Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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भद्रबाहु संहिता
हल के (संस्थाना) संस्थान वाले (च) और (यस्या) जिसके (श्चोभयतः) दो (शिरः) सिर हैं (रजास्तन्यमाना) इसी प्रकार और भी (नागाभाः) हाथी के आकार वाली (स्वभावतः) स्वभाव से है (प्रपतन्ति) गिरती है।
भावार्थ-उल्काएँ नाना प्रकार के आकार वाली होकर दिखेंगी उसी का वर्णन इन श्लोकों में है, जो सिंह, व्याघ्र, चीता, सूकर, ऊंट, कुत्ता, तेंदुआ, गधा, त्रिशुल एक प्रकार का आयुध धनुष, बाण, गधा, पाश (नागनास) वज्र, तलवार, फरसा, अर्द्ध चंद्राकार, गो, धा (गोह), सर्प, श्रृंगाल, भाला, मेंढा, बकरा, भैंसा, कौआ, भेड़िया, खरगोश, बिल्ली, ऊँचे उड़ने वाले पक्षी, रीछ, बंदर, सिर रहित धड़, कुम्हार का चक्र, टेडी आँख वाली (शक्ति) वा प्रतिमा, हल, दो सिर वाली, हाथी की आकार वाली और भी अन्य आकार की स्वभाव से ही गिरती है।। ७-८-९-१०-११।।
उल्काऽनिश्च विद्युश्च सम्पूर्ण कुरुते फलम्।
पतन्ती जनपदान् त्रीणि उल्का तीव्र प्रबाधते ।। १२॥ (उल्का) उल्का (अशनिश्च) अशनि और (विद्युच्च) विद्युत (सम्पूर्णं) सम्पूर्ण (फलम्) फल को (कुरुते ) करती है (त्रीणि) तीनों (उल्का) उल्का (पतन्ती) गिरती है तो (जनपादान) देशवासियों को (तीव्र) तीव्र रूप से (प्रबाधते) बाधा देती है।
भावार्थ-उल्का चाहे उल्का रूप हो या अशनि रूप या विद्युत रूप से जब गिरती है तो देशवासियों को तीव्र रूप से भयभीत कर देती है याने दुःखित हो जाते हैं।। १२ ।।
यथावदनु पूर्वेण तत् प्रवक्ष्यामि तत्त्वतः । अग्रतो देशमार्गेण मध्येनानन्तरं ततः॥१३॥ पुच्छेन पृष्ठतोदेशं पतन्त्युल्का विनाशयेत् ।
मध्यमा न प्रशस्यन्ते न भस्युल्काः पतन्ति याः॥१४॥ (यथा) जैसा (वनु पूर्वेण) कहा है (तत्) उसी प्रकार (तत्त्वत:) ज्ञान को (प्रवक्ष्यामि) मैं कहता हूँ (अग्रतो) अग्रभाग से (पतन्त्युल्काः ) उल्का गिरे तो (देश मार्गेण) देश के मार्ग का (विनाशयेत) विनाश करती है (मध्येनानन्तरं) मध्य भाग