Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क १९ (१) श्रीवानापन आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिसहितम् प्रथमो विभाग: सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः म TREENA Nool -: प्रकाशक :श्री महावीरजैनविद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शचुंजयतीर्थ-पालीताणा गीरिवर दरिशन विरला पावे Jain Entration International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain E cation International Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ १९ (१) नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणसमेतं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिसन्दृब्धं श्री स्थानाङ्गसूत्रम् प्रथमो विभागः सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यरत्नपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः सहायकाः मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजय- पुण्डरीकरत्नविजय-धर्मघोषविजयाः -: प्रकाशक : श्री महावीरजैनविद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं संस्करणम् : वीर संवत् २५२९ / विक्रमसं. २०५९ / ई. स. २००२ प्रतय: ५०० मूल्यम् रू. ५५०=०० प्रकाशक: - श्रीमहावीरजैनविद्यालयः ओगस्ट क्रान्तिमार्ग, मुंबई ४०००३६. मुद्रक - शिवकृपा ओफसेट प्रिन्टर्स, २७, अमृत ईन्डस्ट्रीयल एस्टेट, दूधेश्वर, अमदावाद, (गुजरात) इन्डिया. फोन : ९१-०७९-५६२३८२८, ५६२५६९८ टाईप सेटींगश्री पार्श्व कोम्प्युटर्स ५८ पटेल सोसायटी, जवाहर चोक, मणिनगर, अमदावाद, (गुजरात) इन्डिया. फोन : ९१-०७९-५४७०५४८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina-Agama-Series No. 19 (1) STHĀNĀNGASŪTRA PART I with the commentary by Acarya Sri Abhayadev-Suri Mahārāja critically edited by MUNI JAMBŪVIJAYA disciple of His Holiness Muniraja SRI BHUVANAVIJAYAJI MAHĀRĀJA SRI MAHAVIRA JAINA VIDYALAYA MUMBAI 400 036 नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की 'कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition : Vir Samvat 2529 / Vikram Samvat 2059 A.D. 2002 Copies 500 Price Rs. 550-00 Published by : The Secretary, Sri Mahavira Jaina Vidyalaya August Kranti Marg, Mumbai-400 036. Printed By Shivkrupa Offset Printers 27, Amrut Industrial Estate, Dudheswar, Ahmedabad-4, (Gujarat) INDIA. Tel: 91-079-5623828. 5625698 Composed By Shree Parshva Computers 58. Patel Society, Jawahar Chowk. Maninagar, Ahmedabad, (Gujarat) INDIA. Tel: 91-079-5470578 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धगिरिमंडन श्री ऋषभदेव भगवान श्री शगुंजयतीर्थाधिपति श्री आदीश्वरपरमात्माने नमः Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वरजी तीर्थमां बिराजमान देवाधिदेव ASHA CH SUDEE श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERE ___ ॐ ह्रीं श्री नाकोड़ा-पार्श्वनाथाय नम : ersons Anogatmanasya X Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्री श्रीं क्लीं ब्ल्यूँ श्री नाकोडा-भैरववीराय नम : श्री नाकोडा-पार्श्वनाथ जिनप्रासाद 2012 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छ श्री श्रमण संघना घणा मोटा भागना श्रमण भगवंतोना गुरुदेव परमपूज्य पूज्यपाद तपरिवप्रवर पं. श्री मणिविजयजी गणी (दादा) जन्म-विक्रमसं. १८५२, भादरवा सुदि, अघार (विरमगाम पासे) दीक्षा-विक्रमसं. १८७७, पाली (मारवाड) पंन्यासपद-विक्रमसं. १९२२, जेठ सुदि १३ अमदावाद स्वर्गवास विक्रमसं. १९३५, आसो सुदि ८ अमदावाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद महातपस्वी गणिवर्य पं. श्री मणिविजयजी महाराज (दादा) ना शिष्यत्न पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराज जन्म : वि. सं. दीक्षा : वि. सं. पंन्यासपद : वि. सं. आचार्यपद : वि. सं. स्वर्गवास : वि. सं. १९११ श्रावण सुदि १५, वळाद (अमदावाद पासे) १९३४ जेठ वदि २, अमदावाद १९५७, सुरत १९७५ महा सुदि ५, महेसाणा २०१५ भाद्रपद वदि १४, अमदावाद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराजना पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराज जन्म : वि. सं. १९३२ मागशर सुदि 6, देर दीक्षा : वि. सं. १९५८ कारतिक वदि ९, मींयागाम-करजण पंन्यासपद : वि. सं. १९६९ कारतिक वदि ४, छाणी आचार्यपद : वि. सं. १९८१ मागशर सुदि ५, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. १९९९ आसो सुदि १, अमदावाद ucation International For P ale & Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज जन्म दीक्षा स्वर्गवास : वि. सं. २०२७ : वि. सं. १९५२ कारतिक सुदि ५, (कपडवंज) : वि. सं. १९६५ महा वदि ५ (छाणी) जेठ वदि ६, (मुंबई) ता. १४-६-१९७१ सोमवार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय संघस्थविर श्री १००८ आचार्यदेवश्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महायजना पट्टालंकार - पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५१ श्रावण वदि ५, शनिवार, ता. १०-७-१८९५, मांडल दीक्षा : वि. सं. १९८८ जेठ वदि ६, शुक्रवार, ता. २४-६-१९३२, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ महा सुदि ८, ता. १६-२-१९५९, शंखेश्वरजी तीर्थ Main Eve n tal For Private&Personal use only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद साध्वीजी श्री लाभश्रीजी महाराज (सरकारी उपाश्रयवाला)ना शिष्या पूज्यपाद साध्वीजी श्री मनोहरश्रीजी महाराज pasummummm minामा जन्म : वि. सं. १९५१ मागशर वदि २, शुक्रवार, ता.१४-१२-१८९४ झींझुवाडा दीक्षा : वि. सं. १९९५ महा वदि १२, बुधवार, ता. १५-२-१९३९ अमदावाद स्वर्गवास : वि.सं. २०५१ पोष सुदि १०, बुधवार, ता. ११-१-१९९५ यत्रे ८-५४ वीशानीमाभवन जैन उपाश्रय, सिद्धक्षेत्र पालिताणा. Jan Education international Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः पृष्ठाङ्काः १-२८ २८-3८ પ્રકાશકીય નિવેદન પૂજ્યપાદ પં. શ્રી મણિવિજયજી દાદાનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર જિનઆગમ જ્યકારા (ગુજરાતી પ્રસ્તાવના) પ્રાસંગિક નિવેદન आमुखम् (संस्कृतम्) किश्चित् प्रास्ताविकम् (हिन्दी) FOREWARD 3८-४२ ४३-४६ ४७-४८ 49-50 ५१-५४ १-३०२ स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः स्थानाङ्गसूत्रम् स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणम् त्रीणि परिशिष्टानि १-१७१ १-४० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री गुरुस्तुतिः ॥ श्रीसद्गुरुदेवाय नमः । श्रीसद्गुरुः शरणम् ।। पूज्यपाद अनन्तउपकारी पिताश्री तथा गुरुदेव मुनिराजश्री १००८ भुवनविजयजी महाराज ! बहुपुण्याश्रितं दत्त्वा दुर्लभं नरजन्म मे । लालनां पालनां पुष्टिं कृत्वा वात्सल्यतस्तथा ॥१॥ वितीर्य धर्मसंस्कारानुत्तमांश्च गृहस्थितौ । भवद्भिः सुपितृत्वेन सुबहूपकृतोऽस्म्यहम् ॥२।। ततो भवद्भिर्दीक्षित्वा भगवत्यागवर्त्मनि । अहमप्युद्धृतो मार्गं तमेवारोह्य पावनम् ।।३।। ततः शास्त्रोक्तपद्धत्या नानादेशविहारतः । अचीकरन् भवन्तो मां तीर्थयात्राः शुभावहाः ॥४॥ अनेकशास्त्राध्ययनं भवद्भिः कारितोऽस्म्यहम् । ज्ञान-चारित्रसंस्कारैरुत्तमैर्वासितोऽस्मि च ॥५॥ ममात्मश्रेयसे नित्यं भवद्भिश्चिन्तनं कृतम् । व्यापृताश्च ममोन्नत्यै सदा स्वाखिलशक्तयः ॥६॥ ममाविनयदोषाश्च सदा क्षान्ता दयालुभिः । इत्थं भवदनन्तोपकारैरुपकृतोऽस्म्यहम् ॥७।। मोक्षाध्वसत्पान्थ ! मुनीन्द्र ! हे गुरो ! वचोऽतिगाः वः खलु मय्युपक्रियाः । असम्भवप्रत्युपकारसाधना: स्मृत्वाहमद्यापि भवामि गद्गदः ॥८|| - तत्रभवदन्तेवासी शिशुञ्जम्बूविजयः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશીય નિવેદન આજથી ૩૪ વર્ષ અગાઉ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આપણા આચાર્ય ભગવંતો-ધર્મગુરુઓ તથા વિદ્વાન શ્રાવકોની ધર્મપિપાસા સંતોષાય તેમજ ધર્મજ્ઞાનના ઊંડાણનો અભ્યાસ શકય બને તે માટે જૈન ધર્મના આગમસૂત્રોનું પ્રકાશન શરૂ કર્યુ. જૈન ધર્મના ૨૪મા તીર્થંકર ભગવાન શ્રી મહાવીરસ્વામીના ઉપદેશોનો સંગ્રહ એટલે આગમસૂત્રો. આપણા આગમસૂત્રોનો તલસ્પર્શી અભ્યાસ જૈન ધર્મનું શુદ્ધ સ્વરૂપ બતાવે છે અને તેનું આચરણ મોક્ષમાર્ગનું પ્રેરક બને છે. આગમ ગ્રંથમાળાના મુખ્ય પ્રેરક આગમ પ્રભાકર શ્રુતશીલ-વારિધિ દિવંગત મુનિરાજ પૂજયશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાહેબે જ્યોતિષકરંડક ગ્રંથની પ્રાકૃત ભાષામાં રચાયેલી સંક્ષિપ્ત વૃત્તિ (ટિપ્પનકોને સંશોધિત કરેલી છે. આ કાર્ય પૂર્ણ કર્યા પછી એકાદ વર્ષના અંતરે તેઓશ્રી કાળધર્મ પામ્યા. આગમ ગ્રંથમાળાના માર્ગદર્શક કાળધર્મ પામતાં આગમ-પ્રકાશનની પ્રવૃત્તિમાં ઓટ આવશે, શૂન્યાવકાશ સર્જાશે એવી અમોને દહેશત હતી પરંતુ સમગ્ર ભારતીય દર્શનોના તથા જૈન આગમ ગ્રંથમાળાના મર્મરૂપ વિધ્વંદ્વયં પૂજ્યપાદ મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મહારાજ સાહેબે બાકી રહેલાં કાર્યોને આગળ ધપાવવાની અમારી વિનંતી સ્વીકારી એ અમારાં અહોભાગ્ય છે. જૈન આગમ-સૂત્રોના ૧૯(૧) મણકારૂપે “સ્થાનાંગસૂત્ર” - પ્રથમ ભાગ પ્રકાશિત કરતાં અમે આનંદ અને હર્ષની લાગણી અનુભવીએ છીએ. આશા છે કે આ ગ્રંથો શ્રી ગુરુદેવો અને આપણા સમાજના સુશ્રાવક-શ્રાવિકાને જૈન ધર્મના તલસ્પર્શી અભ્યાસમાં ખૂબજ મદદરૂપ થશે. શ્રુતભક્તિના ક્ષેત્રે આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ અપાવે એવાં આ સંગીન અને અનુમોદનીય આગમસૂત્રોના સંશોધન અને પ્રકાશન માટે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ પ્રકાશન ટ્રસ્ટ”ની ખાસ રચના કરવામાં આવી છે જેના હાલના ટ્રસ્ટીઓ નીચે મુજબ છે. ૧. શ્રી પ્રાણલાલ કાનજીભાઈ દોશી ૨. શ્રી શ્રીકાંતભાઈ એસ. વસા ૩. શ્રી ચંદુલાલ ભાઈચંદ શાહ ૪. શ્રી અશોકભાઈ કાંતિલાલ કોરા ૫. શ્રી નવનીતભાઈ ખીમચંદ ડગલી શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે અત્યાર સુધીમાં નીચે મુજબનાં ૧૩ આગમ સૂત્રોના ૧૬ ગ્રંથોનું પ્રકાશન કરેલ છે. ग्रथांक १ नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराई च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ૪૦.૦૦ થઇ ર (૧) સાકાર સુત્ત संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ૪૦.૦૦ ग्रथांक २ (२) सूयगडंगसुत्तं संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ૪૦.૦૦ ग्रथांक ३ ठाणंगसुत्तं समवायंगसुत्तं च संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ૧૨૦.૦૦ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રથાર ૪ (૧) વિવાદિપત્તિમુત્ત મા I-9 संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ૪૦.૦૦ ग्रथांक ४ (२) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-२ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ग्रथांक ४ (३) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-३ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ૪૦.૦૦ થાંવદ ૬ (૧) પવછ/સુત્ત મા-I-૧ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः રૂ૦.૦૦ ग्रथांक ९ (२) पण्णवण्णासुत्तं भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ग्रथांक १५ दसवेयालियसुत्तं, उत्तरज्झयण्णाई, आवस्सयसुत्तं च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ૧૦.૦૦ પ્રથાંવ ૧૭ (૧) પuસુત્તારૂં મા I-9. संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ૮૦.૦૦ ग्रथांक १७ (२) पइण्णयसुत्ताई भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ૮૦.૦૦ ग्रथांक १७ (३) पइण्णयसुत्ताई भाग-३ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ૬૦.૦૦ ग्रथांक ५ णायाधम्मकहाओ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः १२५.०० ग्रथांक १८ (१) अनुयोगद्वारसूत्रम् भाग-१ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ૪૬૦.૦૦ ग्रथांक १८ (२) अनुयोगद्वारसूत्रम् भाग-२ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ૪૬૦.૦૦ શ્રુતજ્ઞાન પ્રેરિત જિનાગમ સંશોધન કાર્ય અને ભારતના જુદા જુદા સ્થળોના જ્ઞાનભંડારોની સામગ્રીનો ઉપયોગ કરવા દેવા માટે સહાયરૂપ થયા છે તેવા કાર્યકરોનો તથા આ કાર્યમાં પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષરૂપે સહાયરૂપ થનાર મહાનુભાવોનો અંતઃકરણ પૂર્વક આભાર માનીએ છીએ. આગમ ગ્રંથ “સ્થાનાંગસૂત્ર ભાગ-૧”નું પ્રકાશન પૂ. આચાર્ય ભગવંતોને તથા તેમના શિષ્યવંદને જૈન ધર્મના શ્રદ્ધાવાન શ્રાવકોને તેમજ જૈન ધર્મના સંશોધનમાં રસ ધરાવનાર અભ્યાસુઓને જૈન ધર્મના ઉંડા અભ્યાસ માટે ઉપયોગી થઈ પડશે એવી આશા સાથે વિરમીએ છીએ. આ ટ્રસ્ટના અન્વેષકો તરીકે સેવા અર્પવા બદલ મે. વિપિન એન્ડ કાં. ચાર્ટર્ડ એકાઉન્ટન્ટના આભારી છીએ. આ દળદાર ગ્રંથની છપાઈ ચીવટપૂર્વક, ખંતથી સુઘડતા પૂર્વક કરવા બદલ શિવકૃપા ઓફસેટ પ્રિન્ટર્સના અમો આભારી છીએ. જૈન આગમ ગ્રંથમાળાના કાર્યને વેગ આપવાની ભાવના સાથે અમે આ ગ્રંથ પ્રકાશિત કરીને ધન્યતા અનુભવીએ છીએ. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ ઓગષ્ટ ક્રાંતિ માર્ગ, મુંબઈ-૩૬ શ્રીકાંત એસ. વસા તા. ૯-૧૨-૨૦૦૨ સુબોધન ચીમનલાલ ગારડી માનદ્ મંત્રીઓ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રશમપીયૂષપયોનિધિ પરમતપસ્વી પૂજ્યપાદ પન્યાસજી મહારાજ શ્રીમાન્ મણિવિજ્યજી ટાણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર શાર્દૂલવિક્રિડિત દાદાદેવ સુધર્મના સદ્ગુરૂ ચિંતામણિ તુલ્ય જે પૂજ્યારાધ્ય પ્રશસ્ત ભવિજનને દેતા સદાનંદ તે જે જન્મ બ્રહ્મચારિ શ્રેષ્ઠ તપસી ક્ષાજ્યાદિ ધર્મે ભર્યા તે સાધુત્તમ પં. મણિવિજયજી વંદુ થવા નિર્જરા. ભૂમિકા ચૌદમેં ચુંમાલીસ ગ્રંથરત્નોના પ્રણેતા પરમર્ષિ શ્રીમાન્ હરિભદ્ર સૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીના લલિતવિસ્તરા ગ્રંથમાં દર્શાવેલા “ચંતિતવ્યમુત્તમપુનિર્શનેy” આ એકજ વચન જેઓના સ્મરણમાં હશે તેઓને “મહાપુરૂષોના જીવનચરિત્રો એકથી અનેક વાર શા માટે લખવાં કે વાંચવા ?' એનું રહસ્ય અગમ્ય નથી. મકાન ચણનારા કારીગરોને જેમ નકશાનો આધાર લેવો પડે છે, નૂતન ચિત્રકારને જેમ ભિન્ન ભિન્ન શિલ્પીઓના જુદાજુદા નમુનાઓનો આધાર લેવો પડે છે, તેમ આ દુનિયામાં નવીન અસાધારણ અનુભવ પ્રમાણે જીવન ઘડવામાં નિર્બળતાની છેક હદે પહોંચવા જેવી આપણી દયાજનક સ્થિતિમાંથી કાંઈક અપૂર્વ બળ, અપૂર્વ ઉત્સાહ, અપૂર્વ ગુણ તેમજ અપૂર્વ ઉદય પ્રાપ્ત કરવામાં આપણને આ લોકમાં થઈ ગયેલા તે લોકોત્તર મહાપુરૂષોના જીવનચરિત્રો સત્ય આધાર રૂપે છે. એ ચરિત્રો, વાંચનારને અને સાંભળનારને ખચિત ઉપકારક અને માર્ગદર્શક છે એ નિઃસંશય છે. ૧. વર્તમાન કાળે વિક્રમ સંવત્ ૨૦૫૫ માં વિચરતા તપગચ્છના શ્રી સાધુસંઘનો ૭૫ થી ૮૦ ટકા જેટલો ભાગ જેમના પરિવાર રૂપ છે તે પૂજ્યપાદ પ્રપ્રમગુરૂદેવ શ્રી મણિવિજયજી દાદાનું જીવનચરિત્ર તેમના શિષ્ય સંઘસ્થવિરા પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજના પટ્ટાલંકાર પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજે જ્યારે તેઓ મુનિ અવસ્થામાં હતા ત્યારે વિઝ્મસંવત્ ૧૯૮૦ માં જે લખેલું હતું અને તેમના જ શિષ્યરત્ન પૂ.મુનિરાજ શ્રી મનોહરવિજયજી (તે પછી આચાર્યદેવશ્રી મનોહરસૂરીશ્વરજી) મહારાજે લખેલા સુંદર રાજાની સુંદર ભાવના યાને શીલસત્ત્વની કસોટી આ નામના પુસ્તકમાં છપાયેલું હતું તે અહીં અક્ષરશઃ ઉદ્ધત કરવામાં આવે છે. કોઈક જ સ્થળે યત્ કિંચિત્ સુધારો કરેલો છે તે પૂ.પા.આ. શ્રી વિજય મનોહરસૂરીશ્વરજી મહારાજના પટ્ટાલંકાર પૂ.પા.આમ શ્રી વિજય ભદ્રકરસૂરીશ્વરજી મહારાજે સુધારેલા પુસ્તકને આધારે કરેલો છે. આ પુસ્તક શેઠ સુબાજી રવચંદ જયચંદ જૈન વિદ્યાશાળા-ડોશીવાડાની પોળ, અમદાવાદ તરફથી વિક્રમસંવત્ ૧૯૮૦ માં પ્રકાશિત થયેલું છે. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર અઢારમી ઓગણીસમી સદિના કેટલાક ભાગ સુધી યતિઓનું સામ્રાજ્ય અધિકર બળવાન હતું, શિથિલાચાર અધિકાધિક વૃદ્ધિ પામ્યો હતો, પરિણામે શાસનમાં તેવા લોકોત્તર મહર્ષિઓની ઓછાશ થતી ગઈ એટલે કે તેવા સંવેગી ત્યાગી મુનિવરોની સંખ્યા ઘણીજ અલ્પ થઈ ગઈ. જો કે પરમાત્મા મહાવીરદેવનું શાસન આ યુગના અંતપર્યત પણ જીવતું અને જાગતું રહેવાનું જ છે, તેના ઝળહળતા પ્રકાશને કોઈ પણ આવરી શકે એમ નથી છતાં તેવા સમયમાં તેના વિસ્તારમાં કાંઈક ટુંકી મર્યાદા થાય ખરી પરંતુ વચમાં વચમાં તેવા પ્રભાવક મહાપુરૂષોના પ્રતાપે ફરીથી વિસ્તૃતદશા પ્રાપ્ત થાય છે. તે અવસરનો શ્રાવકવર્ગ પણ “યતિઓથી જ અમારાં ધર્મનું સંરક્ષણ થયું છે' એમ સમજી શિથિલાચારીઓનો અંતેવાસી થયો હતો. આવા કટોકટીના સમયમાં પણ તેવા આદર્શ મહાત્માઓએ પ્રાણાંત કષ્ટો વેઠીને જૈનશાસનની ધર્મધ્વજા વિસ્તીર્ણ પ્રદેશમાં ફરકાવી હતી, તે સંવેગી મહાત્માઓએ ગહન પ્રદેશોમાં વિહાર કરી અનેક પરિષદો અને ઉપસર્ગો સહન કરી દુનિયાને ત્યાગ માર્ગનું સાચું ભાન કરાવ્યું હતું. જેથી શ્રાવકવર્ગમાં ધીમે ધીમે શિથિલાચારીઓ પ્રત્યે મંદ આદર થવા લાગ્યો અને ત્યાગી મહર્ષિઓ પ્રત્યે તેમની અભિરૂચી વૃદ્ધિ પામવા લાગી. ઓગણીસમી સદીમાં પણ તે શિથિલાચારીઓનું જોર હતું. તેઓના તેમજ તે સિવાય ઢેઢક લંકા વિગેરે અનેક વિપક્ષીઓના પ્રત્યાઘાતોની સામા થઈ અનેક મહાત્માઓએ અડગ સેવા બજાવી છે. નિગ્રંથશિરોમણિ પરમગુરૂવર્ય દાદા શ્રી મણિવિજયજી આ મહર્ષિઓમાંના એક હતા તેમના ગુપ્ત પણ અદ્ભુત ગુણો-આત્મબળ, ત્યાગ તથા કર્તવ્યપરાયણતા વિગેરે જોતાં આ ટુંક જીવનચરિત્ર તો એક ઘણો અલ્પ પ્રયત્ન કહેવાય તો પણ ઉપકાર, માર્ગદર્શન અને આત્મજીવનના ઉત્કર્ષના ઉદ્દેશથી એ મહામુનિનું જીવન અતિશય ઉપકારક છે. એમના જીવન સંબંધી વિશેષ હકીકત મળી શકી નથી. માત્ર થોડીક હકીકત કંઈક ટીપ્પનકરૂપે મળેલી તે ઉપરથી તથા કેટલીક હકીકત ગુરૂવર્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રીવિજયસિદ્ધિસૂરિશ્વરજીના મુખથી સાંભળી આ ઉભયના આધારે તે પૂજ્ય ગુરૂ ગુરૂટ્યનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર લખવાનો પ્રયત્ન કર્યો છે. શ્રીમો જન્મ હજારો જિનમંદિરો, અનેક લોકોત્તર તથા લૌકિક તીર્થો, પૌષધ શાળા, વિદ્યાશાળા, ધર્મશાળા, દાનશાળાઓથી વિભૂષિત, ધનધાન્યાદિથી ભરપૂર, અનેક તપોવીર, દાનવીર, ધર્મવીરોની જન્મભૂમિ, ગુર્જરભૂમિનાં ચુંઆલ નામે વિભાગમાં, અમદાવાદ જીલ્લાના વિરમગામ તાલુકામાં, શ્રી(મલ્લીનાથ) ભોયણી તીર્થથી નૈઋત્યકોણમાં, અઘાર નામના ગામમાં વીસાશ્રીમાળી વણિક જ્ઞાતીય જીવનદાસનામે શ્રેષ્ઠી રહેતા હતા. જેમને શીલ સુગંધી ગુલાબ સમાન ગુલાબબાઈ નામનાં ધર્મપત્ની હતાં. પતિ-પત્ની ઉભય શ્રીજિનધર્મનાં પરમભક્ત હતાં. સંતોષપૂર્વક ગૃહસ્થાવાસનું પાલન કરતાં જિનભક્તિ, ગુરૂભક્તિ, અને આવશ્યકાદિ સજ્જિાનું આરાધન કરવામાં મશગુલ રહેતાં હતાં. તેઓને ૧. રામપુરા (ભંકોડા) પાસે આવેલા આ અઘારગામનું હમણાં કેટલાક સમયથી નામ બદલીને અશોકનગર નામ રાખવામાં આવ્યું છે. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર રૂપચંદ નામનો એક પુત્ર ઉત્પન્ન થયો હતો. ત્યારપછી સં. ૧૮પર ના ભાદરવા મહિનાના શુક્લપક્ષમાં રત્નગર્ભા શ્રીમતી ગુલાબબાઈએ ઉજ્વલ મૌક્તિક સમાન એક પુત્ર રત્નને જન્મ આપ્યો. પૂર્ણચંદ્ર સમાન પુત્રમુખ દેખી માતાપિતાને અતિ હર્ષ થયો. પુત્રનો જન્મ મહોત્સવ કરી, તેનું મોતીચંદ નામ પાડ્યું. મોતીચંદ અનુક્રમે વૃદ્ધિ પામવા લાગ્યો. “પુત્રનાં લક્ષણ પારણામાં' આ કહેવતને અનુસાર બાલ્યાવસ્થામાં જ તેનામાં ભવિષ્યમાં થનારા મહાન ગુણોની ઝાંખી ખીલવા લાગી. નૈસર્ગિક ઔદાર્ય તેના મુખ ઉપર ઝળકવા લાગ્યું. તેનો આનંદી સ્વભાવ માતાપિતા આદિ કુટુંબીજનો અને અન્ય સર્વ જનસમૂહના અંતરમાં પ્રેમનો ઉભરો ઉત્પન્ન કરતો હતો. અનુક્રમે યોગ્ય અવસરે માતાપિતાએ મોતીચંદને ભણવા મૂક્યો. વિદ્યાગુરૂ પાસે વ્યવહારિક કેળવણી લેવા માંડી. સાથે સાથે માતાપિતા તરફથી ધાર્મિક બોધ પણ મળતો રહ્યો. ઉદાર હસમુખો અને શાંત મોતીચંદ પોતાના ઉત્તમ વિનયાદિ ગુણોથી સુજાત પુત્રની આગાહી દર્શાવતો સર્વજનોનું અધિકાધિક આકર્ષણ કરવા લાગ્યો, વિદ્યાગુરૂ પાસે યોગ્ય વ્યાવહારિક જ્ઞાન સંપાદન કરી મોતીચંદ પિતાના ધંધામાં જોડાયો. અને વિશુદ્ધ વ્યવહારપૂર્વક કાળ નિર્ગમન કરવા લાગ્યો. રત્નકુક્ષીધારક શ્રીમતી ગુલાબબાઈએ મોતીચંદના જન્મ પછી નાનચંદ અને પાનાચંદ નામના બે પત્રો અને પાનાબા નામની એક પુત્રીને જન્મ આપ્યો હતો. મોતીચંદ પોતાના પિતાશ્રી જીવનદાસની સાથે વ્યવહારમાં કુશળ થયા અને પોતાની પ્રામાણિકતાથી ગ્રાહકવર્ગમાં પણ પંકાયા. એક અવસરે કોઈક પ્રયોજન નિમિત્તે જીવનદાસ શેઠ પોતાના કુટુંબ સહિત ખેડા જીલ્લામાં રહેલા પેટલી ગામમાં ગયા. મુનિરાજ શ્રી કીર્તિવિજયજી પ્રભુશ્રી મહાવીરદેવના શાસનસામ્રાજ્યની ધુરા વહન કરનાર અનેક સુરિપુરંદરો આ ભારતવર્ષમાં પોતાના જીવન પર્યંત પ્રભુના પવિત્ર ધર્મનો દિવ્ય પ્રકાશ ફેલાવી પરલોકમાં સિધાવ્યા જે પુણ્ય શ્લોક જગવંદ્ય મહર્ષિઓએ અદ્યાપિ પર્યત પ્રભુના ત્રિકાલાબાધિત અધિકારી શાસનને અવિચ્છિન્ન પરંપરાને જાળવી રાખ્યું છે અને તેવા મહર્ષિઓ આ યુગના અંતપર્યત પણ જાળવશે એ નિષસંશય છે. જેમાં પ્રભુના પ્રથમ પટ્ટધર તરીકે સર્વાફરસન્નિપાતિ પંચમ ગણધર શ્રીસુધર્માસ્વામિજી થયા. તેમની પાટે ચરમકવલી શ્રી જંબૂસ્વામિજી થયા. તેમના પછી શ્રીપ્રભવસ્વામિજી વિગેરે ચતુર્દશ પૂર્વધર મહર્ષિઓ થયા ત્યાર પછી દશ પૂર્વધર શાસનપ્રભાવક પુરૂષસિંહો પટ્ટપરંપરાએ થયા. યાવતુ ૫૮ મી પાટે હિંસકપ્રિય માંસભક્ષી મોગલવંશીય સમ્રાટુ અકબર જેવાના નિધૃણ હૃદયમાં કૃપાલતાને ઉત્પન્ન કરનાર જગદ્ગુરૂશ્રી હીરસૂરિજી થયા તેમના પટ્ટે પ્રવચન પ્રભાવક વિજયસેનસૂરિજી થયા. ત્યાર પછી વિજયદેવસૂરિજી થયા. તેમની પાર્ટી એટલે પ્રભુ શ્રી મહાવીરદેવની પટ્ટપરંપરાએ ૬૧ મી પાટે શ્રીવિજયસિંહસૂરિજી થયા. તેમના શિષ્ય પન્યાસજી શ્રી સત્યવિજયજી ગણી થયા. એમનો જન્મ સપાદલક્ષ દેશમાં લાડલુ ગામમાં સં. ૧૭૩૪ માં થયો હતો. એમના પિતા દુગડગોત્રીય વીરચંદ નામે હતા. એમની માતાનું નામ વીરમદે હતું, અને પોતાનું નામ શીવરાજ હતું. વીરચંદ અને વીરમદે બંને લંકાપંથમાં હતાં. શીવરાજને એ માર્ગ પ્રથમથીજ અરૂચિકર હતો. જ્યારે તેમને દીક્ષાની ભાવના થઈ અને માતપિતાને સમજાવી દીક્ષા લેવા તૈયાર થયા ત્યારે, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર માતાપિતાએ લંકામતમાં દીક્ષા અપાવવા ઘણો પ્રયત્ન કર્યો, પરંતુ બુદ્ધિશાળી શીવરાજે યુક્તિપૂર્વક તેઓને સમજાવી યોગ્ય માર્ગનું ભાન કરાવ્યું, અને તપગચ્છ નાયક વિજયસિંહસૂરિજીને વિજ્ઞપ્તિ કરી પોતાના ગામમાં બોલાવ્યા. માતાપિતાએ પુત્રનો દીક્ષા મહોત્સવ કર્યો. પોતે યોગ્ય માર્ગે જોડાયા અને સં. ૧૭૮૮ માં ૧૪ વર્ષની ઉમ્મરે પુત્રને દીક્ષા અપાવી. જેમનું નામ સત્યવિજયજી રાખવામાં આવ્યું. મુનિશ્રી સત્યવિજયજી ગુરૂવિનયપૂર્વક સૂત્રસિદ્ધાંત ભણ્યા, સૂત્ર, અર્થનું રહસ્ય જાણી ગીતાર્થ થયા અને ઉત્કૃષ્ટ ક્વિાનો આદર કર્યો. આ અવસરે યતિઓનો શિથિલાચાર દિનપર દિન વૃદ્ધિ પામતો જતો હતો. સત્યગવેષક સત્યવિજયજીએ આ શૈથિલ્ય પ્રત્યે ધૃણા ઉત્પન્ન થઈ અને ગુરૂવર્ય પાસે ક્યિા ઉદ્ધારની આજ્ઞા માગી. ગુરૂવર્ષે પણ યોગ્ય જાણી શિષ્યને આજ્ઞા આપી. આજ્ઞાપાલક મુનિ શ્રી સત્યવિજયજીએ પ્રથમ મેવાડમાં વિહાર કર્યો. ઉદયપુરમાં ચાતુર્માસ રહી શુદ્ધ યિાના પાલનપૂર્વક ઉત્કૃષ્ટ તપસ્યાનો આદર ર્યો. ઉપદેશક જ્યારે ઉપદેશને અનુસાર પોતાનું શુદ્ધ વર્તન દર્શાવે તો જ તેની અસર યોગ્ય રીતીએ ઉપદેશ્ય વર્ગ ઉપર થઈ શકે છે. ચૌદસે ચુંમાલીસ ગ્રંથ રત્નોના પ્રણેતા સૂરિપુરંદર શ્રીમાનું હરિભદ્રસૂરિજી પણ દર્શાવે છે જે :- “સ્વયમ િવ તીવીરસ્તપ્રતો નિયમિત સેવ્ય' મતલબ કે કથની અનુસાર રહેણીની અવશ્ય જરૂર છે. મુનિરાજશ્રી સત્યવિજયજીએ છઠ છઠની તપશ્ચર્યા કરવા માંડી. ઇંદ્રિયલોલુપતાને દેશવટો દઈ અરસવિરસ આહારનો ઉપભોગ કરવા લાગ્યા અને પોતાની દેશનાશક્તિએ અનેક ભવ્યાત્માઓને પ્રભુ પ્રણિત પરમ શદ્ધ માર્ગનો ઉપદેશ આપી વિશુદ્ધ માર્ગના પ્રવાસી બનાવ્યા. ત્યાંથી મારવાડમાં વિચરી મેડતા, નાગોર, જોધપુર, સોજત, સાદ્રી વિગેરે સ્થળોએ ચોમાસાં ક. આ અવસરમાં સંવત ૧૭૨૯ માં શ્રી વિજયપ્રભસૂરિજીએ સોજતમાં એમને પંન્યાસપદ સમ છે કર્યું. મારવાડમાં અનેક પ્રકારના લાભ કરી અનેક પ્રાણીઓને શુદ્ધ ધર્મમાર્ગમાં જોડી તેઓશ્રી વિચરતા વિચરતા અનુક્રમે ગુજરાતમાં આવ્યા અને પાટણ, રાજનગર વિગેરે સ્થળોમાં ચાતુર્માસ કરી વિરોધી વર્ગોના અનેક ઉપસર્ગો સહન કરી, યોગ્ય માર્ગનો ઉપદેશ કરી, સમતા સાગર, સરળ પરીણામી ગુરૂ મહારાજા ૬૮ વર્ષ દિક્ષા પાળી ૮૨ વર્ષની ઉમ્મરે સંવત ૧૭પ૬ ના પોષ સુદિ ૧૨ અને શનીવારે સિદ્ધિયોગ ચાર પાંચ દિવસની માંદગી ભોગવી નિર્વાણ પામ્યા. તેમની પાટે કર્ખરવિજયજી થયા એમનો જન્મ સં. ૧૭૦૯ માં પાટણ પાસે વાગરોડ ગામમાં થયો હતો એમણે પણ ૧૪ વર્ષની ઉમ્મરે સં. ૧૭૨૩ ના માગશર શુદિમાં પાટણમાં દીક્ષા લીધી પર વર્ષ દીક્ષા પાળી ૧૬ વર્ષની ઉમ્મરે ૧૭૭પ ના શ્રાવણ વદિ ૧૪ ને સોમવારે પાટણમાં એમનો દેહોત્સર્ગ થયો. તેમની પછી અનુક્રમે ક્ષમાવિજયજી, જિનવિજયજી, ઉત્તમવિજયજી, પદ્મવિજયજી અને રૂપવિજયજી થયા. આ મહાત્માઓમાં શ્રી સત્યવિજયજીના જીવનચરિત્રની રૂપરેખા નિર્વાણરાસ તરીકે શ્રી જિનહર્ષે લખી છે. શ્રી કપૂરવિજયજી તથા ક્ષમાવિજયજીની જિનવિજયજીએ, ઉત્તમવિજયજીની પદ્મવિજયજીએ અને પદ્મવિજયજીના જીવનચરિત્રની રૂપરેખા શ્રી રૂપવિજયજીએ લખી છે. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાન્ મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર રૂપવિજયજી મહારાજના શિષ્ય શ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજ. એમનો જન્મ ખંભાતમાં સંવત ૧૮૧૬ માં વીસાશ્રીમાળી જ્ઞાતિમાં થયો હતો. ગૃહસ્થાવસ્થામાં એમનું નામ કપૂરચંદ હતું. સં. ૧૮૬૧ માં ૪૫ વર્ષની ઉમ્મરે પાલીતાણામાં શ્રી રૂપવિજયજી મહારાજ પાસે દીક્ષા અંગીકાર કરી હતી. પ્રથમથી જ ઉત્તમ સંસ્કારવાળા હોવાથી તેમજ વિદ્વાન ગુરૂવર્ગના સમાગમથી દિનપ્રતિદિન ચારિત્રમાં વિશેષ તેજસ્વી થયા. નિસ્પૃહી, વિશુદ્ધ વૈરાગ્યવાન આ મહાત્માએ ઓગણીસમી હિંદમાં પોતાના જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્રાદિ ગુણોથી જૈનસમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કર્યો. આ મહર્ષિની ત્યાગવૃત્તિ એવી અપૂર્વ હતી કે જેને નિહાળી મુનિ અને ગૃહસ્થ ઉભયવર્ગના અંતરમાં અતિશય ચમત્કાર ઉત્પન્ન થતો હતો. તેઓશ્રીએ મારવાડ, માળવા, મેવાડ તેમજ ગુજરાતના પ્રદેશોમાં વિચરી અનેક ભવ્યાત્માઓને શાસનના અનુરાગી બનાવ્યા હતા. એમનો શિષ્ય સમુદાય પણ બ્લોળો હતો. લગભગ પંદરેક તેમના શિષ્યો હશે. તે બધાનાં નામો ઉપલબ્ધ થઈ શક્યાં નથી. જે જાણવામાં આવ્યાં છે તે આ નીચે પ્રમાણે : ૧. શ્રી તપસ્વી કસ્તુરવિજયજી તેઓશ્રી સોમસુંદરસૂરિ અને શ્રી વિજયહીરસૂરિ મહારાજાની જન્મભૂમિ પાલણપુર નગરમાં વીસા પોરવાડ જ્ઞાતીમાં સંવત ૧૮૩૭ માં જનમ્યા અને તેત્રીસ વર્ષની ઉમ્મરે સંવત ૧૮૭૦ માં દીક્ષા અંગીકાર કરી, શાસ્ત્રાભ્યાસ કરી તપસ્વી બન્યા. આજે પણ તેઓ શ્રી તપસ્વીના ઉપનામથી ઓળખાય છે. રસનેન્દ્રિય ઉપર તેમનો અસાધારણ કાબુ હતો. આંબીલ વર્ધમાન તપની ઓળી લગભગ સંપૂર્ણ કરી હતી. આંબીલમાં પણ બહુ અલ્પ દ્રવ્ય વાપરતા હતા. તેઓ વડોદરામાં નિર્વાણ પામ્યા. વડોદરામાં કોઠીપાળની સામે પાર્શ્વનાથજીના મંદિરમાં તથા રાજનગરમાં લુહારની પોળના મંદિરમાં તેમનો સ્તુપ છે. આ તપસી ગુરૂ ના શિષ્ય આપણા ચરિત્રનાયક તપસ્વી મુનિવર્ય શ્રી મણિવિજ્યજી થયા. ૨. શ્રી ઉદ્યોતવિજયજી-એમના સંબંધી વિશેષ હકીકત જાણવામાં નથી. એમના શિષ્ય અમરવિજયજી તેમના શિષ્ય ગુમાનવિજયજી તેમના શિષ્ય પંન્યાસ પ્રતાપવિજયજીગણી, જેમણે સં. ૧૯૬૯ માં કાળ કર્યો તેમના પ્રશિષ્ય મુનિશ્રી બુદ્ધિવિજયજી વિગેરે હાલ વિદ્યમાન છે. મુનિશ્રી બુદ્ધિવિજયજી વિદ્વાન તથા તપસ્વી છે. ૩. શ્રી જીવવિજયજી - જેમણે ૧ સકળ તીર્થ વંદુ કરોડ, ૨ અબધુ સદા મગનમેં ૨હેતા, ૩ સુણ દયાનિધિ તુજ પદ પંકજ મુજ મન મધુકર લીનો વિગેરે અનેક વૈરાગ્યોત્પાદક, ભક્તિરસથી ભરપૂર ભાવવાહી સ્તવન સજઝાયો રચ્યાં છે. ૪. શ્રી માણિક્યવિજયજી જેમણે ૧ માતા મરૂદેવીના નંદ, ૨ વિમળાચળ વંદોરે વિગેરે સ્તવનો રચ્યાં છે. ૫ ૫. શ્રી લક્ષ્મીવિજયજી એમની પાદુકા લુહારની પોળના મંદિરમાં છે. એમના બધા શિષ્યોમાંથી હાલમાં ૧ મુનિશ્રી કસ્તુર વિજયજી અને મુનિશ્રી ઉદ્યોતવિજયજી ના પરીવારના મુનિઓ વિદ્યમાન છે. સંવત ૧૮૮૦ માં અમદાવાદ લુહારની પોળમાં જ્યારે એમનું ચોમાસું થયું હતું તે અવસરે આ બાર મુનિઓ ત્યાં હતાં. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાન્ મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧ મુનિવર્ય શ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજ; ૨ મુનિશ્રી લક્ષ્મીવિજયજી; ૩ મુનિશ્રી શાંતિવિજયજી; ૪ મુનિશ્રી કસ્તુરવિજયજી; પ મુનિશ્રી ચતુરવિજયજી; ૭ મુનિશ્રી લાભસાગરજી ૭ મુનિશ્રી મણિવિજયજી (આ ચરિત્રના નાયક); ૮ મુનિશ્રી મેઘવિજય; ૯ મુનિશ્રી મોતીવિજ્યજી; ૧૦ મુનિશ્રી મનોહરવિજયજી; ૧૧ મુનિશ્રી વૃદ્ધિવિજયજી; ૧૨ મુનિશ્રી ઉદ્યોતવિજયજી. મુનિરાજશ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજશ્રીના સમયમાં રાજનગરના નગરશેઠ હેમાભાઈએ પાલીતાણાના રાજા પ્રતાપસિંહને સિદ્ધાચલજીની રક્ષા નિમિત્તે અમુક દ્રવ્ય આપવાનો બંદોબસ્ત કર્યો હતો એમના જીવનચરિત્રમાંથી ઘણું જાણવાનું મળી શકે એમ છે. પરંતુ તે ઉપલબ્ધ નથી. ગુરૂ સમાગમ. આપણે ઉપર જોઈ ગયા છીએ કે, શ્રેષ્ઠી જીવનદાસ કુટુંબ સહિત માતરનગર (સુમતિનાથ સાચા દેવનું તીર્થ) પાસે પેટલી ગામે રહ્યા હતા. એ પેટલી ગામથી મોતીચંદ યાત્રા નિમિત્તે ખેડાનગરે આવ્યા. ત્યાં ભીડભંજન પાર્શ્વનાથની તથા અન્ય સર્વ મંદિરોની યાત્રા કરી ઉપાશ્રય ગુરૂવંદન નિમિત્તે ગયા. ત્યાં ઉપર દર્શાવેલા સંવેગી શિરોમણી શ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજા ધર્મ દેશના દઈ રહ્યા હતા. સંવેગી ગુરૂની સંવેગજનની દેશના સાંભળી મોતીચંદ અપૂર્વ આલ્હાદ પામ્યો. દેશના સંપૂર્ણ થઈ અને સભા વિસર્જન થવા લાગી. સઘળી સભા વિસર્જન થઈ. પરંતુ ગુરૂ મહારાજના વચનામૃતનો પિપાસુ મોતીચંદ ત્યાંજ બેસી રહ્યો. જનસમુદાય વિસર્જન થયા બાદ ગુરૂ મહારાજ પાસે જઈ વિનયપૂર્વક બેઠો. ઇંગિત આકારના જાણ ગુરૂ મહારાજાએ તેની ચેષ્ટા ઉપરથી પણાની કલ્પના કરી, યોગ્ય ધર્મ ઉપદેશ આપ્યો. જેમ જેમ મોતીચંદ ઉપદેશામૃતનું પાન કરતો ગયો તેમ તેમ તેના ચિત્તમાં ચમત્કાર થવા લાગ્યો. રોમાંચ વિકસ્વર થયા અને અતિ આનંદ પામ્યો. આ અવસરે તેમના અંતરમાં વિશુદ્ધ વિચાર શ્રેણી પ્રગટ થઈ “અહા ! આવા વણનો યોગ હંમેશા પ્રાપ્ત થાય તો કેવું સારું ! આ ઉપકારી મહાત્માની અહોનિશ સેવા કરવાનો યોગ મને ક્યારે મળે !' આવા પ્રકારની ભાવના ભાવતાં અને ગુરૂ મહારાજનાં વચનામૃતનું સ્મરણ કરતાં ભાગ્યવાનનો અંતરાત્મા જાગૃત થયો, મોહ નિર્બળ પડ્યો, અંતર્થક્ષ ઉઘડ્યાં, પદાર્થોની અનિત્યતાનું ભાન થવા લાગ્યું, સોપક્રમી આયુષ્યનું ક્ષણવિનશ્વરપણું જાણ્યું, અને વૈરાગ્ય વાસના જાગૃત થઈ. સંસ્કારી પુન્યશાળી જીવોને સામગ્રીનો સંયોગ મળતાં શુભ વાસનાઓ જાગૃત થવામાં વિલંબ થતો નથી. માત્ર પગે કાંટો વાગ્યો તે કાઢવા જેટલી વાર. ધર્મ શ્રવણ અનાયાસે થયું તેમાં પણ રોહીણીયા ચોર જેવાને પરિણામે ચારિત્રની ભાવના થઈ આવી તો, બાલ્યાવસ્થાથી જ શુદ્ધ સંસ્કારી વિશુદ્ધાત્મા મોતીચંદને માટે તો શું કહેવું ? ગુરૂનો સમાગમ વધતો ગયો તેમતેમ મોતીચંદની વૈરાગ્ય વાસના વિશેષ પ્રદીપ્ત થઈ અને સાવધાન થયો. ખેડામાં પ્રવેશ કરતાં જો કે મોતીચંદ યાત્રાનો અર્થી હતો. દેવગુરૂના દર્શનનો અભિલાષી હતો, પરંતુ તે અવસરનો મોતીચંદ અને અત્યારના મોતીચંદમાં ઘણોજ ભેદ હતો. તે અવસરે ધર્માભિલાષી હતો. પરંતુ તે અભિલાષાના સ્વરૂપને સ્ફટ જોઈ શક્તો ન હતો. અત્યારે તે અભિલાષાને સ્ફટ જોવા લાગ્યો. તે અવસરે ગમનનો માર્ગ નિર્ણયપણામાં નહોતો. અત્યારે તે માર્ગ નિર્ણિત થઈ ગયો. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર અહો ! ગુરૂ કલ્પવૃક્ષ ! તારા સમાગમની શી પ્રશંસા કરીએ ! ભગ્ન પરિણામી મેઘકુમારને કેવો બચાવી લીધો ! રમત માત્રમાં દીક્ષાની વાતો કરનાર નવા પરણેલા બાળકને તારા સમાગમે એક દિવસમાં કેવળ જ્ઞાનનો સ્વામી બનાવ્યો. ભોજનની ભક્ષા માગતા ભીખારીને જિનશાસનનો શણગાર સંપ્રતિ રાજા બનાવ્યો. વૈરાગ્ય પામીને પણ ફરી એશઆરામી બની દુર્ગતિમાં ઢળતા સિદ્ધસેનને “વાઘતિ વાધર્ત' સંભળાવી બચાવી લીધો. મહાહિંસક મહા શિકારી અકબર બાદશાહ જેવાને પણ દયામય બનાવનાર તારો સમાગમ, અરે ! એટલું જ નહિ મેધાંધ, મહાહિંસક, નરક સન્મુખ થઈ રહેલા દૃઢ પ્રહારીને બચાવનાર કોણ ! વાંસ ઉપર ચઢી નાટક કરતા વિષયાંધ ઈલાચી પુત્રના ચક્ષુઓનું ઉન્મીલન કરી કેવળ જ્ઞાનનો ભોક્તા બનાવનાર કોણ ! ખરેખર ! આવા તારા સમાગમથી વંચિત રહેનાર પ્રાણીઓનું કેવું દુર્ભાગ્ય ! દીક્ષાભિલાષા અને ગુરૂપ્રાર્થના મોતીચંદના હૃદયમાં જ્ઞાનદીપક પ્રગટ થયો. વૈરાગ્ય તંરગોમાં હૃદય ઝીલવા લાગ્યું. સાંસારિક પદાર્થોની મોહકતામાં ભય દેખાવા લાગ્યો. તે મોહમાં મુંઝાઈ રહેલા ધન ધાન્યાદિની સામગ્રીવાળાઓમાં પણ દીનપણાનો આભાસ થવા લાગ્યો. માત્ર જ્ઞાન દર્શન ચારિત્રાદિનું એકાંતે આરાધન કરનાર પોતાના શરીરે પણ નિસ્પૃહી તે મુનિ મતંગજોની મુનિચર્યામાં જ સુખનો આભાસ થવા લાગ્યો. હવે ક્યારે મને મુનિપણાની પ્રાપ્તિ થાય ! ક્યારે ગુરૂ મહારાજ ની એકાંત સેવાનો લાભ મળે ! અને ક્યારે જ્ઞાનાદિ યોગનો આરાધક હું યોગી થાઉં ! આમ વૈરાગ્ય ભાવનામાં લીન થયેલ મોતીચંદને હવે દીક્ષાની ઉત્કંઠા થઈ રહી, અને ગુરૂ મહારાજને પ્રાર્થના કરી કે : પ્રશમ પીયૂષ પયાનિધિ ! જ્ઞાન દિવાકર ગુરૂ મહારાજા ! અત્યાર સુધી વાસ્તવિક રીતિએ હું અંધ હતો. મહારાજા ! આપે દેશના દઈ આજ મારાં નેત્રોમાં અપૂર્વ પ્રકાશ મૂક્યો. પ્રભો! ભવતારક ! આપ આ સંસારમાં ડબતાને માટે જહાજ સમાન છો. આ વિષય કષાય દાવાન બળતાને શાંત કરવા આપ જળધર સમાન છો. આપ અમારા વિષય તૃષ્ણારૂપ દાહને સમાવવા અમૃત સમાન છો. હે ઉપકારી ! હવે તો તમારું જ શરણ છે માટે આ રંકને ચારિત્ર રત્ન દઈ આપ સમાન ચક્વર્તી બનાવો આપના સંસર્ગથી અને આપની નિર્મળ કૃપાથી મારી વાંછિત સિદ્ધિ થશે. ગુરૂ મહારાજશ્રીએ પણ તેની ભાવના જાણી દીક્ષા પરિણામમાં દઢ બનાવ્યો. મોતીચંદે પણ હવે શીધ્ર દીક્ષા લેવાનો નિર્ણય કરી ઘર તરફ પ્રયાણ કર્યું. મોતીચંદ ઘેર ગયા અને માતાપિતાને સંસારની વિટંબણા, મોહનું સામર્થ્ય, તેમાં પ્રાણીઓનું પારવશ્ય તેનાથી થતા અનેક અનર્થો અને પરિણામે કર્મબંધ તથા જંબૂકમારાદિનો વૈરાગ્ય, મતાપિતા સહિત દીક્ષાનું અંગીકાર કરવાપણું વિગેરે દર્શાવી પોતાનો આંતરિક વિચાર જણાવ્યો. પરંતુ પુત્ર મોહમાં મુંઝાયેલાં માતાપિતા તત્કાળ સાનુકુળ ન થયાં. અને મોતીચંદને વ્યવહાર કાર્યમાં જોડાવું પડ્યું. પરંતુ જેનો અંતરાત્મા ઉજ્વળ થયો છે, સંસાર કારાવાસનું સ્વરૂપ જે બરાબર જોઈ રહ્યો છે, વિષય કષાયની જ્વાળાઓમાં બળતા પ્રાણીઓની વિડંબના જેને પ્રત્યક્ષ થઈ રહી છે, જેણે રૂપ, યૌવન, ધન, સ્વજનાદિનો પ્રેમ, અને ઠકુરાઈ સ્વપ્ન સમાન જાણી લીધી છે, જે વનમાં Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર દાવાનળમાં સપડાએલ પરિણની માફક આ સંસારમાં પોતાને અશરણ જાણી રહ્યો છે. સંસાર વાસમાં આશ્રયોનાં અનેક સ્થાનોને જે જોઈ રહ્યો છે તે મોતીચંદ, માતાપિતાના આગ્રહથી ઘેર રહ્યો પરંતુ વ્યવહારમાં સઘળાં કાર્યોમાં તેનો અનાદરજ રહ્યો. લોભાવનારાં અનેક સાધનો છતાં તેનું હૃદય પલટાયું નહીં અને તેમાંથી મુક્ત થવાના પ્રયત્ન કરવા લાગ્યો. તેની વૈરાગ્ય ભાવના દિવસે દિવસે વૃદ્ધિ પામવા લાગી. છેવટે વ્યવહાર કાર્યમાં તેનો આવા પ્રકારનો અનાદર દેખી માત્ર એક ધર્મસાધનમાં જ તેની વૃત્તિ જાણી ધર્માત્મા માતાપિતાએ પુત્ર પ્રત્યે અત્યંત રાગ છતાં, પણ તેના ધર્મ સાધનમાં અંતરાયભૂત ન થતાં કેટલીક મુદતે પુત્રની ઈચ્છાને આધીન થયાં. એ અવસરમાં રાજનગરનો સંઘ રાધનપુરની યાત્રા કરવા આવ્યો. તેની સાથે કીર્તિવિજયજી મહારાજા પણ આવ્યા છે એમ જાણી મોતીચંદ રાધનપુર આવ્યા. ગુરૂ મહારાજનાં ચરણકમળ ભેટ્યા. સર્વ મંદિરોની યાત્રા કરી, અને ગુરૂ મહારાજ પાસે અભ્યાસ કરવા રહ્યા. અનુક્રમે ઉગ્રવિહારી કીર્તિવિજયજી મહારાજાએ ત્યાંથી મરૂદેશ તરફ વિહાર કર્યો. તેમની સાથે મોતીચંદે પણ મારવાડ તરફ પ્રયાણ કર્યું. વિહાર કરતા ગુરૂ મહારાજા પ્રથમ તારંગાજી તરફ ગયા. તારણગિરિની યાત્રા કરી માર્ગમાં અનેક ગામોમાં જિનમંદિરોની યાત્રા કરતા અનેક પ્રાણીઓને ધર્મોપકાર કરતા ગુરૂ મહારાજા અબ્દગિરિ આવ્યા. જૈનોની સંપત્તિ, ઔદાર્ય અને પ્રભુભક્તિનું દિગ્દર્શન કરાવતાં ત્યાંના ચૈત્યોની યાત્રા કરી ત્યાં કેટલાક દિવસ સ્થિરતા કરી, પ્રભુસેવાનો લાભ લીધો. ત્યાંથી મરૂભૂમિમાં ઉતર્યા ત્યાં પિંડવાડા, બ્રાહ્મણવાડા, વીરવાડા, સરોહી, નાંદીયા, લોટામા, દેણા વિગેરે તીર્થોની યાત્રા કરી. બેડા, નાણા થઈ રાણકપુરના ચતુર્મુખ ભવ્ય જિનાલયમાં શ્રી યુગાદિદેવને ભેટ્યા. ત્યાંથી સાદડી, ધાણેરાવ, દેસુરી, નાડલાઈ, નાડોલ વિગેરે પંચતીર્થીની યાત્રા કરી. ગુરૂમહારાજા ધર્મોપદેશ વૃષ્ટિથી મરૂભૂમિને નવપલ્લવ કરતા અનેક પ્રાણીઓને યોગ્ય ધર્મનું સ્વરૂપ દર્શાવી તેમને સુમાર્ગ સન્મુખ કરતા પાલી શહેરમાં પધાર્યા અને આપણા ભાવિમુનિ મોતીચંદ પણ તેમની સાથે ગૃહસ્થાવાસમાં પણ મુનિ માર્ગની તુલના (અભ્યાસ) કરતા પાલી નગરમાં આવ્યા. આટલો સમય વિદ્વાન, શુદ્ધકરૂપક, મહાત્યાગી ગુરૂમહારાજની સેવામાં અને તે પણ વિહારમાં સાથે રહેવાથી મોતીચંદને મુનિ માર્ગનો ઘણો સારો અનુભવ મળ્યો. તેમજ ગુરૂમહારાજને પણ મોતીચંદના સ્વભાવ, વર્તન વિગેરેનો અનુભવ થયો. તેનો હસમુખો ચહેરો, ઉદાર શાંત અને માયાળુ સ્વભાવ, નિષ્કપટીપણું તેનું દાક્ષિણ્ય અને વિશુદ્ધ ભક્તિથી ગુરૂમહારાજની તેના ઉપર અત્યંત કૃપા થઈ. ગુરૂશ્રીના પ્રથમ સમાગમે મોતીચંદભાઈ ચારિત્ર લેવા ઉત્સુક બન્યા હતા પણ હવે તો તેમણે નિશ્ચય કર્યો કે :- ચારિત્ર લેવું જ અને તે પણ આવા જ ગુરૂ પાસે. પાલી નગરની દિવ્ય મંદિરોની યાત્રા કરી ઉપકારી ગુરૂમહારાજાએ ત્યાં કેટલીક મુદત સ્થિરતા કરી જેથી ત્યાંના ભાવિ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ વિગેરે ઘણો હર્ષ પામ્યાં. મહારાજાની મધુરવાણી અને વૈરાગ્યોત્પાદક દેશના સાંભળી આનંદમાં ગરકાવ થઈ ગયા અને દિવસે દિવસે અપૂર્વ ઉત્સાહ પ્રગટતો ગયો. મહારાજાની સાથે આવેલા મોતીચંદ ની પણ લોકો અનન્ય ભક્તિ કરવા લાગ્યા. મોતીચંદે પણ પોતાના હમેશનાં પ્રસન્નમુખ, મિલનસાર સ્વભાવ વિગેરે ઉત્તમ ગુણોથી તેમના હૃદયનું એવું આકર્ષણ કરી લીધું કે જેથી લોકોને પણ અહં પ્રથમિકા પૂર્વક તેની ભક્તિની સ્પર્ધા Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર થવા લાગી. હવે શહેરમાં મોતીચંદ દીક્ષાના અભિલાષી છે અને થોડીજ મુદતમાં દીક્ષા અંગીકાર કરનાર છે એવી વાતો ફેલાવા લાગી. લોકો મોતીચંદને મહાભાગ્યવાન માનવા લાગ્યા. વળી અત્યાર સુધમાં ગુરૂ મહારાજના સહવાસથી પરિપક્વ થયેલ તેની વૈરાગ્યવાટિકા અત્યંત ખીલી નિકળી હતી. આ વૈરાગ્ય વાટિકાનો રંગ જોઈ પાલીના સંઘે એકત્ર થઈ ગુરૂ મહારાજને વિજ્ઞપ્તિ કરી જે :- “મહારાજા ! આ પાલીના સંઘ ઉપર જેવી રીતે આપે કૃપા કરી, આપના દર્શનથી અને દેશનાથી અમોને કતાર્થ - પાવન કર્યા તેવીજ રીતે કપા કરી ભાગ્યશાળી વૈરાગ્યવાન અમારા સાધર્મિકબંધુ મોતીચંદભાઈને અત્રે દીક્ષા આપી અમારી આ ભૂમિને પાવન કરી અમારી અભિલાષા પૂર્ણ કરો.' ગુરૂ મહારાજાએ પણ યોગ્ય અવસર જાણી પોતાની સમ્મતિ દર્શાવી. કહેવાની જરૂર નથી કે મોતીચંદ તો અણગાર થવાને અતિ ઉત્સુક હતા, અને મુહૂર્તની રાહ દેખતા હતા. મહોત્સવ અને દીક્ષા ગુરૂમહારાજશ્રીની સંમતિ મળવાથી સંઘમાં અપૂર્વ આનંદ થયો. મંદિરોમાં અષ્ટાત્વિકા મહોત્સવ શરૂ થયો. નાટક, ગીત, વાજીંત્રોના નાદ થવા લાગ્યા. મોતીચંદભાઈની ઘેર ઘેર પધરામણી થવા લાગી. સાધર્મિકભાઈઓ અનેક પ્રકારે તેમની ભક્તિ કરવા લાગ્યા. અનુમે દીક્ષા દિવસ આવ્યો. આડંબરપૂર્વક વરઘોડો ચઢ્યો. દીક્ષા સ્થાને આવ્યા. ઉત્સાહપૂર્વક મહાન સમુદાય એકઠો થયો. યાચકોને દાન દેવાયાં. દીક્ષા વિધિ શરૂ થઈ. મોતીચંદભાઈએ જ્યારે આભરણો ઉતારવા માંડ્યાં. ત્યારે સુકોમળ હૃદયવાનનાં હૈયાં ભરાવા લાગ્યાં, કેટલાકની આંખોમાંથી આંસુ પડવા લાગ્યાં. કેટલાક અનુમોદન કરવા લાગ્યા. કેટલાક મોતીચંદભાઈને, કેટલાક ગુરૂમહારાજને અને કેટલાક ઉભયને ધન્યવાદ દેવા લાગ્યા. અને કેટલાક વિષય કષાયરૂપ કીચડમાં ખૂંચેલા પોતાના આત્માની નિંદા કરવા લાગ્યા. પરંતુ મોતીચંદભાઈના મુખ ઉપરતો આજે અપૂર્વ આનંદની રેખાઓ તરવરતી હતી. આજે પોતાની અભિલાષા પુર્ણ થાય છે. બંધનથી મુક્ત થવાય છે. અને ચારિત્ર રત્નન પ્રાપ્તિ થાય છે, જેથી તેમના હૃદયમાં હર્ષના કલ્લોલો ઉછળતા હતા. વિધિ ચાલુ થતાં સામાયિક ઉચ્ચરાવવાનો અવસર થયો એટલે ગીત વાજીંત્રોનો નાદ બંધ થયો. સર્વત્ર શાંતિ ફેલાઈ અને ગુરૂ મહારાજાએ મનોહર દિવ્ય વાણીથી “નવકાર પૂર્વક કરેમિ ભંતે” નો પાઠ ત્રણવાર ઉચ્ચરાવ્યો અને મોતીચંદભાઈને પોતાના શિષ્ય તપસ્વી મુનિવર્ય શ્રી કસ્તુરવિજયજીના શિષ્ય તરીકે સ્થાન કરી તેમનું “મણિવિજયજી” નામ આપ્યું. સુવર્ણમાં સુગંધ ભળી. વિનયી, વિવેકી, વૈરાગી મોતીચંદને ૧૮૭૭ માં ૨૫ વર્ષની વયે ચારિત્ર રત્ન પ્રાપ્ત થયું. ચોવિહાર ઉપવાસનું પચ્ચખાણ કર્યું. આગલે દિવસે એકાસણું કર્યું હતું ત્યાર પછી પણ યાવત્ જીંદગી પર્યત એકાસણાથી ઓછી તપસ્યા કરી નથી. દીક્ષાવિધિ સંપૂર્ણ થઈ એટલે લોકો વૈરાગ્ય તરંગોમાં ઝીલતા મોતીચંદભાઈના ગુણોનું સ્મરણ કરતા સ્વસ્થાને ગયા. ગુરૂમહારાજાએ પણ નૂતન શિષ્ય સહિત અન્યત્ર વિહાર કર્યો. વિહારાદિ ચર્ચા બાલ્યાવસ્થામાંજ જેના કોમળ અંતઃકરણમાં ઉચ્ચ સંસ્કાર સ્થાપિત થયા હતા તે મોતીચંદ હવે મોતીચંદ મટીને મણિવિજ્યજી બન્યા. આગાર છોડી અણગાર થયા. દુન્યવી પ્રપંચોથી વીરમી Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર એકાંતે આત્મહિતના અવિચળ માર્ગના પ્રવાસી બન્યા પૂજ્યપાદ શ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજશ્રીના ખેડાના પ્રથમ પરિચય વખતે તેમના દુગ્ધ સહોદર ઉવેલ હૃદયમાં ઉદ્ભવેલી પવિત્ર ભાવનાને તો લગભગ સાત વર્ષ જેટલો દીર્ધ સમય વીતી ગયો. આટલા સમય પર્યત તો માતા પિતાના સ્નેહ તંતુએ મોતીચંદભાઈને દઢ બંધનથી બાંધ્યા હતા તેઓ પણ સર્વ વિરતિના આવારક નિબિડ પ્રતિબંધકોને વિચારી તેને તોડવા માટે ગૃહજીવનમાં પણ અણગાર જેવું જીવન વ્યતીત કરી રહ્યા હતા. છેવટે અંતરાય તૂટ્યો, તે શુભ સમય આવી પહોંચ્યો, અને પ્રવજ્યાના દઢ રંગી મોતીચંદભાઈની આશા સફળ થઈ. માતા, પિતા, બંધુ, ભગીની વિગેરે સ્વજન સંબંધી સ્નેહના દઢ બંધનો ક્ષણવારમાં ત્રોડી નાખ્યાં, સંસારની માયા છોડી. પૌદ્ગલિક સુખ વૈભવોનો પરિત્યાગ કર્યો. કારાવાસના ક્લિષ્ટ દુઃખથી વિહ્વળ પ્રાણી જેમ શરણ્યનું શરણું અંગીકાર કરે તેમ મુનિવર્યશ્રીએ ગુરૂવર્યશ્રીના પવિત્ર ચરણે પોતાનું શીર ઝુકાવ્યું અને જીંદગી ભરને માટે તેમનાજ અનુચર થયા. તેઓશ્રી જે આજ્ઞા ફરમાવે તેજ પ્રમાણે કરવું આવો દૃઢ નિશ્ચય તેમના ઉજ્વળ અંતરમાં સુવર્ણાક્ષરે કોતરાઈ રહ્યો. સુકોમળ શય્યામાં શયન કરનાર મોતીચંદભાઈએ આજે ભૂટ્યા સંથારા ઉપર શયન કરવાનો સ્વીકાર કર્યો. ઈષ્ટ મિષ્ટ ભોજનનો પરિત્યાગ કરી અંત પ્રાંત અરસ વિરસ ભોજનમાં જ સંતોષ વૃત્તિ ધારણ કરી પરિગ્રહ મમત્વ દશાને દેશવટો આપ્યો. પ્રયાણ માટે વાહન અને ઉપાનહના ઉપભોગ કરનાર મોતીચંદભાઈએ કાંટા કાંકરા અને કચરાથી ભરપૂર માર્ગમાં પણ અડવાણે પગે ચાલવાની વૃત્તિ અંગીકાર કરી. સમગ્ર વિશ્વ પ્રત્યે મૈત્યાદિ ભાવનાથી તેમનું હૃદય ઓતપ્રોત થયું. એક કુટુંબનો ત્યાગ કરી સમગ્ર વસુધાને પોતાનું કુટુંબ બનાવ્યું. પરભાવને છોડી સ્વરમણતામાં જ મન વાળ્યું. પરિષહ અને ઉપસર્ગોના સૈન્ય બળને હંફાવવા સિંહ પરાક્રમી બન્યા. રણાંગણમાં મોહરાજાનો વિજય કરવા ધર્મધ્વજા ધારણ કરી ધર્મધુરાને હસ્તગત કરી ૧૮૦૦૦ શીલાંગરથને વિશ્વ ઉપર વહન કરાવવા લાગ્યા. ઈર્ષા સમિતિ વિગેરે અષ્ટ પ્રવચનમાતાના પાલક સુજાત પુત્રે પોતાની માતાની અને માતાના ચરણે પડેલા અનેક સુપુત્રોની કીર્તિલતાને સમગ્ર વિશ્વમાં વિસ્તારી. ટુંકાણમાં એટલુંજ કે મુનિવર્યશ્રી મણિવિજયજીએ, ચિરંતન મુનિવરોએ સ્વીકારેલા નિર્મળ અને નિષ્કિચન સંયમ રથમાં આરૂઢ થઈ મુક્તિ માર્ગે પ્રયાણ કર્યું. ગુરૂકુલ વાસમાં રહી જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્રનો અનુભવ લેતા ચરણ સિત્તરી, કરણ સિત્તરીનું આરાધન કરતા મુનિવર્ય ગુરૂ મહારાજા તેમજ અન્ય મુનિ સમુદાયના વિનય વેયાવચ્ચાદિમાં અપ્રતિબદ્ધ સતત ઉદ્યમ કરવા લાગ્યા. જેના પરિણામે થોડીજ મુદતમાં સર્વ મુનિ મંડળની પ્રીતિ સંપાદન કરી લીધી. સર્વ કોઈ એમના પ્રત્યે સ્નેહ ભરી દૃષ્ટિએ જોવા લાગ્યા. અને એમના વિનયાદિની એક અવાજે પ્રશંસા થવા લાગી. દુનિયામાં વિનય ગુણ એ એક મહાન વશીકરણ છે. ગુણોનું મૂળ છે. સજ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રનું મૂળ છે, મોક્ષનું પણ એ મૂળ છે. ચાહે દેશવિરતિ હો કે સર્વ વિરતિ હો. એ વિનય વિના કોઈપણ શોભા પામી શકતા નથી !! વિનીત લોકપ્રિય બને છે અને લોકપ્રિય અન્યોનું સ્વમાર્ગે આકર્ષણ કરી શકે છે. ધર્મ ઉપર બહુમાન કરાવી શકે છે. તથા અન્યને બોધિબીજની પ્રાપ્તિનું કારણ બને છે. અન્યને ધર્મ માર્ગમાં જોડવામાં Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧૧ આ ગુણની અવશ્ય જરૂર છે. વિદ્વત્તા છતાં લોકપ્રિયતાના અભાવે બીજાઓને જોઈએ તેવા લાભ આપી શકાતો નથી. કીર્તિવિજયજી મહારાજાની આજ્ઞાથી ગુરૂ સાથે વિહાર કરતા પ્રથમ ચાતુર્માસ તેમણે ૧૮૭૭ માં મેડતા નગરમાં કર્યું. ચાતુર્માસ સંપૂર્ણ થયા પછી મરૂભૂમિમાં વિચરતા અનેક તીર્થોની યાત્રા કરી ભવ્ય કુમુદ વનને વિકસ્વર કરતા ગુજરાતમાં રાધનપુર નગરે આવ્યા એ સં. ૧૮૭૮ માં ચાતુર્માસિક સ્થિરતા ત્યાંજ કરી, ત્યાર પછી શંખેશ્વરજી આદિ તીર્થોની યાત્રા કરી ગુરૂવર્ય સાથે રાજનગર આવ્યા અને ગુરૂવર્ય સાથે સંવત ૧૮૭૮, ૭૯, ૮૦ ત્રણ ચોમાસાં રાજનગરમાં કર્યા. આ અવસરે કીર્તિવિજયજી મહારાજા વૃદ્ધાવસ્થા પામ્યા હતા. મહારાજશ્રી મણિવિજયજી દીક્ષા દિવસથી માંડી ઉપવાસાદિ તપ સિવાયના બીજા દિવસોમાં એકાસણું જ કરતા હતા. તે પણ ઠામ ચોવિહાર એટલે આહાર અવસરેજ પાણી વાપરતા, તે સિવાય બીજા અવસરે પાણી પણ લેતા ન્હોતા. નાની કે મોટી તપસ્યા હોય, વિહારમાં હોય કે સ્થાને હોય, શરીરે આબાધા હોય કે શાંતિ હોય, પરંતુ પ્રાયઃ ચોવિહાર એકાસણું કરતા હતા. તપના ઉત્તર પારણે અને તપને પારણે પણ એકાસણું કરતા. ખરૂંજ છે જે :- માનનો ચેન ત: ૪ પંથ | ગુરૂમહારાજશ્રી કસ્તુરવિજયજી વર્ધમાન તપનાં આયંબીલ દરરોજ કરે અને તેમના આ નૂતન શિષ્ય ચોવિહાર એકાસણાં કરે. આ સ્થિતિમાં ૧૮૭૯ ના ચોમાસામાં ૨૭ વર્ષની ઉમ્મરે સોળ ઉપવાસ કર્યા, અને બીજે વર્ષે સં. ૧૮૮૦ માં અઠ્ઠાવીસ વર્ષની ઉમ્મરે માસક્ષમણ કર્યું અને ત્રીજા ચોમાસામાં સં. ૧૮૮૧ માં બત્રીસ ઉપવાસ કર્યા. આવી રીતે રાજનગરનાં ત્રણે ચોમાસામાં મહાન તપસ્યા કરી, ત્યાગી તપસ્વી ગુરૂના શિષ્યમુનિશ્રી મણિવિજયજી તપસ્વી બન્યા. આટલી નાની વયમાં અને માત્ર પાંચ વર્ષના દીક્ષા પર્યાયમાં આવી મોટી તપસ્યા થાય એ પુદ્ગલાનંદી શરીર સેવકોને તો ખરે આશ્ચર્ય ઉપજાવે. પરંતુ સંસારની સ્થિતિ જાણી, કર્મબંધના સ્થાનોને વિચારી, નિર્જરાના અભિલાષી થઈ, શરીરની મૂછ છોડી, આત્મશક્તિની જેણે પીછાન કરી છે તેને તપસ્યામાં મુંઝવણ થતી નથી, પરંતુ તે તે અંશે શારીરિકાદિ મૂછના બંધનથી મુક્ત થવાથી અધિકાધિક આનંદ થાય છે. રાજનગરનાં ત્રણે ચોમાસામાં શ્રીમદુને આવી રીતે તપસ્યા, ગુરૂભક્તિ વિગેરેનો અપૂર્વ લાભ મળ્યો. આ અવસરમાં સંવત ૧૮૮૦ માં અમદાવાદમાં લુહારની પોળમાં તેઓ સહિત બાર મુનિવરોનાં ચોમાસાં હતાં. અમદાવાદથી વિહાર કરી કાઠિયાવાડ ગયા અને સંવત ૧ ચોમાસુ પાલીતાણામાં કર્યું. એ ચોમાસામાં સોળ ઉપવાસ કર્યા. ત્યાંથી વિચરતા રાજનગર આવ્યા અને સંવત ૧૮૮૩ નું ચોમાસું રાજનગરમાં કર્યું. એ ચોમાસામાં પણ સોળ ઉપવાસ કર્યા. સંવત ૧૮૮૪ નું ચોમાસું ખંભાતમાં કર્યું. ત્યાં આઠ ઉપવાસ કર્યા. સંવત ૧૮૮૫ નું ચોમાસું રાજનગરમાં કર્યું. સં. ૧૮૮૬ માં રાધનપુર ચોમાસુ કર્યું. ચોમાસા પછી કચ્છમાં વિચર્યા ત્યાંની ભદ્રેશ્વર વિગેરે અનેક સ્થળોની યાત્રા કરી. સં. ૧૮૮૭ અને ૧૮૮૮ માં ભૂજનગરમાં બે ચોમાસા કર્યા. ત્યાંથી પાછા વળતાં સં. ૧૮૮૯ માં રાધનપુર ચોમાસું કર્યું. રાધનપુરના ચોમાસા પછી વિહાર લંબાવ્યો. ગુજરાત થી નીકળી મરૂબરમાં વિચર્યા. ત્યાં પંચતીર્થી આદિ અનેક તીર્થોની યાત્રા કરતા અનેક ભવ્ય જીવોને ઉપકાર કરતા મુનિવર્ય બનારસ પહોંચ્યા અને સંવત ૧૮૯૦ નું ચોમાસુ બનારસમાં Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર કર્યું. મારવાડ અને પૂર્વદેશમાં જ્યાં શ્રાવકોની વસ્તી થોડી થોડી હોવા છતાં નિરતિચાર ચારિત્રનું પાલન કરતા પદ્મસુંદર નામના મુનિ સાથે ગુરૂ મહારાજ ત્યાં વિચર્યા. બનારસના ચોમાસામાં આયંબીલ ઉપર નવ ઉપવાસનો તપ કર્યો. બનારસના ચોમાસા પછી ત્યાંથી આગળ પૂર્વે દેશમાં વિચરી સમેત શીખરજીની યાત્રા કરી. ત્યાંથી પાછા ફરી સંવત ૧૮૯૧ નું ચોમાસુ કીસનગઢમાં કર્યું. ૧૮૯૨ નું ચોમાસુ પણ મારવાડમાં પુષ્કરણામાં કર્યું. ત્યાંથી વિચરતા મારવાડ ગુજરાત થઈ ૧૮૯૩ નું ચોમાસું જામનગરમાં કર્યું. એ ચોમાસામાં અઠ્ઠાઈની તપસ્યા કરી. ૧૮૯૪ માં રાજનગર ૧૮૯૫, ૯૬ કચ્છ દેશમાં ભૂજનગરમાં (ભૂજનાં ચાર ચોમાસાં ૮૭, ૮૮, ૯૫, ૯૬ માં કર્યા તેમાં દશ અને બાર ઉપવાસની તપસ્યા કરી. ક્યા ચોમાસામાં કરી તે જાણવામાં નથી. સં. ૧૮૯૭ માં પાલીતાણામાં ચોમાસુ કર્યું. ૧૮૯૮ જાણવામાં નથી. ૯૯ પીરાનપુર, ૧૯૦૦ લીબડી. ૧૯૦૧ વાંકાનેર, ૧૯૦ર લીંબડી, ૧૯૦૩ વિસલપુર, ૧૯૦૪ પીરાનપુર, ૧૯૦૫ જાણવામાં નથી. ૧૯૦૬ રાજનગર, ૧૯૦૭ જાણવામાં નથી. ૧૯૦૮ રાધનપુર, ૧૯૦૯ થી ૧૯૧૫ સુધી રાજનગર. ૧૯૧૬ પાલીતાણામાં શ્રીદયાવિમળજીને ભગવતિના યોગોહન કરાવી ભાવનગરમાં ગણિપદ આપી ત્યાં ચોમાસુ કર્યું. ૧૯૧૭ રાધનપુર. ૧૯૧૮ જાણવામાં નથી. ૧૯૧૯ પાલીતાણા. ૧૯૨૦ પીરાનપુર. ૧૯૨૧ વસો. ૧૯૨૨ થી ૩૫ સુધીનાં છેવટનાં ૧૪ ચોમાસાં રાજનગર માં કર્યાં. ૧૯ર૩ ના જેઠ સુદ ૧૩ પંન્યાસ શ્રી સૌભાગ્યવિજયજીએ પંન્યાસ પદ આપ્યું. અન્ય અન્ય સ્થળોમાં સર્વ મળી ૫૯ ચોમાસાં થયાં તેમાં ૧ મેડતા, ૧ ખંભાત, ૧ બનારસ, ૧ કીસનગઢ, ૧ પુષ્કરણા, ૧ જામનગર, ૧ વાંકાનેર, ૧ વિસલનગર, ૧ ભાવનગર, ૧ વસો, ૨ લીંબડી, ૩ પાલીતાણા, ૩ પીરાનપુર, ૪ ભૂજ, ૪ સ્થળો જાણવામાં નથી, ૫ રાધનપુર, ૨૮ રાજનગર. અઠ્ઠાવન વર્ષની અવસ્થા થઈ ત્યાં સુધીમાં ગુજરાત, કાઠિયાવાડ, રાજપુતાના અને પૂર્વદેશમાં સમેતશીખર પર્યત વિચર્યા પછી કારણસર સાત ચોમાસાં લાગલગટ અમદાવાદમાં થયાં. ત્યાર પછી વૃદ્ધાવસ્થા છતાં પણ કાઠિયાવાડ, પછી ઉત્તર ગુજરાત, વળી કાઠિયાવાડ, ત્યાંથી ગુજરાતમાં જુદે જુદે સ્થળે વિચરી, શારીરિકબળ અતિ ક્ષીણ થવાથી લગભગ સીત્તેર વર્ષની અવસ્થા પછીના ૧૪ ચોમાસાં રાજનગરમાં કર્યા. તપસ્યા : શ્રીમની તપશ્ચર્યા તો કોઈ અવર્ણનીય હતી. સતત વિહાર છતાં પણ નિયમિત તપસ્યા તો તેઓની ચાલુ જ રહેતી હતી એકંદરે ૧ બત્રીસ ઉપવાસ, ૧ માસક્ષમણ, ૩ સોલ ઉપવાસ, ૧ બાર ઉપવાસ, ૧ દશ ઉપવાસ, ૫ અઠ્ઠાઈ, ચાર ઉપવાસ તે સિવાય અનેક અઠ્ઠમ, છઠ અને તિથિ વિગેરેના છૂટા ઉપવાસો જેની ગણત્રી કરવામાં આવી નથી. તથા આયંબીલ વર્ધમાન તપની એકત્રીસ ઓળીઓ કરી હતી ઉપવાસ સિવાયના દિવસોમાં બીલ એકાસણાં તો ચાલુ જ રહ્યાં. એકાસણી કરવા છતાં એકવાર એટલે ભોજનના અવસરે જ પાણી પીવું એ બહું વિચારણીય છે શારીરિક અને માનસિક કાબુના અભાવે કેટલાકો જો કે રાત્રીભોજન કરતા નથી પરંતુ શયનપર્યત પાણી પીવે છે. એકાસણામાં પણ નિયમિત આહારના અભાવે કેટલાકોને સાંજ સુધીમાં અનેકવાર Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧૩ પાણી પીવાની જરૂર પડે છે, પરંતુ એકાસણું કરનારને ઉણોદરી કરે અને સ્નિગ્ધ આહારની લોલુપતા છોડે તો અભ્યાસના પરિણામે ચોવિહાર એકાસણાનો તપ સુખપૂર્વક કરી શકે છે. આ તપ કરનારને આહાર પાણીનું પારવશ્ય અને તેનાથી ઉત્પન્ન થતાં અનેક દુઃખોમાંથી કેટલો બચાવ થઈ શકે છે તે વિચારવાથી સહેજે જણાઈ આવશે. ભૂખ્યો થાય એને ભૂખનું દુઃખ અને તેનાં સાધનોની પ્રાપ્તિ માટે અનેક વિટંબણાઓ. એવીજ રીતે તરસ્યાને પણ. પરંતુ જેણે સુધા અને તૃષા ઉપર કાબુ મેળવ્યો છે તેને એ દુ:ખ અને વિટંબણાઓ નથી. જો કે ઔદારિક શરીરની સ્થિતિજ એવી છે કે તેને આહાર પાણી તો અવશ્ય જોઈએ છે પરંતુ નિયમિત મનુષ્ય અભ્યાસના પરિણામે એમાંથી ઘણા અંશે મુક્ત થઈ શાંતિ મેળવી શકે છે. જ્યારે અનિયમિત અને આહારાદિનો લોલુપી મનુષ્ય જીંદગીભર અશાંતિ સેવે છે. માટે સર્વાશે મુક્ત ન થવાય તો પણ તપનો અનુક્રમે અભ્યાસ કરનાર અનેક વિટંબણાઓથી મુક્ત થઈ શકે છે, એને આત્મશક્તિનું નિદર્શન થાય છે, મહાન નિર્જરાનો ભાગી થાય છે, એનો આત્મા હળવો થાય છે. અને જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન થાય છે. મુનિવર્યશ્રીમાં માત્ર બાહ્ય તપસ્યાનો જ આદર હતો એટલું જ નહીં પરંતુ અત્યંતર તપસ્યા વિનય, વૈયાવચ્ચ વિગેરે તો તેમનાં અસ્મલિત ચાલુજ રહેતાં. કહેવાય છે જે ‘સની તપ: શોધ:' ધ એ તપનું અજીર્ણ છે. વાતોમાં અને અનુભવોમાં એવા ઘણા પ્રસંગો જોવામાં આવે છે. પરંતુ પ્રશમોદધિશ્રી મહાવીર પ્રભુનું અહોનિશ ધ્યાન ધરતા આ મહાત્માશ્રીના નિર્મલ હૃદયમાંથી પ્રશમ પરિણતિના સદ્ભાવે ક્રોધ તો ક્યારનોએ પલાયન કરી ગયો હતો. કહેવું પડશે કે આ મહર્ષિ ક્ષમા અને શાંતિની તો અપ્રતિમ મૂર્તિ હતી. શિષ્ય વર્ગ : ૧. અમૃતવિજયજી – કચ્છ દેશના ગઢ ગામનિવાસી વીસા ઓસવાલ જ્ઞાતીય આશપાળ શ્રેષ્ઠી અને કર્માલા નામની તેમની સ્ત્રી તેમના પુત્ર ઉભયચંદ્ર (અભયચંદ્ર નામ સંભવિત લાગે છે.) ૧૮૯૮ માં દીક્ષા અંગીકાર કરી તેમનું નામ અમૃતવિજયજી રાખવામાં આવ્યું. આ એમના પ્રથમ શિષ્ય થયા. એમના શિષ્ય મુનિશ્રી નેમવિજયજી થયા. નેમવિજયજીને બે શિષ્યો પુન્યવિજય અને મોતીવિજય થયા તેમાં હાલ એક મોતીવિજયજી વિદ્યમાન છે. (પાલીતાણાવાળા) ૨. બુદ્ધિવિજયજી (બુટેરાવજી) - એમનો જન્મ પંજાબ દેશમાં ૧૮૯૩ માં થયો હતો. તેઓ બાળબ્રહ્મચારી હતા એમણે યોગ્ય ગુરૂના અભાવે ૧૮૮૮ માં ઢંઢક મતમાં દીક્ષા ગ્રહણ કરી હતી. પરંતુ પાછળ થી જેમ જેમ સૂત્રો વાંચતા ગયા, તેમ તેમ એ મત વિપરીત લાગવાથી સંવત ૧૯૦૩ માં સ્વયમેવ મુહપત્તિ તોડીને સત્યમાર્ગ અંગીકાર કરી સંવેગી બન્યા, પરંતુ તે દેશમાં સદ્ગુરૂનો યોગ ન હોવાથી ત્યાં કેટલીક મુદત વિચરી કેટલાક ગૃહસ્થોને યોગ્ય માર્ગ દર્શાવી, તેમને મૂર્તિપૂજકો બનાવી, બીજા બે પોતાના સાધુઓને પણ પોતાના માર્ગે જોડ્યા, વળી એક શ્રાવકને પણ ૧૯૦૮ માં સંવેગમાર્ગની દીક્ષા આપી. પછી પંજાબથી નીકળી મારવાડ થઈ ગુજરાતમાં આવ્યા. અને રાજનગરમાં મહારાજશ્રી મણિવિજયજી પાસે સંવેગી તપગચ્છની દીક્ષા અંગીકાર કરી. યોગવહનદી ક્રિયા પંન્યાસ સૌભાગ્યવિજયજીના હાથે થઈ. વડી દીક્ષા અવસરે તેમનું બુટરાવજી Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર નામ બદલી બુદ્ધિવિજયજી નામ રાખવામાં આવ્યું. સાથે આવેલા બે મુનિઓ મૂળચંદજી અને વૃદ્ધિચંદજી તેમને પણ દીક્ષા આપી મુનિવર્યશ્રી બુદ્ધિવિજયજીના શિષ્ય તરીકે સ્થાપન કર્યા. તેમના નામ અનુક્રમે મુક્તિવિજયજી અને વૃદ્ધિવિજયજી દેવામાં આવ્યા. જો કે આ નામો ફેરવવામાં આવ્યાં ખરાં પરંતુ પ્રથમનાં નામો અતિ પરિચિત હોવાથી અદ્યાપિ તેઓ પ્રથમનાં નામથીજ ઓળખાય છે. આ મહાત્માએ પંજાબમાં મૂર્તિપૂજકોનો ઉચ્છિન્ન થતો માર્ગ પુનઃ સજીવન કરવામાં પ્રયત્ન કર્યો તેમાં કેટલેક અંશે ફળીભૂત થયા. સંવેગીપણાની દીક્ષા અંગીકાર કરી ફરી પંજાબ ગયા. પુનઃ શુદ્ધમાર્ગનું સિંચન કરી ગુજરાત આવ્યા. અને ૧૯૩૮ ના ફાગણ વદ અમાસના દિવસે કાળ ધર્મ પામ્યા એમનો શિષ્ય પરિવાર મહાન છે હાલ વિચરતા મુનિવરોમાં મોટો ભાગ એમનો છે. એમના પ્રથમ શિષ્ય - (૧) મુક્તિવિજયજી (મુળચંદજી) પંજાબમાં સ્યાલકોટ નગરમાં એમનો જન્મ ઓસવાળ જ્ઞાતિમાં સં. ૧૮૮૬ માં થયો હતો. ૧૯૦૨ માં બુટેરાવજી પાસે ઢુંઢકમતમાં દીક્ષા લીધી હતી અને ૧૯૦૩ માં તેમની સાથે મુહપત્તિ તોડી સંવેગી માર્ગ અંગીકાર કર્યો. ૧૯૧૨ માં યોગોદ્રહન કરી વડી દીક્ષા લીધી અને મહારાજશ્રી બુટેરાવજીના શિષ્ય બન્યા. સંવત ૧૯૨૩ માં તેમને પંન્યાસજી મણિવિજયજી મહારાજે ગણીપદ આપ્યું હતું. અમદાવાદ, બોરૂ, શીહોર વિગેરે સ્થળોમાં એમણે સારો ઉપકાર કર્યો છે. શેઠ દલપતભાઈ તથા શેઠ પ્રેમાભાઈ વિગેરેને એમના પ્રત્યે બહુ સારું માન હતું. એમનો શિષ્ય પ્રશિષ્યાદિ પરિવાર પણ મોટો છે. જેમાં તેમના શિષ્ય કમળવિજયજી (વિજય કમળસૂરિજી) નો પરિવાર વિશેષ છે. એમના અન્ય શિષ્યો હંસવિજયજી, ગલાબવિજયજી. થોભણવિજયજી, ન્યાયશાસ્ત્રના સારા અભ્યાસી દાનવિજયજી વિગેરે હતા. હાલમાં શ્રીવિજયકમળસૂરિજી તથા ગુલાબવિજયજી તથા દાનવિજયજી તથા થોભણવિજયજી ના પરિવારના મુનિઓ વિદ્યમાન છે. સમુદાયના મુનિવર્ગો ઉપર એમનો વિશેષ કાબુ હતો તેમજ વૃદ્ધિચંદજી વિગેરે ગુરૂભાઈઓ પણ એમનું બહુમાન કરતા હતા. સંવત ૧૯૪૫ ના માગશર વદિ છઠને દિવસે ભાવનગરમાં તેઓ કાળ ધર્મ પામ્યા. અગ્નિસંસ્કાર સ્થાને એમનાં પગલાં સ્થાપન કરવામાં આવ્યાં છે. (૨) વૃદ્ધિવિજયજી (વૃદ્ધિચંદજી) પંજાબ રામનગર શહેરમાં એમનો જન્મ ઓસવાળ જ્ઞાતિમાં સંવત ૧૮૯૦ માં થયો હતો. ૧૯૦૮ ના અષાઢ માસમાં મહારાજશ્રી બુટેરાવજી પાસે દિલ્લીમાં દીક્ષા લીધી અને ૧૯૧૨ માં યોગોદ્વહન કરી વડી દિક્ષા લીધી અને મુનિશ્રી વૃદ્ધિવિજયજી નામથી મુનિવર્યશ્રી બુદ્ધિવિજયજીના શિષ્ય થયા. એઓ શાંત સ્વભાવી હતા. એમના ઉપદેશની અસર બહુ સારી થતી હતી. ભાવનગર વિગેરે સ્થળોમાં એમણે બહુ ઉપકાર કર્યો છે. અત્યારે પણ ભાવનગર એમના ઉપકારનું સ્મરણ કરે છે. એમના ૧ કેવળવિજયજી, ૨ ગંભીરવિજયજી, ૩ ઉત્તમવિજયજી, ૪ ચતુરવિજયજી, ૫ રાજવિજયજી, ૬ હેમવિજયજી, ૭ ધર્મવિજયજી, ૮ નેમવિજયજી, (વિજયનેમિસૂરિજી) ૯ પ્રેમવિજયજી અને ૧૦ કપૂરવિજયજી એ દશ શિષ્યો હતા એ સઘળાઓમાં માત્ર મુનિશ્રી રાજવિજયજી સિવાયના નવ શિષ્યો નો પરિવાર હાલ વિદ્યમાન છે તથા તેમવિજયજી (વિજયનેમિસૂરિજી) અને કપૂરવિજયજી પોતે વિદ્યમાન છે. એમનો શિષ્ય પ્રશિષ્ય વર્ગ વિશેષ છે તેમાં ઘણા વિદ્વાનો છે. આચાર્યશ્રી વિજયનેમિસૂરિજી વિગેરે તેઓ શિષ્ય પ્રશિષ્ય વર્ગ શાસનને ઉપકાર કરી રહ્યો Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર છે. એમણે ભાવનગરમાં ૧૯ અને અમદાવાદમાં ૧૨ ચોમાસાં કર્યા હતા. શારીરિક સ્થિતિ રોગગ્રસ્ત હોવાથી ભાવનગરમાં વિશેષ રહેવાનું થયું હતું. કુલ ૪૧ વર્ષ દીક્ષા પર્યાય પાળી સંવત ૧૯૪૯ ના વૈશાખ સુદ સાતમે ભાવનગરમાં કાળધર્મ પામ્યા. એમના અગ્નિસંસ્કારના સ્થાને એમની પાદુકા સ્થાપન કરવામાં આવી છે. (૩) નીતિવિજયજી, એમનો જન્મ સુરતમાં થયો હતો. એમનું નામ નગીનદાસ હતું. એમણે ૧૯૧૩ માં ભાવનગરમાં મુનિવર્યશ્રી મુળચંદજીના હાથે દીક્ષા લીધી અને બુટેરાવજીના શિષ્ય થયા. એ પણ મહા પ્રતાપી હતા. કાવ્યશક્તિ પણ સારી હતી. ઉપદેશ શૈલી એવી અસરકારક હતી જે એમની પાસે આવેલો મનુષ્ય અવશ્ય વૈરાગ્ય પામે. એમણે સંવત ૧૯૨૨ માં ડીસામાં એકી સાથે પાંચ શ્રાવકોને દીક્ષા આપી હતી તથા વ્રત નિયમો પણ એમણે બહુ કરાવ્યા હતા. એમના હાલ વિદ્યમાન શિષ્ય મુનિવર્યશ્રી સિદ્ધિવિજયજીનો પણ વૈરાગ્ય, શાંતિ અને ઉપદેશ શૈલી બહુ ઉપકારી છે. અતિ વૃદ્ધાવસ્થા છતાં પણ અપ્રમત્તભાવને દર્શાવતું એમનું વર્તન અનુકરણીય છે. મહારાજશ્રી નીતિવિજયજી વૃદ્ધાવસ્થામાં ખંભાતમાં વિશેષ રહ્યા હતા. એમના શિષ્ય પ્રશિષ્યો પણ સારી સંખ્યામાં છે. એમના શિષ્યો ૧ વિનયવિજયજી, ૨ મોતીવિજયજી, ૩ ભક્તિવિજયજી, ૪ દોલતવિજયજી, ૫ પ્રતાપવિજયજી, હું દર્શનવિજયજી, ૭ તિલકવિજયજી, ૮ સિદ્ધિવિજયજી વિગેરે અનેક હતા. હાલમાં મુનિશ્રી તિલકવિજયજી અને સિદ્ધિવિજયજી વિદ્યમાન છે અને મુનિશ્રી વિનયવિજયજી અને સિદ્ધિવિજયજી નો પરિવાર વિદ્યમાન છે. સંવત્ ૧૯૪૭ ના ભાદરવા સુદિ આઠમે ખંભાત શહેરમાં તેઓ કાળધર્મ પામ્યા. (૪) ખાંતિવિજયજી (ખયરાતિમલજી) એમનો જન્મ પંજાબમાં થયો હતો. એમણે ઢંઢકમતમાં સંવત ૧૯૧૧ માં દીક્ષા લીધી હતી, અને સંવત ૧૯૩૦ માં સંવેગી મુનિવર્ય શ્રી બુટેરાવજી પાસે દીક્ષા લીધી હતી. તેઓને શાસ્ત્રબોધ સારો હતો. વૃદ્ધાવસ્થામાં અશક્ત છતાં પણ છઠ, અઠમની તપસ્યાઓ લાગલગાટ કર્યા જતા હતાં. તેઓ તપસીજીના ઉપનામથી પ્રસિદ્ધ છે. એમના શિષ્ય મુનિશ્રી મોહનવિજયજી હાલ વિદ્યમાન છે. પાલીતાણામાં ૧૯૫૯ માં એમનો સ્વર્ગવાસ થયો. (૫) આનંદવિજયજી (આત્મારામજી-વિજયાનંદસૂરિજી) એમનો જન્મ પંજાબ દેશમાં લેહરા ગામમાં સંવત્ ૧૮૯૩ ના ચૈત્ર સુદિ ૧ ને દિવસે થયો હતો. સંવત્ ૧૯૧૧ માગશર શુદિ પંચમીએ ઢંઢક મતની દીક્ષા લીધી, સૂત્રો ભણ્યા અને બુદ્ધિમાન હોવાથી અર્થ ગવેષણા કરતાં મૂર્તિપૂજાની શ્રદ્ધા થઈ એટલે શ્રાવકોને શુદ્ધ માર્ગનો ઉપદેશ દઈ મૂર્તિપૂજાના શ્રદ્ધાળુઓ બનાવ્યા એમના ઉપદેશથી લગભગ સાત હજાર શ્રાવકોએ ઢંઢક મત છોડી શુદ્ધ સનાતન જૈન મત અંગીકાર કર્યો પછી પંજાબથી વિહાર કરી ગુજરાત આવવા નીકળ્યા. માર્ગમાં મારવાડમાં મુહપત્તિ તોડી અને વિહાર કરતા બીજા પંદર સાધુ સહિત અમદાવાદ આવ્યા, ત્યાં બુટેરાવજી મહારાજ પાસે સં. ૧૯૩૧ માં સંવેગી તપાગચ્છની દીક્ષા અંગીકાર કરી મુનિશ્રી આનંદવિજયજી નામે તેમના શિષ્ય થયા. અન્ય પંદર મુનિઓ મુનિવર્ય શ્રી આનંદવિજયજીના શિષ્યો થયા. સંવત્ ૧૯૪૩ ના કારતક વદિ પંચમીને દિવસે આનંદવિજયજીને પાલીતાણામાં સૂરિપદ મળ્યું. ત્યાર પછી તેઓ શ્રી વિજ્યાનંદસૂરિજીના Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર નામથી પ્રસિદ્ધ થયા જો કે ખરી પ્રસિદ્ધિમાં તો આત્મારામજી નામજ રહ્યું. અત્યારે પણ તેઓશ્રી આત્મારામજી નામથી જ ઓળખાય છે. આ મહાત્માનું જ્ઞાન અતિ વિશાળ હતું. ઉપદેશ શક્તિમાં તો કોઈ એવું પ્રભાવકપણું હતું કે જેથી સ્વાર દર્શનોના શ્રોતાઓ ઉપદેશ સાંભળી આશ્ચર્યચકિત થયા. અસ્મલિત ગંભીર વાગુધારા, વચન માધુર્ય, પદાર્થને સ્કુટ દર્શાવવાની કળા અને સમયસૂચકતા વિગેરે એટલાં બધાં લોકપ્રિય થઈ પડ્યાં કે જેથી તેમનો ઉપદેશ સાંભળવા લોકો તલસી રહેતાં હતાં. અન્ય દર્શનીયોનાં શંકાના સમાધાનો પણ એવી શાંતિપૂર્વક અને યુક્તિપૂર્વક કરવામાં આવતાં કે જેથી તે સાંભળનાર વારંવાર આવવાની ઈચ્છા ધરાવતા હતા. પોતાના સાચા પાંડિત્યથી તેઓ દેશ-પરદેશમાં પ્રસિદ્ધિ પામ્યા હતા, નહિં કે આડંબર અને કોલાહલથી. મુનિવર્ગને પણ વાચના આપવામાં ઉત્સાહી હતા અને તે પણ એવી શાંતિપૂર્વક આપતાં કે જેથી હમેશાં તેમની પાસે મોટો મુનિ સમુદાય કાયમ રહેતો. ભવ્ય આકૃતિ અને ગાંભીર્યાદિ ગુણોથી મુનિ સમુદાયમાં તેમનો કાબુ પણ પ્રશંસનીય હતો. એટલા બધા લોકપ્રિય હતા કે જ્યાં જ્યાં વિચરે ત્યાં ત્યાં આજુબાજુના ગામોમાંથી પણ મહાનું લોક સમુદાય ભેળો થતો. લોકો તેમનો સામૈયા વિગેરેથી મહાન સત્કાર કરતા. અદ્યાપિ સુરત વિગેરેમાં તેમનું સામૈયું લોકો સંભારે છે. શિકાગો (અમેરિકા) માં ધર્મ પરિષદ મળી હતી. તેમાં મહારાજશ્રીને આમંત્રણ કરવામાં આવ્યું હતું પરંતુ વાહનમાં મુસાફરી કરવાથી મુનિ આચારમાં અલના થાય માટે તેઓશ્રી ત્યાં ગયા નહીં પરંતુ તેમણે જૈનધર્મ સંબંધી એક મોટો નિબંધ લખ્યો, તે લઈને ગાંધી વીરચંદ રાઘવજી ચિકાગો ગયા અને પરિષદમાં વ્યાખ્યાન દીધું. ડોક્ટર ડોલ્ફ હોર્નલને પણ એમના તરફ બહુમાન હતું. તેઓશ્રી વ્યાખ્યાન દેવું, વાચના આપવી, અન્યોની શંકાનાં સમાધાન કરવા છતાં પોતાના નિયમિત સ્વાધ્યાયમાં અલના થવા દેતા નહીં. આ ઉપરાંત તેમણે અનેક ગ્રંથો પણ લખ્યા છે કે જે ગ્રંથો તેમના અનેક શાસ્ત્રોના અભ્યાસનું સૂચન કરાવતા આદરપૂર્વક વંચાય છે. તે ગ્રંથોમાં ૧ તત્ત્વનિર્ણયપ્રાસાદ, ૨ જૈન તત્ત્વાદર્શ, ૩ ચિકાગો પ્રશ્નોત્તર, ૪ અજ્ઞાન તિમિર ભાસ્કર, ૫ સમ્યકત્ત્વશલ્યોદ્ધાર, ૯ જૈનધર્મ વિષયક પ્રશ્નોત્તર વિગેરે અનેક છે. તેઓએ અનેક પૂજાઓ, સ્તવનો, સક્ઝાયો વિગેરે રચી પોતાના કવિત્વનો પણ અનુભવ દર્શાવ્યો છે. સંગીત કળા પણ તેમની પ્રશંસનીય હતી. તેઓશ્રી ૧૯૪૭ માં પુનઃ પંજાબમાં ગયા અને શ્રાવકોને દઢ કર્યા. ૧૯૫૧ ના મહા શુદિ ૧૩ ને દિવસે પટ્ટીમાં ૫૦ જિનબિંબની પ્રતિષ્ઠા કરી. પુનઃ ૧૯૫૨ ના વૈશાખ શુદિ ૧૫ ને દિવસ ૧૭૫ બિબોની પ્રતિષ્ઠા કરી. આવી રીતે જૈન શાસનમાં અનેક ઉપકાર કરી, સંવેગી માર્ગમાં ૨૧ વર્ષ દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરી, સંવત્ ૧૯૫ર ના જેઠ શુદિ ૭ ને મંગળવારે મધ્યરાત્રીએ પંજાબ દેશમાં ગુજરાંવાલા ગામમાં અનેક શિષ્યાદિ મુનિવર્યો અને શ્રાવકવર્ગોને શોકાતુર મૂકી આ જૈન શાસનનો ઝગમગતો તારો છેવટે પંજાબમાંજ અસ્ત પામી ગયો. | ગુજરાંવાલા એમના અગ્નિદાહ ના સ્થાને એક મહાન સમાધિ મંદિર બંધાવવામાં આવ્યું છે. એ સિવાય ગુજરાત, માળવા, મારવાડ, પંજાબમાં અનેક ગામો અને શહેરોમાં એમની મૂર્તિ સ્થાપન કરવામાં આવી છે તથા એમના પુનિત નામથી અંકિત અનેક પાઠશાળાઓ ચાલે છે. સિદ્ધગિરિ ઉપર મુખ્ય ટુંકમાં પણ એમની મૂર્તિ સ્થાપન કરવામાં આવી છે. એમના શિષ્યો ૧૩ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૧૭ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર થયા હતા તેમનાં નામો આ પ્રમાણે :- ૧ લક્ષ્મીવિજયજી, ૨ સંતોષવિજયજી, ૩ રંગવિજયજી, ૪ રત્નવિજયજી, ૫ ચારિત્રવિજયજી, હું કુશળવિજયજી, ૭ પ્રમોદવિજયજી, ૮ ઉદ્યોતવિજયજી, ૯ સુમતિવિજયજી, ૧૦ વીરવિજયજી, ૧૧ કાંતિવિજયજી, ૧૨ વિજયજી, ૧૩ અમરવિજયજી. સુમતિવિજયજી, કાંતિવિજયજી અમરવિજયજી એ ત્રણ હાલ વિદ્યમાન છે. તથા શ્રી લક્ષ્મીવિજયજી, ચારિત્રવિજયજી, પ્રમોદવિજયજી, ઉદ્યોતવિજયજી, ઉપાધ્યાય શ્રી વીરવિજયજી, પ્રવર્તક શ્રી કાંતિવિજયજી, જયવિજયજી તથા અમરવિજયજીનો શિષ્ય પ્રશિષ્યાદિ પરિવાર વિદ્યમાન છે. સર્વ મળી એમના શિષ્ય પ્રશિષ્યાદિ પરિવાર લગભગ ૯૦ ની સંખ્યામાં છે. એમના પરિવારના મુનિ વર્ગમાં કેટલાક સારા વિદ્વાનો, વક્તાઓ, અને લેખકો છે. તેમજ ગુજરાત, માળવા, મેવાડ, મારવાડ, પંજાબ દક્ષિણ વિગેરે સ્થળોમાં વિચરી અનેક પ્રકારે ઉપકારી કરી રહ્યા છે. એમના મુખ્ય પટ્ટધર આચાર્યશ્રી વિજયકમળસૂરિશ્વરજી છે જેઓ મહાન ભવ્યાતિકૃતિવાળા પ્રતાપી, સરળ અને નિસ્પૃહી મહાત્મા છે. એમનું જન્મસ્થળ, માતાપિતા, જન્મતીથી વિગેરે જાણવા માટે અનેકવાર પ્રયત્નો થયા છતાં એ નિસ્પૃહી મહાત્માના મુખથી કાંઈ પણ જાણી શકાયું નથી. તેમજ એમના સિવાય કોઈપણ અન્ય જણાવી શકે એવું નથી. લગભગ સિત્તેર વર્ષની ઉમરે પહોંચ્યા છે, શરીર અશક્ત થયું છે છતાં બાળકની માફક શ્લોકો ગોખે છે. ગામડાઓમાં વિચરતાં ત્યાંના ઠાકરો વિગેરેને જીવદયાનો ઉપદેશ દેતાં તેમની શરમથી જરા પણ સ્કૂલના ન પામતાં બેધડક સ્પષ્ટ ઉપદેશ દે છે. એમના ઉપદેશથી અનેક હિંસકોએ હિંસા છોડી છે. પ્રાયઃ ગામડાઓમાં વિશેષ વિચરે છે. કોઈપણ સમુદાયના ગુણવાન મુનિવર્ગ ઉપર તેઓ બહુ પ્રેમ ભરી દૃષ્ટિએ જુએછે. () આનંદવિજયજી (પંન્યાસ) એમનું જન્મસ્થળ વિગેરે કાંઈ જાણવામાં નથી. એમના શિષ્ય વર્ગમાં હાલ મુનિવર્યશ્રી હર્ષવિજયજી શિષ્ય પરિવાર સહિત વિચરે છે. એમના પરિવારમાં નવ મુનિઓનો પરિવાર છે. (૭) ચંદનવિજયજી - એમનો શિષ્ય પરિવાર નહોતો. - ૩ - પ્રેમવિજયજી - સંવત્ ૧૯૨૪ માં વાગડ (કચ્છ) માં રહેતા યતિ પદ્મવિજયજીને સંવેગી દીક્ષા અંગીકાર કરવા ભાવના જાગ્રત થઈ અને ગુરૂની શોધ માટે ગુજરાતમાં આવ્યા ત્યાં મણિવિજયજી મહારાજની સરળતા, શાંતિ વિગેરે ગુણોથી આકર્ષાઈ તેમની પાસે ફરી દીક્ષા લેવા વિચાર કર્યો અને યોગોદ્ધહન કરી વડી દીક્ષા લઈ તેમના શિષ્ય થયા. તેમનું નામ પ્રેમવિજયજી દીધું. ત્યાર પછી તેઓ પ્રાય: વાગડમાં વિચર્યા છે. તેમના શિષ્ય મુનિવર્યશ્રી જિતવિજયજી થયા તેમનો જન્મ પણ વાગડમાં થયો હતો. ગુજરાત કાઠિયાવાડમાં કેટલાંક ચોમાસાં કરી તેઓશ્રી પણ વૃદ્ધાવસ્થામાં વાગડમાં વિશેષ રહ્યા તેઓશ્રી પણ એક મહાન ત્યાગી, તપસ્વી હતા, વાગડદેશમાં એમણે મહાન ઉપકાર કર્યો છે આજે આખો વાગડ દેશ એમના ઉપકારને સંભારે છે. ગયા વર્ષના અષાઢ માસમાં પલાસવા ગામે તેમનો દેહોત્સર્ગ થયો તેમના શિષ્યો મુનિવર્યશ્રી હીરવિજયજજી, વીરવિજયજી તથા ધીરવિજયજી અને હર્ષવિજયજી હતા. હાલ મુનિવર્યશ્રી Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર હીરવિજયજી અને હર્ષવિજયજી છે. શ્રી હીરવિજયજીના શિષ્ય વર્ગમાં પન્યાસજી કનકવિજયજી ગણી મુનિશ્રી બુદ્ધિવિજયજી અને તિલકવિજયજી છે. સર્વ મળી ૮ મુનિઓ વિદ્યમાન છે. ૪. ગુલાબ વિજયજી એમનાં જન્મસ્થાન વિગેરે હકીકત જાણવામાં નથી. ૫. શુભવિજયજી તેઓના સંબંધમાં પણ વિશેષ માહિતી નથી. ૬. સિદ્ધિવિજયજી (આચાર્ય શ્રી વિજય સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી) રાજનગર ક્ષેત્રપાળની પોળમાં શ્રેષ્ઠીવર્ય મનસુખરામ તેમનાં સુપત્નિ ઉજમબાઈ - તેમને છ પુત્રો અને એક પુત્રી હતાં. સૌથી નાનાં પુત્ર ચુનીલાલ હતા. તેમનો જન્મ સંવત્ ૧૯૧૧ ના શ્રાવણ સુદ ૧૫ ને દિવસે થયોહતો. બાલ્યાવસ્થાથી જ વૈરાગ્યવાન છતાં માતાપિતા વિગેરેના અત્યાગ્રહથી લગ્નગ્રંથીથી જોડાયા, પરંતુ વૈરાગ્યવાસનામાં ન્યૂનતા થઈ નહીં. સુભાગ્યે સ્ત્રી સુકુલીન સાનુકુળ મળી, જેથી ભાવનાને પુષ્ટિ મળી. છેવટે સંવત્ ૧૯૩૪ ના જેઠ વદિ ૨ ને ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યું અને વયોવૃદ્ધ દાદાશ્રી પં. મણિવિજયજીના શિષ્ય થયા. સ્ત્રીની ઈચ્છા પણ તે અવસરે દીક્ષા લેવાની હતી. પરંતુ પ્રતિકૂળ પ્રસંગો હોવાથી પાંચ વર્ષ પછી સંવત ૧૯૩૯ માં ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યું. હાલમાં તેઓ લગભગ ૭૦ વર્ષનાં વયોવૃદ્ધ થયાં છે. તેમનો શિષ્ય વર્ગ પણ મોટો છે. મુનિવર્યશ્રી સિદ્ધિવિજયજીએ પ્રથમ ચોમાસામાંજ પોતાના વિનયગુણથી ગુરૂવર્યની પ્રીતિ સંપાદન કરી. વૃદ્ધ અને અશક્ત ગુરૂની સેવાનો સારો લાભ લીધો, ચોમાસુ સંપૂર્ણ થયા બાદ અનિચ્છા છતાં ગુરૂ આજ્ઞાને આધીન થઈ પોતાના ગુરૂભાઈશ્રી શુભવિજયજી સાથે વિહાર કરી રાંદેર ગયા અને ત્યાં વયોવૃદ્ધ અને ગ્લાન મુનિવર્યશ્રી રત્નસાગરજીની સેવામાં હાજર થયા. લગભગ આઠ વર્ષ પર્યત વિનયપૂર્વક સેવા કરી તેમની પ્રીતિ સંપાદન કરી, વ્યાકરણ તથા પ્રકરણાદિ શાસ્ત્ર જ્ઞાન મેળવ્યું લોક પ્રિયતાદિ ગુણોથી સંઘમાં પણ બહુ માનનીય થયા. ત્યાર પછી કેટલીક મુદત સુધી શ્રીમદ્ આત્મારામજી મહારાજના સમાગમમાં રહ્યા અને સૂત્ર સિદ્ધાંતોનો સારો અભ્યાસ કર્યો. પછી પાછા રત્નસાગરજી પાસે રહ્યા. કેટલીક મુદત તેમની સેવા કરી પોતાના શિષ્ય રિદ્ધિવિજયજીને તેમની સેવામાં મૂકી અનેક સ્થળોએ ચોમાસા કર્યા અને શાસન સેવા બજાવી. સંવત ૧૯૫૭ માં સુરતના સંઘે આગ્રહ કરી પન્યાસજી શ્રી ચતુરવિજયજી ગણીને બોલાવ્યા. તેમની પાસે ભગવતિ સૂત્રના યોગોદ્ધહન કર્યા અને આષાઢ શુદિ ૧૧ દિવસે ૨૭ મુનિવરો અનેક સાધ્વીઓ તથા અન્ય શ્રાવક શ્રાવિકા વિગેરે સમુદાય મળી લગભગ પંદર હજાર મનુષ્યોની સમુદાયમાં પન્યાસ પદારોહણ કર્યું. મહારાજશ્રીની પન્યાસ પદવીનો મહોત્સવ સુરતમાં અપૂર્વ થયો લગભગ એક પખવાડીયા સુધીમાં દેશાંતરોથી સાધર્મિક બંધુઓનું આવાગમન, તેમનો અનન્ય સત્કાર, મંદિરોમાં અષ્ટાબ્દિકા મહોત્સવ, વાડીમાં પાંચ પર્વતોની રચના, સમવસરણ, લોકનાલિકાની રચના, લગભગ ત્રીસ છોડનું ઉદ્યાપન તેમાં મધ્યમાં રહેલ અમૂલ્ય છોડની આકર્ષકતા તથા અન્ય છોડોમાં રહેલ ચંઆ, પુઠીયા, રૂમાલ વિગેરેમાં રહેલી ચિત્રરચના, વિવિધ પૂજાઓ, ભાવના, ગવૈયાઓનાં આકર્ષક ગાન, વિવિધ પ્રકારનાં વાજીંત્રોના નાદ અપૂર્વ ધાર્મિક વરઘોડાઓ અને બૃહત્ સ્નાત્ર વિગેરે ક્લિાઓ અને તેમાં થતા મંત્રોચ્ચારોના માંગલિક ધ્વનિથી એ અવસરે સૂર્યપુરની શોભા એક અવર્ણનીય આનંદમય બની રહી હતી. શાસનભક્તિ અને તેમાં ધનાઢ્યોનું ઔદાર્ય દેખી હજારો મનુષ્યો Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧૯ અનુમોદન કરી પુ ઉપાર્જન કરી રહ્યા હતા. આ મહોત્સવમાં લગભગ એકલાખ દ્રવ્યનો વ્યય થયો હશે. દેશાંતરોથી છેક કલકત્તા પર્વતના શ્રાવકોનો અગ્રગણ્ય ઘણોખરો સમુદાય તે અવસરે આ મહોત્સવમાં એકત્ર થયો હતો. એવીજ રીતે ૧૯૭૫ ના માહ શુદિ પંચમીને દિવસે મહેસાણામાં એમનો આચાર્ય પદારોહણ મહોત્સવ ભારે ધામધુમથી થયો હતો. એઓશ્રી ૧૯૫૭ થી માંડી અદ્યાપિ પર્યત દરવર્ષે ચોમાસી તપ કરે છે. એકવાર વર્ષીતપ પણ કર્યો હતો. વીસ સ્થાનક તપ પણ એકાંતરે ઉપવાસ કરી સંપૂર્ણ કર્યો. આ વર્ષના ચાતુર્માસમાં ચોમાસી ચાલુ તપમાં અઠાઈનો તપ કર્યો હતો. ત્રણવાર ત્રણ ત્રણ માસ પર્યત મૌનાવસ્થામાં રહી સૂરિ મંત્રની આરાધના સંબંધી ઉપવાસ, નવી વિગેરે તપ કર્યો હતો એવી રીતે તપસ્વી ગુરૂના શિષ્ય પણ તપસ્વી થયા છે. એમણે અનેક ગ્રંથોનું શોધન કર્યું છે. લગભગ સીત્તેર વર્ષની વૃદ્ધાવસ્થામાં પણ આખો દિવસ ગ્રંથ શોધન કર્યું જાય છે. એમના શિષ્યો ૧ રિદ્ધિવિજયજી, ૨ કમળવિજયજી, ૩ ખાંતિવિજયજી, ૪ ચતુરવિજયજી, ૫ વિજયવિજયજી, ૬ પ્રમોદવિજયજી, ૭ શાંતિવિજયજી, ૮ રંગવિજયજી, ૯ મેઘવિજયજી, ૧૦ કેસરવિજયજી, ૧૧ જયવિજયજી વિગેરે હતા. હાલ ૧ રિદ્ધિવિજયજી, ૨ રંગવિજયજી, ૩ મેઘવિજયજી એ ત્રણ શિષ્યો વિદ્યમાન છે. તથા રિદ્ધિવિજયજી, વિનયવિજયજી, રંગવિજયજી, મેઘવિજયજી અને કેસરવિજયજીનો શિષ્યાદિ પરિવાર વિદ્યમાન છે. સર્વ મળી લગભગ ૩પ મુનિઓ વિદ્યમાન છે. ૭. હીરવિજ્યજી - એમના સંબંધી વિશેષ હકીકત જાણવામાં નથી. સર્વ મળી પન્યાસજી મણિવિજયજી દાદાનો શિષ્ય પ્રશિષ્યાદિ મુનિવર્ગ લગભગ ૩૫૦ ની સંખ્યામાં વિદ્યમાન છે અને અન્ય સ્થળોએ વિચરી ચારિત્ર આરાધના કરી શાસનમાં અનેક પ્રકારે ઉપકારી કરી રહ્યો છે. તેમાં લગભગ ૨૭૫ ઉપરાંત મુનિવર્યો તો બુદ્ધિવિજયજી (બુટેરાવજી) મહારાજના સમુદાયમાં છે. સમકાલીન મુનિવરો : શ્રીમદ્ભા સમયમાં પંન્યાસજીના સૌભાગ્યવિજયજી તથા રત્નવિજયજી વિગેરે ડહેલાનાં સમુદાયમાં તથા મુનિવર્યશ્રી પં. ઉદ્યોતવિજયજી અમરવિજયજી વિગેરે લુહારની પોળના સમુદાયમાં તથા સાગર સમુદાયમાં મુનિવર્યશ્રી રવિસાગરજી તથા રત્નસાગરજી વિગેરે અને વિમળ સમુદાયમાં મુનિવર્યશ્રી દાનવિમળજી, પં. દયાવિમળાજી વિગેરે હતા. ભગવતિસૂત્રના યોગોદહન તથા ગણીપદ અને પન્યાસપદ : શ્રીમદૂના ગુરૂ તપસ્વી કસ્તુરવિજયજી અને તેમના ગુરૂશ્રી કીર્તિવિજયજી મહારાજનાં ગણી અથવા પંન્યાસપદ સંબંધી કોઈ ઉલ્લેખ મળી આવ્યો નથી જેથી શ્રીમદે યોગોહન ક્યાં અને કોની પાસે કર્યા તે જાણવામાં નથી પરંતુ તે અવસરે પંન્યાસજી રૂપવિજયજી મહારાજ હયાત હતા, તેમની પાસે અથવા સમુદાયના અન્ય કોઈ પંન્યાસજી પાસે કર્યા હોય એમ સંભવે છે. શ્રીમદ ભગવતિ સૂત્રના યોગોદ્ધહન તો પંન્યાસ સૌભાગ્યવિજયજી પાસે કર્યા છે. પરંતુ તે ક્યારે કર્યા તે સંબંધી બે ઉલ્લેખ જૂદા જૂદા મળી આવે છે. