Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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नवमोऽध्यायः
फलवीत होंगे, सब जगह क्षेम कुशल और सुभिक्ष होगा, ऐसा भद्रबाहु स्वामीका वचन है और भी कह रहे है यह पृथ्वी वर्षा के पानी से भर जाती है, पृथ्वी धान्ययुक्त होती है, सब लोग धार्मिक उत्सव करने के लिये आकुलित रहते है, सब प्रकार के आडम्बर शान्त हो जाते है इस जगमें सब जगह शान्ति ही शान्ति हो जाती है। २५-२६-२७॥
पूर्वोवातः स्मृतः श्रेष्ठः तथा चाप्युत्तरो भवेत् । उत्तमस्तु तथैशानो मध्यमस्त्व परोत्तरः ॥ २८॥ अपरस्तु तथा न्यूनः शिष्टो वात: प्रकीर्तितः।
पापे नक्षत्र' करणे मुह र सथा नृशम् ॥२९ ।। (पूर्वोवात:) पूर्वकी वायु (श्रेष्ठः) श्रेष्ठ है (स्मृत:) ऐसा जानो, (तथा) उसी प्रकार (चाप्युत्तरो भवेत्) उत्तरकी वायु भी श्रेष्ठ है (तथैशानो) उसी प्रकार ईशान की वायु भी (उत्तमस्तु) उत्तम है (परोत्तरः) वायव्य कोणव पश्चिम की वायु (मध्यमस्त्व) मध्यम है। (तथा) तथा (अपरस्तु) दक्षिण दिशा, अग्निकोण और नैर्ऋत्य कोण का वायु, (न्यून:) अधम है, (शिष्टोवात:) अगर अच्छी वायु भी नहीं (प्रकीर्तिता) कही गयी हो और (पापे नक्षत्रकरणे) पापरूप नक्षत्र करण (च) और (मुहूर्ते) मूहुर्ते हो तो (तथा) वैसा ही फल (भृशम्) कहा गया है।
भावार्थ-यदि पूर्व की वायु उस दिन चले तो श्रेष्ठ है, उत्तर की भी वायु श्रेष्ठ है और ईशानकोण की वायु उत्तम है, किन्तु वायव्य कोण पश्चिम की वायु मध्यम है और दक्षिण, अग्नि कोण, नैर्ऋत्य कोण की वायु अधम है इन वायुओं का फल भी निकृष्ट है, वायु भी अच्छी न हो फिर पापरूप नक्षत्र, करण व मुहूर्त हो तो उसका फल अशुभ ही होगा महान अधम है, यहाँ विशेष बात यह है कि वायु भी अधम हो और पाप रूप नक्षत्र करण मुहूर्त हो तो उसका फल कभी ठीक नहीं हो सकता॥२८-२९ ।।
पूर्वधातं यदा हन्यादुदीर्णो दक्षिणोऽनिलः। न तत्र वापयेद् धान्यं कुर्यात् सञ्चयमेव च ॥३०॥