Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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पञ्चदशोऽध्यायः
करे तो समझो वहाँ पर से घर, घट, जलपोत आदि भर जाते है इतनी वर्षा होती है आनन्द ही आनन्द हो जाता है ॥ १८४ ॥
अत्त ऊर्ध्वप्रवक्ष्यामि वक्रं भार्गवस्य समासेन तथ्य
(अत) अब ( भार्गवस्य वक्रं चारं ) शुक्र के वक्री होने का संचरण (समासेन तथ्यं) अच्छी तरह से (ऊर्ध्वं निबोधत प्रवक्ष्यामि) जो आकाश में कहा गया है उसको कहूँगा (निर्गन्थ भाषिताम् ) जैसाकि निर्ग्रन्थों के द्वारा कहा गया है। भावार्थ — अब मैं शुक्र के वक्री होने का फल जैसा निर्ग्रन्थ गुरु के द्वारा प्रतिपादित किया गया है वैसा कहूँगा ।। १८५ ।।
पूर्वेण विंशऋक्षाणि चरेत् प्रकृतिचारेण समं
चारं निबोधत । निर्गन्थभाषितम् ॥ १८५ ॥
पश्चिमेकोनविंशतिः । सीमानिरीक्षयोः ।। १८६ ॥
( सीमानिरीक्षयोः) सीमा निरीक्षण में ( प्रकृति चारेण समं चरेत् ) स्वभाव से ही अपने रूप संचार करता है (पूर्वेण) पूर्व में (विंशऋक्षाणि ) बीस नक्षत्र और ( पश्चिमें) पश्चिम में (कोनविंशतिः) उन्नीस नक्षत्र गमन करता है।
भावार्थ-यदि सीमा निरीक्षण में स्वभाव से ही अपनी गति से शुक्र गमन करता है तो पूर्वमें बीस नक्षत्र और पश्चिम में उन्नीस नक्षत्र गमन करता है ॥ ९८६ ॥ विंशतिमं पुनः । विकृतं भवेत् ॥ १८७ ॥
एकविंशं यदा गत्वा याति भार्गवोऽस्तमने काले तद्वक्रं
( भार्गवोऽस्तमने काले ) शुक्र के अस्त काल (एकर्विशं यदा गत्वा) इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर (याति पुनः विंशतिमं ) पुनः बीसवें नक्षत्र में गमन करता है (तद्वक्रं विकृतं भवेत् ) उसको ही शुक्र की वक्र गति कहते हैं।
भावार्थ- शुक्र के अस्त काल में इक्कीसवें नक्षत्र तक जाकर शुक्र बीसर्वे नक्षत्र तक वापस लौटता है उसी को शुक्र का वक्री होना कहा गया है ।। १८७ ॥
तदा ग्रामं नगरं धान्यं चैव पल्वलोदकान् । धनधान्यं च विविधं हरन्ति च दहन्ति च ॥ १८८ ॥