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧ ૫. ગુલાબવિજયજીના ટીપ્પનકમાં લખ્યું છે જે : શ્રી વિનયેષુ મહિમા धर्मरुच्यादि प्रधान गुणदर्शनात् पंन्यास श्री सौभाग्यविजयगणिभिः संवदक्ष्यक्षिनन्देन्दु ज्येष्ट शुकल त्रयोदश्यां सिद्धान्त भगवत्यादि योगोद्वहन कारयित्वा गणिपद पूर्वकं पंन्यासपदं दत्तं । અર્થ :- ગુરૂશ્રી મણિવિજયજીમાં ભદ્રિકભાવ તથા ધર્મરૂચી વિગેરે શ્રેષ્ઠ ગુણો દેખી પંન્યાસ સૌભાગ્યવિજયજી ગણિએ તેમને ભગવિત વિગેરે સિદ્ધાંતના યોગોહન કરાવી સંવત ૧૯૨૨ ના જેઠ શુદિ તેરસને દિવસે ગણિપદ સાથે પંન્યાસ પદ આપ્યું. આ ઉલ્લેખમાં સંવત ૧૯૨૨ માં ગણિપદ અને પંન્યાસ બે સાથે થયાં એમ લખ્યું છે. બીજો ઉલ્લેખ :- પં. સોભાગ્યવિજયજી વિરચિત ૫. દયાવિમળજી ગણિ ચરિત્ર રચના ગર્ભિત હત્યાની ઢાળ ૫ મી આવ્યા સિદ્ધગીરીની માંહ, સોલની સાલે રે, ત્યાં મણિવિજય મહારાજ સાધુમાં માલેરે; વહ્યા ભગવતીના જોગ તેમની પાસેરે, આવ્યા ભાવનગરની માંહ, પછી ઉલ્લાસરે ફા ત્યાં જોડ્યું ઉપધાનનું કામ, સંઘનું દુ:ખ કાપ્યું રે, જોગ્ય જાણી દાદાએ તામ ગણી પદ આપ્યું રે; વૈશાખ વદિ પંચમી દીન વીસની સાલે રે, ગુરૂ દાનવિમલ મહારાજ, સ્વર્ગ સધાવે રે ૪ આ ઉલ્લેખ ઉપરથી જણાય છે જે સં. ૧૯૧૬ પહેલાં ગણિ પદ થયું છે વળી ૫. દયાવિમળને પાલીતાણામાં યોગ વહેવરાવી ભાવનગરમાં ગણિપદ આપ્યું એ સંભવિત પણ લાગે છે કેમ કે મહારાજશ્રી નાં ચોમાસાઓમાં સં. ૧૯૯૧ નું ચોમાસું ભાવનગરમાં થયું છે. માટે ભગવતિસૂત્રના યોગોદ્વહન અને ગણિપદ તો સં. ૧૯૧૭ નું ચોમાસુ ભાવનગરમાં થયું છે. માટે ભગવતિસૂત્રના યોગોદ્વહન અને ગણિપદ તો સં. ૧૯૧૬ પહેલાના ગણી શકાય. અને પંન્યાસ પદ મહારાજશ્રીનું સં. ૧૯૨૨ માં પંન્યાસ સૌભાગ્યવિજયજી ના હાથે થયું હોય એમ કલ્પના કરી શકાય. શ્રીમદ્દો બોધ મહારાજશ્રીનો અભ્યાસ પ્રકરણોમાં જીવવિચાર, નવતત્ત્વ દંડક, સંગ્રહણી, ભાષ્ય છત્રિયો વિગેરે છ કર્મ ગ્રંથ પર્વતનો હતો તેમજ સિદ્ધાંતોનું પણ તેમને સારું જ્ઞાન હતું. તેમનું વ્યાખ્યાન શાંતિજનક હતું તેમની શાંતિ અને લોકપ્રિયતાદિ ગુણોથી ઉપદેશની અસર બહુ સારી થતી જેથી મહારાજશ્રીએ જ્યાં જ્યાં વિહાર કર્યો ત્યાં ત્યાં લોકોને જ્ઞાન, દર્શન વ્રત જપ તપ નિયમાદિ સંબંધી બહુ પ્રકારે ઉપકાર કર્યો છે. વતારોપણાદિ શ્રીરત્નવિજયજી અને ઉમેદવિજયજી એ બે ડહેલાના ઉપાશ્રયના સમુદાયના તથા હર્ષવિજયજી Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર વીરના ઉપાશ્રયના સમુદાયના તથા દયાવિમળજી એ ચાર મુનિઓને ભગવતિસૂત્રના યોગોહન કરાવ્યા. શ્રી રત્નવિજયજી, ઉમેદવિજયજી, તથા હર્ષવિજયજીને ગણી પદ તથા પંન્યાસ પદ આપ્યાં, અને દયાવિમળજી તથા મૂળચંદજીને ગણી પદ આપ્યાં. એ સિવાય એ પરમ પુનિત મહાત્માએ અનેક ભવ્યાત્માઓને દીક્ષા તથા વ્રતારોપણ વિગેરે ધર્મ ઉપકારો કર્યા છે. એમના ઉપદેશથી નવીન મંદિરોની પ્રતિષ્ઠાઓ તથા જીર્ણોદ્ધારાદિ કાર્યો થયાં છે. એકવાર લુહારની પોળ તથા એકવાર પાટણ અને ભાવનગર ઉપધાન વહન કરાવી માળ પહેરાવી હતી એ સિવાય પણ ઉપધાન વહન અને માળ પહેરાવવાની વિધિઓ તેમને હાથે અનેકવાર થઈ સંભવે છે. શા. બહેચરદાસ સીરતેદાર જેઓ પોતાના સૌર્જન્યથી રાજનગરમાં એક નામાંકિત પુરૂષ થયા છે, તેમણે મહારાજશ્રી પાસે ઉપધાન વહન કરી માળા પહેરી હતી. તે અવસરે ઉપધાન વહનની ક્રિયાનો આદર વિશેષ હતો, એમ તે કાલીન મુનિવર્યોનાં ચરિત્રો ઉપરથી જાણવામાં આવે છે. સંવત ૧૯૨૩ ના આસો શુદિ બીજને રવિવારે મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી એક પુસ્તકાલયની સ્થાપના કરવામાં આવી હતી. શ્રાવક મગનલાલ વખતચંદજી તેમાં અગ્રેશ્વરી તરીકે ભાગ લેતા હતા. જ્યારે સ્થાપના કરવામાં આવી ત્યારે ગુરૂમહારાજના પવિત્ર હસ્તે સ્થાપના કરાવી. એ અવસરે મુનિ કપૂરસાગરજી વિગેરે અનેક મુનિઓ તથા ૧ નગરશેઠ મયાભાઈ પ્રેમાભાઈ ૨ શા. ઉમાભાઈ હઠીસીંહ કેસરીસીંહ ૩ શા. ભગુભાઈ પ્રેમચંદ (મનસુખભાઈ શેઠના પિતાશ્રી) ૪ શા. ડાહ્યાભાઈ અનુપચંદ ૫. મંછાભાઈ ગોકળભાઈ ડ કાઉશાહ ૭ ત્રિકમદાસ નથુભાઈ ૮ વાડીલાલ પાનાચંદ ૯ વકીલ માણેકચંદ મોતીચંદ ૧૦ વિમળના ઉપાશ્રયવાળા જોઈતારામ મોદી ૧૧ વિદ્યાશાળાવાળા રવચંદ જેચંદ સુબાજી ૧૨ શા. ગીરધરલાલ હીરાભાઈ ન્યાયાધીશ ૧૩ શા. મગનલાલ વખતચંદ વિગેરે મહાન શ્રાવક સમુદાય એકઠો મળ્યો હતો. પુસ્તકાલયની સ્થાપના જેવા એક ધર્મ કાર્યમાં પણ ભાગ લેનારા શ્રાવક વર્ગના જે નામો જોવામાં આવે છે તે ઉપરથી તે અવસરે શ્રીમાન વર્ગનો પણ ધર્મ કાર્યોમાં ભાગ લેવામાં કેવો સારો રંગ હતો તે જણાઈ આવે છે. પ્રથમ નામ નગરશેઠનું જોવામાં આવે છે ત્યારે બીજું પણ અમદાવાદ શહેર બહાર વાડીમાં દહેરાસર બંધાવી hખો દ્રવ્યનો વ્યય કરનાર શેઠ હઠીસંગ કેસરીસીંગના સુપુત્ર ઉમાભાઈ શેઠનું નામ જોવામાં આવે છે. ત્રીજું પણ આણંદજી કલ્યાણજી ની પેઢીમાં તન મન ને ધનથી તનતોડ મહેનત કરનાર, ઉદાર અને બાહોશ શેઠ મનસુખભાઈના પિતાશ્રી ભગુભાઈ શેઠનું નામ જોવામાં આવે છે. તે સિવાયના બીજાઓ પણ તે અવસરના પ્રખ્યાત નેતાઓ છે. એ ખરૂંજ છે જે :- અગ્રેશ્વરીઓ જે ધર્મ કાર્યો માં ભાગ લે છે તેમાં બીજાઓ પણ હોંશથી જોડાય છે, મંદિરો, ઉપાશ્રયો, પુસ્તકાલયો ધર્મશાળાઓ, વિગેરે સાધનો કરી કરાવી જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્રના આરાધનોમાં જ્યારે જ્યારે અગ્રેશ્વરીઓએ સારો ભાગ લીધો છે. ત્યારે ત્યારે મધ્યમ વર્ગોએ પણ તેમાં સારો ભાગ લીધો છે. એ આપણે જૈન શાસનના પૂર્વના ઈતિહાસથી સારી પેઠે જાણી શકીએ છીએ. જ્યારે વસ્તુપાળ જેવા એક મંત્રીએ સંઘ કાઢ્યો, ત્યારે અનેક સંઘપતિઓ તૈયાર થયા અને તીર્થયાત્રા, સાધર્મિકવાત્સલ્ય, દીનોદ્વારાદિ અનેક કાર્યો થયાં. એક થાવચ્ચ પુત્રે બત્રીસ સ્ત્રીઓને ત્યાગી, ક્રેડો સોનૈયાનો મોહ નિવારી, માતાને સમજાવી દીક્ષા અંગીકાર કરી; ત્યારે એક હજાર શ્રેષ્ઠી પુત્રાદિઓએ તેમની Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર સાથે દીક્ષા અંગીકાર કરી, વિદ્યાવિલાસી ભોજ રાજનું નગર બધું વિદ્વાન, થોડા વર્ષો ઉપર અમદાવાદમાં સુબાજી રવચંદ જેચંદની વિદ્યાશાળામાં શેઠ મનસુખભાઈ, ઝવેરી છોટાભાઈ, શા. મગનલાલ વિગેરે પોતાની બાલ્યાવસ્થામાં શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા હતા, તે અવસરે વિદ્યાશાળામાં શહેરના અનેક વિદ્યાર્થીઓ શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા હતા. જેમાંના કેટલાએ શાસ્ત્રના જાણ સારા શ્રોતાઓ થઈ શક્યા હતા. શાસ્ત્રકારો પણ કહે છે જે :- મદીનનો યેન તિઃ સ પ્રસ્થા: | અગ્રગામીઓને આમાં કરવું, કરાવવું, અને અનુમોદન કરવું એ ત્રણેનો લાભ મળી શકે છે. તીર્થયાત્રાઓ - તીર્ઘપુ વશ્વમળતો મ શ્રત્તિ ” તીર્થયાત્રાનો મુસાફર સંસારની મુસાફરીથી મુક્ત થઈ જાય છે લગભગ ૧૯ વર્ષના દીક્ષા પર્યાયમાં શ્રીમદે તીર્થયાત્રાનો પણ અનન્ય લાભ લીધો છે. જ્યારે સમેત શીખરજીની યાત્રાની અભિલાષા થઈ ત્યારે તીર્થ સ્થાન અતિદૂર, આહાર પાણીની અગવડ અને વિકટ વિહાર હોવાથી અન્ય કોઈ મુનિ હામ ભીડી શક્યા નહીં; ત્યારે શાસ્ત્ર આજ્ઞાને સંપૂર્ણ માન આપી, એકાકી વિહારનો કોઈ પણ પ્રકારે આદર ન કરતાં, અન્ય મુનિની ગવેષણા કરવા માંડી, તે અવસરે પદ્રશેખર નામના એક ખરતરગચ્છીય મુનિવર મળી આવ્યા. શુદ્ધ હૃદયની ઉત્કટ અભિલાષા આગળ અંતરાય ક્યાં ટકી શકે ! બે મુનિવરો તૈયાર થયા. કોઈ પણ ગૃહસ્થની સહાય વિના ગગનની માફક નિરાલંબ અને વાયુ પેરે અપ્રતિબદ્ધ વિહાર કરી, ઉણોદરી, વૃત્તિસંક્ષેપ અને રસ ત્યાગ રૂપ તપનું બહુમાન કરતા, સંવત ૧૮૮૯, ૯૦ અને ૯૧ માં અનુક્રમે બનારસ, કીસનગઢ અને પુષ્કરણામાં ચાતુર્માસિક સ્થિરતા કરી, સમેતશીખરાદિ તીર્થોની યાત્રા કરી, તીર્થકર મહારાજાઓનાં પુનિત પાદકમળથી પવિત્ર થયેલ ભૂમિની સ્પર્શના કરી, જન્મ સફળ કર્યો. પુરૂષ પ્રત્યન શું ન કરે ! પીસ્તાલીસવાર સિદ્ધાચલજીની યાત્રાઓ કરી, તેમાં ત્રણ ચોમાસાં કર્યાં અને કેટલીયે વાર નવ્વાણુ યાત્રાઓ કરી, સાતવાર ગિરનારની યાત્રાઓ કરી, પાંચવાર અર્બુદગિરિની યાત્રા કરી. ત્રણવાર અમદાવાદની શહેરયાત્રા કરી. બે વાર સૂર્યમંડન પાર્શ્વનાથને ભેટ્યા. એકવાર સૌરાષ્ટ્રનાં સર્વ તીર્થોનાં દર્શન કર્યા. એકવાર શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથજીનાં ચરણોની સ્પર્શના કરી. ગૃહસ્થાવાસમાં પણ એકવાર સિદ્ધાચલજી, એકવાર ગિરનાર અને બેવાર આબુતીર્થની યાત્રાઓ કરી હતી, રેલ્વે વિગેરે સાધનોનો જ્યારે અભાવ હતો તેવા અવસરમાં પણ સિદ્ધાચળ, ગિરનાર અને આબુજીની તીર્થયાત્રાનો લાભ અપાવનાર માબાપની ધાર્મિક સ્થિતિ કેવી સુંદર ભાવનાવાળી હશે તે આ ઉપરથી જ જણાઈ આવે છે. ગુરૂપ્રેમ : એમની દીક્ષા પછી એઓશ્રી ગુરૂ મહારાજ સાથે કેટલાં વર્ષ રહ્યા તે સાધનના અભાવે જાણવામાં આવ્યું નથી, પરંતુ એમનો ગુરૂ પ્રેમ અને ગુરૂ ભક્તિ તો અદ્વિતીય હતી, એમ તેમના આચરણો ઉપરથી પણ જાણી શકાય છે. કહેવાય છે કે ગુરૂમહારાજના અવસાન પછી પણ જ્યારે સમુદાયમાં કોઈ મુનિને પેટમાં દુઃખાવો વિગેરે સામાન્ય વ્યાધિ થાય ત્યારે એ (સરળ અને ગુરૂભક્ત Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાન્ મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર દાદાશ્રી મણિવિજયજી મહારાજ) પોતાના ગુરૂવર્ય તપસ્વી કસ્તુરવિજયજી મહારાજના નામનો જાપ કરતા કરતા દર્દીના પેટ ઉપર હાથ ફેરવતા એટલે તેનો દુઃખાવો શાંત થઈ જતો. જોકે એ પોતેજ સરળ અને શાંત તપસ્વી હોવાથી એમનો હાથ જ એવો લબ્ધિવાન હોઈ શકે છતાં ગુરૂ પ્રત્યે કેટલું બધું એમના હૃદયમાં માન અને શ્રદ્ધા હશે ? આજે હશે કોઈ એવો પુન્યશાળી શ્રદ્ધાળું ગુરૂ ભક્ત ! શ્રીમદ્દ્ના અપ્રતિમ ગુણો : બાલ્યાવસ્થાથીજ સદ્ગુણી અને ધર્માત્મા માબાપના ઉત્સંગમાં ઉછરેલા આ મહાત્માના ગુણોનું શું વર્ણન કરવું ! એ માબાપે એમનામાં તે તે સદ્ગુણોની એવી અક્ષય સુવાસ ફેલાવી હતી કે જે તેમની જીંદગીપર્યંત અખુટજ રહી. આ વિનિત મુનિવરે પોતાની શારીરિક શક્તિ પહોંચી ત્યાં સુધીમાં નાના મોટા સર્વની ગોચરી પાણી વિગેરે વેયાવચ્ચમાં સતત ઉદ્યમ કર્યો. પ્રસન્ન મુખ કદિ મ્લાન થયું નહીં, સાનુકુળ પ્રતિકુળ પ્રસંગોમાં, વિહારમાં તપસ્યામાં કદીપણ વચન અને વદન વિકારી ન થયાં. મળતાવડાપણું એટલું બધું કે જેથી સ્વપર સમુદાયના કોઈ પણ મુનિઓની એમના પ્રત્યે ભિન્ન ભાવના ન્હોતી એ એમના અન્ય અન્ય સમુદાયના મુનિઓ સાથેના સહવાસોથી જાણી શકાય છે. ડહેલાના કે વી૨ના કે લુહારની પોળના સાગર સમુદાયના કે વિમળ સમુદાયના સઘળા મુનિઓ સાથે વિચર્યા છે. અને ચોમાસાંઓ પણ તેમની સાથે કર્યાં છે. વળી પાછળ જણાવ્યા મુજબ ખરતર ગચ્છીયમુનિ સાથે પણ સમ્મેત શીખર પર્યંતનો વિહાર કર્યો, તેમની પ્રીતિ સંપાદન કરી, આટલું છતાં પણ શ્રદ્ધા અને આચારમાં ખામી ન આવી. અન્યનું કાર્ય કરવામાં કેટલી બધી તીવ્ર અભિલાષા કે જ્યારે મુનિવર્ય શ્રી સિદ્ધિવિજયજીને દીક્ષા આપી ત્યારે પોતાની લગભગ બ્યાસી વર્ષની પૂર્ણ વૃદ્ધાવસ્થા અને શરીર બિલકુલ અશક્ત છતાં રાંદેરમાં રત્નસાગરજી મસાના દર્દથી પીડાતા હતા તેમની સેવા કરવા માટે પોતાની શારીરિક સ્થિતિનો વિચાર ન કરતાં મુનિવર્યશ્રી સિદ્ધિવિજયજીને તેમની પાસે મોકલ્યા. તેઓ એકલા જઈ શકે એમ ન હોવાથી સાથે પોતાના બીજા શિષ્ય શુભવિજયજીને પણ મોકલ્યા. જો કે આવી અવસ્થામાં ગુરૂવર્યને છોડી જવું એ તેમને ભયંકર લાગ્યું, છતાં ગુરૂઆજ્ઞાને આધીન થઈ વિનિત શિષ્યે ગુરૂને વંદના કરી, તેમની આજ્ઞાથી વિહાર કર્યો. હૃદય ભેદાયું પરંતુ ગુરૂ આજ્ઞાપાલનમાં સ્વકર્ત્તવ્યને અધિક ગણતા છૂટા તો પડ્યા, છૂટા પડ્યા તે પડ્યા જ, પછી ગુરૂ શિષ્યનો મેળાપ ન થયો. અન્યની સેવા માટે આવા સ્વાર્થ ત્યાગી તે મહાત્માને કોટીશઃ વંદના હો ! કેટલીક વાર તપસ્વીઓમાં ૨૩ સહનશીલતાની ન્યૂનતા હોવાથી કષાય પ્રકૃતિ વિશેષ જોવામાં આવે છે. પરંતુ આ પ્રશાંત મહાત્માએ તેને તો પ્રથમથીજ દેશવટો દીધો હતો. રાજનગરમાં ઉપાશ્રયોનો કાંઈક પક્ષપાત હોવાથી ગૃહસ્થોનું અન્ય ઉપાશ્રયે જવામાં કાંઈક શૈથિલ્ય હતું પરંતુ આ મહાનુભાવ મહાત્માની પ્રસન્ન મુખાકૃતિ ગાંભીર્ય શાંતિ અને અસાધરણ નિસ્પૃહતા વિગેરે ગુણોથી આકર્ષાઈ પ્રાયઃ સર્વ કોઈ એમના દર્શન અને વંદનનો લાભ લેતા એમના અનુભવીઓ કહે છે. જે આહા૨પાણી કે ક્રિયાકાંડ સિવાયના અન્ય કોઈ પણ અવસરે એમના હાથમાં પુસ્તક કે નવકારવાળી પ્રાયઃ હોય, નવકારવાળી ગણવાનો Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર વિશેષ અભ્યાસ હતો. જ્ઞાન દશામાં જાગ્રત પ્રમાદના પારિવારી હઠ કદાગ્રહથી વેગળા રહી, જ્ઞાનાદિ આચારનું સેવન કરતા જ્યાં સુધી શારીરિક સ્થિતિ નભી શકી ત્યાં સુધી અપ્રતિબદ્ધ વિહાર કરી, તપસ્યાઓ કરી, સામાચારીનું યથાઈ શુદ્ધ આરાધન કરી, અકિંચન નિરૂપ લેપ, નિત્સંગી આ બાળ બ્રહ્મચારી મહાત્માએ લગભગ ૫૯ (ઓગણસાઠ) વર્ષ પર્યંત વિશુદ્ધ ચારિત્રઆરાધન કરી ભવ્ય જીવોને અનેક ઉપકાર કર્યા અને કરાવ્યા. નિર્વાણ : પાછળ જણાવ્યા મુજબ શારીરિક સ્થિતિની મંદતાથી છેવટનાં ૧૪ ચોમાસા રાજનગરમાં થયાં ત્યાં પણ યથાશક્તિ તપસ્યા, ભાવના, ધ્યાન વિગેરેમાં સમય નિર્ગમન કરતા. એવી અવસ્થામાં પણ એકાસણાથી ઓછી તપસ્યા તો કરતાજ નહીં. શરીર દિવસે દિવસે નિર્બળ થવા લાગ્યું. સંવત ૧૯૩૫ ના આશ્વિન માસની ઓળી આવી એ અવસરમાં શરીર છેક શિથિલ થયું છતાં તપસ્યાના અભ્યાસી અને અભિલાષી મહાત્માએ શુદ ૮ ને દિવસે સવારે ચોવિહાર ઉપવાસનું પચ્ચખ્ખાણ કર્યું. એવામાં શેઠ પ્રેમાભાઈ ગુરૂ વંદન કરવા આવ્યા તેમને મહારાજશ્રીના ઉપવાસ કર્યાના સમાચાર મળ્યા એટલે તેમણે મહારાજશ્રીને વિજ્ઞપ્તિ કરી જે :- “સાહેબ ! આવી સ્થિતિમાં આજે ઉપવાસ !” મહારાજજીએ કહ્યું “મહાનુભાવ ! આજે તો કરવો જ જોઈએ, જેટલું લેવાય તેટલું લઈ લેવું.” શેઠે ઘણું કહ્યું પરંતુ મહારાજજીએ તો એજ ઉત્તર દીધો છે : “આજે તો અવશ્ય ઉપવાસ કરવોજ છે.” ગુરૂ મહારાજના ગુણોથી વિશેષ પરિચિત હોવાથી શેઠ સમજી ગયા અને વિશેષ આગ્રહ ન કર્યો. જીંદગીભરની આરાધના અભ્યાસે ખરેખરૂં કાર્ય બજાવ્યું. અણાહારી પદના સાચા અભિલાષીએ જીંદગીભરમાં અનેકવાર ચારે આહારનો ત્યાગ કરી અણાહારી પદ માટે સતત પ્રયત્ન સેવી છેવટનો આઠમને દિવસે પણ ચારે આહારનો ત્યાગ કર્યો. શરીર બિલકુલ શિથિલ થઈ ગયું છતાં જીંદગીભરમાં જેમણે ક્રિયામાં ખામી ન આવવા દીધી તેને છેવટે પણ કેમ ખામી આવે ! દિવસ સંપૂર્ણ થયો, સાંજે પ્રતિક્રમણ કર્યું અને સંથારા પોરિસી ભણાવી તે અવસરે ૫. ગુલાબવિજયજી વિગેરે મુનિવર્ગ અને શ્રાવકોનો સમુદાય પાસે બેઠો હતો ગુરૂ મહારાજને સંથારામાં શયન કરાવ્યું છતાં ગુરૂ મહારાજ જાગ્રત દશામાં ધ્યાનારૂઢ જણાયા. મહારાજને પૂછ્યું ‘આપના હૃદયમાં શેનું ધ્યાન છે ?” ગુરૂ મહારાજે ઉત્તર દીધો. “શ્રી તીર્થરાઇનરીનાય નમ:' આ પ્રમાણે ધ્યાન કરતાં ક્ષણાંતરમાં તે પરમ પવિત્ર શાસન ઉપકારી અનેક શિષ્ય પ્રશિષ્યોના ગુરૂ મહારાજનો અમર આત્મા અમરવિમાનમાં ગુરૂવર્યોની સેવા કરવા ચાલ્યો ગયો. સઘળું શૂન્ય થઈ ગયું. શહેરમાં હાહાકાર થઈ ગયો. આવા શાંત ગુણી મહાત્માના દર્શન હવે નહીં મળે ! અરેરે ! શું પ્રસન્નમુદ્રા ! શું તેમની દિવ્ય આકૃતિ ! હવે મણિદાદા ક્યાં મળશે ! તે પ્રશાંત દિવ્ય ચક્ષુનાં દર્શન ક્યારે થશે ? તે ગંભીર પ્રસન્ન મુખથી ધર્મલાભના આશીર્વચનો હવે ક્યારે સાંભળીશું ! હા ! દાદા મહારાજ ગયા ! પ્રાતઃ કાલે સર્વ સંઘ ભેળો થયો. મહાન ગુરૂ ગુણોને સંભારતા આંખોમાંથી આંસુઓ પાડતા શબને શુદ્ધ જળથી સ્નાન કરાવ્યું, ચંદનથી ચર્ચા કરી મુનિ વેશ પહેરાવ્યો. પછી સુંદર Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાન્ મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર સુશોભિત માંડવીમાં શરીરને પધરાવ્યું. હજારો મુખથી ‘જય જય નંદા, જય જય ભદ્દા' ના ઉચ્ચારો થવા લાગ્યા માર્ગમાં સ્થાને સ્થાને હાથ જોડી વંદના કરતા લોકો સોના રૂપાના પુષ્પો વિગેરેથી વધાવવા લાગ્યા એમ કરતાં માંડવી નગર બહાર નીકળી અને શુદ્ધ ભૂમિ ઉપર ચંદનાદિની ચિતામાં શબનો અગ્નિ સંસ્કાર થયો. અને દાદાશ્રી મણિવિજયજીનું નામ, સ્મરણ માત્ર રહ્યું. નિર્વાણના સમાચાર ઠામ ઠામ પહોંચી ગયા. સર્વ કોઈ સાંભળી ઉદાસ થયા. રાંદેરમાં રત્નસાગરજી ચોમાસુ હતા ત્યાં પણ સમાચાર પહોંચ્યા સાથે રહેલા દાદાશ્રીજીના શિષ્ય મુનિશ્રી સિદ્ધિવિજયજીને સમાચાર સાંભળતાં હૃદય વજ્રહત થયું, છેવટે પણ ગુરૂવર્યનો સમાગમ ન થયો. ગુરૂ મહારાજની વંદના અને સેવાની અભિલાષા મનમાં ને મનમાં જ રહી, આથી ઘણું લાગી આવ્યું; પરંતુ ભાવિ આગળ શો ઉપાય ? ગૌતમ સ્વામી જેવાને પણ છેવટે ગુરૂ દર્શનનો વિરહ રહ્યો તો બીજાને માટે શું કહેવું. છેવટે મુનિવર્ય શ્રીરત્નસાગરજી વિગેરેએ તેમને સમજાવી શાંત કર્યા. સંઘ સમક્ષ દેવવંદનની ક્રિયા કરવામાં આવી અને તેમણે ઉપવાસનું પચ્ચખ્ખાણ કર્યું ત્યારથી માંડી અદ્યાપિ પર્યંત આસો શુદ ૮ ને દિવસે તેઓશ્રી દરવર્ષે ઉપવાસ કરે છે ! ધન્ય છે ! એ ગુરૂભક્ત શિષ્યોને ! આ પ્રમાણે પરમપૂજ્ય તપસ્વી દાદાશ્રી મણિવિજયજી મહારાજ ૧૮૫૨ માં જન્મ્યા, ૧૮૭૭ માં દીક્ષા ગ્રહણ કરી, ૧૯૨૨ નાં જેઠ શુદ ૧૩ ના દિવસે પંન્યાસ પદ મળ્યું અને ૧૯૩૫ ના આસો શુદ ૮ ને દિવસે સ્વર્ગવાસી થયા. સર્વ મળી લગભગ ૫૯ વર્ષ ચારિત્ર પાવન કર્યું. રાજનગર જૈન વિદ્યાશાળા વીર સં. ૨૪૫૦ વિમ સં. ૧૯૮૦ ભાદ્રપદ કૃષ્ણ દશમી. મેઘવિજ્ય. ૨૫ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર મહર્ષિઓનાં ગુણોકીર્તન પદ્યો ચોપાઈ જય જય જગદોત્તમ મહાવીર, ગૌતમ ગણધર વડા વજીર; ધીર વીર ગંભીર ગુણવંત, પ્રણમું પદકજ ધરી બહુ ખંત. ૧ શાસન ધુર વહે અણગાર, શ્રી સુધર્મ પંચમ ગણધાર; તાસ પરંપર ગુરૂ ગુણ ભર્યા, સૂરિ પુરંદર બહુ વિસ્તર્યા. ૨ એકસઠમી પાટે સૂરિરાયા, વિજયસિંહ થયા ગુરૂરાય; સત્ય કપુર તાસ ક્ષમા નિવાસ, જેહની ધારે સુરગણ આશ. ૩ સવૈયા છંદ (અંગ્રેજી ચાલમાં) શ્રી જિન ઉત્તમ વદન મલયથી, વચન સરસ ચંદન સુખદાય; આત્મ પ્રદેશે સ્પર્શ થયાથી, અપૂર્વ પરમાનંદ પમાય. ગુરૂપદ પદ્મની સેવા વિધીથી, પ્રગટ શુદ્ધ નિજ આત્મ સ્વરૂપ; પ્રત્યક્ષ થાતાં અવિચળ કીર્તિ, જગ જયકારી વધે અનૂપ. શુદ્ધ ભાવની આત્મ પરિણતિ, કસ્તુરીની સહજ સુગંધ; તપસી શ્રી કસ્તુરવિજયજી, ભરી પાપના તોડે બંધ. શ્રદ્ધા સમ્યગુ મહા વ્રતધારી, ગિરૂઆ ગુણ મણિ આગર જે; ક્ષમા સહિત નીત્યે તપ કરતા, મણિવિજયજી દાદા તેહ. ૪ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીમાનું મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૨૭ ૨૭ ક્વાલી-ગઝલ મણિ સાચું સ્વગુણ રૂપી, પ્રકાશે દિવ્ય શક્તિથી; સ્વપરને શાન્તિકારક તે, મણિ દાદા ગુરૂ વંદું. ૧ ક્ષમા તપ એક રૂપે રહી, સરલ શિવમાર્ગમાં વિચર્યા; અલૌકિક આત્મભાવે તે, મણિ દાદા ગુરૂ વંદું. ૨ જિનાગમને અનુસારે, જગતમાં શ્રેષ્ઠ ઉપકારી; દયા રસથી ભરેલા તે, મણિ દાદા ગુરૂ વંદું. શાર્દૂલવિક્રિડિત જે ચારિત્રિચૂડામણિ પુરુષની, પંક્તિ વિષે રાજતા, જેની શાંતિ ક્ષમા અને સરળતા સર્વ સ્થળે ગાજતા; જે ત્યાગી તપસી સદા સુગુરૂના શિષ્યો બહુ વિચરે, તે દાદા મણિવિજયજી મુનિ તણી કીર્તિ લતા વિસ્તરે. ૧ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ શ્રીમાન્ મણિવિજયજી ગણી (દાદા)નું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર પૂજ્યપાદ પરમગુરૂ પન્યાસજી મહારાજ શ્રીમાન્ િિવજયજી ગણી દાદા ! અલ્પ સમય પહેલાં આપ સાહેબ એક મહાવિભૂતિસ્વરૂપે સિદ્ધ હતા; એ સુવિશ્રુત છે. ઓગણીસમી સદીનો પાછલો સમય ત્યાગ ધર્મ માટે ઘણી કટોકટીનો હતો. એ સમયે પારમેશ્વરી પ્રવ્રજ્યા-ધર્મની દીક્ષા અંગીકાર કરવા માટે કોઈક જ તૈયાર થતું હતું. અને અંગીકાર કરીને પણ કોઈ વિરલાજ તેમાં અણીશુદ્ધ રહી શકતા હતા. એ સમયે નિગ્રંથ ત્યાગીઓની સંખ્યામાં જબ્બર ધસારો પહોંચી રહ્યો હતો હજારો અને સેંકડોમાંથી તુટેલી સંખ્યા આંગળાના વેઢા ઉ૫૨ આવી રહી હતી. કે તપોવી ! ગુરૂવર્ય !! ચિંતા અને પડતીના આવા ઝઝુમી રહેલા સમયમાં આપનો જન્મ અને આપની દુષ્કર દીક્ષા થઈ હતી પોતાના અજબ ત્યાગ અને કર્તવ્ય પરાયણતા તથા કષ્ટ સાધ્ય વિહારોથી શ્રી જિનશાસનનો તેજસ્વી દીનમણિસૂર્ય ઉદયાચળ ઉપર સ્થિર છે. એ આપના પુણ્ય તેજે સ્થળે સ્થળે બતાવી આપ્યું છે. આજે સેંકડો શિષ્યોના આપ પિતામહ છો. દુર્ભાગ્યોદયે આપની પ્રત્યક્ષ ચરણસેવા તો મને અલભ્ય છે છતાં, આ એક લઘુપુષ્પ આપ સદ્ગુણરત્નાકરના શરણે ચઢાવું છું. આપશ્રીનો પાદપદ્મમધુકર શિશુ મનોહર Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुञ्जयमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री पद्मप्रभस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ! श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । જિન આગમ જથsiા (પ્રસ્તાવના) આવો આવો જસોદાના કંત અમઘેર આવો રે, ભક્તિવત્સલભગવંત નાથ શે નાવો રે એમ ચંદનબાળાને બોલડે પ્રભુ આવ્યા રે, મુઠી બાકુના માટે પાછા વળીને બોલાવ્યા રે (શુભવીર કૃત બાર વ્રતની પૂજા) આ રીતે મહાસતી ભગવતી ચંદનબાળાએ જ્યાં પ્રભુ ભગવાન મહાવીરને અડદના બાકુળા વહોરાવીને છ મહિનાના ઉપવાસનું પારણું કરાવ્યું હતું તે કૌશાંબી નગરીમાંથી આ પ્રસ્તાવના આજે લખી રહ્યો છું, આ મારા માટે ઘણી ઘણી ઘણી આનંદની વાત છે. યોગાનુયોગ મારાં પૂજ્ય પરમોપકારી માતુશ્રી સંઘમાતા શતવર્ષાધિકા, સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ કે જેમનો વિક્રમસંવત્ ૨૦૫૧ પોષ સુદિ ૧૦ બુધવારે (તા.૧૧-૧-૧૯૯૫) સિદ્ધક્ષેત્ર પાલિતાણા વિશાનીમાભવન જૈન ઉપાશ્રયમાં રાત્રે ૮-૫૪ સમયે સ્વર્ગવાસ થયો હતો તેમની આજે (વિક્રમ સંવત ૨૦૫૮, પોષસુદિ ૧૦, તા. ૨૪-૧-૨૦૦૨, ગુરૂવાર) આઠમી સ્વર્ગવાસ પુણ્યતિથિ પણ છે. તીર્થંકર ભગવાન પદ્મપ્રભુસ્વામીના ચ્યવન-જન્મ-દીક્ષા-કેવલજ્ઞાન આ ચાર કલ્યાણક પણ અહીં થયાં છે. વગેરે વગેરે વગેરે અનેક પાવન પ્રસંગોથી જે નગરી પાવન થયેલી છે તે કૌશાંબી નગરીમાં, શ્રી સમેતશિખરજીમાં વિક્રમ સં. ૨૦૫૭નું ચોમાસું પૂર્ણ કરીને ત્યાંથી વિહાર કરીને બોધગયા, ગયા, ચંદ્રપુરી, સિંહપુરી (સારનાથ), વારાણસી (કાશી), ભેલપુર, ભદૈની, પ્રયાગ આદિની યાત્રા-સ્પર્શના કરીને અમારે અહીં દેવ-ગુરૂકૃપાથી આવવાનું થયું એ અમારું મોટું સદ્ભાગ્ય છે. મારા અનંતાનંત ઉપકારી પરમ પૂજ્ય પિતાશ્રી તથા ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજની દિવ્યસહાયથી અનેક અનેક પ્રાચીન-અતિપ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિઓ તથા કાગળ ઉપર Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦ પ્રસ્તાવના લખેલી પ્રતિઓના આધારે સંશોધિત કરેલું મૂળ સ્થાનાંગ સૂત્ર વિક્રમસંવત ૨૦૪૧ (ઈસવીય સનું ૧૯૮૫)માં મુંબઈના શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે પૂ. આગમપ્રભાકર મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજની પ્રેરણાથી સ્થપાયેલી જેન આગમ ગ્રંથમાલામાં ગ્રંથાંક ૩ રૂપે પ્રકાશન કર્યું હતું. જે જે તાડપત્રીય તથા કાગળની પ્રતિઓનો અમે ઉપયોગ કર્યો હતો તેનો વિસ્તારથી પરિચય તેની પ્રસ્તાવનામાં અમે આપ્યો છે. મૂળ ગ્રંથને શુદ્ધ કરવા માટે તેમજ સમજવા માટે નવાંગીટીકાકાર આ ભ૦ શ્રી અભયદેવસૂરિવિરચિત ટીકાનો વારંવાર અમારે ઉપયોગ કરવો પડતો હતો. આગમ આદિ ગ્રંથોને શુદ્ધ કરવા માટે તથા સમજવા માટે પ્રાચીન ટીકાઓ પણ શુદ્ધ કરીને આધુનિક પદ્ધતિથી સંપાદિત કરીને મુદ્રિત કરવી જોઈએ, આ લગભગ બધાનો અનુભવ છે. આ દૃષ્ટિ સામે રાખીને અમારું સંશોધન-સંપાદન કાર્ય ચાલતું હતું. તેવામાં શેઠશ્રી બુદ્ધસિંહજી બાફણાની વિનંતિથી જેસલમેરના ભંડારોને વ્યવસ્થિત કરવા માટે વિક્રમ સંવત્ ૨૦૫૪માં અમારે જેસલમેર (રાજસ્થાન) જવાનું થયું. ત્યાંથી પણ ઘણી મહત્ત્વની સામગ્રી મળી. વળી સ્થાનાંગસૂત્રના સંશોધન સમયે પૂ૦ આ0 પ્ર૦ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે બીજા પાસે જે વહ૦ પ્રતિનાં પાઠાંતરી લેવરાવેલાં તેના આધારે અમે સંશોધન કર્યું હતું. પરંતુ તે પછી પાટણના તે મૂળગ્રંથના ફોટા અમને મળી ગયા એટલે બીજાએ નોંધેલા પાઠભેદોમાં જે અસ્પષ્ટતા હતી તે પણ દૂર થઈ જાય એવા સંયોગો મળ્યા. આ બધી સામગ્રીનો દેવ-ગુરૂકૃપાએ યથામતિ ઉપયોગ કરીને પંચમ ગણધર ભગવાનું શ્રી સુધર્માસ્વામીએ રચેલી દ્વાદશાંગીમાં ત્રીજા સૂત્ર શ્રી સ્થાનાંગસૂત્રને આભ. શ્રી અભયદેવસૂરિવિરચિત ટીકા સાથે સંશોધિત-સંપાદિત કરીને પ્રકાશિત કરવાનો જે મંગલ અવસર પ્રાપ્ત થયો છે તે મારા માટે ઘણી ઘણી ઘણી હર્ષની વાત છે. વિક્રમ સં. ૨૦૪૧માં જે મૂળમાત્ર સ્થાનાંગસૂત્રનું પ્રકાશન થયેલું તેમાં જે સૂત્રપાઠ છે તથા સૂત્રના અંકો જે અમે આપેલા છે તે જ પાઠ તથા સૂત્રોકો સામાન્ય રીતે આ ટીકા સહિત સંસ્કરણમાં અમે રાખેલા છે, પરંતુ મળેલી નવી સામગ્રીના તથા નવીન ફુરણાઓના આધારે કોઈક કોઈક સ્થળે અમે તેમાં ફેરફાર પણ કરેલો છે, આ વાત અભ્યાસી વાચકો ખાસ ધ્યાનમાં રાખે. સ્થાનાંગસૂત્રના ઘણા ઘણા પાઠભેદો વિક્રમ સં. ૨૦૪૧ના સંસ્કરણમાં અમે આપેલા છે. ઉપરાંત, પ્રસ્તાવના તથા પરિશિષ્ટો આદિમાં અમે ઘણી ઘણી વાતો તેમાં જણાવેલી છે. વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાં જ જોઈ લેવું. અમારી સંશોધન-સંપાદન પદ્ધતિ કેવા પ્રકારની છે તે અમે આ પહેલાનાં ઘણાં ઘણાં સંપાદનોમાં જણાવેલી છે. સૂત્રમાં આવતા ત-ઢ તા --હ-૧ આદિવાળા પાઠોમાં અમે આ પ્રહ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે સ્વીકારેલી પદ્ધતિ બહુલતયા સ્વીકારી છે. પ્રાચીન ગ્રંથોની લગભગ બધી જ પ્રતિઓમાં પ્રાકૃત પાઠોમાં ત- આદિ પાઠભેદો મળતા રહે છે. આમાં ઐતિહાસિક દૃષ્ટિએ ભાષાશાસ્ત્રીઓ ક્યા Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના પાઠને પ્રાચીન અથવા અર્વાચીન માને છે તે નક્કી કરવાનું કે વિચારવાનું કામ અમે ભાષાવિદો ઉપર જ છોડી દઈએ છીએ. પ્રાચીન-અતિપ્રાચીન હસ્તલિખિત આદર્શોને આધારે દેવ-ગુરૂકૃપાએ અમારી મતિ પ્રમાણે શુદ્ધ કરીને સટીક ગ્રંથોને સંપાદિત-પ્રકાશિત કરવા એટલું જ અમારૂં મુખ્ય ધ્યેય છે.. થયિતા :- ચાલી આવતી પરંપરા પ્રમાણે આના રચયિતા પંચમ ગણધર ભગવાન સુધર્માસ્વામી છે. ભગવાન્ મહાવીર પરમાત્માના સમયમાં અધ્યયન-અધ્યાપનની પરંપરા મૌખિક જ ચાલતી હતી. આ પરંપરા લગભગ એક હજાર વર્ષ સુધી રહી. આ સમયમાં દુર્મિક્ષ આદિની ઘણી ઘણી વિકટ વિકટ સમસ્યાઓ પણ આવી. અનેક વાચનાઓ પણ થઈ. છેવટે વીરનિર્વાણ પછી ૯૮૦ અથવા ૯૯૩ વર્ષે ભગવાન્ દેવર્ધ્વિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્લભીપુરમાં આગમોને લિપિબદ્ધ કર્યા તે પહેલાં તથા તે સમયે મૂળગ્રંથોમાં કેટલાક પ્રક્ષેપો પણ થયા હશે, કેટલાંક સુગમતાની દૃષ્ટિએ તથા ભાષા આદિની દૃષ્ટિએ પરિવર્તનો પણ થયાં હશે.આ બધી ચર્ચા-વિચારણા કરવાનું કામ ઈતિહાસના વિદ્વાનોનું છે. ભ. દેવર્ધ્વિગણિ ક્ષમાશ્રમણે લિપિબદ્ધ કરાવેલી કોઈ પ્રતિઓ તો અત્યારે મળતી જ નથી. તેમણે લિપિબદ્ધ કરાવેલા આદર્શો ઉપરથી ઉત્તરોત્તર લખાયેલી હસ્તલિખિત પણ વાચનાભેદો તથા પાઠભેદો થયેલા છે. આ વાચનાઓ તથા પાઠભેદોનો ઉલ્લેખ આ. ભ. શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે પણ અનેક અનેક સ્થળે ટીકામાં કરેલો છે. સ્થાનાંગ ટીકાના અંતે પણ આ મુંઝવણ તેમણે સ્પષ્ટ શબ્દોમાં વ્યક્ત કરેલી છે. છતાં જિનશાસનના પરમભક્ત આપણા પૂર્વાચાર્યોએ આમાંથી પણ રસ્તો કાઢવા પ્રયત્નો કરેલા છે જ. અત્યારે પણ આપણા પાસે સમુદ્ર જેટલી અખુટ-અગાધ શાસ્ત્રસંપત્તિ છે. એનું તલસ્પર્શી અધ્યયન-અધ્યાપન કરવાની તથા વાચનોઓની વ્યવસ્થિત પ્રણાલિકાઓ શરૂ થાય એની જ મોટી જરૂર છે. મૂળ સૂત્રગ્રંથોને સમજવા તથા શુદ્ધ કરવા માટે તે તે ગ્રંથોના ચૂર્ણિ, ટીકા આદિ જે જે મળતાં હોય તેના શુદ્ધ સંસ્કરણો સામે રાખવાં અત્યંત જરૂરી છે, તેથી ટીકા સહિત સ્થાનાંગસૂત્રને અહીં પ્રકાશિત કર્યું છે. સ્થાનાંગસૂત્રની મળતી ટીકાઓમાં આ.મ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે વિક્મસંવત્ ૧૧૨૦માં રચેલી ટીકા અત્યંત પ્રાચીન છે. તે પછી વિક્તસંવત્ ૧૬૫૭માં નગર્ષિગણીએ દીપિકા ટીકા રચેલી છે. અભયદેવસૂરિજી મહારાજે સ્થાનાંગઆદિ નવ અંગસૂત્રો ઉપર ટીકા રચી હોવાથી તેઓ નવાંગીટીકાકાર તરીકે પ્રસિદ્ધ છે. તેમની રચેલી વૃત્તિ અત્યંત માન્ય ગણાય છે. અહીં અભયદેવસૂરિમ0 વિરચિત ટીકા મુદ્રિત કરેલી છે તેના સંશોધન માટે જેસલમેર, ખંભાત તથા પાટણના ગ્રંથભંડારમાં રહેલી અત્યંત પ્રાચીન તાડપત્ર ઉપર લખેલા આદર્શોનો ઉપયોગ અમે કરેલો છે. તેના ને, , પ૦, ઝેર એવા સંકેતો રાખ્યા છે. આનો સંક્ષિપ્ત પરિચય સ્થાનાંગટીકાના પ્રથમ પૃષ્ઠમાં ટિપ્પણમાં અમે આપ્યો છે. તે સિવાય, બીજી કાગળ ઉપર લખેલી અથવા છાપેલી પ્રતિઓ આના જ શુદ્ધાશુદ્ધ અનુકરણરૂપે હોવાથી એનો ખાસ ઉપયોગ અમે કર્યો નથી. આ ચાર તાડપત્રલિખિત પ્રતિઓ પુરતી છે. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ પ્રસ્તાવના સ્થાનાંગસૂત્રનાં સ્થાન, ક્રિસ્થાનવ એમ ટ્રસ્થાન સુધી દશ અધ્યયનો છે. કેટલાંક અધ્યયનોના અનેક ઉદ્દેશકો પણ છે. ક્રિસ્થાન, ત્રિસ્થાન તથા ઘા સ્થાન માં દરેકમાં ચાર ઉદ્દેશકો છે, પથ્થસ્થાનમાં ત્રણ ઉદ્દેશકો છે. માટે જ બધા થઈ સ્થાનાંગના એકવીસ ઉદ્દેશનકાલ તથા સમુદ્રેશનકાલ છે. એક પદાર્થો જગતમાં કેટલા છે, બે પદાર્થો કેટલા છે, .. એમ દશ પદાર્થો કેટલા છે. આ વાતો શ્રી સ્થાનાંગસૂત્રમાં વર્ણવેલી છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં અનેક અનેક વાતો હોવાથી તેમજ ટીકાકારે ઘણી સ્પષ્ટતા કરી હોવાથી સમુદ્ર જેવો આ ગ્રંથ છે. આ રીતે સટીક સ્થાનાંગસૂત્ર ઘણું મોટું હોવાથી ચાર ભાગમાં મુદ્રિત કરવાની અમારી ભાવના છે. પ્રથમ ભાગમાં ૧-૨-૩ અધ્યયન, દ્વિતીય ભાગમાં ૪-૫-ક અધ્યયન, તૃતીય ભાગમાં ૭-૮-૯ અધ્યયન અને ચતુર્થ ભાગમાં ૧૦મું અધ્યયન તથા અનેકવિધ પરિશિષ્ટો આદિ પ્રકાશિત કરવાં, આ રીતે અમે આયોજન અત્યારે વિચારેલું છે. એક પદાર્થ કેટલા છે, બે પદાર્થો કેટલા છે, ઈત્યાદિ રીતે ગ્રંથ રચવાની પદ્ધતિ બૌદ્ધોમાં પણ હતી. બૌદ્ધોના પાલિત્રિપિટકમાં મંગુત્તરનાથ ( ત્તર નિય) ગ્રંથ પણ આવો છે. એમાં આવતા પદાર્થોની તથા શબ્દોની તુલના કરવા જેવી છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના વિક્રમ સંવતું ૨૦૪૧ના સંસ્કરણમાં અમે ચતુર્થ પરિશિષ્ટમાં વીદ્ધ વનિત્રિટિતુના છાપી છે. તે જોઈ લેવા ખાસ ભલામણ છે. તથા તેની પ્રસ્તાવનામાં(પૃ.૧૮-૧૯, ૨૧-૨૨) સ્થાનાંગના પરિચયમાં સ્થાનાંગનાં અધ્યયનો, ઉદ્દેશાઓ, વિષય, પરિમાણ વગેરે વિષે અમે કંઈક સંક્ષિપ્ત વર્ણન કરેલું છે. વિશેષ કંઈ કહેવાનું હશે તે સ્થાનાંગના ચોથા ભાગની પ્રસ્તાવનામાં આવશે. સ્થાનાંગમાં ક્ષેત્રના પર્વતો-નદીઓ આદિ જુદા જુદા પદાર્થોનું વર્ણન આવે છે. લોકના ઉર્ધ્વલોક-તિર્યશ્લોક-અપોલોકનાં ચિત્રો સામે હોય તો જ એ વાતો બરાબર સમજાય. એટલે ચતુર્થવિભાગમાં ભિન્ન ભિન્ન ચિત્રપટો(નકશા) આપવાની પણ અમારી વિચારણા છે જેથી તે તે વર્ણનો બરાબર સમજાય. આ સ્થાનાંગટીકાનું વાંચન કરતાં અભ્યાસીઓએ વિક્રમ સં. ૨૦૪૧માં છપાયેલું સ્થાનાંગસૂત્ર સામે રાખવું અત્યંત જરૂરી છે. અત્યંત જરૂરી અનેક ટિપ્પણો તથા પરિશિષ્ટો એમાં અમે આપેલા છે. આ ભ૦ શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે સ્થાનાંગસૂત્રમાં આવતા તે તે પદાર્થોને સ્પષ્ટ કરવા માટે જુદા જુદા ગ્રંથોમાંથી અનેક અનેક અનેક પાઠો ટીકામાં ઉદ્ધત કરેલા છે. પૂર્વાપરસન્દર્ભ જોયા વિના આ પાઠો સ્પષ્ટ રીતે સમજવા બહુ કઠિન છે. એટલે તે તે પાઠોને સમજવા માટે ખરતરગચ્છીય વાચક શ્રી સુમતિકલ્લોલ તથા વાદીન્દ્રશ્રી હર્ષનન્દન ગણીએ ભેગા મળીને સ્થાનાંગટીકાગતગાથાવિવરણ નામનો ગ્રંથ લખેલો છે. આમાં તેમણે સંસ્કૃત ઉદ્ધરણો તથા પ્રાકૃત ગદ્ય ઉદ્ધરણો સંપૂર્ણ પણે છોડી દીધાં છે. માત્ર ગાથાઓનું જ વિવરણ લખ્યું છે. આ જે વિવરણ લખ્યું છે તે પણ તે તે મૂળગ્રંથોની ટીકા આદિ જોઈને તેમાંથી લગભગ ઉતારા રૂપે જ લખ્યું છે. કોઈક સ્થળે તેમણે તે તે પાઠોનું પ્રસંગ અનુસાર સંકલન પણ કરેલું છે. કોઈક સ્થળે તેમણે Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના ૩૩ સ્વકલ્પનાથી પણ વ્યાખ્યા કરેલી છે. સ્વકલ્પનાથી કરેલા લખાણમાં અમને કેટલેય સ્થળે અસંગતિ લાગી છે. કોઈક સ્થળે અમે આ વાત ટિપ્પણમાં જણાવી પણ છે. આ ગાથાવિવરણમાં કયા કયા ગ્રંથોમાંથી તેમણે ઉતારા કર્યા છે તે વિવરણકારોએ ખાસ લખ્યું નથી. પરંતુ ઘણી મહેનત કરીને તે તે ગ્રંથોમાંથી શોધવા માટે અમે ઘણો પરિશ્રમ કર્યો છે. વળી ગાથાવિવરણ વાંચતા એ પણ ખાસ ધ્યાનમાં રાખવાનું છે કે આ ભ૦ શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે ઉદ્ધત કરેલા પાઠો તેમની સમક્ષ જે હસ્તલિખિત આદર્શો હતા તેમાંથી ઉદ્ધત કરેલા છે. પરંતુ તે પછી જે ટીકાકારો થયા તેમણે તેમની સમક્ષ જે આદર્શો હતા તેના આધારે ટીકાઓ રચી છે. એટલે વિવરણમાં જે ગાથાઓ આપી છે તે તેમની સમક્ષ વિદ્યમાન સ્થાનાંગટીકાના પાઠો પ્રમાણે આપી છે, પરંતુ તેમણે જે ટીકા લખી છે તે, તે તે ટીકાકારો સમક્ષ જે પાઠો હતા તે પ્રમાણે લખી છે. એટલે ગાથાના પાઠોમાં તથા ગાથાવિવરણમાં જે થોડો થોડો ભેદ જોવા મળે છે તેનું કારણ ઉપર જણાવ્યું તે છે. વાચકોએ તેમાં મુંઝાવું નહિ. ગાથાઓનો અર્થ સ્વયં સમજી લેવો. ગાથાવિવરણકારોએ જે વિવરણ લખ્યું છે તે પણ તેમની સામે જે હસ્તલિખિત આદર્શો હતા તેના આધારે લખ્યું છે. એટલે તેમની સમક્ષ વિદ્યમાન હસ્તલિખિત આદર્શોમાં રહેલી હજારો અશુદ્ધિઓ ગાથાવિવરણમાં પણ આવેલી છે. પૂ. આ૦ મ0 શ્રી વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મહારાજના સમુદાયના આ૦ મ૦ શ્રી વિજય હેમચંદ્રસૂરિજી મહારાજના શિષ્ય તથા બંધુ આ૦ મ0 શ્રી વિજયપ્રદ્યુમ્નસૂરિજી મહારાજના હાથમાં આ ગાથાવિવરણ તથા તેને ઉપરથી કોઈકે કરેલી પાંડુલિપિ (પ્રેસકોપી) આવી હતી. તેમણે આના ઉપર થોડા સંસ્કાર પણ પ્રારંભમાં કર્યા હતા. તે પછી તેમણે આની પાટણ તથા લીંબડીમાં ભંડારમાં રહેલી કાગળ ઉપર લખેલી પ્રતિ આ૦ મ0 શ્રી મુનિચંદ્રસૂરિજી મહારાજ ઉપર મોકલી હતી. શ્રી વિજયમુનિચંદ્રસૂરિજીએ પણ ઘણી મહેનત કરીને તે તે ગ્રંથોની મુદ્રિત ટીકાઓ મેળવીને તેમાં રહેલા પાઠભેદોની નોંધ કેટલાક ભાગ સુધી કરી છે. શ્રીમુનિચંદ્રસૂરિજી મારા મામા તપસ્વિપ્રવર સ્વ૦ શ્રી વિલાસવિજયજી મહારાજના શિષ્ય તથા પુત્ર તપસ્વી મુનિરાજશ્રી જિનચંદ્રવિજયજી મહારાજના શિષ્ય તથા પુત્ર છે. એટલે મુનિચંદ્રસૂરિજી મારા ભત્રીજા થાય છે. તેમણે આ ગાથાવિવરણની પાટણ તથા લીંબડીની પ્રતિ તથા પ્રેસકોપી મારા ઉપર મોકલી આપી. સ્થાનાંગટીકામાં ઉદ્ધત ગાથાઓને સમજવામાં આ વિવરણ ઉપયોગી થશે એમ સમજીને આ સ્થાનાંગસૂત્ર પછી આ ગાથાવિવરણને સ્વતંત્રગ્રંથ તરીકે જોડી દીધું છે. આ પ્રથમ ભાગ પુરતું જ ગાથાવિવરણ આપ્યું છે. ગાથાવિવરણમાં જે અશુદ્ધ પાઠો હતા તે પાઠોને તે તે મૂળટીકા ગ્રંથો જોઈને સુધારવાનો અમે અમારી મતિ પ્રમાણે યથાયોગ્ય પ્રયત્ન કર્યો છે. ગાથાવિવરણમાં તે તે ટીકાગ્રંથોના કેટલાક પાઠો સ્થાનાંગટીકા સમજવા માટે તદ્દન અનાવશ્યક હતા છતાં ગાથાવિવરણકારોએ લખ્યા છે એટલે અમે અનાવશ્યક લાગતા પાઠોને પણ રાખી લીધા છે કે જેથી ગાથાવિવરણગ્રંથનો ઉદ્ધાર થાય અને ગાથાવિવરણકાર વિદ્વાનોનો શ્રમ પણ સાર્થક થાય. વાચકશ્રી સુમતિકલ્લોલ તથા વાદીન્દ્રશ્રી હર્ષનંદન ગણિએ વિક્રમ સંવત ૧૭૦પમાં આ વિવરણ લખ્યું છે. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના આ ગાથાવિવરણ શોધી કાઢવા માટે આ મ૦ શ્રી વિજયપ્રદ્યુમ્નસૂરિજીમહારાજનો તથા મને તે આપવા માટે આ મ0 શ્રી મુનિચંદ્રસૂરિજીમ0 નો હું ઘણો ઘણો આભારી છું. ગાથાવિવરણની અમારી જાણ પ્રમાણે પાંચ હસ્તલિખિત પ્રતિઓ મળે છે. છાણીના ભંડારમાં તેનો ગ્રંથાંક ૧૭૧ છે, શ્રીહંસવિજયજી જૈન લાયબ્રેરી- વડોદરામાં તેનો ગ્રંથાંક ૪૭ છે, જૈનાનંદપુસ્તકાલય-સુરતમાં તેનો ગ્રંથાંક ૧૬૦૭ છે. આ મહ શ્રી મુનિચંદ્રસૂરિએ તે મેળવવા પ્રયત્ન કર્યો, પણ એ મળી શકી નથી. માત્ર પાટણ (ગ્રંથાંક ૯૮૯૬) તથા લીંબડી (ગ્રંથાંક ૪૩૨)ની જ પ્રતિ અમારા પાસે આવી છે. આ ભાગમાં સ્થાનાંગટીકાગતગાથાવિવરણ અમે આપ્યું છે. પરંતુ અનુભવથી અમને જણાયું છે કે આ ગાથાવિવરણ અશુદ્ધિઓનો મોટો ભંડાર છે. એને શુદ્ધ કરવામાં અપાર શક્તિ અને સમય જાય છે. એના બદલે જે જે પ્રાચીનગ્રંથોના વિવરણમાંથી તેમણે સંદર્ભો લીધા છે તે તે પ્રાચીન ગ્રંથોમાંથી સીધા જ તે તે સંદર્ભોને ટિપ્પણોમાં જ સમાવી લઈએ તો વધારે સારું છે. એટલે હવે પછીના ભાગોમાં ગાથાવિવરણ નહીં અપાય. પરંતુ મૂળ ગ્રંથોમાંથી સીધાં જ તે તે વિવરણો ટિપ્પણોમાં જ સમાવી લેવાશે. ગાથાવિવરણ પછી ત્રણ પરિશિષ્ટો અમે જોડેલાં છે. ગાથાવિવરણમાં જે ગાથાઓનું વિવરણ રહી ગયું છે તે તથા બીજા પણ અનેક સાક્ષિપાઠોનું વિવરણ આદિ તથા ટીકાકારે જે કેટલીક કથાઓ સૂચિત કરી છે તે બધું પ્રથમ પરિશિષ્ટમાં (ટિણનાનિ) આપેલું છે. પ્રથમ વિભાગમાં જે સાક્ષિપાઠો ગ્રંથકારે અન્ય ગ્રંથોમાંથી ઉદ્ધત કર્યા છે તેની પૃષ્ઠક્રમ અનુસાર સૂચિ દ્વિતીય પરિશિષ્ટમાં આપેલી છે. તૃતીય પરિશિષ્ટમાં સંપાદનમાં ઉપયોગમાં લીધેલા ગ્રંથોની સૂચિ તથા સંકેત વિવરણ આપેલાં છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં ભિન્ન ભિન્ન વિષયોની અનેક અનેક વાતો છે. એ સ્પષ્ટ કરવા માટે આ૦ શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે અનેક અનેક અનેક ગ્રંથોમાંથી સાક્ષિપાઠો ઉદ્ધત કરીને આપ્યા છે. એટલે આ ટીકા ગ્રંથ સાક્ષિપાઠોનો સમુદ્ર છે. એનાં મૂળસ્થાનો શોધવા માટે અમે અમારાથી થાય તેટલો ખૂબ ખૂબ ખૂબ પ્રયત્ન કર્યો છે. છતાંયે કેટલાકના મૂળ સ્થાનો અમે શોધી શક્યા નથી. કયાં તો તે તે ગ્રંથો સુધી અમારી દૃષ્ટિ પહોંચી નથી અથવા તો અમારા પાસે તે તે ગ્રંથો હાજર નથી. હજુ પણ જો મૂળ સ્થાનો જોવા મળશે તો આના છેલ્લા ભાગમાં આપવા અમારી ભાવના છે. નવાંગીટીકાકાર આ મ0 શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજ પાસે તે ગ્રંથોના સારા સારા પ્રાચીન હસ્તલિખિત આદર્શો હશે. તેમાંથી તેમણે ઘણા ઘણા પાઠો ઉદ્ધત કરીને સ્થાનાંગટીકામાં આપ્યા છે. પરંતુ આજે તે તે ગ્રંથોની જે ટીકા મળે છે તેમાં થોડા જુદા જુદા પાઠો સામે રાખીને ટીકા રચવામાં આવેલી છે. તેથી આ મ0 શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે ઉદ્ધત કરેલા પાઠોથી આજે પ્રકાશિત થયેલા ગ્રંથોમાં થોડા પાઠભેદ જોવામાં આવશે. અમે સ્થાનાંગટીકામાં શ્રી Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના ૩૫ અભયદેવસૂરિમહારાજે સ્વીકારેલા પાઠો જ રાખ્યા છે. પણ જ્યાં એના ટિપ્પણો આપ્યાં છે ત્યાં છે તે ટીકાકારોએ સ્વીકારેલા પાઠોના આધારે જ ટીકા આદિ આપ્યાં છે. પાઠો સંબંધી આ ભિન્નતા ઘણા ઘણા પ્રાચીન સમયથી ચાલી આવે છે. ઉદાહરણ તરીકેનાગસ દોડુ મા... ||૧૭૧૩ || મીતાવાનો ઘમ્મ... ૧૭૧૪' આ બે ગાથા બૃહત્કલ્પભાષ્યમાં છે. નોડમિદિવ સારૂ૪૧૮ એવા ઉલ્લેખ પૂર્વક આ બંને ગાથાઓ વિશેષાવશ્યકભાષ્યમાં શ્રી જેનભદ્રગણિક્ષમાશ્રમણજી મહારાજે ઉદ્ધત કરેલી છે (ગાથાંક ૩૪૫૯-૩૪૬૦), પણ તેમાં જીયાવાણી પઠ છે. નિશીથભાષ્યમાં ૫૪૫૪મી આ ગાથા છે ત્યાં મીતવાસો... પાઠ છે. દોડૂ... બા ગાથા નિશીથભાષ્યમાં ૫૪૫૭ની છે. આ બંને ગાથાઓ નિર્યુક્તિની પ્રાયઃ હશે. કારણ કે મામાં ભીતવાસો ની વિસ્તારથી વ્યાખ્યા નિશીથભાષ્યમાં આપેલી છે. એટલે નિશીથસૂત્રની નિયુક્તિમાં પણ આ ગાથાઓ હોવી જોઈએ. અહીં પ્રશ્ન એ છે કે જીવાણો પાઠ મૌલિક કે મીતાવાનો પાઠ ? બૃહત્કલ્પભાષ્યના ટીકાકાર આ૦ મ0 શ્રી ક્ષેમકીર્તિસૂરિજી મહારાજે મીલાવાનો પાઠની વ્યાખ્યા કરી છે. પરંતુ અમે બૃહત્કલ્પભાષ્યની હસ્તલિખિત એક તાડપત્રીય પ્રતિમાં જોયું તો તેમાં જીવાતો tઠ છે. એટલે સંભવ છે કે ક્ષેમકીર્તિસૂરિમની પાસે જે બૃહત્કલ્પભાષ્યની પ્રતિ હશે તેમાં મીયાવાસો શઠ હશે. એટલે એમણે એની એ રીતે વ્યાખ્યા કરી. આ મ0 શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે થાનાંગ ટીકા (પૃ૦ ૧૪)માં જ્યાં બંને ગાથાઓનો નિર્દેશ કર્યો છે ત્યાં શીયાવીસો પાઠ જ સામે Tખ્યો છે. આજે જે નિયુક્તિસહિત ભાષ્ય ગ્રંથો મળે છે તેમાં નિયુક્તિ તથા ભાષ્યનું એવું મિશ્રણ ઈિ ગયું છે કે નિયુક્તિ તથા ભાષ્યને છૂટા પાડવાં મુશ્કેલ છે. પૃ૦ ૯૧૫માં આ૦ મ૦ શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે સત્ર માળાથે એમ કરીને બે ભાષ્યની ગાથાઓ ઉદ્ધત કરી છે. પૈડનિયુક્તિમાં ૨૦૩-૨૬૪ આ બે ગાથાઓ છે. અત્યારે તો આપણે આને નિયુક્તિ ગાથાઓ માનીએ છીએ. પરંતુ અભયદેવસૂરિમ0 પાસે નિયુક્તિગાથા તથા ભાષ્યગાથા એવા વિભાગો વાળા બાદર્શો હશે કે જેનાથી નિયુક્તિગાથા તથા ભાષ્યગાથાઓની કલ્પના આવી શકે. પૃ૦ ૫૯૭માં રૂદ નિIિથા એવા ઉલ્લેખ પૂર્વક પ્રવ્યવા... વગેરે કેટલીક ગાથાઓ ઉદ્ધત કરેલી છે.આ ગાથાઓ આવશ્યકસૂત્રના છા અધ્યયનમાં હારિભદ્રી વૃત્તિમાં ભાષ્યગાથારૂપે કણાવેલી છે. આ ગાથા પહેલાંની સા પુખ સરખા નાના ય વિળયાજુમાસTI વેવ | વેદી મવિનોદી સર્વે છઠ્ઠા || (નવ) નિ. 9૧૮૬) ગાથાને .... નિIિથા ચેમિતિ થાસમક્ષાર્થ T9૧૮દ્દા એમ નિર્યુક્તિગાથા રૂપે જણાવીને પછી વયવાર્થ તુ માર્ગાર વ વચ્ચતિ એવા ઉલ્લેખપૂર્વક પ્રવ્યવવા.... વગેરે ગાથાઓની વ્યાખ્યા આ૦ મા શ્રી હરિભદ્રસૂરિજી મહારાજે કરેલી છે. એટલે જે ગાથાને અભયદેવસૂરિજીમ નિયુક્તિગાથા જણાવે છે તે જ ગાથાને હરિભદ્રસૂરિજીમ0 માષ્યગાથા જણાવે છે. એટલે એક જ ગ્રંથમાં નિર્યુક્તિ તથા ભાષ્ય હોવાને લીધે નિયુક્તિ તથા માષ્ય વચ્ચે અસ્પષ્ટતા હજાર-બારસો વર્ષો પહેલાંથી ચાલી આવે છે. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬ પ્રસ્તાવના આ જ વાત બૃહત્કલ્પસૂત્રની વૃત્તિમાં પ્રારંભમાં જ આ૦ મ0 શ્રી મલયગિરિ મહારાજે સૂત્રસ્પર્શનિષ્યિ વૈો પ્રન્યો નાત: | આ શબ્દોમાં જણાવી છે. બૃહત્કલ્પસૂત્રના છઠ્ઠા ભાગની અત્યંત વિસ્તૃત પ્રસ્તાવનામાં આગમ પ્રભાકર શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે પહેલાં તો જણાવ્યું કે નિર્યુક્તિકાર ભદ્રબાહુસ્વામી વિક્રમના છઠ્ઠા સૈકામાં થયેલા છે, ચતુર્દશપૂર્વધર ભદ્રબાહુ સ્વામી તો એમનાથી જુદા છે.” આ વાત લખી તથા છપાઈ પણ ગઈ, પરંતુ તે પછી સમુહ લખીને તેમણે પોતે જ નીચે મુજબ સુધારી દીધી છે. __ “नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी वाराही संहिताना प्रणेता श्री वराहमिहिरना नाना भाई हता ए जातनी किंवदन्तीने लक्षमा राखी श्री वराहमिहिरे पोताना पंचसिद्धान्तिका ग्रन्थना अंतमा उल्लेखेली प्रशस्तिना आधारे में मारी प्रस्तावनामां नियुक्तिकार अने नियुक्तिओनी रचना विक्रमना छट्ठा सैकामां थयानी कल्पना करी छे, ए बराबर नथी. ए त्यारपछी मळी आवेली विगतोथी निश्चित थाय छे जे आ नीचे आपवामां સાવે છે.” આ માટે તેમણે ઘણી ચર્ચા ત્યાં સામુહમાં જ કરી છે. એટલે નિર્યુક્તિમાં આવતી કેટલીક વાતોને આધારે ઈતિહાસના અભ્યાસીઓ ‘નિર્યુક્તિકાર ભદ્રબાહુસ્વામી ચતુર્દશપૂર્વધર નથી' એવી જે નિશ્ચિત કલ્પનાઓ કરે છે તે નિરર્થક છે- નિરાધાર છે. કારણ કે તે તે ગ્રંથોમાં નિયુક્તિનો અંશ કેટલો છે તથા પાછળથી ભાષ્ય આદિની કેટલી ગાથાઓ તેમાં ઉમેરાઈ ગઈ છે એ વાત હજાર-બારસો વર્ષ પૂર્વે પણ અસ્પષ્ટ હતી. પૃ૦ ૯૨૭માં વિમાન-નરકેન્દ્રક નામના ગ્રંથમાંથી અનેક ગાથાઓ અભયદેવસૂરિ મહારાજે ઉદ્ધત કરેલી છે. આ ગ્રંથ દેવેન્દ્ર-નરકેન્દ્રપ્રકરણ નામથી વિક્રમસંવત્ ૧૯૭૬ માં ભાવનગરની જૈન આત્માનંદસભા તરફથી પ્રકાશિત થયેલો હતો. તેના સંપાદક-સંશોધક પૂ. શ્રી ચતુરવિજયજી મહારાજ હતા. આનું પુનર્મુદ્રણ શ્રી જિનશાસન આરાધના ટ્રસ્ટ તરફથી વિક્રમસંવત્ ૨૦૪પમાં થયેલું છે. આના મૂળના કર્તા કોઈક ચિરંતન આચાર્ય છે. મુનિચંદ્રસૂરિ મહારાજે વિક્રમ સંવતું ૧૧૬૮માં તેના ઉપર ટીકા રચેલી છે. મૂળ ગ્રંથકારે પહેલી જ ગાથામાં સિદ્ધ નિદંતર વનવરનાકંસમદ્દેા મર્યાદિUT સિરસા વિમાનનારા રોષ્ઠ | આનું વિમાન-નરકેન્દ્રક નામ સૂચિત કર્યું છે. અને આ નામનો જ ઉલ્લેખ અભયદેવસૂરિ મહારાજે કર્યો છે, પરંતુ ટીકાકાર મુનિચંદ્રસૂરિ મહારાજે ટેવેન્દ્ર-નરવેન્દ્રપ્રન્યવૃત્તિમુપમા એમ દેવેન્દ્ર-નરકેન્દ્ર નામ રાખ્યું છે. સંપાદકસંશોધક ચતુરવિજયજી મહારાજે પણ આ જ નામ રાખ્યું છે. આ ગ્રંથમાં ટીકાકારે જે પાઠો આપ્યા છે તે પાઠો તથા અભયદેવસૂરિમહારાજે ઉદ્ધત કરેલા પાઠમાં ઘણું અંતર છે. સ્થાનાંગટીકાની રચના વિક્રમસંવત્ ૧૧૨૦માં થયેલી છે, દેવેન્દ્ર-નરકેન્દ્રની ટીકાની રચના વિક્રમસંવત્ ૧૧૬૮ માં થયેલી છે. બંને વચ્ચે ઘણું થોડું અંતર છે, છતાં બંનેની સમક્ષ જે હસ્તલિખિત આદર્શો હતા તેમાં ઘણું મોટું અંતર છે. આવાં આવાં અનેક અનેક ઉદાહરણો સ્થાનાંગટીકામાં અમને જોવા મળ્યાં છે. અમે સ્થાનાંગ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના ટીકામાં આ૦ મઠ શ્રી અભયદેવસૂરિમહારાજ જે પાઠને અનુસર્યા છે તે પાઠ જ રાખ્યો છે. પરંતુ ટિપ્પણોમાં જ્યાં જ્યાં અમે વ્યાખ્યા આપી છે ત્યાં તે વ્યાખ્યાકારોએ સ્વીકારેલા પાઠને અનુસાર આપી છે. કેટલાક ગ્રંથો જે અનેક સ્થળોથી પ્રકાશિત થયેલા છે તેમાં ગ્રંથાકો જુદા જુદા જોવા મળે છે. આવશ્યકનિયુક્તિ આદિ નિયુક્તિ ગાથાઓનો જ્યાં અમે ક્યાંક આપેલો છે ત્યાં લાખાબાવળશાંતિપુરી (સૌરાષ્ટ્ર)થી શ્રી હર્ષ પુષ્યામૃતર્જન ગ્રંથમાલામાં (ગ્રંથાંક ૧૮૯) પ્રકાશિત થયેલા નિર્યુક્તિસંગ્રહને અનુસરીને જ આપ્યો છે. વ્યવહારભાષ્યની ગાથાઓનો ક્રમાંક જૈન વિશ્વભારતી, લાડનું, રાજસ્થાનથી પ્રકાશિત થયેલા વ્યવહારભાષ્યને અનુસરીને આપ્યો છે. ધન્યવાદ :- શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આગમ જૈનગ્રંથમાળાના પ્રણેતા પુણ્યનામધેય આ..મુશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને અનેકશઃ વંદન પૂર્વક હૃદયથી શ્રદ્ધાંજલી અર્પણ કરું છું. દ્વાદશાર નયચક્રના સંશોધન-સંપાદન દ્વારા આ સંશોધન-સંપાદન ક્ષેત્રમાં અને તેઓ જ લાવ્યા હતા. સ્વ. પૂ આગમોદ્ધારક સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ કે જેમના ભગીરથ પ્રયાસથી આગમ આદિ વિશાળ જૈન સાહિત્ય પ્રકાશમાં આવ્યું છે તેઓશ્રીને પણ આ પ્રસંગે ભાવપૂર્વક વંદન કરૂં છું. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના મુંબઈના કાર્યવાહકોએ આના અત્યંત દ્રવ્યવ્યયસાધ્ય મુદ્રણની જવાબદારી ઉપાડી છે, અને અમને સદા પ્રોત્સાહન આપ્યું છે. શ્રી સિદ્ધક્ષેત્ર પાલિતાણા નગરમાં વિક્રમસંવત્ ૨૦૫૧, પોષ સુદિ દસમ બુધવારે ૧૦૧ મા વર્ષે તારીખ ૧૧-૧-૧૯૯૫ ની રાત્રે ૮-૫૪ મીનીટે સ્વર્ગસ્થ થયેલાં મારાં પરમ ઉપકારી પરમ પૂજ્ય માતુશ્રી સંઘમાતા સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ કે જેઓ સ્વી સાધ્વીજીશ્રી લાભશ્રીજી મહારાજ (સરકારી ઉપાશ્રયવાળા)નાં બહેન તથા શિષ્યા છે તેમના સતત આશીર્વાદ એ મારું અંતરંગ બળ તથા મહાનમાં મહાનું સદ્ભાગ્ય છે. મારા વયોવૃદ્ધ અત્યંત વિનીત પ્રથમ શિષ્ય દેવતુલ્ય સ્વ. મુનિરાજશ્રીદેવભદ્રવિજયજી કે જેમનો લોલાડ (શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે) ગામમાં વિક્રમ સંવત્ ૨૦૪૦ માં કાર્તિક સુદિ બીજે, રવિવારે (તા.૬-૧૧-૮૩) સાંજે છ વાગે સ્વર્ગવાસ થયો હતો તેમનું પણ આ પ્રસંગે ખૂબજ સદ્ભાવથી સ્મરણ કરૂં છું. આ ગ્રંથના મુદ્રણ આદિમાં હમણાં અમદાવાદમાં રહેતા પણ મૂળ આદરિયાણાના વતની જીતેન્દ્રભાઈ મણીલાલ સંઘવી તથા માંડલના વતની અશોકભાઈ ભાઈચંદભાઈ સંઘવીએ ઘણો ઘણો જ સહકાર આપ્યો છે તે માટે તેઓને ખૂબ ખૂબ ધન્યવાદ ઘટે છે. જેસલમેર, પાટણ તથા ખંભાતના હસ્તલિખિત પ્રાચીનમાં પ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિઓના ફોટા તથા ઝેરોક્ષ લેવા માટે તે તે ગામના ટ્રસ્ટના કાર્યવાહકોએ અમને સંમતિ આપી અને અનુકૂળતા કરી આપી છે તે માટે તેમને ઘણા ઘણા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ ગ્રંથના સંશોધન-સંપાદનમાં મારા શિષ્યવર્ગે ખૂબ જ ખૂબ સહકાર આપ્યો છે. તેમજ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ પ્રસ્તાવના મારાં સંસારી માતુશ્રી સંઘમાતા શતવર્ષાધિકા, સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજના પરમસેવિકા શિષ્યાશ્રી સ્વ૦ સાધ્વીજીશ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજીના શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી જિનેન્દ્રપ્રભાશ્રીજી એ આમાં ઘણો ઘણો સહકાર આપ્યો છે. અમે જે અનેક અનેક તાડપત્રી પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે તે બધી મોટા ભાગે ફોટા રૂપે છે, અથવા ઝેરોક્ષ રૂપે છે. ફોટાના ઝીણા ઝીણા અક્ષરો વાંચવા, ફોટા તથા ઝેરોક્ષ કોપીમાંથી તે તે સ્થળોના પાઠો શોધી કાઢવા એ સામાન્ય રીતે કોઈની કલ્પનામાં પણ ન આવી શકે એવું અતિ અતિ કષ્ટદાયક કામ છે. આ સાધ્વીજીએ શ્રુતભક્તિથી આવું ઘણું ઘણું કામ અત્યંત હર્ષપૂર્વક કર્યું છે. મુફોને વાંચવાં પણ ખૂબ શ્રમ અને ઝીણવટભરી નજર માંગી લે છે. એ કામ આ સાધ્વીજીએ કર્યું છે તથા તેમના પરિવારે પણ ઘણો જ ઘણો સહકાર વિવિધ કાર્યોમાં આપ્યો છે તે માટે તે ઘણા ધન્યવાદને પાત્ર છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની સંમતિથી જ ૫૦ સાધુ-સાધ્વીજી મહારાજ તથા જ્ઞાન ભંડાર આદિને યથાયોગ ભેટ આપવા માટે આ જ ગ્રંથની ત્રણસો કોપીઓ શ્રી સિદ્ધિ-ભુવન-મનોહર જૈન ટ્રસ્ટ, અમદાવાદ તથા શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા, ભાવનગર- વતી વધારે કઢાવેલી છે. આ સંમતિ આપવા માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના કાર્યવાહકોને અનેકશઃ અભિનંદન તથા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ ગ્રંથનું કમ્પોઝીંગનું જટિલ કામ અજયભાઈ સી. શાહ સંચાલિત શ્રી પાર્થ કોમ્યુટર્સ (અમદાવાદ)ના વિમલકુમાર બિપિનચંદ્ર પટેલે હરિદ્વાર, સમેતશિખરજી, નાકોડાજી વગેરે દૂર દૂરના સ્થળોએ આવીને ખંતપૂર્વક અમારી સમક્ષ કર્યું છે તે માટે તે પણ ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ પુણ્ય કાર્યમાં દેવ-ગુરૂકૃપાએ આમ વિવિધ રીતે સહાયક સર્વેને મારા હજારો હાર્દિક ધન્યવાદ અને અભિનંદન છે. પૂજ્યપાદ અનંત ઉપકારી પિતાશ્રી ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજના કરકમળમાં આ ગ્રંથ રૂપી પુષ્પ મૂકીને તેમના દ્વારા જિનવાણીરૂપી પુષ્પથી જિનેશ્વર પરમાત્માની પૂજા કરીને આજે ધન્યતા અનુભવું છું. વિક્રમ સં. ૨૦૧૮ પોષ સુદિ ૧૦ ગુરૂવાર, તા.૨૪-૧-૨૦૦૨ કૌશાંબી (ઉત્તર પ્રદેશ) પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરપટ્ટાલંકાર પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરશિષ્યપૂજ્યપાદ સદ્ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રીભુવનવિજ્યાન્તવાસી મુનિ જંબૂવિજય Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૯ श्रीसिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री सद्गुरुभ्यो नमः । પ્રાસંગિક નિવેદન અનંત ઉપકારી ભગવાન મહાવીર પરમાત્માના ચતુર્માસ આદિ પ્રસંગોથી તથા ભગવતી ચંદનબાળા તથા મૃગાવતી આદિના પવિત્ર પ્રસંગોથી પાવન થયેલી કૌશાંબી નગરીમાં ગયા વર્ષે પોષ સુદિ ૧૦ ઉપર અમે હતા ત્યારે આ.ભ. શ્રી અભયદેવસૂરિમહારાજ વિરચિત ટીકા સહિત સ્થાનાંગસૂત્રના પ્રથમ ભાગની પ્રસ્તાવના સંક્ષેપમાં અમે લખી રાખી હતી. પરંતુ નાનું-મોટું ઘણું કામ બાકી હતું. કૌશાંબીથી વિહાર કરી કાનપુર, કંપિલપુર (શ્રી વિમલનાથ ભગવાનના અવનજન્મ-દીક્ષા-કેવલજ્ઞાન કલ્યાણકની ભૂમિ), તથા શૌરીપુર (શ્રી નેમિનાથ ભગવાનના ચ્યવન તથા જન્મકલ્યાણકની ભૂમિ), આગ્રા, મથુરા, વૃંદાવન, ભરતપુર, શિરસ, વરખેડા, જયપુર, અજમેર, પુષ્કર, મેડતા સિટી (યોગરાજ આનંદઘનજી મહારાજની સ્વર્ગવાસભૂમિ), ફલવર્ધિપાર્શ્વનાથતીર્થ (મેડતા રોડ)ની યાત્રા કરી, કાપરડા (પિપાડસીટી પાસે) તીર્થમાં અમે આવ્યા. ત્યાં શ્રીનાકોડા પાર્શ્વનાથ જૈન જે.ટ્રસ્ટના અધ્યક્ષ શ્રી પારસમલજી ભંસાલી ત્યાંના ટ્રસ્ટીઓ સાથે આવ્યા અને અમને નાકોડામાં ચતુર્માસ કરવા માટે વિનંતિ કરી. ત્યાંથી જોધપુર-બાલોતરા થઈ અમે નાકોડા તીર્થમાં આવ્યા. અને સટીક સ્થાનાંગસૂત્રના સંશોધન-સંપાદનને પૂર્ણ કરવાનું કામ શરૂ કર્યું. ઘણા સમય અને પરિશ્રમને અંતે, દેવ-ગુરૂ કૃપાથી જ તેનો પ્રથમ ભાગ હવે પ્રકાશિત થઈ રહ્યો છે તેનો અમને ઘણો આનંદ છે. શ્રી મહાવીર જૈનવિદ્યાલય તરફથી વિન્મ સં. ૨૦૪૦ (ઈસવીય સન-૧૯૮૫)માં પ્રકાશિત થયેલા સ્થાનાંગસૂત્રનાં પ્રાચીન અનેક અનેક તાડપત્રીય તથા કાગળ ઉપર લખેલા આદર્શોનો અમે ઉપયોગ કર્યો છે. પરંતુ તે પછી પણ ભાંડારકર પ્રાચ્ય વિદ્યામંદિર, પુણે, મહારાષ્ટ્ર (Bhandarkar Oriental Reserach Institute, Pune, Maharastra)માં વિદ્યમાન સ્થાનાંગસૂત્રની એક પ્રાચીન તાડપત્ર ઉપર લખેલી પ્રતિના ફોટા અમારા પાસે આવ્યા છે. આ પ્રતિના પ્રારંભમાં તથા અંતમાં કેટલાંક પત્રો છે જ નહિ. બીજા અધ્યયનના (દિસ્થાન ના) ત્રીજા ઉદ્દેશક પછીનાં પત્રો મળે છે. તે પહેલાંના ભાગના કોઈક કોઈક ટુકડા (ખંડિત અંશો) મળે છે. તે બધું જોતાં આમાં કોઈક કોઈક સ્થળે વાંચનાંતર છે, તેમજ પાઠાંતરો પણ છે. આમાં કેટલાક પાઠો તો આ.મ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે છે. પાઠો પોતે સ્વીકાર્યા છે તથા જે પાઠાંતરોનો નિર્દેશ કર્યો છે તેવા ઘણા પાઠો આમાં અમને મળ્યા છે. આની નોંધ અમે તે તે સ્થળોએ માં સંકેતથી ટિપ્પણમાં કરેલી છે. આ પાઠોને ધ્યાનમાં રાખીને કેટલેક સ્થળે અમે આ સંસ્કરણમાં મૂળમાં પણ પરિવર્તન કરેલું છે. ખાસ ધ્યાનમાં એ પણ લેવાનું કે બીજી હસ્તલિખિત આદર્શોમાં ત-ટુ-તિ તે આદિ વ્યંજન બહુલ તકૃતિ બહુલ પાઠો જોવા મળે છે તેવા સ્થાનોમાં માંડ પ્રતિમાં યશ્રુતિ અથવા ટુ-છ વગેરે Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાસંગિક નિવેદન સ્વરશ્રુતિ મોટા ભાગે છે. આવા પાઠ ભેદો અમે જણાવ્યા નથી. પરંતુ જ્યાં મહત્ત્વના પાઠભેદો છે ત્યાં જ અમે ટિપ્પણમાં એની નોંધ કરી છે. આ રીતે, વિક્ર્મસંવત ૨૦૪૦ (ઈસવીય ૧૯૮૫)માં થયેલા શ્રીમહાવીર જૈન વિદ્યાલયના પ્રકાશન કરતાં આ સંસ્કરણમાં કેટલીક ઘણી મહત્ત્વની વિશેષતા પણ છે, તેનું વાચકો તથા સંશોધકો ખાસ ઘ્યાન રાખે. ४० આ રીતે આ.મ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે સ્વીકારેલા પાઠોવાળી એક માત્ર પ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિનો ઉપયોગ કરવા પણ દેવ-ગુરૂકૃપાથી- અમે ભાગ્યવાન બન્યા છીએ એ અમારા માટે ઘણો આનંદનો વિષય છે. ભાંડારકર રિસર્ચ ઈન્સ્ટીટ્યુટ, પુર્ણે, ની અતિ દુર્લભ પ્રતિના ઝેરોક્ષ ફોટાઓ જોધપુરના સ્વ.જોહરીમલજી પારેખે આજથી ૧૭ વર્ષ પહેલાં અમે જ્યારે વિક્રમસંવત્ ૨૦૪૨માં રાજકોટમાં પ્રહ્લાદ પ્લોટમાં ચોમાસું હતા ત્યારે ત્યાં મોકલી આપ્યા હતા તે માટે તેમને ઘણા ઘણા ધન્યવાદ છે. ૦ તથા માં॰ માં શ્રુતિ તથા સ્વરશ્રુતિ મુખ્યતયા છે. પરંતુ ॰ તથા માં॰ બંને ખંડિત હસ્તલિખિત આદર્શો છે. કેટલાંયે પત્રો તેમાં નથી. કેટલાંયે પત્રો ખંડિત-ત્રુટિત છે. ॰ તથા માં॰ સિવાયના આદર્શોમાં શ્રુતિનું બાહુલ્ય છે. આ અંગે વિક્મ સં. ૨૦૨૪ (ઈ.સ. ૧૯૬૮)માં શ્રી મહાવીર જૈનવિદ્યાલય તરફથી પ્રકાશિત થયેલા જૈન આગમ ગ્રંથમાલા ગ્રંથાંક ૧માં વિભુત્ત અનુોદ્દારાનું = ના સંપાદકીય પ્રતિપરિચયમાં નંદી-અનુયોગદ્વારના સંશોધનને લક્ષમાં રાખીને સ્વ૦ આગમપ્રભાકર મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે જે જણાવ્યું છે તે અક્ષરશઃ અમે નીચે આપીએ છીએ. કારણકે સંશોધનની દિશામાં તે અત્યંત મહત્ત્વનું છે. “અનુયોગદ્વારની પ્રાચીન પ્રતિઓમાં કેટલેક ઠેકાણે થતાં તં નવી રેય ઇત્યાદિ ત-વ-ધ આદિ વ્યંજનપ્રધાન પ્રયોગવાળાં સૂત્રપદો જોવામાં આવે છે, તેમ છતાં આજના પ્રાકૃતજ્ઞ વિદ્વાનો એમ માને છે કે આ પ્રયોગો વિકૃત થઈ ગયા છે અથવા લિપિવિકારમાંથી જન્મ્યા છે, પરંતુ આ માન્યતા અમારી દૃષ્ટિએ ભ્રામક છે. આજે ભાષ્ય, ચૂર્ણિ આદિ પ્રાકૃત ગ્રંથોની સેંકડો પ્રાચીન પ્રતિઓમાં એકધારી રીતે આવા પ્રયોગો હજારોની સંખ્યામાં મળતા હોય ત્યારે આવી વિકૃતપણાની કલ્પના કરી લેવી એ અમારી નજરે વધારે પડતું છે. અમારી સૂત્રવાચનામાંથી, ‘બહુ તાંતે બળિયું' એ ન્યાયે, આવા પ્રયોગો અમે ગૌણ કરી દીધા છે, છતાં પ્રાચીન પરંપરા સર્વથા ભુલાઈ ન જાય તે માટે કેટલીક વાર ઉપરવટ થઈને પણ આવા પ્રયોગો અમે રાખ્યા છે. અને ભાષ્ય, ચૂર્ણિ આદિ સાથેનાં સૂત્રપ્રકાશનોમાં અમે આવા પ્રયોગોને ગૌણ કરવાનું પસંદ નહિ કરીએ. આ જ રીતે પદના આદિ સ્વરમાં તે વ્યંજનનો ઉમેરો કે જે અર્વાચીન વૈયાકરણોને સમ્મત નથી તેવા તો ધનાળ-સં૦ લધિજ્ઞાન, તૂજા-સંપૂTM આદિ જેવા પ્રયોગો વિશેષાવશ્યકભાષ્ય, કલ્પબૃહદ્ભાષ્ય, અંગવિજ્જા આદિમાં મોટી સંખ્યામાં પ્રાપ્ત થાય છે. શ્રી દાક્ષિણ્યચિહ્ન ઉદ્યોતનસૂરિની પ્રાકૃત કુવલયમાલાકથા આદિમાં પણ આવા પ્રયોગો આવે છે, એટલે વિદ્વાનોએ આવા પ્રયોગોના વિષયમાં પુનઃ વિચાર ક૨વો પ્રાપ્ત થાય છે. આવા પ્રયોગોથી ભાષાપારંપર્યની વિસ્મૃતિને લીધે શાસ્ત્ર દુર્ગમ જરૂર થાય છે, છતાં ભાષાશાસ્ત્રીઓને માટે આ રીતે-એટલે કે પ્રાચીન પરિવર્તન કરવું-અણગમાકારક બનવાનો Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાસંગિક નિવેદન સંભવ જરૂર છે, પ્રાચીન યુગમાં આચાર્ય શ્રી અભયદેવસૂરિ, આચાર્ય શ્રી મલયગિરિ આદિએ દુર્ગમતાને કારણે પરિવર્તનો જરૂર કર્યાં છે, પરંતુ આજના ભાષાશાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ આવું પરિવર્તન યોગ્ય છે કે નહિ ?- એ વસ્તુ અમે ભાષાશાસ્ત્રીઓ ઉપર છોડીએ છીએ."(પૃ૦૮-૯) “આગમોદ્ધારક પૂજ્યપાદ શ્રી સાગરાનંદસૂરિમહારાજે જૈન આગમો ઉપરના ચૂર્ણિ, ટીકા, ટિપ્પનક આદિ જે વ્યાખ્યાગ્રંથોને સંશોધન ક૨વાપૂર્વક પ્રકાશિત કર્યા છે તે એક દોડતી આવૃત્તિ હોઈ તેમાં અશુદ્ધિ રહે તે અક્ષમ્ય નથી. તેમજ હકીકતથી તેઓ પોતે પણ અજ્ઞાત ન હતા. આ જ કારણને લઈને તેઓશ્રીએ આચારાંગસૂત્રચૂર્ણિના અંતમાં આ પ્રમાણેનો ઉલ્લેખ કર્યો છેप्रत्नानामप्यादर्शानामशुद्धतमत्वात् कृतेऽपि यथामति शोधने न सन्तोषः परं प्रवचनभक्तिरसिकता प्रसारणेऽस्यां प्रयोजिकेति विद्वद्भिः शोधनीयैषा चूर्णिः क्षाम्यतु चापराधं श्रु । પૂજ્યશ્રીનો આ ઉલ્લેખ તદ્દન પ્રામાણિક અને સત્ય છે. અમે પણ આચારાંગચૂર્ણિની સંખ્યાબંધ પ્રતિઓ- જેમાં ખંભાત અને જેસલમેરના જ્ઞાનભંડારોની તાડપત્રીય પ્રતિઓનો સમાવેશ થાય છે- જોઈ અને તપાસી, તો જણાયું કે આવી એક જ કુલની અશુદ્ધતમ પ્રતિઓને આધારે સંશોધન કરવું એ કઠિન કામ છે. પરંતુ અમારા સદ્ભાગ્યે માનો કે જિનાગમાભ્યાસી જૈન મુનિવરોના સદ્ભાગ્યે માનો, પાટણ શ્રીસંઘના જ્ઞાનભંડારમાંથી આચારાંગચૂર્ણિની જુદા કુલની એક ખંડિત તાડપત્રીય પ્રતિ મળી આવી ત્યારે અમારામાં આચારાંગચૂર્ણિના સંશોધન માટે હિમ્મત આવી. આ જ પ્રમાણે ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રચૂર્ણિની જુદા કુલની એક અપૂર્ણ પ્રતિ પણ ઉપર્યુક્ત જ્ઞાનભંડારે જ અમને આપી છે, જેના આધારે તેનું સંશોધન પણ અમારા માટે લગભગ સરળ બન્યું છે. અમારા આ કથનનો આશય એ છે કે- જૈન આગમોના સંશોધન માટે પ્રયત્ન કરનારે જ નહિ, પણ કોઈ પણ શાસ્ત્રના સંશોધન કરનારે તે તે આગમ કે શાસ્ત્રના જે જે વ્યાખ્યાગ્રંથોનો ઉપયોગ કરવો હોય તે તે વ્યાખ્યાગ્રંથોનું પ્રાચીન પ્રાચીનતમ પ્રતિઓના આધારે સંશોધન કર્યા વિના તેનો ઉપયોગ કદીય કરવો ન જોઈએ. પૂજ્યશ્રી સાગરાનંદસૂરિમહારાજની આવૃત્તિઓ જૂની ઢબના સંપાદનરૂપ હોઈ, તેમાં તેઓશ્રીએ ખૂટતા કે વધતા સૂત્રપાઠોની જે પૂર્તિ કરી છે કે કાઢી નાખ્યા છે કે સુધાર્યા છે કે પરિવર્તિત કર્યા છે તેવા પાઠો અમને અમારા પાસેની અને તે સિવાયની અમારી જોયેલી કોઈ પણ પ્રતિમાંથી મળ્યા નથી. આવે સ્થળે જો પૂજ્યશ્રીએ ગોળ કે કાટખૂણ કોષ્ઠકની નિશાની રાખી હોત તો તે સંશોધક વિદ્વાનો માટે વિશેષ અનુકૂળ થઈ પડત. પરંતુ તેઓશ્રીએ પોતાની પુરાણી ઢબને કારણે તેમ કર્યું નથી. આ અનુભવ અમને પૂજ્યશ્રીસંપાદિત અનુયોગદ્વારસૂત્ર અને ચૂર્ણિ, પ્રજ્ઞાપનોપાંગસૂત્ર અને તેની મલયગિરીયા વૃત્તિ આદિ ઘણા ગ્રંથોમાં થયો છે. વ્યાખ્યાગ્રંથો અશુદ્ધ હોય ત્યારે સૂત્રપાઠોને શુદ્ધ કરવાનું કામ ઘણુ વિષમ બને છે. એટલે તે તે આગમને તૈયાર કરતાં પહેલાં તેના ઉપરના વ્યાખ્યાગ્રંથોનું સંશોધન એકાન્ત અનિવાર્ય જ માનવું જોઈએ. નંદસૂત્ર, અનુયોગદ્દારસૂત્ર અને પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રના સંપાદનમાં અમે આ પદ્ધતિ જ અપનાવી છે અને ઉત્તરોત્તર પ્રકાશિત થનારા જૈન આગમગ્રંથો માટે અમારી આ જ પદ્ધતિ ચાલુ રહેશે- એવો અમારો આંતરિક વિશ્વાસ છે.” (પૃ૦ ૧૨-૧૩) ૪૧ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાસંગિક નિવેદન પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારક શ્રી સાગરાનન્દસૂરિમહારાજશ્રીએ સંપાદિત કરેલો કોઈ પણ આગમગ્રંથ તેમનાથી ઉત્તરવર્તી સંપાદકોને વિવિધ રીતે ઉપકારક અને પ્રેરક છે જ; એટલું જ નહિ, જેમને આગમ સાહિત્યની સાથે કોઈ ને કોઈ સંબંધ છે તે સર્વે કોઈ પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારકજીના તે તે વિષયમાં ઋણી છે એ એક હકીકત છે. પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારક મહારાજ સાહેબે સંપાદિત કરેલા જે જે ગ્રંથોનું જે કોઈએ પણ પુનર્મુદ્રણ કર્યું છે તેઓ તે તે ગ્રંથોના પુનર્વિચારણીય પાઠોના સંબંધમાં પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારકની વાચનાથી ભિન્ન વાસ્તવિક પાઠો આપી શક્યા હોય તેવું જવલ્લે જ જણાય છે. એટલે કે પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારકજીનું પ્રકાશન એક ધ્રુવબિંદુ સમાન ગણાયું છે. આ વસ્તુમાં તેઓશ્રીની આજીવન જ્ઞાનસાધના અને બહુશ્રુતતા જ મુખ્ય કારણ છે. તેઓશ્રીનું શ્રુતસ્થાવિર્ય આપણ સૌને વંદનીય છે તેમાં બે મત નથી, છતાં ઉત્તરોત્તર થતી આવૃત્તિઓમાં ન થવું જોઈએ તે સ્થાનમાં પણ અનુકરણ થયેલું જોવામાં આવે છે. મોટા દ્રવ્યય અને શ્રમથી આપણે જે નવીન સંશોધન અને પ્રકાશનો કરીએ તેમાં સવિશેષ ચોક્સાઈ રાખવી જોઈએ, એ ધ્યાનમાં લાવવા માટે.... વિચાર કરવો આવશ્યક છે. તેને સર્વ બહુશ્રુત પુરુષો ક્ષમ્ય ગણશે.” (પૃ૦ ૧૬-૧૭) આગમ પ્રભાકરજીના ઉપર જણાવેલા આ સૂચનને ધ્યાનમાં રાખીને અમારું આગમ સંશોધનનું કામ ચાલે છે. તેમાં ટીકા સહિત સ્થાનાંગસૂત્રનો આ પ્રથમભાગ પ્રકાશિત થઈ રહ્યો છે. આ સંશોધન કાર્યમાં જેમણે જેમણે સહયોગ આપ્યો છે તેમનો આભાર આ ગ્રંથની પ્રસ્તાવનામાં અમે આપેલો છે. ધાર્મિક, સામાજિક, રાજકીય આદિ વિવિધ ક્ષેત્રોમાં અત્યંત અગ્રેસર, દીર્ઘદર્શી, સૂક્ષ્મ ચિંતક, સમાજ તથા જિન શાસનના પરમ હિતૈષી તથા શ્રી જૈન શાસનની ઉન્નતિ જેમનો પ્રાણ હતો તે શ્રી જૈન શ્વે. નાકોડ પાર્શ્વનાથ તીર્થના અધ્યક્ષ શ્રી પારસમલજી ભંસાલી અહીં નાકોડા તીર્થમાં ચતુર્માસ કરવા માટે અમને લાવ્યા હતા. નાકોડા તીર્થમાં વિશાળ પ્રાચીન શાસ્ત્રસંગ્રહ તથા સંશોધન કેન્દ્રને ઉભું કરવાની તેમની ઉત્કટ ભાવના હતી. તે અનુસાર કાર્ય પણ ચાલી રહ્યું છે. પણ હાર્ટની બાયપાસ સર્જરી કરાવ્યા પછી મુંબઈમાં ૨૯-૯-૨૦૦૨ના દિવસે તેમનો આકસ્મિક સ્વર્ગવાસ થવાથી આ સટીક સ્થાનાંગસૂત્રના પ્રકાશનને જોવા માટે તે રહી શક્યા નથી, એ અમને ઘણું ઘણું ખટકે છે. તેમણે જે અત્યંત ઉદારતા તથા ઉત્સાહથી અમને અહીં સંશોધનાદિની અનુકૂળતા કરી આપી છે તે અવિસ્મરણીય છે. તે માટે તેમને હજારો ધન્યવાદ ઘટે છે. દેવ-ગુરૂની અસીમ કૃપાથી તૈયાર થયેલા આ પ્રથમ વિભાગને પ્રભુના કરકમલમાં સમર્પિત કરીને આજે અપાર ધન્યતા અનુભવું છું. શ્રી જૈન છે. નાકોડા પાર્શ્વનાથ તીર્થ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરપટ્ટાલંકારપો.મેવાનગર-૩૪૪૦૨૫, (વાયા-બાલોતરા), પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરશિષ્યજિ બાડમેર, રાજસ્થાન, પૂજ્યપાદ સદ્ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રીભુવનવિજયાન્તવાસી, વિક્રમ સં.૨૦૫૯, માગશર સુદિ ૨, મુનિ જંબૂવિજય શુક્વાર, તા.૯-૧૨-૨૦૦૨ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुञ्जयमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री पद्मप्रभस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । आमुखम् । परमकृपालोः परमात्मनः पूज्यपादानां परमोपकारिणां सद्गुरुदेवानां पितृचरणानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीतातपादानां च कृपया द्वादशाङ्ग्यां तृतीयस्य श्री स्थानाङ्गसूत्रस्य हस्तलिखितप्राचीनविविधादर्शाद्यनुसारेण संशोधनं विधाय आगमभक्तानां पुरत उपन्यस्यन्तो वयमद्यामन्दमानन्दमनुभवामः । विरचयितार:- अस्य सूत्रस्य रचना भगवतो महावीरस्वामिनः शिष्येण पञ्चमगणभृता सुधर्मस्वामिना विहिता इति श्वेताम्बराचार्याणामभिमतम्, प्रथमेन गणभृता भगवता इन्द्रभूतिना गौतमस्वामिना विहिता इति तु दिगम्बराचार्याणामभिमतम् । एवं च २५५९ वर्षेभ्यः प्रागेतत् स्थानाङ्गसूत्रं विरचितमिति उभयेषां श्वेताम्बर-दिगम्बराणां सम्मतम् । ___ सत्यप्येवं वीरनिर्वाणसंवत् ९८० तमे ९९३ तमे वा वर्षे संघसमवायेन यदा श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैर्विहितं पुस्तकालेखनं तदा, ततः पूर्वं वा कस्मिंश्चित् समये, केषुचित् सूत्रांशेषु अन्यकर्तृकं संक्षेपणं प्रक्षेपणं वाऽवश्यं सञ्जातमस्तीति ऐतिह्यविदः संशोधका आमनन्ति। कालक्रमेण दुर्भिक्षादिकारणबाहुल्येन श्रमणैः कण्ठस्थीकृता अनेकेंऽशा व्यवच्छिन्ना बहूनां सूत्राणामिति तु सर्वेऽपि अभ्युपगच्छन्ति । यतः स्थानाङ्गं ७२००० द्वासप्ततिसहस्रपदपरिमितमासीदिति श्वेताम्बरशास्त्रेषु अनेकस्थानेषु वर्णितम् । दिगम्बरमतानुसारेण तु स्थानाङ्गे ४२००० द्विचत्वारिंशत् पदसहस्राणि आसन् । सम्प्रति तु स्थानाङ्गे द्वात्रिंशताऽक्षरैरेकोऽनुष्टप् श्लोक इति गणनया किञ्चिदधिकाः ३७०० श्लोका एव विद्यन्ते । तथा च स्थानाङ्गस्य परिमाणे कालक्रमेण महान् हासः संजात इति स्पष्टमेव । नामार्थ:- “तिष्ठन्ति आसते वसन्ति यथावदभिधेयतया एकत्वादिभिर्विशेषिता आत्मादयः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आमुखम् पदार्था यस्मिंस्तत् स्थानम्, अथवा 'स्थान'शब्देनेह एकादिकः संख्याभेदोऽभिधीयते, ततश्चात्मादिपदार्थगतानामेकादिदशान्तानां स्थानानामभिधायकत्वेन स्थानम्, आचाराभिधायकत्वादाचारवदिति ।” इति स्थानशब्दस्य व्याख्या स्थानाङ्गटीकायां [पृ०५] विहिता आचार्यश्री अभयदेवसूरिभिः । विभागा:- स्थानाङ्गम् एक एव श्रुतस्कन्धः । स्थानाङ्गमेकादिदशपर्यन्तानां पदार्थानामभिधायकम्, अतस्तत्प्रतिपादकानि तत्र दश अध्ययनानि । अध्ययनानां नामानिएकस्थानकम् १, द्विस्थानकम् २, त्रिस्थानकम् ३ यावद् दशस्थानकम् १० । द्विस्थानके त्रिस्थानके चतुःस्थानके च प्रत्येकं चत्वार उद्देशकाः । पञ्चस्थानके त्रय उद्देशकाः । एवं च स्थानाङ्गे एकविंशतिरुद्देशनकालाः समुद्देशनकालाश्च इति समवायाङ्गे नन्दिसूत्रे चाभिहितम् । स्थानाङ्गसूत्रस्य संशोधने ये प्राचीनाः प्राचीनतरा: प्राचीनतमा वा हस्तलिखिता आदर्शा उपयुक्ता अस्माभिस्तेषां स्वरूपं विक्रमसंवत् २०४१ [ईसवीय १९८५] मध्ये श्री महावीरजैनविद्यालयेन प्रकाशिते ग्रन्थे वर्णितमेव प्रस्तावनादिषु । तदनन्तरं भाण्डारकर-प्राच्यविद्यामन्दिर-पुणे (Bhandarkar Oriental Research Institute, Pune) इत्यतः एकः प्राचीनः तालपत्रोपरिलिखित आदर्शोऽपि सम्प्राप्तः । अस्य भां० इति संकेतः । भां० मध्ये प्रारम्भिकाणि अन्तिमानि च बहूनि पत्राणि न सन्ति, केषाञ्चिच्च पत्राणां त्रुटिताः खण्डिताश्चांशाः प्राप्यन्ते । अत्र आ०म० श्री अभयदेवसूरिभिः स्वीकृता अनेके पाठाः सन्ति, बहवो विशिष्टाः पाठभेदा अप्युपलभ्यन्ते । एतेषां पाठभेदानां निर्देशः पादटिप्पनेषु अस्माभिः कृतोऽस्ति । भां० मध्ये त-द-तेप्रभृतिश्रुत्यपेक्षया यश्रुतिः स्वरश्रुतिर्वा बाहुल्येन उपलभ्यते । अनुभवानुसारेण मूलपाठयोजने, भां० अनुसारेण च क्वचित् क्वचित् मूलसूत्रपाठेऽपि अत्र परिवर्तनं कृतमस्माभिः । त-द-तेप्रभृतिश्रुतिस्तु प्राचीना इति तत्र प्रायः परिवर्तनं न कृतम् । अयं पूर्वतनात् संस्करणादधिको विशेषः अस्मिन् संस्करणे । स्थानाङ्गसूत्रे विक्रमसंवत् ११२० वर्षे आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचिता वृत्तिरुपलभ्यते। इयं प्राचीनतमा वृत्तिः । ततः परं विक्रमसंवत् १६५७ वर्षे नगर्षिगणिविरचिता वृत्तिरप्यस्ति । अभयदेवसूरयः स्थानाङ्गादीनां नवानामङ्गसूत्राणां वृत्तिं चक्रुरिति नवाङ्गीटीकाकाररूपेण तेषां महती प्रसिद्धिः । स्थानाङ्गवृत्तेः संशोधने प्राचीनाः प्राचीनतमाश्च तालपत्रोपरिलिखिताः 'जे१, खं०, पा०, जे२' इति चत्वार आदर्शाः उपयुक्ता अस्माभिः । प्राचीनेषु संस्करणेषु ये अशुद्धाः पाठाः सन्ति तत्स्थाने अस्मदुपयुक्त जे१-खं०-पा०-जे२ आदर्शानुसारेण परःसहस्राः शुद्धपाठा अस्माभिरुपलब्धाः । तेषामादर्शानां स्वरूपं पृ०१ मध्ये पादटिप्पने संक्षेपेण निर्दिष्टमस्माभिः। