध पुरुषों के लिये हितकारी नहीं है, ऐसे स्वप्न आने पर शांति --" अवश्य करे॥३२॥
प्रतयुक्तं समारूढो दंष्टियुक्तं च यो रथम्।
दक्षिणाभिमुखो याति म्रियते सोऽचिरान्नरः॥३३॥ जो स्वप्न में (प्रेतयुक्तं) मरणकाल स्वप्न प्रेतयुद्ध (दंष्ट्रियुक्तं) अथवा गो से युक्त (च यो रथम् समारूढों) रथ पर आरूढ (दक्षिणाभिमुखोयाति) होकर दक्षिण दिशा में अपने को : ता हुआ देखे तो (सो नर:) वह मनुष्य (अचिराभ्रियते) शीघ्र मर जाता है।