Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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अतीतं वर्तमानं सर्व विज्ञायते
भद्रबाहु संहिता
च
येन तज्ज्ञानं
भविष्यद्यच्च
स्वर्गेण
यद्वेष्टः
किञ्चन ।
नेतरं
( अतीतं) भूतकाल, (वर्तमानं ) वर्तमान काल (च) और (भविष्यद्यच्च किञ्चन) भविष्यकाल का जो भी ज्ञान है तो सब (सर्व विजायते) ज्ञान निमित्तज्ञ से राजा को मिलता है (येन) उतना ( तज्ज्ञानं नेतरं मतम् ) ज्ञान अन्य किसी से भी नहीं ।
मतम् ॥ ३९ ॥
भावार्थ-भूत भविष्यत और वर्तमान का ज्ञान जितना निमित्तज्ञ से मिलता है उतना ज्ञान अन्य किसी से भी नहीं प्राप्त होता है ।। ३९ ।।
स्वर्गप्रीतिफलं प्राहुः सौख्यं धर्मविदो
जनाः ।
तस्मात् प्रीतिः सखा ज्ञेया सर्वस्य जगतः सदा ॥ ४० ॥
तादृशा
स्यानिमित्तेन
(धर्मविदो जनाः) धर्म को जानने वाले महापुरुषों ने (प्रीतिफलं स्वर्गप्राहुः )
प्रेम का फल स्वर्ग कहा है ( तस्मात् ) इस कारण से (सदा) सदा ( सर्वस्य ) सब ( जगतः ) जगत की (सखा) मित्र (प्रीति: ज्ञेया) प्रीति है ऐसा जानो ।
भावार्थ — धर्म को जानने वालों ने ज्ञानीयों ने प्रेम का फल स्वर्ग लिखा है, इसलिये इस जगत का मित्र ही प्रेम से सब कुछ साध्य कर सकते हैं ॥ ४० ॥
प्रीतिर्विषयैर्वापि सतां प्रीतिस्तु
( तादृशा ) जिस प्रकार ( मानुषैः) मनुष्यों की (प्रीति:) प्रीति (स्वर्गेण) स्वर्ग से ( वापि ) वा (विषय) विषयों से होती है उसी प्रकार ( यद्देष्टः स्यान्निमित्तेन्) कथित निमित्तज्ञ से ( सतां ) सज्जनों की (प्रीतिस्तु जायते) प्रीति होती है ।
भावार्थ — जिस प्रकार मानवों की प्रीति स्वर्ग और विषयों से होती है उसी प्रकार की प्रीति निमित्तों से होती हैं क्योंकि निमित्तों के द्वारा अपना शुभाशुभ जान सकते है ॥ ४१ ॥
२८२
मानुषैः । जायते ॥ ४१ ॥
तस्मात् स्वर्गास्पदं पुण्यं निमित्तं जिनभाषितम् ।
पावनं परमं श्रीमत् कामदं च प्रमोदकम् ॥ ४२ ॥