Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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चतुर्थोऽध्यायः
( अभ्रशक्तिर्यतो ) बादलों की शक्ति (रिक्ता ) रिक्त हो (वा) व ( विपुला ) भरे हुऐ (चाग्रे) आगे-आगे (गच्छेत्) जावे, ( तां) उसी ( दिशं ) दिशा के प्रति ( त्वभियोजयेत् ) योजना करना चाहिये, ऐसा कहा की ( शाश्वतम् ) शास्त्रत (जयं ) जय को ( कुर्वीत ) करती है।
भावार्थ - जिस दिशा के प्रति भरे हुऐ वारिक्त बादल जावे तो समझो की जय होगी, उस दिशा में अवश्य ही विजय होगी ॥ २५ ॥
समन्विता ।
यदाऽभ्रशक्तिर्द्दश्येत यायिनो
परिवेष हन्युस्तदा यत्नेन् संयुगे ॥ २६ ॥
नागरान्
( परिवेष ) परिवेष से ( समन्विता ) संयुक्त ( यदा) जब (अभ्रशक्ति) बादलों की शक्ति (दश्येत् ) दिखाई दे तो, (नागरान् ) नगरवासियों का (यायिनो) आक्रामणकारी शत्रु ( हन्यु) नाश करता है, ( तदा) तब ( यत्नेन ) यत्नपूर्वक (संयुगे) नगरवासियों की रक्षा करनी चाहिये ।
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भावार्थ बादलों के परिवेष से सहित देखे तो समझो आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा नगरवासी लोगों का नाश होगा। इसलिये उस नगर के राजा को चाहिये की अपनी प्रजा की यत्नपूर्वक रक्षा करे ॥ २६ ॥
नानारूपो
नागरास्तत्र
यदा बध्यन्ते
दण्ड: यायिनो
परिवेषं
प्रमर्दति ।
संशयः ॥ २७ ॥
नात्र
( नानारूपो ) नाना प्रकार का रूप वाला ( यदा) जब ( दण्डः ) दण्ड ( परिवेषं) परिवेष को ( प्रमदति ) प्रमादित करता है तो (तत्र) वहाँ के ( नागराः) नगरवासी सेना या प्रजा ( बध्यन्ते) वध को प्राप्त होते है (यायिनो) आने वाले आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा ( नात्र संशयः ) यहाँ पर कोई संशय नहीं करना चाहिये ।
भावार्थ- नाना रूप वाला दण्ड आदि परिवेष को मर्दित करता हुआ दिखलाई पड़े समझो आक्रमणकारी शत्रु के द्वारा नगरवासी, प्रजा का नाश होगा, इसमें किसी प्रकार का यहाँ पर संशय नहीं करना चाहिये ॥ २७ ॥