Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पञ्चदशोऽध्यायः
भावार्थ----
---जब शुक्र अस्त काल में
नक्षत्र तक लौट आवे तो ऐसे वक्र शुक्र को
गृहाँश्च
वनखण्डांश्च
दिशो वनस्पतींश्चापि
तेइसवें नक्षत्र तक जाकर वापिस बीसवें दीप्त कहते हैं ॥ १९६ ।।
दहत्यग्निरभीक्ष्णशः । भृगुर्दहति रश्मिभिः ।। १९२ ॥
( भृगुर्दहति रश्मिभिः) इस प्रकार के दीप्त वक्र में शुक्र अपनी किरणों द्वारा (गृहाँश्च वनखण्डांश्च) गृह, वनखण्ड (दिशो ) दिशा (वनस्पतिंश्चापि ) जंगल की वनस्पतियाँ और भी ( दहत्यग्निरभीक्ष्णशः ) सब अभिक्षण अग्नि के द्वारा जलाता है।
भावार्थ- - इस प्रकार की दीप्त वक्र में शुक्र अपनी किरणों द्वारा, घर, वनखण्ड, दिशा, वनस्पतिओं को भीषण अग्नि के द्वारा जलाता है ।। १९२ ।
एतानि त्रीणि वक्राणि कुर्यात् पूर्वेण इमाश्चपृष्ठतो विन्द्यात् वक्रं शुक्रस्य
भार्गवः । संयतः ॥ १९३ ॥
( एतानि त्रीणि वक्राणि) इन तीनों वक्रों (पूर्वेण भार्गवः कुर्यात् ) को शुक्र पूर्व की ओर से करता है ( इमाञ्चपृष्ठतो विन्द्यात्) पीछे की ओर से निम्न वक्र को करता है (शुक्रस्य वक्रं संयतः ) संयत वक्र शुक्र का होता हैं।
भावार्थ — इन तीनों वक्रों को शुक्र पूर्व की ओर से करता है पीछे की ओर का शुक्र निम्न होता हैं और वहीं शुक्र संयत है ॥ १९३ ॥
विंशर्ति आयात्यस्तमनो
( यदा) जब शुक्र (विंशतिंगत्वा ) बीसवें नक्षत्र पर जाकर ( पुनरेकोनविंशतिम् ) पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है (तु) तो ( वायव्यं वक्र मुच्यते) उसे वायव्य वक्र कहते हैं (आयात्यस्तमनो काले ) किन्तु अस्तकाल का शुक्र होना चाहिये ।
भावार्थ-जब शुक्र अस्तकाल में बीसवें नक्षत्र पर जाकर पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर आ जाता है तो उसको वायव्य वक्र कहते हैं ।। ९९४ ॥
तु यदा गत्वा
पुनरेकोनविंशतिम् ।
काले वायव्यं वक्र मुच्यते ॥ १९४ ॥