Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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षोडशोऽध्यायः
शनिवार वर्णन अतः परं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभ विचेष्टितम्।
यच्छ्रुत्वाऽवहितः प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रितः ॥१॥ (अत:) अब मैं शनि की (शुभाशुभविचेष्टितम्) शुभाशुभ चेष्टा को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यच्छ्रुत्वाऽवहितः) जिसको सुनकर (प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रित:) बुद्धिमान सुखी होते हैं।
भावार्थ-अब मैं शनि की शुभाशुभ चेष्टा को कहूँगा जिसको की सुनकर बुद्धिमान ज्ञानी सुखी होते है॥१॥
प्रवासमुदयं वनं गतिं वर्ण फलं तथा।
शनैश्चरस्य वक्ष्यामि शुभाशुभ विचेष्टितम् ॥२॥ (शनैश्चरस्य) अब मैं शनि के (प्रवास) प्रवास (उदयं) उदय, (वक्रं) वक्र (गति) गति (वर्ण) वर्ण (फलं) उसका फल के (शुभाशुभ विचेष्टितम्) चेष्टाको (वक्ष्यामि) कहूंगा।
भावार्थ-अब मैं शनि के प्रवास, उदय, वक्रता, गति, वर्ण, फलादिक के शुभाशुभ की चेष्टा को कहूंगा॥२॥
प्रवासं दक्षिणे मार्गे मासिकं मध्यमे पुनः। दिवसा:
पञ्चविंशतिस्त्रयोविंशतिरुत्तरे॥३॥ (प्रवासं दक्षिणेमार्गे) यदि शनि का प्रवास दक्षिणमें (मासिक) एकमहीने का (पुन: मध्यमे पञ्चविंशतिः दिवसाः) पुनः पच्चीसदिन का मध्यम और (रुतरे) उत्तर में (प्रयोविंशति) तेइस दिन का शनि अस्त रहता है।
भावार्थ-यदि शनि का प्रवास और अस्त दक्षिण में एक महीने का मध्यम पच्चीस दिनका और उत्तर में तेइस दिन का होता है॥३॥