Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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एकादशोऽध्यायः
शनि के प्रदेश-वेदस्मृति, विदिशा, कुरु क्षेत्रका समीपवर्ती देश, प्रभास क्षेत्र, पश्चिम देश, सौराष्ट्र, आभीर, शूद्रकदेश तथा आनर्तसे पुष्कर प्रान्त तकके प्रदेश, आबू और रैवतक पर्वत हैं।
__ केतुके प्रदेश—मारवाड़, दुर्गाचलादिक, अवगाण, श्वेत, हूणदेश, पल्लव, चोल और चौलक हैं।
वृष्टिकारक अन्य योग-सूर्य, गुरु और बुधका योग जलकी वर्षा करता है। यदि इन्हींके ग्रहोंके साथ मंगलका योग हो जाय तो वायुके साथ जलकी वर्षा होती है। गुरु और सूर्य, राहु और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, शनि और चन्द्रमा, गुरु और मंगल, गुरु और बुध तथा शुक्र और चन्द्रमा इन ग्रहोंके योग होनेसे जलकी वर्षा होती है। सुभिक्ष-दुर्भिक्ष का परिज्ञानप्रभवाद् द्विगुणं कृत्वा विभिन्यूँनं च कारयेत्। सप्तभिस्तु हरेन्द्रागं शेषं ज्ञेयं शुभाशुभम्॥ एक चत्वारि दुर्भिक्षं पञ्चद्वाभ्यां सुभिक्षकम्। विषष्ठे तु समं ज्ञेयं शून्ये पीडा न संशयः ।।
अर्थात् प्रभवादि क्रमसे वर्तमान चालू संवत् की संख्याको दुगना कर उसमें से तीन घटाके सातका भाग देनेसे जो शेष रहे, उससे शुभाशुभ फल अवगत करना चाहिए। उदाहरण साधारण नामका संवत् चल रहा है। इसकी संख्या प्रभवादिसे ४४ आती है, अत: इसे दुगुना किया। ४४ x २ - ८८, ८८ - ३ = ८५, ८५ - ७ = १२ ल. १ शेष, इसका फल दुर्भिक्ष है। क्योंकि एक और चार शेषमें दुर्भिक्ष, पाँच और दो शेषमें सुभिक्ष, तीन या छ: शेषमें साधारण और शून्य शेषमें पीड़ा समझनी चाहिए।
अन्य नियम—विक्रम संवत्की संख्याको तीनसे गुणा कर पाँच जोड़ना चाहिए। योगफलमें सातका भाग देनेसे शेष क्रमानुसार फल जानना। ३ और ५ शेषमें दुर्भिक्ष, शून्यमें महाकाल और १,२,४,६ शेषमें सुभिक्ष होता है।
उदाहरण—विक्रम संवत् २०१३, इसे तीनसे गुणा किया; २०१३ x ३ = ६०३९, ६०३९ + ५ = ६०४४, इसमें ७ का भाग दिया, ६०४४ में ७ भाग = ८६३ लब्धि, शेष ३ रहा। इसका फल दुर्भिक्ष हुआ। संवत् २०१३ में साधारण संवत्सर भी है, इसका फल भी दुर्भिक्ष आया है।