Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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तृतीयोऽध्यायः
भावार्थ — यदि उल्का सेना के व्यूह रचना पर अपसव्य मार्ग होकर गिरे तो समझो संग्राम में सारी सेना मारी जाती है और रणभूमि रक्त रंजित होकर भयंकर हो जाती है ॥ ५५ ॥
उल्का यत्र समायन्ति यथाभावे तथासु च । येषां मध्यान्तिकं यान्ति तेषां स्याद्विजयो ध्रुवम् ॥
५६ ॥
(यत्र) जहां (उल्का) उल्का ( यथाभावे ) जिस रूप में ( तथासु ) जहां से ( समयान्ति ) निकल जाती है (च) और (येषां ) जिसके ( मध्यान्तिकं ) मध्य होकर निकलती है ( तेषां ) उसकी (विजयो) विजय (ध्रुवम् ) अवश्य (स्यादि) होती है। भावार्थ जहां उल्का जिस रूप में जहां से निकल जाती है और जिसके मध्य होकर निकलती है उसकी अवश्य ही विजय होती है ॥ ५६ ॥
चतुर्दिक्षु यदा पृतना उल्का गच्छन्ति सन्ततम् । चतुर्दिशं तदायान्ति भयातुरमसंघशः ॥ ५७ ॥
( यदा) जब, ( उल्का) उल्का (चतुर्दिक्षु) चारों दिशाओं में (सन्ततम् ) सतत रूप से (गच्छन्ति) जाती हुई सेना के ऊपर गिरे तो ( भयातुरम) भयातुर होकर ( संघशः) सेना भी ( चतुर्दिशं) चारों दिशाओं में (तदायान्ति) चली जाती है। भावार्थ- जब उल्का सेना के उपर चारों दिशाओं से गिरती हुई दिखाई दे तो समझो सेना भी युद्ध स्थल से इधर उधर भाग जायगी सेना तितर-बितर हो जायेगी, इतना भय उत्पन्न हो जायेगा ।। ५७ ।।
अग्रतो या पतेदुल्का सा सेना तु प्रशस्यते । तिर्यगा चरते मार्ग प्रतिलोमा
भयावहा ॥ ५८ ॥
(या) जो (उल्का) उल्का) (सेना) सेना के ( अग्रतो ) आगे (पतेद्) गिरे तो (सा) वह सेना के लिये ( तु प्रशस्यते) प्रशस्त है, सुख देने वाली है। यदि ( प्रतिलोमा) प्रतिलोम होकर ( तिर्यगा) तिरच्छों (मार्ग) मार्ग को (चरते ) आचरण करती है तो वह सेना के लिये ( भयावह) भय उत्पन्न करने वाली है ।
भावार्थ — जो उल्का सेना के आगे गिरे तो सेना के लिये प्रशस्त और