Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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नत्रमोऽध्यायः
दक्षिणस्यां दिशि यदा वायुर्दक्षिण काष्ठिकः ।
समुद्रानुशयो नाम स गर्भाणां तु सम्भवः॥४॥ (दक्षिणस्यां) दक्षिण (दिशि) दिशा की (यदा) जब (वायु:) वायु (दक्षिणकाष्ठिकः) दक्षिण दिशा में ही चले तो (समुद्रानुशयो) उसका समुद्रानुशय (नाम) नाम है, (स) वह (गर्भाणां तु) गर्भो को (सम्भव:) उत्पन्न करता है।
भावार्थ-यदि दक्षिण दिशा को वायु दक्षिण दिशा में ही चले तो उस का नाम समुद्रानुशय है और ये वायु गर्थों को उत्पन्न करता है।॥ ४॥
तेन सञ्जनितं गर्भ वायर्दशिक्षण काष्ठिकः।।
धारयेत् धारणे मासे पाचयेत् पाचने तथा ।।५।। (तेन) उस समुद्रानुशय वायु से (सञ्जनितं) उत्पन्न (गर्भ) गर्भ को (वायु:) वायु (दक्षिणकाष्ठिका) दक्षिण में ही बहता हुआ, (धारयेत् धारणे मासे) धारण मासमें ही धारण करता है और (पाचयेत् पाचने तथा ) पाचन मासमें पकाता है।
भावार्थ—उस समुद्रानुशय से उत्पन्न होने वाला गर्भ अगर दक्षिण दिशामें बहता हुआ धारण मासमें धारण करता है और पाचन मासमें पकाता है, याने जब आकाशमें वायु पूर्वक गर्भ दिखे तो समझो गर्भ धारण हो गया है वो कुछ अवधि बाद पककर फल देता है ।। ५॥
धारितं पाचितं गर्भ वायुरुत्तर काष्ठिकः ।
प्रमुञ्चति यतस्तोयं वर्ष तन्मरूदुच्यते॥६॥ (धारित) धारण किया हुआ और (पाचित) पका हुआ (गर्भ) गर्भ (रुत्तर) उत्तर की (वायु) वायु चलाता हुआ (यतस्तोयं) जब जल (वर्ष) बरसता हुआ (प्रमुञ्चति) छोड़ता है (तत्) तो उसको (मरूदुच्यते) मरूतवायु कहते हैं।
भावार्थ-यदि गर्भ धारण करके पक कर वायु उत्तर दिशा को होकर बरसता हुआ छूटता है तो उस वायु को मरूत् वायु कहते हैं।। ६ ।।।
आषाढ़ीपूर्णिमायां तु पूर्ववातो यदा भवेत्। प्रवाति दिवसं सर्वं सुवृष्टिः सुषुमा तदा॥७॥