Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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दशमोऽध्यायः
वर्षा का लक्षण व फल अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रवषणं निबोधत।
प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा वदनुपूर्वतः॥१॥ (अथातः) अब मैं (प्रवर्षणं) वर्षा का (निबोधत) ज्ञान (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा वो (प्रशस्त) शुभ (च) और (अप्रशस्त) अप्रशस्त रूप है (यथा) जैसे (पूर्वतः) पहले (वदनु) कहा था।
भावार्थ-अब में वर्षा का ज्ञान कराने के लिये कहूँगा, वह वर्षा भी पूर्वकी तरह दो प्रकार की हो जाती है, प्रशस्त और अप्रशस्त ।।१।।
ज्येष्ठे मूलमतिक्रम्य पतन्ति बिन्दवो यदा।
प्रवर्षणं तदा ज्ञेयं शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।।२॥ (ज्येष्ठे) ज्येष्ठ मासके (मूलम्) मूलको (अतिक्रम्य) अतिक्रमण कर (यदा) तक (विन्दवो) वर्षा (पतन्ति) गिरती है तो (तदा) तब (प्रवर्षणं) वर्षा को (शुभं) शुभ (वा) वा (यदिवाऽशुभम्) अशुभ होती है।
भावार्थ-ज्येष्ठ मासके मूल नक्षत्र को उलंगन करके यदि वर्षा होती है तो उसी वर्षा से शुभाशुभ जान लेना चाहिये॥२॥
आषाढ़े शुक्लपूर्वासु ग्रीष्मे मासे तु पश्चिमे। देव: प्रतिपदायां तु यदा कुर्यात् प्रवर्षणम्॥३॥ चतुः षष्टिमाढकानि तदा वर्षति वासवः ।
निष्पद्यन्ते च सस्यानि सर्वाणि निरुपद्रवम्॥४॥ (ग्रीष्मे) ग्रीष्म ऋतुके (आषाढ़े) आषाढ़ (मासे) मासमें (शुक्ल) शुक्लपक्षके अन्तर्गत (प्रतिपदायां) द्वितीयाको (पश्चिमे) पश्चिम दिशासे बादल उठकर (यदा) जब (देवः) इन्द्र (प्रवर्षणम) वर्षा (कुर्यात्) करे तो (तदा) तब (चतु: षष्टिमाढ कानि) चौषठ आढ़क प्रमाण (वासवः वर्षति) वर्षा होती है (च) और (सर्वाणि)