Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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एवं विज्ञाय प्रशस्तंयत्र
भद्रबाहु संहिता
वातानां संयता भैक्ष वर्तिनः । पश्यन्ति
वसेयुस्तत्रनिश्चितम् ॥ ३६ ॥
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( एवं ) इस प्रकार के (वासना) वावुओं को (विज्ञाय ) जानकर (भैक्षवर्तिनः ) भिक्षावृत्ति वाले ( संयता) साधुओं को (अन्यत्र ) अन्यत्र ( प्रशस्त ) प्रशस्त स्थान ( पश्यन्ति ) देखकर (तत्र ) वहाँ (निश्चितम् ) निश्चित रूप से ( वसेयुः ) वास करना चाहिये ।
भावार्थ — इस प्रकार के वायुओं को जानकर भिक्षावृत्ति वाले साधुओं को कोई अच्छा निरूपद्रव स्थान देखकर वहाँ निवास के लिये चले जाना चाहिये || ३६ ॥ आहारस्थितयः सर्वे जङ्गम स्थावरा स्तथा ।
जल सम्भवं च सर्वं तस्यापि जनकोऽनिलः ॥ ३७ ॥
(सर्वे) सब ( जनमस्थावरा :) जनम और स्थावर जीवों की (स्थितयः) स्थिति ( आहार : ) आहार पर है (तथा) तथा ( सर्वं ) सब भोजन पदार्थ के लिये (जल सम्भवं) जल के ऊपर निर्भर है (च) और ( तस्यापि ) तो भी (जनकोऽनिलः ) पानी वायु के ऊपर निर्भर है।
भावार्थ - यहाँ पर आचार्य महाराज कह रहे हैं कि सब जीवों की स्थिति भोजन पर निर्भर होती है अन्न पदार्थ पानी से उत्पन्न होते हैं और जल ल्पयु के ऊपर निर्भर है ॥ ३७ ॥
वातानां
सर्वकालंप्रवक्ष्यामि लक्षणंपरम् । आषाढीवत् तत् साध्यं यत् पूर्वं सम्प्रकीर्तितम् ॥ ३८ ॥
(वातानां ) वायुओं का (सर्वकालं) सर्वकालिक (परम लक्षणं) परम लक्षणको (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा (यत्) जैसे (पूर्वं ) पहले ( सम्प्रकीर्तितम् ) कहा गया ( आषाढ़ीवत्) आषाढ़ी पूर्णिमा के समान (तत्) उसको (साध्यं) साध्य करना चाहिये ।
भावार्थ — अब में सर्व कालिक वायुओं का लक्षण कहूँगा जो आषाढ़ी पूर्णिमां के समान ही साध्य करना चाहिये, उसको हमने पहले कह दिया है ।। ३८ ।।