Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाह संहिता
हुए (क्रव्यादाश्चासु) विकृत रूप को धारण करने वाली (दृश्यन्ते) दिखती है (या) अथवा (खरा) गधे; के समान (विकृताश्च) विकृत दिखती है (सधूम्रा) धूमवाली (या) वा (सनिर्घाता) निर्घात सहित (भ्रमवाप्नुयुः) घूमती हुई (स भूमिकम्पा) और भूमि को कम्पित करती हुई (परुषा) कठोर (रजस्विन्यो) धूल को उड़ाती हुई (अपसव्यगा:) वायु मार्ग से गमन करती हुई (ग्रहानादित्य चन्द्रौ) ग्रह सूर्य चन्द्र को (या:) जो (स्पृशन्ति) स्पर्श करती हुई (वा) वा (दहन्ति) जलाती हुई दिखे तो (परचक्र भयं) पर चक्र को भय उत्पन्न होगा और (क्षुधा व्याधि जन क्षयम्) जनता क्षुधा व्याधि से क्षय को प्राप्त करेगी।
भावार्थ----जो उल्का शब्द करती हुई आकाश में प्रकाश छोड़ती हुई निकट. में ही जिसका फल मिलेगा ऐसा दिखाती हुई जो मांस भक्षी जीवों के समान विकृत रूप को धारण करने वाली, घूम वर्ण वाली होकर गड़गड़ाहट कर रही है भूमि को कम्पा रही है और घूम रही है वाम मार्ग से गमन करती हुई सूर्य चन्द्र ग्रहों को स्पर्श करती हुई या जलाती हुई दिखे तो समझो, देश में परराज्य का भय उत्पन्न होगा, और देश की जनता भूख से व्याधि से पीडित होगी, देश में दुर्भिक्ष फैलेगा और नाना प्रकार की व्याधियां फैलेगी, इन कारणों से जनता का नाश होगा॥२७-२८-२९ ।।
एवं लक्षण संयुक्ताः कुर्वन्त्युल्का महाभयम्। अष्टापद वदुल्काभिर्दिशं पश्येद् यदाऽवृतम् ।। ३०॥ युगान्त इति विख्यातः षड्मासेनोपलभ्यते। पद्म श्री वृक्ष चन्द्रार्क नंद्यावर्त घटोपमाः ।। ३१ ।। वर्द्धमानध्वजाकाराः पताका मत्स्य कूर्मवत् । वाजि वारण रूपाश्च शङ्खवादिवछत्रवत्॥३२ ।। सिंहासनरथाकारा
रूपपिण्डव्यवस्थिताः। रूपैरेतैः प्रशस्यन्ते सुखमुल्का: समाहिताः ।। ३३ ।। (एवं) इस प्रकार के (लक्षण) लक्षण से (संयुक्ताः) युक्त (त्युल्का) उल्का (महाभयम) महाभय को (कुर्वन्) करती है, (अष्टापदवदुल्काभि) अष्टापद के समान