Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
(यदा) जब (भौमो) मंगल (वक्रं कृत्वा) टेढ़ा होकर (विलम्बेनगतिप्रति) विलम्ब से करता है तो (वक्रानु वक्रयो) उसको वक्रनु वक्र कहते हैं (ोर मरणाय समीहते) यह वक्र घोर मरण उपस्थित करता है।
भावार्थ-जब मंगल टेढ़ा होकर विलम्ब से गमन करता है, वक्र को वक्रानुवक्र कहते हैं। ऐसे वक्र में घोर मरण होता है॥ २४ ॥
कृत्तिकादीनि सप्तेह वक्रेणाङ्गारकश्चरत् ।
हररः या दक्षिारिन्ठेद सा लक्ष्यामि यत् फलम्॥२५॥ (अङ्गारक) यदि मंगल (कृत्तिकादीनि) कृत्तिका दिन क्षेत्रों पर (वक्रेण) वक्र रूप (चारेत्) गमन करे (हत्वा) घात करे व (वा दक्षिणस्तिष्ठेत्) दक्षिण में ठहरे तो (तत्र) उसके (यत फलम् वक्ष्यामि) यहाँ पर फल को कहता हूँ।
भावार्थ-यदि मंगल कृत्तिकादि सात नक्षत्रों पर गमन करे व घात करे व दक्षिण में ठहरे तो उसका फल यहाँ पर कहता हूँ। २५ ।।
साल्वांश्च सार दण्डौ श्च विप्रान् क्षत्रांश्च पीडयेत् ।।
मेखलाश्चानयो? मरणाय समीहते॥२६॥
उक्त प्रकार का मंगल (साल्वांश्च) साल्वदेश (सारदण्डश्च) सार दण्ड (विप्रान्) विनों को (क्षत्रांश्च) क्षत्रियों को (पीडयेत्) पीड़ा देता है (मेखलाश्चानयो गुँर) और वैश्यों को घोर (मरणाय समीहते) मरण देता है।
भावार्थ-उक्त प्रकार का मंगल साल्वदेश, सार देश और ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों को घोर पीड़ा व मरण भय उपस्थित करता है॥२६॥
मघादिनि च सप्तैव यदा वक्रेण लोहितः।
चरेद् विवर्णस्तिष्ठेत् वा तदा विन्द्यान्महद्भयम् ॥ २७॥ (यदा लोहितः) जब मंगल (चक्रेण) वक्र होकर (मघादिनि च सप्तैव) मघादि सात नक्षत्रों पर (विवर्णस्तिष्ठेत् वा चरेत्) विवर्ण होकर चले व ठहरे तो (तदा) तब (महद्भयम् विन्द्याद) महान भय उपस्थित होगा।
भावार्थ-जब मंगल वक्र होकर मघादि सात नक्षत्रों पर विवर्ण होकर ठहरे और चले तो महा भय उपस्थित होगा।॥२७॥