Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
बहुसंहिता
विन्द्यान्महीं
वातसमाकुलाम् ।
वायुवेग समां क्लिष्टामल्पेन जन जनेनान्येन सर्वशः ॥ १९५ ॥
४७६
इस प्रकार का वक्र शुक्र होने पर ( वायुवेगसमांविन्द्यात्) वायु वेग जोर से चलता है (महींवातसमाकुलाम्) पृथ्वी वायु से भर जाती है (क्लिष्टामल्पेन जलेन) अल्प जल से कष्ट होता है ( जनेनान्येन सर्वशः ) तथा अन्य राजा से लोग आक्रान्त रहते हैं।
भावार्थ — इस प्रकार के वायव्य वक्री शुक्र के होने पर वायु जोर से चलती है वायु वेग बढ़ जाता है, अल्प वर्षा होती है अन्य राजा के लोग आक्रान्त हो जाते हैं ॥ १९५ ॥
एकविंशतिं यदा गत्वा पुनरेकोन विंशतिम् । आयात्यस्तमने काले भस्मं तद् वक्रमुच्यते ॥ १९६ ॥
( यदा) जब शुक्र के ( आयात्यस्तमने काले ) अस्त काल में ( एकविंशतिं गत्वा) इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर (पुनरेकोनविंशतिम् ) पुनः उन्नीसवें नक्षत्र तक लौट आता है तो (तद्) उसे ( भस्मं वक्रमुच्यते) उसे भस्म वक्र कहते हैं।
भावार्थ-यदि शुक्र के अस्तकाल में इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर पुनः बीसवें नक्षत्र तक लौट आवे तो उसे भस्म वक्र कहते हैं । १९६ ॥
ग्रामाणां नगराणां च प्रजानां च दिशो दिशम् । नरेन्द्राणां च चत्वारि भस्म भूतानि निर्दिशेत् ॥ १९७ ॥
इस प्रकार के भस्म वक्री होने पर (ग्रामाणां ) ग्राम को (नगराणां ) नगरों को (च) और ( प्रजानां ) प्रजाओं को (नरेन्द्राणां ) राजाओं को ( दिशो दिशम् ) सब ही दिशाओं के ( चत्वारि ) चारों ही प्रकार ( भस्म भूतानि निदिशेत्) भस्मी भूत ही जाते हैं ऐसा निर्देश किया है।
भावार्थ - इस प्रकार के भस्म वक्री होने पर राजा, नगर, ग्राम और प्रजा ये चारों ही भस्म हो जाते हैं ऐसा निर्देश किया है ॥ १९७ ॥