Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
तृतीयोऽध्यायः
यदि उल्का (र्दिशं) दिशाओं में (यदाऽवृतम्) घूमती हुई (पश्येद्) दिखाई दे तो, (इतिविख्यातः) ऐसा विख्यात है कि (षद मासेनो) छह महीनों में (युगान्त) युगका अंत है, (उपलभ्यते) ऐसा देखा जाता है। (पद्य) कमल, (श्री वृक्ष) श्रीवृक्ष (चंदा) चंद्रमा (क) सूर्य (नंद्यावृत) नंद्यावृत, (घटोपमा) घड़ी के समान (बर्द्धमान ध्वजाकारा:) बढ़ती हुई ध्वजा के समान, (पताका) पताका (मत्स्य) मछली (क्रूर्मवत) कुछए के समान (वाजि) घोडा, (वारुण) हाथी, (रूपाश्च) के रूप वाली और (शंख) शंख, (वादित्र) वादित्र, (छत्रवत्) छात्र के समान, (सिंहासना) सिंहासन (रथाकारा) रथ के आकार वाली, (रूप पिण्ड) चांदी के पिंड के आकार की (व्यवस्थिता:) व्यवस्थित (रेतैः) इतने (रूपै) रूप वाली (उल्का:) उल्का (प्रशस्यन्ते) प्रशंसनीय है, (समाहिताः) सुख को देने वाली है।
भावार्थ-इन लक्षणों वाली उल्का महाभय को उत्पन्न करने वाली होती है यदि आकाश में उल्का अष्टापद के रूप को धारण करने घूमती हुई दिखाई दे तो आप ऐसा समझो की अब युग का अन्त आ गया है युग के अंत आने में (समाप्त होने में) मात्र छह महीने का समय रह गया है। पद्य, श्री वृक्ष, चंद्रमा सूर्य, नंद्यावृत, कलश, बढ़ती हुई ध्वजाकार पताका, मछली, कछुआ, घोडा, हाथी, के रूप की शंख, वादित्र छत्र सिंहासन, रथ के आकार की चांदी के पिंड के समान व्यवस्थित, इतने रूप वाली उल्का यदि आकाश में दिखाई दे तो सुख को उत्पन्न करने वाली और प्रशस्थत मानी गई है।३०-३१-३२-३३॥
नक्षत्राणि विमुञ्चन्त्यः स्निग्धाः प्रत्युत्तमाः शुभाः।
सुवृष्टिं क्षेममारोग्यं शस्य सम्पत्तिरुतमाः ॥३४॥ (नक्षत्राणि) नक्षत्रों को (विमुञ्चन्त्यः) छोड़ती हुई, (स्निग्धाः) चिकनी जो उल्का है वो (प्रत्युत्तमाः) उत्तम (शुभा:) शुभ, (सुवृष्टिं) अधिवृष्टि करने वाली (क्षेमम्) क्षेम करने वाली, (आरोग्य) आरोग्यता को देने वाली, (रूत्तमाः) उत्तम (शस्य) धान्यकी (सम्पत्ति) सम्पत्ति देने वाली है।
भावार्थ-जो उल्का नक्षत्रों को स्पर्श न करती हुई स्निग्धा रूप में दिखाई दे तो उत्तम और शुभ है, उससे देश में सुवृष्टि होगी, क्षेत्र कुशल रहेगा, निरोगी जन होंगे, उत्तमरीति से धान्य उत्पन्न होगा ऐसा समझो॥३४॥