Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
५१७
सप्तदशोऽध्यायः
उत्पन्न होती है, विवर्ण होने पर व पाप के स्थान पर होने से पुष्प और फल थोड़े ही आते हैं॥१३॥
प्रतिलोमाऽनुलोमो वा पञ्च संवत्सरो यदा।
नक्षत्राण्युपसर्पेण तदा सृजति दुस्समाम् ॥१४ ।। (यदा) जब (बृहस्पति) अपने (पञ्चसंवत्सरो) पाँच संवत्सरों में (नक्षत्राण्युप सर्पण) नक्षत्रों का (प्रतिलोमानुऽलोमो वा) प्रतिलोम और अनुलोम रूप गमन करता है (तदा) तब (सृजति दुस्समाम्) दुष्काल की उत्पत्ति होती है प्रजा को कष्ट होता
भावार्थ-जब गुरु अपने पाँच संवत्सरों में नक्षत्रों का प्रतिलोम और अनुलोम रूप गमन करता है, तब दुष्काल की उत्पत्ति होती हैं, प्रजा महान् कष्ट में पड़ जाती है॥१४ ।।
सस्य नाशो अनावृष्टिर्मृत्युस्तीवाश्च व्याधयः। __ शस्त्र कोपोऽग्निमूर्छा च षड्विधं मूर्छने भयम्॥१५॥ ___ गुरु के उक्त प्रकार होने पर (सस्यनाशो अनावृष्टि) धान्यों का नाश,अनावृष्टि होती है (मृत्युस्तीवाश्च व्याधय:) व्याधि से लोगों की मृत्यु होती है (शस्त्र कोपोऽग्निमूर्छा च) और शस्त्र भय, अग्निभय, मूर्छा का रोग (षड्विधं मूर्छने भयम्) छह प्रकार के मूर्छा रोग होते हैं।
भावार्थ-जब गुरु उपर्युक्त स्थिति में आता है तो धान्यों का नाश होगा, वर्षा नहीं होती, नाना प्रकार की व्याधियों से लोगों का मरण होगा, शस्त्रकोप, अग्निकोप और छह प्रकार के मूर्छा रोग उत्पन्न होंगे॥१५ ।।
सप्ताधं यदि वाऽष्टार्ध षड) निष्प्रभोदितः। पञ्चाध चाथवाऽधं च यदा संवत्सरं चरेत्॥१६॥ सङ्गामा रौरवास्तत्र निर्जलाश्च बलाहकाः।
श्वेतास्थी पृथवी सर्वा भ्रान्त्याक्षुस्नेह वारिभिः ॥१७॥ (यदा संवत्सरं) जब गुरु संवत्सर में (चरेत्) विचरण कर रहा हो (सप्ताध)