Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता |
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विशाखा नृपभेदश्च पूर्वतोयं विनिर्दिशेत् ।
ज्येष्ठा मूले जलं पश्चाद् मित्रभेदश्च जायते॥३०॥ (विशाखा नप भेदश्च) वैशाख नामक वर्ष में राजाओं के अन्दर परस्पर मतभेद होता है (पूर्वतोपं विनिर्दिशेत्) जल की वर्षा अच्छी होती है, (ज्येष्ठा मूले जल) ज्येष्ठा नाम वर्ष में जो मूल नक्षत्र के मासिक होने पर आता है, उसमें वर्षा अच्छी होती है (पश्चाद् मित्रभेदश्च जायते) पश्चात् मित्रभेद ही जाता हैं।
भावार्थ-विशाखा नक्षत्र में परस्पर राजाओं में मतभेद होता है, थोडी वर्षा होती है,ज्येष्ठा मूल में पानी की वर्षा होती है पीछे से मित्रभेद भी हो जाता है।। ३०॥
आषाढे तोयसंकीर्ण सरीसृप समाकुलम्।
श्रावणे दांष्ट्रिणश्चौरा व्यालाश्च प्रबला स्मृताः॥ ३१॥ (आषाढे तोयसंकीर्ण) आषाढ़ नामक वर्ष में जलकी कमी होती है (सरीसृपसमाकुलम्) सरीस्पों की वृद्धि होती है (श्रावणे) श्रावण नामक वर्ष में (दंष्ट्रिणश्चौरा) चोर और दांत वाले जन्तु बहुत होते हैं।
भावार्थ-आषाढ़ नामक वर्ष में जलकी कमी होती है, सरीसृपों की वृद्धि होती है चोर ज्यादा होते हैं और दांत वाले पशु-पक्षी बहुत हो जाते हैं।। ३१॥
संवत्सरे भाद्रपदे शस्त्र कोपाऽग्नि मूर्छनम्।
सरीसृपाश्चाश्वयुजि बहुधा वा भयं विदुः॥३२॥ (भाद्रपदे संवत्सरे) भाद्रपद नामके संवत्सर में (शस्त्रकोपाग्नि) शस्त्रकोप, अग्नि प्रकोप (सरीसृपाश्चाश्वयुजि) और अश्विनी नामक संवत्सर में सरीसृपों की (बहुधा) बहुत उत्पत्ति होती है (वा भयं विदुः) व भय होता है।
भावार्थ-भाद्रपद नाम संवत्सर में शस्त्रकोप अग्नि का प्रकोप होता है, और अश्विनी संवत्सर में बहुत ही सरीसृप उत्पन्न होते हैं, व कोई भय उपस्थित होता है॥३२॥
एते संवत्सराचौक्ताः पुष्यस्य परतोऽपि वा।
रोहिण्यामा॑स्तथाश्लेषा हस्त: स्वाति: पुनर्वसुः ॥३३॥ (एते संवत्सराश्चौक्ताः) इतने संवत्सर कहे गये हैं वो (पुष्यस्य परतोऽपि वा)