Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पञ्चदशोऽध्यायः
ग्रहचार का लक्षण अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ग्रहचारं जिनोदितम्।
तत्रादितः प्रवक्ष्यामि शुक्रचारं निबोधत ॥१॥ (अथात:) अब मैं (जिनोदितम्)) भगवान के द्वारा कहा हुआ (ग्रहचार) ग्रहचारको (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (तत्रादित:} उसमें पहले (शुक्रचार) शुक्राचार को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (निबोधत) आप सब जानो।
भावार्थ-अब मैं जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ ग्रहवार को कहूँगा, उसमें सबसे पहले शकानार याने शक के संचार को कहूँगा। सो आप सबके लिये अच्छी तरह से जानने के योग्य है||१||
भूतं भव्यं भववृष्टिमवृष्टिं भयमग्निजम्।
जयाऽजयोरुजं चापि सर्वान् सृजति भार्गवः ॥२॥ (भूतं भव्य) भूतकाल, भविष्यतकाल (भवद्) फल, (वृष्टिं) वर्षा (अवृष्टि) वर्षा का नहीं होना (भयम्) भय (अग्निजम्) अग्निका प्रकोप, (जयाऽजयोरुज) जय, पराजय, रोग (चापि) आदि भी (सर्वान्) सबको (सृजति) सृजन (भार्गव:) शुक्र करता है।
भावार्थ-भूत, भविष्यत, फल, वर्षा, अवृष्टि, भय, अग्नि का प्रकोप जय, पराजय, रोग आदि सबकी उत्पत्ति शुक्र करता है।। २॥
नियन्ते वा प्रजास्तत्र वसुधा वा प्रकम्पते।
दिवि मध्ये यदा गच्छेदर्धरात्रेण भार्गवः ॥३॥ (यदा) जब (दिविमध्ये अर्धरात्रेण भार्गव:) सूर्य कि स्थिति में स्थित होकर अर्ध रात्रि में शुक्र जब (गच्छेद) संचार करता है तो (तत्र) वहाँ पर (प्रजाः म्रियन्ते बा) प्रजा मर जाती है वा (वसुधा वा प्रकम्पते) पृथ्वी काँपती है।