Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
है। राज्यभेद हो जाता है। और वहाँ पर मांस रक्त का कीचड़ करने वाला युद्ध होता है॥१९-२०॥
यदा सप्तदशे ऋक्षे पुनरष्टादशेऽपि वा। प्रजापति निवर्तेत तद् वर्क लोहमुद्गरम्॥२१॥ निर्दया निरनुक्रोशा लोहमुद्गर सन्निभाः।
प्रणयन्ति नृपा दण्डं क्षीयन्ते येन तत्प्रजाः ॥२२॥ जब (प्रजापति) मंगल (सप्तदशे) सतरहवें (पुनरष्टादशेऽपि वा) या अठारहवें (ऋक्षे) नक्षत्र पर (निवर्तेत) छुटता है तो (तद् वक्र लोहमुद्गरम्) उस वक्र को लोह मुद्गर वक्र कहते हैं। ऐसे (लोहमुद्गर सन्निभा:) लोहमुद्गर वक्र में (निर्दया निरनु क्रोशा) जीवों की प्रवृत्ति निर्दय हो जाती है, जीव क्रोधी बन जाते हैं (नृपा दण्डं प्रणयान्ति) राजा का दण्ड प्रणयन करता है (येन) इस कारण से (तत्प्रजा; क्षीयन्ते) उसकी प्रजा क्षीण होती है।
भावार्थ-जब मंगल सतरहवें या अठारहवें नक्षत्र पर छट जाता है, तो उस वक्र को लोहमुद्गर वक्र कहते है, ऐसे वक्र में जीवों की प्रवृत्ति निर्दय हो जाती है जीव क्रोधी बन जाते हैं राजा दण्डों को लागू करता है। इस कारण प्रजा क्षीण हो जाती है।। २१-२२॥
धर्मार्थ कामा हीयन्ते विलीयन्ते च दस्यवः।
तोय धान्यानि शुष्यन्ति रोगमारी बलीयसी॥२३॥ उपर्युक्त वक्र में (धर्मार्थकामा हीयन्ते) धर्म, अर्थ, काम क्षीण होते है (विलीयन्ते च दस्यवः) चोरादिक विलीन हो जाते हैं (तोय धान्यानि शुष्यन्ते) पानी धान्य सब सूख जाते हैं (रोग मारी बलीयसी) रोग मारी बलवान हो जाते हैं।
भावार्थ-उपर्युक्त वक्र में धर्म, अर्थ, काम नष्ट हो जाता है, चोरादिक विलीन होते हैं पानी और धान्य सब सूख जाते हैं॥२३॥
वक्रं कृत्वा यदा भौमो विलम्बन गति प्रति। वक्रानु वक्रयो र मरणाय समीहते ॥ २४॥