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् विस्तरेण स्वरूपं तु पुरतो वक्ष्यते । ३२ अक्षराणामेकोऽनुष्टप् श्लोक इति गणनया १४२५० श्लोकपरिमिताया अभयदेवसूरिविरचितवृत्तेः अतिविस्तृतत्वात् चतुर्षु विभागेषु प्रकाशयिष्यते । प्रथमे विभागे १-२-३ अध्ययनानि, द्वितीये विभागे ४-५-६ अध्ययनानि, तृतीये विभागे ७-८-९ अध्ययनानि, चतुर्थे विभागे दशममध्ययनं विविधानि परिशिष्टानि च प्रकाशयिष्यन्ते। अस्मिन् विभागे वाचकसुमतिकल्लोल-हर्षनन्दनगणिभ्यां संमील्य विक्रमसंवत् १७०५ वर्षे विरचितं प्रथमविभागपरिमितं स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणं योजितं परिशिष्टत्रयं च । प्रथमे परिशिष्टे प्रथमे विभागे साक्षितया उद्भूतानां पाठानां विवरणादि तत्र सूचिताः कथाश्च, द्वितीये परिशिष्टे साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः, तृतीये परिशिष्टे सम्पादनोपयुक्तग्रन्थसूचिः। अस्माकं संशोधन-सम्पादनपद्धतिः प्राक्तनेषु अस्मत्संशोधितेषु ग्रन्थेषु बहुशः सूचिता, तत एवावधारणीया । धन्यवादः- अस्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च यतो यतः किमपि साहायकं लब्धं तेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । विशेषतस्तु इमे सहायकाः- अस्या जैनागमग्रन्थमालायाः प्रकाशने बीजभूताः प्रेरकाश्च स्व० आगमप्रभाकरपूज्यमुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाभागाः । तैरेव च संशोधन-सम्पादनक्षेत्रेऽहं योजितः। अतः कृतज्ञभावेन विशेषेण तेषां चरणयोर्वन्दनं विदधामि ।। अनेकेभ्यो वर्षेभ्यः प्राक् आगमोद्धारकैराचार्यश्री सागरानन्दसूरिभिः महान् ग्रन्थराशिः महता महता परिश्रमेण जैनसंघस्य पुरस्ताद् मुद्रयित्वा उपन्यस्तः । समग्रोऽपि जैनसंघः तैरुपकृतः। अतस्तेषामपि चरणयोः वन्दनं विदधामि । परमोपकारिणी परमपूज्या विक्रमसंवत् २०५१ तमे वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे पालिताणानगरे पौषशुक्लदशम्यां दिवंगता शताधिकवर्षायुः मम माता साध्वीजीश्री मनोहरश्रीरिहलोक-परलोककल्याणकारिभिराशीर्वचनैर्निरन्तरं मम परमं साहायकं सर्वप्रकारैर्विधत्ते । लोलाडाग्रामे विक्रमसंवत् २०४० कार्तिकशुक्लद्वितीयादिने दिवंगतो ममान्तेवासी वयोवृद्धो देवतुल्यो मुनिदेवभद्रविजयः सदा मे मानसिकं बलं पुष्णाति । ममातिविनीतोऽन्तेवासी मुनिधर्मचन्द्रविजयः तच्छिष्यः मुनिपुण्डरीकरत्नविजयः मुनिधर्मघोषविजयश्च अनेकविधेषु कार्येषु महद् महद् साहायकमनुष्ठितवन्तः ।। एवमेव मम मातुः साध्वीश्रीमनोहरश्रियः शिष्यायाः साध्वीश्रीसूर्यप्रभाश्रियः शिष्यया साध्वीश्रीजिनेन्द्रप्रभाश्रिया एतद्ग्रन्थसंशोधनसम्बन्धिषु सर्वकार्येषु प्रभूतं प्रभूतं साहायकमनुष्ठितम् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् श्रीमहावीरजैनविद्यालयस्य कार्यवाहकैः महता द्रव्यव्ययेन साध्यस्य एतन्मुद्रणादिकस्य व्यवस्था स्वीकृता । अतस्तेभ्योऽपि भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । एतेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादा वितीर्यन्ते । देव-गुरुप्रणिपातपूर्वकं प्रभुपूजनम् परमकृपालूनां परमेश्वराणां देवाधिदेवश्री शवेश्वरपार्श्वनाथप्रभूणां परमोपकारिणां पूज्यपादानां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च कृपया साहाय्याच्चैव संपन्नं कार्यमिदमिति तेषां चरणेषु अनन्तशः प्रणिपातं विधाय अस्मिन् तीर्थे विराजमानस्य अत्यन्तं प्रभावशालिनः श्री नाकोडापार्श्वनाथस्य करकमलेऽद्य भक्तिभरनिर्भरण चेतसा भगवद्वचनात्मकमेव पुष्परूपमेतं ग्रन्थं निधाय अनन्तशः प्रणिपातपूर्वकं भगवन्तं श्री नाकोडापार्श्वनाथं महयाम्येतेन कुसुमेन । श्री जैन श्वेन्नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ, इत्यावेदयतिP.O. मेवानगर, Via बालोतरा, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारजिला-बाडमेर, राजस्थान. पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यविक्रम सं० २०५९, पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मार्गशीर्षशुक्लद्वितीया, मुनि जम्बूविजयः शुक्रवार, ता.६-१२-२००२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ श्रीसिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री सद्गुरुभ्यो नमः । किञ्चित् प्रास्ताविकम् । अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । अरिहंत परमात्मा अर्थ की देशना देते हैं, और गणधर भगवान उसीके अनुसार सूत्रों की रचना करते हैं। ___ भगवान महावीर की देशना के आधार से गणधरभगवंतोने द्वादशांगी (बार अंग सूत्रों) की रचना की थी। यह द्वादशांगी समस्त जैन प्रवचन-जैन शासन की आधार शिला है। द्वादशांगी में भिन्न भिन्न विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है । इस में यह स्थानांग तीसरा अंगसूत्र है। बारहवाँ अंग का विच्छेद तो दो हजार वर्ष पूर्व हो गया है । ग्यारह अंगसूत्रों में विषम काल के प्रभाव से कुछ हानि और परिवर्तन भी हुआ है । वल्लभीपुर में भगवान् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वीरनिर्वाण के बाद ९८० या ९९३ वर्ष में जो सूत्रवाचना पुस्तकारूढ- पुस्तकमें लिपीबद्ध हुई यही वाचना आज विद्यमान है। स्थानांग सूत्र के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। विक्रम संवत् २०४१ (इस्वी. १९८५) में श्री महावीर जैन विद्यालय से विशिष्ट संस्करण प्रकाशित हुआ है। इस में प्राचीन-प्राचीनतम ताडपत्र एवं कागज पर लिखित अनेक अनेक प्रतिओं के आधार से संशोधित पाठ दिया है। अनेक पादटिप्पन, पाठान्तर, परिशिष्ट आदि से परिष्कृत इस संस्करण में प्रस्तावना आदि भी विस्तार से है। ___मूल सूत्र ग्रंथों को समजने के लिये टीका आदि व्याख्या ग्रंथ अति आवश्यक है। स्थानांग आदि नव अंगो का ऐसा विवेचन नहीं था । इसलिये विक्रमकी १२ वीं शताब्दी के महाविद्वान् आचार्य भगवान् श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने स्थानांग आदि नव अंगसूत्रों पर टीका लिखी थी। इस से नवांगी टीकाकार के नाम से वे अत्यंत विख्यात हैं। इस टीका को अत्यंत प्राचीन हस्तलिखित आदर्शों के आधार से संशोधन करने के लिये प्राचीनप्राचीनतम ताडपत्रलिखित जैसलमेर, खंभात एवं पाटण के आदर्शों का उपयोग कर के यह विक्रम संवत् ११२० में रचित श्री अभयदेवसूरिविरचित टीका का प्रथम विभाग आज देवगुरु कृपा से ही प्रकाशित हो रहा है इसका हमें बडा हर्ष है। स्थानांगसूत्र के दश अध्ययन है। टीका सहित यह ग्रन्थ अति महाकाय होने से चार विभागो में प्रकाशित करने की हमारी विचारणा है । प्रथम विभाग में १-३ अध्ययन प्रकाशित कर रहे हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ किञ्चत् प्रास्ताविकम् द्वितीय विभाग में ४-६ अध्ययन, तृतीय विभाग में ७-९ अध्ययन और चतुर्थ विभाग में १० वाँ अध्ययन एवं अनेक परिशिष्ट आदि प्रकाशित करने की विचारणा है । स्थानांगटीका में अन्यग्रंथों से उद्धृत किये गये हजारो पाठ हैं। उनका मूल स्थान खोजना एवं उनका विवरण भी समझना अति परिश्रम साध्य है । इसलिये इस प्रथम विभाग में गाथाविवरण, परिशिष्ट (टिप्पन आदि) भी जोड दिया है । जिज्ञासु इन सभी को पढ़ें यही विज्ञप्ति । परमकृपालु अनन्त अनन्त उपकारी अरिहंत परमात्मा एवं मेरे परम उपकारी परमपूज्य सद्गुरुदेव एवं पिताश्री मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज की कृपा से ही यह कार्य संपन्न हुआ है। इस महान कार्य में मेरे शिष्य मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजयजी, पुंडरीकरत्नविजयजी, धर्मघोषविजयजी ने बहुत सहयोग दिया है । धार्मिक, सामाजिक, राजकीय आदि विविध क्षेत्रों मे अत्यंत अग्रेसर, दीर्घदर्शी, सूक्ष्म चिंतक समाज तथा जिन शासन के परम हितैषी तथा श्री जैन शासन की उन्नति जिनका प्राण था ऐसे श्री जैन श्वे. नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ के अध्यक्ष श्री पारसमलजी भंसाली हमें यहाँ नाकोडा तीर्थ में चातुर्मास करने हेतु लाए और नाकोडा तीर्थ में विशाल प्राचीन शास्त्रसंग्रह तथा संशोधन केन्द्र बनवाने की उनकी उत्कृष्ट भावना थी । इस भावना के कारण आजभी यहाँ कार्य चल रहा है । किंतु हृदय की बाईपास सर्जरी करवाने के पश्चात् मुंबई में २६ - ९ - २००२ के दिन उनका आकस्मिक स्वर्गवास होने से यह सटीक स्थानांगसूत्र के प्रकाशन को देखने के लिये हमारे बीच मौजूद नहीं रहे, जिसकी कमी हमें बहुत - बहुत खटक रही हैं । उन्होंने हमको जो अत्यंत उदारता तथा उत्साह से यहाँ संशोधन करने की अनुकुलता प्रदान की वह अविस्मरणीय रहेगा । इसलिये उनको बहुत बहुत अभिनंदन व धन्यवाद । मेरी परमोपकारिणी शतवर्षाधिकायु परमपूज्य माता साध्वीजी (जिन का मेरे उपर अपार आशीर्वाद है) श्री मनोहर श्रीजी महाराज की शिष्या परमसेविका साध्वीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी महाराज की शिष्या साध्वीजी श्री जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी ने इस विराट संशोधन कार्य में अति अति सहयोग दिया है । इस कार्य में जिन्हों ने भिन्न भिन्न रूप से सहयोग दिया है, उन सबको मेरा हार्दिक अभिनंदन एवं धन्यवाद । प्रभुकी असीम कृपा से ही संपन्न इस ग्रंथको प्रभु के करकमलों में समर्पण कर आज में धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ । श्री जैन श्वे०नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारP.O. मेवानगर, Via बालोतरा, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी जिला - बाडमेर, राजस्थान. जम्बू विजय: विक्रम सं० २०५९, मार्गशीर्षशुक्लाष्टमी, गुरुवार, ता. १२-१२-२००२ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD It gives me immense pleasure, to place before the students and scholors who are interested in jain cananical literture, the critical edition of the Sthananga-Sutra with the oldest available Sanskrit commentary by Achrya Abhaydavsuri in Vikrama-Samvat 1120. 49 The text of the Sthananga-Sutra critically edited by us was already publised by Mahavir Jain Vidyalaya in 1985 A.D. with variant readings in foot-notes and with many appendices etc. The same text has been adopted here, though some slight changes have been done where it was important, moreover an old palm-leaf manuscript was found in Bhandarkar Oriental Reserach Institute, Pune, which is also consulted. In some cases it is unique. We have done some changes in the text according to this ms. where it was quite necessary. Some variant readings have been given in the foot-notes from the same as भां० । To understand the text, the commentary is most necessary. So we have added the commentary composed by Acharya Sri Abhayadevsūri in Vikrama Samvat 1120. This is the oldest commentary. AbhayadevSuri commented on nine Angasūtras, Viz. स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत. So he is well-known नवाङ्गीटीकाकार. He is reputed as a great authority. The स्थानाङ्ग is devided in ten Adhyayanas. To understand the text, з quotes many verses or words from other authentic works, hence this commentary is like an occon. As this is a very big work, we think to publish it in four parts. The first part will cantain 1-3 adhyayanas, the second part 4-6 adhyayanas, the third part 7-9 adhyayanas, the fourth tenth adhyayaand and many appendices. To understand the quoted गाथा० सुमतिकल्लोल and हर्षनन्दनगणी have Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 FOREWORD written a menfaacut in 1705 of vikram-era. We have added here the Tefacut of the first three adhyayanans. The short description of the palm-leaf mss. of Abhayadeva-suri's commentary has been given in the foot-note of the first page. In editing this whole work, I have received a great help from my disciples namely gf farsfastl, A questohecalast and fettfatefastu. Heart of it fadeshpefist who is the disciple of late Healiteit Aurisit who is the disciple of my late Rev. mother fedtshef PiS ERIST has also helped me very much in every way in critically editing this work. I am extermenly greatful to all these. Muni Jambūvijay disciple of His Holiness Munira ja Shri Bhuvanavijayaji Maharaja Sri Jain Shwetamber Nakoda Parshvanath Tirth P.O. Mevanagar-344025, Station Balotra, Dist. Badmer, (Rajasthan), INDIA, Date : 12-12-2002, Tuesday Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राङ्काः १-४८ १-३७ ३८ ३९ ४० ४१-४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१-५२ ५३ ५४-५५ ५६-५८ 6 ४९-१२६ द्वितीयमध्ययनं 'द्विस्थानम् ' ( चत्वार उद्देशकाः) ४९-६६ ५९ ६० ६१-६२ ६३-६५ ६६ ६७-७२ ६७-६९ स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः विषयः प्रथममध्ययनम् ‘एकस्थानम्' भगवदाख्यातानाम् आत्मादीनां सिद्धयन्तानां पदार्थानां कीर्तनम् शब्द-रूप- संस्थान-गन्ध-रस- स्पर्शानां सप्रभेदानां वर्णनम् अष्टादशानां पापस्थानानां तत्त्यागस्य च वर्णनम् कालभेदाः संसारिजीवानां सिद्धानां पुद्गलानां वर्णणाः प्रमाणम् भगवतो महावीरस्य एकाकिनो निर्वाणगमनम् अनुत्तरौपपातिकदेवानामुच्चत्वम् एकतारकाणि नक्षत्राणि एकप्रदेशावगाढादिपुद्गलवर्णनम् प्रथम उद्देशकः द्विप्रत्यवताराः पदार्था: विविधरूपेण द्विविधानां क्रियाणां वर्णनम् गर्हायाः प्रत्याख्यानस्य च द्वैविध्यम् संसारकान्तारोल्लङ्घनाय द्विविध उपायः धर्मश्रवणालाभत आरभ्य केवलज्ञानप्राप्तिं यावद्धेतवः समाभेदा उन्मादभेदा दण्डभेदाश्च दर्शनस्य विविधरूपेण द्वैविध्यम् विस्तरेण ज्ञानस्य द्वैविध्यम् धर्मस्य संयमस्य च विस्तरेण द्वैविध्यम् पृथ्वीकायिकादीनां जीवानां द्रव्याणां कालस्य आकाशस्य शरीराणां चद्वैविध्यम् प्रव्राजनादिमङ्गलकार्योपयोगिदिशो द्वैविध्यम् द्वितीय उद्देशकः वेदनावेदनस्य गत्यागत्योर्जीवानां च द्वैविध्यम् ५१ पृष्ठाङ्काः १-६९ १-३९ ३९-४१ ४१-४३ ४३-४४ ४४-५७ ५७-५८ ५८-५९ ५९ ५९ ५९-६१ ६२-१७२ ६२-९५ ६२-६४ ६४-७१ ७१-७२ ७२-७५ ७५-७७ ७७-७८ ७८-८० ८०-८४ ८५-८८ ८८-९३ ९३-९५ ९५-१०४ ९५-१०१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः पृष्ठाकाः १०१-१०३ १०३-१०४ १०४-१४५ १०४-१०७ १०८-११० ११०-११३ ११३-१३४ १३४-१३५ १३५-१४३ १०४ सूत्राङ्काः विषयः ७०-७१ द्विधा लोकदर्शनं शब्दश्रवणमवभासनादि च ७२ मरुदादिदेवानां द्वैविध्यम् ७३-१०५ तृतीय उद्देशकः ७३-७५ शब्द-शब्दोत्पाद-पुद्गलसंघातादिद्वैविध्यम् ७६-७८ आचार-प्रतिमा-सामायिकानामनेकधा द्वैविध्यम् द्वयोर्द्वयोरुपपातोद्वर्तना-च्यवन-गर्भव्युत्क्रान्त्यादि ८०-९५ जम्बूद्वीपे विद्यमाना वर्ष-वर्षधरादयो नक्षत्र-ग्रहपर्यन्ताः अनेके द्विविधाः पदार्थाः ९६-९८ जम्बूद्वीपवेदिका-लवणसमुद्र-लवणसमुद्रवेदिकाप्रमाणम् ९९-१०० धातकीखण्डे विद्यमाना द्विविधाः पदार्थाः १०१-१०२ धातकीखण्ड-कालोदधिवेदिकाप्रमाणम् १०३ पुष्करवरद्वीपार्धे विद्यमाना द्विविधाः पदार्थाः पुष्करवरादिद्वीप-समुद्रवेदिकाप्रमाणम् १०५ इन्द्राणां द्विविधत्वं विमानानां वर्णद्वयं देवानां रनिद्वयोच्चत्वं च १०६-१२६ चतुर्थ उद्देशकः १०६-१०८ समयादीनां जीवाजीवत्वं बन्धादेरात्मनिर्गमस्य च द्वैविध्यम् १०९ धर्मश्रवणादौ हेतुद्वयम् ११०-११२ अद्धौपमिकस्य कालस्य क्रोधादेर्जीवानां च द्वैविध्यम् ११३-११७ प्रशस्ताप्रशस्तमरणादेर्लोकस्य बोधेः कर्मणो मूर्छायाश्च द्वैविध्यम् ११८-१२० आराधनायास्तीर्थकृतां वर्णस्य सत्यप्रवादवस्तुनश्च द्विविधत्वम् १२१-१२२ द्विताराणि नक्षत्राणि, मनुष्यक्षेत्रान्तर्गतौ समुद्रौ च १२३-१२४ नरकं गतौ चक्रवर्तिनौ, देवानां स्थितिः कल्पस्त्रियो लेश्या: परिचारणा च १२५-१२६ पापकर्मचयादौ कारणद्वयम्, स्कन्धानां चानेकधा द्वैविध्यम् १२७-२३४ तृतीयमध्ययनं 'त्रिस्थानम्' (चत्वार उद्देशकाः) १२७-१६० प्रथम उद्देशकः १२७-१३१ इन्द्र-विकुर्वणा-जीव-परिचारणा-मैथुनत्रैविध्यम् १३२ योग-प्रयोग-करणत्रैविध्यम् अल्पायुष्टव-दीर्घायुष्ट्व-शुभाशुभदीर्घायुष्टवकारणत्रैविध्यम् १४३-१४५ १४५-१७२ १४५-१५४ १५४ १५४-१५९ १५९-१६७ १६७-१६८ १६८ १६८-१७१ १७१-१७२ १७३-३०२ १७३-२१३ १७३-१८० १८०-१८३ १८३-१८८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः सूत्राङ्काः विषयः पृष्ठाकाः १८८-१९२ १९२-१९४ १९४-१९६ १९६-१९८ १९८-२०२ २०२-२०३ २०३-२०७ २०७-२०८ २०८-२१२ २१२-२१३ २१३ २१३ १३४-१३७ गुप्त्यगुप्ति-दण्ड-गर्हा-प्रत्याख्यान-वृक्ष-पुरुषत्रैविध्यम् १३८-१३९ मत्स्य-पक्ष्यादि-स्त्री-पुरुष-नपुंसक-तिरश्चां त्रैविध्यम् १४०-१४१ लेश्यानां तारारूपचलन-विद्युत्कारकारणानां त्रैविध्यम् १४२ लोकान्धकार-लोकोद्योतादौ देवेन्द्रादीनां लोकागमनादौ च त्रीणि कारणानि १४३ त्रयाणां मातापितृ-भर्तृ-धर्माचार्याणां दुष्प्रतीकरत्वम् १४४-१४५ संसारकान्तारोल्लङ्घनाय त्रीणि स्थानानि, त्रिविधः कालः १४६-१४९ पुद्गलचलनकारणानि, उपधि-परिग्रह-प्रणिधान-योनि-तृणवनस्पतित्रैविध्यम् १५०-१५३ तीर्थत्रयम्, कालसम्बद्धाम्रिपरिमिता: पदार्थाः, तेजो-वायूनां स्थितिः १५४-१५७ शाल्यादिधान्यानां योनिस्थितिः, त्रिपरिमिता विविधाः पदार्थाः १५८ त्रयः सप्तमनरकगामिनः, त्रयः सर्वार्थसिद्धोत्पत्तारः १५९ त्रिवर्णानि विमानानि, त्रिहस्तोच्छ्रितानि शरीराणि १६० कालेन अध्येतव्यास्तिस्त्रः प्रज्ञप्तयः १६१-१७५ द्वितीय उद्देशकः १६१-१६३ लोकादयो विविधास्त्रयः पदार्थाः १६४-१६६ बोधि-प्रव्रज्या-निर्ग्रन्थानां त्रैविध्यम् १६७ तिस्त्र: शैक्षभूमयः स्थविरभूमयश्च १६८-१६९ त्रयः पुरुषजाताः, प्रशस्ताप्रशस्तानि त्रीणि स्थानानि १७०-१७३ जीव-लोकस्थिति-दिगादि-बस-स्थावरा-ऽच्छेद्यादीनां त्रैविध्यम् १७४-१७५ भगवतो महावीरस्य गौतमादिश्रमणानामन्त्र्य कथनम् १७६-१९५ तृतीय उद्देशकः १७६-१७७ आलोचनादेः करणाकरणयोर्हेतवः, त्रयः पुरुषजाता: १७८-१७९ वस्त्र-पात्रत्रैविध्यम्, त्रीणि वस्त्रधारणकारणानि १८०-१८१ आत्मरक्ष-ग्राह्यविकटदत्ति-विसम्भोगिककारणा-ऽनुज्ञादि-वचन मनस्वैविध्यम् १८२-१८३ अल्पवृष्टेः, महावृष्टेः, अधुनोत्पन्नदेवस्य इहागमना-ऽनागमनयोश्च कारणानि १८४-१८५ देवस्य स्पृहा-सन्तापयोश्च्यवनज्ञानोद्वेगयोश्च त्रीणि कारणानि १८६ त्रिसंस्थित-त्रिप्रतिष्ठित-त्रिविधविमानवर्णनम् १८७-१८८ जीव-दुर्गति-सुगति-प्रतिग्राह्यपानकादि-अवमौदर्य-हिताहितस्थान शल्य-तेजोलेश्या-दत्ति-एकरात्रिकीप्रतिमाहिताहितस्थानत्रैविध्यम् २१४-२३१ २१४-२१७ २१७-२१९ २१९-२२० २२०-२२३ २२३-२२७ २२७-२३१ २३१-२६५ २३१-२३३ २३३-२३४ २३४-२३८ २३८-२४३ २४३-२४५ २४५-२४७ २४७-२५४ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सूत्राङ्काः १८९ - १९१ १९२-१९३ १९४ १९५ विषयानुक्रमः विषयः कर्मभूमि- दर्शन - रुचि - प्रयोग-व्यवसाया ऽर्थयोनित्रैविध्यम् पुद्गलत्रैविध्यम्, त्रिप्रतिष्ठिता नरकाः, मिथ्यात्वस्य तद्भेदानां च त्रैविध्यम् धर्मस्य उपक्रमादेः कथाया विनिश्चयस्य च त्रैविध्यम् श्रमणोपासनायाः फलपरम्परा १९६ - २३४ चतुर्थ उद्देशक: १९६-१९८ उपाश्रय संस्तारक- कालादि-वचनादि -आराधनादित्रैविध्यम् १९९ जम्बूद्वीपादौ विद्यमानं त्रिसंख्याकं कर्मभूम्यादि २००-२०१ पृथ्वी- तद्देशचलनकारणानि किल्बिषिकानां देवानां स्थित्यादि २०२-२०३ देव-देवीनां स्थितिः, प्रायश्चित्तादित्रैविध्यम् २०४ त्रयोऽप्रव्राज्या अवाचनीया वाचनीया दुःसंज्ञाप्याः सुसंज्ञाप्याश्च २०५ - २०७ त्रयो मण्डलिकाः पर्वताः, त्रयो महातिमहालयाः, कल्पस्थितेः शरीराणां च त्रैविध्यम् २०८-२०९ गुरुप्रत्यनीकादयस्त्रिविधाः प्रत्यनीकाः, त्रयः पित्रङ्गा मात्रङ्गाश्च श्रमणस्य श्रमणोपासकस्य च त्रीणि महानिर्जराकारणानि २१० २११-२१६ पुद्गलप्रतिघात - चक्षुः- अभिगम - ऋद्धि-गौरव करणानां त्रैविध्यम् २१७-२१९ धर्मस्य, व्यापत्त्यादेः, अन्तस्य च त्रैविध्यम् २२०-२२१ जिन - केवल्यर्हतां लेश्यानां च त्रैविध्यम् २२२-२२३ मरणत्रैविध्यम्, अनगारस्य हिताहितानि स्थानानि २२४-२२७ पृथ्व्या वलयानि, त्रिसमयिको विग्रहः, कर्मत्रयक्षयः, त्रिताराणि नक्षत्राणि २२८-२३१ तीर्थकरसम्बद्धाः त्रयः पदार्थाः २३२ - २३३ त्रयो ग्रैवेयकविमानप्रस्तटाः, पापकर्मचयादेस्त्रीणि कारणानि २३४ त्रिप्रदेशिकादयः स्कन्धाः त्रीणि परिशिष्टानि प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि द्वितीयं परिशिष्टम् - स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः तृतीयं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः पृष्ठाङ्काः २५४-२५७ २५७-२६० २६१-२६४ २६४-२६५ २६६-३०२ २६६-२७१ २७१-२७३ २७३ - २७५ २७५ - २७८ २७८- २८१ २८१-२८६ २८६-२८८ २८८- २८९ २८९-२९२ २९२-२९४ २९४-२९५ २९५ - २९८ २९८-३०० ३००-३०१ ३०१-३०२ ३०२ १-४० १-२५ २६-३७ ३८-४० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *. प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । ॐ नमो वीतरागाय । श्री वीरं जिननाथं नत्वा स्थानाङ्गकतिपयपदानाम् । प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टं करोम्यहं विवरणं किञ्चित् ॥ इह हि श्रमणस्य भगवतः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिन इक्ष्वाकुकुलनन्दनस्य प्रसिद्धसिद्धार्थराजसूनोर्महाराजस्येव परमपुरुषकाराक्रान्तविक्रान्तरागादिशत्रोराज्ञाकरणदक्षक्षमापतिशतसततसेवितपादपद्मस्य सकलपदार्थसार्थसाक्षात्करणदक्षकेवलज्ञान जेर ॥ अर्हम् ॥ नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणसमेतं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिसन्दृब्धं श्री स्थानाङ्गसूत्रम् । अत्रेदमवधेयम् - प्राचीनान् तालपत्र कागजपत्रोपरिलिखिताननेकान् हस्तलिखितादर्शानवलम्ब्य स्थानाङ्गसूत्रस्य संशोधनमस्माभिर्विहितम्, तच्च मुम्बईनगरस्थेन श्री महावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ वर्षे [1985 A.D.] वर्षे जैन आगम ग्रन्थमालायां ग्रन्थाङ्क ३ रूपेण प्रकाशितम् । तत्र तालपत्र कागजपत्रात्मकग्रन्थेभ्यो बहूनि पाठान्तराण्यपि टिप्पनेषु दर्शितानि । बहूनि परिशिष्टान्यपि तत्र सन्ति । प्रस्तावनायामपि बहवो विषयाश्चर्चितास्तत्र । अतो विस्तरेण जिज्ञासुभिः तत्रैव विलोकनीयम् । सम्प्रति आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितया टीकया सह स्थानाङ्गसूत्रमत्र प्रकाश्यते । तत्र ग्रन्थाङ्क १३ मध्ये निर्दिष्टो यो मूलपाठः स एव प्रायोऽत्र यथावदुपन्यस्तः । अस्मिन् टीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य संस्करणे एकोऽधिकः भां. आदर्शोऽपि उपयुक्तोऽस्माभिः । तत्स्वरूपम् - भां० = भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट [ भण्डार संदर्भाङ्क 70 (80-81) सूचीपत्र नं. 1-59] (पुणे, महाराष्ट्र) मध्ये विद्यमानः तालपत्रोपरि लिखितः प्राचीन आदर्शः । सम्प्रति अत्र आदिमानि अन्तिमानि च कतिपयपत्राणि न सन्ति । बहूनि प्रारम्भिकाणि पत्राणि त्रुटितानि खण्डितानि च सन्ति । अत्र भां. प्रतौ केचिद् विशिष्टाः पाठाः पाठभेदा वा सन्ति । तेऽप्यत्र टीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रेऽस्माभिर्यथायोगं निर्दिष्टाः । आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितायाः स्थानाङ्गटीकायाः संशोधने ये हस्तलिखिता आदर्शा अस्माभिरत्र उपयुक्ताः तेषां स्वरूपमत्र निर्दिश्यते जे१ = जेसलमेरुदुर्गे खरतरगच्छीयाचार्य श्रीजिनभद्रसूरिसंस्थापिते ग्रन्थभाण्डागारे विद्यमाना तालपत्रोपरि लिखिता प्रतिः, सूचिपत्रानुसारेण ग्रन्थाः ६, पत्राणि १ ३४६ । प्रायो वैक्रमस्य त्रयोदशशतकस्य उत्तरार्धे लिखितेयं प्रतिः । 11. जेसलमेरुदुर्गे उपरि निर्दिष्टे ग्रन्थभाण्डागारे विद्यमाना तालपत्रोपरि लिखिता प्रतिः, ग्रन्थाङ्कः ७, अत्रादौ १-८७ पत्रेषु स्थानाङ्गसूत्रं मूलमात्रं वर्तते, ततः परम् १ ३४९ पत्रेषु आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचिता टीका वर्तते । विक्रमसंवत् १४८६ वर्षे माघवदिपञ्चम्यां सोमवासरे श्री स्तम्भतीर्थे परीक्षाधरणाकेन लिखापितेयं प्रतिः । खं० = खम्भातनगरे श्री शान्तिनाथजैनग्रन्थभाण्डागारे विद्यमाना तालपत्रोपरिलिखिता प्रतिः Catagogue of Palm - leai Jain Manuscripts in Shantinatha Jain Bhandara, Cambay अनुसारेणास्य ग्रन्थाङ्कः ८, पत्राणि १-३२०। प्रायः वैक्रमस्य चतुर्दशशतकस्य पूर्वार्धे लिखितेयं प्रतिः । पा० = पाटणनगरे श्रीसंघवीपाडाभण्डारसत्का तालपत्रोपरि लिखिता प्रतिः । ग्रन्थाङ्कः ३८ | पत्राणि १ - ३६८ । सम्प्रति सर्वोऽप्यं संघवीपाडाभण्डारसत्कग्रन्थसंग्रहः पाटण [ = अणहिलपुरपत्तन ] नगरे श्री हेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमन्दिरे वर्तते । १. नमः श्रीवर्धमानाय खं० । अर्ह जे२ पा० ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दर्शनरूपप्रधानप्रणिध्यवबुद्धसर्व विषयग्रामस्वभावस्य सकलत्रिभुवनातिशायिपरमसाम्राज्यस्य निखिलनीतिप्रवर्तकस्य परमगम्भीरान्महार्थादुपदेशाद् निपुणबुद्ध्यादिगुणगणमाणिक्यरोहणधरणीकल्पेन भाण्डागारनियुक्तेनेव गणधरेण पूर्वकाले चतुर्वर्णश्रीश्रमणसङ्घभट्टारकस्य तत्सन्तानस्येवोपकाराय निरूपितस्य विविधार्थरत्नसारस्य 5 देवताधिष्ठितस्य विद्या-क्रि याबलवताऽपि पूर्वपुरुषेण के नापि कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्याऽत एव च केषाञ्चिदनर्थभीरूणां मनोरथगोचरातिक्रान्तस्य महानिधानस्येव स्थानाङ्गस्य तथाविधविद्याबलविकलैरपि केवलधा_प्रधानैः स्वपरोपकारायाऽर्थविनियोजनाभिलाषिभिरत एव चाविगणितस्वयोग्यतै निपुणपूर्व पुरुषप्रयोगानुपश्रुत्य किञ्चित् स्वमत्योत्प्रेक्ष्य तथाविधवर्तमानजनानापृच्छ्य च तदुपायान् 10 द्यूतादिमहाव्यसनोपहतैरिवास्माभिरुन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते इति शास्त्रप्रस्तावना । तस्य चानुयोगस्य फलादिद्वारनिरूपणतः प्रवृत्तिः, यत उक्तम् - तस्स फल-जोग-मंगल-समुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेय-निरुत्ति-क्कमपयोयणाइं च वच्चाई ॥ [विशेषाव० २] ति । तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये फलमस्यावश्यं वाच्यम्, अन्यथा हि निष्प्रयोजनत्व15 मस्याऽऽशङ्कमानाः श्रोतारः कण्टकशाखामईन इव न प्रवर्तेरनिति। तच्चानन्तर परम्परभेदाद् द्विधा । तत्रानन्तरमावगमः, तत्पूर्वकानुष्ठानतश्चापवर्गप्राप्तिर्या सा परम्परं प्रयोजनमिति १। तथा योगः सम्बन्धः, स च यद्युपायोपेयभावलक्षणो यदुतानुयोग उपायोऽर्थावगमादि चोपेयमिति तदा स प्रयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्यवसरलक्षणः सम्बन्धोऽस्य वाच्यः, 20 कोऽस्य दाने सम्बन्धोऽवसर इति भावः, योग्यो वा दाने अस्य क इति । तत्र भव्यस्य मोक्षमार्गाभिलाषिणः स्थितगुरूपदेशस्य प्राणिनोऽष्टवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायस्यैव सूत्रतोऽपि स्थानाङ्गं देयमित्ययमवसरः । योग्योऽपि चायमेवेति। यथोक्तम्तिवरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउवरिसस्स य सम्मं सूयगडं नाम अंगं ति ।। 'गुणमाणि' जे२ पा० ॥ २. नोपेतै जे२ ॥ ३. "त्रिवर्षपर्यायस्यैव नाऽऽरतः आचारप्रकल्पनाम निशीथाभिधानमध्ययनं वाच्यत इति क्रिया योजनीया, चतुर्वर्षस्य तु सम्यगस्खलितस्य सूत्रकृतं नाम अङ्गं द्वितीयमिति गाथार्थः ॥५८२॥ दशा-कल्प-व्यवहारास्त्रयोऽपि पञ्चसंवत्सरदीक्षितस्यैव, स्थानं समवाय इति चाङ्गे एते द्वे अप्यष्टवर्षस्येति गाथार्थः ॥५८३।।'- पञ्चव० स्वो० ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । दस - कप्प - व्ववहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव । ठाणं समवाओ वि य अंगे ते अट्ठवासस्स || [ पञ्चवस्तु० ५८२ - ५८३ ] त्ति । अन्यथा दानेऽस्याऽऽज्ञाभङ्गादयो दोषा इति २। तथा श्रेयोभूततयाऽस्य विघ्नसम्भवे तदुपहतशक्तयः शिष्या नैवात्र प्रवर्त्तेरन्निति तदुपशमाय मङ्गलमुपदर्शनीयम्, उक्तं च बहुविग्घा सेयाइं तेण कयमंगलोवयारेहिं । घेत्तव्वो सो सुमहानिहि व्व जह वा महाविज्जा ।। [विशेषाव० १२] इति ३ मङ्गलं च शास्त्रस्याऽऽदि-मध्या - ऽवसानेषु क्रमेण शास्त्रार्थस्याऽविघ्नेन परिसमाप्तये तस्यैव स्थैर्याय तस्यैवाऽव्यवच्छेदाय च भवतीति, तदुक्तम् तं मंगलमाईए मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाविग्घपारगमणाय निहिं || तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स- पसिस्साइवंसस्स ॥ [विशेषाव० १३-१४] त्ति ।। तत्रादिमङ्गलं सुयं मे आउसंतेणं भगवया [सू० १] इत्यादिसूत्रम्, नन्द्यन्तर्भूतत्वात् श्रुतशब्दस्य, भगवद्बहुमानगर्भत्वाद्वा आयुष्मता भगवतेत्यस्य, नन्दी -भगवद्बहुमानयोश्च 15 मङ्ग्यते अधिगम्यते वाञ्छितमनेनेति मङ्गलार्थस्य युज्यमानत्वादिति । मध्यमङ्गलं पञ्चमाध्ययनस्यादिसूत्रं पंच महव्वंये [सू० ३८९]त्यादि, महाव्रतानां क्षायिकादिभावतया मङ्गलत्वात्, भवति हि क्षायिकादिको भावो मङ्गलम्, यत उक्तम् 5 नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाइओ । [ विशेषाव० ४९ ] । अथवा षष्ठाध्ययनादिसूत्रं छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहई गणं धरित्तए 20 [सू० ४७५] इत्यादि, अनगारस्य परमेष्ठिपञ्चकान्तर्गतत्वेन मङ्गलत्वात्, तत्सूत्राभिधेयानां वा गणधैरणस्थानानां क्षायोपशमिकादिभावरूपतया मङ्गलत्वादिति । 10 अन्तमङ्गलं तु दशमाध्ययनस्यान्तसूत्रं दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता [सू० ७८३] इति, इहाऽनन्तशब्दस्य वृद्धिशब्दवन्मङ्गलत्वादिति । सर्वमेव वा शास्त्रं मङ्गलम्, निर्ज्जरार्थत्वात्, तपोवत् । मङ्गलभूतस्यापि शास्त्रस्य 25 यो मङ्गलत्वानुवादः स शिष्यमतिमङ्गलत्वपरिग्रहार्थम्, मङ्गलतया हि परिगृहीतं शास्त्रं १. ॰व्वएत्यादि खं० । ॰व्वए इत्यादि पा० जे२ । २. 'त्वात् । सूत्रा पा० जे२ ॥ ३. 'धरस्था' जे२ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मङ्गलं स्याद्, यथा साधुः, इत्यलं प्रसङ्गेनेति । इह च शास्त्रस्य मङ्गलादि निरूपितमपि तदनुयोगस्य द्रष्टव्यम्, तयोः कथञ्चिदभेदादिति ३। अथेदानी समुदायार्थश्चिन्त्यते । तत्र स्थानाङ्गमित्येतच्छास्त्रस्य नाम । नाम च यथार्थादिभेदात् त्रिविधम्, तद्यथा- यथार्थमयथार्थमर्थशून्यं च। तत्र यथार्थं प्रदीपादि, 5 अयथार्थं पलाशादि, अर्थशून्यं डित्थादि । तत्र यथार्थं शास्त्राभिधानमिष्यते, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः। यत एवमतस्तन्निरूप्यते- तत्र च स्थानमङ्गं चेति पदद्वयं निक्षेपणीयमिति, तत्र स्थानं नाम-स्थापनादिभेदात् पञ्चदशधा, यदाह नाम ठवणा दैविए खेत्तद्धा उड्ड उवरती वसही।। संजम-पग्गह-जोहे' अचल-गणण-संधा -भावे ॥ [आचाराङ्गनि० १८४] त्ति । 10 तत्र स्थानमिति नामैव नामस्थानम्, यस्य वा सचेतनस्याचेतनस्य वा स्थानमिति नाम क्रियते तद्वस्तु नाम्ना स्थानं नामस्थानमित्युच्यते। तथा स्थाप्यत इति स्थापना अक्षादिः, सा स्थानाभिप्रायेण स्थाप्यमाना स्थानमित्यभिधीयते, ततः स्थापनैव स्थानं स्थापनास्थानम् । तथा द्रव्यं सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रभेदं स्थानं गुण-पर्यायाश्रयत्वात्, ततः कर्मधारय इति । तथा क्षेत्रम् आकाशम्, तच्च तत् स्थानं च द्रव्याणामाश्रयत्वात् 15 क्षेत्रस्थानम् । तथा अद्धा कालः, स च स्थानम्, यतो भवस्थितिः कायस्थितिश्च भवकालः कायकालश्चाभिधीयते, स्थितिश्च स्थानमेवेति। उड्ढ त्ति ऊर्ध्वतया स्थानम् अवस्थानं पुरुषस्य ऊर्द्धवस्थानं कायोत्सर्ग इति, इह स्थानशब्दः क्रियावचनः, एवं निषण्ण-त्वग्वर्तनादिस्थानमपि द्रष्टव्यम्, ऊर्द्धवशब्दस्योपलक्षणत्वादिति । तथा उपरति: विरतिः, सैव स्थानं विविधगुणानामाश्रयत्वात्। विशेषार्थो वेह स्थानशब्दः, ततो विरते: 20 स्थानं विशेषो विरतिस्थानम्, तच्च देशविरतिः सर्वविरतिर्वेति। तथा वसतिः स्थानमुच्यते, स्थीयते तस्मिन्निति कृत्वेति। तथा संयमस्य स्थानं संयमस्थानम्, इह स्थानशब्दो भेदार्थः, संयमस्य शुद्धिप्रकर्षा-ऽपकर्षकृतो विशेषः संयमस्थानम् । तथा प्रगृह्यते उपादीयते आदेयवचनत्वाद्यः स प्रग्रहो ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरश्चेति, तत्र लौकिको राज-युवराज-महत्तरा-ऽमात्य-कुमाररूपः, सूत्रकृ० नि० १६७, दशाश्रुत० नि० १०, उत्तरा० नि० ३८४, ५२२ ॥ २. अक्षादि पा० ॥ ३. सा च स्थाना' पा० जे२ ॥ ४. नमप्यभि पा० जे२ ॥ ५. ऊर्द्ध खं० पा० जे२। एवमग्रेऽपि । 'ऊर्द्धव इति ऊर्द्ध इति उभयथाऽप्ययं शब्दः संस्कृतभाषायामुपलभ्यते ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। [सू० १] लोकोत्तरश्चाऽऽचार्योपाध्याय-प्रवर्त्ति-स्थविर-गणावच्छेदिकरूप इति, तस्य स्थानं पदं प्रग्रहस्थानमिति । तथा योधानां स्थानम् आलीढ-प्रत्यालीढ-वैशाख-मण्डल-समपादरूपं शरीरन्यासविशेषात्मकं योधस्थानम् । तथा अचल त्ति अचलतालक्षणो धर्मः सादिसपर्यवसितादिरूपः स्थानमचलतास्थानम् । तथा गणण त्ति गणनाविषयं स्थानमेकट्यादि शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तं गणनास्थानम् । तथा सन्धानं द्रव्यतश्छिन्नस्य 5 कञ्चुकादेरच्छिन्नस्य तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्त्वादेरिति, भावतस्तु छिन्नस्य प्रशस्ताऽप्रशस्तभावस्य पुनः सन्धानमच्छिन्नस्य त्वपरापरोत्पद्यमानस्य प्रशस्ता-ऽप्रशस्तभावस्य सन्धानम्, तदेव स्थानं वस्तुनः संहतत्वेनावस्थानं सन्धानस्थानम् । भावे त्ति भावानाम् औदयिकादीनां स्थानम् अवस्थितिरिति भावस्थानमिति । एवमिह स्थानशब्दोऽनेकार्थः, इह च वसतिस्थानेन गणनास्थानेन चाऽधिकार इति दर्शयिष्यते । इदानीमङ्गनिक्षेप उच्यते, तत्र गाथा - नामंगं ठवणंगं दव्वंग चेव होइ भावंगं । एसो खलु अंगस्सा णिक्खेवो चउव्विहो होइ ॥ [उत्तराध्ययननि० १४४] त्ति। तत्र नाम-स्थापने प्रसिद्धे, द्रव्याङ्गं पुनर्रव्यस्य मद्यौषधादेरङ्गं कारणमवयवो वेति द्रव्याङ्गम्, भावस्य क्षायोपशमिकादेरेवमेवाङ्गं भावाङ्गमिति, इह च भावाङ्गेनाधिकार 15 इत्यपि दर्शयिष्यते । तत्र तिष्ठन्त्यासते वसन्ति यथावदभिधेयतयैकत्वादिविशेषिता आत्मादयः पदार्था यस्मिंस्तत् स्थानम्, अथवा स्थानशब्देनेहैकादिकः सङ्ख्याभेदोऽभिधीयते, ततश्चात्मादिपदार्थगतानामेकादिदशान्तानां स्थानानामभिधायकत्वेन स्थानम्, आचाराभिधायकत्वादाचारवदिति। स्थानं च तत् प्रवचनपुरुषस्य क्षायोपशमिकभावरूपस्याङ्गमिवाङ्गं चेति 20 स्थानाङ्गमिति समुदायार्थः ४।। तत्र च दशाऽध्ययनानि, तेषु प्रथममध्ययनमेकादित्वात् सङ्ख्याया एकसङ्ख्योपेताऽऽत्मादिपदार्थप्रतिपादकत्वात् ‘एकस्थानम्', तस्य च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा- उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयश्चेति । तत्र अनुयोजनमनुयोगः, सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनम् । अथवा अनुरूपोऽनुकूलो वा यो योगो व्यापारः सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूप: 25 १. च्छेदक पासं० जे२ । दृश्यतां सू० १८३, ३२३ ।। २. `त्पाद्यमा जे१ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सोऽनुयोग इति । आह च अणुजोजणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेण । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा॥ [विशेषाव० १३८६) इति। अथवा अर्थापेक्षया अणोः लघो: पश्चाज्जाततया वा अनुशब्दवाच्यस्य सूत्रस्य 5 योऽभिधेये योगो व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोऽणुयोगोऽनुयोगो वेति । आह च अहवा जमत्थओ थोव-पच्छभावेहिं सुयमणुं तस्स ।। अभिधेये वावारो जोगो तेणं व संबंधो ॥ [विशेषाव० १३८७] त्ति । तस्य द्वाराणीव द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानि, एकस्थानकाध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः । नगरदृष्टान्तश्चात्र, यथा हि अकृतद्वारं नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि 10 दुरधिगम कार्यातिपत्तये च, चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च, एवमेकस्थानकाध्ययनपुरमप्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगमम्, सप्रभेदचतुर्दारानुगतं तु सुखाधिगममित्यतः फलवान् द्वारोपन्यास इति ५। तानि च द्वि-त्रि-द्वि-द्विभेदानि क्रमेण भवन्तीति तद्भेदाः ६। 15 निरुक्तिस्तु उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवागयोगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनेयविनयादित्युपक्रम इत्यपादानसाधन इति । एवं निक्षेपणं निक्षेपः, निक्षिप्यते वाऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः । एवमनुगमनमनुगमः, 20 अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः, सूत्रस्य न्यासानुकूल: परिच्छेदः । एवं नयनं नयः, नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः, अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद इत्यर्थः ७। अथैषामुपक्रमादिद्वाराणामित्थं क्रमे किं प्रयोजनमिति ?, अत्रोच्यते, न ह्यनुपक्रान्तं सदसमीपीभूतं निक्षिप्यते, न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगतं 25 नयैर्विचार्यते इत्ययमेव क्रम इति, उक्तं च Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । दारक्कमोऽयमेव उ निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नाऽणत्थं नाऽणुगमो नयमयविहणो ।। [विशेषाव० ९१५] त्ति ८। तदेवं फलादीन्युक्तानि । साम्प्रतमनुयोगद्वारभेदभणनपुरस्सरमिदमेवाध्ययनमनुचिन्त्यते। तत्रोपक्रमो द्विविधः-लौकिक: शास्त्रीयश्च, लौकिक: षोढा- नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावभेदात् । तत्र नाम-स्थापने क्षुण्णे । द्रव्योपक्रमो द्वेधा- सचेतना-ऽचेतन- 5 मिश्र-द्विपद-चतुष्पदा-ऽपदरूपस्य द्रव्यस्य परिकर्म विनाशश्चेति, तत्र परिकर्म गुणान्तरोत्पादनम्, विनाशः प्रसिद्ध एव । एवं क्षेत्रस्य शालिक्षेत्रादेः, कालस्य त्वपरिज्ञातस्वरूपस्य नाडिकादिभिः परिज्ञानम्, भावस्य च गुर्वादिचित्तलक्षणस्याऽनवगतस्येङ्गितादिभिरवगम इति । ___ शास्त्रीयोऽपि षो ढैव- आनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-ऽर्थाधिकार- 10 समवतारभेदात् । तत्राऽऽनुपूर्वी दशधाऽन्यत्रोक्ता। तत्रोत्कीर्तन-गणनानुपूर्कोरिदमवतरति, उत्कीर्त्तनं च ‘एकस्थानं द्विस्थानं त्रिस्थानम्' इत्यादि, गणनं तु परिसङ्ख्यानम् ‘एकं द्वे त्रीणि' इत्यादि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा- पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूय॑नानुपूर्वी चेति, पूर्वानुपूर्येदं प्रथमं सद् व्याख्यायते, पश्चानुपूर्व्या दशमम्, अनानुपूर्व्या त्वनियतमिति। तथा नाम दशधा- एकादि दशान्तम्, तत्र षड्नाम्न्यस्यावतारः, तत्रापि क्षायोपशमिके 15 भावे, क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् सकलश्रुतस्येति, उक्तं च छव्विहनामे भावे खओवसमिए सुयं समोयरति । जं सुयणाणावरणक्खओवसमजं तयं सव्वं ॥ [विशेषाव० ९४५] ति । तथा प्रमाणं द्रव्यादिभेदाच्चतुर्विधम्, तत्र क्षायोपशमिकभावरूपत्वादस्य भावप्रमाणे अवतारः, यत आह दव्वादी चउभेयं पमीयते जेण तं पमाणं ति । इणमज्झयणं भावो त्ति भावमाणे समोयरति ॥ [विशेषाव० ९४६] त्ति । भावप्रमाणं च गुण-नय-सङ्ख्याभेदतस्त्रिधा, तत्रास्य गुणप्रमाण-सङ्ख्याप्रमाणयोरेवावतारः, नयप्रमाणे तु न सम्प्रति, यदाह__ मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इहं । अपुहत्ते समोयारो नत्थि पुहत्ते समोयारो ॥ [आवश्यकनि०७६२, विशेषाव० २२७९] त्ति। "र्तनं एक पा० जे२ । २. "वस्वरूप पा० जे२ ॥ ३. पुहुत्ते जे१ खं० ॥ 20 25 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे गुणप्रमाणं तु द्विधा- जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र अस्य जीवोपयोगरूपत्वात् जीवगुणप्रमाणेऽवतारः, तस्मिन्नपि ज्ञान-दर्शन-चारित्रभेदतस्त्र्यात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे, तत्रापि प्रत्यक्षा-ऽनुमानोपमाना-ऽऽगमात्मके प्रकृताध्ययनस्या ऽऽप्तोपदेशरूपत्वादागमप्रमाणे, तत्रापि लौकिक-लोकोत्तरभेदे परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे * सूत्रार्थोभयात्मनि, तथा चाह जीवाणण्णत्तणओ जीवगुणे बोहभावओ णाणे । लोगुत्तरसुत्तत्थोभयागमे तस्स भावाओ ॥ [विशेषाव०९४७] तत्राप्यात्मा-ऽनन्तर-परम्परागमभेदतस्त्रिविधेऽर्थतस्तीर्थकर-गणधर-तदन्तेवासिनः 10 सूत्रतस्तु गणधर-तच्छिष्य-तत्प्रशिष्यानपेक्ष्य यथाक्रममात्मा-ऽनन्तर-परम्परा गमेष्ववतारः। सङ्ख्याप्रमाणमन्यत्र प्रपञ्चितं तत एवावधारणीयम्, तत्र चास्य परिमाणसङ्ख्यायामवतारः, तत्रापि कालिकश्रुत-दृष्टिवादश्रुतपरिमाणभेदतो द्विभेदायां कालिकश्रुतपरिमाणसङ्ख्यायाम्, कालिकश्रुतत्वादस्येति, तत्रापि शब्दापेक्षया सङ्ख्येयाक्षर-पदाद्यात्मकतया सङ्ख्यातपरिमाणात्मिकायां पर्यायापेक्षया त्वनन्त15 परिमाणात्मिकायाम्, अनन्तगम-पर्यायत्वादागमस्य, तथा चाह- अणंता गमा अणंता पज्जवा [समवायाङ्गे सू०१३७] इत्यादि । तथा वक्तव्यता स्वसमयेतरोभयवक्तव्यताभेदात् त्रिधा, तत्रेदं स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतरति, सर्वाध्ययनानां तद्रूपत्वात्, तदुक्तम् परसमओ उभयं वा सम्मद्दिट्ठिस्स ससमओ जेण । ता सव्वज्झयणाई ससमयवत्तव्वनिययाइं ॥ [विशेषाव० ९५३] ति । 20 तथा अर्थाधिकारो वक्तव्यताविशेष एव, स चैकत्वविशिष्टात्मादिपदार्थप्ररूपणलक्षण इति । तथा समवतारः प्रतिद्वारमधिकृताध्ययनसमवतारणलक्षणः, स चानुपूर्व्यादिषु लाघवार्थमुक्त एवेति न पुनरुच्यते, तथाहि अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं । एगट्ठाणमणुगओ सो लाघवओ ण पुण वच्चो ।। [विशेषाव० ९५६] 25 निक्षेपस्त्रिधा ओघ-नाम-सूत्रालापकनिष्पन्नभेदात्, आह च भण्णइ घेप्पइ य सुहं निक्खेवपयाणुसारओ सत्थं । ओहो नाम सुत्तं निक्खेयव्वं तओऽवस्सं ॥ [विशेषाव० ९५७] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । तत्रौघ: सामान्यमध्ययनादि नाम, उक्तं चओहो जं सामन्नं सुयाभिहाणं चउव्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेयं । नामादि चउब्भेयं वण्णेऊणं सुयाणुसारेणं । एगट्ठाणं जोज्जं चउसुं पि कमेण भावेसु ॥ [विशेषाव० ९५८-९५९] तत्राध्यात्म मनः, तत्र शुभे अयनं गमनम् अर्थादात्मनो भवति यस्मात्, अध्यात्मशब्दवाच्यस्य वा मनसः शुभस्य आनयनमात्मनि यतो भवति, बोधादीनां वाऽधिकमयनं यतो भवति तदज्झयणं ति प्राकृतशैल्या भवतीति, आह च - जेण सुहज्झप्पयणं अज्झप्पाणयणमहियमयणं वा। बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ [विशेषाव० ९६०] ति । 10 अधीयते वा पठ्यते आधिक्येन स्मर्यते गम्यते वा तदित्यध्ययनमिति, तथा यद्दीयमानं न क्षीयते स्म तदक्षीणम्, तथा ज्ञानादीनामायहेतुत्वादायः, तथा पापानां कर्मणां क्षपणहेतुत्वात् क्षपणेति, आह च अज्झीणं दिज्जतं अव्वोच्छित्तिनयतो अलोगो व्व । आओ नाणाईणं झवणा पावाण खवणं ति ॥ [विशेषाव० ९६१] नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे अस्यैकस्थानकमिति नाम, तत एकशब्दस्य स्थानशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र एकस्य नामादिः सप्तधा, तदुक्तम्नामं १ ठवणा २ दविए ३ माउयपय ४ संगहेक्कए चेव ५ । पज्जव ६ भावे य ७ तहा सत्तेते एक्कगा होंति ॥ [दशवै० नि० ८, २१८] तत्र नामैको यस्यैक इति नाम । स्थापनैकः पुस्तकादिन्यस्तैककाङ्कः । द्रव्यैक: 20 सचित्तादिस्त्रिधा । मातृकापदैकस्तु 'उप्पन्ने इ वा विगए इ वा धुवे इ वा' इत्येषां मातृकावत् सकलवाङ्मयमूलतया अवस्थितानामन्यतरद्विवक्षितम्, अकाराद्यक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः । संग्रहैको येनैकेनापि ध्वनिना बहवः सगृह्यन्ते, यथा जातिप्राधान्येन व्रीहिरिति । पर्यायैकः शिवकादिरेकः पर्यायः । भावैक औदयिकादिभावानामन्यतमो भाव इति । इह भावैकेन अधिकारो यतो 25 गणनालक्षणस्थानविषयोऽयमेकः, गणना च सङ्ख्या, सङ्ख्या च गुणः, गुणश्च भाव १. उत्तरा० नि० १४१, ३७८ ॥ २. 'स्तैकाङ्गः जे१ ॥ 15 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इति । स्थानस्य तु निक्षेप उक्त एव, तत्र च गणनास्थानेनेहाधिकारः । ततः एकलक्षणं स्थानं संख्याभेद एकस्थानम्, तद्विशिष्टजीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमध्ययनमप्येकस्थानमिति। उक्तावोघनिष्पन्न-नामनिष्पन्ननिक्षेपौ, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः प्राप्तावसरः, तत्स्वरूपं चेदम्- सूत्रालापकानां सूत्रपदानां श्रुतं मे आयुष्मन्नित्यादीनां निक्षेपो 5 नामादिन्यासः, स च अवसरप्राप्तोऽपि नोच्यते, सति सूत्रे तस्य संभवात्, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चानुगमभेद एवेत्यनुगम एव तावदुपवर्ण्यते। द्विविधोऽनुगमो नियुक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्र आद्यो निक्षेपनिर्युक्त्युपोद्घातनियुक्ति -सूत्रस्पर्शकनिर्युक्त्यनुगमविधानतस्त्रिविधः, तत्र च निक्षेपनियुक्त्यनुगमः स्थानाङ्गाध्ययनाद्येकशब्दानां निक्षेपप्रतिपादनादनुगत एवेति, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु उद्देसे निद्देसे य निग्गमे [आव० नि० 10 १४०-१४१, विशेषाव० १४८४-१४८५] इत्यादिगाथाद्वयावसे य इति । सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगमस्तु संहितादौ षड्विधे व्याख्यालक्षणे पदार्थ-पदविग्रह-चालनाप्रत्यवस्थानलक्षणव्याख्यानभेदचतुष्ट यस्वरूपः, स च सूत्रानुगमे संहितापदलक्षणव्याख्यानभेदद्वयलक्षणे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगम एवोच्यते, तत्र च अल्पग्रन्थ महार्थादिसूत्रलक्षणोपेतं स्खलितादिदोषवर्जितं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदम्15 [सू० १] सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खायं । [टी०] सुयं मे इत्यादि। अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेणेति, आह च भाष्यकार:सुत्तं १ पयं २ पयत्थो ३ संभवतो विग्गहो ४ वियारो य ५ चालनेत्यर्थः । दूसियसिद्धी ६ नयमयविसेसओ नेयमणुसुत्तं ॥ [विशेषाव० १००२] तत्र सूत्रमिति संहिता, सा चानुगतैव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वादिति, आह च20 होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो [विशेषाव० १००९] त्ति । । सूत्रे चास्खलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो व्याख्याभेदाः प्रवर्तन्त इति, तत्र पदानि- श्रुतं मया आयुष्मन्! तेन भगवता एवमाख्यातमिति, एवं पदेषु व्यवस्थापितेषु सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, तत्र चेयं व्यवस्था१. “उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खित्त काल पुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण नए समोयारणाऽणुमए ॥१४०।। किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवागरिस फासण निरुत्ती ॥१४१॥” इति सम्पूर्ण गाथाद्वयम् आवश्यकनियुक्तौ ॥ २. 'द्वयादवसेय जेसं० १॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । जत्थ उ जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य ण जाणेज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्थ || [आचा०नि० ४, अनुयोग०सू० ८ ]त्ति । ११ तत्र नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं च प्रतीतम्, द्रव्यश्रुतमधीयानस्यानुपयुक्तस्य पत्रकपुस्तकन्यस्तं वा, भावश्रुतं तु श्रुतोपयुक्तस्येति, इह च भावश्रुतेन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगलक्षणेनाधिकारः । तथा आउसं ति आयुः जीवितम्, तन्नामादिभेदतो दशधा, तद्यथा- 5 नामं १ ठवणा २ दविए ३ ओहे ४ भव ५ तब्भवे य ६ भोगे य ७ । संजम ८ जस ९ कित्ती १० जीवियं च तं भण्णती दसहा ॥ [ आव० नि० १०५६, विशेषाव० ३५१० ] [ तत्र नाम - स्थापने क्षुण्णे ।] दविए त्ति द्रव्यमेव सचेतनादिभेदं जीवितव्यहेतुत्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितम् । ओघजीवितं नारकाद्यविशेषितायुर्द्रव्यमात्रं सामान्यजीवितं 10 भवति । नारकादिभवविशिष्टं जीवितं भवजीवितं नारकजीवितमित्यादि । भवेय त्ति तस्यैव पूर्वस्य भवस्य समानजातीयतया सम्बन्धि जीवितं तद्भवजीवितम्, यथा मनुष्यस्य सतो मानुषत्वेनोत्पन्नस्येति । भोगजीवितं चक्रवर्त्यादीनाम् । संयमजीवितं साधूनाम् । यशोजीवितं कीर्त्तिजीवितं च यथा महावीरस्येति । जीवितं चायुरेवेति, इह च संयमायुषा यशः - कीर्त्यायुषा चाधिकार इति । एवं शेषपदानां यथासम्भवं निक्षेपो 15 वाच्य इति । 1 उक्तः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः । पदार्थः पुनरेवम् - इह किल सुधर्म्मस्वामी पञ्चमो गणधरदेवो जम्बूनामानं स्वशिष्यं प्रति प्रतिपादयाञ्चकार - श्रुतम् आकर्णितं मे मया, आउसं ति आयुः जीवितम्, तत् संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मांस्तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् ! शिष्य ! तेणं ति यः सन्निहित व्यवहित - 20 सूक्ष्म-बादर-बाह्या-ऽऽध्यात्मिकसकलपदार्थेष्वव्याहतवचनतयाऽऽप्तत्वेन जगति प्रतीतः अथवा पूर्वभवोपात्ततीर्थ करनामकर्मादिलक्षणपरमपुण्यप्राग्भारो विलीनानादिकालालीनमिथ्यादर्शनादिवासनः परिहृतमहाराज्यो दिव्याद्युपसर्गवर्गसंसर्गाविचलितशुभध्यानमार्गो भास्कर इव घनघातिकर्म्मघनाघनपटलविघटनोल्लसितविमलकेवलभानुमण्डलो विबुधपतिषट्पदपटलजुष्टपदपद्मो मध्यमाभिधानपुरीप्रथम- 25 प्रवर्त्तितप्रवचनो जिनो महावीरस्तेन भगवता अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमग्रैश्वर्यादियुक्तेन एवमित्यमुना वक्ष्यमाणेनैकत्वादिना प्रकारेण आख्यातमिति, आ मर्यादया जीवा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ऽजीवलक्षणासङ्कीर्णतारूपया अभिविधिना वा समस्तवस्तुविस्तारव्यापनलक्षणेन ख्यातं कथितम् आख्यातमात्मादि वस्तुजातमिति गम्यते, अत्र च श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात्, उक्तं चकिं एत्तो पावयरं ? सम्म अणहिगयधम्मसब्भावो । अन्नं कुदेसणाए कट्ठयरागम्मि पाडेइ ॥ [ ] त्ति । मयेत्यनेनोपक्रमद्वाराभिहितभावप्रमाणद्वारगतात्मा-ऽनन्तर-परम्परभेदभिन्नागमेऽयं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्तरागमः सूत्रतस्त्वात्मागम इत्याह, आयुष्मन्नित्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनः प्रह्लादयताऽऽचार्येणोपदेशो देय इत्याह, उक्तं च10 धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो य मणं सीसं चोएइ आयरिओ ॥ [उपदेशमाला १०४] त्ति । आयुष्मत्त्वाभिधानं चात्यन्तमाह्लादकम्, प्राणिनामायुषोऽत्यन्ताभीष्टत्वाद्, यत उच्यतेसव्वे पाणा पियाउया अप्पियवहा सुहासाया दुक्खपडिकूला सव्वे जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं [आचाराङ्ग० सू०७८ ] ति, तथा15 तृणायापि न मन्यन्ते पुत्र-दारा-ऽर्थसम्पदः ।। जीवितार्थे नरास्तेन तेषामायुरतिप्रियम् ॥ [ ] इति । अथवा आयुष्मन्नित्यनेन ग्रहण-धारणादिगुणवते शिष्याय शास्त्रार्थो देय इति ज्ञापनार्थं सकलगुणाधारभूतत्वेनाऽशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रणमकारि, यत उक्तम्20 वुढे वि दोणमेहे न कण्हभूमाउ लोट्टए उदयं । गहण-धरणासमत्थे इय देयमच्छित्तिकारिम्मि ॥ [विशेषाव० १४५८] विपर्यये तु दोष इति, आह च आयरिए सुत्तम्मि य परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसिं पि य हाणी पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा ॥ [विशेषाव० १४५७] इति । 25 तथा तेनेत्यनेन त्वाप्तत्वादिगुणप्रसिद्धताऽभिधायकेन प्रस्तुताध्ययनप्रामाण्यमाह, वक्तृगुणापेक्षत्वाद्वचनप्रामाण्यस्येति । भगवतेत्यनेन तु प्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। १३ अतिशयवान् किलोपादेयः, तद्वचनमपि तथेति, अथवा तेणं ति अनेनोपोद्घातनिर्यक्त्यन्तर्गतं निर्गमद्वारमाह, यो हि मिथ्यात्वतमःप्रभतिभ्यो दोषेभ्यो निर्गतस्ततो निर्गतमिदमध्ययनम्, क्षेत्रतोऽपापायाम्, कालतो वैशाखशुद्धैकादश्यां पूर्वाह्ने, भावे क्षायिके वर्तमानादिति, एवं च गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धोऽस्य प्रदर्शितो भवति, तथा तथाविधेन भगवता यदुक्तं तत् सप्रयोजनमेव भवतीति सामान्यतः सप्रयोजनता चास्योक्ता, 5 न हि पुरुषार्थानुपयोगि भगवन्तो भाषन्ते, भगवत्त्वहानेः, अत एव चास्योपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धोऽपि दर्शितः, इदं हि भगवदाख्यातं ग्रन्थरूपापन्नमुपायः, पुरुषार्थस्तूपेय इति, अत एव चात्र श्रोतारः श्रवणे प्रवर्तिताः, यतःसिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते ।। शास्त्रादौ तेन वक्तव्य: सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ [मी० श्लो० वा० १७] इति । 10 एवमित्यनेन तु भगवद्वचनादात्मवचनस्यानुत्तीर्णतामाह, अत एव स्ववचनस्य प्रामाण्यम्, सर्वज्ञवचनानुवादमात्रत्वादस्येति । अथवा एवमित्येकत्वादिः प्रकारोऽभिधेयतया निर्दिष्टः, निरभिधेयताशङ्कया श्रोतृणां काकदन्तपरीक्षायामिवाप्रवृत्तिरत्र मा भूदिति । आख्यातमित्यनेन तु नापौरुषेयवचनरूपमिदम्, तस्यासम्भवादित्याह, यत उक्तम् वेयवयणं न माणं अपोरुसेयं ति तम्मयं जेण । इदमच्चंतविरुद्धं वयणं च अपोरुसेयं च ॥ जं वुच्चइ त्ति वयणं पुरिसाभावे उ नेयमेवं ति । ता तस्सेवाभावो नियमेण अपोरुसेयत्ते ॥ [पञ्चव० १२७८-१२७९] इति । अथवा आख्यातं भगवतेदम्, न कुड्यादिनिःसृतम्, यथा कैश्चिदभ्युपगम्यते- 20 तस्मिन् ध्यानसमापन्ने चिन्तारत्नवदास्थिते । निःसरन्ति यथाकामं कुड्यादिभ्योऽपि देशनाः ॥ [तत्त्वसं० ३२४०] १. “स्यादेतत्- नैवासावुपदिशति किञ्चित्, सर्वदा निर्विकल्पसमाधिस्थितत्वात् । किन्तु तदाधिपत्येन विचित्रधर्मदेशनाप्रतिभासा विज्ञप्तयो भव्यानां भवन्ति । यथोक्तम्- यस्यां रात्रौ तथागतोऽभिसम्बुद्धो यस्यां च परिनिर्वृतः अत्रान्तरे तथागतेन एकमप्यक्षरं नोदाहृतं न प्रव्याहृतम्, तत् कस्य हेतो: ? सततसमाहितो हि तथागतः, अपि तु ये अक्षररुतदेशना वैनयिकास्ते तथागतस्य मुखादृष्णीषादर्णायाः शब्द निश्चरन्तं शृण्वन्तीत्यादि। तत्राह- तस्मिन् ध्यानसमापन्न इत्यादि । चिन्तारत्नं चिन्तामणिः ॥३२४०॥.... भवतु नामैवं कल्पना, तथापि कुड्यादिनिर्गतासु देशनासु सर्वज्ञाधिपत्यप्रभवत्वं सन्दिग्धमेवेति न तत्र प्रमाणत्वेन प्रेक्षावतां विश्वासो युक्त इति दर्शयति- कुड्यादिनिःसृतानामित्यादि ॥३२४३॥” इति शान्तरक्षितविरचितस्य तत्त्वसंग्रहस्य कमलशीलविरचितायां पञ्जिकायाम् ॥ 15 . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ इत्यस्यानेनाऽनभ्युपगममाह, यतः कुड्यादिनिःसृतानां तु न स्यादाप्तोपदिष्टता । विश्वासश्च न तासु स्यात् केनेमा: कीर्त्तिता इति ? || [ तत्त्वसं० ३२४३] समस्तपदसमुदायेन त्वात्मौद्धत्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना 5 विधेयेत्याह, एवं हि तेषु भक्तिपरता स्यात्, तया च विद्यादेरपि सफलता स्यादिति, यदुक्तम् भत्तीए जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा । आयरियनमोक्कारेण विज्जा मंता य सिज्झति ॥ [ आव०नि० १११०] त्ति । नमस्कारश्च भक्तिरेवेति । अथवा आउसंतेणं ति भगवद्विशेषणम्, आयुष्मता 10 भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः, अनेन भगवद्बहुमानगर्भेण मङ्गलमभिहितम्, भगवद्बहुमानस्य मङ्गलत्वादिति चोक्तमेव । यद्वा आयुष्मतेति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता न तु मुक्तिमवाप्यापि तीर्थनिकारादिदर्शनात् पुनरिहायातेनाऽभिमानादिभावतोऽप्रशस्तम्, यथोच्यते कैश्चित् 15 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ज्ञानिनो धर्म्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥ [ ] एवं ह्यनुन्मूलितरागादिदोषत्वात् तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात्, निःशेषोन्मूलने हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति ? अथवा आयुष्मता प्राणधारणधर्मवता न तु सदा संशुद्धेन, तस्याऽकरणत्वेनाऽऽख्यातृत्वासम्भवादिति । यदिवा आवसंतेणं ति मयेत्यस्य विशेषणम्, तत आङिति गुरुदर्शितमर्यादया वसता, अनेन तत्त्वतो 20 गुरुमर्यादावर्त्तित्वरूपत्वात् गुरुकुलवासस्य तद्विधानमर्थत उक्तम्, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य, 25 उक्तं च णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ गीयावासो रती धम्मे, अणाययणवज्जणं । निग्गहो य कसायाणं, एवं धीराण सासणं ॥ [विशेषाव० ३४५९ - ३४६० ] ति । अथवा आमुसंतेणं आमृशता, भगवत्पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगलादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसकलशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणादि विनयकृत्यं न मोक्तव्यम्, १. 'वर्त्तिस्वरू' पा० जे२ ॥ २. पञ्चाशक० ११ १६, पञ्चवस्तु० १३५८, उपदेशपद० ६८२ । ३. बृहत्कल्पभा० ५७१३-१४ । निशीथभा० ५४५७, ५४५४ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। उक्तं हि जहाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे, नाणाहुतीमंतपयाहिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठएज्जा, अणंतनाणोवगओऽवि संतो ॥ [दशवै० ९।१।११] त्ति ।। यद्वा आउसंतेणं ति आजुषमाणेन श्रवणविधिमर्यादया गुरून् सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह- विधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशाच्छ्रोतव्यम्, न तु यथाकथञ्चित्, 5 यत आहनिद्दा-विगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्ति-बहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ [आव० नि० ७०७,पञ्चव० १००६] इत्यादि । एवमुक्तः पदार्थः । पदविग्रहस्तु सामासिकपदविषयः, स चाऽऽख्यातमित्यादिषु दर्शित इति । 10 इदानीं चालना-प्रत्यवस्थाने, ते च शब्दतोऽर्थतश्च, तत्र शब्दतः ननु मे इत्यस्य मम मह्यं वेति व्याख्यानमुचितम्, षष्ठी-चतुर्योरेवैकवचनान्तस्यास्मत्पदस्य मे इत्यादेशादिति, अत्रोच्यते, मे इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्ययशब्दस्तृतीयैकवचनान्तास्मच्छब्दार्थे वर्त्तत इति न दोषः । अर्थतस्तु चालना- ननु वस्तु नित्यं वा स्यादनित्यं वा ?, नित्यं चेत्तर्हि नित्यस्याऽप्रच्युता-ऽनुत्पन्न-स्थिरैकस्वरूपत्वाद्यो भगवतः 15 सकाशे श्रोतृत्वस्वभावः स एव कथ शिष्योपदेशकत्वस्वभाव इति ?, किञ्च, शिष्योपदेशकत्वं तस्य पूर्वस्वभावत्यागे स्यादत्यागे वा ?, यदि त्यागे हन्त हतं वस्तुनो नित्यत्वम्, वस्तुनः स्वभावाव्यतिरिक्तत्वेन तत्क्षये तत्क्षतेरिति । अपरित्याग इति चेत्, न, विरुद्धयोः स्वभावयोर्युगपदसम्भवादिति । अथानित्यमिति पक्षः, तदपि न, निरन्वयनाशे हि श्रोतुः श्रवणकाल एव विनष्टत्वात् कथनावसरेऽन्यस्यैवोत्पन्नत्वादकथनप्रसङ्गः, 20 यज्ञदत्तश्रुतस्य देवदत्ताकथनवदिति । अत्र समाधिनयमतेनेति नयद्वारमवतरति, तत्र नैगम-सङ्ग्रह-व्यहारर्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवम्भूता नयाः, तत्र चाद्यास्त्रयो द्रव्यमेवार्थोऽस्तीतिवादितया द्रव्यार्थिकेऽवतरन्ति, इतरे तु पर्याय एवार्थोऽस्तीतिवादितया पर्यायार्थिकनये, तदेवमुभयमताश्रयणे द्रव्यार्थतया नित्यं वस्तु पर्यायार्थतया त्वनित्यमिति नित्यानित्यं वस्त्विति प्रत्येकपक्षोक्तदोषाभावो गुड-नागरादिवदिति, एवमेव च 25 सकलव्यवहारप्रवृत्तिरिति, उक्तं च- सव्वं चिय पइसमयं उप्पज्जइ नासए य निच्चं च । एवं चेव य सुह-दुक्ख-बंध-मोक्खादिसब्भावो ॥ [विशेषाव० ५४४, ३४३५] त्ति । १. तुलना- बृहत्कल्पभा० ८०३ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उक्तः सूत्रस्पर्श कनियुक्त्यनुगमः । तदेवमधिकृतसूत्रमाश्रित्य सूत्रानुगमसूत्रालापकनिक्षेप-सूत्रस्पर्शकनियुक्त्यनुगम-नया उपदर्शिताः, आराधितं च सक्रम भाष्यकारवचनम्, तद्यथासुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओ य निक्खेवो । सुत्तप्फासियजुत्ती नया य समगं तु वच्चंति ॥ [विशेषाव० १००१] त्ति । एतेषां चायं विषय उक्तो भाष्यकारेणहोइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुअं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो नामाइन्नासविनियोगं । सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिनिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो च्चिय नेगमनयाइमयगोयरो होइ ॥ [विशेषाव० १००९-१०१०] त्ति । एवं प्रतिसूत्रं स्वयमनुसरणीयम्, वयं तु संक्षेपार्थं क्वचित् किञ्चिदेव भणिष्याम इति। [सू० २] एगे आया । [टी०] यदाख्यातं भगवता तदधुनोच्यते । तत्र सकलपदार्थानां सम्यग्मिथ्याज्ञानश्रद्धानाऽनुष्ठानै विषयीकरणेनोपयोगनयनादात्मनः सर्वपदार्थप्राधान्यमतस्तद्विचार 15 तावदादावाह- एगे आया। एको न व्यादिरूप आत्मा जीवः, कथञ्चिदिति गम्यते, तत्र अतति सततमवगच्छति अत सातत्यगमने [पा० धा० ३८] इति वचनाद् ‘अत'धातोर्गत्यर्थत्वाद् गत्यर्थानां च ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति निपातनादात्मा जीवः, उपयोगलक्षणत्वादस्य सिद्ध-संसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात्, सततावबोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात्, अजीवस्य च सतः पुनर्जीवत्वाभावात्, भावे 20 चाकाशादीनामपि तथात्वप्रसङ्गात्, एवं च जीवानादित्वाभ्युपगमाभावप्रसङ्गवं च इति। अथवा अतति सततं गच्छति स्वकीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा । नन्वेवमाकाशादीनामप्यात्मशब्दव्यपदेशप्रसङ्गः, तेषामपि स्वपर्यायेषु सततगमनाद्, अन्यथा अपरिणामित्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गादिति, नैवम्, व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वादस्य, उपयोगस्यैव च प्रवृत्तिनिमित्तत्वाद् जीव एव आत्मा, नाकाशादिरिति । यद्वा संसार्यपेक्षया 25 नानागतिषु सततगमनात् मुक्तापेक्षया च भूततद्भावत्वादात्मेति । तस्य चैकत्वं कथञ्चिदेव, तथाहि- द्रव्यार्थतयैकत्वमेकद्रव्यत्वादात्मनः, प्रदेशार्थतया त्वनेकत्वमसङ्ख्येयप्रदेशात्मकत्वात् तस्येति । तत्र द्रव्यं च तदर्थश्चेति द्रव्यार्थः, तस्य भावो द्रव्यार्थता Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । प्रदेश-गुण-पर्यायाधारता, अवयविद्रव्यतेति यावत् । तथा प्रकृष्टो देशः प्रदेशो निरवयवोंऽशः स चासावर्थश्चेति प्रदेशार्थः, तस्य भावः प्रदेशार्थता, गुणपर्यायाधारावयवलक्षणार्थतेति यावत् । नन्ववयविद्रव्यमेव नास्ति, विकल्पद्वयेन तस्यायुज्यमानत्वात्, खरविषाणवत्, तथाहि- अवयविद्रव्यमवयवेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्याद् ?, न तावदभिन्नम्, अभेदे हि अवयविद्रव्यवदवयवानामेकत्वं स्याद्, 5 अवयववद्वाऽवयविद्रव्यस्याप्यनेकत्वं स्यात्, अन्यथा भेद एव स्यात्, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदनिबन्धनत्वादिति । भिन्नं चेत् तत् तेभ्यः, तदा किमवयविद्रव्यं प्रत्येकमवयवेषु सर्वात्मना समवैति देशतो वेति ?, यदि सर्वात्मना तदाऽवयवसङ्ख्यमवयविद्रव्यं स्यात्, कथमेकत्वं तस्य ?, अथ देशैः समवैति ततो यैर्देशैरवयवेषु तद्वर्त्तते तेष्वपि देशेषु तत् कथं वर्त्तते देशतः सर्वतो वेति ?, सर्वतश्चेत्तदेव दूषणम्, देशतश्चेत् तेष्वपि 10 देशेषु कथमित्यादिरनवस्था स्यादिति, अत्रोच्यते, यदुक्तम्- 'विकल्पद्वयेन तस्यायुज्यमानत्वा' दिति तदयुक्तम्, एकान्तेन भेदाभेदयोरनभ्युपगमात्, अवयवा एव हि तथाविधै कपरिणामतया अवयविद्रव्यतया व्यपदिश्यन्ते, त एव च तथाविधविचित्रपरिणामापेक्षया अवयवा इति, अवयविद्रव्याभावे तु एते घटावयवा एते च पटावयवा इत्येवमसङ्कीर्णावयवव्यवस्था न स्यात्, तथा च प्रतिनियतकार्यार्थिना 15 प्रतिनियतवस्तूपादानं न स्यात्, तथा च सर्वमसमञ्जसमापनीपद्येत। सन्निवेशविशेषाद् घटाद्यवयवानां प्रतिनियतता भविष्यतीति चेत्, सत्यम्, केवलं स एव सन्निवेशविशेषोऽवयविद्रव्यमिति । यच्चोच्यते विरुद्धधर्माध्यासो भेदनिबन्धनमिति, तदपि न सूक्तम्, प्रत्यक्षसंवेदनस्य परमार्थापेक्षया भ्रान्तत्वेन संव्यवहारापेक्षया त्वभ्रान्तत्वेनाभ्युपगमादिति, यदि नाम भ्रान्तमभ्रान्तं कथमित्येवमत्रापि वक्तुं शक्यत्वादिति । 20 किञ्च, विद्यते अवयविद्रव्यम्, अव्यभिचारितया तथैव प्रतिभासमानत्वाद्, अवयववनीलवद्वा । न चायमसिद्धो हेतुः, तथाप्रतिभासस्यानुभूयमानत्वात्, नाप्यनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वे, सर्ववस्तुव्यवस्थायाः प्रतिभासाधीनत्वाद्, अन्यथा न किञ्चनापि वस्तु सिध्येदिति । - भवतु नामावयविद्रव्यम्, केवलमात्मा न विद्यते, तस्य प्रत्यक्षादिभिरनुपलभ्य- 25 मानत्वादिति, तथाहि- न प्रत्यक्षग्राह्योऽसावतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमानग्राह्यः, अनुमानस्य लिङ्ग-लिङ्गिनोः साक्षात्सम्बन्धदर्शनेन प्रवृत्ते रिति, आगमगम्योऽपि नासौ, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आगमानामन्योन्यं विसंवादादिति । अत्रोच्यते, केयमनुलपभ्यमानता?, किमेकपुरुषाश्रिता सकलपुरुषाश्रिता वा ?, योकपुरुषाश्रिता, न तयाऽऽत्माभावः सिध्यति, सत्यपि वस्तुनि तस्याः सम्भवात्, न हि कस्यचित् पुरुषविशेषस्य घटाद्यर्थग्राहकं प्रमाणं न प्रवृत्तमिति सर्वत्र सर्वदा तदभावो निर्णेतुं शक्य इति, न हि प्रमाणनिवृत्तौ प्रमेयं 5 विनिवर्त्तते, प्रमेयकार्यत्वात् प्रमाणस्य, न च कार्याभावे कारणाभावो दृष्ट इत्यनैकान्तिकताऽनुपलम्भहेतोः । सकलपुरुषाश्रितानुपलम्भस्त्वसिद्ध इत्यसिद्धो हेतुः, न सर्वज्ञेन सर्वे पुरुषाः सर्वदा सर्वत्रात्मानं न पश्यन्तीति वक्तुं शक्यमिति । किञ्च, विद्यते आत्मा, प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात्, घटवदिति, न चायमसिद्धो हेतुः, यतोऽ10 स्मदादिप्रत्यक्षेणाप्यात्मा तावद् गम्यत एव, आत्मा हि ज्ञानादनन्यः, आत्मधर्मत्वात् ज्ञानस्य, तस्य च स्वसंविदितरूपत्वात्, स्वसंविदितत्वं च ज्ञानस्य नीलज्ञानमुत्पन्नमासीदित्यादिस्मृतिदर्शनात्, न ह्यस्वसंविदिते ज्ञाने स्मृतिप्रभवो युज्यते, प्रमात्रन्तरज्ञानस्यापि स्मृतिगोचरत्वप्रसङ्गादिति, तदेवं तदव्यतिरिक्तज्ञानगुणप्रत्यक्षत्वे आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, रूपगुणप्रत्यक्षत्वे घटगुणिप्रत्यक्षत्ववदिति, उक्तं च15 गुणपच्चक्खत्तणओ गुणी वि जीवो घडो व्व पच्चक्खो। घडओ वि घेप्पति गुणी गुणमेत्तग्गहणओ जम्हा ॥ [विशेषाव० १५५८] तथाअन्नोऽणन्नो व्व गुणी होज्ज गुणेहिं जइ णाम सोऽणन्नो । णणु गुणमेत्तग्गहणे घेप्पइ जीवो गुणी सक्खं ॥ 20 अह अन्नो तो एवं गुणिणो न घडादयो वि पच्चक्खा । गुणमेत्तग्गहणाओ जीवम्मि कुतो वियारोऽयं ? ॥ [विशेषाव० १५५९-१५६०] ति । ये तु सकलपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावनसमर्थज्ञानवन्तस्तेषां सर्वात्मनैव प्रत्यक्ष इति। तथाऽनुमानगम्योऽप्यात्मा, तथाहि- विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम्, भोग्यत्वात्, ओदनादिवत्, व्योमकुसुमं विपक्षः, स च कर्ता जीव इति । नन्वोदनकर्तृवन्मूर्त आत्मा 25 सिध्यतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति, नैवम्, संसारिणो मूर्तत्वेनाप्यभ्युपगमाद्, आह च जो कत्तादि स जीवो सज्झविरुद्धो त्ति ते मई हुज्जा । मुत्ताइपसंगाओ तं नो संसारिणो दोसो ॥ [विशेषाव० १५७०] त्ति । १. घडओ व्व जे१ ।। २. व इति विशेषावश्यकभाष्ये पाठः ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। न चायमेकान्तो यदुत लिङ्ग्यविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्यैव एकान्ततोऽप्रवृत्तिरिति, हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्यलिङ्गयविनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्, न च देह एव ग्रहो येनान्यदेहे दर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भवतीति, उक्तं च सोऽणेगंतो जम्हा लिंगेहि समं अदिट्ठपव्वो वि । गहलिंगदरिसणातो गहोऽणुमेयो सरीरम्मि ॥ [विशेषाव० १५६६] इति । आगमगम्यत्वं त्वात्मनः ‘एगे आया' इत एव वचनात् । न चास्यागमान्तरैर्विसंवादः संभावनीयः, सुनिश्चिताप्तप्रणीतत्वादस्येति, बहु वक्तव्यमत्र, तच्च स्थानान्तरादवसेयमिति। किञ्च, आत्माभावे जातिस्मरणादयस्तथा प्रेतीभूतपितृ-पितामहादिकृतानुग्रहोपघातौ च न प्राप्नुयुरिति । 10 __ आत्मनस्तु सप्रदेशत्वमवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, निरवयवत्वे तु हस्ताद्यवयवानामेकत्वप्रसङ्गः प्रत्यवयवं स्पर्शाद्यनुपलब्धिप्रसङ्गश्चेति सप्रदेश आत्मा, प्रत्यवयवं चैतन्यलक्षणतद्गुणोपलम्भात्, प्रतिग्रीवाद्यवयवमुपलभ्यमानरूपगुणघटवदिति स्थापितमेतत् ‘द्रव्यार्थतया एक आत्मा' इति । __अथवा एक आत्मा कथञ्चिदिति, प्रतिक्षणं सम्भवदपरापरकालकृतकुमार-तरुण- 15 नर-नारकत्वादिपर्यायैरुत्पाद-विनाशयोगेऽपि द्रव्यार्थतयैकत्वादस्य, यद्यपि हि कालकृतपर्यायैरुत्पद्यते नश्यति च वस्तु तथापि स्व-परपर्यायरूपानन्तधर्मात्मकत्वात् तस्य न सर्वथा नाशो युक्त इति, आह च न हि सव्वहा विणासो अद्धापज्जायमेत्तनासम्मि । स-परपज्जायाणंतधम्मुणो वत्थुणो जुत्तो ॥ [विशेषाव० २३९३] त्ति । किञ्च, प्रतिक्षणं क्षयिणो भावा: [ ] इत्येतस्माद् वचनात् प्रतिपाद्यस्य यत् क्षणभङ्गविज्ञानमुपजायते तदसङ्ख्यातसमयैरेव वाक्यार्थग्रहणपरिणामाज्जायते, न तु प्रतिपत्तुः प्रतिसमयं विनाशे सति, यत एकैकमप्यक्षरं पदसत्कं सङ्ख्यातीतसमयसम्भूतम्, सङ्ख्यातानि चाक्षराणि पदम्, सङ्ख्यातपदं च वाक्यम्, तदर्थग्रहणपरिणामाच्च ‘सर्वं १. इति वचनात् जे१ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्षणभङ्गुरम्' इति विज्ञानं भवेत्, तच्चायुक्तं समयनष्टस्येति, आह च कह वा सव्वं खणियं विनायं ?, जइ मई सुयाओ त्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थगहणपरिणामओ जुत्तं ॥ न उ पइसमयविणासे जेणेक्केक्कक्खरं पि य पयस्स । 5 संखाईयसमइयं संखेज्जाइं पयं ताई ।। संखेज्जपयं वक्कं तदत्थगहणपरिणामओ होज्जा । सव्वखणभंगनाणं तदजुत्तं समयनट्ठस्स ॥ [विशेषाव० २४०१-२४०३] इति । तथा सर्वथोच्छेदे तृप्त्यादयो न घटन्ते, पूर्वसंस्कारानुवृत्तावेव तेषां युज्यमानत्वाद्, आह चतित्ती समो किलामो सारिक्ख-विवक्ख-पच्चयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सव्वनासम्मि ? ॥ [विशेषाव० २४०४] त्ति । तत्र तृप्तिः ध्राणिः, श्रमः अध्वादिखेदः, क्लमो ग्लानिः, सादृश्यं साधर्म्यम्, । विपक्षो वैधर्म्यम्, प्रत्यय: अवबोधः, शेषपदानि प्रतीतानि, इत्यादि बहु वक्तव्यं तत्तु स्थानान्तरादवसेयमिति । तदेवमात्मा स्थिति-भवन-भङ्गरूपः स्थिररूपापेक्षया नित्यो 15 नित्यत्वाच्चैकः, भवन-भङ्गरूपापेक्षया त्वनित्यः अनित्यत्वाच्चानेक इति, आह च जमणंतपज्जयमयं वत्थु भुवणं व चित्तपरिणाम । ठिइ-विभव-भंगरूवं णिच्चाणिच्चाइ तोऽभिमयं ॥ [विशेषाव० २४१६] ति । एवं च- सुह-दुक्ख-बंध-मोक्खा उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता । ____ एगयरपरिच्चाए सव्वव्ववहारवुच्छित्ति ॥ [विशेषाव० २४१७] त्ति । 20 अथवा एक आत्मा कथञ्चिदेवेति, यतो जैनानां न हि सर्वथा किञ्चिद्वस्तु एकमनेक वाऽस्ति, सामान्य-विशेषरूपत्वाद्वस्तुनः । अथ ब्रूयात्- विशेषरूपमेव वस्तु, सामान्यस्य विशेषेभ्यो भेदाभेदाभ्यां चिन्त्यमानस्यायोगात्, तथाहि- सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ? न भिन्नमुपलम्भाभावाद्, न चानुपलभ्यमानमपि सत्तया व्यवहर्तुं शक्यम्, खरविषाणस्यापि तथाप्रसङ्गात् । अथाभिन्नमिति पक्षः, तथा च सामान्यमानं वा 25 स्याद्विशेषमानं वेति, न ह्येकस्मिन् सामान्यमेकं विशेषास्त्वनेकरूपा इत्यसङ्कीर्ण वस्तुव्यवस्था स्यादिति, अत्रोच्यते, न ह्यस्माभिः सामान्य-विशेषयोरेकान्तेन भेदोऽभेदो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० ३-४] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । वाऽभ्युपगम्यते, अपि तु विशेषा एव प्रधानीकृतातुल्यरूपा उपसर्जनीकृततुल्यरूपा विषमतया प्रज्ञायमाना विशेषा व्यपदिश्यन्ते, त एव च विशेषा उपसर्जनीकृतातुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रज्ञायमानाः सामान्यमिति व्यपदिश्यन्त इति, आह च निर्विशेषं गृहीताश्च भेदा: सामान्यमुच्यते । ततो विशेषात् सामान्यविशिष्टत्वं न युज्यते ॥ वैषम्यसमभावेन ज्ञायमाना इमे किल । प्रकल्पयन्ति सामान्यविशेषस्थितिमात्मनि ॥ [ ] इति । तदेवं सामान्यरूपेणात्मा एको विशेषरूपेण त्वनेकः, न चात्मनां तुल्यं रूपं नास्ति, एकात्मव्यतिरेकेण शेषात्मनामनात्मत्वप्रसङ्गादिति, तुल्यं च रूपमुपयोगः, उपयोगलक्षणो जीव: [ ] इति वचनात्, तदेवमुपयोगरूपैकलक्षणत्वात् सर्वे एवात्मान एकरूपाः, 10 एवं चैकलक्षणत्वादेक आत्मेति । अथवा जन्म-मरण-सुख-दुःखादिसंवेदनेष्वसहायत्वादेक आत्मेति भावनीयमिति । इह च सर्वसूत्रेषु कथञ्चिदित्यनुस्मरणीयम्, कथञ्चिद्वादस्याविरोधेन सर्ववस्तुव्यवस्थानिबन्धनत्वात्, उक्तं चस्याद्वादाय नमस्तस्मै यं विना सकला: क्रियाः । लोकद्वितयभाविन्यो नैव साङ्गत्यमियति ॥ [ ] तथानयास्तव स्यात्पदसत्त्वलाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ [बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रे ] इति। [सू० ३] एगे दंडे । [सू० ४] एगा किरिया । [टी०] आत्मन एकत्वमुक्तन्यायतोऽभ्युपगच्छद्भिरपि कैश्चिनिष्क्रियत्वं तस्याभ्युपगतमतस्तन्निराकरणाय तस्य क्रियावत्त्वमभिधित्सुः क्रियायाः करणभूतं दण्डस्वरूपं प्रथमं 20 तावदभिधातुमाह- एगे दंडे, एकोऽविवक्षितविशेषत्वात् दण्ड्यते ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः, स च द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो यष्टिर्भावतो दुष्प्रयुक्तं मनःप्रभृति । तेन चात्मा क्रियां करोतीति तामाह- एगा किरिया, एका अविवक्षितविशेषतया करणमात्रविवक्षणात् करणं क्रिया कायिक्यादिकेति । अथवा एगे दंडे एगा किरिय त्ति सूत्रद्वयेनात्मनोऽक्रियत्वनिरासेन सक्रियत्वमाह, यतो दण्ड- 25 . तुलना- तत्त्वार्थ० २।८ ॥ २. कारण जे२ ॥ ३. तश्चेति द्रव्यतो जे१ ॥ 15 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्रियाशब्दाभ्यां त्रयोदश क्रियास्थानानि प्रतिपादितानि, तत्रार्थदण्डा-ऽनर्थदण्डहिंसादण्डा-ऽकस्माद्दण्ड-दृष्टिविपर्यासदण्डरूपः पञ्चविधो दण्डः परप्राणापहरणलक्षणो दण्डशब्देन गृहीतः, तस्य चैकत्वं वधसामान्यादिति, क्रियाशब्देन तु मृषाप्रत्यया १, अदत्तादानप्रत्यया २, आध्यात्मिकी ३, मानप्रत्यया ४, मित्रद्वेषप्रत्यया ५, मायाप्रत्यया ६, 5 लोभप्रत्यया ७, ऐर्यापथिकी ८, अष्टविधा क्रियोक्ता, तदेकत्वं च करणमात्रसामान्यादिति। दण्ड-क्रिययोश्च स्वरूपविशेषमुपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्याम इति । अक्रियावत्त्वनिरासश्चात्मन एवम्- यैः किलाक्रियावत्त्वमभ्युपगतमात्मनस्तैर्भोक्तृत्वमप्यभ्युपगतमतो भुजिक्रियानिर्वर्तनसामर्थ्य सति भोक्तृत्वमुपपद्यते, तदेव च क्रियावत्त्वं नामेति । अथ 10 प्रकृतिः करोति पुरुषस्तु भुङ्क्ते प्रतिबिम्बन्यायेनेति, तदयुक्तम्, कथञ्चित् सक्रियत्वमन्तरेण प्रकृत्युपधानयोगेऽपि प्रतिबिम्बभावानुपपत्तेः, रूपान्तरपरिणमनरूपत्वात् प्रतिबिम्बस्य। अथ प्रकृतिविकाररूपाया बुद्धेरेव सुखाद्यर्थप्रतिबिम्बनं नात्मनः, तर्हि नास्य भोगः, तदवस्थत्वात्तस्येति, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु स्थानान्तरादवसेयमिति । [सू० ५] एगे लोए । एगे अलोए । 15 [टी०] उक्तरूपस्यात्मन आधारस्वरूपनिरूपणायाह- एगे लोए त्ति, एकोऽविवक्षितासङ्ख्यप्रदेशाधस्तिर्यगादिदिग्भेदतया लोक्यते दृश्यते केवलालोकेनेति लोकः धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, तदुक्तम्धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ [ ] इति । अथवा लोको नामादिरष्टधा, आह चनामं ठवणा दविए खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोए य तहा अट्ठविहो लोयनिक्खेवो ॥ [आवश्यकनि० १०७०] त्ति । नाम-स्थापने सुज्ञाने, द्रव्यलोको जीवाजीवद्रव्यरूपः, क्षेत्रलोक आकाशमात्रमनन्तप्रदेशात्मकम्, काललोकः समयावलिकादिः, भवलोको नारकादयः स्वस्मिन् 25 स्वस्मिन् भवे वर्तमाना यथा मनुष्यलोको देवलोक इति, भावलोकः षडौदयिकादयो भावाः, पर्यवलोकस्तु द्रव्याणां पर्यायमात्ररूप इति, एतेषां चैकत्वं केवलज्ञानालोकनीय१. 'बिंबस्येति । अथ जे१ ।। 20 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६] त्वसामान्यादिति लोकव्यवस्था ह्यलोके तद्विपक्षभूते सति भवतीति तमाह - एगे अलोए, एकोऽनन्तप्रदेशात्मकत्वेऽप्यविवक्षितभेदत्वादलोको लोकव्युदासात्, न त्वलोकनीयतया, केवलालोकेन तस्याप्यालोक्यमानत्वादिति । ननु लोकैकदेशस्य प्रत्यक्षत्वात् तद्देशान्तरमपि बाधकप्रमाणाभावात् सम्भावयामः, योऽयं पुनरलोकोऽस्य 5 देशतोऽ `ऽप्यप्रत्यक्षत्वात् कथमसावस्तीत्यवसातुं शक्यो येनैकत्वेन प्ररूप्यत इति ? उच्यते, अनुमानादिति, तच्चैको विद्यमानविपक्षो लोकः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वाद्, इह यंद् व्युत्पत्तिमता शुद्धशब्देनाभिधीयते तस्य विपक्षोऽस्तीति द्रष्टव्यम्, यथा घटस्याऽघटः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदवाच्यश्च लोकस्तस्मात् सविपक्ष इति, यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकस्तस्मादस्त्यलोक इति । अथ न लोकोऽलोक इति घटादीनामेवान्यतमो 10 भविष्यति, किमिह वस्त्वन्तरकल्पनयेति ?, नैवम्, यतो निषेधसद्भावान्निषेध्यस्यैवानुरूपेण भवितव्यम्, निषेध्यश्च लोकः, स चाकाशविशेषो जीवादिद्रव्यभाजनमतः खल्वलोकेनाऽप्याकाशविशेषेणैव भवितव्यम्, यथेहापण्डित इत्युक्ते विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एव गम्यते, न घटादिरचेतनः, तद्वदलोकेनापि लोकानुरूपेणेति, आह च लोगस्सऽत्थि विक्खो सुद्धत्तणओ घडस्स अघडो व्व । प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । २३ - प्रेरकः- स घडादी चेव मती, गुरुः- न निसेहाओ तदणुरूवो || [विशेषाव० १८५१] त्ति । [सू० ६ ] एगे धम्मे । एगे अम् । [टी०] लोकालोकयोश्च विभागकारणं धर्मास्तिकायोऽतस्तत्स्वरूपमाह - एगे धम्मे, एकः प्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वेऽपि द्रव्यार्थतया तस्यैकत्वात्, जीव- पुद्गलानां स्वाभाविके क्रियावत्त्वे सति गतिपरिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्म्मः, स चास्तीनां 20 प्रदेशानां सङ्घातात्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति । 15 धर्मस्यापि विपक्षस्वरूपमाह - एगे अधम्मे, एको द्रव्यत एव, न धम्र्मोऽधर्म्मः अधर्म्मास्तिकाय इत्यर्थः, धर्मो हि जीव- पुद्गलानां गत्युपष्टम्भकारी, अयं तु तद्विपरीतत्वात् स्थित्युपष्टम्भकारीति । ननु धर्मास्तिकाया-ऽधर्मास्तिकाययोः कथमस्तित्वावगमः ?, प्रमाणादिति ब्रूमः, तच्चेदम् - इह गतिः स्थितिश्च सकललोकप्रसिद्धं 25 ९. यद्यद्र्यु जे१ ॥ २. भवितव्यमिति सम्बन्धः ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे १ कार्यम्, कार्यं च परिणाम्यपेक्षाकारणायत्तात्मलाभं वर्त्तते, घटादिकार्येषु तथादर्शनात्, तथा च मृत्पिण्डभावेऽपि दिग्- देश - काला -ऽऽकाश-प्रकाशाद्यपेक्षाकारणमन्तरेण न घटो भवति, यदि स्यात् मृत्पिण्डमात्रादेव स्यात्, न च भवति, गति - स्थिती अपि जीव-पुद्गलाख्यपरिणामिकारणभावेऽपि नापेक्षाकारणमन्तरेण भवितुमर्हतः, दृश्यते च 5 तद्भावोऽतस्तत्सत्ता गम्यते, यच्चापेक्षाकारणं स धर्मोऽधर्मश्चेति भावार्थः । गतिपरिणामपरिणतानां जीव - पुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः, मत्स्यानामिव जलम्। तथा स्थितिपरिणामपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भकोऽधर्म्मास्तिकायः, मत्स्यादीनामिव मेदिनी, विवक्षया जलं वा । प्रयोगश्च - गति - स्थिती अपेक्षाकारणवत्यौ, कार्यत्वात्, घटवत्, विपक्षस्त्रैलोक्यशुषिरमभावो वेति । किञ्च, अलोकाभ्युपगमे सति धर्म्माऽ10 धर्म्माभ्यां लोकपरिमाणकारिभ्यामवश्यं भवितव्यम्, अन्यथाऽऽकाशसाम्ये सति लोकोऽलोको वेति विशेषो न स्यात्, तथा चाविशिष्ट एवाकाशे गतिमतामात्मनां पुद्गलानां च प्रतिघाताभावादनवस्थानम्, अतः सम्बन्धाभावात् सुख-दुःखबन्धादिसंव्यवहारो न स्यादिति, उक्तं च २४ तम्हा धम्माधम्मा लोगपरिच्छेयकारिणो जुत्ता । seissगासे तु लोगोऽलोगो त्ति को भेओ ? || लोगविभागाभावे पडिघाताभावओऽणवत्थाओ । संववहाराभावो संबंधाभावओ होज्जा ॥ [विशेषाव० १८५२ - १८५३] इति [सू० ७] एगे बंधे । एगे मोक्खे | [टी०] आत्मा च लोकवृत्तिर्धर्म्मा-ऽधर्म्मास्तिकायोपगृहीतः सदण्डः सक्रियश्च कर्मणा बध्यत इति बन्धनिरूपणायाह - एगे बंधे, बन्धनं बन्धः, सकषायत्वात् जीवः कर्मणो 20 योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते यत् स बन्ध इति भावः, स च प्रकृति-स्थिति-प्रदेशाऽनुभावभेदात् चतुर्विधोऽपि बन्धसामान्यादेकः, मुक्तस्य सतः पुनर्बन्धाभावाद्वा एको बन्ध इति । अथवा द्रव्यतो बन्धो निगडादिभिर्भावतः कर्म्मणा, तयोश्च बन्धनसामान्यादेको बन्ध इति । 15 ननु बन्धो जीव-कर्म्मणोः संयोगोऽभिप्रेतः, स खल्वादिमानादिरहितो वा स्यादिति 25 कल्पनाद्वयम्, तत्र यद्यादिमानिति पक्षस्तदा किं पूर्वमात्मा पश्चात् कर्म्म, अथ पूर्वं कर्म्म १. तथा मृत्पिंड जे१ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू०७] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । पश्चादात्मा, उत युगपत् कर्मा-ऽऽत्मानौ संप्रसूयेतामिति त्रयो विकल्पाः । तत्र न तावत् पूर्वमात्मसंभूतिः सम्भाव्यते, निर्हेतुकत्वात्, खरविषाणवत्, अकारणप्रसूतस्य च अकारणत एवोपरमः स्याद् । अथानादिरेव आत्मा, तथाप्यकारणत्वान्नास्य कर्मणा योग उपपद्यते नभोवत्, अथाकारणोऽपि कर्मणा योगः स्यात् तर्हि स मुक्तस्यापि स्यादिति। अथासावात्मा नित्यमुक्त एव तर्हि किं मोक्षजिज्ञासया ?, बन्धाभावे च मुक्तव्यपदेशाभाव 5 एव, आकाशवदिति । नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिरिति द्वितीयो विकल्पः सङ्गच्छते, कर्तुरभावात्, न चाक्रियमाणस्य कर्मव्यपदेशोऽभिमतः, अकारणप्रसूतेश्चाकारणत एवोपरमः स्यादिति । युगपदुत्पत्तिलक्षणस्तृतीयपक्षोऽपि न क्षमः, अकारणत्वादेव, न च युगपदुत्पत्तौ सत्यामयं कर्ता कर्मेदमिति व्यपदेशो युक्तरूपः, सव्येतरगोविषाणवदिति। अथादिरहितो जीवकर्मयोग इति पक्षः, ततश्चाऽनादित्वादेव नात्म-कर्मवियोगः स्यात्, 10 आत्मा-ऽऽकाशसंयोगवदिति । अत्रोच्यते, आदिमत्संयोगपक्षदोषा अनभ्युपगमादेव निरस्ताः, यच्चादिरहितजीव-कर्मयोगेऽभिधीयते 'अनादित्वान्नात्म-कर्मवियोगः' इति, तदयुक्तम्, अनादित्वेऽपि संयोगस्य वियोगोपलब्धेः, काञ्चनोपलयोरिवेति, यदाह जह वेह कंचणोवलसंजोगोऽणाइसंतइगओ वि । वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीवकम्माणं ॥ [विशेषाव० १८१९] ति । तथा अनादेरपि सन्तानस्य विनाशो दृष्टो बीजाङ्कुरसन्तानवत्, आह चअन्नतरमणिव्वत्तियकज्जं बीयंकुराण जं विहयं । तत्थ हओ संताणो कुक्कुडियंडाइयाणं च ॥ [विशेषाव० १८१८] त्ति । अनादिबन्धसद्भावेऽपि भव्यात्मनः कस्यचिन्मोक्षो भवतीति मोक्षस्वरूपमाह- एगे मोक्खे, मोचनं कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः, आह च- कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः [तत्त्वार्थ० 20 १०।३], स चैको ज्ञानावरणादिकर्मापेक्षयाऽष्टविधोऽपि मोचनसामान्यात् मुक्तस्य वा पुनर्मोक्षाभावात् ईषत्प्राग्भाराख्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रव्यार्थतयैकः । अथवा द्रव्यतो मोक्षो निगडादितो भावतः कर्मतस्तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति । नन्वपर्यवसानो जीव-कर्मसंयोगोऽनादित्वाज्जीवा-ऽऽकाशसंयोगवदिति कथं मोक्षसम्भवः, कर्मवियोगरूपत्वादस्य ?, अत्रोच्यते, अनादित्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, धातु-काञ्चन- 25 संयोगो ह्यनादिः, स च सपर्यवसानो दृष्टः, क्रियाविशेषाद्, एवमयमपि जीव-कर्मयोगः . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ २६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः सपर्यवसानो भविष्यति, जीव-कर्मवियोगश्च मोक्ष उच्यते इति । ननु नारकादिपर्यायस्वभावः संसारो नान्यः, तेभ्यश्च नारकत्वादिपर्यायेभ्यो भिन्नो नाम न कश्चिज्जीवः, नारकादय एव पर्याया जीवः, तदनन्तरत्वादिति संसाराभावे जीवाभाव 5 एव नारकादिपर्यायस्वरूपवदित्यसत्पदार्थो मोक्ष इति, आह च जं नारगादिभावो संसारो नारगाइभिन्नो य । को जीवो तं मनसि ? तन्नासे जीवनासो त्ति ॥ [विशेषाव० १९७८] अत्र प्रतिविधीयते - यदुक्तं 'नारकादिपर्यायसंसाराभावे सर्वथा जीवाभाव एवानर्थान्तरत्वान्नारकादिपर्यायस्वरूपवत्' इति, अयमनैकान्तिको हेतुः, हेम्नो 10 मुद्रिकायाश्चानान्तरत्वं सिद्धम्, न च मुद्रिकाकारविनाशे हेमविनाश इति, तद्वन्नारकादिपर्यायमात्रनाशे सर्वथा जीवनाशो न भविष्यतीति, आह च न हि नारगादिपज्जायमेत्तनासम्मि सव्वहा नासो । जीवद्दव्वस्स मओ मुद्दानासे ब्व हेमस्स ॥ [विशेषाव० १९७९] त्ति । अपि चकम्मकओ संसारो तन्नासे तस्स जुज्जए नासो । जीवत्तमकम्मकयं तन्नासे तस्स को नासो ? ॥ [विशेषाव० १९८०] त्ति । [सू० ८] एगे पुण्णे । एगे पावे । [टी०] मोक्षश्च पुण्य-पापक्षांद्भवतीति पुण्य-पापयोः स्वरूपं वाच्यम्, तत्रापि मोक्षस्य पुण्यस्य च शुभस्वरूपसाधर्म्यात् पुण्यं तावदाह- एगे पुण्णे, पुण शुभे [पा० 20 धा० १४२०] इति वचनात् पुणति शुभीकरोति पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यं शुभकर्म सद्वेद्यादि द्विचत्वारिंशद्विधम्, यथोक्तम् सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिदेवाउ ५ नाम एयाउ । मणुयदुर्ग ७ देवदुगं ९ पंचेंदियजाति १० तणुपणगं १५ ॥ अंगोवंगतियं पि य १८ संघयणं वज्जरिसहनारायं १९ । 25 पढम चिय संठाणं २० वन्नाइचउक्क सुपसत्थं २४ ॥ अगुरुलहु २५ पराघायं २६ उस्सासं २७ आयवं च २८ उज्जोयं २९ । १. भविष्यतीति जे१ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । सुपसत्था विहयगई ३० तसाइदसगं च ४० णिम्माणं ४१ ॥ तित्थयरेणं सहिया बायाला पुण्णपगईओ ।। [ ] त्ति । एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि अथवा पुण्यानुबन्धि-पापानुबन्धिभेदेन द्विविधमपि अथवा प्रतिप्राणि विचित्रत्वादनन्तभेदमपि पुण्यसामान्यादेकमिति ।। अथ कर्मैव न विद्यते प्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् शशविषाणवदिति कुतः 5 पुण्यकर्म सत्तेति ?, असत्यमे तत्, यतोऽनुमानसिद्धं कर्म, तथाहिसुखदुःखानुभूतेर्हेतुरस्ति कार्यत्वादङ्कुरस्येव बीजम्, यश्च हेतुरस्यास्तत् कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति, स्यान्मति:- सुख-दुःखानुभूतेदृष्ट एव हेतुरिष्टा-ऽनिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति, किमिह कर्मपरिकल्पनया?, न हि दृष्टं निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्तरूपमिति, नैवम्, व्यभिचारात्, इह यो हि द्वयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले 10 विशेषो दुःखानुभूतिमयो यश्चानिष्टसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषः सुखानुभूतिमयो नासौ हेतुमन्तरेण सम्भाव्यते, न च तद्धेतुक एवासौ युक्तः, साधनानां विपर्यासादिति पारिशेष्याद्विशिष्टहेतुमानसौ, कार्यत्वात्, घटवत्, यश्च समानसाधनसमेतयोस्तत्फलविशेषहेतुस्तत् कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति, आह च जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हेउं । कज्जत्तणओ गोयम ! घडो व्व हेऊ य से कम्मं ॥ [विशेषाव० १६१३] ति । किञ्च, अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरम्, इन्द्रियादिमत्त्वात्, यदिहेन्द्रियादिमत् तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टम्, यथा बालदेहपूर्वकं युवशरीरम्, इन्द्रियादिमच्चेदं बालशरीरकं तस्मादन्यशरीरपूर्वकम्, यच्छरीरपूर्वकं चेदं बालशरीरं तत् कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति । आह च 20 बालसरीरं देहतरपुव्वं इंदियाइमत्ताओ। जह बालदेहपुव्वो जुवदेहो पुव्वमिह कम्मं ॥ [विशेषाव० १६१४] ति । ननु कर्मसद्भावेऽपि पापमेवैकं विद्यते पदार्थो न पुण्यं नामास्ति, यत्तु पुण्यफलं सुखमुच्यते तत् पापस्यैव तरतमयोगादपकृष्टस्य फलम्, यतः पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलता, तस्यैव च तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रापरिवृद्धिहान्या यावत् 25 १. बालकश पा० जे२ ॥ 15 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रकृष्टोऽपकर्षस्तत्र या काचित् पापमात्रा अवतिष्ठते तस्यामत्यन्तं शुभफलता पापापकर्षात्, तस्यैव च पापस्य सर्वात्मना क्षयो मोक्षः, यथाऽत्यन्तापथ्याहारसेवनादनारोग्यम्, तस्यैवापथ्यस्य किञ्चित् किञ्चिदपकर्षात् यावत् स्तोकापथ्याहारत्वमारोग्यकरम्, सर्वाहारपरित्यागाच्च प्राणमोक्ष इति, आह च5 पावुक्करिसेऽधमया तरतमजोगाऽवकरिसओ सुभया । तस्सेव खए मोक्खो अपत्थभत्तोवमाणाओ ॥ विशेषाव० १९१०] त्ति । अत्रोच्यते, यदुक्तम्- ‘अत्यन्तापचितात् पापात् सुखप्रकर्षः' इति, तदयुक्तम्, यतो येयं सुखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनिता, प्रकर्षानुभूतित्वात्, दुःखप्रकर्षानुभूतिवत्, यथा हि दुःखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते 10 तथेयमपि सुखप्रकर्षानुभूतिः प्रकर्षानुभूतिरिति स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति । _ पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापमिति तत्स्वरूपमाह- एगे पावे, पांसयति गुण्डयत्यात्मानं पोयति चात्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम्, तच्च ज्ञानावरणादि व्यशीतिभेदम, यथाऽऽह15 नाणंतरायदसगं १० सण णव १९ मोहणीय छव्वीसं ४५ । अस्सायं ४६ निरयाउं ४७ नीयागोएण अडयाला ४८ ॥ निरयदुगं २ तिरियदुगं ४ जाइचउक्कं च ८ पंच संघयणा १३ । संठाणा वि य पंच उ १८ वन्नाइचउक्कमपसत्थं २२ ॥ उवघाय २३ कुविहयगई २४ थावरदसगेण होंति चोत्तीसं ३४ । 20 सव्वाओ मिलिआओ बासीती पावपगईओ ८२ ॥ [ ] तदेवं व्यशीतिभेदमपि पुण्यानुबन्धि-पापानुबन्धिभेदाद् द्विविधमपि वा अनन्तसत्त्वाश्रितत्वादनन्तमपि वाऽशुभसामान्यादेकमिति । ननु कर्मसत्त्वेऽपि पुण्यमेवैकं कर्म, न तत्प्रतिपक्षभूतं पापं कर्मास्ति, शुभाशुभफलानां पुण्यादेव सिद्धेरिति, तथाहि- यत् परमप्रकृष्टं शुभफलमेतत् पुण्योत्कर्षस्य कार्यम्, यत् 25 पुनस्तस्मादवकृष्टमवकृष्टतरमवकृष्टतमं च तत् पुण्यस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य यावत् परमप्रकर्षहानिः, परमापकर्षहीनस्य च पुण्यस्य परमावकृष्टतमं शुभफलम्- या काचित् १. जनिता त्वया जे१ ॥ २. "पै ओवै शोषणे''- पा० धा० ९२०-९२१ ॥ ३. परमाप्रकर्ष खं० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। शुभमात्रेत्यर्थः- दुःखप्रकर्ष इति तात्पर्यम्, तस्यैव च परमावकृष्टपुण्यस्य सर्वात्मना क्षये पुण्यात्मकबन्धाभावान्मोक्ष इति, यथा अत्यन्तपथ्याहारसेवनात् पुंसः परमारोग्यसुखम्, तस्यैव च किञ्चित् किञ्चित् पथ्याहारविवर्जनादपथ्याहारपरिवृद्धेरारोग्यसुखहानिः, सर्वथैवाहारपरिवर्जनात् प्राणमोक्ष इति, पथ्याहारोपमानं चेह पुण्यमिति, अत्रोच्यते, येयं दुःखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षप्रभवा, प्रकर्षानुभूतित्वात्, सौख्यप्रकर्षानुभूति- 5 वत्, यथा हि सौख्यप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि दुःखप्रकर्षानुभूतिः प्रकर्षानुभूतिरिति स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति, आह चकम्मप्पगरिसजणियं तदवस्सं पगरिसाणुभूइओ । सोक्खप्पगरिसभूई जह पुण्णप्पगरिसप्पभवा ॥ [विशेषाव० १९३१] इति । 10 तदिति दुःखमिति । [सू० ९] एगे आसवे । एगे संवरे । [टी०] इदानीमनन्तरोक्तयोः पुण्य-पापकर्मणोर्बन्धकारणनिरूपणायाह- एगे आसवे, आस्रवन्ति प्रविशन्ति तेन काण्यात्मनीत्यासवः, कर्मबन्धहेतुरिति भावः, स चेन्द्रियकषाया-ऽव्रत-क्रिया-योगरूपः क्रमेण पञ्च-चतुः-पञ्च-पञ्चविंशति-त्रिभेदः, उक्तं च- 15 इंदिय ५ कसाय ४ अव्वय ५ किरिया २५ पण चउर पंच पणुवीसा । जोगा तिन्नेव भवे आसवभेया उ बायाला ॥ [ ] इति । तदेवमयं द्विचत्वारिंशद्विधः, अथवा द्विविधो द्रव्य-भावभेदात्, तत्र द्रव्यास्रवो यज्जलान्तर्गतनावादौ तथाविधच्छिद्रैर्जलप्रवेशनं भावास्रवस्तु यज्जीवनावीन्द्रियादिच्छिद्रतः कर्मजलसञ्चय इति । स चासवसामान्यादेक एवेति । 20 अथास्रवप्रतिपक्षभूतसंवरस्वरूपमाह- एगे संवरे, संव्रियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आश्रवनिरोध इत्यर्थः, स च समिति-गुप्तिधा-ऽनुप्रेक्षा-परीषह-चारित्ररूप: क्रमेण पञ्च-त्रि-दश-द्वादश-द्वाविंशति-पञ्चभेदः, आह च १. किंचित्पथ्याहारविवर्ज° ख० । किंचित्पथ्याहारवर्ज° जे१ ॥ २. आश्रव पा० जे२ । एवमग्रेऽपि । हस्तलिखितादर्शेषु क्वचित् आश्रव इति क्वचित् आस्रव इति पाठः उपलभ्यते ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १० अणुपेह १२ परीसहा २२ चरित्तं च ५ । सत्तावन्नं भेया पणतिगभेयाइ संवरणे ॥ [ ] त्ति । अथवाऽयं द्विधा- द्रव्यतो भावतश्चेति । तत्र द्रव्यतो जलमध्यगतनावादेरनवरतप्रविशज्जलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः, भावतस्तु जीवद्रोण्या5 माश्रवत्कर्मजलानामिन्द्रियादिच्छिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति, स च द्विविधोऽपि संवरसामान्यादेक इति । [सू० १०] एगा वेयणा । एगा निज्जरा । [टी०] संवरविशेषे चायोग्यवस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति न बन्ध इति वेदनास्वरूपमाह- एगा वेयणा, वेदनं वेदना स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य 10 कर्मणोऽनुभवनमिति भावः, सा च ज्ञानावरणीयादिकापेक्षया अष्टविधाऽपि, विपाकोदय-प्रदेशोदयापेक्षया वा द्विविधाऽपि, आभ्युपगमिकी शिरोलोचादिका औपक्रमिकी रोगादिजनितेत्येवं वा द्विविधाऽपि वेदनासामान्यादेकैवेति । ___ अनुभूतरसं कर्म प्रदेशेभ्यः परिशटतीति वेदनानन्तरं कर्मपरिशटनरूपां निर्जरां निरूपयन्नाह- एगा निज्जरा, निर्जरणं निर्जरा, विशरणं परिशटनमित्यर्थः, सा 15 चाष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादशविधतपोजन्यत्वेन द्वादशविधाऽपि अकामक्षुत्पिपासा-शीता-ऽऽतप-दंशमशक-मलसहन-ब्रह्मचर्यधारणाद्यनेकविधकारणजनितत्वेनानेकविधाऽपि द्रव्यतो वस्त्रादेर्भावतः कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा निर्जरासामान्यादेकैवेति । ननु निर्जरा-मोक्षयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, देशतः कर्मक्षयो निर्जरा, सर्वतस्तु मोक्ष इति । 20 [सू० ११] एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं । [टी०] इह च जीवो विशिष्टनिर्जराभाजनं प्रत्येकशरीरावस्थायामेव भवति न साधारणशरीरावस्थायामतः प्रत्येकशरीरावस्थस्य जीवस्य स्वरूपनिरूपणायाह- एगे जीवे इत्यादि, अथवा उक्ताः सामान्यतः प्रस्तुतशास्त्रव्युत्पादनीया जीवादयो नव पदार्थाः, साम्प्रतं जीवपदार्थं विशेषेण प्ररूपयन्नाह– एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं, 25 एकः केवलो जीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीव: प्राणधारणधर्मा आत्मेत्यर्थः. १. "तश्च तत्र द्र पा० जे२ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२-१३] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । एकं जीवं प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोदयात् तत् प्रत्येकम्, तदेव प्रत्येककम्, दीर्घत्वादि प्राकृतत्वात्, तेन प्रत्येक केन, शीर्यत इति शरीरं देहः, तदेवानुकम्पितादिधर्मोपेतं शरीरकम् तेन लक्षितः तदाश्रित्य एको जीव इत्यर्थः, अथवा णंकारौ वाक्यालङ्कारार्थी, तत एको जीवः प्रत्येकके शरीरे वर्त्तत इति वाक्यार्थः स्यादिति, इह च पाडिक्खएणं ति क्वचित् पाठो दृश्यते, स च न व्याख्यातः, 5 अनवबोधाद्, इह च वाचनानामनियतत्वात् सर्वासां व्याख्यातुमशक्यत्वात् काञ्चिदेव वाचनां व्याख्यास्याम इति । [सू० १२] एगा जीवाणं अपरिआइत्ता विगुव्वणा । [टी०] इह बन्ध-मोक्षादय आत्मधर्म्मा अनन्तरमुक्तास्ततस्तदधिकारादेवातः परमात्मधर्मान् एगा जीवाणं इत्यादिना एगे चरित्ते इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह । एगा 10 जीवाणं अपरियाइत्ता विगुव्वणा, एगा जीवाणं ति प्रतीतम्, अपरियाइत अपर्यादाय परितः समन्तादगृहीत्वा वैक्रियसमुद्घातेन बाह्यान् पुद्गलान् या विकुर्वणा भवधारणीयवैक्रियशरीररचनालक्षणा स्वस्मिन् स्वस्मिन् उत्पत्तिस्थाने जीवैः क्रियते सा एकैव, प्रत्येकमेकत्वाद्भवधारणीयस्येति, सकलवैक्रियशरीर्यपेक्षया वा भवधारणीयस्यैकलक्षणत्वात् कथञ्चिदिति, या पुनर्बाह्यपुद्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैक्रियरचनलक्षणा, 15 सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिमत्त्वाच्चैकजीवस्याऽप्यनेकापि स्यादिति पर्यवसितम् । अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरवैक्रियं भवतीति कुतोऽवसीयते, येनेह सूत्रे अपरियाइत्ता इत्यनेन तद्विकुर्वणा व्यवच्छिद्यते ? इति चेत्, उच्यते, भगवतीवचनात्, तथाहि ३१ 1 देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एवं 20 विव्वित्त ?, गोयमा ! नो इणमट्ठे समट्ठे । देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ?, हंता पभु [भगवती० ६।९ २ - ३ ]त्ति, इह हि उत्तरवैक्रियं बाह्यपुद्गलादानाद् भवति विवक्षितमिति। [सू० १३ ] एगे मणे । एगा वयी । एगे कायवाया । [ टी० ] एगे मणे त्ति मननं मनः औदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूह - 25 साचिव्याज्जीवव्यापारः, मनोयोग इति भावः, मन्यते वाऽनेनेति मनो मनोद्रव्यमात्रमेवेति, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ____ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तच्च सत्यादिभेदादनेकमपि संज्ञिनां वा असङ्ख्यातत्वादसङ्ख्यातभेदमप्येकम्, मननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति।। एगा वइ त्ति वचनं वाक्, औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारः, वाग्योग इति भावः, इयं च सत्यादिभेदादनेकाऽप्येकैव, 5 सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावादिति ।। एगे कायवायामे त्ति चीयत इति काय: शरीरम्, तस्य व्यायामो व्यापारः कायव्यायामः, औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेष इति भावः, स पनरौदारिकादिभेदेन सप्तप्रकारोऽपि जीवानन्तत्वेनानन्तभेदोऽपि वा एक एव, कायव्यायामसामान्यादिति । यच्चैकस्यैकदा मनःप्रभृतीनामेकत्वं तत् सूत्र एव 10 विशेषेण वक्ष्यति एगे मणे देवासुरे[सू०३१]त्यादिनेति सामान्याश्रयमेवेहैकत्वं व्याख्यातमिति । [सू० १४] एगा उप्पा । [सू० १५] एगा वियती। [सू० १६] एगा वियच्चा। [टी०] उप्प त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया, न हि तस्य युगपदुत्पादद्वयादिरस्ति, अनपेक्षिततद्विशेषकपदार्थतया वैकोऽसाविति । 15 वियइ त्ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति । विकृतिर्विततिरित्यादि व्याख्यान्तरमप्युचितमायोज्यम्, अस्माभिस्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति । वियच्च त्ति विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमवतो जीवस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा शरीरं विगतार्चा, प्राकृतत्वादिति, विवर्चा वा विशिष्टोपपत्तिपद्धतिर्विशिष्टभूषा वा, सा चैका सामान्यादिति । 20 सू० १७] एगा गती । एगा आगती । [सू० १८] एगे चयणे । [सू० १९] एगे उववाए । [टी०] गइ त्ति मरणानन्तरं मनुजत्वादेः सकाशान्नारकत्वादौ जीवस्य गमनं गतिः, सा चैकदैकस्यैकैव ऋज्वादिका नरकगत्यादिका वा, पुद्गलस्य वा, स्थितिवैलक्षण्यमात्रतया वैकरूपा सर्वजीव-पुद्गलानामिति । 25 आगइ त्ति आगमनमागतिः नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः, तदेकत्वं गतेरिवेति । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०-२७] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । चयणे त्ति च्युतिः च्यवनम्, वैमानिक - ज्योतिष्काणां मरणम्, तदेकमेकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया च पूर्ववदिति । उववाए त्ति उपपतनमुपपातो देव - नारकाणां जन्म, स चैकश्च्यवनवदिति । [सू० २०] एगा तक्का । [सू० २१] एगा सन्ना । [सू० २२] एगा मन्ना । [सू० २३] एगा विन्नू । [टी०] तक्क त्ति तर्कणं तक विमर्शः, अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्रायः शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्म्मा इह घटन्त इतिसम्प्रत्ययरूपा, ईहा वा, एकत्वं तु प्रागिवेति । सन्न त्ति संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः, आहार-भयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा, अभिधानं वा संज्ञेति । ३३ मन्न त्ति प्राकृतत्वान्मननं मतिः, कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरिति यावत्, आलोचनमिति केचित्, अथवा मन्ना मन्नियव्वं, अभ्युपगम इत्यर्थः, सूत्रद्वयेऽपि सामान्यत एकत्वमिति । एगा विन्नु त्ति विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेक इति, स्त्रीलिङ्गत्वं च प्राकृतत्वात् उत्पाद उप्पावत्, लुप्तभावप्रत्ययत्वाद्वा एका विद्वत्ता विज्ञता वेत्यर्थः । 5 10 [सू० २४] एगा वेयणा । [सू० २५] एगे छेयणे । [सू० २६ ] एगे भेयणे । [सू० २७] एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं । [टी०] वेयण त्ति प्राग् वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोक्ता, इह तु पीडालक्षणैव, सा च सामान्यत एकैवेति । अस्या एव कारणविशेषनिरूपणायाह- छेयणे त्ति छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा 20 खड्गादिनेति । भेयणे त्ति, भेदनं कुन्तादिना, अथवा छेदनं कर्मणः स्थितिघातः, भेदनं तु रसघात इति, एकता च विशेषाविवक्षणादिति । वेदनादिभ्यश्च मरणमतस्तद्विशेषमाह - एगे मरणे इत्यादि, मृतिर्मरणम्, अन्ते भवमन्तिमं चरमम्, तच्च तच्छरीरं चेत्यन्तिमशरीरम्, तत्र भवा अन्तिमशारीरिका 15 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उत्तरपदवृद्धेः, तद्वा तेषामस्तीति अन्तिमशरीरिकाः, दीर्घत्वं च प्राकृतशैल्या, तेषां चरमदेहानाम्, मरणैकता च सिद्धत्वे पुनर्मरणाभावादिति।। [सू० २८] एगे संसुद्धे अहाभूते पत्ते । एगदुक्खे जीवाणं एगभूते। [टी०] अन्तिमशरीरश्च स्नातको भूत्वा म्रियते, अतस्तमाह- एगे संसुद्धे इत्यादि, 5 एकः संशुद्धः अशबलचरण: अकषायत्वात्, यथाभूतः तात्त्विकः । पात्रमिव पात्रमतिशयवद्ज्ञानादिगुणरत्नानाम्, प्राप्तो वा गुणप्रकर्षमिति गम्यते । एकमेवान्तिमभवग्रहणसम्भवं दुःखं यस्य स एकदुःखः, एगहक्खे त्ति पाठान्तरे त्वेकधैवाऽऽख्या संशुद्धादिळपदेशो यस्य, न त्वसंशुद्धः संशुद्धासंशुद्ध इत्यादिकोऽपि, व्यपदेशान्तरनिमित्तस्य कषायादेरभावादिति स भवत्येकधाख्यः, एकधा अक्षो वा 10 जीवो यस्य स तथेति । जीवानां प्राणिनामेकभूत: एक इव आत्मोपम इत्यर्थः, एकान्तहितवृत्तित्वाद्, एकत्वं चास्य बहूनामपि समस्वभावत्वादिति । ___ अथवा पत्ते इत्यादि सूत्रान्तरम् उक्तरूपसंशुद्धादन्येषां स्वरूपप्रतिपादनपरम्, तत्र प्राकृतत्वात् प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैकदुःखं जीवानां स्वकृतकर्मफलभोगित्वात्, किंभूतं तदित्याह- एकभूतमनन्यतया व्यवस्थितं प्राणिषु, न साङ्ख्यानामिव 15 बाह्यमिति । [सू० २९] एगा अहम्मपडिमा जं से आया परिकिलेसति । [सू० ३०] एगा धम्मपडिमा जं से आया पजवजाए । [टी०] दुःखं पुनरधर्माभिनिवेशादिति तत्स्वरूपमाह- एगा अहम्मेत्यादि। धारयति दुर्गतौ प्रपततो जीवान् धारयति सुगतौ वा तान् स्थापयतीति धर्मः, उक्तं च20 दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्, यस्माद्धारयते ततः ।। धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ [ ] स च श्रुत-चारित्रलक्षणः, तत्प्रतिपक्षस्त्वधर्मः, तद्विषया प्रतिमा प्रतिज्ञा अधर्मप्रधानशरीरं वा अधर्मप्रतिमा, सा चैका, सर्वस्याः परिक्लेशकारणतयैकरूपत्वाद्, अत एवाह- जं से इत्यादि, यत् यस्मात् से तस्याः स्वाम्यात्मा जीवो 25 अथवा से त्ति सोऽधर्मप्रतिमावानात्मा परिक्लिश्यते रागादिभिर्बाध्यते, संक्लिश्यत १. वृद्धिः पा० जे२ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। ३५ [सू० ३१-३४] इत्यर्थः । जंसीति पाठान्तरं वा, ततश्च प्राकृतत्वेन लिङ्गव्यत्ययात् यस्यामधर्मप्रतिमायां सत्यामात्मा परिक्लिश्यते सा एकैवेति । ___ एतद्विपर्ययमाह- एगा धम्मेत्यादि प्राग्वत्, नवरं पर्यवाः ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो भवतीति शेषः, विशुध्यतीत्यर्थः, आहिताग्न्यादित्वाच्च जातशब्दस्योत्तरपदत्वमिति, अथवा पर्यवान् पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्यवयातः, 5 अथवा पर्यवः परिरक्षा परिज्ञानं वा, शेषं तथैवेति । [सू० ३१] एगे मणे देवा-ऽसुर-मणुयाणं तंसि तंसि समयंसि १॥ - [सू० ३२] एगा वती देवा-ऽसुर-मणुयाणं तंसि तंसि समयंसि २॥ [सू० ३३] एगे कायवायामे देवा-ऽसुर-मणुयाणं तंसि तंसि समयंसि ३। [सू० ३४] एगे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसकार-परक्कमे देवा-ऽसुर- 10 मणुयाणं तंसि तंसि समयंसि ।। [टी०] धर्माधर्मप्रतिमे च योगत्रयाद्भवत इति तत्स्वरूपमाह- एगे मणे इत्यादि सूत्रत्रयम्, तत्र मन इति मनोयोगः, तच्च यस्मिन् यस्मिन् समये विचार्यते तस्मिन् तस्मिन् समये कालविशेष एकमेव, वीप्सानिर्देशेन न क्वचनापि समये तद् व्यादिसङ्ख्यं भवतीत्याह । एकत्वं च तस्यैकोपयोगत्वात् जीवानाम् । स्यादेतत्- नैकोपयोगो जीवः, 15 युगपच्छीतोष्णस्पर्शविषयसंवेदनद्वयदर्शनात्, तथाविधभिन्नविषयोपयोगपुरुषद्वयवत्, अत्रोच्यते, यदिदं शीतोष्णोपयोगद्वयं तत् स्वरूपेण भिन्नकालमपि समय-मनसोरतिसूक्ष्मतया युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्युगपदेवेति, आह च समयातिसुहुमयाओ मनसि जुगवं च भिन्नकालं पि। उप्पलदलसयवेहं व जह व तमलायचक्कं ति ॥ [विशेषाव० २४३३] यदि पुनरेकत्रोपयुक्तं मनोऽर्थान्तरमपि संवेदयति तदा किमन्यत्रगतचेताः पुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न विषयीकरोतीति, आह च अन्नविणिउत्तमन्नं विणिओगं लहइ जड़ मणो तेणं । हत्थिं पि ठियं पुरओ किमन्नचित्तो न लक्खेइ ? ॥ [विशेषाव० २४३६] त्ति । १. “वाहिताग्न्यादिषु ।२।२।३७। आहिताग्निः । अग्न्याहितः । आकृतिगणोऽयम् ।”- पा० सिद्धान्तकौमुदी ॥ २. व्यादि संभवती पा० जे२ ।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ इह च बहु वक्तव्यमस्ति, तत् स्थानान्तरादवसेयमिति । अथवा सत्यासत्योभयस्वभावानुभयरूपाणां चतुर्णां मनोयोगानामन्यतर एव भवत्येकदा, व्यादीनां विरोधेनाऽसम्भवादिति, केषामित्याह- देवासुरमणुयाणं ति, तत्र दीव्यन्ति इति देवा: वैमानिकज्योतिष्कास्ते च, न सुरा असुराः भवनपति-व्यन्तरास्ते च, मनोर्जाता मनुजाः 5 मनुष्यास्ते च देवा-ऽसुर-मनुजाः, तेषाम् । तथा वागिति वाग्योगः, स चैषामेकदा एक एव, तथाविधमनोयोगपूर्वकत्वात् तथाविधवाग्योगस्य, सत्यादीनामन्यतरभावाद्वा, वक्ष्यति च- छहिं ठाणेहिं णत्थि जीवाणं इड्डी इ वा जाव परक्कमे इ वा, तंजहाजीवं वा अजीवं करणयाए १, अजीवं वा जीवं करणयाए २, एगसमएणं दो भासाओ भासित्तए [सू० ४७९] इति । 10 तथा कायव्यायामः काययोगः, स चैषामेकदा एक एव, संप्तानां काययोगानामेकदा एकतरस्यैव भावात् । ननु यदाऽऽहारकप्रयोक्ता भवति तदौदारिकस्यावस्थितस्य श्रूयमाणत्वात् कथमेकदा न काययोगद्वयमिति ?, अत्रोच्यते, सतोऽप्यौदारिकस्य व्यायामाभावादाहारकस्यैव च तत्र व्याप्रियमाणत्वाद्, अथौदारिकमपि तदा व्याप्रियते तर्हि मिश्रयोगता भविष्यति, केवलिसमुद्घाते सप्तम-षष्ठ-द्वितीयसमयेष्वौदारिकमिश्रवत्, 15 तथा चाहारकप्रयोक्ता न लभ्येत, एवं च सप्तविधकाययोगप्रतिपादनमनर्थकं स्यादित्येक एव कायव्यायाम इति । एवं कृतवैक्रियशरीरस्य चक्रवर्त्यादेरप्यौदारिकं निर्व्यापारमेव, व्यापारवच्चेत् उभयस्य व्यापारवत्त्वे केवलिसमुद्घातवन्मिश्रयोगतेत्येवमप्येकयोगत्वमव्याहतमेवेति । तथा काययोगस्याप्यौदारिकतया वैक्रियतया च क्रमेण व्याप्रियमाणत्वे आशुवृत्तितया मनोयोगवद्यदि यौगपद्यभ्रान्तिः स्यात् तदा को दोष इति । 20 एवं च काययोगैकत्वे सत्यौदारिकादिकाययोगाहृतमनोद्रव्य-वाग्द्रव्यसाचिव्यजात जीवव्यापाररूपत्वात् मनोयोग-वाग्योगयोरेककाययोगपूर्वकतयाऽपि प्रागुक्तमेकत्वमवसेयमिति । अथवेदमेव वचनमत्र प्रमाणम्, आज्ञाग्राह्यत्वात् अस्य, यतः आणागेज्झो अत्थो आणाए चेव सो कहेयव्वो । दिटुंता दिलृतिअ कहणविहिविराहणा इहरा ॥ [आव० नि० १६६९] इति । 25 दृष्टान्ताद्दार्टान्तिकोऽर्थ इत्यर्थः । . ननु सामान्याश्रयैकत्वेनैव सूत्रं गमकं भविष्यतीति किमनेन विशेषव्याख्यानेनेति ?, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३५] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । उच्यते, नैवम्, सामान्यैकत्वस्य पूर्वसूत्रैरेवाभिहितत्वादस्य पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात्, देवादिग्रहण-समयग्रहणयोश्च वैयर्थ्यप्रसङ्गाच्चेति । इह च देवादिग्रहणं विशिष्टवैक्रियलब्धिसम्पन्नतयैषामनेकशरीररचने सत्येकदा मनोयोगादीनामनेकत्वं शरीरवद् भविष्यतीति प्रतिपत्तिनिरासार्थम्, न तु तिर्यग्नारकाणां व्यवच्छेदार्थम् । ननु तिर्यग्नारका अपि वैक्रियलब्धिमन्तस्तेषामपि विक्रियायां शरीरानेकत्वेन मनःप्रभृतीनामनेकत्वप्रतिपत्ति: 5 सम्भाव्यत एवेति तद्ग्रहणमपि न्याय्यमिति, सत्यम्, किन्तु देवादीनां विशिष्टतरलब्धितया शरीराणामत्यन्तानेकतेति तद्ग्रहणम्, तथा प्रधानग्रहण इतरग्रहणं भवतीति न्यायाददोषः, नारकादिभ्यश्च देवादीनां प्रधानत्वं प्रतीतमेवेति । एतेषां च मनःप्रभृतीना यथाप्राधान्यकृतः क्रमः, प्रधानत्वं च बह्वल्पा-ऽल्पतरकर्मक्षयोपशमप्रभवलाभकृतमिति । कायव्यायामस्यैव भेदानामेकतामाह- एगे उठाणेत्यादि, उत्थानं च चेष्टाविशेष: 10 कर्म च भ्रमणादिक्रिया बलं च शरीरसामर्थ्य वीर्यं च जीवप्रभवं पुरुषकारश्च अभिमानविशेषः पराक्रमश्च पुरुषकार एव निष्पादितस्वविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः, एते च वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमसमुत्था जीवपरिणामविशेषाः, एतेषु प्रत्येकमेकशब्दो योजनीयः, वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमवैचित्र्यतः प्रत्येकं जघन्यादिभेदैरनेकत्वेऽप्येषामेकजीवस्यैकदा क्षय-क्षयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव जघन्यादिरेतद्विशेषो 15 भवति कारणमात्राधीनत्वात् कार्यमात्राया इति सूत्रभावार्थः, शेषं प्राग्वदिति । [सू० ३५] एगे नाणे १। एगे दंसणे २। एगे चरित्ते ३॥ [टी०] पराक्रमादेश्च ज्ञानादिर्मोक्षमार्गोऽवाप्यते, यत आहअब्भुट्ठाणे विणये परक्कमे साहुसेवणाए य । सम्मइंसणलंभो विरयाविरईए विरईए ॥ [आव० नि० ८४८] इति । ___20 अतो ज्ञानादीनां निरूपणार्थमाह- एगे नाणे इत्यादि। अथवा धर्मप्रतिमा प्रागुदिता, सा च ज्ञानादिस्वभावेति ज्ञानादीनि निरूपयन्नाह- एगे नाणे इत्यादि सूत्रत्रयम् । ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्तेऽर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञानम्, ज्ञान-दर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा। ज्ञातिर्वा ज्ञानम्, आवरणद्वयक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यवविशेषः सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवण: सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपञ्चका-ऽज्ञानत्रय- 25 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दर्शनचतुष्टयरूपः, तच्चानेकमप्यवबोधसामान्यादेकमुपयोगापेक्षया वा, तथाहिलब्धितो बहूनां बोधविशेषाणामेकदा सम्भवेऽप्युपयोगत एक एव सम्भवति, एकोपयोगत्वाज्जीवानामिति । ननु दर्शनस्य ज्ञानव्यपदेश्यत्वमयुक्तम्, विषयभेदाद्, उक्तं च- जं सामन्नग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं [ ] ति, अत्रोच्यते, ईहा-ऽवग्रहौ हि 5 दर्शनम्, सामान्यग्राहकत्वाद्, अपाय-धारणे च ज्ञानम्, विशेषग्राहकत्वाद्, अथ चोभयमपि ज्ञानग्रहणेन गृहीतमागमे आभिनिबोहियनाणे अट्ठावीसं हवंति पगडीउ [आव० नि० १६] त्ति वचनात्, तस्मादवबोधसामान्याद्दर्शनस्यापि ज्ञानव्यपदेश्यत्वमविरुद्धमिति। ननु दर्शनं पृथगेवोपात्तमुत्तरसूत्रे तत् किमिह ज्ञानशब्देन दर्शनमपि व्यपदिष्टमिति ?, 10 अत्रोच्यते, तत्र हि दर्शनं श्रद्धानं विवक्षितम्, ज्ञानादित्रयस्य सम्यक्शब्दलाञ्छितत्वे सति मोक्षमार्गत्वेन विवक्षितत्वात्, मोक्षमार्गभूतं चैतत्त्रयं श्रद्धानपर्यायेणैव दर्शनेन सहेति । दंसणे त्ति दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनं दर्शनमोहनीयस्य क्षयः क्षयोपशम उपशमो वा, दृष्टिर्वा दर्शनं दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविभूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप 15 आत्मपरिणामः, तच्चोपाधिभेदादनेकविधमपि श्रद्धानसामान्यादेकम्, एकजीवस्य वैकदा एकस्यैव भावादिति । नन्ववबोधसामान्याज्ज्ञान-सम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, रुचिः सम्यक्त्वम्, रुचिकारणं तु ज्ञानम्, यथोक्तम्नाणमवाय-धिईओ दंसणमिटुं जहोग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥ [ ] ति । 20 चरित्ते त्ति चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति चर्यते वा गम्यते अनेन निर्वृताविति चरित्रम्, अथवा चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाच्चरित्रं निरुक्तन्यायादिति चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविर्भूत आत्मनो विरतिरूप: परिणाम इति, तदेवं वक्ष्यमाणानां सामायिकादितद्भेदानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्यैवैकदा भावाद्वेति । एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव क्रमः, यतो नाज्ञातं श्रद्धीयते नाश्रद्धितं सम्यगनुष्ठीयत इति । 25 [सू० ३६] एगे समए । एगे पएसे । एगे परमाणू । [टी०] ज्ञानादीनि ह्युत्पत्ति-विगति-स्थितिमन्ति, स्थितिश्च समयादिकेति समयं प्ररूपयन्नाह- एगे समए । समयः परमनिरुद्धः काल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ [सू० ३७] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। ज्जरत्पट्टसाटिकापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धादवबोद्धव्यः, स चैक एव वर्तमानस्वरूपः, अतीता-ऽनागतयोर्विनष्टा-ऽनुत्पन्नत्वेनाभावात् । अथवा असावेकः स्वरूपेण निरंशत्वादिति । निरंशवस्त्वधिकारादेवेदं सूत्रद्वयमाह- एगे पएसे, एगे परमाणू । प्रकृष्टो निरंशो धर्मा-ऽधर्मा-ऽऽकाश-जीवानां देशः अवयवविशेषः प्रदेशः, स चैकः स्वरूपतः, सद्वितीयत्वादौ देशव्यपदेश्यत्वेन प्रदेशत्वाभावप्रसङ्गादिति। परमाणु 5 त्ति परमश्चासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः व्यणुकादिस्कन्धानां कारणभूतः, आह चकारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः ।। एकरस-वर्ण-गन्धो द्विस्पर्श: कार्यलिङ्गश्च ॥ [ ] इति । स च स्वरूपतः एक एव, अन्यथा परमाणुरेवासौ न स्यादिति । अथवा समयादीनां 10 प्रत्येकमनन्तानामपि तुल्यरूपापेक्षयैकत्वमिति । (सू० ३७] एगा सिद्धी । एगे सिद्धे । एगे परिनिव्वाणे । एगे परिनिव्वुडे। [टी०] यथा परमाणोस्तथाविधैकत्वपरिणामविशेषादेकत्वं भवति तथा तत एवानन्ताणुमयस्कन्धस्यापि स्यादिति दर्शयन् सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीषत्प्राग्भाराभिधानपृथिवीस्कन्धं प्ररूपयन्नाह- एगा सिद्धी । सिद्ध्यन्ति कृतार्था 15 भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा च यद्यपि लोकाग्रम्, यत आह - इहं बोदी चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झइ [आव० नि० ९५८] त्ति, तथापि तत्प्रत्यासत्त्येषत्प्राग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते, आह च- बारसहिँ जोयणेहिं सिद्धी सव्वट्ठसिद्धाउ [आव० नि० ९५९] त्ति, यदि च लोकाग्रमेव सिद्धि: स्यात् तदा कथमेतदनन्तरमुक्तं निम्मलदगरयवण्णा तुसारगोखीर-हार-सरिवन्ने [आव० नि० ९६१] त्यादि तत्स्वरूपवर्णनं घटते ?, 20 लोकाग्रस्यामूर्त्तत्वादिति, तस्मादीषत्प्राग्भारा सिद्धिरिहोच्यते, सा चैका, द्रव्यार्थतया पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्कन्धस्यैकपरिणामत्वात्, पर्यायार्थतया त्वनन्ता। अथवा कृतकृत्यत्वं लोकाग्रमणिमादिका वा सिद्धिः, एकत्वं च सामान्यत इति । सिद्धेरनन्तरं सिद्धिमन्तमाह- एगे सिद्धे, सिद्ध्यति स्म कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा अगच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः, सितं वा बद्धं कर्म ध्मातं दग्धं 25 १. बुंदी च पा० जे२ । बु च खं० ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे यस्य स निरुक्ततः सिद्धः कर्मप्रपञ्चनिर्मुक्तः, स च एको द्रव्यार्थतया, पर्यायार्थतस्त्वनन्तपर्याय इति । अथवा सिद्धानाम् अनन्तत्वेऽपि तत्सामान्यादेकत्वम् । अथवा कर्म-शिल्प-विद्या-मन्त्र-योगा-ऽऽगमा-ऽर्थ-यात्रा-बुद्धि-तपः-कर्मक्षयभेदेनानेकत्वेऽप्यस्यैकत्वं सिद्धशब्दाभिधेयत्वसाम्यादिति । कर्मक्षयसिद्धस्य च परि5 निर्वाणं धर्मो भवतीति तदाह- एगे परिनिव्वाणे, परि समन्तान्निर्वातिनिर्वाणं सकलकर्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणम्, तदेकम्, एकदा तस्य सम्भवे पुनरभावादिति । परिनिर्वाणधर्मयोगात् स एव कर्मक्षयसिद्धः परिनिर्वृत उच्यते इति तद्दर्शनायाह- एगे परिनिव्वुए, परिनिर्वृतः सर्वतः शारीर-मानसास्वास्थ्यविरहित इति भावः, तदेकत्वं सिद्धस्येव भावनीयमिति ।। 10 [सू० ३८] एगे सद्दे । एगे रूवे । एगे गंधे । एगे रसे । एगे फासे। एगे सुब्भिसद्दे। एगे दुब्भिसद्दे । एगे सुरूवे । एगे दुरूवे । एगे दीहे। एगे रहस्से । एगे वट्टे । एगे तंसे । एगे चउरंसे । एगे पिहुले। एगे परिमंडले। एगे किण्हे । एगे णीले । एगे लोहिते । एगे हालिद्दे । एगे सुक्किले। एगे सुब्भिगंधे । एगे दुब्भिगंधे । एगे तित्ते । एगे कडुए । एगे कसाए। एगे 15 अंबिले । एगे महुरे । एगे कक्खडे जाव लुक्खे ।। [टी०] तदेतावता ग्रन्थेनैते प्रायो जीवधा एकतया निरूपिताः, इदानीं जीवोपग्राहकत्वात् पुद्गलानां तल्लक्षणाजीवधा एगे सद्दे इत्यादिना जाव लुक्खे इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनैकतयैव दर्श्यन्ते, पुद्गलादीनां तु सत्ता केषाञ्चिदनुमानतोऽवसीयते घटादिकार्योपलब्धेः, केषाञ्चित् सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत इति । तत्र शब्दादिसूत्राणि 20 सुगमानि, नवरं शप्यते अभिधीयते अनेनेति शब्दो ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः, रूप्यते अवलोक्यत इति रूपम् आकारश्चक्षुर्विषयः, घ्रायते सिद्ध्यते इति गन्धो घ्राणविषयः, रस्यते आस्वाद्यते इति रस: रसनेन्द्रियविषयः, स्पृश्यते छुप्यत इति स्पर्शः स्पर्शनकरणविषयः, शब्दादीनां चैकत्वं सामान्यतः सजातीय-विजातीयव्यावृत्तरूपापेक्षया वा भावनीयम् । शब्दभेदावाह- सुब्भिसद्दे त्ति, शुभशब्दो मनोज्ञ इत्यर्थः, एवं दुब्भि १. निरुक्तात् सिद्धः ख० पा० जे२ ॥ २. दृश्यतां पृ०२५८ । “शा-शपिभ्यां ददनौ” - पा० उणा०५४७। “शा-शपि-मनि-कनिभ्यो दः ॥२३७||.... शपी आक्रोशे शब्दः श्रोत्रग्राह्योऽर्थः" - है। उणा० ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । त्ति अशुभो मनोज्ञो यो न भवतीति, एवं च शब्दान्तरमत्रान्तर्भूतमवसेयम्, एवं रूपव्याख्यानेऽपि, सुरूपादयश्चतुर्दश शुक्लान्ता रूपभेदाः, तत्र सुरूपं मनोज्ञरूपमितरत्तु दूरूपमिति । दीर्घम् आयततरम्, ह्रस्वं तदितरद् । वृत्तादयः पञ्च स्कन्धसंस्थानभेदाः, तत्र वृत्तं संस्थानं मोदकवत्, तच्च प्रतर-घनभेदात् द्विधा, पुनः प्रत्येकं समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्द्धा, एवं शेषाण्यपि । तंसे त्ति तिम्रोऽम्रयः कोटयो यस्मिंस्तत् 5 त्र्यनं त्रिकोणम्, चतुरंसे त्ति चतम्रोऽस्रयो यस्य तत्तथा, चतुष्कोणमित्यर्थः, तथा पिहुले त्ति पृथुलं विस्तीर्णम्, अन्यत्र पुनरिह स्थाने आयतमभिधीयते, तदेव चेह दीर्घ-हस्वपृथुलशब्दैविभज्योक्तम्, आयतधर्मत्वादेषाम्, तच्चायतं प्रतर-घन-श्रेणिभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं सम-विषमप्रदेशमिति षोढा, यच्चायतभेदयोरपि ह्रस्व-दीर्घयोरादावभिधानं तद् वृत्तादिषु संस्थानेष्वायतस्य प्रायोवृत्तिदर्शनार्थम्, तथाहि- दीर्घायतः स्तम्भो 10 वृत्तस्त्र्यम्रः चतुरस्रश्चेत्यादि भावनीयम्, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरेवमुपन्यास इति । परिमंडले त्ति परिमण्डलसंस्थानं वलयाकारं प्रतर-घनभेदाद् द्विविधमिति । रूपभेदो वर्णः, स च कृष्णादिः पञ्चधा प्रतीत एव, नवरं हारिद्रः पीतः, कपिशादयस्तु संसर्गजा इति न तेषामुपन्यासः । गन्धो द्वेधा- सुरभिर्दुरभिश्च, तत्र सौमुख्यकृत् सुरभिः, वैमुख्यकृत् दुरभिः, साधारणपरिणामोऽस्पष्टो दुर्ग्रह इति संसर्गजत्वादेव नोक्त इति । रसः पञ्चधा, 15 तत्र श्लेष्मनाशकृत् तिक्तः १, वैशद्यच्छेदनकृत् कटुकः २, अन्नरुचिस्तम्भनकृत् कषाय: ३, आश्रवण-क्लेदनकृदम्लः ४, ह्लादन-बृंहणकृन्मधुरः ५, संसर्गजो लवण इति नोक्त इति । स्पर्शोऽष्टविधः, तत्र कर्कश: कठिनोऽनमनलक्षणः १, यावत्करणात् मृद्वादयः षडन्ये, तत्र मृदुः सन्नतिलक्षण: २, गुरुरधोगमनहे तुः ३, लघु: प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुः ४, शीतो वैशद्यकृत् स्तम्भनस्वभावः ५, उष्णो मार्दव- 20 पाककृत् ६, स्निग्धः संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणम् ७, रूक्षस्तथैवाबन्धकारणमिति ८ । [सू० ३९] एगे पाणातिवाए जाव एगे परिग्गहे । एगे कोधे जाव लोभे। एगे पेज्जे, एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अरतिरती । एगे मायामोसे। एगे मिच्छादंसणसल्ले । 25 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एगे पाणातिवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे । एगे कोधविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे । [टी०] उक्ता पुद्गलधर्माणामेकता, इदानीं पुद्गलालिङ्गितजीवाप्रशस्तधर्माणामष्टादशानां पापस्थानकाभिधानानाम् एगे पाणाइवाए इत्यादिना ग्रन्थेन दंसणसल्ले 5 इत्येतदन्तेन तामेवाह । तत्र प्राणाः उच्छ्वासादय:, तेषामतिपातनं प्राणवता सह वियोजनं प्राणातिपातो हिंसेत्यर्थः, उक्तं च पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणादशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ।। [ ] इति, स च प्राणातिपातो द्रव्य- भावभेदात् द्विविधः, विनाश-परिताप- सङ्क्लेशभेदात् 10 त्रिविधो वा, आह च ४२ तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ वज्जेयव्वो पयत्तेणं ॥ [ श्रावकप्र० १९९] ति | अथवा मनोवाक्कायैः करण-कारणा-ऽनुमतिभेदान्नवधा, पुनः स क्रोधादिभेदात् षट्त्रिंशद्विधो वेति १ । तथा मृषा मिथ्या वदनं वादो मृषावादः, स च द्रव्य-भावभेदात् 15 द्विधा, अभूतोद्भावनादिभिश्चतुर्धा वा, तथाहि - अभूतोद्भावनं यथा सर्वगत आत्मा, भूतनिह्नवो यथा नास्त्यात्मा, वस्त्वन्तरन्यासो यथा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति, निन्दा च यथा कुष्ठी त्वमसीति २ । तथा अदत्तस्य स्वामि- जीव- तीर्थकर - गुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ता - चित्त - मिश्रभेदस्य वस्तुनः आदानं ग्रहणमदत्तादानम्, चौर्यमित्यर्थः, तच्च विविधोपाधिवशादनेकविधमिति ३। तथा मिथुनस्य स्त्रीपुंसलक्षणस्य 20 कर्म्म मैथुनम् अब्रह्म, तत् मनोवाक्कायानां कृत-कारिता-ऽनुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा, विविधोपाधितो बहुविधतरं वेति ४ । तथा परिगृह्यते स्वीक्रियत इति परिग्रह; बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विधा, तत्र बाह्यो धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादिरनेकधा,आभ्यन्तरस्तु मिथ्यात्वा ऽविरति-कषाय-प्रमादादिरनेकधा, परिग्रहणं "" १. 'तत्पर्यायविनाशः मनुष्यादिजीवपर्यायविनाशः, दुःखोत्पादश्च व्यापाद्यमानस्य, चित्तसङ्क्लेशश्च क्लिष्टचित्तोत्पादश्चात्मनः, एष वधो व्यस्तः समस्तो वा ओघतो जिनभणितः तीर्थकरोक्तो वर्जयितव्यः प्रयत्नेन उपयोगसारेणाऽनुष्ठानेनेति" इति याकिनीमहत्तराधर्मसूनुश्रीहरिभद्रसूरिप्रणीतायां श्रावकप्रज्ञप्तिटीकायाम् ॥ - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। ३ [सू० ४०] वा परिग्रहो मूछेत्यर्थः ५ । तथा क्रोध-मान-माया-लोभाः कषायमोहनीयकर्मपुद्गलोदयसम्पाद्या जीवपरिणामा इति, एते चानन्तानुबन्ध्यादिभेदतोऽसङ्ख्याताध्यवसायस्थानभेदतो वा बहुविधाः, तथा पेज्ज त्ति प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमाया-लोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रमिति १०, तथा दोसो त्ति द्वेषणं द्वेषः, दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोध-मानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति 5 ११, जाव त्ति ‘कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने' इत्यर्थः, तत्र कलहो राटी १२, अभ्याख्यानं प्रकटमसदोषारोपणम् १३, पैशुन्यं पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनम् १४, परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्थनमित्यर्थः १५, अरतिश्च तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणो रतिश्च तथाविधानन्दरूपा 'अरतिरति' इत्येकमेव विवक्षितम्, यतः क्वचन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेक्षया अरति व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव 10 रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति १६, तथा मायामोस त्ति माया च निकृतिम॒षा च मृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं, दोषद्वययोगः, इदं च मानमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणम्, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये, प्रेमादीनि च बहुविधानि विषयभेदेन अध्यवसायस्थानभेदतो वा १७, मिथ्यादर्शनं विपर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमरादिशल्यमिव शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति, मिथ्यादर्शनं च 15 पञ्चधा आभिग्रहिका-ऽनाभिग्रहिका-ऽऽभिनिवेशिका-ऽनाभोगिक-सांशयिकभेदाद् उपाधिभेदतो बहुतरभेदं वेति १८ । एतेषां च प्राणातिपातादीनाम् उक्तक्रमेणानेकविधत्वेऽपि वधादिसाम्यादेकत्वमवगन्तव्यमिति । उक्तान्यष्टादश पापस्थानानि, इदानीं तद्विपक्षाणामेव एगे पाणाइवायवेरमणे इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैरेकतामाह, सुगमानि चैतानि, नवरं विरमणं विरतिः, तथा 20 विवेकस्त्याग इति । [सू० ४०] एगा ओसप्पिणी, एगा सुसमसुसमा जाव एगा दूसमदूसमा। एगा उस्सप्पिणी, एगा दुस्समदुस्समा जाव एगा सुसमसुसमा । [टी०] उक्तं सपुद्गलजीवद्रव्यधर्माणामेकत्वमिदानीं कालस्य स्थितिरूपत्वेन तद्धर्मत्वात् तद्विशेषाणाम् एगा ओसप्पिणीत्यादिना सुसमसुसमेत्येतदन्तेनैतदेवाह। 25 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अथ काल एव कथमवसीयत इति चेत् ?, उच्यते, बकुल-चम्पकाऽशोकादिपुष्पप्रदानस्य नियमेन दर्शनान्नियामकश्च काल इति । तत्र ओसप्पिणि त्ति अवसर्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्क-शरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी सागरोपमकोटीकोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः । सुष्ठ समा सुषमा, 5 अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरूपस्तस्या एव प्रथमारक इति, एकत्वं चावसर्पिण्या: स्वरूपेणैकत्वादेवं सर्वत्र, यावदिति सीमोपदर्शनार्थः, ततश्च सुषमसुषमेत्यादि सूत्रं स्थानान्तरप्रसिद्धं तावदध्येयमिह यावद् दूसमदूसमेति पदमित्यतिदेशः, अयं च सूत्रलाघवार्थमिति, एवं च सर्वत्र यावदिति व्याख्येयम्, अतिदेशलब्धानि च पदान्येकशब्दोपपदान्येतानि- ‘एगा सुसमा, एगा सुसमदुसमा, 10 एगा दुसमसुसमा, एगा दुसमे'ति । आसां स्वरूपं शब्दानुसारतो नेयम् । प्रमाणं पुनराद्यानां तिसृणां समानां क्रमेण सागरोपमकोटीकोट्यश्चतुस्त्रिद्विसङ्ख्याः , चतुर्थ्यास्त्वेका द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रोना, अन्त्ययोस्तु प्रत्येकं वर्षसहस्राण्येकविंशतिरिति । तथा उत्सर्पति वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी अवसर्पिणीप्रमाणा, दुष्ठ समा दुःषमा दुःखरूपा अत्यन्तं दुःषमा दुःषमदुःषमा, 15 यावत्करणाद् ‘एगा दूसमा, एगा दुसमसुसमा, एगा सुसमदुसमा, एगा सुसमे'ति दृश्यम्, एतत्प्रमाणं च पूर्वोक्तमेव नवरं विपर्यासादिति । [सू० ४१] [१] एगा नेरइयाणं वग्गणा, एगा असुरकुमाराणं वग्गणा, चउवीसादंडओ जाव एगा वेमाणियाणं वग्गणा । [२] एगा भवसिद्धीयाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धीयाणं वग्गणा । एगा 20 भवसिद्धीयाणं णेरतियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धीयाणं णेरतियाणं वग्गणा, एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । [३] एगा सम्मद्दिट्ठीयाणं वग्गणा, एगा मिच्छदिट्ठीयाणं वग्गणा, एगा सम्ममिच्छदिट्ठीयाणं वग्गणा । एगा सम्मदिट्ठीयाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा 25 मिच्छदिट्ठीयाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा सम्ममिच्छदिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । एवं जाव थणितकुमाराणं वग्गणा । एगा मिच्छदिट्ठियाणं पुढविक्काइयाणं वग्गणा, एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं । एगा सम्मदिट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एगा मिच्छदिट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियाण वि चउरिंदियाण वि, सेसा जहा नेरइया जाव एगा सम्मामिच्छदिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा । [५] एगा कण्हलेसाणं वग्गणा, एगा नीललेसाणं वग्गणा, एवं जाव सुक्कलेसाणं वग्गणा। एगा कण्हलेसाणं नेरइयाणं वग्गणा जाव काउलेसाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जस्स जति लेसाओ, भवणवइ-वाणमंतर-पुढविआउ-वणस्सइकाइयाणं च चत्तारि लेसाओ, तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदिअचउरिंदियाणं तिन्नि लेसाओ, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं छ 10 लेस्साओ, जोतिसियाणं एगा तेउलेसा, वेमाणियाणं तिन्नि उवरिमलेसाओ। [६] एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं वग्गणा, एवं छसु वि लेसासु दो दो पयाणि भाणियव्वाणि। एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जस्स जति लेसाओ तस्स तति 15 भाणियव्वाओ जाव वेमाणियाणं । [७] एगा कण्हलेसाणं सम्मदिट्टियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं मिच्छदिट्ठियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छदिट्ठियाणं वग्गणा, एवं छसु वि लेसासु जाव वेमाणियाणं जेसिं जति दिट्ठीओ । [८] एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं 20 सुक्खपक्खियाणं वग्गणा, जाव वेमाणियाणं, जस्स जति लेसाओ । एए अट्ठ चउवीसदंडया । [टी०] कृता जीव-पुद्गल-काललक्षणद्रव्यविविधधर्मविशेषाणामेकत्वप्ररूपणा, अधुना संसारि-मुक्तजीव-पुद्गलद्रव्यविशेषाणां नारक-परमाण्वादीनां समुदायलक्षणधर्मास्य एगा नेरइयाणं वग्गणेत्यादिना एगा अजहन्नुक्कस्सगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं 25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वग्गणेत्येतदन्तेन ग्रन्थेन तामेवाह । तत्र नेरइयाणं ति निर्गतम् अविद्यमानमयम् इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयाः, तेषु भवा नैरयिकाः क्लिष्टसत्त्वविशेषाः, ते च पृथिवीप्रस्तट-नरकावासस्थिति-भव्यत्वादिभेदादनेकविधास्तेषां सर्वेषां वर्गणा वर्गः समुदायः, तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति। तथा असुराश्च ते नवयौवनतया 5 कुमारा इव कुमाराश्चेत्यसुरकुमारास्तेषामेका वर्गणेति, चउवीसदंडउ त्ति चतुर्विंशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्विंशतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, स चायम्नेरइया १ असुरादी १० पुढवाई ५ बेंदियादयो चेव ४ । नर १ वंतर १ जोतिसिया १ वेमाणी १ दंडओ एवं ॥ [ ] 10 भवनपतयो दशधा असुरा नाग सुवण्णा विज्जू अग्गी य दीव उदही य । दिसि पवण थणियनामा दसहा एए भवणवासि ॥ [प्रज्ञा० १३७] त्ति । एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि । यावच्चतुर्विंशतितमम् एगा वेमाणियाणं वग्गण त्ति, एष सामान्यदण्डकः १। ननु नारकसत्तैव दुरुपपादा, आस्तां तद्धर्मभूताया वर्गणाया 15 एकत्वमनेकत्वं वेति, तथाहि- न सन्ति नारकाः, तत्साधकप्रमाणाभावात्, व्योमकुसुमवत्, अत्रोच्यते, प्रमाणाभावादित्यसिद्धो हेतुः, तत्साधकानुमानसद्भावात्, तथाहि- विद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापकर्मफलम्, कर्मफलत्वात्, पुण्यकर्मफलवत्, न च तिर्यङ्-नरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात्, विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्, आह च20 पावफलस्स पगिट्ठस्स भोइणो कम्मओऽवसेस व्व । संति धुवं तेऽभिमया नेरइया अह मई होज्जा । अच्चत्थदुखिया जे तिरिय-नरा नारग त्ति तेऽभिमया । तं न जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं न तं दुक्खं ॥ [विशेषाव० १८९९-१९००] ति । अवसेस व्व त्ति यथा नारकेभ्योऽन्ये तिर्यङ्-नरा इत्यर्थः । अथ सुराणामपि 25 विवादास्पदीभूतत्वात् ‘विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्' इत्यसिद्धो दृष्टान्तः, अत्रोच्यते, देव इति सार्थकं पदम्, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदत्वाद्, घटाभिधानवदिति, ततः Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । सन्ति देवा इति प्रत्येतव्यम् । अथ मनुष्येण गुणर्द्धिसंपन्नेनाऽर्थवद् भविष्यति देवपदमिति न विवक्षितदेवसिद्धिरिति, अत्रोच्यते, यदिदं नरविशेषे देवत्वं तदौपचारिकम्, उपचारश्च तथ्यार्थसिद्धौ सत्यां भवति, यथा निरुपचरितसिंहसद्भावे माणवके सिंहोपचार इति, आह च देव सत्यमिदं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व । अह व मती मणुओ च्चिय देवो गुणरिद्धिसंपन्नो || तं न जओ तच्चत्थे सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी । तच्चत्थसीहि सिद्धे माणव सीहोवयारो व्व ॥ [ विशेषाव० १८८० - ९८८१] इति । अपि च देवेसु न संदेहो जुत्तो जं जोइसा सपच्चक्खं । संति क्या वि उवघायाणुग्गहा जगओ ॥ आलयमेत्तं व मई पुरं च तव्वासिणो तह वि सिद्धा । जे ते देव त्ति मया न य निलया निच्चपडिसुण्णा ॥ कोजाइ व किमयं ति होज्ज णिस्संसयं विमाणाई | रयणमयनभोगमणादिह जह विज्जाहरादीणं ॥ [ विशेषाव० १८७०-७२] ति । तेषामसुरादिविशेषः पुनराप्तवचनावसेय इति । ४७ तरुगण-विद्दुम-लवणोपलादयो सासयावत्था ॥ [ विशेषाव० १७५६] इति । इह समानजातिग्रहणं शृङ्गाङ्कुरव्यवच्छेदार्थम्, स हि न समानजातीयो भवतीति। तथा सात्मकमम्भो भौमम्, भूमिखनने स्वाभाविकसम्भवाद्, दर्दुरवत् । अथवा सात्मकमन्तरिक्षोदकम् स्वभावतो व्योमसम्भूतस्य पातात्, मत्स्यवत्, आह च– १. नादव' पासं० जे२ ॥ 5 अथ पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पतिकायिकाः कथमिह जीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः ? उच्छ्वासादिप्राणिधर्म्माणां तेष्वप्रतीयमानत्वादिति, अत्रोच्यते, आप्तवचनादनुमानतश्च, तत्राप्तवचनमिदमेव, अनुमानं त्विदम् - वनस्पतयो विद्रुम - लवणोपलादयश्च स्वाश्रये वर्त्तमानाः सात्मकाः, समानजातीयाङ्कुरसद्भावाद्, अर्शोविकाराङ्कुरवत्, आह च– मंसंकुरु व्व समाणजाइरूवंकुरोवलंभाओ । 20 10 15 25 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भूमिक्खयसाभावियसंभवओ दद्दुरो व्व जलमुत्तं सात्मकत्वेनेति । अहवा मच्छो व सहाववोमसंभूयपायाओ ॥ [ विशेषाव० १७५७ ] त्ति । तथा सात्मको वायुरपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गतित्वाद् गोवत्, इह चापरप्रेरितग्रहणेन, लेष्ट्वादिना व्यभिचारः परिहृतः, एवं तिर्यग्ग्रहणेनोर्ध्वगतिना धूमेनाऽनियतग्रहणेन च 5 नियतगतिना परमाणुनेति । तथा तेजः सात्मकमाहारोपादानात् तद्वृद्धिविशेषोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाच्च पुरुषवद्, आह च अपरप्पेरियतिरियानियमियदिग्गमणओऽनिलो गो व्व । अनलो आहाराओ विद्धि - विगारोवलंभाओ ॥ [ विशेषाव० १७५८ ]त्ति । अथवा पृथिव्यप्तेजोवायवो जीवशरीराणि, अभ्रादिविकारवर्जितमूर्त्तजातीयत्वात्, 10 गवादिशरीरवदिति, अभ्रादिविकारा हि मूर्त्तजातीयत्वे सत्यपि न जीवतनवस्तेन तत्परिहारो हेतुविशेषणम्, आह च तणवोऽणब्भाइविगारमुत्तजाइत्तओऽनिलंताई, भूतानीति प्रक्रमः । सत्थासत्थहयाओ निज्जीव- सजीवरूवाओ ।। [ विशेषाव० १७५९] त्ति । वनस्पतीनां विशेषेण सचेतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयते 15 20 ४८ जम्म- जरा - जीवण - मरण - रोहणा -ऽऽहार- दोहला - ऽऽमयओ । रोग - तिगिच्छाईहि य णारि व्व सचेयणा तरवो ॥ छिप्परोइया छिक्कमेत्तसंकोयओ कुलिंगि व्व । आसयसंचाराओ वियत्त ! वल्लीवियाणाई ॥ [ विशेषाव० १७५३ - १७५४] वित्तति गणधरामन्त्रणमिति । सम्मादयो व साव- प्पबोह- संकोयणादिओऽभिमया । बउलादयो य सद्दाइविसयकालोवलंभाओ ॥ [ विशेषाव० १७५५] ति । सम्मादउ त्ति शम्यादयः, विसयकालोवलंभाओ त्ति विषयाणां गीत- सुरागण्डूषकामिनीचरणताडनादीनां कालो वसन्तादिरिति । एगा भवसिद्धियेत्यादि, भविष्यतीति भवा भाविनी, सा सिद्धिः निर्वृतिर्येषां ते 25 भवसिद्धिका भव्याः, तद्विपरीतास्त्वभवसिद्धिकाः, अभव्या इत्यर्थः । ननु जीवत्वे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । समाने सति को भव्या-ऽभव्ययोर्विशेषः ?, उच्यते, स्वभावकृतः, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीव-नभसोरिव, आह चदव्वाइत्ते तुल्ले जीव-नभाणं सभावओ भेदो । जीवा-ऽजीवाइगओ जह तह भव्वेयरविसेसो ॥ [विशेषाव० १८२३] त्ति । आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः २ । 5 ___एगा सम्मद्दिट्ठियाणमित्यादि, सम्यग् अविपरीता दृष्टिः दर्शनं रुचिस्तत्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः, ते च मिथ्यात्वमोहनीयक्षय-क्षयोपशमोपशमेभ्यो भवन्ति, तथा मिथ्या विपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टिः दर्शनं श्रद्धानं येषां ते मिथ्यादृष्टिकाः, मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनवचना इति भावः, उक्तं चसूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । 