Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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चतुर्दशोऽध्यायः
वह स्त्री, वृद्ध, बालक की हिंसा करता है। जो प्राणियों में कुछ भी विपरीतता दिखती हो वह सब भय को उत्पन्न करती है ।। १४२-१४३ ।।
अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य निरुत्साहाविलम्बिनः । अलक्ष्मीपूर्णचित्तस्य प्राप्नोति स
महद्भयम् ॥ १४४ ॥ (अभीक्ष्णं चापि सुप्तस्य ) जो निरन्तर सोता हो और भी (निरुत्साहा) निरुत्साहा ( विलम्बिनः ) आलम्बन से रहित हो ( अलक्ष्मी पूर्णचित्तस्य) धन से रहित हो तो ( स महद्भयम् प्राप्नोति ) वह महान भय को प्राप्त होता है।
भावार्थ — जो निरन्तर सोने में युक्त हो, निरुत्साही हो, आलम्बन से रहित हो, धन से रहित हो तो उसे महान् भय उत्पन्न होता है ।। १४४ ॥
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क्रव्यादाः शकुना
यत्र बहुशो विकृतस्वनाः । तत्रेन्द्रियार्थं विगुणाः श्रिया हीनाश्च मानवाः ।। १४५ ।।
( यत्र ) जहाँ (क्रव्यादाः) मांस भक्षी पक्षी (बहुशो विकृतस्वनाः) बहुत विकृत शब्द करते हो (तत्रेन्द्रियार्थ विगुणाः) इन्द्रियों के विषय में गुण रहित हो, ( श्रिया हीनाश्च मानवाः) लक्ष्मी से रहित मानव हो तो भी उपद्रव का कारण होता है। (शकुना) ये खराब शकुन है ।
भावार्थ – जहाँ मांसभक्षी पक्षी बहुत विकृत शब्द करते हो मानव इन्द्रियों के विषय में निर्गुणी हो, और मनुष्य लक्ष्मी से रहित हो तो समझो वहाँ भी उपद्रव होगा, क्योंकि ये सब अशुभ शकुन है ।। १४५ ॥
निपतति द्रुमश्छिन्नो
स्वप्नेष्वभयलक्षणम् । रत्नानि यस्य नश्यन्ति बहुशः प्रज्वलन्ति वा ॥ १४६ ॥
(स्वनेष्व) स्वप्न में (द्रुमश्छिन्नो निपतति ) वृक्ष की शाखा टूटती हुई (अभय लक्षणम्) निर्भय होकर देखे तो (रत्नानि यस्य नश्यन्ति ) उसके रत्न नष्ट हो जाते
हैं (बहुश: प्रज्वलन्ति वा ) और उसके आग लग जाने से बहुत कुछ नष्ट हो जाता
है।
भावार्थ — जो स्वप्न में वृक्ष की शाखा निर्भय होकर टूटती हुई देखे तो