Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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चतुर्दशोऽध्यायः ।
भावार्थ-जब जलाशय को चारों ओर से छाया लौटती हुई दिखे तो समझो दैत्यों का उपसर्ग होगा। १२३ ।।
अद्वारे द्वारकरणं कृतस्य च विनाशनम्।
हतस्य ग्रहणं वाऽपि तदा झुत्पात लक्षणम् ।। १२४॥ (अद्वारे द्वारकरणं) जहाँ द्वार नहीं है वहाँ द्वार करना (कृतस्य च विनाशनम्) किये हुऐ का विनाश करना (हत्यस्य ग्रहणं वाऽपि) नष्ट वस्तु को ग्रहण करना, (तदाहृत्पातलक्षणम्) यह सब उत्पात के लक्षण हैं।
भावार्थ- जहाँ द्वार नहीं है वहाँ द्वार किये हुऐ का विनाश करना, नष्ट वस्तु को ग्रहण करना यह सब उत्पात का लक्षण है।। १२४ ॥
यजनोच्छेदनं यस्य ज्वलिताङ्गमथाऽपि वा।
स्पन्दते वा स्थिरं किञ्चित् कुलहानि तदाऽऽदिशेत् ।। १२५॥ (यस्य) जिसके (यजनोच्छेदन) यज्ञ के पदार्थों का छेद हो जाय, (ज्वलिताङ्गमथाऽपि वा) अथवा जलते हुऐ अंग दिखे तो (किञ्चित् स्थिरं वा स्पन्दते) व किञ्चित स्थिर पदार्थ चंचल दिखे तो (कुलहानि तदाऽऽदिशेत्) कुल हानि होगी ऐसा कहे।
भावार्थ-जिसके पूजा पाठ की वस्तुओं का छेद हो जाय और वह पदार्थ जलते हुऐ दिखे तो व स्थिर पदार्थ चंचल दिखे तो समझो उसके कुल की हानि होगी।। १२५॥
दैवज्ञा भिक्षवः प्राज्ञाः साधवश्च पृथग्विधाः।
परित्यजन्ति तं देशं ध्रुवमन्यन्न शोभनम्॥१२६ ।। (देवज्ञा) निमित्त ज्ञानीयों को (भिक्षवः) भिक्षुओं को (प्राज्ञा:) विद्वानों को (साधवश्च) और साधुओं को (पृथग्विधाः) पृथग्विध होकर (तं देशं) उस उत्पाती देश को (परित्यजन्ति) छोड़कर (ध्रुवमन्यत्र शोभनम्) निश्चय से दूसरे देश में चला जाना चाहिये।
भावार्थ-ज्योतिषियों को भिक्षुओं को, विद्वानोंको, साधुओंको उत्पात क्षेत्र देखकर उस क्षेत्र को छोड़कर निरूपद्रवस्थानों में चला जाना चाहिये || १२६ ।।
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