10 मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥ [ ] इति । तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिपेषां ते सम्यग्मिथ्यादृष्टिकाः, जिनोक्तभावान् प्रत्युदासीनाः, इह च गम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती जन्तुरनाभोगनिर्वर्त्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनकल्पेन यथाप्रवृत्तकरणेन संपादितान्तःसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्ववेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणा- 15 ऽनिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्तर्मुहूर्त्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा, तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिः, अन्तर्मुहूर्तेन तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकसम्यक्त्वं प्राप्नोति, मिथ्यात्वदलिकवेदनाऽभावात्, यथा हि दवानल: 20 पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्यायतीति, तदेवं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रवस्थानीयं दर्शनमोहनीयमशुद्ध कर्म त्रिधा भवति-अशुद्धमर्धविशुद्धं विशुद्धं चेति, त्रयाणां तेषां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयवशादर्द्धविशुद्धमर्हदृष्टतत्त्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूर्तं यावत्, तत ऊर्ध्वं 25 १. "हूर्तेन तु तस्या पा० जे२ ॥ २. °त्वमाप्नोति पा० जे२ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सम्यक्त्वपुञ्जं मिथ्यात्वपुञ्जं वा गच्छतीति सम्यग्दृष्टि- मिध्यादृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्यो दण्डकः, तत्र च नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्रयमस्ति, अत उक्तम् - एवं जाव थणिएत्यादि, पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः, उक्तं च- च तस सेसया मिच्छ [ जीवसमा०२६] त्ति, चतुर्द्दशगुणस्थानकवन्तस्त्रसाः, स्थावरास्तु 5 मिथ्यादृष्टय एवेत्यर्थः । द्वीन्द्रियादीनां मिश्रं नास्ति, संज्ञिनामेव तद्भावात्, ततस्तेषु सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टितयैव व्यपदेशः । एवं तेइंदियाण वि चउरिंदियाण वि द्वीन्द्रियवद् व्यपदेशद्वयेन वर्गणैकत्वं वाच्यम्, पञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि तद्व्यपदेशः, अत एवोक्तम्- सेसा जहा नेरइय त्ति, तथा वाच्या इति शेषः, दण्डकपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम् 'एगा सम्मद्दिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एवं 10 मिच्छद्दिट्ठियाणं एवं सम्मामिच्छदिट्ठियाणं', एतत्पर्यन्तमाह- जाव एगा सम्मामिच्छेत्यादि ३ । 15 20 ५० एगा कण्हपक्खियाणं इत्यादि, कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणम् - जेसिमवडो पोग्गल परियो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीय ॥ [ श्रावकप्र० ७२] त्ति । एतद्विशेषितोऽन्यो दण्डकः । एगा कण्हलेसाणमित्यादि, लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्म्मबन्धस्थितिविधात्र्यः । [ प्रशम० ३८ ], तथा कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ ] इति । इयं च शरीरनामकर्म्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात्, योगस्य च शरीरनामकर्म्मपरिणतिविशेषत्वात्, यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता– योगपरिणामो लेश्या, १. पुढवि - दग - अगणि- मारुय - साहारणकाईया चउद्धा उ । पत्तेय तसा दुविहा चोद्दस तस सेसया मिच्छा ||२६|| इति सम्पूर्णा गाथा जीवसमासे ॥ २. पक्खीउ त्ति जे१ खं० पा० । ३. “लिशि संश्लेषणे [ ] इत्यस्य धातोर्लेशनं लेश्या । उक्तं च- ताः कृष्ण-नील- कापोत- तैजसी - पद्म - शुक्लनामान: । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ॥ [प्रशम० ३८ ], योगपरिणामश्च लेश्या । कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या ? यस्मात् सयोगिकेवली शुक्लेश्यापरिणामेन विहृत्य अन्तर्मुहूर्ते शेषे योगनिरोधं करोति । ततोऽयोगित्वं [अलेश्यत्वं च] प्राप्नोति । अतोऽवगम्यतेयोगपरिणामो लेश्येति । स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्- कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या ?, यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहृत्यान्तर्मुहूर्ते शेषे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति,अतोऽवगम्यते योगपरिणामो लेश्येति, स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्- कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणाम् [ ] इति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेष: काययोग: १, तथौदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकशरीरव्यापाराहृतवागद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स 5 वाग्योगः २, तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति ३, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति [प्रज्ञापनावृ० १७।२] । अन्ये तु व्याचक्षते- कर्मनिस्यन्दो लेश्या [ ] इति । सा च द्रव्य-भावभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति । इयं च षट्प्रकारा जम्बूफलखादकपुरुषषट्कदृष्टान्ताद् 10 ग्रामघातकचौरपुरुषषट्कदृष्टान्ताद्वा आगमप्रसिद्धादवसेयेति । तत्सूत्राणि सुगमानि, नवरं कृष्णवर्णद्रव्यसाचिव्यात् जाताऽशुभपरिणामरूपा कृष्णा सा लेश्या येषां ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं नीला ईषत्सुन्दररूपा । एवमिति अनेनैव क्रमेण यावत्करणात् 'एगा कवोयलेसाण'मित्यादि सूत्रत्रयं दृश्यम्, तत्र कपोतस्य पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि यानि द्रव्याणि, धूम्राणि इत्यर्थः, तत्साहाय्यजाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा, 15 सा लेश्या येषां ते तथा, तेजः अग्निज्वाला, तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि, लोहितानीत्यर्थः, तत्साचिव्यजाता तेजोलेश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि, पीतानीत्यर्थः तत्साचिव्यजाता पद्मलेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ला, अत्यन्तशुभेति, एतासां च विशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादवसेयमिति । एवं जस्स जइ त्ति मारकाणामिव यस्याऽसुरादेर्या यावत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गणैकत्वं वाच्यम् । 20 प्रवणेत्यादिना तल्लेश्यापरिमाणमाह । अत्र सङ्ग्रहणी शरीराणाम् [ ] इति । तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्य आत्मनो वीर्यपरिणतिविशेष: काययोगः । तथैवौदारिकमैक्रिया-ऽऽहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो यः स वाग्योगः । तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृत हसाचिव्याज्जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति । ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति ॥” इति आ० श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां प्रज्ञापनावृत्तौ सप्तदशे लेश्यापदे द्वितीये उद्देशके ।। १. कपोत जे२ ।। २. "व्याजाता जे१ ॥ ३. उत्तराध्ययनसूत्रे ३४ तमं लेश्याध्ययनम् ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे काऊ नीला किण्हा लेसाओ तिन्नि होंति नरएसु । तइयाए काउनीला पृथिव्यामित्यर्थः नीला किण्हा य रिट्ठाए पञ्चम्यामित्यर्थः॥[ बृहत्सं०२८८] किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवण-वंतरिया । जोइससोहम्मीसाणे तेउलेसा मुणेयव्वा ॥ [ बृहत्सं० १९३] कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसा उ ॥ [बृहत्सं० १९४] पुढवी आउ वणस्सइ बायर पत्तेय लेस चत्तारि । गब्भयतिरियनरेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ [बृहत्सं० ३४२] अयं सामान्यो लेश्यादण्डकः ५ । अयमेव भव्याभव्यविशेषादन्यः- एगा 10 कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणेत्यादि । एवमिति कृष्णलेश्यायामिव छसु वि त्ति कृष्णया सह षट्सु, अन्यथा अन्या पञ्चैवातिदेश्या भवन्तीति, द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्यं भव्याभव्यलक्षणे वाच्ये, यथा ‘एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे'त्यादि ६ । ले श्यादण्डक एव दर्शनत्रयविशेषितोऽन्यः- एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिट्ठियाणमित्यादि, जेसिं जइ दिट्ठीओ त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः 15 सम्यक्त्वाद्यास्तेषां ता वाच्या इति, तत्र एकेन्द्रियाणां मिथ्यात्वमेव, विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्व-मिथ्यात्वे, शेषाणां तिस्रोऽपि दृष्टय इति ७ । लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः- एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणमित्यादि । एते अट्ठ चउवीस दंडय त्ति, ते चैवम् ओहो १, भव्वाईहिं विसेसिओ २, दंसणेहिं ३, पक्खेहिं ४ । 20 लेसाहिं ५, भव्व ६, दंसण ७, पक्खेहिं विसिट्ठलेसाहिं ८॥ [ ] ति । - [सू० ४२] एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एगा अतित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव एगा एक्कसिद्धाणं वग्गणा, एगा अणेक्कसिद्धाणं वग्गणा । एगा पढमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव अणंतसमयसिद्धाणं वग्गणा । [टी०] इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयन्ते- तत्र सिद्धा द्विधा अनन्तरसिद्ध25 परम्परसिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधाः, तद्वर्गणैकत्वमाह- एगा तित्थेत्यादिना, तत्र तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम्, द्रव्यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो १. साण जेसं१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । भौतादिप्रवचनं वा, द्रव्यतीर्थता त्वस्याप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावतस्तरणीयस्य संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात्, सावद्यत्वादस्येति, भावतीर्थं तु सङ्घो यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षादज्ञानादितो भवाच्च भावभूतात् तारयतीति, आह च जं णाण-दसण-चरित्तभावओ तव्विवक्खभावाओ । भवभावओ य तारेइ तेण तं भावओ तित्थं ॥ [विशेषाव० १०३३] ति। 5 त्रिषु वा क्रोधाग्निदाहोपशम-लोभतृष्णानिरास-कर्ममलापनयनलक्षणेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम्, प्राकृतत्वात् तित्थं, आह च दाहोवसमादिसु वा जं तिसु थियमहव दंसणाईसुं । तो तित्थं संघो च्चिय उभयं च विसेसणविसेसं ॥ [विशेषाव० १०३५] ति । 'विशेषणविशेष्य'मिति तीर्थं सङ्घ इति सङ्घो वा तीर्थ मिति । त्रयो वा 10 क्रोधाग्निदाहोपशमादयोऽर्थाः फलानि यस्य तत् त्र्यर्थम्, तित्थं ति पूर्ववत्, आह च कोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव तिन्नि जस्सऽत्था । होइ तियत्थं तित्थं तमत्थसहो फलत्थोऽयं ॥ [विशेषाव० १०३६] ति । अथवा त्रयो ज्ञानादयोऽर्थाः वस्तूनि यस्य तत् त्र्यर्थम्, आह चअहवा सम्मइंसण-नाण-चरित्ताई तिनि जस्सऽत्था । तं तित्थं पुव्वोदियमिहमत्थो वत्थुपज्जाओ ॥ [विशेषाव० १०३७] त्ति । । तत्र तीर्थे सति सिद्धाः निर्वृतास्तीर्थसिद्धा ऋषभसेनगणधरादिवत्, तेषां वर्गणेति १। तथा अतीर्थे तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषाम् २ । एवंकरणात् ‘एगा तित्थगरसिद्धाणं वग्गणे'त्यादि दृश्यम्, तीर्थमुक्तलक्षणम्, तत् कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया वेति तीर्थकराः,आह च- 20 अणुलोम-हेउ-तस्सीलयाय जे भावतित्थमेयं तु । कुव्वंति पगासंति उ ते तित्थगरा हियत्थकरा ॥ [विशेषाव० १०४७] इति । तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा ऋषभादिवत्, तेषाम् ३, अतीर्थकरसिद्धा: सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धा गौतमादिवत्, तेषाम् ४, तथा स्वयम् आत्मना बुद्धाः तत्त्वं ज्ञातवन्तः स्वयम्बुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा, तेषाम् 25 १. अर्थेषु त्रिषु तिष्ठ जे१ ॥ 15 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ५, तथा प्रतीत्यैकं किञ्चित् वृषभादिकं अनित्यतादिभावनाकारणं वस्तु बुद्धा: बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा, तेषाम् ६, स्वयम्बुद्ध-प्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधि-श्रुत-लिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि- स्वयम्बुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव बोधिः, प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया, करकण्ड्वादीनामिवेति । उपधिः स्वयम्बुद्धानां 5 पात्रादिदशविधः, तद्यथा पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायट्ठवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइं ५ रयत्ताणं च ६ गोच्छओ ७ पायनिज्जोगो ॥ तिन्नेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोत्ति १२॥[ओघनि० ६६८-६६९] त्ति। प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवज इति । स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते 10 अनियमः, प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव । लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीति । बुद्धबोधिताः आचार्यादिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धाः, तेषाम् ७ । एतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां ८ पुंलिङ्गसिद्धानां ९ नपुंसकलिङ्गसिद्धानां १० स्वलिङ्गसिद्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया ११ अन्यलिङ्गसिद्धानां परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धानां 15 १२ गृहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभृतीनाम् १३ एकसिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकसिद्धानाम् १४ अनेकसिद्धानामेकसमये व्यादीनाम् अष्टशतान्तानां सिद्धानामेका वर्गणेति १५ । तत्रानेकसमयसिद्धानां प्ररूपणागाथा बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा । चुलसीई छन्नई दुरहियमद्रुत्तर सयं च ॥ [ बृहत्सं० २४७] 20 एतद्विवरणम्- यदा एकसमयेन एकादय उत्कर्षेण द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयेऽपि समये द्वात्रिंशद्, एवं नैरन्तर्येण अष्टौ समयान् यावत् द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति, तत ऊर्ध्वमवश्यमेवान्तरं भवतीति, यदा पुनस्त्रयस्त्रिंशत आरभ्य अष्टचत्वारिंशदन्ताः एकसमयेन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं सप्त समयान् यावत् सिध्यन्ति, ततोऽवश्यमेवान्तरं भवतीति । एवं यदा एकोनपञ्चाशतमादिं कृत्वा यावत् षष्टिरेकसमयेन सिध्यन्ति तदा 25 निरन्तरं षट् समयान् सिध्यन्ति, तदुपरि अन्तरं समयादि भवति । एवमन्यत्रापि योज्यम्, १. निशीथभाष्ये १३९३-९४ तथा ५७८७-८८ । २. शदारभ्य पा० जे२ ॥ ३. 'यादिर्भ° पा० ख० ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४३] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । यावत् अष्टशतमेकसमयेन यदा सिध्यति तदाऽवश्यमेव समयाद्यन्तरं भवतीति ।। __ अन्ये तु व्याचक्षते- अष्टौ समयान् यदा नैरन्तर्येण सिद्धिस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिध्यत्युत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति, द्वितीयसमये जघन्येनैकः उत्कृष्टतोऽष्टचत्वारिंशत्, तदेवं सर्वत्र जघन्येनैकः समय उत्कृष्टतो गाथार्थोऽयं भावनीयः- बत्तीसेत्यादि । ___ एवमनन्तरसिद्धानां तीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासत्तिव्यपदेश्यत्वेन पञ्चदशविधानां 5 वर्गणैकत्वमुक्तम्, इदानीं परम्परसिद्धानामुच्यते, तत्र अपढमसमयसिद्धाणमित्यादित्रयोदशसूत्री, न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्वितीयसमयवर्तिनः, तेषाम् । एवं जाव त्ति करणाद् ‘दुसमयसिद्धाणं ति-चउ-पंच-छ-सत्त-ऽट्ठ-नव-दससंखेज्जा-ऽसंखेज्जसमयसिद्धाण'मिति दृश्यम्, तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विसमयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्ये नाप्रथमसमयाभिधानं विशेषतो 10 द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा, क्वचित् पढमसमयसिद्धाणं ति पाठः, तत्र अनन्तर-परम्परसमयसिद्धलक्षणं भेदमकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसमयसिद्धा एव व्याख्यातव्याः, व्यादिसमयसिद्धास्तु यथाश्रुता एवेति । [सू० ४३] [१] एगा परमाणुपोग्गलाणं वग्गणा, एवं जाव एगा अणंतपएसियाणं पोग्गलाणं वग्गणा १। एगा एगपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं 15 वग्गणा जाव एगा असंखेजपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा २। एगा एगसमयट्ठितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाव असंखेजसमयट्टितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा ३। एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाव एगा असंखेजगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा, एगा अणंतगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एवं वण्ण-गंध-रस-फासा भाणियव्वा जाव एगा 20 अणंतगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा ४। [२] एगा जहन्नपतेसियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा उक्कस्सपतेसियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा अजहन्नुक्कस्सपतेसियाणं खंधाणं वग्गणा १, एवं जहन्नोगाहणगाणं उक्कस्सोगाहणगाणं अजहन्नुकस्सोगाहणगाणं २, जहन्नट्ठितियाणं १. 'एगा अपढमसमयसिद्धाणं वग्गणा एवं दुसमयसिद्धाणं ति-चउ-पंच-छ-सत्त-ऽट्ठ-नव-दस-संखेजाऽसंखेजसमयसिद्धाणं अणंतसमयसिद्धाणं वगणा' इति त्रयोदश सूत्राणि ज्ञेयानि ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उक्कस्सट्ठितियाणं अजहन्नुक्कस्सद्वितीयाणं ३, जहन्नगुणकालगाणं उक्कस्सगुणकालयाणं अजहन्नुक्कस्सगुणकालगाणं, एवं वण्ण-गंध-रस-फासाणं वग्गणा भाणियव्वा, जाव एगा अजहन्नुक्कस्सगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा ४। [टी०] इतो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानाश्रित्य पुद्गलवर्गणैकत्वं चिन्त्यते- एगा 5 परमेत्यादि, पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति विशेषयतिपरमाणवो निष्प्रदेशास्ते च पुद्गलाश्चेति विग्रहः, तेषाम्, एवंकरणात् 'दुपएसियाणं खंधाणं ति-चउ-पंच-छ-सत्त-ऽट्ठ-नव-दस-संखेज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाण'मिति दृश्यमिति। कृता द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, अतः क्षेत्रतः क्रियते- एगा एगपएसेत्यादि, एकस्मिन् 10 प्रदेशे क्षेत्रस्यावगाढाः अवस्थिता एकप्रदेशावगाढाः, तेषाम्, ते च परमाण्वादयोऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धान्ताः स्युः, अचिन्त्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य, यथा पारदस्यैकेन कर्षेण चरिताः सुवर्णस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति, पुनर्वामिताः प्रयोगतः सप्तैव त इति । जाव एगा असंखेज्जपएसोगाढाणं ति, अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्ति पुद्गलानाम्, लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्याप्यसङ्ख्येयप्रदेशत्वादिति । कालत आह15 एगा एगसमएत्यादि, एकं समयं यावत् स्थितिः परमाणुत्वादिना एकप्रदेशावगाढादित्वेन एकगुणकालादित्वेन वाऽवस्थानं येषां ते एकसमयस्थितिकाः, तेषामिति, इह च अनन्तसमयस्थितेः पुद्गलानामभावाद् असंखेज्जसमयट्टितीयाणमित्युक्तमिति । भावतः पुद्गलानाह- एगा एगगुणेत्यादि, एकेन गुणो गुणनं ताडनं यस्य स एकगुणः, एकगुणः कालो वर्णो येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्येन कृष्णतर-कृष्णतमादीनां येभ्य 20 आरभ्य प्रथममुत्कर्षप्रवृत्तिर्भवतीति भावः, तेषाम् । एवं सर्वाण्यपि भावसूत्राणि षष्ट्यधिक द्विशतप्रमाणानि वाच्यानि २६०, विंशत: कृष्णादिभावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति। साम्प्रतं भङ्गयन्तरेण द्रव्यादिविशेषितानां जघन्यादिभेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणैकत्वमाह- एगा जहन्नप्पएसियाणमित्यादि, जघन्याः सर्वाल्पाः प्रदेशा: १. चारिता: जे२ ॥ २. °त एवाह जे१ ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४४] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम्। परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः, व्यणुकादय इत्यर्थः, स्कन्धाः अणुसमुदायाः, तेषाम्, उत्कृषन्तीत्युत्कर्षाः उत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसङ्ख्याः परमानन्ताः प्रदेशा: अणवस्ते सन्ति येषां ते उत्कर्षप्रदेशिकाः, तेषाम्, जघन्याश्च उत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः, न तथा ये ते अजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकाः, तेषाम्, एतेषां चानन्तवर्गणत्वेऽप्यजघन्योत्कर्ष- 5 शब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणत्वमिति । जहन्नोगाहणगाणं ति अवगाहन्ते आसते यस्यां साऽवगाहना क्षेत्रप्रदेशरूपा, सा जघन्या येषां ते स्वार्थिकप्रत्ययाज्जघन्यावगाहनकाः, तेषाम्, एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, उत्कर्षावगाहनकानामसङ्ख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां सङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशावगाढानामित्यर्थः। जघन्या जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते जघन्यस्थितिकाः, एकसमय- 10 स्थितिकाः इत्यर्थः, तेषाम्, उत्कर्षा उत्कर्षवत्सङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा, तेषाम्, असङ्ख्यातसमयस्थितिकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठ्यम्, जघन्येन जघन्यसङ्ख्याविशेषेणैकेनेत्यर्थः गुणो गुणनं ताडनं यस्य स तथा विधः कालो वर्णो येषां ते जघन्यगुणकालकाः, तेषाम्, एवमुत्कर्षगुणकालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठ्यम्, एवं भावसूत्राण्यपि षष्टि वनीयानीति । 15 [सू० ४४] एगे जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं जाव अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाधिए परिक्खेवेणं । [टी०] सामान्यस्कन्धवर्गणैकत्वाधिकारादेवाजघन्योत्कर्षप्रदेशिकस्याजघन्योत्कर्षप्रदेशावगाढस्य स्कन्धविशेषस्यैकत्वमाह - एगे जंबुद्दीवेत्यादि । जम्ब्वा वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपः जम्बूद्वीपः इति नाम, द्वीप इति सामान्यम्, यावद्ग्रहणादेवं 20 सूत्रं द्रष्टव्यम्-‘सव्वब्भंतरए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साइं दोन्नि सयाई सत्तावीसाइं तिन्नि कोसा अट्ठावीसं धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए १. 'दया: पा० ॥ २. 'शकस्या जे१ ॥ ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ प्रथमे वक्षस्कारे प्रारम्भ एव समानप्रायमिदं सूत्रं वर्तते ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परिक्खेवेणं'ति, सुगममेतत्, उक्तविशेषणश्च जम्बूद्वीप एक एव, अन्यथा अनेकेऽपि ते सन्तीति। [सू० ४५] एगे समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसाए तित्थगराणं चरिमतित्थगरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । 5 [टी०] अनन्तरं जम्बूद्वीप उक्त इति तत्प्ररूपकस्य भगवतो महावीरस्यैकतामाह एगे समणे इत्यादि, एकः असहायः, अस्य च सिद्ध इत्यादिना सम्बन्धः, श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, भज्यत इति भगः समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च - ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशस: श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥ [ ] इति ।। 10 स विद्यते यस्येति भगवान्, तथा विशेषेणेरयति मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वीरयति वा रागादिशत्रून् प्रति पराक्रमयति इति वीरः, निरुक्तितो वा वीरो, यदाह विदारयति यत् कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥ [ ] इतरवीरापेक्षया महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः, भाष्योक्तं तुतिहुयणविक्खायजसो महाजसो नामओ महावीरो । विक्वंतो य कसायाइसत्तुसेन्नप्पराजयओ ॥ ईरेइ विसेसेण व खिवइ कम्माइं गमयइ सिवं वा । गच्छइ अ तेण वीरो स महं वीरो महावीरो ॥ [ विशेषाव० १०५९-१०६०] त्ति । 20 अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतेस्तीर्थकराणां मध्ये चरमस्तीर्थकरः सिद्धः कृतार्थो जातः, बुद्धः केवलज्ञानेन बुद्धवान् बोध्यम्, मुक्तः कर्मभिः, यावत्करणात् ‘अंतकडे' अन्तो भवस्य कृतो येन सोऽन्तकृतः, ‘परिनिव्वुडे' परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः, किमुक्तं भवति ? सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रक्षीणानि प्रहीणानि वा यस्य स सर्वदुःखप्रक्षीणः सर्वदुःखप्रहीणो वा, सर्वत्र बहुव्रीहौ क्तान्तस्य यः परनिपातः 25 स आहिताग्न्यादिदर्शनादिति । इह च तीर्थकरेष्वेतस्यैवैकत्वं मोक्षगमने, न तु ऋषभादीनाम्, दशसहस्रादिपरिवृतत्वेन तेषां सिद्धत्वाद्, उक्तं च१. दृश्यतां पृ० ३५ टि० १॥ 15 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४६-४८] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । एगो भगवं वीरो तेत्तीसाए सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहिं सएहिं नेमी उ सिद्धिगओ ॥ [आव० नि० ३०८] इत्यादि । [सू० ४६] अणुत्तरोववातिया णं देवा णं एगं रतणिं उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता। [टी०] एकाकी वीरो निर्वृत इत्युक्तम्, निर्वृतक्षेत्रासन्नानि चानुत्तरविमानानीति तन्निवासिदेवमानमाह- अणुत्तरेत्यादि, अनुत्तरत्वादनुत्तराणि विजयादिविमानानि, तेषु 5 य उपपातो जन्म स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्ते, शंकारौ वाक्यालङ्कारे, देवाः सुरा एकां रनिं हस्तं यावत् ‘क्रोशं कौटिल्येन नदी तिवदिह द्वितीया, उडुंउच्चत्तेणं ति वस्तुनो ह्यनेकधोच्चत्वम्, ऊर्द्धस्थितस्यैकमपरं तिर्यस्थितस्यान्यत् गुणोन्नतिरूपम्, तत्रेतरापोहेनोर्ध्वस्थितस्य यदुच्चत्वं तदूर्दोच्चत्वमित्यागमे रूढमिति तेनोर्दोच्चत्वेन, अनुस्वारः प्राकृतत्वात्, प्रज्ञप्ताः प्ररूपिताः सर्वविद्भिरिति, अथवा अनुत्तरोपपातिकानां 10 देवानामूर्दोच्चत्वेन प्रमाणमिति शेषः, एका रत्निः प्रज्ञप्तेति व्याख्येयमिति । [सू० ४७] अदाणक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते १। चित्ताणक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते २। सातीणक्खते एगतारे पन्नत्ते ३। [टी०] देवाधिकारादेव नक्षत्रदेवानाम् अद्दानक्खत्ते इत्यादिना कण्ठ्येन सूत्रत्रयेण तारैकत्वमुक्तम्, तारा च ज्योतिर्विमानरूपेति, कृत्तिकादिषु च नक्षत्रेष्विदं ताराप्रमाणम्- 15 छ ६ प्पंच ५ तिन्नि ३ एगं १ चउ ४ तिग ३ रस ६ वेय ४ जुयल २ जुयलं च २ । इंदिय ५ एगं १ एगं १ विसय ५ ऽग्गि ३ समुद्द ४ बारसगं १२ ॥ चउरो ४ तिन्नि य ३ तिय ३ तिय ३ पंच ५ सत्त ७ बे २ बे २ भवे तिया तिन्नि ३-३-३।। रिक्खे तारपमाणं जइ तिहितुल्लं हयं कज्जं ॥ [ ] ति ।।। इह चैकस्थानकानुरोधान्नक्षत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तम्, शेषनक्षत्राणां तु 20 प्रायोऽग्रेतनाध्ययनेषु तद् वक्ष्यति, यस्तु क्वचिद्विसंवादस्ताराप्रमाणस्य स तथाविधप्रयोजनेषु तिथिविशेषस्य नक्षत्रविशेषयुक्तस्याशुभत्वसूचनार्थत्वेनोक्तगाथयोर्मतान्तरभूतत्वान्न बाधक इति । [सू० ४८] एगपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पन्नत्ता, एवमेगसमयट्टितीया। एगगुणकालगा पोग्गला अणंता पन्नत्ता, जाव एगगुणलुक्खा पोग्गला अणंता 25 पन्नत्ता । ॥ एगट्ठाणं समत्तं ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] तारा पुद्गलरूपेति पुद्गलस्वरूपमभिधातुमाह- एगपएसोगाढेत्यादि सुगमम्, नवरमेकत्र प्रदेशे क्षेत्रस्यांशविशेषे अवगाढा: आश्रिता एकप्रदेशावगाढाः, ते च परमाणुरूपाः स्कन्धरूपा वेति, एवं वर्ण ५गन्ध २ रस ५ स्पर्श ८ भेदविशिष्टाः पुद्गला वाच्याः, अत एवोक्तम्-जाव एगगुणलुक्खेत्यादि । 5 तदेवमनुगमोऽभिहितः । अधुना कथञ्चित् प्रत्यवस्थानावसरे भणितमपि नयद्वारमनुयोगद्वारक्रमायातमिति पुनर्विशेषेणोच्यते । तत्र नैगमादयः सप्त नयाः, ते च ज्ञाननये क्रियानये चान्तर्भवन्तीति ताभ्यामध्ययनमिदं विचार्यते, तत्र ज्ञानचरणात्मकेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञाननयो ज्ञानमेव प्रधानमिच्छति, ज्ञानाधीनत्वात् सकलपुरुषार्थसिद्धेः, यतः10 विज्ञप्तिः फलदा पुंसाम्, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसम्भवाद् ॥ [ ] इति । अत ऐहिका-ऽऽमुष्मिकफलार्थिना ज्ञान एव यत्नो विधेय इति । क्रियानयस्तु क्रियामेवेच्छति, तस्या एव पुरुषार्थसिद्धावुपयुज्यमानत्वात्, तथा चोक्तम् क्रियैव फलदा पुंसाम्, न ज्ञानं फलदं मतम् । 15 यत: स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ [ ] इति । अत ऐहिका-ऽऽमुष्मिकफलार्थिना क्रियैव कार्येति । जिनमतं तु नानयोः प्रत्येक पुरुषार्थसाधनता, यत उक्तम्हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ ॥ [आव०नि० १०१] त्ति । संयोग एव चानयोः फलसाधकत्वम्, यत उक्तम्संजोगसिद्धीए फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ [आव०नि० १०२] इति । भाष्यकृताऽप्युक्तम् नाणाहीणं सव्वं नाणणओ भणति किं थ किरियाए । 25 किरियाए करणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥ [विशेषाव० ३५९१] ति । अथवा सप्तापि नैगमादयः सामान्यनये विशेषनये चान्तर्भवन्ति, तत्र सामान्यनयः Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४८] प्रथममध्ययनम् एकस्थानकम् । प्रक्रान्ताध्ययनोक्तानामात्मादिपदार्थानामेकत्वमेवाभिमन्यते, सामान्यवादित्वात् तस्य, स हि ब्रूते - एकं नित्यं निरवयवं निष्क्रियं सर्वगतं च सामान्यमेवास्ति, न विशेषः, निःसामान्यत्वात्, इह यन्निः सामान्यं तन्नास्ति यथा खरविषाणम्, यच्चास्ति न तन्निः सामान्यं यथा घट इति, तथा सामान्यतोऽन्येऽनन्ये वा विशेषाः प्रतिप ( पा ? ) द्येरन् ?, यद्यन्ये ननूक्तमसन्तस्ते निःसामान्यत्वात् खपुष्पवत्, अथानन्ये तदा सामान्यमात्रमेव, तत्र वा 5 विशेषोपचारः, न चोपचारेणार्थतत्त्वं चिन्त्यत इति, आह च एक्कं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं । निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसो खपुष्पं व ॥ [ विशेषाव० ३२ ] तथा सामन्नाओ विसेसो अन्नोऽनन्नो व्वं होज्ज ? जड़ अन्नो । ६१ सो नत्थि खपुष्पं पि वणन्नो सामन्नमेव तयं ॥ [ विशेषाव० ३४] ति । तदेवं सामान्यनयाभिप्रायेणात्मादीनामेकत्वमेव । विशेषनयमतेन तु तेषामनेकत्वमेव, स हि ब्रूते— विशेषेभ्यः सामान्यं भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, न भिन्नम् अत्यन्तानुपलम्भात् खपुष्पवत्, तथा न सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमस्ति, दाह - पाक - स्नान - पाना - ऽवगाहवाह-दोहादिसर्वसंव्यवहाराभावात् खरविषाणवत्, अथाभिन्नं तदा विशेषमात्रं वस्तु, न नाम सामान्यमस्ति, तेषु वा सामान्यमात्रोपचार इति, न चोपचारेणार्थतत्त्वं चिन्त्यत 15 इति । आह च न विसेसत्थंतरभूयमत्थि सामन्नमाह ववहारो । उवलंभव्ववहाराभावाओ खरविसाणं व ॥ [ विशेषाव० ३५ ] ति । तदेवमात्मादीनामनेकत्वमेवेति । ननु पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात् किं तत्त्वं प्रतिपत्तव्यमिति ?, उच्यते, स्यादेकत्वं स्यादनेकत्वमिति, तथाहि - सम- 20 विषमरूपत्वाद्वस्तुनः समरूपापेक्षया एकत्वं विषमरूपापेक्षया त्वनेकत्वमिति, उक्तं चवस्तुन एव समानः परिणामो यः स एव सामान्यम् । विपरीतस्तु विशेषो वस्त्वेकमनेकरूपं तद् ।। [ ] इति । इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे प्रथममध्ययनमेकस्थानकाभिधानं समाप्तमिति । श्लोकाः ११८७ । १. व इति विशेषावश्यकभाष्ये ।। २. लो०१२८७ जे१ । ग्रंथाग्रं श्लोकः १९८७ । नमः सर्वज्ञाय । खं० ॥ 10 25 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । [सू० ४९] जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं, तंजहा-जीव च्चेव अजीव च्चेव । 5 [१] तस च्चेव थावर च्चेव १, सजोणिय च्चेव अजोणिय च्चेव २, साउय च्चेव अणाउय च्चेव ३, सइंदिय च्चेव अणिंदिय च्चेव ४, सवेयगा चेव अवेयगा चेव ५, सरूवि चेव अरूवि चेव ६, सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव ७, संसारसमावन्नगा चेव असंसारसमावन्नगा चेव ८, सासया चेव असासया चेव ९। 10 [२] आगासे चेव नोआगासे चेव । धम्मे चेव अधम्मे चेव । बंधे चेव मोक्खे चेव । पुन्ने चेव पावे चेव । आसवे चेव संवरे चेव । वेयणा चेव निजरा चेव । [टी०] व्याख्यातमेकस्थानकाख्यं प्रथममध्ययनम्, अतः सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव द्विस्थानकाख्यं द्वितीयमध्ययनमारभ्यते, अस्य चायं विशेषसम्बन्धः- इह जैनानां 15 सामान्यविशेषात्मकं वस्तु, तत्र सामान्यमाश्रित्य प्रथमाध्ययने आत्मादिवस्त्वेकत्वेन प्ररूपितमिह तु विशेषाश्रयणात् तदेव द्विविधत्वेन प्ररूप्यत इत्यने न सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तानि च प्रथमाध्ययनवत् द्रष्टव्यानि, यश्च विशेषः स स्वबुद्ध्याऽवगन्तव्यः, केवलमस्य चतुरुद्देशकात्मकस्याध्ययनस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमिदमुच्चारणीयम्- जदत्थि 20 णमित्यादि । अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः- पूर्वं ह्युक्तम् ‘एकगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः', तत्र किमनेकगुणरूक्षा अपि पुद्गला भवन्ति येन ते एकगुणरूक्षतया विशिष्यन्त इति ? उच्यते, भवन्त्येव, यतो जदत्थीत्यादि, परम्परासूत्रसम्बन्धस्तु श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमेक आत्मे'त्यादि, अथेदमपरमाख्यातं जदत्थीत्यादि। संहितादिचर्चः पूर्ववत् । यद् जीवादिकं वस्तु अस्ति विद्यते, णमिति वाक्यालङ्कारे, क्वचित् पाठो १. (विशेष्यन्ते ?) ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । जदत्थिं च णं ति, तत्रानुस्वार आगमिकः, चशब्दः पुनरर्थः, एवं चास्य प्रयोगः - अस्त्यात्मादि वस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वाद्, यच्चास्ति लोके पञ्चास्तिकायात्मके, लोक्यते प्रमीयत इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा, तत् सर्वं निरवशेषं द्वयोः पदयोः स्थानयोः पक्षयोर्विवक्षितवस्तु तद्विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति । दुपडोयारं ति क्वचित् पठ्यते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तत् 5 द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थः । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासे, जीव च्चेव अजीव च्वेव त्ति, जीवाश्चैवाऽजीवाश्चैव, प्राकृतत्वात् संयुक्तपरत्वेन ह्रस्वः, चकारौ समुच्चयार्थी, एवकाराववधारणे, तेन च राश्यन्तरापोहमाह । नोजीवाख्यं राश्यन्तरमस्तीति चेत्, नैवम्, सर्वनिषेधकत्वे नोशब्दस्य नोजीवशब्देनाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते, न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति । 10 च्चेय इति वा एवकारार्थः, चिय च्चेय एवार्थ [ ] इति वचनात्, ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एवं सर्वत्र । अथवा यदस्ति अस्तीति यत्, सन्मात्रं यदित्यर्थः, तद् द्विपदावतारं द्विविधम्, जीवाजीवभेदादिति, शेषं तथैव । - अथ त्रसेत्यादिकया नवसूत्र्या जीवतत्त्वस्यैव भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति । तत्र 15 त्रसनामकर्मोदयतस्त्रस्यन्तीति त्रसाः द्वीन्द्रियादयः, स्थावरनामकर्मोदयाच्च तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः पृथिव्यादयः । सह योन्या उत्पत्तिस्थानेन सयोनिका : संसारिणः, तद्विपर्यासभूताः अयोनिकाः सिद्धाः । सहाऽऽयुषा वर्तन्त इति सायुषः, तदन्येऽनायुषः सिद्धाः । एवं सेन्द्रियाः संसारिणः, अनिन्द्रियाः सिद्धादयः । सवेदकाः स्त्रीवेदाद्युदयवन्तः, अवेदकाः सिद्धादयः । सह रूपेण मूत्र्त्या वर्त्तन्त इति समासान्ते 20 इन्प्रत्यये सति सरूपिण: संस्थान - वर्णादिमन्तः, सशरीरा इत्यर्थः, न रूपिणोऽरूपिणो मुक्ताः । सपुद्गलाः कर्म्मादिपुद्गलवन्तो जीवाः, अपुद्गलाः सिद्धाः । संसारं भवं समापन्नका आश्रिताः संसारसमापन्नकाः संसारिणः, तदितरे सिद्धाः । शाश्वताः सिद्धाः जन्म-मरणादिरहितत्वाद्, अशाश्वताः संसारिणस्तद्युक्तत्वादिति । ६३ १. चेय जे१ । २. ' सान्तेन्द्र जे२ । 'सान्त इन्प्र' जे१ । 'सान्ते इनः प्र° खं० । " अत इनि ठनौ" पा० ५।२।११५ ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ एवं जीवतत्त्वस्य द्विपदावतारं निरूप्याजीवतत्त्वस्य तं निरूपयन्नाह- आगासेत्यादि। आकाशं व्योम, नोआकाशं तदन्यद् धर्मास्तिकायादि । धर्मः धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भगुणः, तदन्योऽधर्मः अधर्मा स्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः । सविपक्षबन्धादितत्त्वसूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति । . 5 [सू० ५०] दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-जीवकिरिया चेव अजीवकिरिया चेव। जीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मत्तकिरिया चेव मिच्छत्तकिरिया चेव । अजीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इरियावहिया चेव संपराइगा चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ तंजहा-काइया चेव आधिकरणिया चेव । 10 काइया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अणुवरयकायकिरिया चेव दुप्पउत्तकायकिरिया चेव । आधिकरणिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहासंजोयणाधिकरणिया चेव णिव्वत्तणाधिकरणिया चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पाओसिया चेव पारियावणिया चेव। पातो सिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपाओसिया चेव 15 अजीवपाओसिया चेव । पारियावणिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहासहत्थपारियावणिया चेव परहत्थपारियावणिया चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पाणातिवायकिरिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया चेव । पाणातिवायकिरिया दविहा पन्नत्ता, तंजहासहत्थपाणातिवायकिरिया चेव परहत्थपाणातिवायकिरिया चेव । 20 अपच्चक्खाणकिरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव अजीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आरंभिया चेव पारिग्गहिया चेव । आरंभिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवआरंभिया चेव अजीवआरंभिया चेव । एवं पारिग्गहिया वि । 25 दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-मायावत्तिया चेव मिच्छादसणवत्तिया चेव । मायावत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-आयभाववंकणता चेव Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ६५ परभाववंकणता चेव । मिच्छादसणवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहाऊणाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव तव्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-दिट्ठिया चेव पुट्ठिया चेव । दिट्ठिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवदिट्ठिया चेव अजीवदिट्ठिया चेव । एवं पुट्टिया वि। . 5 दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पाडुच्चिया चेव सामंतोवणिवाइया चेव। पाडुच्चिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपाडुच्चिया चेव अजीवपाडुच्चिया चेव । एवं सामंतोवणिवाइया वि । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-साहत्थिया चेव णेसत्थिया चेव। साहत्थिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवसाहत्थिया चेव 10 अजीवसाहत्थिया चेव । एवं णेसत्थिया वि । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आणवणिया चेव वेतारणिया- चेव, जहेव णेसत्थिया । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-अणाभोगवत्तिया चेव अणवकंखवत्तिया चेव । अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अणाउत्तआइयणता 15 चेव अणाउत्तपमजणता चेव । अणवकंखवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-आयसरीरअणवकंखवत्तिया चेव परसरीरअणवकंखवत्तिया चेव । दो किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पिजवत्तिया चेव दोसवत्तिया चेव। पेजवत्तिया किरिया दविहा पन्नत्ता, तंजहा-मायावत्तिया चेव लोभवत्तिया चेव। दोसवत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कोहे चेव माणे चेव। 20 [टी०] बन्धादयश्च क्रियायां सत्यामात्मनो भवन्तीति क्रियानिरूपणायाह- दो किरियेत्यादिसूत्राणि षट्त्रिंशत्, करणं क्रिया क्रियत इति वा क्रियेति, ते च द्वे प्रज्ञप्ते प्ररूपिते जिनैः, तत्र जीवस्य क्रिया व्यापारो जीवक्रिया, तथा अजीवस्य पुद्गलसमुदायस्य यत् कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रियेति, इह चेवशब्दस्य चेयशब्दस्य वा १. इतः क० प्रतेः प्रारम्भः, किन्तु आदौ कतिचन पत्राणि महता अंशेन त्रुटितान्येव सन्ति । मध्ये मध्येऽपि बहूनि पत्राणि न सन्ति ।। २. चेयशब्दस्य चेवशब्दस्य वा पाठान्तरे प्राकृ जे१ । चेयशब्दस्य चेवशब्दस्य वा प्राकृ' खं० ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पाठान्तरे प्राकृतत्वाद् द्विर्भाव इति, चेवेत्ययं समुदायमात्र एव प्रतीयते ‘अपिचे' त्यादिवदिति १। जीवकिरियेत्यादि, सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानम्, तदपि जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिथ्यात्वक्रियाऽपि, नवरं मिथ्यात्वम् अतत्त्वश्रद्धानम्, तदपि 5 जीवव्यापार एवेति । अथवा सम्यग्दर्शन-मिथ्यात्वयोः सतोर्ये भवतः ते सम्यक्त्व मिथ्यात्वक्रिये इति २।। ___ अजीवकिरियेत्यादि, तत्र ईरियावहिय त्ति ईरणमीर्या गमनम्, तद्विशिष्टः पन्था ईर्यापथः, तत्र भवा ऐर्यापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदम्, प्रवृत्तिंनिमित्ततस्तु यत् केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं 10 सा ऐर्यापथिकी क्रिया, इह जीवव्यापारेऽप्यजीवप्रधानत्वविवक्षयाऽजीवक्रियेयमुक्ता । कर्मविशेषो वैर्यापथिकी क्रियोच्यते, यतोऽभिहितम् - इरियावहिया किरिया दुविहा बज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जाव पढमसमये बद्धा बीयसमये वेइया सा बद्धा पुट्ठा वेड्या णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं चावि भवती [आव० हारि० ] ति । तथा सम्परायाः कषायाः, तेषु भवा सांपरायिकी, सा ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा 15 जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीवक्रियेति, सा च सूक्ष्मसम्परायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति ३। पुनरन्यथा द्वे- दो किरियेत्यादि । काइया चेव त्ति कायेन निर्वृत्ता कायिकी कायव्यापारः, तथा अहिगरणिया चेव त्ति अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम् अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खड्गादि, तत्र भव 20 आधिकरणिकीति ४। __कायिकी द्विधा- अणुवरयकायकिरिया चेव त्ति अनुपरतस्य अविरतस्र सावद्यात् मिथ्यादृष्टे : सम्यग्दृष्टेर्वा कायक्रि या उत्क्षेपादिलक्षणा कर्म बन्धनिबन्धनमनुपरतकायक्रिया, तथा दुप्पउत्तकायकिरिया चेव त्ति दुष्प्रयुक्त दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टा-ऽनिष्टेन्द्रियविषयप्राप्तौ मनाक् सङ्ग 25 निर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रियमाश्रित्याशुभमनःसङ्कल्पद्वारेणापवर्गमार्गं प्रति दुर्व्यवस्थित १. परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः, कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रियेति ५/ आधिकरणिकी द्विधा, तत्र संजोयणाहिगरणिया चेव त्ति यत् पूर्वं निर्वर्तितयोः खड्ग-तन्मुष्ट्यादिकयोरर्थयोः संयोजनं क्रियते सा संयोजनाधिकरणिकी, तथा णिव्वत्तणाहिकरणिया चेव त्ति यच्चादितस्तयोर्निर्वर्त्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकीति ६। पुनरन्यथा द्वे- पाउसिया चेव त्ति प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी, तथा 5 पारियावणिया चेव त्ति परितापनं ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकीति ७। आद्या द्विधा- जीवपाउसिया चेव त्ति जीवे प्रद्वेषाज्जीवप्राद्वेषिकी, तथा अजीवपाउसिया चेव त्ति अजीवे पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकीति ८। द्वितीयाऽपि द्विधा- सहत्थपारियावणिया चेव त्ति स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य 10 वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी, तथा परहत्थपारियावणिया चेव त्ति परहस्तेन तथैव तत् कारयतः परहस्तपारितापनिकीति ९। __ अन्यथा द्वे- पाणाइवायकिरिया चेव त्ति प्रतीता, तथा अपच्चक्खाणकिरिया बेव त्ति अप्रत्याख्यानम् अविरतिः, तन्निमित्तः कर्मबन्धोऽप्रत्याख्यानक्रिया, सा वाविरतानां भवतीति १०। 15 __ आद्या द्वेधा- सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव त्ति स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदादिना परप्राणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, तथा रहत्थपाणाइवायकिरिया चेव त्ति परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रियेति द्वितीयापि द्विधा- जीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव त्ति जीवविषये प्रत्या- 20 थानाभावेन यो बन्धादिव्यापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया, तथा अजीव चक्खाणकिरिया चेव त्ति यदजीवेषु मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा जीवाप्रत्याख्यानक्रियेति १२। पुनरन्यथा द्वे- आरंभिया चेव त्ति आरम्भणमारम्भः, तत्र भवा आरम्भिकी, -पारिग्गहिया चेव त्ति परिग्रहे भवा पारिगहिकीति १३। 25 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आद्या द्वेधा - जीवआरंभिया चेव त्ति यज्जीवानारभमाणस्य उपमृद्नतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी, तथा अजीवारंभिया चेव त्ति यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकीति १४। एवं पारिग्गहिया चेव त्ति आरम्भिकीवद् द्विधेत्यर्थः, जीवाजीवपरिग्रहप्रभवत्वात् 5 तस्या इति भावः १५ । ६८ 15 पुनरन्यथा द्वे - मायावत्तिया चेव त्ति माया शाठ्यं प्रत्ययो निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा, मिच्छादंसणवत्तिया चेव त्ति मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति १६ । आद्या द्वेधा- आयभाववंकणया चेव त्ति आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वङ्कनता 10 वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता, वङ्कनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रिया व्यापारत्वात्, तथा परभाववंकणया चेव त्ि परभावस्य वङ्कनता वञ्चनता या कूटलेखकरणादिभिः सा परभाववङ्कनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयम्- तं तं भावमायरड़ जेण परो वंचिज्जइ कूडलेहकरणाईहिं [ आव० हरि०] ति १७ २ द्वितीयाऽपि द्वेधा - ऊणाइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चेव त्ति ऊनं स्वप्रमाणाद्धीनमतिरिक्तं ततोऽधिकमात्मादि वस्तु, तद्विषयं मिथ्यादर्श नमूनातिरिक्त मिथ्यादर्शनम्, तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययेति । तथाहि - कोऽपि मिथ्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गुष्ठपर्वमात्रं यवमात्रं श्यामाकतन्दुलमात्रं वेति हीनतयाऽवैति, तथाऽन्यः पञ्चधनुः शतिकं 20 सर्वव्यापकं वेत्यधिकतयाऽभिमन्यते, तथा तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चेव त्ति तस्माद् ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं नास्त्येवात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति १८ । पुनरन्यथा द्वे - दिट्टिया चेव त्ति दृष्टेर्जाता दृष्टिजा, अथवा दृष्टं दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका, दर्शनार्थं या गतिक्रिया दर्शनाद् वा यत् कर्मोदेति १. द्विविधे पा० २ ॥ २. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने पडिक्कमामि पंचहिं किरियाहिं इत्यस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः ।। सा दृष्टिजा दृष्टिका वा, तथा पुट्ठिया चेव त्ति पृष्टिः पृच्छा, ततो जाता पृष्टिजा, प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्टं प्रश्नः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टिः स्पर्शनं ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति १९/ __ आद्या द्वेधा- जीवदिट्ठिया चेव त्ति या अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतः, तथा अजीवदिट्टिया चेव त्ति अजीवानां चित्रकर्मादीनां दर्शनार्थं गच्छतो या सा 5 अजीवदृष्टिकेति २० एवं पुट्ठिया वि त्ति एवमिति जीवाजीवभेदेन द्विधैव, तथाहि- जीवमजीवं वा राग-द्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका जीवस्पृष्टिका वा अजीवपृष्टिका अजीवस्पृष्टिका वेति २१॥ पुनरन्यथा द्वे- पाडुच्चिया चेव त्ति बाह्य वस्तु प्रतीत्य आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी, 10 तथा सामन्तोवणिवाइया चेव त्ति समन्तात् सर्वत उपनिपातो जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकीति २२। - आद्या द्वेधा- जीवपाडुच्चिया चेव त्ति जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा, तथा अजीवपाडुच्चिया चेव त्ति अजीवं प्रतीत्य यो राग-द्वेषोद्भवस्तज्जो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकीति २३।। 15 द्वितीयापि द्विविधेत्यतिदिशन्नाह- एवं सामन्तोवणिवाइया वि त्ति, तथाहिकस्यापि षण्डो रूपवानस्ति, तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी, तथा रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकीति २४।। अन्यथा वा द्वे- साहत्थिया चेव त्ति स्वहस्तेन निर्वृत्ता स्वाहस्तिकी, तथा 20 नेसत्थिया चेव त्ति, निसर्जनं निसृष्टम्, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी, निसृजतो यः कर्मबन्ध इत्यर्थः, निसर्ग एव वेति २५। तत्र आद्या द्वेधा- जीवसाहत्थिया चेव त्ति यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी, तथा अजीवसाहत्थिया चेव त्ति यच्च १. द्विधेत्य खं० । द्विधैवेत्य' खसं० पा० जे२ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन खड्गादिना जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकीति । अथवा स्वहस्तेन जीवं ताडयत एका, अजीवं ताडयतोऽन्येति २६। द्वितीयाऽपि जीवा-ऽजीवभेदैवेत्यतिदिशन्नाह- एवं नेसत्थिया चेव त्ति, तथाहि- राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिर्निसर्जनं सा जीवनैसृष्टिकीति, यत्तु काण्डादीनां 5 धनुरादिभिः सा अजीवनैसृष्टिकीति । अथवा गुर्बादौ जीवं शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो ददत एका, अजीवं पुनरेषणीयभक्तपानादिकं निसृजतो त्यज़तोऽन्येति २७) पुनरन्यथा द्वे- आणवणिया चेव त्ति आज्ञापनस्य आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी, सैवाऽऽज्ञापनिका, तज्जः कर्मबन्धः आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी । तथा वेयारणिया चेव त्ति विदारणं विचारणं वितारणं वा 10 स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारणीत्यादि वाच्यमिति २८.. एते च द्वे अपि द्वेधा जीवाजीवभेदादिति, तथाहि- जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञोपनी जीवानायनी वा, एवमेवाजीवविषया अजीवाज्ञापनी अजीवानायनी वेति २९। तथा जीवमजीवं वा विदारयति स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीवं वाऽसमानभाषेषु 15 विक्रीणति सति द्वैभाषिको विचारयति परियच्छावेइ त्ति भणितं होति, अथवा जीवं पुरुषं वितारयति प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्धयैव वाऽजीवं भणत्ये तादृशमेतदिति यत् सा जीववेयारणियाऽजीववेयारणिया व त्ति । एतत् सर्वमतिदेशेनाह – जहेव नेसत्थिय त्ति ३० 20 अन्यथा वा द्वे- अणाभोगवत्तिया चेव त्ति अनाभोग: अज्ञानं प्रत्ययो निमित्तं यस्याः सा, तथा अणवकंखवत्तिया चेव त्ति अनवकाङ्क्षा स्वशरीराद्यनपेक्षत्वम्, सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकाङ्क्षाप्रत्ययेति ३१। आद्या द्विधा- अणाउत्तआइयणया चेव त्ति अनायुक्तः अनाभोगवान् अनुपयुक्त इत्यर्थः, तस्याऽऽदानता वस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता, तथा १. ज्ञप जे१, एवमग्रेऽपि सर्वत्र ।। २. ज्ञप जेमू१, ज्ञाप जेसं१ ॥ ३. तुलना- “अहवा जीवमजीवं वा अभासिएसु विक्केमाणो दोभासिओ व विदारेइ परियच्छावेइ त्ति भणियं होई" - आव०० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५१] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । अणाउत्तपमज्जणया चेव त्ति अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता, इह च ताप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतत्वेन आदानादीनां भावविवक्षया वेति ३२॥ द्वितीयाऽपि द्विविधा- आयसरीरेत्यादि, तत्रात्मशरीरानवकाङ्क्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः, तथा परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतो द्वितीयेति ३३। 5 दो किरियेत्यादि त्रीणि सूत्राणि कण्ठ्यानि, नवरं प्रेम रागो माया-लोभलक्षणः, द्वेषः क्रोध-मानलक्षण इति ३६। यदत्र न व्याख्यातं तत् सुगमत्वादिति । [सू० ५१] दुविहा गरहा पन्नत्ता, तंजहा-मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति । अहवा गरहा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-दीहं पेगे अद्धं गरहति, रहस्सं पेगे 10 अद्धं गरहति । [टी०] एताश्च क्रियाः प्रायो गर्हणीया इति गर्हामाह- दविहा गरहेत्यादि, विधानं विधा, द्वे विधे भेदौ यस्याः सा द्विविधा, गर्हणं गर्दा दुश्चरितं प्रति कुत्सा, सा च स्व-परविषयत्वेन द्विविधा, साऽपि मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृष्टेश्च द्रव्यगर्हा, अप्रधानगर्हेत्यर्थः, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थत्वाद्, उक्तं च 15 अप्पाहन्ने वि इहं कत्थइ दिह्रो हु दव्वसद्दो त्ति । अंगारमद्दओ जह दव्वायरिओ सयाऽभव्वो ॥ [पञ्चा० ६।१३] त्ति । सम्यग्दृष्टेस्तूपयुक्तस्य भावगर्हेति चतुर्द्धा गर्हणीयभेदाद् बहुप्रकारा वा, सा चेह करणापेक्षया द्विविधोक्ता, तथा चाह- मणसा वेगे गरहइ त्ति मनसा चेतसा वाशब्दो विकल्पार्थो अवधारणार्थो वा, ततो मनसैव न वाचेत्यर्थः, कायोत्सर्गस्थो दुर्मुख- 20 सुमुखाभिधानपुरुषद्वयनिन्दिता-ऽभिष्टुतस्तद्वचनोपलब्धसामन्तपरिभूतस्वतनयराजवार्ता मनसा समारब्धपुत्रपरिभवकारिसामन्तसङ्ग्रामो वैकल्पिक प्रहरणक्षये स्वशीर्षकग्रहणार्थव्यापारितहस्तसंस्पृष्टलुञ्चितमस्तकस्ततः समुपजातपश्चात्तापानलज्वालाकलापदन्दह्यमानसकलकर्मेन्धनो राजर्षिप्रसन्नचन्द्र इव एकः कोऽपि साध्वादिगर्हते जुगुप्सते, गीमिति गम्यते, तथा वचसा वा वाचा वा, अथवा वचसैव 25 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे न मनसा भावतो दुश्चरिताविरक्तत्वाज्जनरञ्जनार्थं गर्हाप्रवृत्ताङ्गारमर्द्दकादिप्रायसाधुवत् aisa र्हत इति । अथवा मणसा वेगे त्ति इह अपिः, स च सम्भावने, तेन सम्भाव्यते अयमर्थः- अपि मनसैको गर्हते अन्यो वचसेति । अथवा मनसाऽपि न केवलं वचसा एको गर्हते । तथा वचसाऽपि न केवलं मनसा, एक इति स एव 5 गर्हते, उभयथाप्येक एव गर्हत इति भावः । अन्यथा गर्हाद्वैविध्यमाह— अहवेत्यादि । अथवेति पूर्वोक्तद्वैविध्यप्रकारापेक्षः, द्विविधा गर्दा प्रज्ञप्तेति प्रागिव, अपिः सम्भावने, तेन अपि दीर्घा बृहतीम् अद्धां कालं यावदेकः कोऽपि गर्हते गर्हणीयमाजन्मापीत्यर्थः, अन्यथा वा दीर्घत्वं विवक्षया भावनीयम्, आपेक्षिकत्वात् दीर्घह्रस्वयोरिति । एवमपि ह्रस्वाम् अल्पां यावदेकोऽन्य 10 इति । अथवा दीर्घामेव यावत् ह्रस्वामेव यावदिति व्याख्येयमपेरवधारणार्थत्वादिति । एक एव वा द्विधा कालभेदेन गर्हते भावभेदादिति । अथवा दीर्घं ह्रस्वं वा कालमेव गत इति । 15 ७२ 25 [सू० ५२] दुविहे पच्चक्खाणे पन्नत्ते, तंजहा - मणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खति । अहवा पच्चक्खाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - दीहं पेगे अद्धं पच्चक्खाति, रहस्सं पेगे अद्धं पच्चखाति । [टी०] अतीते गर्थे कर्मणि गर्हा भवति, भविष्यति तु प्रत्याख्यानम्, उक्तं चअइयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामी [ पाक्षिकसू० ] ति । प्रत्याख्यानमाहदुविहे पच्चक्खाणे इत्यादि, प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यानं कथनं प्रत्याख्यानम्, 20 विधि - निषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थः तच्च द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेर्वाऽनुपयुक्तस्य कृतचतुर्मासमांसप्रत्याख्यानायाः पारणकदिनमांसदानप्रवृत्ताया राजदुहितुरिवेति, भावप्रत्याख्यानमुपयुक्तसम्यग्दृष्टेरिति, तच्च देश- सर्वमूलगुणोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि करणभेदाद् द्विविधम्, आह च- मनसा वैकः प्रत्याख्याति वधादिकं निवृत्तिविषयीकरोति, शेषं प्रागिवेति । प्रकारान्तरेणापि तदाह- अहवेत्यादि सुगमम् । [सू० ५३] दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयग्गं दीहमद्धं " Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ 10 [सू० ५३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । चाउरंतसंसारकंतारं वीतिवतेजा, तंजहा-विजाए चेव चरणेण चेव । [टी०] ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानादि मोक्षफलमत आह- दोहिं ठाणेहीत्यादि, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां गुणाभ्यां सम्पन्नो युक्तो नास्यागारं गेहमस्तीत्यनगारः साधुः, नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं तत्, अवदग्रं पर्यन्तः, तन्नास्ति यस्य सामान्यजीवापेक्षया तदनवदग्रं तत्, दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घाद्धं तत्, मकार आगमिकः, दी? 5 वाऽध्वा मार्गो यस्मिंस्तद्दीर्घाध्वं तच्चतुरन्तं चतुर्विभागं नरकादिगतिविभागेन, दीर्घत्वं प्रकटादित्वादिति, संसारकान्तारं भवारण्यं व्यतिव्रजेद् अतिक्रामेत्, तद्यथा- विद्यया चैव ज्ञानेन चैव चरणेन चैव चारित्रेण चैवेति, इह च संसारकान्तारव्यतिव्रजनं प्रति विद्या-चरणयोर्योगपद्ये नैव कारणत्वमवगन्तव्यम्, एकै कशो विद्याक्रिययोरैहिकार्थेष्वप्यकारणत्वात् । नन्वनयोः कारणतया अविशेषाभिधानेऽपि प्रधानं ज्ञानमेव न चरणम्, अथवा ज्ञानमेवैकं कारणं न तु क्रिया, यतो ज्ञानफलमेवासौ । किञ्च, यथा क्रिया ज्ञानस्य फलं तथा शेषमपि यत् क्रियानन्तरमवाप्यते, बोधकालेऽपि यज्ज्ञेयपरिच्छेदात्मकं यच्च रागादिविनिग्रहमयमेषामविशेषेण ज्ञानं कारणम्, यथा मृत्तिका घटस्य कारणं भवन्ती तदन्तरालवर्त्तिनां पिण्ड-शिवक-स्थास-कोश-कुशूलादीनामपि कारणतामापद्यते तथेह 15 ज्ञानमपि भवाभावस्य तदन्तरालवर्त्तिनां च तत्त्वपरिच्छेद-समाधानादीनां कारणमिति, यच्चानुस्मरणमात्रमन्त्रपूतविषभक्षण-नभोगमनादिकमनेकविधं फलमुपलभ्यते साक्षात्तदपि क्रियाशून्यस्य ज्ञानस्य, यथा चैतद् दृष्टफलं तथा अदृष्टमप्यनुमीयत इति, आह च आह पहाणं नाणं न चरित्तं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिया सा वि हु नाणप्फलं जम्हा ॥ जह सा नाणस्स फलं तह सेसं पि तह बोहकाले वि । नेयपरिच्छेयमयं रागादिविणिग्गहो जो य॥ जं च मणोचिंतियमंतपूयविसभक्खणादि बहुभेयं । फलमिह तं पच्चक्खं किरियारहियस्स नाणस्स ॥ [विशेषाव० ११३३-११३५] त्ति । अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तम्- 'ज्ञानमेव प्रधानम्, ज्ञानमेव चैकं कारणम्, न क्रिया, 25 १. “अतः समृद्ध्यादौ वा।८।१।४४। समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरकारस्य दीर्घो वा भवति । सामिद्धी समिद्धी। पासिद्धी पसिद्धी । पायडं पयर्ड ।... ... चतरन्तं चाउरतं...." - प्राकतव्या० टी० ॥ २. संभवन्ती जे१ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे यतो ज्ञानफलमेवासौ' इति, तदयुक्तम्, यतो यत एव ज्ञानात् क्रिया ततश्चेष्टफलप्राप्तिरत एवोभयमपि कारणमिष्यते, अन्यथा हि ज्ञानफलं क्रियेति क्रियापरिकल्पनमनर्थकम्, ज्ञानमेव हि क्रियाविकलमपि प्रसाधयेत्, न च साधयति, क्रियाऽभ्युपगमात्, ज्ञानक्रियाप्रतिपत्तौ च ज्ञानं परम्परयोपकुरुते अनन्तरं च क्रिया यतस्तस्मात् क्रियैव प्रधानतरं 5 युक्तं कारणम्, नाप्रधानमकारणं चेति, अथ युगपदुपकुरुतस्तत उभयमपि युक्तम्, न युक्तमप्राधान्यं क्रियाया अकारणत्वं चेति । यः पुनरकारणत्वमेव क्रियायाः प्रतिपद्यते तं प्रतीदं विशेषेणोच्यते- क्रिया हि साक्षात्कारित्वात् कारणमन्त्यम्, ज्ञानं तु परम्परोपकारित्वादनन्त्यम्, अतः को हेतुर्यदन्त्यं विहायानन्त्यं कारणमिष्यते ?, अथ सहचारिताऽङ्गीक्रियते अनयोः, अतोऽपि हि ज्ञानमेव कारणं न क्रियेत्यत्र न हेतुरस्तीति। 10 यच्चोक्तम्-‘बोधकालेऽपी'त्यादि, तत्र ज्ञेयपरिच्छेदो ज्ञानमेवेति रागादिशमश्च संयमक्रियैव ज्ञानकारणा भवेदिति प्रतिपद्यामहे, किन्तु तत्फले भववियोगाख्येऽयं विचारो यदुत किं तत् ज्ञानस्य क्रियायास्तदुभयस्य वा फलमिति ?, तत्र न ज्ञानस्यैव, क्रियाफलत्वात् तस्य, नापि के वलक्रियायाः, क्रियामात्रत्वात्, उन्मत्तकक्रि यावत्, ततः पारिशेष्याज्ज्ञानसहितक्रियायाः इति । यच्चोक्तम् ‘अनुस्मृतिज्ञानमात्रान्मन्त्रादीनां 15 फलमुपलभ्यते', तत्र ब्रूमः-मन्त्रेष्वपि परिजपनादिक्रियायाः साधनभावो न मन्त्रज्ञानस्य। प्रत्यक्षविरुद्धमिदमिति चेद् यतो दृष्टं हि क्वचित् मन्त्रानुस्मृतिमात्रज्ञानादिष्टफलमिति, अत्रोच्यते, न मन्त्रज्ञानमात्रनिर्वर्त्य तत्फलम्, तज्ज्ञानस्याक्रियत्वात्, इह यदक्रियं न तत् कार्यस्य निर्वर्तकं दृष्टं यथाऽऽकाशकुसुमम्, यच्च निवर्तकं तदक्रियं न भवति, यथा कुलालः, न चेदं प्रत्यक्षविरुद्धम्, न हि ज्ञानं साक्षात् फलमुपहरदुपलक्ष्यत इति। 20 अथ यदि न मन्त्रज्ञानकृतं तत् फलं ततः कुतः पुनस्तदिति ? तत्समयनिबद्धदेवताविशेषेभ्य इति ब्रूमः, तेषां हि सक्रियत्वेन क्रियानिवर्त्यमेतत्, न मन्त्रज्ञानसाध्यमिति । आह च तो तं कत्तो ? आचार्य:- भण्णति, तस्समयनिबद्धदेवओवहियं । किरियाफलं चिय जओ न मंतणाणोवओगस्स ॥ [विशेषाव० ११४१] त्ति । ननु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः [ तत्त्वार्थ० १।१] इति श्रूयते, इह तु ज्ञान१. पृ० ७३ पं० १३ ।। २. °लभ्यत जे१ ॥ ३. कृतं फलं जे१ खं० ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५४] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । क्रियाभ्यामसावुक्त इति कथं न विरोधः ?, अथ द्विस्थानकानुरोधादेवं निर्देशेऽपि न विरोधः, नैवम्, अवधारणगर्भत्वात् निर्देशस्येति, अत्रोच्यते, विद्याग्रहणेन दर्शनमप्यविरुद्धं द्रष्टव्यम्, ज्ञानभेदत्वात् सम्यग्दर्शनस्य, यथा हि अवबोधात्मकत्वे सति मतेरनाकारत्वादवग्रहेहे दर्शनं साकारत्वाच्चाऽवाय-धारणे ज्ञानमुक्तमेवं व्यवसायात्मकत्वे सत्यवायस्य रुचिरूपोंऽशः सम्यग्दर्शनम्, अवगमरूपोंऽशोऽवाय एवेति न विरोधः, 5 अवधारणं तु ज्ञानादिव्यतिरेकेण नान्य उपायो भवव्यवच्छेदस्येति दर्शनार्थमिति । [सू० ५४] दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव १। दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलं बोधिं बुज्झेजा, तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव २। दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं 10 पव्वएजा, तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव ३॥ एवं णो केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा ४, णो केवलेणं संजमेणं संजमेजा ५, नो केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा ६, नो केवलमाभिणिबोधियणाणं उप्पाडेजा ७, एवं सुयनाणं ८, ओहिनाणं ९, मणपज्जवनाणं १०, केवलनाणं ११॥ [टी०] विद्या-चरणे च कथमात्मा न लभत इत्याह- दो ठाणाइमित्यादि- 15 सूत्राण्येकादश, द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी अपरियाणित्त त्ति अपरिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया यथैतावारम्भ-परिग्रहावनाय तथा अलं ममाभ्यामिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोरनिविण्ण इत्यर्थः, अपरियाइत्त त्ति क्वचित् पाठः, तत्र स्वरूपतस्तावपर्यादायाऽगृहीत्वेत्यर्थः, आत्मा नो नैव केवलिप्रज्ञप्तं जिनोक्तं धम्मं श्रुतधर्मं लभेत श्रवणतया श्रवणभावेन, श्रोतुमित्यर्थः, 20 तद्यथा- आरम्भाः कृष्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपमर्दास्तान्, परिग्रहा धर्मसाधनव्यतिरेकेण धन-धान्यादयस्तान्, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि व्यक्त्यपेक्षं बहुवचनम्, अवधारण-समुच्चयौ स्वबुद्ध्या नेयाविति। केवलां शुद्धां बोधिं दर्शनं सम्यक्त्वमित्यर्थो बुध्येत अनुभवेत्, अथवा केवलया बोध्येति विभक्तिपरिणामात् बोध्यं जीवादीति गम्यते बुध्येत श्रद्दधीतेति। मुण्डो द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतः कषायाद्यपनयनेन भूत्वा संपद्य अगाराद् 25 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे गेहान्निष्क्रम्येति गम्यते, केवलामित्यस्येह सम्बन्धात् केवलां परिपूर्णां विशुद्धां वाऽनगारितां प्रव्रज्यां प्रव्रजेत् यायादिति । एवमिति यथा प्राक् तथोत्तरवाक्येष्वपि दो ठाणा इत्यादि वाक्यं पठनीयमित्यर्थः, ब्रह्मचर्येण अब्रह्मविरमणेन वासो रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो निवासो ब्रह्मचर्यवासस्तावसेत् कुर्यादिति, संयमेन 5 पृथिव्यादिरक्षणलक्षणेन संयमयेदात्मानमिति, संवरेण आश्रवनिरोधलक्षणेन संवृणुयादाश्रवद्वाराणीति गम्यते, केवलं परिपूर्णं सर्वस्वविषयग्राहकम् आभिणिबोहियनाणं ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽसंशयस्वभावत्वाद् बोधो वेदनमभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकम्, तच्च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञानम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमोघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयम् उप्पाडेज्ज त्ति उत्पादयेदिति, 10 तथा एवमित्यनेनोत्तरपदेषु नो केवलं उप्पाडेज्ज त्ति द्रष्टव्यम्, सुयनाणं ति श्रूयते तदिति श्रुतं शब्द एव, स च भावश्रुतकारणत्वात् ज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुतग्रन्थानुसारि ओघतः सर्वद्रव्यासर्व पर्यायविषयमक्षरश्रुतादिभेदमिति । तथा ओहिनाणं ति अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन् वेत्यवधिः, अवधीयते इत्यधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यवधिः अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादिति, अवधानं 15 वाऽवधिर्विषयपरिच्छे दनमिति, अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम् इन्द्रिय मनोनिरपेक्षमात्मनो रूपिद्रव्यसाक्षात्करणमिति । तथा मणपज्जवनाणं ति मनसि मनसो वा पर्यवः परिच्छेदः स एव ज्ञानम्, अथवा मनसः पर्यवाः पर्यया: पर्याया वा विशेषाः अवस्था मनःपर्यवादयस्तेषां तेषु वा ज्ञानं मन:पर्यवज्ञानम्, एवमितरत्रापि, समयक्षेत्रगतसंज्ञिमन्यमानमनोद्रव्यसाक्षात्कारीति । केवलनाणं ति केवलम् असहायं 20 मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलकं वा आवरणमलाभावात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा अनन्यसदृशत्वादनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति । [सू० ५५] दो ठाणाइं परियाइत्ता आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव, एवं जाव केवलनाणमुप्पाडेजा। 25 दोहं ठाणेहिं आया केवलिपनत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तंजहा-सोच्च .१. वसेत जे१ खं० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ 10 [सू० ५६-५७] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । च्चेव अभिसमेच्च च्चेव जाव केवलनाणं उप्पाडेजा । [टी०] कथं पुनर्द्धर्मादीनि विद्या-चरणस्वरूपाणि प्राप्नोतीत्याह- दो ठाणाइमित्याद्येकादशसूत्री सुगमा । धादिलाभ एव पुनः कारणान्तरद्वयमाहदोहीत्यादि सुगमम्, केवलं श्रवणतया श्रवणभावेन, सोच्च च्चेव त्ति ह्रस्वत्वादि प्राकृतत्वादेव, श्रुत्वा आकर्ण्य, तस्यैवोपादेयतामिति गम्यते, अभिसमेत्य समधिगम्य, 5 तामेवावबुध्येत्यर्थः, उक्तं च सद्धर्मश्रवणादेव नरो विगतकिल्बिषः । ज्ञाततत्त्वो महासत्त्वः परं संवेगमागतः ॥ धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा सञ्जातेच्छोऽत्र भावतः । दृढं स्वशक्तिमालोच्य ग्रहणे संप्रवर्तते ॥ [धर्मबिन्दौ ३१-२] इति । एवं बोहिं बुज्झेज्जेत्यादि यावत् केवलनाणं उप्पाडेज्ज त्ति । [सू० ५६] दो समाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-ओसप्पिणी समा चेव उस्सप्पिणी समा चेव। [टी०] केवलज्ञानं च कालविशेषे भवतीति तमाह- दो समाओ इत्यादि । समा कालविशेषः, शेष सुगमम् । 