Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
भावार्थ-मंगल यदि सभी द्वारों को देखता हुआ विलम्ब से दक्षिण में जाता है तो सभी लोक का हित करता है॥१०॥
पञ्चवक्राणि भौमस्य तानि भेदेन द्वादश।
उणं शोषमुर्ण व्यावं लोहिय लोएमुद्गरम् ।। ११॥ (भौमस्य) मंगल के (पञ्चवक्राणि) पाँच वक्र होते हैं (तानि भेदेन द्वादश) और उसके बारह भेद भी होते हैं (उष्णं) उष्ण (शोषमुखं) शोषमुख (व्यालं) व्याल (लोहित) लोहित (लोहमुद्गरम्) और लोह मुद्गर ये पाँच मुख्य है।
भावार्थ-मंगल के पाँच वक्र होते हैं, उनमें बारह भेद भी होते हैं, उष्ण, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोह मुद्गर ये पाँच मुख्य हैं॥११॥
उदयात् सप्तमें ऋक्षे नवमे वाऽष्टमेऽपि वा।
यदा भौमो निवर्तेत तदुष्णं वक्रमुच्यते ॥१२॥ (यदा भौमो) जब मंगल (उदयात् सप्तमे ऋक्षे) उदय के सात नक्षत्र पर (नवमे वाऽष्टमेऽपि वा) व आठवें या नवमें पर हुआ हो और (यदाभौमोनिवर्तेत) जब वह निवर्तित हो तो (तदुष्णं वक्र मुच्यते) उसको उष्ण चक्र कहते है।
भावार्थ-जब मंगल उदय के सातवें या आठवें या नवें नक्षत्र पर वह निवर्तित हो तो उसको ही उष्ण वक्र कहते हैं ।। १२॥
सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया विष क्रीटाग्नि मूछनम्।
ज्वरोजन क्षयोवाऽपितज्जातां ना विनाशनम्॥१३॥ __ इस प्रकार के उष्ण वक्र में (सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया) प्रबल सुवृष्टि होगी ऐसा जानो, (विष क्रीटाग्नि मूर्च्छनम्) विष, कीड़े, अग्नि, मूर्छा (ज्वरोजनक्षयो वाऽपि) ज्वर, जनक्षय और भी (तज्जातां ना विनाशनम्) उसी प्रकार के रोगादि और विनाश होता है।
भावार्थ-उष्ण वक्र में सुवृष्टि अच्छी होती है विष भय, अग्नि भय, कीड़ों का भय, मूर्छा रोग, ज्वर, जनक्षय आदि उसी प्रकार का जन विनाश होता है॥१३॥