Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पञ्चदशोऽध्यायः
का वर्ण (सूर्यप्रभानुगः) सूर्य की प्रभा के समान लाल वर्ण होता है (वसन्त ग्रीष्मे च पीतो) वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में पीला वर्ण होता है, और (शुक्लस्यानित्य सूर्यत:) नित्य ही सूर्य की प्रभा के अनुसार शुक्रवणं शुक्र का होता है।
भावार्थ-हेमन्त और शिशिर ऋतु में शुक्र का वर्ण उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान लाल होता है, वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में शुक्र का वर्ण पीला होता है, और अन्य ऋतु में शुक्र का वर्ण सफेद सूर्य के समान होता है। २२६॥
अतोऽस्य येऽन्यथाभावा विपरीता भयावहाः।
शुक्रस्यभयदो लोके कृष्णे नक्षत्र मण्डले।। २२७॥ (अतोऽस्य येऽन्यथा भावा) उपर्युक्त प्रतिपादित वर्गों से यदि (शुक्रस्य) शुक्र का (विपरीता) विपरीत वर्ण दिखे तो (भयावहाः) भय का उत्पादक है (लोके) लोक में (कृष्ण नक्षत्र मण्डले भयदो) कृष्ण नक्षत्र मण्डल है, वह भय को उत्पन्न करता है।
भावार्थ-उपर्युक्त शुक्र के जो वर्ण कहे गये है, उनसे विपरीत वर्णों का दिखाई देना ही भयावह है, कृष्ण नक्षत्र मण्डल में भी शुक्र भय को उत्पन्न करता है।। २२७॥
पूर्वोदये फलं यत् तु पच्यतेऽपरतस्तु तत्।
शुक्रस्या परतोयत्तु पच्यते पूर्वतः फलम्॥२२८॥ (पूर्वोदये फलं यत् तु) जो पूर्वोदय का फल है वहीं फल (पच्यतेऽपरतस्तु तत्) पश्चिमोदय का है और जो (शुक्रस्यापरतोयत्तु) शुक्र का पश्चिम का फल है वही (पच्यते पूर्वतः फलम्) फल पूर्व के शुक्र का है।
भावार्थ-शुक्र के पूर्व उदय का जो फल होता है वही फल पश्चिम में उदय का है और जो फल पश्चिमोदय का है, वही फल पूर्वोदय का होता है इसमें किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं होता है॥२२८॥
एवमेवं विजानीयात् फल पाको समाहितः।
कालातीतं यदा कुर्यात् तदा घोरें समादिशेत्॥२२९॥ (एवमेवं विजानीयात्) इस प्रकार शुक्र के फल को जानना चाहिये, (फल