15 [सू० ५७] दुविहे उम्माए पन्नत्ते, तंजहा-जक्खावेसे चेव, मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं । तत्थ णं जे से जक्खावेसे से णं सुहवेयतराए चेव सुहविमोयतराए चेव । तत्थ णं जे से मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेव ।। [टी०] केवलज्ञानं मोहनीयोन्मादक्षय एव भवत्यतः सामान्येनोन्मादं निरूपयन्नाह- 20 दुविहे उम्माए इत्यादि, उन्मादो ग्रहो बुद्धिविप्लव इत्यर्थः, यक्षावेशः देवाधिष्ठितत्वम्, ततो यः स यक्षावेश एवेत्येकः, मोहनीयस्य दर्शनमोहनीयादेः कर्मण उदयेन यः सोऽन्य इति, तत्रेति तयोर्मध्ये योऽसौ यक्षावेशेन भवति स सुखवेद्यतरक एव मोहजनितग्रहापेक्षयाऽकृच्छानुभवनीयतर एव, अनैकान्तिकानात्यन्तिकभ्रमरूपत्वादस्येति, अतिशयेन सुखं विमोच्यते त्याज्यते यः स सुखविमोच्यतरकश्चैव, मन्त्र- 25 मूलादिमात्रसाध्यत्वादस्येति, अथवा अत्यन्तं सुखापेयः सुखापनेयः सुखापेयतरः, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो देहिनं स सुखविमोचतरक इति । मोहजस्तु तद्विपरीतः, ऐकान्तिकात्यन्तिकभ्रमस्वभावतयाऽत्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनाऽनन्तभवकारणत्वात् तथाऽऽन्तरकारणजनितत्वेन मन्त्राद्यसाध्यत्वात् कर्मक्षयोपशमादिनैव साध्यत्वादिति, अत एवोक्तम्- दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेव त्ति, अतिशयेन 5 दुःखवेद्य एव दुःखविमोच्य एव चासाविति । [सू० ५८] दो दंडा पन्नत्ता, तंजहा-अट्ठादंडे चेव अणट्ठादंडे चेव । नेरइयाणं दो दंडा पन्नत्ता, तंजहा-अट्ठादंडे य अणट्ठादंडे य । एवं चउवीसादंडओ जाव वेमाणियाणं । [टी०] उन्मादात् प्राणी प्राणातिपातादिरूपे दण्डे प्रवर्त्तते दण्डभाजनं वा भवतीति 10 दण्डं निरूपयन्नाह- दो दंडे त्यादि, दण्डः प्राणातिपातादिः, स चाऽर्थाय इन्द्रियादिप्रयोजनाय यः सोऽर्थदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्थदण्ड इति । उक्तरूपमेव दण्ड सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयन्नाह- णेरइयाणमित्यादि । एवमिति नारकवदर्थदण्डानर्थदण्डाभिलापेन चतुर्विंशतिदण्डको नेयः, नवरं नारकस्य स्वशरीररक्षार्थं परस्योपहननमर्थदण्डः, प्रद्वेषमात्रादनर्थदण्डः, पृथिव्यादीनामनाभोगेनाप्याहारग्रहणे 15 जीववधभावादर्थदण्डोऽन्यथा त्वनर्थदण्डः, अथवोभयमपि भवान्तरार्थदण्डादिपरिणतेरिति। [सू० ५९] दुविहे दंसणे पन्नत्ते, तंजहा-सम्मइंसणे चेव मिच्छादंसणे चेव १। सम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-णिसग्गसम्मइंसणे चेव अभिगमसम्मइंसणे चेव २। णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पडिवाति चेव अपडिवाति 20 चेव ३। अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव ४। मिच्छादसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अभिगहियमिच्छादसणे चेव अणभिगहियमिच्छादंसणे चेव ५। अभिगहियमिच्छादंसणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहासपज्जवसिते चेव अपज्जवसिते चेव ६। एवमणभिगहितमिच्छादंसणे वि ७। टी०] सम्यग्दर्शनादित्रयवतामेव च दण्डो नास्तीति त्रितयनिरूपणेच्छुर्दर्शनं सामान्येन १. चासौ । जे१सं० ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः। तावन्निरूपयति, तत्र दुविहे दंसणे इत्यादिसूत्राणि सप्त सुगमान्येव, नवरं दृष्टिदर्शनं तत्त्वेषु रुचिः, तच्च सम्यग् अविपरीतं जिनोक्तानुसारि, तथा मिथ्या विपरीतमिति । सम्मइंसणे इत्यादि, निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरम्, अभिगमोऽधिगमो गुरूपदेशादिरिति, ताभ्यां यत्तत् तथा, क्रमेण मरुदेवी-भरतवदिति । निसग्गेत्यादि, प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति सम्यग्दर्शनमौपशमिकं क्षायोपशमिकं च, अप्रतिपाति 5 क्षायिकम्, तत्रैषां क्रमेण लक्षणम्- इहौपशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादौपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिथ्यादृष्टिरकृतसम्यक्त्वमिथ्यात्व-मिश्राभिधानशुद्धा-ऽशुद्धोभयरूपमिथ्यात्वपुद्गलत्रिपुञ्जीक एव अक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तस्यौपशमिकं भवतीति, कथम् ? इह यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनीयमुदीर्णं तदनुभवेनैवोपक्षीणमन्यच्च मन्दपरिणामतया 10 नोदितमतस्तदन्तर्मुहूर्त्तमात्रमुपशान्तमास्ते, विष्कम्भितोदयमित्यर्थः, तावन्तं कालमस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभ इति, आह चउवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुञ्जी अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥ खीणम्मि उदिन्नम्मी अणुदिज्जंते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ [विशेषाव० ५२९-५३०] त्ति। अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालत्वादेवास्य प्रतिपातित्वम् । यच्चानन्तानुबन्ध्युदये औपशमिकसम्यक्त्वात् प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदौपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्येव, जघन्यतः समयमात्रत्वादुत्कृष्ट तस्तु षडावलिकामानत्वादस्ये ति, तथा इह यदस्य मिथ्यादर्शनदलिकमुदीर्णं तदुपक्षीणं यच्चानुदीर्णं तदुपशान्तम्, उपशान्तं नाम 20 विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च, तदिह क्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं मायोपशमिक मित्युच्यते । नन्वौ पशमिकेऽपि क्षयश्चोपशमश्च तथेहापीति कोऽनयोर्विशेषः ?, उच्यते, अयमेव हि विशेष: यदिह वेद्यते दलिकं न तत्र, इह हि प्रायोपशमिके पूर्वशमितमनु समयमुदेति वेद्यते क्षीयते च, औपशमिके दयविष्कम्भणमात्रमेव, आह च ____ 25 15 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मिच्छत्तं जमुइन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं वेइज्जतं खओवसमं ॥ [विशेषाव० ५३२] ति । एतदपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वादुत्कर्षतः षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वाच्च प्रतिपातीति । यदपि च क्षपकस्य सम्यग्दर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते 5 तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपात्येवेति । तथा मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् क्षायिकमिति, आह च खीणे दंसणमोहे तिविहम्मि वि भवनियाणभूयम्मि । निप्पच्चवायमउलं सम्मत्तं खाइयं होइ ॥ [ ] त्ति । इदं तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति, अत एव सिद्धत्वेऽप्यनुवर्तत इति । 10 मिच्छादंसणे इत्यादि, अभिग्रहः कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदभिग्रहिकम्, तद्विपरीतम् अनभिग्रहिकमिति । अभिग्गहिएत्यादि, अभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं सपर्यवसानं सम्यक्त्वप्राप्तौ, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तेः, तच्च मिथ्यात्वमात्रमप्यतीतकालनयानुवृत्त्याऽभिग्रहिकमिति व्यपदिश्यते, अनभिग्रहिकं भव्यस्य सपर्यवसितमितरस्यापर्यवसितमिति, अत एवाह- एवं अणभीत्यादि । 15 [सू० ६०] दुविहे नाणे पन्नत्ते, तंजहा-पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव । पच्चक्खे नाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-केवलनाणे चेव णोकेवलनाणे चेव २। केवलणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-भवत्थकेवलनाणे चेव सिद्धकेवलणाणे चेव ३। भवत्थकेवलणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ४। सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पन्नत्ते, 20 तंजहा-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अपढमसमयसजोगि भवत्थकेवलणाणे चेव ५। अहवा चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ६। एवं अजोगिभवत्थकेवलनाणे वि ७-८। सिद्धकेवलणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अणंतरसिद्धकेवलणाणे चेव परंपरसिद्धकेवलनाणे चेव ९। अणंतरसिद्धकेवलनाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा25 एक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे चेव अणेक्काणंतरसिद्धकेवलणाणे चेव १०॥ १. मिच्छदसणे इत्यादि पामू० । मिच्छइंसणेत्यादि जे१ । मिच्छादंसणेत्यादि खं० ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । परंपरसिद्धकेवलणाणे दुविहे पन्नत्ते तंजहा-एक्कपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव अणेक्कपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव ११। णोकेवलणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहाओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव १२। ओहिणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहाभवपच्चइए चेव खतोवसमिते चेव १३। दोण्हं भवपच्चइए पन्नत्ते, तंजहादेवाणं चेव नेरइयाणं चेव १४। दोण्हं खओवसमिते पन्नत्ते, तंजहा-मणुस्साणं 5 चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव १५। मणपजवणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-उज्जुमति चेव विउलमति चेव १६। परोक्खे णाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-आभिणिबोहियणाणे चेव सुयनाणे चेव १७। आभिणिबोहियणाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुतनिस्सिते चेव असुतनिस्सिते चेव १८। सुतनिस्सिते दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे चेव वंजणोग्गहे चेव १९। असुयनिस्सिते 10 वि एमेव २०। सुयनाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अंगपविढे चेव अंगबाहिरे चेव २१। अंगबाहिरे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-आवस्सए चेव आवस्सयवतिरित्ते चेव २२। आवस्सयवतिरित्ते दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-कालिते चेव उक्कालिते चेव २३॥ [टी०] दर्शनमभिहितमथ ज्ञानमभिधीयते, तत्र च दुविहे नाणे इत्यादीनि 15 आवस्सगवइरित्ते दुविहे इत्यादिसूत्रावसानानि त्रयोविंशतिः सूत्राणि सुगमानि । नवरं ज्ञानं विशेषावबोधः, अश्नाति भुङ्क्ते अश्नुते वा व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्षः आत्मा, तं प्रति यद् वर्त्तते इन्द्रिय-मनोनिरपेक्षत्वेन तत् प्रत्यक्षम् अव्यवहितत्वेनाऽर्थसाक्षात्करणदक्षमिति, आह च अक्खो जीवो अत्थव्वावण-भोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ वट्टइ नाणं जं पच्चक्खं तमिह तिविहं ॥ [विशेषाव० ८९] ति । परेभ्यः अक्षापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रिय-मनोभ्योऽक्षस्य जीवस्य यत्तत् परोक्षं निरुक्तवशादिति, आह च अक्खस्स पोग्गलकया जं दव्विंदिय-मणा परा तेण । तेहिंतो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥ [विशेषाव० ९०] त्ति । 25 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ अथवा परैरुक्षा सम्बन्धनं जन्य-जनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम् इन्द्रियमनोव्यवधानेनाऽऽत्मनोऽर्थप्रत्यायकम्, असाक्षात्कारीत्यर्थः । पच्चक्खेत्यादि, केवलम् एकं ज्ञानं केवलज्ञानम्, तदन्यद् नोकेवलज्ञानम् अवधि-मनःपर्यायलक्षणमिति । केवलेत्यादि, भवत्थकेवलनाणे चेव त्ति भवस्थस्य केवलज्ञानं यत्तत्तथा, एवमितरदपि। 5 भवत्थेत्यादि, सह योगैः कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी, इन्समासान्तत्वात्, स चासौ भवस्थश्च, तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः, न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी शैलेशीकरणव्यवस्थितः, शेषं तथैव । सयोगीत्यादि, प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स तथा, एवमप्रथमो व्यादिः समयो यस्य स तथा, शेषं तथैव। अथवेत्यादि, चरम: अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, शेषं तथैव । 10 एवमिति सयोगिसूत्रवत् प्रथमा-ऽप्रथम-चरमा-ऽचरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि वाच्यमिति । सिद्धेत्यादि, अनन्तरसिद्धो यः सम्प्रतिसमये सिद्धः, स चैकोऽनेको वा, तथा परम्परसिद्धो यस्य व्यादयः समयाः सिद्धस्य, सोऽप्येकोऽनेको वेति, तेषां यत् केवलज्ञानं तत्तथाऽपदिश्यत इति । ओहिनाणेत्यादि, भवपच्चइए त्ति क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽप्यस्य क्षयोपशमस्यापि भवप्रत्ययत्वेन तत्प्राधान्येन भव एव प्रत्ययो 15 यस्य तद्भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यत इति, इदमेव भाष्यकारेण साक्षेप-परिहारमुक्तम्, तत्राक्षेप: ओही खओवसमिए भावे भणितो भवो तहोदइए । तो किह भवपच्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं ॥ [विशेषाव० ५७३] ति देव-नारकयोः । अत्र परिहार:- सो वि हु खओवसमओ किन्तु स एव खओवसमलाभो । ___ तम्मि सइ होयऽवस्सं भण्णइ भवपच्चओ तो सो ॥[विशेषाव०५७४] यतः- उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ [विशेषाव० ५७५] त्ति । तथा तदावरणस्य क्षयोपशमे भवं क्षायोपशमिकमिति । मणपज्जवेत्यादि, ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धनं 25 मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, विपुला विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः घटोऽनेन चिन्तितः १. “अत इनि-ठनौ” -पा० ५।२।११५ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः। स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति, आह चऋजु सामन्नं तम्मत्तगाहिणी ऋजुमती मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतितं मुणइ ॥ विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मती विउला । चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जयसएहिं ॥ [विशेषाव० ७८४-७८५] ति । आभिणिबोहियेत्यादि, श्रुतं कर्मतापन्नं निश्रितम् आश्रितम्, श्रुतं वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रितम्, यत् पूर्वमेव श्रुतकृतोपकारस्येदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्त्तते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति, यत् पुनः पूर्वं तदपरिकर्मितमते: क्षयोपशमपटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायतेऽन्यद्वा श्रोत्रादिप्रभवं 10 तदश्रुतनिश्रितमिति, आह च पुव्वं सुयपरिकम्मियमतिस्स जं संपयं सुयातीतं । तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्तं तं ॥ [विशेषाव० १६९] ति ।। सुयेत्यादि, अत्थोग्गहे त्ति अर्यते अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इति अर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं 15 प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति, निर्विकल्पकं ज्ञानम्, दर्शनमिति यदुच्यते इत्यर्थः, स च नैश्चयिको यः स सामयिको यस्तु व्यावहारिकः शब्दोऽयमित्याद्युल्लेखवान् स आन्तमॊहूर्तिक इति, अयं चेन्द्रिय-मनःसम्बन्धात् षोढा इति । तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम्, तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्वपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रह 20 ति, अथवा व्यञ्जनम् इन्द्रिय-शब्दादिद्रव्यसम्बन्धः आह च जिज्जइ जेणऽत्थो घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं ।। उवगरणिंदियसद्दादिपरिणयद्दव्वसंबंधो ॥ [ विशेषाव० १९४] त्ति । * अयं च मनो-नयनवर्जेन्द्रियाणां भवतीति चतुर्द्धा, नयन-मनसो तार्थपरिच्छेदकत्वात्, इतरेषां पुनरन्यथेति । ननु व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव न भवति, 25 न्द्रिय-शब्दादिद्रव्यसम्बन्धकाले तदनुभवाभावात्, बधिरादीनामिवेति. नैवम. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे व्यञ्जनावग्रहान्ते तद्वस्तुग्रहणादेवोपलब्धिसद्भावात्, इह यस्य ज्ञेयवस्तुग्रहणस्याऽन्ते तत एव ज्ञेयवस्तूपादानात् उपलब्धिर्भवति तत् ज्ञानं दृष्टम्, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते तत एवार्थावग्रहग्राह्यवस्तुग्रहणादीहासद्भावात् अर्थावग्रहज्ञानमिति, आह च अन्नाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणुवलंभाओ। 5 आचार्य:- न तदन्ते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तयं नाणं ॥ [विशेषाव० १९५] ति । किञ्च, व्यञ्जनावग्रहकालेऽपि ज्ञानमस्त्येव, सूक्ष्माव्यक्तत्वात्तु नोपलभ्यते, सुप्ताव्यक्तविज्ञानवदिति। ईहादयोऽपि श्रुतनिश्रिता एव, न तूक्ताः, द्विस्थानकानुरोधादिति। असुयनिस्सिए वि एमेव त्ति अर्थावग्रह-व्यञ्जनावग्रहभेदेनाऽश्रुतनिश्रितमपि द्विधैवेति, इदं च श्रोत्रादिप्रभवमेव, यत्तु औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं तत्रार्थावग्रहः सम्भवति, यदाह10 किह पडिकुक्कुडहीणो जुज्झे बिंबेण उग्गहो ईहा । किं सुसिलिट्ठमवाओ दप्पणसंकंतबिंबं ति ॥ [विशेषाव० ३०४] न तु व्यञ्जनावग्रहः, तस्येन्द्रियाश्रितत्वात्, बुद्धीनां तु मानसत्वात्, ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्र व्यञ्जनावग्रहो मन्तव्य इति । सुयणाणे इत्यादि, प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि, तेषु प्रविष्टं तदभ्यन्तरम्, 15 तत्स्वरूपमित्यर्थः, तच्च गणधरकृतम् ‘उप्पन्ने इ वा' इत्यादिमातृकापदत्रयप्रभवं वा, ध्रुवश्रुतं वा आचारादि, यत् पुनः स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरणनिबद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदङ्गबाह्यमिति, आह च गणहर १ थेराइकयं २ आएसा १ मुक्कवागरणओ वा २ । धुव १ चलविसेसणाओ २ अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥ [विशेषाव० ५५०] ति । 20 अंगबाहीत्यादि, अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकं सामायिकादि षड्विधम्, आह च समणेण सावएण य अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहोणिसिस्स य तम्हा आवस्सयं नामं ॥ [विशेषाव० ८७३] आवश्यकाद् व्यतिरिक्तं ततो यदन्यदिति । आवस्सगवतिरित्तेत्यादि । यदिह दिवस-निशा-प्रथम-पश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत् कालेन निर्वृत्तं कालिकम् 25 उत्तराध्ययनादि, यत् पुनः कालवेलावर्जं पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकं दशकालिकादीति । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६१-६२] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । [सू० ६१] दुविहे धम्मे पन्नत्ते, तंजहा-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेव । सुयधम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव। चरित्तधम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरित्तधम्मे चेव । [टी०] उक्तं ज्ञानम्, चारित्रं प्रस्तावयति- दुविहेत्यादि । दुर्गतौ प्रपततो जीवान् सुगतौ च तान् धारयतीति धर्मः, श्रुतं द्वादशाङ्गम्, तदेव धर्मः श्रुतधर्मः, चर्यते 5 आसेव्यते तत् तेन वा चर्यते गम्यते मोक्ष इति चरित्रं मूलोत्तरगुणकलापः, तदेव धर्मश्चारित्रधर्म इति । सुयधम्मेत्यादि, सूत्र्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम्, सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सुष्ठू क्तत्वाद्वा सूक्तम्, सुप्तमिव वा सुप्तम् अव्याख्यानेनाऽप्रबुद्धावस्थत्वादिति, भाष्यवचनं त्वेवम्सिंचति खरइ जमत्थं तम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा वा । 10 सूएइ सवति सुव्वइ सिव्वइ सरए व जेणऽत्थं ॥ अविवरियं सुत्तं पि व सुट्ठिय-वावित्तओ सुवुत्तं ति । [विशेषाव० १३६८-१३६९] अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थो व्याख्यानमिति, आह चजो सुत्ताभिप्पाओ सो अत्थो अज्जए जम्हा ॥ [विशेषाव० १३६९] इति । चरित्तेत्यादि । अगारं गृहम्, तद्योगादगारा: गृहिणः, तेषां यश्चरित्रधर्म: 15 सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादिपालनरूपः स तथा, एवमितरोऽपि, नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगारा: साधव इति ।। [सू० ६२] दुविहे संजमे पन्नत्ते, तंजहा-सरागसंजमे चेव वीयरागसंजमे चेव । सरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव 20 बादरसंपरायसरागसंजमे चेव । सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव अपढमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चेव १, अधवा चरमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चेव अचरिमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चेव २। अधवा सुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पन्नते, तंजहा-संकिलेसमाणते 25 १. दृश्यतां पृ०३४ पं० १९ ॥ २. व सुत्तंति इति विशेषावश्यके । ३. अज्जए य जम्हा पा० जे२ ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चेव विसुज्झमाणते चेव । ___ बादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव अपढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव १, अहवा चरिमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव अचरिमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे 5 चेव २। अहवा बायरसंपरायसरागसंजमे दुविधे पन्नत्ते, तंजहा-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव । वीयरागसंजमे दुविधे पन्नत्ते, तंजहा-उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव खीणकसायवीतरागसंजमे चेव । उवसंतकसायवीयरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पढमसमयउवसंत10 कसायवीतरागसंजमे चेव अपढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव १, अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव अचरिमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव २॥ खीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-छउमत्थखीणकसायवीतरागसंजमे चेव केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव । 15 छउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-संयबुद्धछउमत्थ खीणकसायवीयरागसंजमे चेव बुद्धबोधियछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव। सयंबुद्धछ उमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहापढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अपढमसमय20 सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव १, अहवा चरिमसमय सयंबुद्धछ उमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अचरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव २। बुद्धबोधियछउमत्थखीणकसायवीयरागसंजमे दविहे पन्नत्ते, तंजहा-पढमसमयबुद्धबोधियछ उमत्थ खीणकसायवीयरागसंजमे चेव अपढ मसमयबुद्धबोधियछ उमत्थ25 खीणकसायवीयरागसंजमे चेव ३, अहवा चरिमसमयबुद्धबोधियछउमत्थ खीणकसायवीयरागसंजमे चेव अचरिमसमयबुद्धबोधियखीण Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ६२] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । कसायवीयरागसंजमे चेव ४। केवलिखीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागसंजमे चेव अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागसंजमे चेव५। सजोगिके वलिखीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहापढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अपढमसमयसजोगि- 5 केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव ६। अहवा चरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव ७। अजोगिके वलिखीणकसायवीयरागसंजमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहापढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अपढमसमयअजोगि- 10 केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव ८। अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायबीयरागसंजमे चेव ९। [टी०] चारित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह- दुविहेत्यादि, सह रागेण अभिष्वङ्गेण मायादिरूपेण यः स सरागः, स चासौ संयमश्च सरागस्य वा संयम इति वाक्यम्, वीतो 15 विगतो रागो यस्मात् स चासौ संयमश्च वीतरागस्य वा संयम इति वाक्यमिति । सरागेत्यादि, सूक्ष्मः असङ्ख्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायः कषायः, सम्परैति संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनात्, आह च कोहाइ संपराओ तेण जओ संपरीति संसारं । [विशेषाव० १२७७] ति । । स च लोभकषायरूप: उपशमकस्य क्षपकस्य वा यस्य स सूक्ष्मसम्परायः साधुः, 20 तस्य सरागसंयमः, विशेषणसमासो वा भणनीय इति । बादराः स्थूराः सम्परायाः कषाया यस्य साधोः यस्मिन् वा संयमे स तथा सूक्ष्मसम्परायप्राचीनगुणस्थानकेषु, शेष प्राग्वदिति। सुहुमेत्यादिसूत्रद्वये प्रथमाप्रथमसमयादिविभागः केवलज्ञानवदिति । अहवेत्यादि, सक्लिश्यमानक: संयमः उपशमश्रेण्या: प्रतिपततः, 25 १. जुओ जे१, खं० पामू० । दृश्यतां सू०४२८ टीका ।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विशुद्धयमानस्तां क्षपकश्रेणी वा समारोहत इति । बादरेत्यादिसूत्रद्वयम्, बादरसम्परायसरागसंयमस्य प्रथमाप्रथमसमयता संयमप्रतिपत्तिकालापेक्षया चरमाचरमसमयता तु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता असंयतत्वं वा भविष्यति तदपेक्षयेति । अहवेत्यादि, प्रतिपाती उपशमकस्यान्यस्य वा, अप्रतिपाती क्षपकस्येति । सरागसंयम 5 उक्तोऽतो वीतरागसंयममाह-वीयरागेत्यादि, उपशान्ताः प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषाया यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति एकादशगुणस्थानवर्तीति, क्षीणकषायो द्वादशगुणस्थानवर्तीति । उवसंतेत्यादि सूत्रद्वयं प्रागिव । खीणेत्यादि, छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म ज्ञानावरणादिघातिकर्म, तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थ: अकेवली, शेषं तथैव । केवलम् उक्तस्वरूपं ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलीति । छउमत्थेत्यादि, 10 स्वयम्बुद्धादिस्वरूपं प्रागिवेति, सयंबुद्धेत्यादि नव सूत्राणि गतार्थान्येवेति । __ [सू० ६३] दुविहा पुढविकाइया पन्नत्ता, तंजहा-सुहुमा चेव बायरा चेव १॥ एवं जाव दुविहा वणस्सतिकाइया पन्नत्ता, तंजहा-सुहमा चेव बायरा चेव ५। दविहा पुढविकाइया पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा चेव अपज्जत्तगा चेव ६। 15 एवं जाव वणस्सतिकाइया १०। __ दुविहा पुढविकाइया पन्नत्ता, तंजहा-परिणता चेव अपरिणता चेव ११, एवं जाव वणस्सतिकाइया १५। दुविहा दव्वा पन्नत्ता, तंजहा-परिणता चेव अपरिणता चेव १६॥ दुविहा पुढविकाइया पन्नत्ता, तंजहा-गतिसमावन्नगा चेव अगतिसमावन्नगा 20 चेव १७, एवं जाव वणस्सतिकाइया २१। दुविहा दव्वा पन्नत्ता, तंजहागतिसमावन्नगा चेव अगतिसमावन्नगा चेव २२॥ दुविहा पुढविकाइया पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरोगाढगा चेव परंपरोगाढगा चेव २३, जाव दव्वा २८॥ [टी०] उक्तः संयमः, स च जीवाजीवविषय इति पृथिव्यादिजीवस्वरूपमाह- दुविहा 25 पुढवीत्यादि अष्टाविंशतिः सूत्राणि । तत्र पृथिव्येव कायो येषां ते पृथिवीकायिनः, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । समासान्तविधेः, त एव स्वार्थिककप्रत्ययात् पृथिवीकायिकाः, पृथिव्येव वा काय: शरीरम्, सोऽस्ति येषां ते पृथिवीकायिकाः ते सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माश्चैव ये सर्वलोकापन्नाः, बादरनामकर्मोदयवर्त्तिनो बादरा ये पृथिवी-नगादिष्वेवेति, नैषामापेक्षिकं सूक्ष्मबादरत्वमिति । एवमिति पृथिवीसूत्रवदप्ते जोवायूनां सूत्राणि वाच्यानि यावद्वनस्पतिसूत्रम्, अत एवाह-जावेत्यादि । दुविहे त्यादि पञ्चसूत्री, तत्र 5 पर्याप्तनामकर्मोदयवर्तिनः पर्याप्ताः, ये हि चतस्रः स्वपर्याप्तीः पूरयन्तीति, अपर्याप्तनामकर्मोदयादपर्याप्तका ये स्वपर्याप्तीर्न पूरयन्तीति । इह च पर्याप्तिर्नाम शक्तिः सामर्थ्यविशेष इति यावत्, सा च पुद्गलद्रव्योपचयादुत्पद्यते, षड्भेदा चेयम्, तद्यथा आहार १ सरीरिंदियपज्जत्ती २-३ आणुपाणु ४ भास ५ मणे ६। चत्तारि पंच छप्पि य एगिदियविगलसन्नीणं ॥ [जीवसमास० २५] ति । 10 तत्र एकेन्द्रियाणां चतस्रः, विकलेन्द्रियाणां पञ्च, संज्ञिनां षट्, तत्र आहारपर्याप्तिर्नाम खलरसपरिणमनशक्तिः १, शरीरपर्याप्तिः सप्तधातुतया रसस्य परिणमनशक्तिः २, इन्द्रियपर्याप्तिः पञ्चानामिन्द्रियाणां योग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिर्वर्त्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिः ३, आनप्राणपर्याप्तिः उच्छ्वासनिःश्वासयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा तथा परिणमय्याऽऽनप्राणतया निसर्जनशक्तिः, ४ भाषापर्याप्तिर्वचोयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा 15 भाषात्वेन परिणमय्य वाग्योगतया निसर्जनशक्तिः ५, मनःपर्याप्तिर्मनोयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा मनस्तया परिणमय्य मनोयोगतया निसर्जनशक्तिरिति ६, एताः पर्याप्तयः पर्याप्तनामको दयेन निर्वय॑न्ते, तद् येषामस्ति ते पर्याप्तकाः, अपर्याप्तनामकर्मो दयेनानिर्वृत्ताः येषामेताः सन्ति तेऽपर्याप्तका इति । एताश्च युगपदारभ्यन्तेऽन्तर्मुहूर्तेन च निर्वर्त्यन्ते, तत्र आहारपर्याप्तेर्निर्वृत्तिकालः समय एव, 20 कथम् ?, उच्यते, यस्मात् प्रज्ञापनायामुक्तम्- आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा ! नो आहारए अणाहारए [प्रज्ञा० १९०५] त्ति, स च विग्रहे आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तको लभ्यते, यदि पुनरुपपातक्षेत्रप्राप्तोऽप्याहारपर्याप्त्याऽपर्याप्तको भवेत्तदैवं व्याकरणं भवेद् गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहरए त्ति, यथा शरीरादिपर्याप्तिषु सिय आहारए सिय अणाहारए [प्रज्ञा० १९०५] त्ति, शेषाः 25 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुनरसङ्ख्यातसमया अन्तर्मुहूर्तेन निर्वय॑न्त इति, अपर्याप्तकास्तु उच्छ्वासपर्याप्त्या अपर्याप्ता एव म्रियन्ते, न तु शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्याम्, यस्मादागामिभवायुष्कं बद्ध्वा म्रियन्ते, तच्च शरीरेन्द्रियादिपर्याप्त्या पर्याप्तैरेव बध्यत इति । एवमिति पूर्ववदेवेति । दुविहा पुढवीत्यादिषट्सूत्री, परिणताः स्वकाय-परकायशस्त्रादिना परिणामान्तर5 मापादिताः, अचित्तीभूता इत्यर्थः, तत्र द्रव्यतः क्षत्रादिना मिश्रेण द्रव्येण कालतः पौरुष्यादिना कालेन भावतो वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शान्यथात्वेन परिणताः, क्षेत्रतस्तु जोयणसयं तु गंताऽणाहारेणं तु भंडसंकंती । वायागणिधूमेण य विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना ते वि हु एमेव णायव्वा ॥ आरुहणे ओरुहणे णिसियण गोणाइणं च गातुम्हा। भूमाहारच्छेदे उवक्कमेणेव परिणामो ॥ [ निशीथभा० ४८३३-३४३५] अणाहारेणं ति स्वदेशजाहाराभावेनेति, भंडसंकंति त्ति भाजनाद् भाजनान्तरसङ्क्रान्त्या, खज्जूरादयोऽनाचरिताः अभयादयस्तु आचरिता इति । परिणामान्तरेऽपि पृथिवीकायिका एव ते, केवलमचेतना इति, कथमन्यथाऽचेतनपृथिवीकायपिण्ड15 प्रयोजनाभिधानमिदं स्यात्, यथा घट्टग-डगलग-लेवो एमादि पयोयणं बहुहा [ओघनि० ३४२, पिण्डनि० १५] इति । एवमित्यादि प्रागिव, तदेवं पञ्चैतानि सूत्राणि । द्रवन्ति गच्छन्ति विचित्रपर्यायानिति द्रव्याणि जीव-पुद्गलरूपाणि, तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि, विवक्षितपरिणामवन्त्येव अपरिणतानीति द्रव्यसूत्रं षष्ठम् १६ । 20 दुविहेत्यादि षट्सूत्री, गतिर्गमनं तां समापन्नाः प्राप्तास्तद्वन्तो गतिसमापन्नाः, ये हि पृथिवीकायिकाद्यायुष्कोदयात् पृथिवीकायिकादिव्यपदेशवन्तो विग्रहगत्या उत्पत्तिस्थानं व्रजन्ति, अगतिसमापन्नास्तु स्थितिमन्तः । द्रव्यसूत्रे गतिर्गमनमात्रमेव, शेषं तथैवेति २२ । दुविहा पुढवीत्यादि षट्सूत्री, अनन्तरं सम्प्रत्येव समये क्वचिदाकाशदेशे अवगाढाः 25 आश्रितास्त एवाऽनन्तरावगाढकाः, येषां तु व्यादयः समया अवगाढानां ते परम्परावगाढकाः, अथवा विवक्षितं क्षेत्रं द्रव्यं वाऽपेक्ष्यानन्तरम् अव्यवधानेनावगाढा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६४-६५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । अनन्तरावगाढा इतरे तु परम्परावगाढा इति २८ । [सू० ६४] दुविधे काले पन्नत्ते, तंजहा-ओसप्पिणीकाले चेव उस्सप्पिणीकाले चेव १॥ दुविधे आगासे पन्नत्ते, तंजहा-लोगागासे चेव अलोगागासे चेव २॥ [टी०] अनन्तरं द्रव्यस्वरूपमुक्तम्, अधुना द्रव्याधिकारादेव द्रव्यविशेषयोः काला- 5 ऽऽकाशयोर्द्विसूत्र्या प्ररूपणामाह, तत्र कल्यते सङ्ख्यायतेऽसावनेन वा कलनं वा कलासमूहो वेति कालः वर्तना-परत्वा-ऽपरत्वादिलक्षणः, स चावसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपतया द्विविधो द्विस्थानकानुरोधादुक्तः, अन्यथाऽवस्थितलक्षणो महाविदेह-भोगभूमिसम्भवी तृतीयोऽप्यस्तीति । आगासे त्ति सर्वद्रव्यस्वभावानाकाशयति आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽ- 10 वस्थानदानादित्याकाशम्, आङ् मर्यादा-ऽभिविधिवाची, तत्र मर्यादायामाकाशे भवन्तोऽपि भावाः स्वात्मन्येवाऽऽसते नाकाशतां यान्तीत्येवं तेषामत्मसादकरणाद्, अभिविधौ तु सर्वभावव्यापनादाकाशमिति, तत्र लोको यत्राकाशदेशे धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिरस्ति स एवाकाशं लोकाकाशमिति, विपरीतमलोकाकाशमिति । [सू० ६५] णेरइयाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-अब्भंतरगे चेव बाहिरगे चेव । अब्भंतरए कम्मए, बाहिरए वेउव्विए । एवं देवाणं भाणियव्वं । पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-अब्भंतरए चेव बाहिए चेव। अब्भंतरऐ कम्मए, बाहिरए ओरालिगे । जाव वणस्सइकाइयाणं। बेइंदियाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-अब्भंतरए चेव बाहिरए चेव। 20 अब्भंतरए कम्मए, अट्ठि-मंस-सोणियबद्ध बाहिरए ओरालिए । जाव चउरिंदियाणं। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-अब्भंतरए चेव बाहिरए चेव । अब्भंतरए कम्मए, अट्ठि-मंस-सोणिय-पहारु-छिराबद्धे बाहिरए ओरालिए । मणुस्साण वि एवं चेव । 25 विग्गहगइसमावण्णगाणं नेरइयाणं दो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-तेयए चेव १. “वर्तना परिणामः क्रिया परत्वा-ऽपरत्वे च कालस्य"-- तत्त्वार्थ० ५।२२ ॥ 15 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कम्मए चेव । निरंतरं जाव वेमाणियाणं । नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तंजहा-रागेण चेव दोसेण चेव। जाव वेमाणियाणं । नेरइयाणं दुट्ठाणनिव्वत्तिए सरीरए पन्नत्ते, तंजहा-रागनिव्वत्तिए चेव 5 दोसनिव्वत्तिए चेव । जाव वेमाणियाणं । दो काया पन्नत्ता, तंजहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव । तसकाए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेव १। एवं थावरकाए वि । [टी०] अनन्तरं लोकालोकभेदेनाकाशद्वैविध्यमुक्तम्, लोकश्च शरीरि-शरीराणां 10 सर्वत आश्रयस्वरूप इति नारकादिशरीरदण्डकेन शरीरप्ररूपणामाह- णेरइयाणमित्यादि प्रायः कण्ठ्यम्, नवरं शीर्यते अनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरम्, तदेव सदनादिधर्मतयाऽनुकम्पितत्वात् शरीरकम्, ते च द्वे प्रज्ञप्ते जिनैः, अभ्यन्त: मध्ये भवमाभ्यन्तरम्, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः सह क्षीर-नीरन्यायेन लोलीभवनात् भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तःप्रविष्टपुरुषवदनतिर्शयिनाम15 प्रत्यक्षत्वाच्चेति, तथा बहिर्भवं बाह्यम्, बाह्यता चास्य जीवप्रदेशैः कस्यापि केषुचिदवयवेष्वव्याप्तेर्भवान्तराननुयायित्वान्निरतिशयानामपि प्रायः प्रत्यक्षत्वाच्चेति। तत्राभ्यन्तरं कम्मए त्ति कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिर्वर्त्यमशेषकर्मणां प्ररोहभूमिराधारभूतम्, तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तरसङ्क्रमणे साधकतमं तत् कार्मणवर्गणास्वरूपम्, कर्मैव कर्मकमिति, कर्मकग्रहणे च तैजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यम्, तयोरव्यभिचारित्वेनैकत्वस्य 20 विवक्षितत्वादिति । एवं देवाणं भाणियव्वं ति, अयमर्थः-यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवानाम् असुरादीनां वैमानिकान्तानां भणितव्यम्, कार्मण-वैक्रिययोरेव तेषां भावात्, चतुर्विंशतिदण्डकस्य च विवक्षितत्वादिति । १. अत्र भा० मध्ये एकस्मिन् खण्डिते पत्रे ईदृशः पाठ उपलभ्यते- ..... जीवकाए चेव अरूविअजीवकाए चेव। कप्पड़ निग्गंथाण वा दो दिसाओ अभिगिज्झ..... उवट्ठावित्तए भुंजित्तए संवसित्तए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दो दिसाओ अभिगि... पडिक्कमित्तए निंदित्तए गरहित्तए विसोहित्तए अकरणयाए अब्भुट्टित्तए अ..... निग्गंथीण वा दो दिसाओ अभिगिज्झ अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसियाणं भत्त.... ... णाणं विहरित्तए तंजहा पाईणं चेव उदीणं चेव ॥छ।। बीयट्ठाणे पढमो उद्देसओ सम.... भा० । .... ईदृशैः बिन्दुभिः संकेतितः पाठोऽत्र त्रुटित इति ध्येयम् ।। २. °शायि पासं० ॥ ३. शायिना पासं० जे२ । शयिना पामू० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६६] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ___ पुढवीत्यादि, पृथिव्यादीनां तु बाह्यमौदारिकमौदारिकशरीरनामकर्मोदयादुदारपुद्गलनिवृत्तमौदारिकम्, केवलमेकेन्द्रियाणामस्थ्यादिविरहितम्, वायूनां वैक्रियं यत्तन्न विवक्षितं प्रायिकत्वात् तस्येति । बेइंदियाणमित्यादि, अस्थि-मांस-शोणितैर्बद्धं नद्धं यत्तत्तथा, द्वीन्द्रियादीनामौदारिकत्वेऽपि शरीरस्यायं विशेषः। 5 पंचेदियेत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्याणां पुनरयं विशेषो यदस्थि-मांस-शोणितस्नायु-शिराबद्धमिति, अस्थ्यादयस्तु प्रतीता इति ।। __ प्रकारान्तरेण चतुर्विंशतिदण्डकेन शरीरप्ररूपणामेवाह- विग्गहेत्यादि, विग्रहगतिः वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापन्ना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे शरीरे, इह तैजस-कार्मणयोर्भेदेन विवक्षेति, एवं दण्डकः। 10 शरीराधिकारात् शरीरोत्पत्तिं दण्डकेन निरूपयन्नाह- नेरइयाणमित्यादि, कण्ठ्यम्, किन्तु राग-द्वेषजनितकर्मणा शरीरोत्पत्तिः सा राग-द्वेषाभ्यामेवेति व्यपदिश्यते, कार्ये कारणोपचारादिति जाव वेमाणियाणं ति दण्डकः सूचितः । शरीराधिकाराच्छरीरनिर्वर्तनसूत्रम्, तदप्येवम्, नवरमुत्पत्ति: आरम्भमात्रम्, निर्वर्तना तु निष्ठानयनमिति । __ शरीराधिकाराच्छरीरवतां राशिद्वयेन प्ररूपणामाह-दो कायेत्यादि। त्रसनामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः, तेषां कायो राशिस्त्रसकाय:, स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः, तेषां कायः स्थावरकाय इति । त्रस-स्थावरकाययोरेव द्वैविध्यप्ररूपणार्थं तसकायेत्यादि सूत्रद्वयं सुगमं चेति । [सू० ६६] दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा 20 पव्वावित्तए- पाईणं चेव उदीणं चेव १॥ एवं मुंडावित्तए २, सिक्खावित्तए ३, उवठ्ठावित्तए ४, संभोइत्तए ५, संव(वा?)सित्तए ६, सज्झायमुद्दिसित्तए ७, सज्झायं समुद्दिसित्तए ८, सज्झायमणुजाणित्तए ९, आलोइत्तए १०, पडिक्कमित्तए ११, निंदित्तए १२, गरहित्तए १३, विउट्टित्तए १४, विसोहित्तए १५, अकरणयाए अब्भुट्टित्तए १६, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जित्तए १७ । 25 १. मौदारिकशरीर खं० जे२ ॥ २. संभुंजित्तए क० विना ।। ३. संविसित्तए क० । दृश्यतां सू०२०४ ।। ४. "त्तते जे२ । एवमग्रेऽपि प्रायः ।। 15 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे __ दो दिसातो अभिगिज्झ कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खिताणं पाओवगताणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, तंजहा-पाईणं चेव उदीणं चेव १८। ॥ बिट्ठाणस्स पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ 5 [टी०] पूर्वसूत्रे भव्याः शरीरिण उक्ताः, इतस्तद्विशेषाणामेव यद्यथा कर्तुमुचितं तत् तथा द्विस्थानकानुपातेनाह-दो दिसाओ इत्यादि, द्वे दिशौ काष्ठे अभिगृह्य अङ्गीकृत्य, तदभिमुखीभूयेत्यर्थः, कल्पते युज्यते, निर्गता ग्रन्थाद् धनादेरिति निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषाम्, निर्ग्रन्थ्यः साध्व्यस्तासाम्, प्रव्राजयितुं रजोहरणादिदानेन, प्राचीनं प्राचीम्, पूर्वामित्यर्थः, उदीचीनम् उदीचीम्, उत्तरामित्यर्थः, उक्तं च पुव्वामुहो उ उत्तरमुहो व्व देज्जाऽहवा पडिच्छेज्जा। जाए जिणादओ वा हवेज्ज जिणचेइयाई वा ॥ [पञ्चव० १३१] इति । एवमिति यथा प्रव्राजनसूत्रं दिग्द्वयाभिलापेनाधीतमेवं मुण्डनादिसूत्राण्यपि षोडशाध्येतव्यानीति, तत्र मुण्डयितुं शिरोलोचतः १, शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थौ ग्राहयितुम्, आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि शिक्षयितुमिति २, उत्थापयितुं 15 महाव्रतेषु व्यवस्थापयितुम् ३, संभोजयितुं भोजनमण्डल्यां निवेशयितुम् ४, संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुम् ५, सुष्ठ आ मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः अङ्गादिः, तमुद्देष्टुं योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येवमुपदेष्टु मिति ६, समुद्देष्टुं योगसामाचार्यैव स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति वक्तुमिति ७, अनुज्ञातुं तथैव सम्यगेतद् धारय अन्येषां च प्रवेदयेत्येवमभिधातुमिति ८, आलोचयितुं गुरवेऽपराघान्निवेदयितुमिति 20 ९, प्रतिक्रमितुं प्रतिक्रमणं कर्तुमिति १०, निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुम्, आह च- सचरित्तपच्छयावो निंद [आव०नि० १०६२] त्ति ११, गर्हितुं गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितुम्, आह च- गरहा वि तहाजातीयमेव नवरं परप्पयासणय [आव०नि० १०६३] त्ति १२, विउट्टित्तए त्ति व्यतिवर्तयितुं वित्रोटयितुं विकुट्टयितुं वा, अतिचारानुबन्धं विच्छेदयितुमित्यर्थः १३, विशोधयितुमतिचारपङ्कापेक्षयाऽऽत्मानं विमलीकर्तुमिति १४, १. वा दिसाए जिण इति पञ्चवस्तुके पाठः ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६७] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः। अकरणतया पुनर्न करिष्यामीत्येवमभ्युत्थातुम् अभ्युपगन्तुमिति १५, यथार्हम् अतिचाराद्यपेक्षया यथोचितं पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तम्, उक्तं च पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नए तेण । पाएण वा वि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ [व्यवहारभा० ३५] ति ।। तपःकर्म निर्विकृतिकादिकं प्रतिपत्तुम् अभ्युपगन्तुमिति १६ । सप्तदशं सूत्रं साक्षादेवाह- दो दिसेत्यादि, पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेव योऽन्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी च सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीर-कषायादीति संलेखना तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना, तस्याः झूसण त्ति जोषणा सेवा, तया, तल्लक्षणधर्मेणेत्यर्थः, झूसियाणं ति सेवितानाम्, तद्युक्तानामित्यर्थः, तया 10 वा झूषितानां क्षपितानां क्षपितदेहानामित्यर्थः, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते यैस्ते तथा, तेषाम्, पादपवदुपगतानाम् अचेष्टतया स्थितानाम्, अनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः, कालं मरणकालमनवकाङ्क्षतां तत्रानुत्सुकानां विहाँ स्थातुमिति १७ । एवमेतानि दिक्सूत्राण्यादितोऽष्टादश । सर्वत्र यन्न व्याख्यातं तत् सुगमत्वादिति। ॥ द्विस्थानकस्य प्रथमोद्देशको विवरणतः समाप्तः ।। - [अथ द्वितीय उद्देशकः] [सू० ६७] जे देवा उड्डोववन्नगा कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारंट्टिइया गतिरतिया गतिसमावण्णगा तेसि णं देवाणं सता समितं जे पावकम्मे कजति तत्थगता वि एगतिया वेयणं वेदेति, अन्नत्थगता वि एगतिया 20 वेयणं वेदेति । _णेरइयाणं सता समियं जे पावे कम्मे कज्जइ तत्थगया वि एगइया वेयणं वेदेति अन्नत्थगया वि एगतिता वेयणं वेदेति, जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं। १. द्वितीया जे२, ३ ।। २. एवं जाव भां० ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ मणुस्साणं सता समितं जे पावे कम्मे कजति इहगया वि एगइया वेयणं वेदेति, अन्नत्थगता वि एगतिया वेयणं वेदेति । मणुस्सवजा सेसा एक्कगमा। [टी०] इहानन्तरोद्देशके जीवाजीवधर्मा द्वित्वविशिष्टा उक्ताः, द्वितीयोद्देशके तु द्वित्वविशिष्टा एव जीवधर्मा उच्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्योद्देकशस्ये5 दमादिसूत्रम्- जे देवेत्यादि । अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-- प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रे पादपोपगमनमुक्तम्, तस्माच्च देवत्वं केषाञ्चिद्भवतीति देवविशेषभणनेन तत्कर्मबन्ध-वेदने प्रतिपादयन्नाह- जे देवेत्यादि । ये देवाः सुराः वक्ष्यमाणविशेषणेभ्यो वैमानिका अनशनादेरुत्पन्नाः, किं भूताः? उट्ट त्ति ऊर्ध्वलोकस्तत्रोपपन्नकाः उत्पन्ना ऊोपपन्नकाः, ते च द्विधा-कल्पोपपन्नका: 10 सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नास्तथा विमानोपपन्नका: ग्रैवेयका-ऽनुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः, कल्पातीता इत्यर्थः, तथा परे चारोववन्नग त्ति चरन्ति भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव, व्युत्पत्त्यर्थमात्रानपेक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात, तत्रोपपन्नकाश्चारोपपन्नका: ज्योतिष्काः, न च पादपोपगमनादे कॊतिष्कत्वं न भवति, परिणामविशेषादिति, तेऽपि च द्विधैव, तथाहि- चारे 15 ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चारस्थितिका: समयक्षेत्रबहिर्वत्तिनो घण्टाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः, समयक्षेत्रवर्त्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्चासततगतयोऽपि भवन्तीत्यत आह- गतिं गमनं समिति सततमापन्नका: प्राप्ता गतिसमापन्नकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थः, तेषां देवानां द्विविधानां पुनर्द्विविधानां सदा नित्यं समितं सन्ततं यत् पापं कर्म ज्ञानावरणादि, सततबन्धकत्वात् जीवानाम्, 20 क्रियते बध्यते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयम्, भवति सम्पद्यत इत्यर्थः, ते देवास्तस्य कर्मणः आबाधाकालातिक्रमे सति तत्थगया वि त्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोग:- तत्रैव देवभव एव कल्पातीतानां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवात्, इह तत्रान्यत्रशब्दाभ्यां भव एव विवक्षितः, न क्षेत्र-शयना-ऽऽसनादीति, गताः वर्तमाना एके केचन देवा वेदनाम् उदयं विपाकं वेदयन्ति अनुभवन्ति, अन्नत्थगया वि त्ति देवभवादन्यत्रैव भवान्तरे 25 गता उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचित्तूभयत्रापि, अन्ये विपाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ [सू० ६८] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । एतच्च विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रितम्, द्वित्वाधिकारादिति । सूत्रोक्तमेव विकल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह- नेरइयाणमित्यादि प्रायः सुगमम्, नवरं तत्थगया वि अन्नत्थगया वि एवमभिलापेन दण्डको नेयो यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽत एवाह- जावेत्यादि । ___ मनुष्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा- इहगता वि एगइया इति, सूत्रकारो 5 हि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षानासन्ननिर्देशं विमुच्य मनुष्यसूत्रे इहेत्येवं निर्दिशति स्म, मनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन ‘इदं'शब्दस्य विषयत्वादिति, अत एवाह- मणुस्सवज्जा सेसा एक्कगम त्ति, शेषाः व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिका एकगमाः तुल्याभिलापाः । ननु प्रथमसूत्र एव ज्योतिष्क-वैमानिकदेवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तद्भणनेनेति ?, उच्यते, तत्रानुष्ठानफलदर्शनप्रसङ्गेन 10 भेदतश्चोक्तत्वाद्, इह तु दण्डकक्रमेण सामान्यतश्चोक्तत्वादिति न दोषः, दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिरितरोक्तौ त्वितरेति । - [सू० ६८] नेरइया दुगतिगा दुयागतिया पन्नत्ता, तंजहा-नेरइए नेरइएसु उववजमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेव णं से नेरइए णेरइयत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा 15 पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा । एवं असुरकुमारा वि, णवरं से चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेजा, एवं सव्वदेवा ।। पुढविकाइया दुगइया दुयागइया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववजमाणे पुढविकाइएहिंतो वा नोपुढविकाइएहिंतो वा उववज्जेजा, से 20 चेव णं पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पयहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा नोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा, एवं जाव मणुस्सा। ___ [टी०] तत्रगता वेदनां वेदयन्तीत्युक्तमतो नारकादीनां गतिं तद्विपर्यस्तामागतिं च निरूपयन्नाह- नेरइयेत्यादि दण्डकः कण्ठ्यः , नवरं नैरयिका नारका द्वयोः मनुष्यगतितिर्यग्गतिलक्षणयोर्गत्योरधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवा- 25 १. अत्र विद्यमानो भा० पाठः प्रथमे परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यः । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ___ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वधिभूताभ्यामागति: आगमनं येषां ते तथा, उदितनारकायु रक एव व्यपदिश्यते, अत उच्यते णेरइए णेरइएसु त्ति, नारकेषु मध्ये इत्यर्थः, इह चोद्देशक्रमव्यत्ययात् प्रथमवाक्येनाऽऽगतिरुक्ता, से चेव णं से त्ति यो मानुषत्वादितो नरकं गतः स एवासौ नारको नान्यः, अनेनैकान्तानित्यत्वं निरस्तमिति, विप्पजहमाणे त्ति विप्रजहन् 5 परित्यजन्, इह च भूतभावतया नारकव्यपदेशः, अनेन वाक्येन गतिरुक्ता, इत्थं च व्याख्यातं 'तेजस्कायिका व्यागतयस्तिर्यङ्-मनुष्यापेक्षया एकगतयस्तिर्यगपेक्षये'ति वाक्यमुपजीव्येति, एवं असुरकुमारा वि त्ति, नारकवद्वक्तव्या इत्यर्थः, नवरं ति केवलमयं विशेष:-तिर्यक्षु न पञ्चेन्द्रियेष्वेवोत्पद्यन्ते पृथिव्यादिष्वपि तदुत्पत्तेरित्यतः सामान्यत आह- से चेव णं से इत्यादि जाव तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्ज 10 त्ति, एवं सव्वदेव त्ति असुरवत् द्वादशापि दण्ड कदेवपदानि वाच्यानि, तेषामप्ये केन्द्रियेषूत्पत्ते रिति । णोपुढविकाइएहिंतो त्ति अनेन पृथिवीकायिकनिषेधद्वारेणाप्कायिकादयः सर्वे गृहीता द्विस्थानकानुरोधादिति, तेभ्यो वा नारकवर्जेभ्यः समुत्पद्येत । णोपुढविकाइयत्ताए त्ति देव-नारकवर्जाप्कायादितया गच्छेदिति, एवं जाव मणुस्स त्ति, यथा पृथिवीकायिका दुगइया इत्यादिभिरभिलापैरुक्ता 15 एवमेभिरेवाप्कायादयो मनुष्यावसानाः पृथिवीकायिकशब्दस्थानेऽप्कायादिव्यपदेशं कुर्वद्भिरभिधातव्या इति । व्यन्तरादयस्तु पूर्वमतिदिष्टा एवेति । [सू० ६९] दुविहा णेरइया पन्नत्ता, तंजहा-भवसिद्धिया चेव अभवसिद्धिया चेव, जाव वेमाणिया १॥ दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरोववण्णगा चेव परंपरोववण्णगा 20 चेव, जाव वेमाणिया २। दुविहा णेरइया पन्नत्ता, तंजहा-गतिसमावन्नगा चेव अगतिसमावनगा चेव, जाव वेमाणिया ३ दुविधा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-पढमसमओववन्नगा चेव अपढमसमओववन्नगा चेव, जाव वेमाणिया ४। १. इदं वाक्यं क्व वर्तते इति गवेषणीयम् ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । दुविधा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव, एवं जाव वेमाणिया ५। दुविहा णेरड्या पन्नत्ता, तंजहा-उस्सासगा चेव णोउस्सासगा चेव, जाव वेमाणिया ६। दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-सइंदिया चेव अणिंदिया चेव, जाव 5 वेमाणिया । दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा चेव अपज्जत्तगा चेव, जाव वेमाणिया ॥ दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-सन्नि चेव असन्नि चेव, एवं पंचेंदिया सव्वे विगलिंदियवज्जा, जाव वाणमंतरा ९। 10 .दुविधा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-भासगा चेव अभासगा चेव, एवमेगिंदियवज्जा सव्वे १०॥ दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-सम्मदिट्ठीया चेव, मिच्छादिट्ठीया चेव, एगिदियवज्जा सव्वे ११॥ । दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-परित्तसंसारिया चेव अणंतसंसारिया चेव, 15 जाव वेमाणिया १२। दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-संखेजकालसमयट्टितीया चेव असंखेजकालसमयद्वितीया चेव, एवं पंचेंदिया एगिदियविगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा १३॥ - दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-सुलभबोहिया चेव दुल्लभबोहिया चेव, जाव 20 वेमाणिया १४। दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-कण्हपक्खिया चेव सुक्कपक्खिया चेव, जाव वेमाणिया १५॥ दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-चरिमा चेव अचरिमा चेव, जाव वेमाणिया १६॥ 25 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] जीवाधिकारादेव भव्यादिविशेषणैः षोडशभिर्दण्डकप्ररूपणामाह । तत्र भव्यदण्डकः कण्ठ्यः १। अनन्तरदण्डके अणंतर त्ति एकस्मादनन्तरमुत्पन्ना ये तेऽनन्तरोपपन्नकाः, तदन्यथा तु परम्परोपपन्नकाः, विवक्षितदेशापेक्षया वा येऽनन्तरतयोत्पन्नास्ते आद्याः, परम्परया त्वितरे इति २ । गतिदण्डके गतिसमापन्नका 5 नरकं गच्छन्तः, इतरे तु तत्र ये गताः, अथवा गतिसमापन्ना नारकत्वं प्राप्ता इतरे तु द्रव्यनारकाः, अथवा चल-स्थिरत्वापेक्षया नेया इति ३। प्रथमसमयदण्डके पढमेत्यादि, प्रथमः समय उपपन्नानां येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः, तदन्ये अप्रथमसमयोपपन्नका इति ४ । आहारकदण्डके आहारकाः सदैव, अनाहारकास्तु विग्रहगतावेकं द्वौ वा समयौ ये नाडीमध्ये मृत्वा तत्रैवोत्पद्यन्ते, ये त्वन्यथा ते त्रीनिति ५ । उच्छ्वासदण्डके 10 उच्छ्वसन्तीत्युच्छ्वासकास्तत्पर्याप्तिपर्याप्तकाः, तदन्ये तु नोच्छ्वासकाः ६ । इन्द्रियदण्डके सेन्द्रिया: इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः, तदपर्याप्तास्तु अनिन्द्रिया: ७ । पर्याप्तदण्डके पर्याप्ता: पर्याप्तनामकर्मोदयादितरे त्वितरोदयादिति ८ । संज्ञिदण्डके संज्ञिनो मनःपर्याप्त्या पर्याप्तकाः, तया अपर्याप्तकास्तु ये ते असंज्ञिन इति । एवं पंचिंदियेत्यादि, अस्यायमर्थः यथा नारकाः संज्यसंज्ञिभेदेनोक्ताः एवं विगलेंदियवज्ज त्ति, विकलानि अपरिपूर्णानि 15 सङ्ख्ययेन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः, तान् पृथिव्यादीन् द्वित्रिचतुरिन्द्रियांश्च वर्ज्जयित्वा येऽन्ये चतुर्विंशतिदण्डके पञ्चेन्द्रिया असुरादयो भवन्ति ते सर्वेऽपि संज्यसंज्ञितया वाच्याः । दण्डकावसानमाह- जाव वेमाणिय त्ति वैमानिकपर्यवसाना अप्येवं वाच्या इति । क्वचिद् जाव वाणमंतर त्ति पाठस्तत्रायमर्थः- येऽसंज्ञिभ्यो नारकादितयोत्पद्यन्ते तेऽसंज्ञिन एवोच्यन्ते, असंज्ञिनश्च नारकादिषु व्यन्तरावसानेषूत्पद्यन्ते 20 न ज्योतिष्क-वैमानिकेष्विति तेषामसंज्ञित्वाभावादिहाग्रहणमिति ९ । भाषादण्डके भाषका भाषापर्याप्त्यु दये, अभाषकास्तदपर्याप्तकावस्थायामिति, एके न्द्रियाणां भाषापर्याप्तिर्नास्तीत्यत आह- एवमित्यादि १० । सम्यग्दृष्टिदण्डके सम्यक्त्वमेकेन्द्रियाणां नास्ति, द्वीन्द्रियादीनां तु सासादनं स्यादपीत्युक्तम्- एगिदियवज्जा सव्वे त्ति ११ । संसारदण्डके परीत्तसंसारिकाः सक्षिप्तभवा इतरे त्वितरे १२ । स्थितिदण्डके काल: 25 कृष्णोऽपि स्यात् समय आचारोऽपि स्यादतः कालश्चासौ समयश्चेति कालसमय: Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ [सू० ७०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । सङ्ख्येयो वर्षप्रमाणतः स यस्यां सा सङख्येयकालसमया, सा स्थितिः अवस्थान येषां ते सङ्ख्येयकालसमयस्थितिकाः, दशवर्षसहस्रादिस्थितय इत्यर्थः, इतरे तु पल्योपमासङ्ख्येयभागादिस्थितयः, संखिज्जकालठिइय त्ति क्वचित् पाठः, स च सुगम एवेति । एवमिति नारकवद् द्विविधस्थितिका दण्डकोक्ताः, किं सर्वेऽपि ?, नेत्याह- पञ्चेन्द्रियाः असुरादयः, किमुक्तं भवति ? एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जाः, 5 एतेषां हि द्वाविंशतिवर्षसहस्रादिका सङ्ख्यातैव स्थितिः, पञ्चेन्द्रिया अपि किं सर्वे ?, नेत्याह-यावद् व्यन्तरा: व्यन्तरान्ताः, एते हि उभयस्वभावा भवन्ति, ज्योतिष्कवैमानिकास्तु असङ्ख्यातकालस्थितय एवेति १३ । बोधिदण्डके बोधिः जिनधर्मः, सा सुलभा येषां ते सुलभबोधिकाः, एवमितरेऽपि १४ । पाक्षिकदण्डके शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्ष: अभ्युपगमः शुक्लपक्षस्तेन चरन्तीति शुक्लपाक्षिकाः, शुक्लत्वं 10 च क्रियावादित्वेनेति, आह च- किरियावाई भव्वे, णो अभव्वे, सुक्कपक्खिए, णो कण्हपक्खिए [ ] त्ति, शुक्लानां वा आस्तिकत्वेन विशुद्धानां पक्षो वर्गः शुक्लपक्षः, तत्र भवाः शुक्लपाक्षिकाः, तद्विपरीतास्तु कृष्णपाक्षिका इति १५ । चरमदण्डके येषां स नारकादिभवश्चरमः, पुनस्तेनैव नोत्पत्स्यन्ते सिद्धिगमनात् ते चरमाः, अन्ये त्वचरमा इति १६ । एवमेते आदितोऽष्टादश दण्डकाः। 15 [सू० ७०] दोहिं ठाणेहिं आया अहेलोगं जाणति पासति, तंजहासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति, असमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति, आहोहि समोहतासमोहतेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति १॥ एवं तिरियलोगं २ उट्टलोगं ३ केवलकप्पं लोगं ४॥ 20 दोहिं ठाणेहिं आता अहेलोगं जाणति पासति, तंजहा-विउव्वितेण चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति, अविउव्वितेणं चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति, आहोधि विउव्वियाविउव्वितेण चेव अप्पाणेणं आता अहेलोगं जाणति पासति १॥ एवं तिरियलोगं २ उड्डलोगं ३ केवलकप्पं लोगं ४ 25 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] प्राग् वैमानिकाश्चरमाचरमत्वेनोक्ताः, ते चावधिनाऽधोलोकादीन् विदन्त्यतस्तद्वेदने जीवस्य प्रकारद्वयमाह- दोहीत्यादि सूत्रचतुष्टयम् । द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रकाराभ्यामात्मगताभ्यामात्मा जीवोऽधोलोकं जानात्यवधिज्ञानेन पश्यत्यवधिदर्शनेन समवहतेन वैक्रियसमुद्घातगतेनाऽऽत्मना स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा, 5 असमवहतेन त्वन्यथेति, एतदेव व्याख्याति – आहोहीत्यादि यत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, परमावधेर्वाऽधोवय॑वधिर्यस्य सोऽधोवधिरात्मा नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी, स कदाचित् समवहतेन कदाचिदन्यथेति समवहतासमवहतेने ति । एवमित्यादि, एवमिति यथाऽधोलोक: समवहतासमवहतप्रकाराभ्यामवधेर्विषयतयोक्त एवं तिर्यग्लोकादयोऽपीति, सुगमानि च 10 तिर्यग्लोकोर्ध्वलोक-केवलकल्पलोकसूत्राणि, नवरं केवलः परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णस्तं लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमिति । वैक्रियसमुद्घातानन्तरं वैक्रियं शरीरं भवतीति वैक्रियशरीरमाश्रित्याधोलोकादिज्ञाने प्रकारद्वयमाह- दोहीत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम्, नवरं विउव्विएणं ति 15 कृतवैक्रियशरीरेणेति । [सू० ७१] दोहिं ठाणेहिं आया सद्दाइं सुणेति, तंजहा-देसेण वि आया सद्दाइं सुणेति, सव्वेण वि आया सद्दाइं सुणेति १, एवं रूवाइं पासति २, गंधाई अग्घाति ३, रसाइं आसादेति ४, फासाई पडिसंवेदेति ५। दोहिं ठाणेहिं आया ओभासति, तंजहा-देसेण वि आया ओभासति, 20 सव्वेण वि आया ओभासति १॥ एवं पभासति २, विकुव्वति ३, परियारेति ४, भासं भासति ५, आहारेति ६, परिणामेति ७, वेदेति ८, निजरेति ९। __दोहिं ठाणेहिं देवे सद्दाइं सुणेति, तंजहा-देसेण वि देवे सद्दाइं सुणेति, सव्वेण वि देवे सद्दाइं सुणेति, जाव निजरेति १४।। [टी०] ज्ञानाधिकार एवेदमपरमाह- दोहीत्यादि पञ्चसूत्री, स्थानाभ्यां प्रकाराभ्यां 25 देसेण वि त्ति देशेन च शृणोत्येकेन श्रोत्रेणैकश्रोत्रोपघाते सति, सर्वेण Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७२] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । वाऽनुपहतश्रोत्रेन्द्रियो यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलब्धियुक्तः स सर्वैरिन्द्रियैः शृणोतीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते । एवमिति यथा शब्दान् देश- सर्वाभ्याम् एवं रूपादीनपि, नवरं जिह्वादेशस्य प्रसुप्त्यादिनोपघाताद्देशेनाऽऽस्वादयतीत्यवसेयमिति । शब्दश्रवणादयो जीवपरिणामा उक्ताः, तत्प्रस्तावात् तत्परिणामान्तराण्याहदोहीत्यादि, नव सूत्राणि सुगमानि, नवरम् अवभासते द्योतते देशेन खद्योतकवत्, 5 सर्वतः प्रदीपवत्, अथवा अवभासते जानाति, स च देशतः फडकावधिज्ञानी सर्वतोऽभ्यन्तरावधिरिति १, एवमिति देश - सर्वाभ्यां प्रभासते प्रकर्षेण द्योतते २, विकरोति देशेन हस्तादिवैक्रियकरणेन, सर्वेण सर्वस्यैव कायस्येति ३, परियारेइत्ति मैथुनं सेवते देशेन मनोयोगादीनामन्यतमेन, सर्वेण योगत्रयेणापि ४, भाषां भाषते देशेन जिह्वाग्रादिना, सर्वेण समस्तताल्वादिस्थानैः ५, आहारयति देशेन मुखमात्रेण, सर्वेण 10 ओजआहारापेक्षया ६, आहारमेव परिणमयति परिणामं नयति खल- रसविभागेन, भक्ताशयदेशस्य प्लीहादिना रुद्धत्वाद् देशतः, अन्यथा तु सर्वतः ७, वेदयति अनुभवति, देशेन हस्तादिना अवयवेन, सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान् परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणामतः ८, निर्ज्जरयति त्यजत्याहारितान् परिणमितान् वेदितान् आहारपुद्गलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणैव प्रस्वेदवदिति ९, अथवैतानि चतुर्द्दशापि सूत्राणि 15 विवक्षितविषयवस्त्वपेक्षया नेयानि, तत्र देश - सर्वयोजना यथा देशेनापीति देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छृणोतीति, सर्वेणापीति सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वानेवेत्यर्थः एवं रूपादीनपि, तथा विवक्षितस्य देशं सर्वं वा विवक्षितमवभासयत्येवं प्रभासयति, एवं विकुर्वणीयं विकुरुते, परिचारणीयं स्त्रीशरीरादि परिचारयति, भाषणीयापेक्षया देशतो भाषां भाषते सर्वतो वेति, अभ्यवहार्यमाहारयति, आहृतं 20 परिणमयति, वेद्यं कर्म वेदयति देशतः सर्वतो वा, एवं निर्जरयत्यपि । १०३ देश-सर्वाभ्यां सामान्यतः श्रवणाद्युक्तं विशेषविवक्षायां प्रधानत्वाद् देवानां तानाश्रित्य तदाह– दोहीत्यादि, एतदपि विवक्षितशब्दादिविषयापेक्षया सूत्रचतुर्दशकं नेयमिति । [सू० ७२] मरुया देवा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - एगसंरीरि चेव बिंसरीरि 3. क० मध्ये पत्रं त्रुटितमत्र ॥ २. दुसरीरि जे २, ३ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चेव १॥ एवं किन्नरा २, किंपुरिसा ३, गंधव्वा ४, णागकुमारा ५, सुवन्नकुमारा ६, अग्गिकुमारा ७, वायुकुमारा ८। देवा दुविहा पनत्ता, तंजहा-एगसरीरि चेव बिसरीरि चेव । ॥ बिट्ठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ 5 टी०] देशतः सर्वतो वा एतेऽनन्तरोक्ता भावाः शरीर एव सति भवन्तीति देवानां च प्रधानत्वात् तेषामेव व्यक्तितः शरीरनिरूपणायाह-मरुयेत्यादि सूत्राष्टकं कण्ठ्यम्, नवरं मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, यत उक्तम्- सारस्वता १-ऽऽदित्य २ वढ्य ३ रुण ४ गतोय ५ तुषिता ६ ऽव्याबाध ७ मरुतो ८ ऽरिष्टाश्च ९ [तत्त्वार्थ० ४।२६] इति। ते चैकशरीरिणो विग्रहे कार्मणशरीरत्वात्, तदनन्तरं वैक्रियभावाद् द्विशरीरिणः, द्वयोः 10 शरीरयोः समाहारो द्विशरीरम्, तदस्ति येषां ते तथा, अथवा भवधारणीयमेव यदा तदैकशरीराः यदा तूत्तरवैक्रियमपि तदा द्विशरीराः, किन्नराधास्त्रयो व्यन्तराः, शेषा भवनपतय इति, परिगणितभेदग्रहणं च भेदान्तरोपलक्षणम्, न तु व्यवच्छेदार्थम्, सर्वजीवानामपि विग्रहे एकशरीरत्वस्यान्यदा द्विशरीरत्वस्य चोपपद्यमानत्वादिति ८ । अत एव सामान्यत आह- देवा दुविहेत्यादि कण्ठ्यम् । ॥ द्विस्थानकस्य द्वितीय उद्देशको विवरणतः समाप्तः ।। 15 - [अथ तृतीय उद्देशकः] [सू० ७३] दुविहे सद्दे पन्नत्ते, तंजहा-भासासद्दे चेव णोभासासद्दे चेव १। भासासद्दे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अक्खरसंबद्धे चेव नोअक्खरसंबद्धे चेव २॥ 20 णोभासासद्दे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-आउज्जसद्दे चेव णोआउज्जसद्दे चेव ३। आउज्जसद्दे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-तते चेव वितते चेव ४। तते दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-घणे चेव झुसिरे चेव ५। एवं वितते वि ६। णोआउज्जसद्दे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-भूसणसद्दे चेव नोभूसणसद्दे चेव ७। णोभूसणसद्दे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-तालसद्दे चेव लत्तियासद्दे चेव ८। १. सरीरा चेव बिसरीरा चेव क० ॥ २. लौका खं० ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १०५ ___ दोहिं ठाणेहिं सद्दुप्पाए सिया, तंजहा-साहन्नंताण चेव पुगलाणं सद्दुप्पाए सिया, भिजंताण चेव पोग्गलाणं सहप्पाए सिया । [टी०] उक्तो द्वितीयोद्देशकः, अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चानन्तरेण सहायमभिसम्बन्धः- अनन्तरोद्देशके जीवपदार्थोऽनेकधोक्तः, अत्र तु तदुपग्राहकपुद्गल-जीवधर्म-क्षेत्रेन्द्रलक्षणपदार्थप्ररूपणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्याऽस्येदमादिसूत्राष्टकम्- 5 दुविहेत्यादि । अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः- इहानन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे देवानां शरीरं निरूपितं तद्वांश्च शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावनिरूप्यते, इत्येवम्सम्बन्धस्याऽस्य व्याख्या, सा च सुकरैव, नवरं भाषाशब्दो भाषापर्याप्तिनामकर्मोदयापादितो जीवशब्दः, इतरस्तु नोभाषाशब्दः १, अक्षरसम्बद्धो वर्णव्यक्तिमान, नोअक्षरसम्बद्धस्त्वितर इति २, आतोद्यं पटहादि, तस्य यः शब्दः 10 स तथा, नोआतोद्यशब्दो वंशस्फोटादिरवः ३, ततं यत्तन्त्री-वर्धादिबद्धमातोद्यम् ४, तच्च किञ्चिद् घनं यथा पिञ्जनिकादि, किञ्चिच्छुषिरं यथा वीणा-पटहादिकम्, तज्जनितः शब्दस्ततो घन: शुषिरश्चेति व्यपदिश्यते ५, विततं ततविलक्षणं तन्त्र्यादिरहितम्, तदपि घनं भाणकवत् शुषिरं काहलादिवत्, तज्जः शब्दो विततो घन: शुषिरश्चेति, चतु:स्थानके पुनरिदमेवं भणिष्यतेततं वीणादिकं ज्ञेयम्, विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥ [ ] इति । विवक्षाप्राधान्याच्च न विरोधो मन्तव्य इति ६, भूषणं नुपूरादि, नोभूषणं भूषणादन्यत् ७, तालो हस्ततालः, लत्तिय त्ति कंसिकाः, ता हि आतोद्यत्वेन न विवक्षिता इति, अथवा लत्तियासद्दे त्ति पार्ष्णप्रहारशब्दः ८ । 20 उक्ताः शब्दभेदाः, इतस्तत्कारणनिरूपणायाह- दोहीत्यादि, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां कारणाभ्यां शब्दोत्पादः स्याद् भवेत् ८, संहन्यमानानां च सङ्घातमापद्यमानानां सतां कार्यभूतः शब्दोत्पादः स्यात्, पञ्चम्यर्थे वा षष्ठीति संहन्यमानेभ्य इत्यर्थः, पुद्गलानां बादरपरिणामानां यथा घण्टा-लालयोः, एवं भिद्यमानानां च वियुज्यमानानां यथा वंशदलानामिति। 25 १. संबद्धस्या जे१,२ । संबंद्धस्या पा० ।। २. संबद्धस्या जे१,२ ॥ ३. तुलना- “ततं वीणादिकं वाद्यम् आनद्धं मुरजादिकम् । वंशादिकं तु शुषिरं कांस्यतालादिकं घनम् ॥१८५॥” इति अमरकोषे ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ७४ ] दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहन्नंति, तंजहा - सई वा पोग्गला साहनंति, परेण वा पोग्गला साहन्नंति १ । दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिज्नंति, तंजा - सई वा पोग्गला भिजंति, परेण वा पोग्गला भिजंति २ दोहिं ठाणेहिं पोग्गला परिपडंति, तंजहा - सई वा पोग्गला परिपडंति, 5 परेण वा पोग्गला परिपाडिज्जंति ३, एवं परिसडंति ४, विद्धस्संति ५ । १०६ [टी०] पुद्गलसङ्घात-भेदयोरेव कारणनिरूपणायाह- दोहीत्यादि सूत्रपञ्चकं कण्ठ्यम्। नवरं स्वयं वेति स्वभावेन वा अभ्रादिष्विव पुद्गलाः संहन्यन्ते सम्बध्यन्ते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयम्, परेण वा पुरुषादिना वा संहन्यन्ते संहताः क्रियन्ते, कर्म्मप्रयोगोऽयम् । एवं भिद्यन्ते विघटन्ते, तथा परिपतन्ति पर्वतशिखरादेरिवेति, 10 परिशटन्ति कुष्ठादेर्निमित्तादङ्गुल्यादिवत्, विध्वस्यन्ते विनश्यन्ति घनपटलवदिति ५ । [सू० ७५] दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा - भिन्ना चेव अभिन्ना चेव १ । दुविहा पोग्गला पत्ता, तंजहा - भेउरधम्मा चेव नोभेउरधम्मा चेव २। दुविहा पोग्गला पत्ता, तंजहा - परमाणुपोग्गला चेव नोपरमाणुपोग्गला चेव ३| दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा - चेव बायरा चेव ४ | - सुहुमा दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा- बद्धपासपुट्ठा चेव नोबद्धपासपुट्ठा चेव ५ | दुविहा पोग्गला पत्ता, तंजहा - परियाइय च्चेव अपरियाइय च्चेव ६ । दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा - अत्ता चेव अणत्ता चेव ७। दुविहा पोग्गला पत्ता, तंजहा - इट्ठा चेव अणिट्ठा चेव ८, एवं कंता 20९, पिया १०, मणुन्ना ११, मणामा १२ । दुविहा सा पत्ता, तंजहा - अत्ता चेव अणत्ता चेव १, एवमिट्ठा जाव मामा ६ | दुविहा रूवा पन्नत्ता, तंजहा - अत्ता चेव अणत्ता चेव, जाव मणामा ६। एवं गंधा ६, रसा ६, फासा ६, एवमेक्क्के छ आलावगा भाणियव्वा । [टी०] पुद्गलानेव द्वादशसूत्र्या निरूपयन्नाह - दुविहेत्यादि, भिन्ना: विचटिता इतरे १. परिपडिज्जंति क० ॥ २. विद्धंसंति क० ॥ 15 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १०७ त्वभिन्ना: १, स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरम्, भिदुरत्वं धर्मो येषां ते भिदुरधर्माण: अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयम्, प्रतिपक्षः प्रतीत एवेति २, परमाश्च ते अणवश्चेति परमाणवः, नोपरमाणवः स्कन्धाः ३, सूक्ष्माः येषां सूक्ष्मपरिणामः, शीतोष्ण-स्निग्धरूक्षलक्षणाश्चत्वार एव च स्पर्शाः, ते च भाषादयः, बादरास्तु येषां बादरः परिणामः पञ्चादयश्च स्पर्शाः, ते चौदारिकादयः ४, पार्श्वन स्पृष्टा देहत्वचा छुप्ता रेणुवत् 5 पार्श्वस्पृष्टास्ततो बद्धाः गाढतरं श्लिष्टाः तनौ तोयवत्, पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः, आह च- पुढे रेणुं व तणुम्मि बद्धमप्पीकयं पएसेहिं [विशेषाव० ३३७] ति, एते च घ्राणेन्द्रियादिग्रहणगोचराः । तथा नोबद्धाः पार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदप्रतिषेधे श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः, यत उक्तम्पुढे सुणेइ सदं रूवं पुण पासई अपुढे तु । 10 गंधं रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे ॥ [विशेषाव० ३३६] त्ति ।। उभयपदनिषेधे श्रोत्राद्यविषयाश्चक्षुर्विषयाश्चेति, इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्श्वस्पृष्टता पुद्गलानां व्याख्याता, एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति ५, परियाइय त्ति विवक्षितं पर्यायमतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा सामस्त्यगृहीताः कर्मपुद्गलवत्, प्रतिषेधः सुज्ञानः ६, आत्ता: गृहीताः स्वीकृता जीवेन परिग्रहमात्रतया शरीरादितया 15 वा ७, इष्यन्ते स्म अर्थक्रियार्थिभिरितीष्टाः ८, कान्ता: कमनीया विशिष्टवर्णादियुक्ताः ९, प्रियाः प्रीतिकराः इन्द्रियाह्लादकाः १०, मनसा ज्ञायन्ते शोभना एत इत्येवं विकल्पमुत्पादयन्तः शोभनत्वप्रकर्षाद्ये ते मनोज्ञाः ११, मनसो मता वल्लभाः सर्वस्याप्युपभोक्तुः सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादेव निरुक्तविधिना मणामा १२ इति, व्याख्यानान्तरं त्वेवम्- इष्टाः वल्लभाः सदैव जीवानां सामान्येन, कान्ताः कमनीयाः 20 सदैव तद्भावेन, प्रियाः अद्वेष्याः सर्वेषामेव, मनोज्ञा: मनोरमाः कथयाऽपि, मनआमा मनः प्रियाश्चिन्तयाऽपीति, विपक्षः सुज्ञानः सर्वत्रेति । पुद्गलाधिकारादेव तद्धर्मान् शब्दादीन् अनन्तरोक्तसविपर्ययात्तादिविशेषणषट्कविशिष्टान् दुविहा सद्देत्यादिसूत्रत्रिंशताऽऽह, कण्ठ्या चेयमिति । १. “राजदन्तादिषु परम् । २।२।३१। एषु पूर्वप्रयोगार्ह परं स्यात् । दन्तानां राजा राजदन्तः।" - पा० सिद्धान्तकौमुदी।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ७६] दुविहे आयारे पन्नत्ते, तंजहा-णाणायारे चेव नोनाणायारे चेव १। णोनाणायारे दविहे पन्नत्ते, तंजहा-दंसणायारे चेव नोदंसणायारे चेव २॥ नोदंसणायारे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-चरित्तायारे चेव नोचरित्तायारे चेव ३॥ णोचरित्तायारे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-तवायारे चेव वीरियायारे चेव ४। 5 [टी०] उक्ताः पुद्गलधर्माः, सम्प्रति धर्माधिकाराज्जीवधर्मानाह- दुविहे आयारे इत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम्, नवरम् आचरणमाचारो व्यवहारः, ज्ञानं श्रुतज्ञानम्, तद्विषय आचार: कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः, आह च काले विणए बहुमाणुवहाणे चेव तह अनिण्हवणे । वंजणमत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो ॥ [दशवै०नि० १८४, निशीथभा० ८] त्ति । 10 नोज्ञानाचारः एतद्विलक्षणो दर्शनाद्याचार इति । दर्शनं सम्यक्त्वम्, तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टविध एव, आह च णिस्संकिय १ निक्कंखिय २ निव्वितिगिच्छा ३ अमूढदिट्ठी ४ य । ___उववूह ५ थिरीकरणे ६ वच्छल्ल ७ पभावणे ८ अट्ठ॥[दशवै०नि० १८२, निशीथभा० २३] त्ति। 15 नोदर्शनाचारश्चारित्रादिरिति । चारित्राचारः समिति-गुप्तिरूपोऽष्टधा, आह च पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तीहि उ गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥ [दशवै०नि० १८५, निशीथभा० ३५] त्ति । नोचारित्राचारस्तपआचारप्रभृतिः, तत्र तपआचारो द्वादशधा, उक्तं चबारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिखे। अगिलाए अणाजीवी नायव्वो सो तवायारो ॥ [दशवै०नि० १८६, निशीथभा० ४२] त्ति। वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनं तदनतिक्रमश्चेति, उक्तं चअणिगूहियबलविरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ य जहाथामं नायव्वो वीरियायारो ॥ [दशवै०नि० १८७, निशीथभा० ४३] त्ति । [सू० ७७] दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-समाहिपडिमा चेव 25 उवहाणपडिमा चेव १॥ १. तीहिं गुत्तीहिं पा० जे२ । तिहिं गुत्तीहिं खं० ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ [सू० ७७] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः।। दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-विवेगपडिमा चेव विउस्सग्गपडिमा चेव । दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-भद्दा चेव सुभद्दा चेव ३। दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-महाभद्दा चेव सव्वतोभद्दा चेव ४। दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-खुड्डिया चेव मोयपडिमा, महल्लिया चेव मोयपडिमा ५। दो पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-जवमज्झा चेव चंदपडिमा, वइरमज्झा चेव चंदपडिमा ६। [टी०] अथ वीर्याचारस्यैव विशेषाभिधानाय षट्सूत्रीमाह- दो पडिमेत्यादि, प्रतिमा प्रतिपत्तिः, प्रतिज्ञेति यावत्, समाधानं समाधिः प्रशस्तभावलक्षणः, तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा श्रुतसमाधिप्रतिमा 10 सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च । उपधानं तपः, तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवंरूपेति। विवेचनं विवेकः त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गण-शरीर-भक्त-पानादीनामनुचितानाम् , तत्प्रतिपत्तिर्विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा कायोत्सर्गकरणमेवेति । भद्रा पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति, 15 सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति । महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयमाना, सर्वतोभद्रा तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति । मोकप्रतिमा प्रश्रवणप्रतिज्ञा, सा च कालभेदेन क्षुद्रिका महती च भवतीति, यत उक्तं व्यवहारे- खुड्डियं णं मोयपडिम १. प्रथमे परिशिष्टे द्रष्टव्यम् ॥ २. तथैव च जे१ ॥ ३. 'खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पइ से पढमसरदकालसमयंसि वा चरिमनिदाहकालसमयंसि वा बहिया गामस्स वा जाव सन्निवेसस्स वा वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुगंसि वा, भोच्चा आरुभइ चोद्दसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, जाए मोए आईयव्वे, दिया आगच्छइ आईयव्वे, राई आगच्छइ नो आईयव्वे, सपाणे आगच्छइ नो आईयव्वे, अपाणे आगच्छइ आईयव्वे, सबीए आगच्छइ नो आईयव्वे, अबीए आगच्छइ आईयव्वे, ससणिद्धे आगच्छइ नो आईयव्वे अससणिद्धे आगच्छइ आईयव्वे, तंजहा- अप्पे वा बहुए वा । एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहासुत्तं [अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए] अनुपालिया भवइ महाल्लियं णं मोयपडिम पडिवन्नस्स... ... ... भोच्चा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ अट्ठारसमेणं पारेइ....” इति व्यवहारसूत्रे नवमे उद्देशके । दृश्यतां सू० २५१, ३९२ ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ११० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पडिवण्णस्से [व्यवहार०९।२४२] त्यादि, इयं च द्रव्यतः प्रश्रवणविषया क्षेत्रतो ग्रामादेर्बहिः कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा तु षोडशभक्तेन, भावतस्तु दिव्याधुपसर्गसहनमिति, एवं महत्यपि, नवरं भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते षोडशभक्तेन समाप्यते, अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति । यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृद्धि-हानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि- शुक्लप्रतिपदि एकं कवलमभ्यवहृत्य ततः प्रतिदिनं कवलवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदश भुक्त्वा प्रतिदिनमेकहान्याऽमावास्यायामेकमेव यस्यां भुङ्क्ते सा यवमध्या चन्द्रप्रतिमेति, यस्यां तु कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश भुक्त्वा एकैकहान्याऽमावास्यायामेकं शुक्लप्रतिपदि चैकमेव 10 ततः पुनरेकैकवृद्ध्या पूर्णिमायां पञ्चदश भुङ्क्ते सा वज्रस्येव मध्यं यस्यां तन्वित्यर्थः सा वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमेति, एवं भिक्षादावपि वाच्यमिति । [सू० ७८] दुविहे सामाइए पन्नत्ते, तंजहा-अगारसामाइए चेव अणगारसामाइए चेव । [टी०] प्रतिमाश्च सामायिकवतामेव भवन्तीति सामायिकमाह-दविहेत्यादि, समानां 15 ज्ञानादीनामायो लाभः समायः, स एव सामायिकमिति, तद् द्विविधम् अगारवदनगारस्वामिभेदाद्, देश-सर्वविरती इत्यर्थः । [सू० ७९] दोण्हं उववाते पन्नत्ते, तंजहा-देवाणं चेव नेरइयाणं चेव ९। दोण्हं उव्वदृणा पन्नत्ता, तंजहा-णेरइयाणं चेव भवणवासीणं चेव २॥ दोण्हं चयणे पन्नत्ते, तंजहा-जोइसियाणं चेव वेमाणियाणं चेव ३। 20 दोण्हं गब्भवक्कं ती पन्नत्ता, तंजहा-मणुस्साणं चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव ४। ___ दोण्हं गब्भत्थाणं आहारे पन्नत्ते, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ५। दोण्हं गब्भत्थाणं वुड्डी पन्नत्ता, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्ख25 जोणियाण चेव ६। एवं निवुड्डी ७, विगुव्वणा ८, गतिपरियाए ९, समुग्घाते Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १११ १०, कालसंजोगे ११, आयाति १२, मरणे १३। __दोण्हं छविपव्वा पन्नत्ता, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव १४॥ दो सुक्क-सोणितसंभवा पन्नत्ता, तंजहा-मणुस्सा चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया चेव १५। 5 दुविहा ठिती पन्नत्ता, तंजहा-कायट्ठिती चेव भवट्ठिती चेव १६। दोण्हं कायट्ठिती पन्नत्ता, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव १७॥ दोण्हं भवहिती पन्नत्ता, तंजहा-देवाण चेव नेरइयाण चेव १८। दुविहे आउए पन्नत्ते, तंजहा-अद्धाउए चेव भवाउए चेव १९। 10 दोण्हं अद्धाउए पन्नत्ते, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव २०। दोण्हं भवाउए पन्नत्ते, तंजहा-देवाण चेव णेरड्याण चेव २१॥ दुविहे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा- पदेसकम्मे चेव अणुभावकम्मे चेव २२॥ दो अहाउयं पालेंति, तंजहा- देव च्चेव नेरइय च्चेव २३। दोण्हं आउयसंवट्टए पन्नत्ते, तंजहा-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव २४॥ [टी०] जीवधर्माधिकार एव तद्धर्मान्तराणि दोण्हं उववाए इत्यादिभिश्चतुर्विंशत्या सूत्रैराह, सुगमानि चैतानि, नवरं दोण्हं ति द्वयोर्जीवस्थानकयोरुपपतनमुपपातो गर्भसंमूर्छनलक्षणजन्मप्रकारद्वयविलक्षणो जन्मविशेष इति, दीव्यन्ति इति देवाः चतुर्निकाया: 20 सुराः, नैरयिकाः प्राग्वत्, तेषाम् १ । उद्वर्त्तनमुद्वर्त्तना तत्कायान्निर्गमः, मरणमित्यर्थः, तच्च नैरयिक-भवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते, अन्येषां तु मरणमेवेति । नैरयिकाणां नारकाणाम्, तथा भवनेषु अधोलोकदेवावासविशेषेषु वस्तुं शीलमेषामिति भवनवासिनः, तेषाम् २ । च्युतिश्च्यवनं मरणमित्यर्थः, तच्च ज्योतिष्क-वैमानिकानामेव व्यपदिश्यते, ज्योतिष्षु नक्षत्रेषु भवाः ज्योतिष्काः , शब्दव्युत्पत्तिरेवेयम्, 25 15 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात्तु चन्द्रादयो ज्योतिष्का इति, विमानेषु ऊर्ध्वलोकवर्त्तिषु भवाः वैमानिकाः सौधर्मा दिवासिनः, तेषाम् ३ गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिर्गर्भव्युत्क्रान्ति:, मनोरपत्यानि मनुष्याः, तेषाम्, तिरोऽञ्चन्ति गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, तेषां सम्बन्धिनी योनि: उत्पत्तिस्थानं येषां ते तिर्यग्योनिकाः, ते चैकेन्द्रियादयो 5 भवन्तीति विशेष्यन्ते- पञ्चेन्द्रियाश्च ते तिर्यग्योनिकाश्चेति पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तेषाम् ४ । तथा द्वयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्यैवाभावादिति ५ । वृद्धिः शरीरोपचयः ६, निवृद्धिस्तद्धानिर्वातपित्तादिभिः, निशब्दस्याभावार्थत्वात्, निवरा कन्येत्यादिवत् ७, वैक्रियलब्धिमतां विकुर्वणा ८, गतिपर्याय: चलनं मृत्वा वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यच्च वैक्रियलब्धिमान् गर्भान्निर्गत्य प्रदेशतो बहिः सङ्ग्रामयति ° स वा गतिपर्यायः, उक्तं च भगवत्याम्____ जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे णेरइएसु उववज्जेज्जा ?, गोतमा !, अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा, से केणटेणं?, गोतमा ! से णं सन्नी पंचिंदिए सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विउव्विअलद्धीए पराणीयं आगतं सोच्चा णिसम्म पएसे निच्छुब्भइ, २ वेउव्वियसमुग्घाएणं समोभन्नइ, २ चाउरंगिणिं सेन्नं(णं) विउव्वइ, २ चाउरंगिणीए सेणाए 15 पराणीएणं सद्धिं संगाम संगामेइ [भगवती०१।७।१९] [इ]त्यादि ९, समुद्घातो मारणान्तिकादिः १०, कालसंयोग: कालकृतावस्था ११, आयाति: गर्भान्निर्गमः १२, मरणं प्राणत्यागः १३, दोण्हं छविपव्व त्ति द्वयानाम् उभयेषां छवि त्ति मतुब्लोपाच्छविमन्ति त्वग्वन्ति पव्व त्ति पर्वाणि सन्धिबन्धनानि छविपर्वाणि, क्वचित् छवियत्त त्ति पाठः, तत्र छवियोगाच्छविः, स एव छविकः, स चासौ अत्त 20 त्ति आत्मा च शरीरं छविकात्मेति, छविपत्त त्ति पाठान्तरे छविः प्राप्ता जातेत्यर्थः, गर्भस्थानामिति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् १४ । दो सुक्केत्यादि, द्वये शुक्रं रेतः शोणितम् आर्त्तवं ताभ्यां सम्भवो येषां ते तथा १५ । कायट्ठिति त्ति काये निकाये १. विशिष्यन्ते खं० पा० जे२ ॥ २. “से णं जीवे अत्थकामए रजकामए भोगकामए कामकामए, अत्थकंखिए रजकंखिए भोगकंखिए कामकंखिए, अत्थपिवासिए रजपिवासिए भोगपिवासिए, कामपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदाप्पितकरणे तब्भावणाभाविते एतंसि णं अंतरंसि कालं करेज नेरतिएसु उववज्जइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेजा।” इति सम्पूर्ण सूत्रं भगवत्याम् । अस्य टीका प्रथमे परिशिष्टे द्रष्टव्या ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ११३ पृथिव्यादिसामान्यरूपेण स्थितिः कायस्थितिः असङ्ख्योत्सर्पिण्यादिका, भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थः १६ । दोण्हं ति द्वयानामुभयेषामित्यर्थः, कायस्थितिः सप्ताष्टभवग्रहणरूपा, पृथिव्यादीनामपि साऽस्ति, न चानेन तद्व्यवच्छेदः, अयोगव्यवच्छेदपरत्वात् सूत्राणामिति १७ । दोण्हेत्यादि, देव-नारकाणां भवस्थितिरेव, देवादेः पुनर्देवादित्वेनाऽनुत्पत्तेरिति १८ । दुविहे इत्यादि, अद्धा कालः, तत्प्रधानमायुः 5 कर्मविशेषोऽद्धायुः, भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थः, यथा मनुष्यायुः, कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यपि तु सप्ताष्टभवमानं कालमुत्कर्षतोऽनुवर्तत इति, तथा भवप्रधानमायुर्भवायुः, यद् भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति, यथा देवायुरिति, १९ । दोण्हमित्यादि सूत्रद्वयं भावितार्थमेव २१ । दुविहे कम्मे इत्यादि, प्रदेशा एव पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते न यथाबद्धो रसस्तत् प्रदेशमात्रतया वेद्यं कर्म 10 प्रदेशकर्म, यस्य त्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्माऽनुभावकर्मेति २२ । दो इत्यादि, यथाबद्धमायुर्यथायुः पालयन्ति अनुभवन्ति, नोपक्रम्यते तदिति यावदिति, देवा नेरइया वि य असंखवासाउया य तिरि-मणुया । उत्तमपुरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥ [श्रावकप्र० ७४] 15 इति वचने सत्यपि देव-नारकयोरेवेह भणनं द्विस्थानकानुरोधादिति २३ । दोण्हमित्यादि, संवर्तनमपवर्त्तनं संवर्तः, स एव संवर्तकः, उपक्रम इत्यर्थः, आयुषः संवर्तकः आयुःसंवर्तक इति २४ । [सू० ८०] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवटंति आयाम-विक्खंभ- 20 संठाण-परिणाहेणं, तंजहा-भरहे चेव एरवते चेव । एवमेतेणमभि-लावणं हेमवते चेव हेरन्नवते चेव, हरिवासे चेव रम्मयवासे चेव ३॥ [टी०] पर्यायाधिकारादेव नियतक्षेत्राश्रितत्वात् क्षेत्रव्यपदेश्यान् पुद्गलपर्यायानभिधित्सुः जंबूदीवेत्यादिना क्षेत्रप्रकरणमाह, सुगमं चैतत्, नवरमिह १. उत्तिम जे१ ॥ २. चरिम जे१ खं० ।। ३. पं० तं० भा० विना । एवमग्रेऽपि ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जम्बूद्वीपप्रकरणं परिपूर्णचन्द्रमण्डलाकारं जम्बूद्वीपं तन्मध्ये मेरुम् उत्तरदक्षिणतः क्रमेण वर्षाणि च स्थापयित्वा, तद्यथा भरहं हेमवयं ति य हरिवासं ति य महाविदेहं ति । रम्मयमेरन्नवयं एरवयं चेव वासाइं ॥ [बृहत्क्षेत्र० २३] ति । तथा वर्षान्तरेषु वर्षधरपर्वतान् कल्पयित्वा, तद्यथाहिमवंत १ महाहिमवंत २ पव्वया निसढ ३ नीलवंता य ४ । रुप्पी ५ सिहरी ६ एए वासहरगिरी मुणेयव्वा ॥ [बृहत्क्षेत्र० २४] इति । सर्वमवबोद्धव्यमिति। मन्दरस्य मेरोः, उत्तरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुत्तरदक्षिणयोरिति वाक्ये 10 उत्तरदक्षिणेनेति स्याद्, एनप्रत्ययविधानादिति, द्वे वर्षे क्षेत्रे प्रज्ञप्ते जिनैः, समतुल्यशब्दः सदृशार्थः, अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतः, अविशेषे अविलक्षणे नग-नगरनद्यादिकृतविशेषरहिते, अनानात्वे अवसर्पिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते, किमुक्तं भवतीत्याह- अन्योन्यं परस्परं नातिवर्तेते, इतरेतरं न लङ्घयत इत्यर्थः, कैरित्याह आयामेन दैर्येण विष्कम्भेन पृथुत्वेन संस्थानेन आरोपितज्याधनुराकारेण परिणाहेन 15 परिधिनेति, इह च द्वन्द्वैकवद्भावः कार्य इति, अथवा बहुसमतुल्ये आयामतः, तथाहिभरतपर्यन्तश्रेणी चोद्दस य सहस्साई सयाई चत्तारि एगसयराई। ___ भरहद्धुत्तरजीवा छा य कला ऊणिया किंचि ॥ [बृहत्क्षेत्र० ४९] कला च योजनस्यैकोनविंशतितमो भाग इति १४४७१ १५ , ऐरवतेऽप्येवम् । 20 तथा अविशेषे विष्कम्भतः, तथाहि - पंच सए छव्वीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासं [बृहत्क्षेत्र० २९] ति, ५२६ १६ , अयमेव चैरवतस्यापीति । अनानात्वे संस्थानतः, अन्योन्यं नातिवर्तेते परिणाहतः, परिणाहश्च ज्याधनुःपृष्ठयोर्यत् प्रमाणम्, तत्र ज्याप्रमाणमुक्तम्, धनुःपृष्ठप्रमाणं त्विदम् चोद्दस य सहस्साइं पंचेव सयाई अट्ठवीसाइं । 25 एगारस य कलाओ धणुपटुं उत्तरद्धस्स ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५०] १४५२८ १९ । १. “एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्याः ''- पा० ५।३।३५।। २. अविशेषलक्षणे जे१ ॥ ३. एर जे१ पा० ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू०८१-८२] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । यथा च भरतस्यैरवतस्यापि तथैवेति । एकार्थिकानि वैतानि पदानि, भृशार्थत्वाच्च न पुनरुक्ततेति, उक्तं च अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु। ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥ [ ] इति । तद्यथा- भरहे चेवेत्यादि, उत्तरदाहिणेणं ति एतस्य पाठस्य यथा- 5 सङ्ख्यन्यायानाश्रयणाद् यथासत्तिन्यायाश्रयणाच्च जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे भागे भरतमा हिमवतः, तस्यैवोत्तरे भागे ऐरवतं शिखरिणः परत इति, एवमिति भरतैरवतवत् एतेनाभिलापेन ‘जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्से'त्यादिना उच्चारणेनाऽपरं सूत्रद्वयं वाच्यम्, तयोश्चायं विशेषः- हेमवए चेवेत्यादि, तत्र हैमवतं दक्षिणतो हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये, हैरण्यवतमुत्तरतः रुक्मि-शिखरिणोरन्तः, हरिवर्षं दक्षिणतो महाहिमवन्निषधयोरन्तः, 10 रम्यकवर्षं चोत्तरतो नील-रुक्मिणोरन्तरिति। _[सू० ८१] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं दो खेत्ता पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेस जाव पुव्वविदेहे चेव अवरविदेहे चेव १॥ [टी०] जंबूदीवेत्यादि, पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं ति पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशि पश्चात् पश्चिमायामित्यर्थः, यथाक्रमं पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति पूर्वविदेहः, एवमपरविदेह इति, 15 एतेषां चायामादि ग्रन्थान्तरादवसेयमिति । [सू० ८२] जंबुमंदरस्स पव्वतस्स उत्तरदाहिणेणं दो कुराओ पन्नत्ताओ बहुसमतुल्लाओ जाव देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव । तत्थ णं दो महतिमहालया महादुमा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णाइवटुंति आयामविक्खंभुच्चत्तोव्वेध-संठाण-परिणाहेणं, तंजहा-कूडसामली चेव जंबू चेव 20 सुदंसणा । तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव महासोक्खा पलिओवमट्टितीया १. “पुनरुक्तापवादमर्थविशेषापेक्षं दर्शयति- अनुवादादर । 'पण्डितमानय' इत्युक्ते पण्डितो देवदत्त इत्यनुवादो न पुनरुक्तम् । एवमादरे स्वामिन् स्वामिन्निति । वीप्सायां ग्रामो ग्रामो रमणीयः । भृशार्थे घनं घनं मृदु मृदु शनैः शनैरिति। विनियोगे घटं कुरु घटं कुर्विति । हेतौ कृतकत्वादनित्यो घटः, तस्मात् कृतकत्वादिति । असूयायां विपर्यस्याऽऽस्यं हसति हसतीति । ईषदीषदिति स्तोकं स्तोकमिति । सम्भ्रमे स्वागतं स्वागतमिति । विस्मये विद्याधरो विद्याधर इति । गणने एकमेकं द्वे द्वे इति । स्मरणे आ ! विदितो विदितः पाटलिपुत्रे दृष्टो दृष्टोऽसीति।" इति मल्लवादिक्षमाश्रमणविरचितनयचक्रस्य सिंहसूरिगणिवादिक्षमाश्रमणविरचितायां वृत्तौ पृ० १३१। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परिवसंति, तंजहा-गरुले चेव वेणुदेवे, अणाढिते चेव जंबूदीवाहिवती । [टी०] जंबू इत्यादि, दक्षिणेन देवकुरवः उत्तरेण उत्तरकुरवः, तत्र आद्या विद्युत्प्रभसौमनसाभिधानवक्षस्कारपर्वताभ्यां गजदन्ताकाराभ्यामावृताः, इतरे तु गन्धमादनमाल्यवर्द्रयामावृताः, उभये चामी अर्द्धचन्द्राकाराः दक्षिणोत्तरतो विस्तृताः, तत्प्रमाणं 5 चेदम् अट्ठ सया बायाला एक्कारस सहस दो कलाओ य । विक्खंभो उ कुरूणं तेवन सहस्स जीवा सिं ॥ [बृहत्क्षेत्र० २६३] पूर्वापरायामाश्चैत इति । महतिमहालय त्ति महान्तौ गुरू अतीति अत्यन्तं महसां तेजसां महानां वा उत्सवानामालयौ आश्रयौ महातिमहआलयौ महातिमहालयौ वा, 10 समयभाषया वा महान्तावित्यर्थः, महाद्रुमौ प्रशस्ततया, आयामो दैर्ध्वम्, विष्कम्भो विस्तारः, उच्चत्वम् उच्छ्रयः, उद्वेधो भुवि प्रवेशः, संस्थानम् आकारः, परिणाहः परिधिरिति, तत्रानयोः प्रमाणम् रयणमया पुप्फफला विक्खंभो अट्ठ अट्ठ उच्चत्तं । जोयणमद्धोवेहो खंधो दोजोयणुव्विद्धो ॥ 15 दो कोसे वित्थिन्नो विडिमा छज्जोयणाणि जंबूए । चाउद्दिसिं पि साला पुव्विल्ले तत्थ सालम्मि ॥ भवणं कोसपमाणं सयणिज्जं तत्थऽणाढियसुरस्स । तिसु पासाया सालेसु तेसु सीहासणा रम्मा ॥ [बृहत्क्षेत्र० २८६-२८७-२८८] इति । शाल्मल्यामप्येवमेवेति, कूटाकारा शिखराकारा शाल्मली कूटशाल्मलीति संज्ञा, 20 सुष्ठ दर्शनमस्या इति सुदर्शनेतीयमपि संज्ञेति, तत्थ त्ति तयोर्महाद्रुमयोः महेत्यादि महती ऋद्धिः आवास-परिवार-रत्नादिका ययोस्तौ महर्द्धिकौ, यावद्ग्रहणात् महज्जुइया महाणुभागा महायसा महाबल त्ति, तत्र द्युति: शरीराभरणदीप्तिः, अनुभाग: अचिन्त्या शक्तिर्वैक्रियकरणादिका, यश: ख्यातिः, बलं सामर्थ्य शरीरस्य, सौख्यम् आनन्दात्मकम्, महेसक्खा इति क्वचित् पाठः, महेशौ महेश्वरावित्याख्या ययोस्तौ 25 महेशाख्याविति, पल्योपमं यावत् स्थिति: आयुर्ययोस्तौ तथा । गरुडः सुपर्णकुमारजातीयः, वेणुदेवो नाम्ना, अणाढिओ त्ति नाम्ना । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ८३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ११७ [सू० ८३] जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासहरपव्वया पत्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिवति आयामविक्खंभुच्चत्तोव्वेध-संठाण-परिणाहेणं, तंजहा-चुल्लहिमवंते चेव सिहरी चेव, एवं महाहिमवंते चेव रुप्पी चेव, एवं निसढे चेव णीलवंते चेव ३। [टी०] जंबू इत्यादि, वर्षं क्षेत्रविशेष धारयतो व्यवस्थापयत इति वर्षधरौ चुल्लो 5 त्ति महदपेक्षया लघुहिमवान् चुल्लहिमवान् भरतानन्तरः, शिखरी पुनर्यत्परमैरवतम्, तौ च पूर्वापरतो लवणसमुद्रावबद्धावायामतश्च चउवीस सहस्साइं णव य सए जोयणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५२] २४९३२ १, एवं । शिखरिणोऽपि। तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजनशतोच्छ्रायौ पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढौ आयतचतुरस्रसस्थानसस्थितौ, परिणाहस्तु तयोःपणयालीस सहस्सा सयमेगं नव य बारस कलाओ । अद्धं कलाए हिमवंतपरिरओ सिहरिणो चेवं ॥ [ ] ति, ४५१०९ १९ ३८ ।। एवमिति यथा हिमवच्छिखरिणौ जंबूदीवेत्यादिनाऽभिलापेनोक्तौ एवं 15 महाहिमवदादयोऽपीति, तत्र महाहिमवाल्लँघ्वपेक्षया, स च दक्षिणतः, रुक्मी चोत्तरतः, एवमेव निषध-नीलवन्तौ, नवरम् एतेषामायामादयो विशेषतः क्षेत्रसमासाद् अवसेयाः, किञ्चित्तु तद्गाथाभिरेवोच्यते पंच सए छव्वीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासं । दस सय बावन्नऽहिया बारस य कलाओ हिमवंते ॥ हेमवए पंचहिया इगवीस सया उ पंच य कलाओ । दसहियबायालसया दस य कलाओ महाहिमवे ॥ हरिवासे इगवीसा चुलसीइ सया कला य एक्का य । सोलस सहस्स अट्ठ य बायाला दो कला णिसढे ॥ १. जंबूमंदरउत्तरदाहिणेणं क० ॥ २. च्छ्यौ जे२ ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तेत्तीसं च सहस्सा छच्च सया जोयणाण चुलसीया । चउरो य कला सकला महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ [बृहत्क्षेत्र० २९-३२] जोयणसयमुव्विद्धा कणगमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पिमहाहिमवंता दुसउच्चा रुप्पकणगमया ॥ चत्तारि जोयणसए उव्विद्धा णिसढणीलवंता य । णिसहो तवणिज्जमओ वेरुलिओ नीलवंतगिरी ॥ [बृहत्क्षेत्र० १३०-१३१] उस्सेहचउन्भागो ओगाहो पायसो नगवराणं । वट्टपरिही उ तिउणो किंचूणछभायजुत्तो य ॥ [ ] त्ति, चतुरस्रपरिधिस्तु आयामविष्कम्भद्विगुण इति । 10 [सू० ८४] जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं हेमवतेरण्णवतेसु वासेसु दो वट्टवेयड्डपव्वता पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सदावती चेव वियडावती चेव १, तत्थ णं दो देवा महिडिया जाव पलिओवमट्टितीया परिवसंति, तंजहा-साती चेव पभासे चेव । जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणेणं हरिवरिस-रम्मतेसु वासेसु दो वट्टवेयड्डपव्वया 15 पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव गंधावती चेव मालवंतपरियाए चेव १, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टितीया परिवसंति, तंजहा-अरुणे चेव पउमे चेव २॥ [टी०] जंबू इत्यादि, दो वट्टवेयड्डपव्वय त्ति द्वौ वृत्तौ पल्याकारत्वाद्, वैताढ्यौ नामतः, तौ च तौ पर्वतौ चेति विग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाणौ रजतमयौ, तत्र हैमवते 20 शब्दापाती, उत्तरतस्तु ऐरण्यवते विकटापातीति, तत्थ त्ति तयोर्वृत्तवैताढ्ययोः क्रमेण स्वाति-प्रभासौ देवौ वसतः, तद्भवनभावादिति । एवं हरिवर्षे गन्धापाती रम्यकवर्षे माल्यवत्पर्यायः, देवौ च क्रमेणैवेति ॥ [सू० ८५] जंबूमंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं देवकुराए कुराए पुव्वावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वता पन्नत्ता 25 बहुसम जाव सोमणसे चेव विजुप्पभे चेव १॥ जंबूमंदरउत्तरेणं उत्तरकुराए कुराए पुव्वावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८६] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ११९ अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पत्नत्ता बहु जाब गंधमादणे चेव मालवंते चेव । [टी०] जंबू इत्यादि, पुव्वावरे पासे त्ति, पार्श्वशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् पूर्वपार्श्वेऽपरपार्श्वे च, किंभूते ? एत्थ त्ति प्रज्ञापकेनोपदर्यमाने क्रमेण सौमनसविद्युत्प्रभौ प्रज्ञप्तौ, किम्भूतौ ? अश्वस्कन्धसदृशावादौ निम्नौ पर्यवसान उन्नतौ, यतो 5 निषधसमीपे चतुःशतोच्छितौ मेरुसमीपे तु पञ्चशतोच्छ्रिताविति, आह च वासहरगिरी तेणं रुंदा पंचेव जोयणसयाई । चत्तारि सउव्विद्धा ओगाढा जोयणाण सयं ॥ पंचसए उव्विद्धा ओगाढा पंच गाउयसयाइं । अंगुलअसंखभागो विच्छिन्ना मंदरतेणं ॥ [बृहत्क्षेत्र० २६०-२६१] वक्खारपव्वयाणं आयामो तीस जोयणसहस्सा । दोन्नि य सया णवहिया छच्च कलाओ चउण्हं पि ॥ [बृहत्क्षेत्र० २५९] त्ति । अवद्धचंद त्ति अपकृष्टमर्द्धं चन्द्रस्याऽपार्द्धचन्द्रस्तस्य यत् संस्थानम् आकारो गजदन्ताकृ तिरित्यर्थः, तेन संस्थितावपार्द्ध चन्द्रसंस्थानसंस्थितौ, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति क्वचित् पाठः, तत्र अर्द्धशब्देन विभागमानं विवक्ष्यते, 15 न तु समप्रविभागतेति, ताभ्यां चार्द्धचन्द्राकारा देवकुरवः कृताः, अत एव वक्षाराकारक्षेत्रकारिणौ पर्वतौ वक्षारपर्वताविति । जंबू इत्यादि तथैव, नवरम् अपरपार्श्वे गन्धमादनः पूर्वपार्श्वे माल्यवानिति। [सू० ८६] जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो दीहवेयपव्वया पन्नत्ता [तं] बहुसमतुल्ला जाव भारहए चेव दीहवेयड्ढे, एरावते चेव दीहवेयड्ढे। भारहए 20 णं दीहवेयड्ढे दो गुहाओ पन्नत्ताओ बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अन्नमन्नं णातिवटुंति आयाम-विक्खंभुच्चत्त-संठाण-परिणाहेणं, तंजहा-तिमिसगुहा चेव खंडगप्पवायगुहा चेव, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टितीया परिवसंति, तंजहा-कयमालए चेव नट्टमालए चेव । एरावए णं दीहवेयढे दो गुहाओ पन्नत्ताओ जाव कयमालए चेव नट्टमालए चेव ५। 25 १. वर पासे जे१ खं० ॥ २. ट्ठीया क० ॥ ३. एरावयए क० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ [टी०] दो दीहवेयड्ढ त्ति, वृत्तवैताढ्यव्यवच्छेदार्थं दीर्घग्रहणम्, वैताढ्यौ विजयाढ्यौ वेति संस्कारः, तौ च भरतैरवतयोर्मध्यभागे पूर्वापरतो लवणोदधिं स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छ्रितौ तत्पादावगाढौ पञ्चाशद् विस्तृतौ आयतसंस्थितौ सर्वराजतावुभयतो बहिः काञ्चनमण्डनाङ्काविति, आह च पणुवीसं उव्विद्धो पन्नासं जोयणाणि वित्थिन्नो । वेयड्डो रययमओ भारहखेत्तस्स मज्झम्मि ॥ [बृहत्क्षेत्र० १७८] त्ति । भारहए णमित्यादि, वैताढयेऽपरतस्तमिश्रा गुहा गिरिविस्तारायामा द्वादशयोजनविस्ताराऽष्टयोजनोच्छ्रया आयतचतुरस्रसंस्थाना विजयद्वारप्रमाणद्वारा वज्रकपाटपिहिता बहुमध्ये द्वियोजनान्तराभ्यां त्रियोजनविस्ताराभ्यामुन्मग्नजला10 निमग्नजलाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, तद्वत् पूर्वतः खण्डप्रपाता गुहेति । तत्थ णं ति तयोः तमिस्रायां कृतमालक इतरस्यां नृत्तमालक इति । एरावएत्यादि तथैव । _[सू० ८७] जंबूमंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए दो कूडा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला जाव विक्खंभुच्चत्तसंठाणपरिणाहेणं, तंजहा चुल्लहिमवंतकूडे चेव वेसमणकूडे चेव । जंबूमंदरदाहिणेणं महाहिमवंते 15 वासहरपव्वते दो कूडा पन्नत्ता बहुसम जाव महाहिमवंतकूडे चेव वेरुलियकूडे चेव । एवं निसढे वासहरपव्वते दो कूडा पन्नत्ता बहुसम जाव निसढकूडे चेव रुयगकूडे चेव ३। __ जंबूमंदरउत्तरेणं नीलवंते वासहरपव्वते दो कूडा पन्नत्ता बहुसम जाव तंजहा-नीलवंतकूडे चेव उवदंसणकूडे चेव । एवं रुप्पिम्मि वासहरपव्वते 20 दो कूडा पन्नत्ता बहसम जाव तंजहा-रुप्पिकूडे चेव मणिकंचणकूडे चेव। एवं सिहरिम्मि वासहरपव्वते दो कूडा पन्नत्ता बहुसम जाव तंजहा-सिहरिकूडे चेव तिगिंच्छिकूडे चेव ३॥ __ [टी०] जंबू इत्यादि, हिमवद्वर्षधरपर्वते ह्येकादश कूटानि सिद्धायतन १क्षुल्लहिमवत् २-भरत ३-इला ४-गङ्गा ५-श्री ६-रोहितांशा ७-सिन्धु ८-सुरा ९-हैमवत १. विच्छिन्नो जे१ ॥ २. एरावत इत्यादि पा० जे२ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ [सू० ८७] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १०-वैश्रवण ११ कूटाभिधानानि भवन्ति, पूर्व दिशि सिद्धायतनकूटं ततः क्रमेणापरतोऽन्यानि सर्वरत्नमयानि स्वनामदेवतास्थानानि पञ्चयोजनशतोच्छ्रयाणि तावदेव मूले विस्तृतानि उपरि तदर्द्धविस्तृतानि, आद्ये सिद्धायतनं पञ्चाशद्योजनायामं तदर्द्धविष्कम्भं षट् त्रिंशदुच्चम् अष्ट योजनायामै श्चतुर्यो जनविष्कम्भप्रवेशै स्त्रिभिारै रुपेतं जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतसमन्वितम्, शेषेषु प्रासादाः सार्द्धद्विषष्टियोजनोच्चास्तदर्द्ध- 5 विस्तृतास्तन्निवासिदेवतासिंहासनवन्त इति। इह तु प्रकृतनगनायकनिवासभूतत्वादेवनिवासभूतानामेषां मध्ये आद्यत्वाच्च हिमवत्कूटं गृहीतं सर्वान्तिमत्वाच्च वैश्रमणकूटं द्विस्थानकानुरोधेनेति, आह च कत्थइ देसग्गहणं कत्थइ घेप्पंति निरवसेसाई । उक्कम-कमजुत्ताई कारणवसओ निउत्ताई ॥ [विशेषाव० ३८८] ति । कूटसङ्ग्रहश्चायम्वेयड्ड ९ मालवंते ९ विज्जुप्पह ९ निसह ९ नीलवंते य ९ । णव णव कूडा भणिया एक्कारस सिहरि ११ हिमवंते ११ ॥ रुप्पि ८ महाहिमवंते ८ सोमणसे ७ गंधमायणे चेय ७ । अट्ठट्ट सत्त सत्त य वक्खारगिरीसु चत्तारि ॥ [बृहत्क्षेत्र० १३२-१३३] त्ति । 15 जंबू इत्यादि, महाहिमवति ह्यष्टौ कूटानि, सिद्ध १-महाहिमवत् २-हैमवत ३रोहिता ४-ह्री ५-हरिकान्ता ६-हरि ७-वैडूर्य ८ कूटाभिधानानि, द्वयग्रहणे च कारणमुक्तमिति। एवमित्यादि, एवंकरणात् जंबू इत्यादिरभिलापो दृश्यः, निषधवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १-निषध २-हरिवर्ष ३-प्राग्विदेह ४-हरि ५-धृति ६शीतोदा ७-अपरविदेह ८-रुचकाख्यानि ९ स्वनामदेवतानि नव कूटानि, इहापि 20 द्वितीयान्त्ययोर्ग्रहणं प्राग्वद् व्याख्येयमिति । जंबू इत्यादि, नीलवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १-नील २-पूर्वविदेह ३-शीता ४-कीर्ति ५-नारीकान्ता ६-ऽपरविदेह ७-रम्यक ८-उपदर्शना ९ ख्यानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्यग्रहणं प्राग्वदिति । एवमित्यादि, रुक्मिवर्षधरे हि सिद्ध १-रुक्मि २-रम्यक ३-नरकान्ता ४-बुद्धि ५-रूप्यकूला ६-हैरण्यवत ७-मणिकाञ्चनकूटा ८ ख्यानि अष्ट 25 १. 'मायणनगे य पा० जे२ । 'मायणे नगे य खं० । 'मायणे कूडा इति बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ २. पं० ८ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कूटानि, द्वयाभिधानं च प्राग्वदिति । एवमित्यादि शिखरिणि हि वर्षधरे सिद्ध १-शिखरि २-हैरण्यवत ३-सुरादेवी ४-रक्ता ५-लक्ष्मी ६-सुवर्णकूला ७-रक्तोदा ८-गन्धापाति ९-ऐरावत १०-तिगिच्छकूटा ११ ख्यानि एकादश कूटानि, इहापि द्वयोर्ग्रहणं तथैवेति। [सू० ८८] जंबूमंदरउत्तरदाहिणेणं चुल्लहिमवंत-सिहरीसु वासहरपव्वतेसु दो 5 महदहा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवटुंति, आयाम-विक्खंभ-उव्वेह-संठाण-परिणाहेणं, तंजहा-पउमद्दहे चेव पुंडरीयद्दहे चेव, तत्थ णं दो देवयाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमट्टितीयाओ परिवसंति, तंजहा-सिरी चेव लच्छी चेव । एवं महाहिमवंत-रुप्पीसु वासहरपव्वएसु दो महद्दहा पन्नत्ता बहुसम [जाव तंजहा-]महापउमद्दहे चेव महापुंडरीयद्दहे चेव, 10 देवताओ हिरि च्चेव बुद्धि च्चेव । एवं निसढ-नीलवंतेसु तिगिंच्छिद्दहे चेव केसरिद्दहे चेव, देवताओ धिती चेव कित्ती चेव १२॥ टी०] जंबू इत्यादि, इह च हिमवदादिषु षट्सु वर्षधरेषु क्रमेणैते पद्मादयः षडेव हदाः, तद्यथा पउमे य १ महापउमे २ तिगिंछी ३ केसरी ४ दहे चेव । 15 हरए महपुंडरीए ५ पुंडरीए चेव य ६ दहाओ ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५६८] हिमवत उपरि बहुमध्यभागे पद्महूद एवं शिखरिणः पौण्डरीकः, तौ च पूर्वापरायतौ सहस्रं पञ्चशतविस्तृतौ चतुष्कोणौ दशयोजनावगाढौ रजतकूलौ वज्रमयपाषाणौ तपनीयतलौ सुवर्णमध्यरजतमणिवालुकौ चतुर्दशमणिसोपानौ शुभावतारौ तोरण-ध्वज च्छत्रादिविभूषितौ नीलोत्पल-पुण्डरीकादिचितौ विचित्रशकुनि-मत्स्यविचरितौ 20 षट्पदपटलोपभोग्याविति । तत्थ णं ति तयोः महाहूदयो₹ देवते परिवसतः, पद्महूदे श्रीः, पौण्डरीके च लक्ष्मीः, ते च भवनपतिनिकायाभ्यन्तरभूते, पल्योपमस्थितिकत्वाद्, व्यन्तरदेवीनां हि पल्योपमार्द्ध मेवायुरुत्कर्ष तो भवति, भवनपतिदेवीनां तूत्कर्षतोऽर्द्धपञ्चमपल्योपमान्यायुर्भवतीति, आह च अद्भुट्ठ अद्धपंचम पलिओवम असुरजुयलदेवीणं । 25 सेस वणदेवयाण य देसूण अद्धपलियमुक्कोसं ॥ [बृहत्सङ्ग्र० ६] ति । १. 'ड्डीयाओ क० ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ [सू० ८९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः ।। तयोश्च महाहूदयोर्मध्ये योजनमाने पद्मे अर्द्धयोजनबाहल्ये दशावगाहे जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छ्रये वज्र १ रिष्ट २ वैडूर्य ३ मूल १ कन्द २ नाले ३, वैडूर्य १ जाम्बूनद २ मयबाह्याभ्यन्तरपत्रे, कनककर्णिके, तपनीयकेसरे, तयोः कर्णिके अर्द्धयोजनमाने तदर्द्धबाहल्ये, तदुपरि देव्योर्भवने इति । एवमित्यादि, महाहिमवति महापद्मो रुक्मिणि तु महापौण्डरीकः, तौ च द्विसहस्रायामौ तदर्द्धविष्कम्भौ द्वियोजनमानपद्मन्यासवन्तौ, 5 तयोर्दैवते परिवसतो महापद्ये हीर्महापुण्डरीके बुद्धिरिति । एवमित्यादि, निषधे तिगिछिहूदे धृतिर्देवता, नीलवति केसरिहदे कीर्त्तिर्देवता, तौ च हृदौ चतुर्द्विसहस्रायामविष्कम्भाविति, भवति चात्र गाथा एएसु सुरवहूओ वसंति पलिओवमट्टितीयाओ । सिरि-हिरि-धिति-कित्तीओ बुद्धी-लच्छीसनामाओ । [बृहत्क्षेत्र० १७०] त्ति । 10 [सू० ८९] जंबूमंदरदाहिणेणं महाहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ महापउमद्दहाओ दहाओ दो महाणदीओ पवहंति, तंजहा-रोहिय च्चेव हरिकंत च्चेव । एवं निसढाओ वासहरपव्वताओ तिगिंच्छिद्दहाओ दहाओ दो महाणईओ पवहंति, तंजहा-हरि च्वेव सीतोत च्चेव २॥ जंबूमंदरउत्तरेणं नीलवंताओ वासधरपव्वताओ केसरिद्दहाओ दहाओ दो 15 महानईओ पवहंति, तंजहा-सीता चेव नारिकंता चेव । एवं रुप्पीओ वासहरपव्वताओ महापुंडरीयद्दहाओ दहाओ दो महानईओ पवहंति, तंजहाणरकंता चेव रुप्पकूला चेव २।। [टी०] जंबू इत्यादि, तत्र रोहिन्नदी महापद्महदाद्दक्षिणतोरणेन निर्गत्य षोडश पञ्चोत्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणतो गिरिणा गत्वा हाराकारधारिणा 20 सातिरेकयोजनद्विशतिकेन प्रपातेन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो रोहिदभिधानकुण्डे निपतति, मकरमुखजिह्वा योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेण क्रोशं बाहल्येन, रोहित्प्रपातकुण्डाच्च दक्षिणतोरणेन निर्गत्य हैमवतवर्षमध्यभागवर्त्तिनं शब्दापातिवृत्तवैताढ्यमर्द्धयोजनेनाऽप्राप्याष्टाविंशत्या नदीसहस्रैः संयुज्याधो जगतीं विदार्य पूर्वतो लवणसमुद्रमतिगच्छतीति, रोहिन्नदी हि प्रवाहेऽर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भा 25 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्रोशोद्वेधा ततः क्रमेण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयो जनशतविष्कम्भा सार्द्धद्वियोजनोद्वेधा, उभयतो वेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च युक्ता, एवं सर्वा महानद्यः पर्वताः कूटानि च वेदिकादियुक्तानीति, हरिकान्ता तु महापद्महूदादेवोत्तरतोरणेन निर्गत्य पञ्चोत्तराणि षोडश शतानि सातिरेकाणि उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा 5 सातिरेकयोजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन हरिकान्ताकुण्डे तथैव प्रपतति, मकरमुखजिह्विकाप्रमाणं पूर्वोक्तद्विगुणम्, ततः प्रपातकुण्डादुत्तरेण तोरणेन निर्गत्य हरिवर्षमध्यभागवर्त्तिनं गन्धापातिवृत्तवैताढ्यं योजनेनाऽसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखीभूता षट्पञ्चाशता सरित्सहस्रैः समग्रा समुद्रमतिगच्छति, इयं च हरिकान्ता प्रमाणतो रोहिन्नदीतो द्वि । १२४ 10 एवमित्यादि, एवमिति 'जंबूदीवे' इत्याद्यभिलापसूचनार्थः । हरिन्महानदी तिगिंच्छिह्रदस्य दक्षिणतोरणेन निर्गत्य सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि चैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणाभिमुखी पर्व्वतेन गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन हरित्कुण्डे निपत्य पूर्वसमुद्रे प्रपतति, शेषं हरिकान्तासमानमिति । शीतोदा महानदी तिगिंच्छिहूदस्योत्तरतोरणेन निर्गत्य तावन्त्येव योजनसहस्राणि गिरिणा 15 उत्तराभिमुखी गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन शीतोदाकुण्डे निपततीति, जिंह्विका मकरमुखस्य चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशद्विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन, कुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य देवकुरून् विभजन्ती चित्र-विचित्रकूटौ पर्वतौ निषधहृदादींश्च पञ्च ह्रदान् द्विधा कुर्वती चतुरशीत्या नदीसहस्रैरापूर्यमाणा भद्रशालवनमध्येन मेरुं योजनद्वयेनाप्राप्ता प्रत्यङ्मुखी आवर्त्तमाना अधो विद्युत्प्रभं वक्षारपर्वतं दारयित्वा 20 मेरोरपरतोऽपरविदेहमध्यभागेन एकैकस्माद् विजयादष्टाविंशत्या अष्टाविंशत्या नदीसहस्रैरापूर्यमाणा अधो जयन्तद्वारस्य अवरसमुद्रं प्रविशतीति, शीतोदा हि प्रव पञ्चाशद्योजनविष्कम्भा योजनोद्वेधा ततो मात्रया परिवर्द्धमाना मुखे पञ्चयोजनशतविष्कम्भा दशयोजनोद्वेधेति । जंबू इत्यादि, शीता महानदी केसरिहूदस्य दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य कुण्डे पतित्वा 25 मेरोः पूर्वतः पूर्वविदेहमध्येन विजयद्वारस्याधः पूर्वसमुद्रं शीतोदासमानशेषवक्तव्या १. जिह्वा मकर पासं० जे२ । जिह्वाका मकर पामू० ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ [सू० ९०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । प्रविशतीति । नारिकान्ता तु उत्तरतोरणेन निर्गत्य हरिन्महानदीसमानवक्तव्या रम्यकवर्षमध्येनापरसमुद्रं प्रविशतीति । एवमित्यादि, नरकान्ता महापुण्डरीकहूदाद्दक्षिणतोरणेन निर्गत्य रम्यकवर्षं विभजन्ती हरिकान्तातुल्यवक्तव्या पूर्वसमुद्रमधिगता । रूप्यकूला तु तस्यैवोत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ऐरण्यवद्वर्षं विभजन्ती रोहिनदीतुल्यवक्तव्या अवरसमुद्रं गच्छतीति । 5 [सू० ९०] जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहुसम [जाव] तंजहा-गंगप्पवायहहे चेव सिंधुप्पवायदहे चेव । एवं हेमवए वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहु [सम जाव] तंजहा-रोहियप्पवातद्दहे चेव रोहियंसप्पवातद्दहे चेव २।। जंबूमंदरदाहिणेणं हरिवासे वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहुसम [जाव] 10 तंजहा-हरिपवातद्दहे चेव हरिकंतपवातहहे चेव १॥ जंबूमंदरउत्तरदाहिणेणं महाविदेहे वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहुसम जाव सीतप्पवातद्दहे चेव सीतोदप्पवायद्दहे चेव १। जंबूमंदरउत्तरेणं रम्मए वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहु[सम जाव नरकंतप्पवायहहे चेव णारीकंतप्पवायदहे चेव । एवं हेरन्नवते वासे दो 15 पवायदहा पन्नत्ता बहु[सम जाव] सुवन्नकूलप्पवाय(हे चेव रुप्पकूलप्पवायद्दहे चेव । जंबूमंदरउत्तरेणं एरवए वासे दो पवायदहा पन्नत्ता बहु[सम] जाव रत्तप्पवायद्दहे चेव रत्तावइप्पवातहहे चेव १। [टी०] जंबू इत्यादि, पवायदह त्ति प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षितौ ह्रदौ प्रपातह्रदौ, 20 इह यत्र हिमवदादेर्नगात् गङ्गादिका महानदी प्रणालेनाधो निपतति स प्रपातहदः प्रपातकुण्डमित्यर्थः, गंगापवायदहे चेव त्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मह्रदस्य पूर्वतोरणेन निर्गत्य पूर्वाभिमुखी पञ्च योजनशतानि गत्वा गङ्गावर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि साधिकानि दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा गङ्गामहानदी अर्द्धयोजनायामया सक्रोशषड्योजनविष्कम्भयाऽर्धक्रोशबाहल्यया जिबिकया 25 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे युक्तेन विवृतमहामकरमुखप्रणालेन सातिरेकयोजनशतिकेन च मुक्तावलीकल्पेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च षष्टियोजनायामविष्कम्भः किञ्चिन्न्यूननवत्युत्तरशतपरिक्षेपो दशयोजनोद्वेधो नानामणिनिबद्धः यस्य च पूर्वापरदक्षिणासु त्रयस्त्रिसोपानप्रतिरूपकाः सविचित्रतोरणाः मध्यभागे च गङ्गादेवीद्वीपोऽष्टयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपञ्चविंशतिपरिक्षेपः जलान्ताद् 5 द्विक्रोशोच्छ्रितो वज्रमयो गङ्गादेवीभवनेन क्रोशायामेन तदर्द्धविष्कम्भेन किञ्चिदूनक्रोशोच्चेनाऽनेकस्तम्भशतसन्निविष्टेनाऽलङ्कृतोपरितनभागः, यतश्च दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य प्रवहे सक्रोशषड्योजनविष्कम्भाऽर्द्धक्रोशोद्वेधा गङ्गा उत्तरभरतार्द्ध विभजन्ती सप्तभिः नदीसहस्रैरापूर्यमाणा अधः पूर्वतः खण्डप्रपातगुहाया वैताढ्यपर्वतं विदार्य दक्षिणार्द्धभरतं विभजन्ती तन्मध्यभागे गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिर्नदीसहस्रः समग्रा 10 मुखे सार्द्धद्विषष्टियोजनविष्कम्भा सक्रोशयोजनोद्वेधा जगतीं विदार्य पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति स गङ्गाप्रपातह्रदः, एतदनुसारेण सिन्धुप्रपातह्रदोऽपि व्याख्यातव्यः, अत एव एतौ बहसमादिविशेषणावायाम-विष्कम्भो-द्वेध-परिणाहैर्भावनीयाविति, सर्व एव प्रपातहदा दशयोजनोद्वेधा वक्तव्या इति । यच्चेह वर्षधरनद्यधिकारे गङ्गा-सिन्धु रोहितांशानां तथा सुवर्णकूला-रक्ता-रक्तवतीनां नाभिधानं तद् द्विस्थानकानुरोधात्, 15 तासां हि एकैकस्मात् पर्वतात् त्रयं त्रयं प्रवहतीति द्विस्थानके नावतार इति । एवमित्यादि, एवमिति प्राग्वत रोहियप्पवायदहे चेव त्ति रोहिद् उक्तस्वरूपा यत्र पतति यश्च सविंशतिकं योजनशतमायाम-विष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्न्यूनाशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे रोहिद्वीपः षोडशयोजनायाम-विष्कम्भ: सातिरेकपञ्चाशद्योजनपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छ्रितो यश्च रोहिदेवताभवनेन 20 गङ्गादेवताभवनसमानेन विभूषितोपरितनभागः स रोहितप्रपातह द इति । रोहियंसप्पवायद्दहे चेव त्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मह्रदोत्तरतोरणेन निर्गत्य रोहितांशा महानदी द्वे षट्सप्तत्युत्तरे योजनशते सातिरेके उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा योजनायामया अर्द्ध त्रयोदशयोजनविष्कम्भया क्रोशबाहल्यया जिह्विकया विवृतमकरमुखप्रणालेन हाराकारेण च सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च 25 रोहित्प्रपातकुण्डसमानमानः यस्य च मध्ये रोहितांशाद्वीपो रोहिद्द्वीपसमानमानः १. °भागेन गत्वा पा० जे२ ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ [सू० ९१] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । रोहितांशाभवनेन प्रागुक्तमानेनाऽलङ्कृतः, यतश्च रोहितांशा नदी रोहिनदीसमानमाना उत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं प्रविशति स रोहितांशाप्रपातहूद इति । जंबू इत्यादि, हरिप्पवायहहे चेव त्ति हरिन्नदी प्रागुक्तलक्षणा यत्र निपतति यश्च द्वे शते चत्वारिंशदधिके आयाम-विष्कम्भाभ्यां सप्त शतानि एकोनषष्ट्यधिकानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे हरिद्देवताद्वीपः द्वात्रिंशद्योजनायाम-विष्कम्भः एकोत्तरशतपरिक्षेप: 5 जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छितो हरिद्देवताभवनभूषितोपरितनभागोऽसौ हरित्प्रपातहद इति । हरिकंतप्पवायदहे चेव त्ति हरिकान्तोक्तरूपा महानदी यत्र निपतति यश्च हरित्कुण्डसमानो हरिद्वीपसमानेन हरिकान्तादेवीद्वीपेन सभवनेन भूषितमध्यभागः स हरिकान्ताप्रपातहद इति । __ जंबू इत्यादि, सीयप्पवायद्दहे चेव त्ति यत्र नीलवतः शीता निपतति यश्च 10 चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चदशाऽष्टादशोत्तराणि विशेषन्यूनानि परिक्षेपेण यस्य च मध्ये शीताद्वीपश्चतुःषष्टियोजनायाम-विष्कम्भो व्युत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छ्रितः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीताप्रपातहद इति । सीतोदप्पवायदहे चेव त्ति यत्र निषधाच्छीतोदा निपतति स शीतोदाप्रपातह्रदः शीताप्रपातहदसमान: 15 शीतादेवीद्वीपभवनसमानशीतोदादेवीद्वीपभवनश्चेति । ___जंबू इत्यादि, नरकान्ता-नारिकान्ताप्रपातह्रदौ च हरिकान्ताहरित्प्रपातहदसमानौ स्वसमाननामद्वीपदेवीकाविति । एवमित्यादि, सुवर्णकूला-रूप्यकूलाप्रपातह्रदौ रोहितांशारोहित्प्रपातह्रदसमवक्तव्यौ, विशेषस्तूह्य इति । जंबू इत्यादि, रक्ता-रक्तवतीप्रपातह्रदौ गङ्गा-सिन्धुप्रपातह्रदसमानवक्तव्यौ, नवरं 20 रक्ता पूर्वोदधिगामिनी रक्तवती तु पश्चिमोदधिगामिनीति । [सू० ९१] जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो महानईओ पन्नत्ताओ बहु[सम जाव गंगा चेव सिंधू चेव । एवं जधा पवातद्दहा एवं गंदीओ भाणियव्वाओ, जाव एरवए वासे दो महानईओ पन्नत्ताओ बहुसमतुल्लाओ जाव रत्त च्चेव रत्तवती चेव । 25 १. नदीओ वि भा क० । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स दाहिणेणं भरहे वासे दो महानदीओ इत्यादि, एवमिति अनन्तरक्रमेण जह त्ति यथा पूर्वं वर्षे वर्षे द्वौ द्वौ प्रपातहदावुक्तौ एवं नद्यो वाच्याः, ताश्चैवम् गंगा सिंधू १ तह रोहियंस रोहीणदी य २ हरिकंता । हरिसलिला ३ सीयोया सत्तेया होंति दाहिणओ ॥ सीया य ४ नारिकंता नरकंता चेव ५ रूप्पकूला य । सलिला सुवण्णकूला ६ रत्तवती रत्त ७ उत्तरओ ॥ [बृहक्षेत्र० १७१-१७२] इति । [सू० ९२] जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमदूसमाए समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले होत्था १, एवमिमीसे 10 ओसप्पिणीए जाव पन्नत्ते २, एवं आगमेसाए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति ३। जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए मणुया दो गाउयाई उटुंउच्चत्तेणं होत्था, दोन्नि य पलिओवमाई परमाउं पालयित्था ४, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पालयित्था ५, एवमागमेसाते उस्सप्पिणीए जाव पालयिस्संति ६।। 15 [टी०] जम्बूद्वीपाधिकारात् क्षेत्रव्यपदेश्यपुद्गलधर्माधिकाराच्च जम्बूद्वीपसम्बन्धि भरतादिसत्ककाललक्षणपर्यायधर्माननेकधाऽष्टादशसूत्र्याऽऽह, सुगमानि चैतानि, नवरं तीताए त्ति अतीता या उत्सर्पिणी प्राग्वत्, तस्यां तस्या वा सुषमदुःषमायाः बहुसुखायाः समायाः कालविभागस्य चतुर्थारकलक्षणस्य कालो त्ति स्थितिः प्रमाणं वा होत्थ त्ति बभूवेति । एवमिति जंबूदीवे दीवे इत्यादि उच्चारणीयम्, नवरम् इमीसे 20 त्ति अस्यां प्रत्यक्षायाम्, वर्तमानायामित्यर्थः, अवसर्पिण्याम् उक्तार्थायाम्, जाव त्ति सुसमदुसमाए समाए, तृतीयारक इत्यर्थः, दो सागरोवमकोडाकोडीओ काले पण्णत्ते प्रज्ञप्त इति पूर्वसूत्राद्विशेषः, पूर्वसूत्रे हि होत्थ त्ति भणितमिति २। एवमित्यादि, आगमिस्साए त्ति आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यामिति भविष्यतीति पूर्वसूत्राद्विशेषः ३। जबूं इत्यादि सुषमायां पञ्चमेऽरके होत्थ त्ति बभूवुः । पालयित्थ त्ति पालितवन्तः। १. पंचमारके पा० जे२ । द्वितीयारके खं० ॥ २. 'वन्तः पूर्वसूत्राद्विशेषः पा० जे२ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९३-९४] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १२९ [सू० ९३] जंबूदीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगसमये एगजुगे दो अरहंतवंसा उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा ७, एवं चक्कवट्टिवंसा ८, दसारवंसा ९॥ जंबू [दीवे दीवे] भरहेरवतेसु [वासेसु] एगसमए दो अरहंता उप्पजिंसु वा उप्पजति वा उप्पजिस्संति वा १०, एवं चक्कवहि ११, एवं बलदेवा १२, 5 एवं वासुदेवा जाव उप्पजिस्संति वा १३॥ [टी०] जंबू इत्यादि, एगजुगे त्ति पञ्चाब्दिकः कालविशेषो युगम्, तत्रैकस्मिन्, तस्याप्येकस्मिन् समये, एगसमए एगजुगे इत्येवं पाठेऽपि व्याख्योक्तक्रमेणैव, इत्थमेवार्थसम्बन्धाद्, अन्यथा वा भावनीयेति । द्वावर्हतां वंशौ प्रवाहावेको भरतप्रभवोऽन्य ऐरवतप्रभव इति ७। दसार त्ति दसाराः, समयभाषया वासुदेवाः९ । 10 [सू० ९४] जंबूदीवे दीवे दोसु कुरासु मणुया सता सुसमसुसममुत्तमं इढेि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-देवकुराए चेव उत्तरकुराए चेव १४। जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सता सुसममुत्तमं इढेि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-हरिवासे चेव रम्मगवासे चेव १५। जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सता सुसमदूसममुत्तमं इहिँ पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा- 15 हेमवते चेव हेरन्नवते चेव १६। जंबूदीवे दीवे दोसु खेत्तेसु मणुया सता दूसमसुसममुत्तमं इढेि पत्ता पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-पुव्वविदेहे चेव अवरविदेहे चेव १७। जंबूदीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया छव्विहं पि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-भरहे चेव एरवते चेव १८॥ [टी०] जंबू इत्यादि, सदा सर्वदा सुसमसुसमं ति प्रथमारकानुभागः सुषमसुषमा 20 तस्याः सम्बन्धिनी या सा सुषमसुषमैव, ताम् उत्तमर्द्धिं प्रधानविभूतिम् उच्चस्त्वाऽऽयु:-कल्पवृक्षदत्तभोगोपभोगादिकां प्राप्ताः सन्तस्तामेव प्रत्यनुभवन्तो वेदयन्तः, न सत्तामात्रेणेत्यर्थः, अथवा सुषमसुषमां कालविशेष प्राप्ताः अधिगता उत्तमामृद्धिं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति आसत इति, अभिधीयते च Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दोसु वि कुरासु मणुया तिपल्लपरमाउणो तिकोसुच्चा । पिट्ठिकरंडसयाई दो छप्पन्नाई मणुयाणं ॥ सुसमसुसमाणुभावं अणुभवमाणाणऽवच्चगोवणया । अउणापन्नदिणाइं अट्ठमभत्तस्स आहारो ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३०१-३०२] इति । देवकुरवो दक्षिणाः उत्तरकुरव उत्तरास्तेष्विति १४ । जंबू इत्यादि, सुसमं ति सुषमा द्वितीयारकानुभागः, शेषं तथैव, पठ्यते च हरिवासरम्मएसु आउपमाणं सरीरउस्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ दोन्नि य कोसा सया भणिया ॥ छट्ठस्स य आहारो चउसट्टिदिणाणुपालणा तेसिं । पिट्टिकरंडाण सयं अट्ठावीसं मुणेयव्वं ॥ [बृहत्क्षेत्र० २५५-२५६] ति १५। 10 जंबू इत्यादि, सुसमदूसमं ति सुषमदुःषमा तृतीयारकानुभागः तस्या या सा सुषमदुःषमा ऋद्धिः , शेषं तथैव, उच्यते च गाउयमुच्चा पलिओवमाउणो वज्जरिसहसंघयणा । हेमवएरन्नवए अहमिंदणरा मिहुणवासी ॥ चउसट्ठी पिट्टिकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स उ उणसीतिदिणाणुपालणय ॥ [बृहत्क्षेत्र० २५३-२५४] त्ति १६। जंबू इत्यादि, दूसमसुसमं ति दुःषमसुषमा चतुर्थारकप्रतिभागः, तत्सम्बन्धिनी ऋद्धिर्दुःषमसुषमैव, शेषं तथैव, अधीयते च__ मणुयाण पुव्वकोडी आउं पंचूसिया धणुसयाई। दुसमसुसमाणुभावं अणुहोति णरा निययकालं ॥ [ ] ति १७। 20 जंबूदीवे इत्यादि, छव्विहं पि त्ति सुषमसुषमादिकं उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपमिति १८। [सू० ९५] जंबूदीवे दीवे दो चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा १, दो सूरिया तवइंसु वा तवंति वा तवइस्संति वा २ । दो कत्तियाओ, दो रोहिणीओ, दो मंगसिरा, दो अदाओ, एवं भाणियव्वं, १. कोसा समा जेमू१, खं० पा० जे२ । कोसा सया जेसं१ । यद्यपि सम्प्रति बृ०क्षे० मध्ये कोसूसिया इति पाठो दृश्यते तथापि बृ०क्षे० टीकाकृतां मलयगिरिसूरीणां सया इत्येव पाठः सम्मतः, तैः ‘सदा' इति व्याख्यातत्वात् ॥ २. कत्ति' क० जे० ॥ ३. मिग क० ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ [सू० ९५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । कत्तिय, रोहिणि, मिगसिर, अद्दा य, पुणव्वसू य, पूसो य ६। तत्तो वि अस्सलेसा, महा य, दो फग्गुणीओ य ९-१० ॥१॥ हत्थो, चित्ता, साती य, विसाहा, तह य होति अणुराहा १५। जेट्ठा, मूलो, पुव्वा य आसाढा, उत्तरा चेव १९ ॥२॥ अभिई, सवण, धणिट्ठा, सयभिसया, दो य होति भद्दवया २४-२५। 5 रेवति, अस्सिणी, भरणी, २८ नेतव्वा आणुपुव्वीए ॥३॥ एवं गाहाणुसारेणं णेयव्वं जाव दो भरणीओ । दो अग्गी १, दो पयावती २, दो सोमा ३, दो रुद्दा ४, दो अदिती ५, दो बहस्सती ६, दो सप्पी ७, दो पीती ८, दो भगा ९, दो अजमा १०, दो सविता ११, दो तट्ठा १२, दो वाऊ १३, दो इंदग्गी १४, दो 10 मित्ता १५, दो इंदा १६, दो निरीती १७, दो आऊ १८, दो विस्सा १९, दो बम्हा २०, दो विण्ह २१, दो वसू २२, दो वरुणा २३, दो अया २४, दो विविद्धी २५, दो पुस्सा २६, दो अस्सा २७, दो यमा २८। दो इंगालगा १, दो वियालगा २, दो लोहितक्खा ३, दो सणिंचरा ४, दो आहुणिया ५, दो पाहुणिया ६, दो कणा ७, दो कणगा ८, दो 15 कणकणगा ९, दो कणगविताणगा १०, दो कणगसंताणगा ११, दो सोमा १२, दो सहिया १३, दो आसासणा १४, दो कजोवगा १५, दो कब्बडगा १६, दो अयकरगा १७, दो दुंदुभगा १८, दो संखा १९, दो संखवन्ना २०, दो संखवन्नाभा २१, दो कंसा २२, दो कंसवन्ना २३, दो कंसवन्नाभा २४, दो रुप्पी २५, दो रुप्पाभासा २६, दो णीला २७, दो णीलोभासा २८, 20 दो भासा २९, दो भासरासी ३०, दो तिला ३१, दो तिलपुप्फवण्णा ३२, दो दगा ३३, दो दगपंचवन्ना ३४, दो काका ३५, दो काकंधा ३६, दो दग्गी ३७, दो धूमकेऊ ३८, दो हरी ३९, दो पिंगला ४०, दो बुधा ४१, दो सुक्का ४२, दो बहस्सती ४३, दो राहू ४४, दो अगत्थी ४५, दो माणवगा 1. कित्तिय रोहिणि मिग' क० विना ॥ २. कक्कंधा क० विना । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ४६, दो कासा ४७, दो फासा ४८, दो धुरा ४९, दो पमुहा ५०, दो वियडा ५१, दो विसंधी ५२, दो नियल्ला ५३, दो पइल्ला ५४, दो जडियाइल्ला ५५, दो अरुणा ५६, दो अग्गिल्ला ५७, दो काला ५८, दो महाकालगा ५९, दो सोत्थिया ६०, दो सोवत्थिया ६१, दो वद्धमाणगा ६२, दो पलंबा ६३, 5 दो निच्चालोगा ६४, दो णिच्चुजोता ६५, दो सयंपभा ६६, दो ओभासा ६७, दो सेयंकरा ६८, दो खेमंकरा ६९, दो आभंकरा ७०, दो पभंकरा ७१, दो अपराजिता ७२, दो अरया ७३, दो असोगा ७४, दो विगतसोगा ७५, दो विमला ७६, दो वितत्ता ७७, दो वितत्था ७८, दो विसाला ७९, दो साला ८०, दो सुव्वता ८१, दो अणियट्टी ८२, दो एगजडी ८३, दो 10 दुजडी ८४, दो करकरिगा ८५, दो रायग्गला ८६, दो पुप्फकेऊ ८७, दो भावकेऊ ८८ । [टी०] अनन्तरं जम्बूद्वीपे काललक्षणद्रव्यपर्यायविशेषा उक्ताः, अधुना तु जम्बूद्वीप एव कालपदार्थव्यञ्जकानां ज्योतिषां द्विस्थानकानुपातेन प्ररूपणामाह- जंबूदीवे दीवे इत्यादि सूत्रद्वयम्, पभासिंसु व त्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयम्, एवं प्रभासयतः 15 प्रभासयिष्यतः, चन्द्रयोश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम्, आदित्ययोश्च खररश्मित्वात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति वस्तुनस्तापनमुक्तम्, अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम्, अत एव चोच्यते- न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] इति, न वा विद्यमानस्य जगतः कर्त्ता कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात् । अथ यत् सन्निवेशविशेषवत् तद् बुद्धिमत्कारणपूर्वकं दृष्टम्, 20 यथा घटः, सनिवेशविशेषवन्तश्च भू-भूधरादयः, यश्च बुद्धिमानसावीश्वरो जगत्कर्तेति, नैवम्, सन्निवेशविशेषवत्यपि वल्मीके बुद्धिमत्कारणत्वस्यादर्शनादित्यत्र बहु वक्तव्यं तच्च स्थानान्तरादवसेयमिति । द्विसङ्ख्यत्वाच्चन्द्रयोस्तत्परिवारस्यापि द्वित्वमाह- दो कत्तियेत्यादिना दो भावकेऊ इत्येतदवसानेन ग्रन्थेन, सुगमश्चायम्, नवरं द्वे कृत्तिके नक्षत्रापेक्षया, न तु तारिकापेक्षयेत्येवं १. इतः परं 'दो पूसमाणगा दो अंकुसा' इत्यधिकः पाठः क० ला३ विना ॥ २. इतः परं 'दो विमुहा' इत्यधिकः पाठः क० विना ।। ३. कित्ति' जे१ खं० ।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९५ ] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । सर्वत्रेति, कत्तियेत्यादिगाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसङ्ग्रहः, कृत्तिकादीनामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां क्रमेणाग्न्यादयोऽष्टाविंशतिरेव देवता भवन्ति, ता आह- द्वावनी १, एवं प्रजापती २, सोमौ ३, रुद्रौ ४, अदिती ५, बृहस्पती ६, सप्प ७, पितरौ ८, भगौ ९, अर्यमणौ १०, सवितारौ १९, त्वष्टारौ १२, वायू १३, इन्द्राग्नी १४, मित्रौ १५, इन्द्रौ १६, निर्ऋती १७, आप: १८, विश्वौ १९, ब्रह्माणौ २०, विष्णू २१, वसू 5 २२, वरुणौ २३, अजौ २४, विवृद्धी २५, ग्रन्थान्तरे अहिर्बुध्नावुक्तौ, पूषणौ २६, अश्विनौ २७, यमाविति २८, ग्रन्थान्तरे पुनरश्विनीत आरभ्यैता एवमुक्ताः, अश्वियमदहनकमलजशशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः । योन्यर्यमदिनकृत्त्वष्टृपवनशक्राग्निमित्राख्याः ।। ऐन्द्रो निर्ऋतिस्तोयं विश्वो ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः । अजपादोऽहिर्बुध्नः पूषा चेतीश्वरा भानाम् ॥ [ वाराही० बृहत्संहिता ९७॥४-५] अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्टपुस्तकेषु केषुचिदेव यथोक्तसङ्ख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्त्यनुसारेणासाविह संवादनीया, तथाहि तत्सूत्रम् १३३ तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महागहा पन्नत्ता, तंजहा - इंगालए १ वियालए २ लोहियक्खे ३ सणिच्छरे ४ आणि ५ पाहुणिए ६ कणे ७ कणए ८ कणकणए ९ कणवियाणए १० 15 कणसंताणए ११ सोमे १२ सहिए १३ अस्सासणे १४ कज्जोयए १५ कब्बडए १६ अयकरए १७ दुंदुभए १८ संखे १९ संखवण्णे २० संखवन्नाभे २१ कंसे २२ कंसवण्णे २३ कंसवन्नाभे २४ णीले २५ णीलोभासे २६ रुप्पी २७ रुप्पोभासे २८ भासे २९ भासरासी ३० तिले ३१ तिलपुप्फवण्णे ३२ दगे ३३ दगपंचवण्णे ३४ काए ३५ काकंधे ३६ इंदग्गी ३७ धूमकेऊ ३८ हरी ३९ पिंगले ४० बुहे ४१ सुक्के ४२ बहस्सई ४३ राहू ४४ अगत्थी ४५ माणवगे ४६ कासे 20 ४७ फासे ४८ धुरे ४९ पमुहे ५० वियडे ५१ विसंधी ५२ नियल्ले ५३ पयले ५४ जडियाइलए ५५ अरुणे ५६ अग्गिल्लए ५७ काले ५८ महाकाले ५९ सोत्थिए ६० सोवत्थिए ६१ वद्धमाणगे ६२ पलंबे ६३ णिच्चालोए ६४ निच्चुज्जोए ६५ सयंपभे ६६ ओभासे ६७ सेयंकरे ६८ खेमंकरे ६९ आभंकरे ७० पभंकरे ७१ अपराजिए ७२ अरए ७३ असोगे ७४ वीयसोगे ७५ विमले ७६ वियत्ते ७७ वितत्थे ७८ विसाले ७९ साले ८० सुव्वए ८१ अनियट्टी ८२ एगजडी ८३ दुजडी 25 ८४ करकरिए ८५ रायग्गले ८६ पुप्फकेऊ ८७ भावके ऊ ८८ । इदं तत्रैव १. कित्तिये जे१ खं० ॥ २. शक्रो इति बृहत्संहितायां पाठः ॥ ३. इदं सूत्रं वक्ष्यमाणाश्च संग्रहणीगाथाः सूर्यप्रज्ञप्तेरन्ते विंशतितमे प्राभृते वर्तन्ते यस्तु तत्र पाठभेदः मलयगिरिसूरिविरचितं तद्विवरणं च तदत्र टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ॥ ३ 10 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 संग्रहणीगाथाभिर्नियन्त्रितम्, तथाहि इंगालए १ वियालए २, लोहियक्खे ३ सणिच्छरे चेव ४ । आणि ५ पाहुणि ६ कणगसनामा उ पंचेव ११ ॥ सोमे १ सहिए २ आसासणे य ३ कज्जोवए य ४ कब्बडए ५ । 5 अकरए ६ दुंदुहए ७ संखसनामाओ तिन्नेव १० [२१] ॥ तिन्नेव कंसनामा ३ णीला २ रुप्पी य २ होंति चत्तारि । 15 १३४ 20 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे १ भास २ तिलपुप्फवन्ने २ दगपंचवण्णे य काय काकंधे १५ ।। [ ३६ ] || इंदग्गि १ धूमकेऊ २ हरि ३ पिंगलए ४ बुहे य ५ सुक्के य६ । बहसइ ७ राहु ८ अगत्थी ९ माणवए १० कास ११ फासे य १२ [४८] ॥ धुर १ पमुहे २ वियड ३ विसंधी ४ नीयले ५ तहा पयले य ६ । जडियाइलए ७ अरुणे ८ अग्गिल ९ काले १० महाकाले ११ [ ५९ ] ॥ सोत्थिय १ सोवत्थिय २ वद्धमाणगे ३ तहा पलंबे य ४ । निच्चालोए ५ निच्चुज्जोए ६ सयंपभे ७ चेव ओभासे ८ [६७] || सेयंकर १ खेमंकर २ आभंकर ३ पभंकरे य ४ बोधव्वे । अए ५ विरए ६ तहा असोग ७ तह वीयसोगे य ८ [ ७५ ] ॥ विमल १ वितत्त २ वितत्थे ३ विसाल ४ तह साल ५ सुव्वए ६ चेव । अनिट्टी ७ एगजडी ८ य होइ बिजडी य ९ बोधव्वे [ ८४ ] || करकरिए १ रायग्गल २ बोधव्वे पुप्फ ३ भावकेऊ य ४ [ ८८] | अट्ठासीइ गहा खलु णेयव्वा आणुपुव्वी ॥ [ सूर्यप्र० २० ] इति ॥ [सू० ९६] जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता । [टी०] जम्बूद्वीपाधिकारादेवेदमपरमाह - जंबू इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं वज्रमय्याः अष्टयोजनोच्छ्रायायाश्चतुर्द्वादशोपर्यधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या द्विगव्यूतोच्छ्रितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरि वेदिकेति पद्मवरवेदिकेत्यर्थः, पञ्चधनुः शतविस्तीर्णा गवाक्षहेमकिङ्किणीघण्टायुक्ता 25 देवानामासन-शयन-मोहन- विविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवतीति । १. दगे य दगपंच खं० ॥ २. 'ज्जोय जे१ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९७-१००] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १३५ [सू० ९७] लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० ९८] लवणस्स णं समुद्दस्स वेतिया दो गाउयाइं उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता। [टी०] जम्बूद्वीपवक्तव्यतानन्तरं तदनन्तरत्वादेव लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह- लवणे णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं चक्रवालस्य मण्डलस्य विष्कम्भः पृथुत्वं 5 चक्रवालविष्कम्भस्तेनेति, समुद्रवेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपवेदिकासूत्रवद्वाच्यमिति । [सू० ९९] धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव, एवं जहा जंबूंदीवे तहा एत्थ वि भाणियव्वं जाव दोसु वासेसु मणुया छव्विहं पि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-भरहे चेव एरवते चेव । णवरं कूडसामली 10 चेव धायइरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे, सुदंसणे चेवा धाततीसंडदीवपच्चत्थिमद्धे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव जाव छव्विहं पि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति, [तंजहा-] भरहे चेव एरवए चेव । णवरं कूडसामली चेव महाधायईरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे, पियदंसणे चेव । 15 - [सू० १००] धायइसंडे णं दीवे दो भरहाई, दो एरवताई, दो हेमवताई, दो हेरन्नवताइं, दो हरिवासाइं, दो रम्मगवासाइं, दो पुव्वविदेहाइं, दो अवरविदेहाइं, दो देवकुराओ, दो देवकुरमहदुमा, दो देवकुरमहकुमवासी देवा, दो उत्तरकुराओ, दो उत्तरकुरमहढुमा, दो उत्तरकुरमहडुमवासी देवा, दो चुल्लहिमवंता, दो महाहिमवंता, दो निसढा, दो नीलवंता, दो रुप्पी, 20 दो सिहरी, दो सद्दावती, दो सद्दावतिवासी साती देवा, दो वियडावती, दो वियडावतिवासी पभासा देवा, दो गंधावती, दो गंधावतिवासी अरुणा देवा, दो मालवंतपरियागा, दो मालवंतपरियागवासी पउमा देवा, १. जंबुद्दीवे क०ला० विना ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दो मालवंता, दो चित्त कूडा, दो पम्हकूडा, दो नलिणकूडा, दो एगसेला, दो तिकूडा, दो वेसमणकूडा, दो अंजणा, दो मातंजणा, दो सोमणसा, दो विज्जुप्पभा, दो अंकावती, दो पम्हावती, दो आसीविसा, सुहावहा, दो चंदपव्वता, दो सूरपव्वता, दो णागपव्वता, दो देवपव्वया, दो गंधमायणा, 5 दो उसुगारपव्वता, दो चुल्लहिमवतंकूडा, दो वेसमणकूडा, दो महाहिमवंतकूडः, दो वेरुलियकूडा, दो निसढकूडा, दो रुयगकूडा, दो नीलवंतकूडा, दो उवदंसणकूडा, दो रुप्पिकूडा, दो मणिकंचणकूडा, दो सिहरिकूडा, दो तिगिंच्छिकूडा, १३६ दो परमहा, दो पमद्दहवासिणीओ सिरीदेवीओ, दो महापउमद्दहा, 10 महापउमद्दहवासिणीओ हिरीओ देवीओ, एवं जाव दो पुंडरीयद्दहा, दो पुंडरीयद्दहवासिणीओ लच्छीओ देवीओ, दो गंगप्पवायद्दहा जाव दो रत्तावतिप्पवातद्दहा, दो रोहियाओ जाव दो रूप्पकूलाओ, दो गाहावतीओ १, दो दहवतीओ २, दो पंकवतीओ ३, दो तत्तजलाओ 15 ४, दो मत्तजलाओ ५, दो उम्मत्तजलाओ ६, दो खारोयाओ ७, सीहसोताओ ८, दो अंतोवाहिणीओ ९, दो उम्मिमालिणीओ १०, दो फेणमालिणीओ ११, दो गंभीरमालिणीओ १२, दो कच्छा १, दो सुकच्छा २, दो महाकच्छा ३, दो कच्छावती ४, दो आवत्ता ५, दो जंगलावत्ता ६, दो पुक्खला ७, दो पुक्खलावती ८, 20 दो वच्छा ९, दो सुवच्छा १०, दो महावच्छा ११, दो वच्छगावती १२, दो रम्मा १३, दो रम्मा १४, दो रमणिज्जा १५, दो मंगलावती १६, दो पहा १७, दो सुपम्हा १८, दो महापम्हा १९, दो पम्हगावती २०, दो संखा २१, दो णलिणा २२, दो कुमुया २३, दो सलिलावती २४, दो वप्पा २५, दो सुवप्पा २६, दो महावप्पा २७, दो वप्पगावती २८, दो वग्गू २९, १. नलिणी क० ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ [सू० १०१-१०३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । दो सुवग्गू ३०, दो गंधिला ३१, दो गंधिलावती ३२, दो खेमाओ १, दो खेमपुराओ २, दो रिट्ठाओ ३, दो रिट्ठपुराओ ४, दो खग्गीतो ५, दो मंजूसाओ ६, दो ओसधीओ ७, दो पुंडरिगिणीओ ८, दो सुसीमाओ ९, दो कुंडलाओ १०, दो अपराजियाओ ११, दो पभंकराओ १२, दो अंकावईओ १३, दो पम्हावईओ १४, दो सुभाओ 5 १५, दो रयणसंचयाओ १६, दो आसपुराओ १७, दो सीहपुराओ १८, दो महापुराओ १९, दो विजयपुराओ २०, दो अवराजिताओ २१, दो अरयाओ २२, दो असोगाओ २३, दो विगयसोगाओ २४, दो विजयाओ २५, दो वेजयंतीओ २६, दो जयंतीओ २७, दो अपराजियाओ २८, दो चक्कपुराओ २९, दो खग्गपुराओ ३०, दो अवज्झाओ ३१, दो अउज्झाओ ३२, 10 दो भद्दसालवणा, दो गंदणवणा, दो सोमणसवणा, दो पंडगवणाई, दो पंडुकंबलसिलाओ, दो अतिपंडुकंबलसिलाओ, दो रत्तकंबलसिलाओ, दो अतिरत्तकंबलसिलाओ, दो मंदरा, दो मंदरचूलिताओ । [सू० १०१] धायइसंडस्स णं दीवस्स वेदिया दो गाउयाई उड्ढमुच्चत्तेणं 15 पण्णत्ता । [सू० १०२] कालोदस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उहुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता। [सू० १०३] पुक्खरवरदीवडपुरत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला जाव भरहे चेव एरवए चेव, तहेव जाव दो 20 कुराओ पन्नत्ताओ० देवकुरा चेव उत्तरकुरा चेव । तत्थ णं दो महतिमहालया महद्दमा पन्नत्ता, तंजहा-कूडसामली चेव पउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे, पउमे चेव, जाव छव्विहं पि कालं पच्चणुभवमाणा विहरंति । पुक्खरवरदीवड्ढपच्चत्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता तहेव, णाणत्तं कूडसामली चेव महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव 25 वेणुदेवे, पुंडरीए चेव । