Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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एकविंशतितमोऽध्यायः
तथा नक्षत्रादिक भी नहीं है (आकस्मिको भवत्येव) आकस्मिक ही (कदाचिदुदितोग्रह:) यह ग्रह उदित हो जाता है।
भावार्थ-केतु के उदय का न कोई काल है न कोई नक्षत्र यह तो जब तभी अकस्मात उदय हो जाता है।। ४१॥
षट् त्रिंशत् तस्य वर्षाणि प्रवासः परमः स्मृतः।
मध्यमः सप्तविंशं तु जघन्यस्तु प्रयोदश॥४२॥ (तस्य) उस केतु का (षट्त्रिंशत वर्षाणि) ३६ वर्ष तक उत्कृष्ट (प्रवास:) प्रवास (परमः स्मृतः) परम जानो (मध्यमः सप्तविंशतु) और मध्यम सत्ताइस वर्ष जानो (जघन्यस्तु त्रयोदश) जघन्य तेरह वर्ष जानो।
भावार्थ-उस केतु के प्रवास का काल उत्कृष्ट ३६ वर्ष मध्यम सत्ताइस वर्ष, जघन्य तेरह वर्ष का होता है।। ४२॥
एते प्रयाणा दृश्यन्ते येऽन्ये तीव्रभयाहते।
प्रवासं शुक्र वच्चास्य विन्धादुत्पातिकं महत्।। ४३॥ (एते प्रयाणा दृश्यन्ते) इतने केतु प्रमाण दिखते है (येऽन्ते तीव्र भयाहते) उनमें तीव्र भय करते हैं (प्रवासं शुक्रवच्चास्य) इसमें शुक्र के समान ही (विन्द्यादुत्पातिकं महत्) महान् उत्पात कारक है।
भावार्थ—इतने केतु के प्रमाण है वह भय को करते हैं और शुक्र के समान ही महान् उत्पात करते हैं॥४३॥
धूमध्वजो, धूमशिखो धूमार्चिधूमतारकः ।
विकेशी विशिखश्चैव मयूरो विद्धमस्तकः॥४४॥ (धूमध्वजो, धूमशिखो) धूम ध्वज, धूम शिखो (धूमार्चि:) धूमार्चि (धूमतारक:) धूमतारक (विकेशी) विकेशी, (विशिखश्चैव) विशिख और (मयूरो) मयूर (विद्धमस्तक:) विद्धमस्तक।
भावार्थ-धूमध्वज, धूपशिखो, धूर्माचि, धूमतारक, विकेशी, विशिख, मयूरो, विद्ध मस्तक॥४४॥