Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
View full book text
________________
| भद्रबाहु संहिता |
चतुर्भागफला तारा धिष्ण्यमर्धफलं भवेत् ।
पूजिताः पद्मसंस्थाना माङ्गल्या ताश्च पूजिताः॥१०।। (तारा) तारा नाम की उल्का (चतुर्भाग) चौथा भाग रूप (फला) फल देती है (धिष्ण्य) धिष्ण्य नाम की उल्का का (मर्धफलं) आधा फल होता है (पद्मसंस्थाना) पद्म नाम की उल्का जो कमलाकार होती है वो (माङ्गल्या) मंगल रूप और (पूजिता:) पूजने योग्य है।
भावार्थ- तारा नाम की उल्का चतुर्थांस फल देती है, धिष्ण्य उल्का अर्धाफल देती है और जो कमलाकार दिखने वाली है, वह मंगल रूप और विद्वानों के द्वारा पूजने योग्य है माने शुभ फल देने वाली है।। १०॥
पापा: घोरफलं दधुः शिवाश्चापि शिवंफलम्।
व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्रं येषां तै: प्रतिपुद्गलाः॥११॥ (पापा:) पाप रूप उल्का (घोरफलं) घोर अशुभ फल के (दधुः) देती है (शिवाश्चापि) शुभ रूप उल्का (शिव) शुभ (फलम्) फल को देती है (व्यामिश्राश्चापि)
और मिश्र रूप उल्का (व्यामिश्रं) मिश्र रूप फल देती है (येषां) इसी प्रकार (तैः) वह उल्का (प्रतिपुला) पुद्गल रूप है।
भावार्थ-पाप रूप जो उल्काएं हैं वो महान् अशुभ घोर दुःख रूप फल देने वाली होती हैं। शुभ रूप उल्का महान् सुख को प्रदान करने वाली होती हैं। जीवों को सुख पहुँचाती हैं, शुभ होती हैं। मिश्र रूप उल्का याने शुभाशुभ रूप श्रता के लिए हुए होती है वो मिश्र फल देती है, उसका फल कुछ दुःख और कुछ सुख रूप होता है। इन पुद्गलों का ऐसा ही स्वरूप है।॥११॥
इत्येतावत् समासेन प्रोक्तुमुल्कासुलक्षणम्।
पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः ।।१२॥ (समासेन) संक्षेप से (इत्येतावत्) इतने तक (उल्का) उल्का का (सुलक्षणम्) सुलक्षण (प्रोक्तुम) कहा (पुन:) पुन: (पृथक्त्वेन) अलग से (व्यासत:) विशेषता से (लक्षणं) उल्काओं का लक्षण (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा।