Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
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भावार्थ-जो साधुओं के द्वारा कहा हुआ उत्पातों का स्वरूप है, उस पाप का देवों की पूजा साधुओं की पूजा, ब्राह्मणों की पूजा राजा की पूजा करने से शान्ति होती है।। १८० ।।
यत्र देशे समुत्पाता दृश्यन्ते भिक्षुभिः क्वचित्।
ततो देशादतिक्रम्य व्रजेयुरन्यतस्तदा ॥१८१॥ (यत्र देशे) जिस देश में (समुत्पाता) उत्पात (भिक्षुभिः क्वचित दृश्यन्ते) साधुओं को कहीं पर दिखाई दे तो (ततो देशदतिक्रम्य) उस देश को छोड़कर (व्रजेयुरन्यस्तदा) अन्यत्र चले जावें।
भावार्थ-जिस देश में साधु उत्पात देखे उस देश को शीघ्र छोड़ कर अन्य देश में चला जाना चाहिये॥१८१॥
सचित्ते सुभिक्षे देशे दिरुत्पाते प्रियातिथौ।
विहरन्ति सुखं तत्रभिक्षवो धर्मचारिण: ॥१८२।। (सचित्ते सुभिक्षे देशे) सचित्त सुभिक्ष देश में व (दिरुत्पातौ प्रियातिथी) उत्पात से रहित व अतिथि सत्कार से सहित देश में (तत्र) वहाँ पर ही (सुखं विहरन्ति) सुख से विहार करते है (भिक्षवोधर्मचारिण:) धर्म का पालन करने वाले साधु।
भावार्थ:-निरुपद्रव देश में जहाँ पर अतिथि सत्कार विशेष होता हो उसमें धर्म का पालन करने वाले साधु विहार करे ।। १८२ ।।
विशेष—इस अध्याय में आचार्य श्री ने उत्पातों का वर्णन किया है उत्पात तीन प्रकार के होते है, आन्तरिक्ष, भौमिक और दैविक (दिव्य) देवों को प्रतिमास से जो उत्पातों की सूचना मिलती है उसको दैविक या दिव्य उत्पात कहते हैं।
नक्षत्रों का विचार, उल्का, निर्घात, पवन, विद्युत्पात, गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुषादि अन्तरक्षि उत्पात है।
भूमि पर चल व स्थिर पदार्थों का विपरीत दिखलाई पड़ना भौम उत्पात
देव प्रतिमा का छत्र भंग, चलना, हाथ-पाँव मस्तक, आभामण्डल का भंग होना अशुभ कारक होता है। तीर्थंकर की प्रतिमा से पसीना निकलता है, तो भी