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुक्खरवरदीवड्ढे णं दीवे दो भरहाइं, दो एरवताई, जाव दो मंदरा, दो मंदरचूलियाओ । [सू० १०४] पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्डमुच्चत्तेणं पन्नत्ता। सव्वेसि पि णं दीवसमुद्दाणं वेदियाओ दो गाउयाई उड्डेमुच्चत्तेणं 5 पंन्नत्ताओ। . [टी०] क्षेत्रप्रस्तावाल्लवणसमुद्रवक्तव्यतानन्तरं धातकीखण्डवक्तव्यतां धायइसंडे इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन ग्रन्थेनाह, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं धातकीखण्डप्रकरणमपि जम्बूद्वीप-लवणसमुद्रमध्यं वलयाकृति धातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षधरान् जम्बूद्वीपानुसारेणैवोभयतः पूर्वापरविभागेन भरत-हैमवतादिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य 10 पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये मेरुं च कल्पयित्वाऽवबोद्धव्यम् । अनेनैव च क्रमेण पुष्करवरद्वीपार्द्धप्रकरणमपीति । तत्र धातकीनां वृक्षविशेषाणां खण्डो वनं समूह इत्यर्थो धातकीखण्डस्तद्युक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते, यथा दण्डयोगाद्दण्ड इति, धातकीखण्डश्चासौ द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपस्तस्य पुरत्थिमं ति पौरस्त्यं पूर्वमित्यर्थो यदर्द्ध विभागस्तद्धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्यार्द्धम्, पूर्वापरार्द्धता च लवणसमुद्रवेदिकातो 15 दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीखण्डवेदिकां यावद् गताभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डस्य विभक्तत्वादिति, उक्तं च पंचसयजोयणुच्चा सहस्समेगं च होंति वित्थिन्ना । कालायणलवणजले पुट्ठा ते दाहिणुत्तरओ ॥ दो उसुयारनगवरा धायइसंडस्स मज्झयारठिया । 20 तेहिं दुहा णिहिस्सइ पुव्वद्धं पच्छिमद्धं च ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।४-५] इति । तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, मन्दरस्य मेरोरित्येवं धातकीखण्डपूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धप्रकरणे प्रत्येकमेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूद्वीपप्रकरणवदध्येतव्ये व्याख्येये च, अत एवाहएवं जहा जंबूदीवे तहेत्यादि, नवरं वर्षधरादिस्वरूपमायामादिसमता चैवं भावनीया १. पण्णत्ता क० ॥ २. कालोययलवण इति मुद्रितो बृहत्क्षेत्र० पाठः ॥ ३. ८० तमसूत्रादारभ्य ९४ तमसूत्रे १७ पर्यन्तं गणने ६९ सूत्राणि भवन्ति ।। ४. जंबुद्दीवे खं० ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० १०४] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १३९ पुव्वद्धस्स य मज्झे मेरू पुण तस्स दाहिणुत्तरओ । वासाइं तिन्नि तिन्नि विदेहवासं च मज्झम्मि । अरविवरसंठियाई चउरो लक्खाई ताई खेत्ताई, दीर्घतया । अंतो संखित्ताई रुंदतराई कमेण पुणो ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।६-७] भरहे मुहविक्खंभो छावट्ठिसयाइं चोद्दसहियाइं । अउणत्तीसं च सयं बारसहियदुसयभागाणं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३३१३] ६६१४ १२९ । अट्ठारस य सहस्सा पंचेव सया हवंति सीयाला । पणपण्णं अंससयं बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।२६] १८५४७३१२ । चउगुणिय भरहवासो, व्यास इत्यर्थः, हेमवए तं चउगुणं तइयं, हरिवर्षमित्यर्थः । हरिवासं चउगुणितं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ जह विक्खंभो दाहिणदिसाए तह उत्तरे वि वासतिए । जह पुव्वद्धे सत्त उ तह अवरद्धे वि वासाइं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।३०-३१] सत्ताणउई सहस्सा सत्ताणउयाइं अट्ठ य सयाइं । तिन्नेव य लक्खाइं कुरूण भागा य बाणउई ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।४३] विष्कम्भ इति, ३९७८९७ २१२ । अडवण्णसयं तेवीस सहस्सा दो य लक्ख जीवाओ । दोण्ह गिरीणायामो संखित्तो तं धणु कुरूणं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।४८] वासहरगिरी १२ वक्खारपव्वया ३२ पुव्वपच्छिमद्धेसु । जंबूदीवगदुगुणा वित्थरओ उस्सए तुल्ला । [बृहत्क्षेत्र० ३।३८] कंचणगजमगसुरकुरुनगा य वेयड्ड वदीहा य । विक्खंभोवेहसमुस्सएण जह जंबुदीविच्चा ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।४१] लक्खाई तिन्नि दीहा विज्जुप्पभ-गंधमादणा दो वि । छप्पन्नं च सहस्सा दोन्नि सया सत्तवीसा य ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।४९] अउणट्ठा दोन्नि सया उणसत्तरि सहस्स पंच लक्खा य । सोमणस मालवंता दीहा रुंदा दस सयाइं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।५०] सव्वाओ वि णईओ विक्खंभोवेहदुगुणमाणाओ । सीया-सीओयाणं वणाणि दुगुणाणि विक्खंभे ।। [बृहत्क्षेत्र० ३।४०] विस्तरतो वनमुखानीत्यर्थः । १. जंबुद्दी पा० जे२ ॥ 15 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वासहरकुरुसु दहा वर्षधरेषु कुरुषु च ये हृदा इत्यर्थः नदीण कुंडाई तेसु जे दीवा । उव्वेहुस्सयतुल्ला विक्खंभायामओ दुगुणा ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।३९] जम्बूद्वीपकापेक्षयेति । कियदूरं जम्बूद्वीपप्रकरणं धातकीखण्डपूर्वार्द्धाभिलापेन वाच्यमित्याह- जाव दोसु वासेसु मणुयेत्यादि, एतस्माद्धि सूत्रात् परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्रादिज्योतिषां 5 सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीखण्ड-पुष्करार्द्धपूर्वार्द्धादिप्रकरणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वाद् अस्याध्ययनस्य, धातकीखण्डादौ च चन्द्रादीनां बहुत्वादिति, आह चदो चंदा इह दीवे चत्तारि य सायरे लवणतोए । धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५।७२, बृहत्संग्र० ६४] इति 10 चन्द्राणामद्वित्वेन नक्षत्रादीनामपि द्वित्वं न स्यात् ततो द्विस्थानकेऽनवतार इति ।। जम्बूद्वीपप्रकरणादस्य विशेषं दर्शयन्नाह- णवरमित्यादि, नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः, कुरुसूत्रानन्तरं तत्र कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणेति उक्तमिह तु जम्बूस्थाने धायइरुक्खे चेव त्ति वक्तव्यम्, प्रमाणं च तयोर्जम्बूद्वीपकशाल्मल्यादिवत्, तयोरेव देवसूत्रे ‘अणाढिए चेव जंबूदीवाहिवई त्यत्र वक्तव्ये सुदंसणे चेव तीह 15 वक्तव्यमिति । धायइसंडे दीवे इत्यादि पश्चिमार्द्धप्रकरणं पूर्वार्द्धवदनुसतव्यम्, अत एवाहजाव छव्विहं पि कालमित्यादि, विशेषमाह- णवरं कूडसामलीत्यादि, धातकीखण्डपूर्वार्दोत्तरकुरुषु धातकीवृक्ष उक्त इह तु महाधातकीवृक्षोऽध्येतव्यः, देवसूत्रे द्वितीयः सुदर्शनस्तत्राधीतः इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति । 20 पूवार्द्ध-पश्चिमार्द्धमीलनेन धातकीखण्डद्वीपं सम्पूर्णमाश्रित्य द्विस्थानकं धायइसंडे णमित्यादिनाह, द्वे भरते पूर्वार्द्ध-पश्चिमार्द्धयोर्दक्षिणदिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र, भरतादीनां स्वरूपं प्रागुक्तम्, दो देवकुरुमहद्दुम त्ति द्वौ कूटशाल्मलीवृक्षावित्यर्थः, द्वौ तद्वासिदेवौ वेणुदेवावित्यर्थः, दो उत्तरकुरुमहद्दुम त्ति धातकीवृक्षमहाधातकीवृक्षाविति, तद्देवौ सुदर्शन-प्रियदर्शनाविति । चुल्लहिमवदादयः षड् 25 वर्षधरपर्वताः शब्दापाति-विकटापाति-गन्धापाति-मालवत्पर्यायाख्या वृत्तवैताढ्याश्च १. दीवेत्यादि खं० पा० जे२ ॥ २. पश्चार्ध खं० पा० जे२ ॥ ३. ख्यवृत्त' खं० पा० जे२ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ [सू० १०४ द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । तन्निवासिस्वाति-प्रभासा-ऽरुण-पद्मनामदेवानां द्वयेन द्वयेन सहिताः क्रमेण द्वौ द्वावुक्ताः। दो मालवंत त्ति मालवन्तावुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्वर्त्तिनौ गजदन्तकौ स्तः, ततो भद्रशालवनतद्वेदिका-विजयेभ्यः परौ शीतोत्तरकूलवर्त्तिनौ दक्षिणोत्तरायतौ चित्रकूटौ वक्षस्कारपर्वतौ, ततो विजयेनान्तरनद्या विजयेन चान्तरितावन्यौ तथैवान्यौ पुनस्तथैवान्याविति । पुनः पूर्ववनमुखवेदिका-विजयाभ्यामर्वाक् शीतादक्षिणकूलवर्तीनि तथैव त्रिकूटादीनां चत्वारि 5 द्वयानि, ततः सौमनसौ देवकुरुपूर्वदिग्वर्तिनौ गजदन्तकौ, ततो गजदन्तकावेव देवकुरुप्रत्यग्भागवर्त्तिनौ विद्युत्प्रभौ, ततो भद्रशालवन-तद्वेदिका-विजयेभ्यः परतः तथैवाङ्कावत्यादीनां चत्वारि द्वयानि शीतोदादक्षिणकू लवर्ती नि, पुनरन्यानि पश्चिमवनमुखवेदिका-ऽन्त्यविजयाभ्यां पूर्वतः क्रमेण तथैव चन्द्रपर्वतादीनां चत्वारि द्वयानि, ततो गन्धमादनावुत्तरकुरुपश्चिमभागवर्तिनौ गजदन्तकाविति, एते धातकीखण्डस्य 10 पूवार्द्ध पश्चिमार्द्ध च भवन्तीति द्वौ द्वावुक्ताविति, इषुकारौ दक्षिणोत्तरयोर्दिशोर्धातकीखण्डविभागकारिणाविति । दो चुल्लहिमवंतकूडा इत्यादि, हिमवदादयः षड् वर्षधरपर्वताः, तेषु ये द्वे द्वे कूटे जम्बूद्वीपप्रकरणे अभिहिते ते पर्वतानां द्विगुणत्वाद् एव एकैकशो द्वे द्वे स्यातामिति । वर्षधराणां द्विगुणत्वात् पद्मादिह दा अपि द्विगुणास्तद्देव्योऽप्येवमिति। चतुर्दशानां गङ्गादिमहानदीनां पूर्वपश्चार्द्धापेक्षया द्विगुणत्वात् 15 तत्प्रपातहूदा अपि द्वौ द्वौ स्युरित्याह-दो गंगप्पवायदहेत्यादि । दो रोहियाओ इत्यादौ नद्यधिकारे गङ्गादीनां सदपि द्वित्वं नोक्तम्, जम्बूद्वीपप्रकरणोक्तस्य- महाहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ महापउमद्दहाओ दो महानदीओ पवहंती [सू० ८९] त्यादिसूत्रक्रमस्याश्रयणात्, तत्र हि रोहिदादय एवाष्टौ श्रूयन्त इति, चित्रकूट-पद्मकूटवक्षस्कारपर्वतयोरन्तरे नीलवद्वर्षधरपर्वतनितम्बव्यवस्थिताद् ग्राहवतीकुण्डादक्षिणतोरणविनिर्गताऽष्टाविंशति- 20 नदीसहस्रपरिवारा शीताभिगामिनी सुकच्छ-महाकच्छविजययोर्विभागकारिणी ग्राहवती नदी, एवं यथायोगं द्वयोर्द्वयोः सवक्षस्कारपर्वतयोर्विजययोरन्तरे क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादशाऽप्यन्तरनद्यो योज्याः, तद्वित्वं च पूर्ववदिति, पङ्कवतीत्यत्र वेगवतीति ग्रन्थान्तरे दृश्यते, क्षारोदेत्यत्र क्षीरोदेत्यन्यत्र, सिंहश्रोता इत्यत्र सीतश्रोता इत्यपरत्र, फेनमालिनी गम्भीरमालिनी चेतीह व्यत्ययश्च दृश्यते इति । 25 १. नाभदे जे१ ॥ २. यदहे जे२ खं० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ मालवद्गजदन्तक-भद्रशालवनाभ्यामारभ्य कच्छादीनि द्वात्रिंशद्विजयक्षेत्रयुगलानि प्रदक्षिणतोऽवगन्तव्यानीति, तथा कच्छादिषु क्रमेण क्षेमादिपुराणां युगलानि द्वात्रिंशदवगन्तव्यानीति, भद्रशालादीनि मेरोश्चत्वारि वनानि भूमीए भद्दसालं मेहलजुयलम्मि दोन्नि रम्माइं। 5 नंदण-सोमणसाइं पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ११३१६] ति वचनात् । मेर्वोर्द्वित्वे च वनानां द्वित्वमिति, शिलाश्चतम्रो मेरौ पण्डकवनमध्ये चूलिकायाः क्रमेण पूर्वादिषु, अत्र गाथे पंडगवणम्मि चउरो सिलाओ चउसु वि दिसासु चूलाए । चउजोयणूसियाओ सव्वज्जुणकंचणमयाओ । पंचसयायामाओ मज्झे दीहत्तणऽद्धरुंदाओ । चंदद्धसंठियाओ कुमुदोदर-हारगोराओ ॥ [बृहत्क्षेत्र० १।३५५-३५६] त्ति । मन्दरौ मेरू, चूलिका शिखरविशेषः, स्वरूपमस्या:मेरुस्स उवरि चूला जिणभवणविभूसिया दुवीसुच्चा ४० । बारस अट्ठ य चउरो मूले मझुवरि रुंदा य ॥ [ ] इति । 15 वेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपवत् । धातकीखण्डानन्तरं कालोदसमुद्रो भवतीति तद्वक्तव्यतामाह- कालोदेत्यादि कण्ठ्यम्, कालोदानन्तरमनन्तरत्वादेव पुष्करद्वीपस्य पूर्वार्द्ध-पश्चिमार्द्ध-तदुभयप्रकरणान्याह- पुक्खरेत्यादि, त्रीण्यप्यतिदेशप्रधानानि, अतिदेशलभ्यश्चार्थः सुगम एव, नवरं पूर्वार्धा -ऽपरार्द्धता धातकीखण्डवदिषुकाराभ्यामवगन्तव्या, भरतादीनां 20 चायामादिसमतैवं भावनीया ईयालीस सहस्सा पंचेव सया हवंति उणसीया । तेवत्तरमंससयं मुहविक्खंभो भरहवासे ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५।१७] ४१५७९ १७३ । पन्नट्ठि सहस्साई चत्तारि सया हवंति छायाला।। तेरस चेव य अंसा बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५।२६] ६५४४६२२। 25 चउगुणिय भरहवासो विस्तर इत्यर्थः हेमवए तं चउग्गुणं तइयं हरिवर्षमित्यर्थः । १. “भूमौ भद्रशालवनम्, तथा मेखलायुगले द्वे रम्ये नन्दन-सौमनसाख्ये वने, किमुक्तं भवति ? प्रथममेखलायां नन्दनवनम्, द्वितीयस्यां मेखलायां सौमनसमिति । शिखरं पण्डकवनमण्डितमिति शिखरे चतुर्थं चूलिकायाः समन्ततः परिक्षेपि पण्डकवनम् ।" इति बृहत्क्षेत्रसमासटीकायां मलयगिरिसूरिविरचितायाम् ॥ २. पश्चार्द्ध जे१ विना ।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ [सू० १०५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । हरिवासं चउगुणियं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।३०] एवमैरवतादीनि मन्तव्यानि । सत्तत्तरिं सयाइं चोद्दस अहियाई सत्तरस लक्खा । होइ कुरूविक्खंभो अट्ठ य भागा अपरिसेसा ॥ [बृहत्क्षेत्र०५।४२]१७०७७१४ । चत्तारि लक्ख छत्तीस सहस्सा नव सया य सोलहिया । एषा कुरुजीवा । ४३६९१६ 5 दोण्ह गिरीणायामो संखित्तो तं धणु कुरूणं ॥ सोमणस-मालवंता दीहा वीसं भवे सयसहसस्सा । तेयालीस सहस्सा अउणावीसा य दोन्नि सया ॥ २०४३२१९ । सोलहियं सयमेगं छव्वीस सहस्स सोलस य लक्खा । विज्जुप्पभो नगो गंधमायणो चेव दीहाओ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५।४७-४८-४९] १६२६११६। 10 महाद्रुमा जंबूद्वीपकमहाद्रुमतुल्याःधायइवरम्मि दीवे जो विक्खंभो उ होइ उ णगाणं । सो दुगुणो णेयव्वो पुक्खरद्धे णगाणं तु ॥ वासहरा वक्खारा दह-नइ-कुंडा वणा य सीयाए । दीवे दीवे दुगुणा वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥ उसुयार जमग कंचण चित्त-विचित्ता य वट्टवेयड्डा । दीवे दीवे तुल्ला दुमेहला जे य वेयड्डा ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५।३७-३८-३९] इति । पुष्करद्वीपवेदिकाप्ररूपणानन्तरं शेषद्वीप-समुद्रवेदिकाप्ररूपणामाह- सव्वेसिं पि णमित्यादि कण्ठ्यम् । [सू० १०५] दो असुरकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-चमरे चेव बली चेव। 20 दो णागकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-धरणे चेव भूयाणंदे चेव २। दो सुवन्नकुमारिंदा पन्नत्ता, तंजहा-वेणुदेवे चेव वेणुदाली चेव ३। दो विजुकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-हरिच्चेव हरिस्सहे चेव ४। दो अग्गिकुमारिंदा पन्नत्ता, तंजहाअग्गिसिहे चेव अग्गिमाणवे चेव ५। दो दीवकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहापुन्ने चेव वसिढे चेव ६। दो उदहिकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-जलकंते चेव 25 जलप्पभे चेव ७। दो दिसाकुमारिंदा पन्नत्ता, तंजहा-अमियगती चेव Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अमितवाहणे चेव ८। दो वातकुमारिंदा पन्नत्ता, तंजहा-वेलंबे चेव पभंजणे चेव ९। दो थणियकुमारिंदा पण्णत्ता, तंजहा-घोसे चेव महाघोसे चेव १०। दो पिसाइंदा पन्नत्ता, तंजहा-काले चेव महाकाले चेव १। दो भूइंदा पन्नत्ता, तंजहा-सुरूवे चेव पडिरूवे चेव २। दो जक्खिंदा पन्नत्ता, तंजहा5 पुनभद्दे चेव माणिभद्दे चेव ३। दो रक्खसिंदा पन्नत्ता, तंजहा-भीमे चेव महाभीमे चेव ४। दो किन्नरिंदा पन्नत्ता, तंजहा-किन्नरे चेव किंपुरिसे चेव ५। दो किंपुरिसिंदा पन्नत्ता, तंजहा-सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव ६। दो महोरगिंदा पन्नत्ता, तंजहा-अतिकाए चेव महाकाए चेव ७। दो गंधव्विंदा पन्नत्ता, तंजहा-गीतरती चेव गीयजसे चेव ८॥ 10 दो अणपन्निंदा पन्नत्ता, तंजहा-संनिहिए चेव सामाणे चेव १। दो पणपनिंदा पन्नत्ता, तंजहा-धाते चेव विधाते चेव २। दो इसिवाइंदा पन्नत्ता, तंजहा-इसि च्चेव इसिवालए चेव ३। दो भूतवाइंदा पन्नत्ता, तंजहा-इस्सरे चेव महिस्सरे चेव ४। दो कंदिंदा पन्नत्ता तंजहा-सुवच्छे चेव विसाले चेव ५। दो महाकंदिंदा पन्नत्ता, तंजहा-हस्से चेव हस्सरती चेव ६। दो कुभंडिंदा 15 पन्नत्ता, तंजहा-सेए चेव महासेए चेव ७। दो पतइंदा पन्नत्ता, तंजहा-पतए चेव पतयवई चेव ८ जोतिसियाणं देवाणं दो इंदा पन्नत्ता, तंजहा-चंदे चेव सूरे चेव । सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पन्नत्ता, तंजहा-सक्के चेव ईसाणे चेव। एवं सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु दो इंदा पनत्ता, तंजहा-सणंकुमारे चेव 20 माहिंदे चेव । बंभलोग-लंतएसु णं कप्पेसु दो इंदा पन्नत्ता, तंजहा-बंभे चेव लंतए चेव। महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु दो इंदा पन्नत्ता, तंजहामहासुक्के चेव सहस्सारे चेव । आणत-पाणता-ऽऽरण-ऽच्चुतेसु णं कप्पेसु दो इंदा पन्नत्ता, तंजहा-पाणते चेव अच्चुते चेव । महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा दुवण्णा पन्नत्ता, तंजहा-हालिद्दा 25 चेव सुकिला चेव । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १०६ ] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । गेविज्जगा णं देवा णं दो रयणीओ उड्डमुच्चत्तेणं पन्नत्ता । ॥ तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ [ टी०] एते च द्वीप - समुद्रा इन्द्राणामुत्पातपर्वताश्रया इतीन्द्रवक्तव्यतामाह- दो असुरेत्यादि अच्चुए चेव इत्येतदन्तं सूत्रं सुगमम्, नवरम् असुरादीनां दशानां भवनपतिनिकायानां मेर्वपेक्षया दक्षिणोत्तरदिग्वयाश्रितत्वेन द्विविधत्वाद् विंशतिरिन्द्राः, 5 तत्र चमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य इत्येवं सर्वत्र, एवं व्यन्तराणामष्टनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेन्द्राः, तथा अणपन्निकादीनामप्यष्टानामेव व्यन्तरविशेषरूपनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेति, ज्योतिष्कानां त्वसङ्ख्यातचन्द्र - सूर्यत्वेऽपि जातिमात्राश्रयणाद् द्वावेव चन्द्र-सूर्याख्याविन्द्रावुक्तौ, सौधर्म्मादिकल्पानां तु दशेन्द्रा इत्येवं सर्वेऽपि चतुःषष्टिरिति । देवाधिकारात् तन्निवासभूतविमानवक्तव्यतामाह- महासुक्केत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं हारिद्राणि पीतानि क्रमश्चायं सौधर्मादिविमानवर्णविषयो यथा- सौधर्मेशानयोः पञ्चवर्णानि, ततो द्वयोरकृष्णानि, पुनर्द्वयोरप्यकृष्ण - नीलानि, ततो द्वयोः शुक्रसहस्राराभिधानयोः पीत- शुक्लानि, ततः शुक्लान्येवेति, आह च १४५ सोहम्मे पंचवन्ना एक्कगहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥ [ बृहत्संग्र० १३२] इति । देवाधिकारादेव द्विस्थानकानुपातिनीं तदवगाहनामाह - गेवेज्जगा णमित्यादि पूर्ववद् व्याख्येयमिति । ॥ द्विस्थानकस्य तृतीय उद्देशकः समाप्तः || [अथ चतुर्थ उद्देशकः ] [सू० १०६] समयातिं वा आवलिया ति वा जीवा ति या अजीवा ति या पवुच्चति १, आणापाणू ति वा थोवा ति वा जीवा ति या अजीवा ति या पच्चति २, खणा ति वा लवा ति वा जीवा ति या अजीवा १. इ वा क० । एवमग्रेऽपि सर्वत्र ज्ञेयम् ॥ 10 15 20 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ति या पवुच्चति ३, एवं मुहुत्ता ति वा अहोरत्ता ति वा ४, पक्खा ति वा मासा ति वा ५, उद ति वा अयणा ति वा ६, संवच्छरा ति वा जुगा ति वा ७, वाससता ति वा वाससहस्सा ति वा ८, वाससतसहस्सा ति वा वासकोडी ति वा ९, पुव्वंगा ति वा पुव्वा ति वा १०, तुडियंगा ति 5 वा तुडिया ति वा ११, अटटंगा ति वा अटटा ति वा १२, अववंगा ति वा अववा ति वा १३, हूहूयंगा ति वा हूहूया ति वा १४, उप्पलंगा ति वा उप्पला ति वा १५, पउमंगा ति वा पउमा ति वा १६, णलिणंगा ति वा णलिणा ति वा १७, अत्थणिकुरंगा ति वा अत्थणिउरा ति वा १८, अउअंगा ति वा अउआ ति वा १९, णउअंगा ति वा णउआ ति वा २०, 10 पउतंगा ति वा पउता ति वा २१, चूलितंगा ति वा चूलिता ति वा २२, सीसपहेलियंगा ति वा सीसपहेलिया ति वा २३, पलिओवमा ति वा सागरोवमा ति वा २४, उस्सप्पिणी ति वा ओसप्पिणी ति वा जीवा ति या अजीवा ति या पवुच्चति २५।। ___ गामा ति वा णगरा ति वा १, निगमा ति वा रायहाणी ति वा २, 15 खेडा ति वा कब्बडा ति वा ३, मडंबा ति वा दोणमुहा ति वा ४, पट्टणा ति वा आगरा ति वा ५, आसमा ति वा संवाहा ति वा ६, संनिवेसा इ वा घोसा ति वा ७, आरामा ति वा उज्जाणा ति वा ८, वणा ति वा वणसंडा ति वा ९, वावी ति वा पुक्खरणी ति वा १०, सरा ति वा सरपंतिता ति वा ११, अगडा ति वा तलागा ति वा १२, दहा ति वा णदी ति 20 वा १३, पुढवी ति वा उदही ति वा १४, वातखंधा ति वा उवासंतरा ति वा १५, वलता ति वा विग्गहा ति वा १६, दीवा ति वा समुद्दा ति वा १७, वेला ति वा वेतिता ति वा १८, दारा ति वा तोरणा ति वा १९, णेरतिता ति वा णेरतितावासा ति वा २०, जाव वेमाणिया ति वा वेमाणियावासा ति वा ४३, कप्पा ति वा कप्पविमाणावासा ति वा ४४, 25 वासा ति वा वासधरपव्वता ति वा ४५, कूडा ति वा कूडागारा ति वा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १४७ [सू० १०६] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४६, विजया ति वा रायहाणी ति वा ४७, जीवा ति या अजीवा ति या पवुच्चति । छाया ति वा आतवा ति वा १, दोसिणा ति वा अंधगारा ति वा २, ओमाणा ति वा उम्माणा ति वा ३, अइयाणगिहा ति वा उज्जाणगिहा ति वा ४, अवलिंबा ति वा सणिप्पवाता ति वा ५, जीवा ति या अजीवा 5 ति या पवुच्चइ । दो रासी पन्नत्ता, तंजहा-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । [टी०] उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य च जीवा-ऽजीववक्तव्यताप्रतिबद्धस्य पूर्वेण सहाऽयं सम्बन्धः- पूर्वस्मिन् हि पुद्गल-जीवधर्मा उक्ताः, इह तु सर्वं जीवा-ऽजीवात्मकमिति वाच्यम् । अनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्योद्देशकस्येमानि 10 पञ्चविंशतिरादिसूत्राणि समयेत्यादीनि । एषां चानन्तरसूत्रेणायमभिसम्बन्धः- पूर्वत्र जीवविशेषाणामुच्चत्वलक्षणो धर्मोऽभिहितः, इह तु धर्माधिकारादेव समयादिः स्थितिलक्षणो धर्मो जीवाजीवसम्बन्धी जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनोच्यत इति, तत्र सर्वेषां कालप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उत्पलपत्रशतव्यतिभेदायुदाहरणोपलक्षितः समयः, तस्य चातीतादिविवक्षया बहुत्वाद् 15 बहुवचनमित्याह- समया इ वा इत्यादि, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, तथा असङ्ख्यातसमयसमुदयात्मिका आवलिका क्षुल्लकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशततमभागभूता इति, तत्र समया इति वा आवलिका इति वा यत् कालवस्तु तदविगानेन जीवा इति च, जीवपर्यायत्वात्, पर्याय-पर्यायिणोश्च कथञ्चिदभेदात्, तथा अजीवानां पुद्गलादीनां पर्यायत्वादजीवा इति च, चकारौ 20 समुच्चयार्थों, दीर्घता च प्राकृतत्वात्, प्रोच्यते अभिधीयत इति, न जीवादिव्यतिरेकिण: समयादयः, तथाहि- जीवाजीवानां सादिसपर्यवसानादिभेदा या स्थितिस्तद्भेदाः समयादयः सा च तद्धर्मः, धर्मश्च धर्मिणो नात्यन्तं भेदवान्, अत्यन्तं भेदे हि विप्रकृष्टधर्ममात्रोपलब्धौ प्रतिनियतधर्मिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषाद्, दृश्यते १. यादि स्थिति' खं० ॥ २. नात्यन्तभेद' पा० जे२ ॥ ३. अत्यन्तभेदे जे१ खं० ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसरविवरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यति तदा ‘किमियं पताका किं वा बलाके'त्येवं प्रतिनियतधर्मिविषयः संशय इति, अभेदेऽपि सर्वथा संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि गृहीतत्वादिति, इह त्वभेदनयाश्रयणाज्जीवा इ येत्याद्युक्तम्, इह च समया-ऽऽवलिकालक्षणार्थद्वयस्य जीवादिद्वयात्मकतया भणनाद् 5 द्विस्थानकावतारो दृश्यः, एवमुत्तरसूत्राण्यपि नेयानि, विशेषं तु वक्ष्याम इति । आणापाण इत्यादि, आनप्राणाविति उच्छ्वास-निःश्वासकालः सङ्ख्यातावलिकाप्रमाणः, आह च हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥ [जम्बूद्वीपप्र० २।१, बृहत्सं० २०७] त्ति । तथा स्तोकाः सप्तोच्छ्वासनिःश्वासप्रमाणाः २, क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणाः, 10 सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः ३, एवमिति यथा प्राक्तने सूत्रत्रये ‘जीवा इति च अजीवा इति च प्रोच्यते' इत्यधीतमेवं सर्वेषूत्तरसूत्रेष्वित्यर्थः, मुहूर्ताः सप्तसप्ततिलवप्रमाणाः, उक्तं च सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए । 15 तिण्णि सहस्सा सत्त य सयाणि तेवत्तरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहि अणंतनाणीहिं॥ [जम्बू० २।२-३,बृहत्सं० २०८-२०९] ति। अहोरात्रा: त्रिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणाः ४, पक्षाः पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणाः, मासा द्विपक्षाः ५, ऋतवो द्विमासमानाः वसन्ताद्याः, अयनानि ऋतुत्रयमानानि ६, संवत्सरा अयनद्वयमानाः, युगानि पञ्च संवत्सराणि ७, वर्षशतादीनि प्रतीतानि, पूर्वाङ्गानि 20 चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणानि, पूर्वाणि पूर्वाङ्गान्येव चतुरशीतिलक्षगुणितानि, इदं चैषां मानम् पुव्वस्स उ परिमाणं सयरिं खलु होति कोडिलक्खाओ । छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं ॥ [बृहत्सं० ३१६] ति ७०५६०००००००००० । पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति, एवं पूर्वस्य पूर्वस्य 25 चतुरशीतिलक्षगुणनेनोत्तरमुत्तरं सङ्ख्यानं भवति यावच्छीर्षप्रहेलिकेति, तस्यां चतुर्नवत्यधिकमङ्कस्थानशतं भवति, अत्र करणगाथा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ [सू० १०६] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । इच्छियठाणेण गुणं पणसुन्नं चउरसीतिगुणितं च । काऊणं तइवारे पुव्वंगाईण मुण संखं ॥ [ ] शीर्षप्रहेलिकान्तः सांव्यवहारिकः सङ्ख्यातकालः, तेन च प्रथमपृथिवीनारकाणां भवनपति-व्यन्तराणां भरतैरवतेषु सुषमदुःषमायाः पश्चिमे भागे नर-तिरश्चां चायुर्मीयत इति । किञ्च, शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽप्यस्ति सङ्ख्यातः कालः, स चानतिशायिनां 5 न व्यवहारविषय इति कृत्वौपम्ये प्रक्षिप्तः, अत एव शीर्षप्रहेलिकायाः परतः पल्योपमाद्युपन्यासः, तत्र पल्ये नोपमा येषु तानि पल्योपमानि असङ्ख्यातवर्षकोटीकोटीप्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि, सागरेणोपमा येषु तानि सागरोपमाणि पल्योपमकोटीकोटीदशकमानानीति, दशसागरोपमकोटीकोट्य उत्सर्पिणी, एवमेवाऽवसर्पिणीति । 10 ___ कालविशेषवत् ग्रामादिवस्तुविशेषा अपि जीवाजीवा एवेति द्विपदैः सप्तचत्वारिंशता सूत्रैराह– गामेत्यादि, इह च प्रत्येकं जीवा इ येत्यादिरालापोऽध्येतव्यो, ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र करादिगम्या ग्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि १, निगमाः वणिग्निवासाः, राजधान्यो यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते २, खेटानि धूलीप्राकारोपेतानि, कर्बटानि कुनगराणि ३, मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् 15 परतोऽवस्थितग्रामाणि, द्रोणमुखानि येषां जल-स्थलपथावुभावपि स्तः ४, पत्तनानि येषु जल-स्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आकरा लोहाद्युत्पत्तिभूमयः ५, आश्रमाः तीर्थस्थानानि, संवाहाः समभूमौ कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूतेषु धान्यानि कृषीवलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति ६, सन्निवेशाः सार्थकटकादेः, घोषा गोष्ठानि ७, आरामा विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता 20 इति, उद्यानानि पत्र-पुष्प-फल-च्छायोपगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्योन्नतमानस्य भोजनार्थं यानं गमनं येष्विति ८, वनानीत्येकजातीयवृक्षाणि, वनखण्डा: अनेकजातीयोत्तमवृक्षा: ९, वापी चतुरस्रा, पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती वेति १०, सरांसि जलाशयविशेषाः, सरःपङ्क्तयः सरसां पद्धतयः ११, अगड त्ति अवटाः कूपाः, तडागादीनि प्रतीतानि १२, पृथिवी रत्नप्रभादिका, उदधिः तदधो 25 १. धान्यादिप्रवेश इत्यर्थः ।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे घनोदधिः १४, वातस्कन्धाः घनवात-तनुवाता इतरे वा, अवकाशान्तराणि वातस्कन्धानामधस्तादाकाशानि, जीवता चैषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिजीवव्याप्तत्वात् १५, वलयानि पृथिवीनां वेष्टनानि घनोदधि-घनवात-तनुवातलक्षणानीति, विग्रहा लोकनाडीवक्राणि, जीवता चैषां पूर्ववत् १६, द्वीपा: समुद्राश्च प्रतीताः १७, वेला 5 समुद्रजलवृद्धिः, वेदिका: प्रतीता: १८, द्वाराणि विजयादीनि, तोरणानि तेष्वेवेति १९. नैरयिकाः क्लिष्टसत्त्वविशेषास्तेषां चाजीवता कर्मपुद्गलाद्यपेक्षया, तदुत्पत्तिभूमयो नैरयिकावासास्तेषां च जीवता पृथिवीकायिकाद्यपेक्षया, इत्येवं चतुर्विंशतिदण्डकोऽभिधेयः, अत एवाह यावदित्यादि ४३, कल्पा: देवलोकाः, तदंशाः कल्पविमानावासाः ४४, वर्षाणि भरतादिक्षेत्राणि, वर्षधरपर्वताः हिमवदादयः 10 ४५, कूटानि ‘हिमवत्'कूटादीनि, कूटागाराणि तेष्वेव देवभवनानि ४६, विजया: चक्रवर्त्तिविजेतव्यानि कच्छादीनि क्षेत्रखण्डानि, राजधान्यः क्षेमादिकाः ४७, जीवेत्यादि इहोक्तं सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति । येऽपि पुद्गलधर्मास्तेऽपि तथैवेत्याह- छायेत्यादि सूत्रपञ्चकं गतार्थम, नवरं छाया वृक्षादीनाम्, आतपः आदित्यस्य, दोसिणा ति व त्ति ज्योत्स्ना, अन्धकाराणि 15 तमांसि, अवमानानि क्षेत्रादीनां प्रमाणानि हस्तादीनि, उन्मानानि तुलायाः कर्षादीनि, अतियानगृहाणि नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि, उद्यानगृहाणि प्रतीतानि, अवलिंबा सणिप्पवाया य रूढितोऽवसेया इति, किमेतत् सर्वमित्याह जीवा इति च, जीवव्याप्तत्वात् तदाश्रितत्वाद्वा, अजीवा इति च पुद्गलाद्यजीवरूपत्वात् तदाश्रितत्वाद्वेति, प्रोच्यते जिनैः प्ररूप्यत इति । इह च जीवा इ येत्यादि 20 सूत्रपञ्चकेऽपि प्रत्येकमध्येतव्यमिति । अथ समयादिवस्तु जीवा-ऽजीवरूपमेव कस्मादभिधीयते ?, उच्यते, तद्विलक्षणराश्यन्तराभावाद्, अत एवाह- दो रासीत्यादि कण्ठ्यम् । - [सू० १०७] दुविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा-पेजबंधे चेव दोसबंधे चेव । जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधंति, तंजहा-रागेण चेव दोसेण चेव। 25 जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं उदीरेंति, तंजहा-अब्भोवगमिताते चेव १. प्रोच्यते निरूप्यते जे१ । प्रोच्यते जिनैः रूप्यते खं० ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० १०७] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः। १५१ वेयणाते, उवक्कमिताते चेव वेयणाते । एवं वेदेति, एवं णिजरेंति अब्भोवगमिताते चेव वेयणाते, उवक्कमिताते चेव वेयणाते । [टी०] जीवराशिश्च द्विधा बद्ध-मुक्तभेदात्, तत्र बद्धानां बन्धनिरूपणायाहदुविहेत्यादि । प्रेम रागो माया-लोभकषायलक्षणः, द्वेषस्तु क्रोध-मानकषायलक्षणः, यदाह माया लोभकषायश्चेत्येतद् रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनर्वृष इति समासनिर्दिष्टः ॥ [प्रशम० ३२] इति । प्रेम्ण: प्रेमलक्षणचित्तविकारसम्पादकमोहनीयकर्मपुद्गलराशेर्बन्धनं जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययतः प्रकृतिरूपतया प्रदेशरूपतया च सम्बन्धनम् तथा कषायप्रत्ययतः स्थित्यनुभागविशेषापादनं च प्रेमबन्धः, एवं द्वेषमोहनीयस्य बन्धो द्वेषबन्ध इति, 10 उक्तं हि जोगा पयडिपदेसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ [बन्धशतके ९९] त्ति । प्रेम-द्वेषलक्षणाभ्यां कर्मभ्यामुदयगताभ्यां जीवानामशुभकर्मबन्धो भवतीत्याह- जीवा णमित्यादि । अथवा पूर्वसूत्रमन्यथा व्याख्याय सम्बन्धान्तरमस्य क्रियते, सामान्येन बन्धो द्वेधा प्रेमतो द्वेषतश्चेति, स चानिवृत्तिसूक्ष्मसम्परायान्तान् गुणस्थानिनः प्रतीत्य 15 द्रष्टव्यः, यस्तूपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगिनां स योगप्रत्यय एव, स तु बन्धत्वेन न विवक्षितः, बन्धस्यापि तस्य शेषकर्मबन्धविलक्षणतयाऽबन्धकल्पत्वात्, यस्य हि कर्मणोऽसौ तदल्पस्थितिकादिविशेषणम्, उक्तं च अप्पं बायर मउयं बहुं च रुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं ति य सायाबहुलं च तं कम्मं ॥ [ ] ति ।। 20 अल्पं स्थित्या, बादरं परिणामतः, मृदु अनुभवतः, बहु प्रदेशैः, मन्दं लेपतो वालुकावत्, महाव्ययं सर्वापगमात् । एतदेव दर्शयन्नाह- जीवा णमित्यादि, जीवाः सत्त्वाः, णं वाक्यालङ्कारे, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां कारणाभ्यां पापम् अशुभमशुभभवनिबन्धनत्वात्, न तु निरनुबन्धं द्विसमयस्थितिकमत्यन्तं शुभम्, तस्य केवलयोगप्रत्ययत्वादिति, बध्नन्ति स्पृष्टाद्यवस्थं कुर्वन्ति, रागेण चैव द्वेषेण चैव, 25 १. 'भावत: जे२ ॥ २. अशुभभवनि जे१ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कषायैरित्यर्थः, ननु मिथ्यात्वाऽविरति-कषाय-योगा बन्धहेतवः, तत् कथं कषाया एव इहोक्ता इति ?, उच्यते, कषायाणां पापकर्मबन्धं प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम्, प्राधान्य च स्थित्यनुभावप्रकर्षकारणत्वात् तेषामिति, अथवा अत्यन्तमनर्थकारित्वाद्, उक्तं च को दुक्खं पावेज्जा कस्स व सोक्खेहिं विम्हओ होज्जा ?। को व न लहेज्ज मोक्खं ? रागद्दोसा जइ न होज्जा ॥ [उपदेशमा० १२९ ] इति । अथवा बन्धहेतुदेशग्राहकमेवेदं सूत्रं द्विस्थानकानुरोधादिति न दोषः । उक्तस्थानद्वयबद्धपापकर्मणश्च यथोदीरण-वेदन-निर्जराः कुर्वन्ति देहिनस्तथा सूत्रत्रयेणाह- जीवेत्यादि गतार्थम्, नवरम् उदीरयन्ति अप्राप्तावसरं सदुदये प्रवेशयन्ति, अभ्युपगमेन अङ्गीकरणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी, तया शिरोलोच10 तपश्चरणादिकया वेदनया पीडया, उपक्रमेण कर्मोदीरणकारणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी, तया ज्वरा-ऽतीसारादिजन्यया, एवमिति उक्तप्रकारत एव वेदयन्ति विपाकतोऽनुभवन्त्युदीरितं सदिति, निर्जरयन्ति प्रदेशेभ्यः शाटयन्तीति । [सू० १०८] दोहिं ठाणेहिं आता सरीरं फुसित्ताणं णिजाति, तंजहा-देसेण वि आता सरीरं फुसित्ताणं णिजाति, सव्वेण वि आया सरीरं फुसित्ताणं 15 णिजाति, एवं फुरित्ताणं, एवं फुडित्ताणं, एवं संवदृइत्ताणं, एवं निव्वदृइत्ताणं। [टी०] निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा वा भवान्तरे सिद्धौ वा गच्छतः शरीरान्निर्याणं भवतीति सूत्रपञ्चकेन तदाह- दोहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां देसेण वि त्ति देशेनापि कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषाञ्चित् प्रदेशानामिलिकागत्योत्पादस्थानं गच्छता जीवेन शरीराद् बहिः क्षिप्तत्वात्, आत्मा जीवः शरीरं देहं स्पृष्ट्वा श्लिष्ट्वा 20 निर्याति शरीरान्मरणकाले निःसरतीति, सव्वेण वि त्ति सर्वेण सर्वात्मना सर्वैर्जीवप्रदेशैः गेन्दुकगत्योत्पादस्थानं गच्छता शरीराद् बहिः प्रदेशानामप्रक्षिप्तत्वादिति, अथवा देशेनापि देशतोऽपि, अपिशब्दः सर्वेणापीत्यपेक्षः, आत्मा, शरीरम्, कोऽर्थः ? शरीरदेशं पादादिकं स्पृष्टवाऽवयवान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारान्निति, स च संसारी, सर्वेणापि सर्वतयाऽपि, अपिदेशेनापीत्यपेक्षः, सर्वमपि शरीरं स्पृष्टवा निर्यातीति भावः, स च १. मरणविभत्तिप्रकीर्णके गा० १९७ ॥ २. सरीरगं क० विना ।। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १०८] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । १५३ सिद्धः, वक्ष्यति च- पायणिज्जाणा णिरएसु उववज्जंतीत्यादि यावत् सव्वंगणिज्जाणा सिद्धेसु [सू० ४६१] त्ति । ___ आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सति स्फुरणं भवतीत्यत उच्यते- एवमित्यादि, एवमिति दोहिं ठाणेहीत्याद्यभिलापसंसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियद्भिरप्यात्मप्रदेशैरिलिकागतिकाले सव्वेण वि त्ति सर्वैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीरं 5 फुरित्ताणं ति स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा निर्याति, अथवा शरीरकं देशत: शरीरदेशमित्यर्थः, स्फोरयित्वा पादादिनिर्याणकाले, सर्वतः सर्वं शरीरं स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनिर्याणावसर इति । स्फुरणाच्च सात्मकत्वं स्फुटं भवतीत्याह- एवमित्यादि, एवमिति तथैव, देशेन आत्मदेशेन शरीरकं फुडित्ताणं ति सचेतनतया स्फुरणलिङ्गतः स्फुटं कृत्वा इलिकागतौ, सर्वेण सर्वात्मना स्फुटं कृत्वा गेन्दुकगताविति । अथवा 10 शरीरकं देशतः सात्मकतया स्फुटं कृत्वा पादादिना निर्याणकाले, सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति । अथवा फुडित्ता स्फोटयित्वा विशीर्णं कृत्वा, तत्र देशतोऽक्ष्यादिविघातेन, सर्वतः सर्वविशरणेन देव-दीपादिजीववदिति । शरीरकं सात्मकतया स्फुटीकुर्वंस्तत्संवर्तनमपि कश्चित् करोतीत्याह- एवमित्यादि, एवमिति तथैव संवदृइत्ताणं ति संवर्त्य सङ्कोच्य शरीरकं देशेनेलिकागतौ शरीरस्थितप्रदेशः 15 सर्वेण सर्वात्मना गेन्दुकगतौ सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वान्निर्यातीति, अथवा शरीरकं शरीरिणमुपचाराद् दण्डयोगाद्दण्डपुरुषवत्, तत्र देशतः संवर्त्तनं संसारिणो म्रियमाणस्य पादादिगतजीवप्रदेशसंहारात् सर्वतस्तु निर्वाणं गन्तुरिति, अथवा शरीरकं देशतः संवर्त्य हस्तादिसङ्कोचनेन, सर्वतः सर्वशरीरसङ्कोचनेन पिपीलिकादिवदिति । आत्मनश्च संवर्तनं कुर्वन् शरीरस्य निवर्त्तनं करोतीत्याह- एवं निव्वदृइत्ताणं ति, तथैव निवर्त्य 20 जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं पृथक्कृत्वेत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागतौ सर्वेण गेन्दुकगतौ, अथवा देशतः शरीरकं निवर्त्यात्मनः पादादिनिर्याणवान् सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अथवा पञ्चविधशरीरसमुदायापेक्षया देशतः शरीरम् औदारिकादि निवर्त्य, तैजस-कार्मणे १. पञ्चस्थानके सूत्रमेतादृशं वर्तते- पाएहिं णिजायमाणे निरयंगामी भवति, ऊरूहिं णिजायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निजायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिजायमाणे देवगामी भवति, सव्वंगेहिं निजायमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते ॥ २. स्फुटित्वा पा० जे२ ॥ ३. पृथक्कृत्येत्यर्थः पा० जे२ । पृथवीत्येत्यर्थः खं०॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे त्वादायैव, तथा सर्वेण सर्वशरीरसमुदायं निवर्त्य निर्याति, सिध्यतीत्यर्थः । [सू० १०९] दोहिं ठाणेहिं आता केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणताते, तंजहा-खतेण चेव उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, तंजहा-खतेण चेव उवसमेण चेव । 5 [टी०] अनन्तरं सर्वनिर्याणमुक्तम्, तच्च परम्परया धर्मश्रवणलाभादिषु, ते च यथा स्युस्तथा दर्शयन्नाह- दोहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं खएण चेव त्ति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः उदयप्राप्तस्य क्षयेण निर्जरणेन अनुदितस्य चोपशमेन विपाकाननुभवेन, क्षयोपशमेनेत्युक्तं भवति, यावत्करणात् ‘केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं 10 संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलं आभिणिबोहियनाणमुप्पाडेज्जा' इत्यादि दृश्यं यावन्मनःपर्यवज्ञानमुत्पादयेदिति, केवलज्ञानं तु क्षयादेव भवतीति तन्नोक्तम् । इह च यद्यपि बोध्यादयः सम्यक्त्व-चारित्ररूपत्वात् केवलेन क्षयेण उपशमेन च भवन्ति तथाऽप्येते क्षयोपशमेनापि भवन्ति, श्रवणा-ऽऽभिनिबोधिकादीनि तु क्षयोपशमेनैव भवन्तीति सर्वसाधारणः क्षयोपशम उक्तः पदद्वयेनाऽतः स एव व्याख्यात 15 इति । [सू० ११०] दुविहे अद्धोवमिए पन्नत्ते, तंजहा-पलिओवमे चेव सागरोवमे चेव । से किं तं पलिओवमे ? पलिओवमे जं जोयणवित्थिनं, पल्लं एगाहियप्परूढाणं । होज निरंतरणिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं ॥४॥ वाससते वाससते, एक्कक्के अवहडंमि जो कालो । सो कालो बोद्धव्वो, उवमा एगस्स पल्लस्स ॥५॥ एतेसिं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज दसगुणिता । तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं ॥६॥ [टी०] बोध्याभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानानि च षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकान्युत्कर्षतो 25 भवन्ति, सागरोपमाणि च पल्योपमाश्रितानीति तद्वितयप्ररूपणामाह- दुविहे अद्धो १. दृश्यतां सू० ५४,५५ ।। २. गाथेयं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावपि द्वितीये वक्षस्कारे वर्तते ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ [सू० ११०] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । इत्यादि । उपमा औपम्यम्, तया निर्वृत्तमौपमिकम् अद्धा कालस्तद्विषयमौपमिकमद्धौपमिकम्, उपमानमन्तरेण यत् कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदद्धौपमिकमिति भावः, तच्च द्विधा- पल्योपमं चैव सागरोपमं चैव, तत्र पल्यवत् पल्यस्तेनोपमा यस्मिंस्तत् पल्योपमम्, तथा सागरेणोपमा यस्मिंस्तत् सागरोपमम्, सागरवन्महापरिमाणमित्यर्थः, इदं च पल्योपम-सागरोपमरूपमौपमिकं 5 सामान्यत उद्धारा-ऽद्धा-क्षेत्रभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं संव्यवहार-सूक्ष्मभेदाद् द्विधा, तत्र संव्यवहारपल्योपमं नाम यावता कालेन योजनायाम-विष्कम्भोच्चत्वः पल्यो मुण्डनानन्तरमेकादिसप्तान्ताहोरात्रप्ररूढानां वालाग्राणां भृतः प्रतिसमयं वालाग्रोद्धारे सति निर्लेपो भवति स कालो व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममुच्यते, तेषां दशभिः कोटीकोटिभिः व्यावहारिकमुद्धारसागरोपममुच्यते, तेषामेव वालाग्राणां दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्यासङ्ख्येय- 10 भागमात्रसूक्ष्मपनकावगाहनाऽसङ्ख्यातगुणरूपखण्डीकृतानां भृतः पल्यो येन कालेन निर्लेपो भवति तथैवोद्धारे तत् सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमम्, तथैव च सूक्ष्ममुद्धारसागरोपमम्, अनेन च द्वीप-समुद्राः परिसङ्ख्यायन्ते, आह चउद्धारसागराणं अड्डाइजाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ [बृहत्क्षेत्र० १॥३] इति । अद्धापल्योपम-सागरोपमे अपि सूक्ष्म-बादरभेदे एवमेव, नवरं वर्षशते वर्षशते वालस्य वालासङ्ख्येयखण्डस्य चोद्धार इति, अनेन नारकादिस्थितयो मीयन्ते, क्षेत्रतोऽपि ते द्विविधे एवमेव, नवरं प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन वालाग्रस्पृष्टा एव प्रदेशा उध्रियन्ते स कालो व्यावहारिक इति, यावता च वालाग्रासङ्ख्यातखण्डैः स्पृष्टाश्च अस्पृष्टाश्चोध्रियन्ते स कालः सूक्ष्म इति, एते च प्ररूपणामात्रविषये एव, 20 आभ्यां च दृष्टिवादे स्पृष्टास्पृष्टप्रदेशविभागेन द्रव्यमाने प्रयोजनमिति श्रूयते, बादरे च त्रिविधे अपि प्ररूपणामात्रविषये एवेति, तदेवमिह प्रक्रमे उद्धारक्षेत्रौपमिकयोनिरुपयोगत्वादद्धौपमिकस्यैव चोपयोगित्वाद् अद्धति विशेषणं सूत्रे उपात्तमिति । अत एवाद्धापल्योपमलक्षणाभिधित्सयाऽऽह सूत्रकार:- से किं तमित्यादि, अथ किं तत् पल्योपमं यदद्धौपमिकतया निर्दिष्टमिति प्रश्ने निर्वचनमेतदनुवादेनाह- 25 पलिओवमे त्ति, पल्योपममेवं भवतीति वाक्यशेषः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जं गाहा, किल यद्योजनविस्तीर्णमित्युपलक्षणत्वात् सर्वतो यद्योजनप्रमाणं पल्यं धान्यस्थानविशेषः एकाह एव एकाहिकस्तेन प्ररूढानां वृद्धानाम्, मुण्डिते शिरसि एकनाला यावत्यो भवन्तीत्यर्थः, एतस्य चोपलक्षणत्वादुत्कर्षतः सप्ताहप्ररूढानां वालाग्राणां कोटयो विभागाः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसंख्येयखण्डानि, बादरपल्योपमापेक्षया तु 5 कोटय: सङ्ख्याविशेषाः, तासां किं भवेत् ? भरितं भृतम्, कथमित्याहनिरन्तरनिचितं निबिडतया निचयवत् कृतमिति । वास गाहा, एतस्मात् पल्यावर्षशते वर्षशतेऽतिक्रान्ते सति, प्रतिवर्षशतमित्यर्थः, एकैकस्मिन् वालाग्रे असङ्ख्येयखण्डे चाऽपहते उद्धृते सति यः कालो यावती अद्धा भवति प्रमाणतः स तावान् कालो बोद्धव्यः, किमित्याह- उपमा उपमेयः, कस्येत्याह- एकस्य पल्यस्य, इदमुक्तं 10 भवति- स काल एकं पल्योपमं सूक्ष्म व्यावहारिकं चोच्यत इति । एएसिं गाहा, एतेषाम् उक्तरूपाणां सूक्ष्मबादराणां पल्यानां पल्योपमानां कोटीकोटी भवेद् दशगुणिता यदिति गम्यते, दश कोटीकोट्य इत्यर्थः, तदेकस्य सूक्ष्मरूपस्य बादररूपस्य वा सागरोपमस्यैव भवेत् परिमाणमिति । [सू० १११] दुविहे कोधे पन्नत्ते, तंजहा-आयपतिट्टिते चेव परपइट्ठिए 15 चेव, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव मिच्छादसणसल्ले । [टी०] एतैश्च येषां क्रोधादीनां फलभूतकर्मस्थितिनिरूप्यते तत्स्वरूपनिरूपणायाहदुविहे कोहे इत्यादि । आत्मापराधादैहिकापायदर्शनादात्मनि प्रतिष्ठितः आत्मविषयो जातः आत्मना वा परत्राक्रोशादिना प्रतिष्ठितो जनित आत्मप्रतिष्ठितः, परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठितः उदीरितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो जातः परप्रतिष्ठित इति । एवमिति यथा 20 सामान्यतो द्विधा क्रोध उक्त एवं नारकादीनां चतुर्विंशतेर्वाच्यः, नवरं पृथिव्या दीनामसंज्ञिनामुक्तलक्षणमात्मप्रतिष्ठितत्वादि पूर्वभवसंस्कारात् क्रोधगतमवगन्तव्यमिति । एवं मानादीनि मिथ्यात्वान्तानि पापस्थानकान्यात्म-परप्रतिष्ठितविशेषणानि सामान्यपदपूर्वकचतुर्विंशतिदण्डकेनाऽध्येतव्यानि, अत एवाह- एवं जाव मिच्छादंसणसल्ले त्ति, एतेषां च मानादीनां स्वविकल्पजात-परजनितत्वाभ्यां स्वात्मवर्त्ति Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ [सू० ११२] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः। परात्मवर्त्तित्वाभ्यां वा स्व-परप्रतिष्ठितत्वमवसेयम् । एवमेते पापस्थानाश्रितास्त्रयोदश दण्डका इति । [सू० ११२] दुविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-तसा चेव थावरा चेव । दुविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-सिद्धा चेव असिद्धा चेव । दुविहा 5 सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सइंदिया चेव अणिंदिया चेव । एवं एसा गाहा फासेतव्वा जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव - सिद्ध-सइंदिय-काए, जोगे वेदे कसाय लेसा य । णाणुवओगाहारे, भासग-चरिमे य ससरीरी ॥७॥ टी०] उक्तविशेषणानि च पापस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति तान् भेदत आह– 10 दुविहेत्यादि कण्ठ्यमिति । ननु संसारिण एव जीवा उतान्येऽपि सन्ति?, सन्त्येवेति प्राय उभयदर्शनाय त्रयोदशसूत्रीमाह- दुविहा सव्वेत्यादि, कण्ठ्या चेयम्, नवरं सेन्द्रियाः संसारिणः, अनिन्द्रिया: अपर्याप्तक-केवलि-सिद्धाः २ । एवं एस त्ति, एवं सिद्धादिसूत्रोक्त क्र मेण दुविहा सव्वजीवेत्यादिलक्षणेन एषा वक्ष्यमाणा प्रस्तुतसूत्रसङ्ग्रहगाथा स्पर्शनीया अनुसरणीया, एतदनुसारेण त्रयोदशापि 15 सूत्राण्यध्येतव्यानीत्यर्थः, अत एवाह- जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव त्ति । सिद्ध गाहा, सिद्धाः सेन्द्रियाश्च सेतरा उक्ताः, एवं काए त्ति, कायाः पृथिव्यादयस्तानाश्रित्य सर्वजीवाः सविपर्यया वाच्याः, एवं सर्वाणि व्याख्येयानि, वाचना चैवम्-‘सकायच्चेव अकायच्चेव', सकायाः पृथिव्यादिषड्विधकायविशिष्टाः संसारिणः, अकायास्तद्विलक्षणाः सिद्धाः ३, सयोगा: संसारिणः, अयोगा अयोगिनः सिद्धाश्च ४, वेदे त्ति सवेदाः 20 संसारिणः, अवेदाः अनिवृत्तिबादरसम्परायविशेषादयः षट् सिद्धाश्च ५, कसाय त्ति, सकषायाः सूक्ष्मसम्परायान्ताः, अकषायाः उपशान्तमोहादयश्चत्वारः सिद्धाश्च ६, लेसा य त्ति सलेश्याः सयोग्यन्ताः संसारिणः, अलेश्याः अयोगिनः सिद्धाश्च ७, नाणे त्ति ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयोऽज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयः, आह च१. दृश्यतां सू० २४९ ।। २. त्ति कषायाः जे१ ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अविसेसिया मइ च्चिय सम्मादिट्ठिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुयं पि एमेव ॥ [विशेषाव० ११४] त्ति । अज्ञानता च मिथ्यादृष्टिबोधस्य सदसतोरविशेषणात्, तथाहि- सन्त्यर्थाः, इह तत्सत्त्वं कथञ्चिदिति विशेषितव्यं भवति, स्वरूपेणेत्यर्थः, मिथ्यादृष्टिस्तु मन्यते सन्त 5 एवेति, ततश्च पररूपेणापि तेषां सत्त्वप्रसङ्गः, तथा न सन्त्यर्थाः, इह तदसत्त्वं कथञ्चिदिति विशेषितव्यं भवति, पररूपेणेत्यर्थः, स तु न सन्त्येवेति मन्यते, तथा च तत्प्रतिषेधकवचनस्याप्यभावः प्रसजतीति, अथवा शशविषाणादयो न सन्तीत्येतत् कथञ्चिदिति विशेषणीयम्, यतस्ते शशमस्तकादिसमवेततयैव न सन्ति, न तु शशश्च विषाणं च शशस्य वा विषाणं शृङ्गिपूर्वभवग्रहणापेक्षया शशविषाणं तद्रूपतयाऽपि 10 न सन्तीति, तदेवं सदसतोः कथञ्चिदित्येतस्य विशेषणस्यानभ्युपगमात् तस्य ज्ञानमप्ययथार्थत्वेन कुत्सितत्वादज्ञानमेव, आह च जह दुव्वयणमवयणं कुच्छियसीलं असीलमसतीए । भण्णइ तह णाणं पि हु मिच्छद्दिट्ठिस्स अन्नाणं ॥ [विशेषाव० ५२०] ति । तथा मिथ्यादृष्टेरध्यवसायो न ज्ञानम्, भवहेतुत्वात्, मिथ्यात्वादिवत्, तथा 15 यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्, तथा ज्ञानफलस्य सत्क्रियालक्षणस्याभावात् अन्धस्य स्वहस्तगतदीपप्रकाशवदिति, आह च सदसदविसेसणाओ भवहेउ-जइच्छओवलंभाओ । णाणफलाभावाओ मिच्छादिट्ठिस्स अन्नाणं ॥ [विशेषाव० ११५] ति ८ । उवओगि त्ति, ‘सागारोवउत्ते च्चेय अणगारोवउत्ते. च्चेय' त्ति सहाऽऽकारेण 20 विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षणेन वर्त्तते य उपयोगः स साकारः, ज्ञानोपयोग इत्यर्थः, तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः, अनाकारस्तु तद्विलक्षणो दर्शनोपयोग इत्यर्थः, अभिधीयते च जं सामन्नग्गहणं भावाणं नेय कट्ट आगारं । अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिति वुच्चए समए ॥ [ ] त्ति । 25 तेनोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता इति ९, आहारे त्ति, आहारका ओजो-लोम १. जइच्छिओ पासं० ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ [सू० ११३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । कवलभेदभिन्नाहारविशेषग्राहिणः, आह च ओयाहारा जीवा सव्वे अपज्जत्तगा मुणेयव्वा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होंति भइयव्वा । एगिदिय देवाणं णेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥ [बृहत्सं० १९८-१९९] अनाहारकास्तु 5 विग्गहगइमावण्णा १ केवलिणो समोहया २ अजोगी य ३ । सिद्धा य ४ अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ [जीवसमासे ८२] इति १० । भास त्ति भाषकाः भाषापर्याप्तिपर्याप्ताः, अभाषकाः तदपर्याप्तका अयोगि-सिद्धाः ११ । चरम त्ति चरमा येषां चरमो भवो भविष्यति, अचरमास्तु येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमो भवो न भविष्यति, न निर्वास्यन्तीत्यर्थः १२ । ससरीरि त्ति सह यथासम्भवं पञ्चविधशरीरेण 10 ये ते इन्समासान्तविधेः शरीरिणः संसारिणः, अशरीरिणस्तु शरीरमेषामस्तीति शरीरिणस्तन्निषेधादशरीरिणः सिद्धाः १३ ॥ सू० ११३] दो मरणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्वं वनियाई णो णिच्चं कित्तियाई णो णिच्चं पूइयाइं णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-वलयमरणे चेव वसट्टमरणे 15 चेव १। एवं णियाणमरणे चेव तब्भवमरणे चेव । गिरिपडणे चेव तरुपडणे चेव ३। जलप्पवेसे चेव जलणप्पवेसे चेव ४। विसभक्खणे चेव सत्थोवाडणे चेव ५। ___ दो मरणाइं जाव णो णिच्चं अन्भणुन्नाताई भवंति, कारणे पुण अप्पडिकुट्ठाई, तंजहा-वेहाणसे चेव गिद्धपढे चेव ६।। 20 दो मरणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिच्चं वन्नियाई जाव अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-पाओवगमणे चेव भत्तपच्चक्खाणे चेव ७। पाओवगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-णीहारिमे चेव अनीहारिमे चेव, णियमं अपडिकम्मे ८। भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-णीहारिमे चेव अणीहारिमे चेव, णियमं सपडिकम्मे ९। 25 १. कारणेण क० विना ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] एते च संसारिणः सिद्धाश्च मरणा-ऽमरणधर्मकाः, अप्रशस्त-प्रशस्तमरणतश्चैते भवन्तीति प्रशस्ता-ऽप्रशस्तमरणनिरूपणाय नवसूत्रीमाह- दो मरणाइमित्यादि, कण्ठ्या चेयम्, नवरं द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण, श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणास्तेषाम्, ते च शाक्यादयोऽपि स्युः, यथोक्तम्- णिग्गंथ १ सक्क २ तावस ३ 5 गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा [पिण्डनि० ४४५] इति, तद्व्यवच्छेदार्थमाह- निर्गता ग्रन्थाद् बाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषां नो नित्यं सदा वर्णिते तांस्तयोः प्रवर्त्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते, कीर्त्तिते नामतः संशब्दिते उपादेयधिया, बुइयाई ति व्यक्तवाचा उक्ते उपादेयस्वरूपतः, पाठान्तरेण पूजिते वा तत्कारिपूजनतः, प्रशस्ते प्रशंसिते श्लाघिते, शंसु स्तुतौ [पा०धा० ७२८] इति वचनात्, अभ्यनुज्ञाते अनुमते यथा 10 कुरुतेति, वलयमरणे त्ति वलतां संयमान्निवर्तमानानां परीषहादिबाधितत्वात् मरणं वलन्मरणम्, वसमरणे त्ति इन्द्रियाणां वशम् अधीनतामृतानां गतानां स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलितपतङ्गादीनामिव मरणं वशार्त्तमरणमिति, आह च संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं वसटुं तु ॥ [उत्तरा० नि० २१६] इति । 15 एवं णियाणेत्यादि, एवमिति दो मरणाई समणेणमित्याद्यभिलापस्योत्तरसूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धि-भोगादिप्रार्थना निदानम्, तत्पूर्वकं मरणं निदानमरणम् । यस्मिन् भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनर्मियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम्, एतच्च सङ्ख्यातायुष्कनर-तिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्बन्धो भवतीति, उक्तं च मोत्तुं अकम्मभूमगनर-तिरिए सुरगणे य णेरइए । 20 सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ [उत्तरा० नि० २२०] इति । सत्थोवाडणे त्ति शस्त्रेण क्षुरिकादिना अवपाटनं विदारणं स्वशरीरस्य यस्मिंस्तच्छस्त्रावपाटनम् । कारणे पुणेत्यादि, शीलभङ्गरक्षणादौ, पाठान्तरे तु कारणेन, अप्रतिक्रुष्टे अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखादावुद्बद्धत्वाद् विहायसि नभसि भवं वैहायसम्, प्राकृतत्वेन तु वेहाणसमित्युक्तमिति, गृधैः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिंस्तद् 25 गृध्रस्पृष्टम्, यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरि-करभादि १. बुयाइयाई जे१ खं० ॥ २. वलायमरणेत्ति पा० जे२ । वलयमरणं ति जे१ खं० ॥ ३. °मरणं जे१ पा०॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११३] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । शरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिंस्तद् गृध्रपृष्ठमिति, गाथाऽत्र– गद्धादिभक्खणं गद्धपट्टमुब्बंधणादि वेहासं । एते दोन वि मरणा कारणजाए अणुन्नाया || [ उत्तरा० नि० २२३] इति । अप्रशस्तमरणानन्तरं तत् प्रशस्तं भव्यानां भवतीति तदाह-- दो मरणाइं इत्यादि, पादपो वृक्षः, तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम् अत्यन्तनिश्चेष्टतया व्यवस्थानं यस्मिंस्तत् 5 पादपोपगमनम् भक्तं भोजनं तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोपगमन इव प्रत्याख्यानं वर्जनं यस्मिंस्तद्भक्तप्रत्याख्यानमिति । णीहारिमं ति यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत् ततः शरीरस्य निर्हरणात् निस्सारणान्निर्हारिमम्, यत् पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिर्हरणादनिर्हारिमम्। णियमं ति विभक्तिपरिणामान्नियमादप्रतिकर्म शरीरप्रतिक्रियावर्जं पादपोपगमनमिति, भवन्ति चात्र गाथाः सीहाइ अभिभूओ पायवगमणं करेड़ थिरचित्तो । आउम्मि पहुप्पंते वियाणिउं नवर गीयत्थो ॥ [ पञ्चव० १६२० ] त्ति । इदमस्य व्याघातवदुच्यते, निर्व्याघातं तु यत् सूत्रार्थनिष्ठितः उत्सर्गतो द्वादश समाः कृतपरिकर्मा सन् काल एव करोतीति, तद्विधिश्चायम् चत्तारि विचित्ताइं विगतीनिज्जूहियाइं चत्तारि । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं ॥ णाइवगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं । अन्ने वि य छम्मासे होइ विगिट्ठे तवोकम्मं ॥ वासं कोडीसहियं आयामं काउ आणुपुवीए । [ आचा० नि० २७१-२-३ ] संघयणादणुरूवं एत्तो अदाइ नियमेणं ॥ यतः देहम्मि असं लिहिए सहसा धाऊहिं खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरिमकालम्मि ॥ [ पञ्चव० १५७४ - १५७७] किञ्च, भावमवि संलिइ जिणप्पणीएण झाणजोगेणं । भूयत्थभावणाहि य परिवहइ बोहिमूलाई || भावे भावियप्पा विसेसओ नवर तम्मि कालम्मि । पयईए निग्गुणत्तं संसारमहासमुहस्स ॥ १. एता अष्टादशापि गाथाः पञ्चवस्तुके वर्तन्ते । काश्चन आचाराङ्गनिर्युक्तावपि वर्तन्ते ॥ १६१ 1C 15 20 25 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे 10 जम्म-जरा-मरणजलो अणाइमं वसणसावयाइण्णो । जीवाण दुक्खहेऊ कटुं रुद्दो भवसमुद्दो ॥ धन्नोऽहं जेण मए अणोरपारम्मि नवरमेयम्मि । भवसयसहस्सदुलहं लद्धं सद्धम्मजाणं ति ॥ एयस्स पभावेणं पालिज्जंतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मंतरे वि जीवा पावंति न दुक्खदोगच्चं ॥ चिंतामणी अउव्वो एयमपुव्वो य कप्परुक्खो त्ति । एयं परमो मंतो एयं परमामयं एत्थं ॥ एत्थं वेयावडियं गुरुमाईणं महाणुभावाणं । जेसि पभावेणेयं पत्तं तह पालियं चेव ॥ तेसि नमो तेसि नमो भावेण पुणो वि तेसि चेव णमो । अणुवकयपरहियरया जे एयं देंति जीवाणं ॥ [पञ्चव० १५९३-१६००] इत्यादि । संलिहिऊणऽप्पाणं एवं पच्चप्पिणेत्तु फलगाई। गुरुमाइए य सम्मं खमाविउं भावसुद्धीए । उववूहिऊण सेसे पडिबद्धे तम्मि तह विसेसेणं । धम्मे उज्जमियव्वं संजोगा इह विओगंता ॥ अह वंदिऊण देवे जहाविहिं सेसए य गुरुमाई । पच्चक्खाइत्तु तओ तयंतिए सव्वमाहारं ॥ समभावम्मि ठियप्पा सम्मं सिद्धंतभणितमग्गेणं । गिरिकंदरम्मि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥ [आचा० नि० २७३] सव्वत्थापडिबद्धो दंडाययमाइ ठाणमिह ठाउं । जावज्जीवं चिट्ठइ णिच्चेट्ठो पायवसमाणो ॥ पढमिल्लयसंघयणे महाणुभावा करेंति एवमिणं । पायं सुहभावच्चिय णिच्चलपयकारणं परमं ॥ [पञ्चव० १६१३-१६१८] भत्तपरिन्नाणसणं ति-चउब्विहाहारचायणिप्फन्नं । सप्पडिकम्मं नियमा जहासमाही विणिद्दिद्धं ॥ [ ] ति । इङ्गितमरणं त्विह नोक्तम्, द्विस्थानकानुरोधात्, तल्लक्षणं चेदम्इंगियदेसम्मि सयं चउव्विहाहारचायनिप्फन्नं ।। उव्वत्तणाइजुत्तं नऽण्णेण उ इंगिणीमरणं ॥ [ । ति । 20 २ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११४-११५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । [सू० ११४] के अयं लोगे ? जीव ब्वेव अजीव च्चेव । के अणंता लोए? जीव च्चेव अजीव च्चेव । के सासया लोगे ? जीव च्चेव अजीव च्चेव । [टी०] इदं च मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति लोकस्वरूपप्ररूपणाय प्रश्नं कारयन्नाह के अयमित्यादि। क इति प्रश्नार्थः, अयमिति देशतः प्रत्यक्ष आसन्नश्च 5 यत्र भगवता मरणादि प्रशस्ता-ऽप्रशस्तसमस्तवस्तुस्तोमतत्त्वमभ्यधायि, लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः, अस्य निर्वचनं जीवाश्चाजीवाश्चेति, पञ्चास्तिकायमयत्वाल्लोकस्य, तेषां च जीवाजीवरूपत्वादिति, उक्तं चपंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं [ध्यानश० ५३] ति । लोकस्वरूपभूतानां च जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपूर्वकेण सूत्रद्वयेनाह-के अणंतेत्यादि, 10 के अनन्ता: लोके ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरं जीवा अजीवाश्चेति । एत एव च शाश्वता द्रव्यार्थतयेति । [सू० ११५] दुविधा बोधी पन्नत्ता, तंजहा-णाणबोधी चेव दंसणबोधी चेव। दुविहा बुद्धा पन्नत्ता, तंजहा-णाणबुद्धा चेव दंसणबुद्धा चेव । एवं मोहे, मूढा। 15 [टी०] ये चैतेऽनन्ताः शाश्वताश्च जीवास्ते बोधि-मोहलक्षणधर्मयोगाद् बुद्धा मूढाश्च भवन्तीति दर्शनाय द्विस्थानकानुपातेन सूत्रचतुष्टयमाह-दुविहेत्यादि, बोधनं बोधिः जिनधर्मलाभः, ज्ञानबोधिः ज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूता ज्ञानप्राप्तिः, दर्शनबोधिः दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धानलाभ इति, एतद्वन्तो द्विविधा बुद्धाः, एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया, ज्ञान-दर्शनयोरन्योन्याविनाभूतत्वादिति । एवं मोहे 20 मूढ त्ति, यथा बोधिर्बुद्धाश्च द्विधोक्ताः तथा मोहो मूढाश्च वाच्या इति, तथाहि- 'दुविहे मोहे पन्नत्ते तं०-णाणमोहे चेव, दंसणमोहे चेव', ज्ञानं मोहयति आच्छादयतीति १. अत एव जे१ ख० ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ १६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ज्ञानमोहो ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दंसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शनमोहोदय इति । 'दुविहा मूढा पं० २० णाणमूढा चेव', ज्ञानमूढा उदितज्ञानावरणाः, ‘दसणमूढा चेव' दर्शनमूढा मिथ्यादृष्टय इति । [सू० ११६] णाणावरणिजे कम्मे दुविधे पन्नत्ते, तंजहा-देसणाणावरणिज्जे 5 चेव सव्वणाणावरणिज्जे चेव । दरिसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव । वेयणिज्जे कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सातावेयणिज्जे चेव असातावेयणिज्जे चेव । ___ मोहणिजे कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-दंसणमोहणिजे चेव चरित्तमोहणिज्जे चेव । 10 आउए कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अद्धाउए चेव भवाउए चेव । णामे कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुभणामे चेव असुभणामे चेव । गोत्ते कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-उच्चागोते चेव णीयागोते चेव । अंतराइए कम्मे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-पडुप्पन्नविणासिए चेव, पिहेति य आगामिपहं । 15 [टी०] द्विविधोऽप्ययं मोहो ज्ञानावरणादिकर्मनिबन्धनमिति सम्बन्धेन ज्ञानावरणादिकर्मणामष्टाभिः सूत्रैर्दैविध्यमाह- णाणेत्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम्, आह च सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिह । णाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ।। [प्रथमकर्म० १०] 20 देशं ज्ञानस्याऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम्, सर्वं ज्ञानं केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयम्, केवलावरणं हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत् सर्वज्ञानावरणम्, मत्याद्यावरणं तु घनातिच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुट्यादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणमिति, पठ्यते च१. आगमपहं पामू० ॥ २. सर्वज्ञानं पा० जे२ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ [सू० ११६] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । केवलणाणावरणं १ दंसणछक्कं च मोहबारसगं अनन्तानुबन्ध्यादीत्यर्थः । ता सव्वघाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं ॥ [बन्धश० ७९] ति । अथवा देशोपघाति-सर्वोपघातिफड्डकापेक्षया देश-सर्वावरणत्वमस्य, यदाहमतिसुयणाणावरणं दसणमोहं च तदुवघाईणि । तप्फड्डगाई दुविहाई देस-सव्वोवघाईणि ॥१॥ सव्वेसु सव्वघाइसु हएसु देसोवघाइयाणं च । भागेहिं मुच्चमाणो समए समए अणंतेहिं ॥२॥ पढमं लहइ नगारं एक्वेक्कं वन्नमेवमन्नं पि । कमसो विसुज्झमाणो लहइ समत्तं नमोक्कारं ॥३॥ विशेषाव० २८९५-२८९७] इति । तथा दर्शनं सामान्यार्थबोधरूपमावृणोतीति दर्शनावरणीयम्, उक्तं च- 10 दंसणसीले जीवे दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमाणं दंसणवरणं भवे जीवे ॥ [प्रथमकर्म० १९] इति । एवं चेव त्ति देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयम्, सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति । तथा वेद्यते अनुभूयत इति वेदनीयम्, सातं सुखं तद्रूपतया वेद्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं 15 प्राकृतत्वात्, इतरद् एतद्विपरीतम्, आह च महुलित्तनिसियकरवालधार जीहाए जारिसं लिहणं । तारिसयं वेयणियं सुहदुहउप्पायगं मुणह ॥ [प्रथमकर्म० २८] इति । मोहयतीति मोहनीयम्, तथाहिजह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ। ____20 तह मोहेण वि मूढो जीवो उ परव्वसो होइ ॥ [प्रथमकर्म० ३४] इति । दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयं मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वभेदम्, चारित्रं सामायिकादि मोहयति यत् कषाय १६ नोकषाय ९ भेदं तत्तथा । एति च याति चेत्यायुः, एतद्रूपं चदुक्खं न देइ आउं न वि य सुहं देइ चउसु वि गईसु।। दुक्ख-सुहाणाहारं धरेइ देहट्ठियं जीयं ॥ [प्रथमकर्म० ६३] ति । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अद्धायुः कायस्थितिरूपम्, भावना तु प्राग्वत्, भवायुर्भवस्थितिरिति, विचित्रपर्यायैर्नामयति तन्नाम, एतत्स्वरूपं च जह चित्तयरो निउणो अणेगरूवाइं कुणइ रूवाइं । सोहणमसोहणाइं चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं । 5 तह नाम पि हु कम्मं अणेगरूवाइं कुणइ जीवस्स । सोहणमसोहणाइं इट्ठाणिट्ठाई लोयस्स ॥ [प्रथमकर्म० ६७-६८] इति । शुभं तीर्थकरादि, अशुभम् अनादेयत्वादीति । पूज्योऽयमित्यादिव्यपदेशरूपां गां वाचं त्रायत इति गोत्रम्, स्वरूपं चास्येदम् जह कुंभारो भंडाई कुणइ पुज्जेयराइं लोयस्स । 10 इय गोयं कुणइ जियं लोए पुज्जेयरावत्थं ॥ [ । इति । उच्चैर्गोत्रं पूज्यत्वनिबन्धनमितरत्तद्विपरीतम् । जीवं चार्थसाधनं चाऽन्तरा एति पततीत्यन्तरायम्, इदं चैवम्जह राया दाणाइ ण कुणइ भंडारिए विकूलम्मि । एवं जेणं जीवो कम्मं तं अंतरायं ति ॥ [ ] 15 पडुपन्नविणासिए चेव त्ति प्रत्युत्पन्नं वर्तमानलब्धं वस्त्वित्यर्थो विनाशितम् उपहतं येन तत्तथा, पाठान्तरे प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्येवंशीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि, चैव: समुच्चये, इत्येकम्, अन्यच्च पिधत्ते च निरुणद्धि च, आगामिनो लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्था आगामिपथस्तमिति, क्वचिदागामिपथानिति दृश्यते, क्वचिच्च आगमपहं ति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः । 20 [सू० ११७] दुविहा मुच्छा पन्नत्ता, तंजहा-पेजवत्तिता चेव दोसवत्तिता चेव । पेजवत्तिता मुच्छा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-माया चेव लोभे चेव ।। दोसवत्तिता मुच्छा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कोधे चेव माणे चेव । [टी०] इदं चाष्टविधं कर्म मूर्छाजन्यमिति मूर्छास्वरूपमाह- दुविहेत्यादि सूत्रत्रयं 25 कण्ठ्यम्, नवरं मूर्छा मोहः सदसद्विवेकनाशः, प्रेम रागो वृत्ति: वर्त्तनं रूपं प्रत्ययो १. स्थितिः । विचि जे१ ।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११८-११९] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । १६७ वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया वा, एवं द्वेषवृत्तिका द्वेषप्रत्यया वेति । [सू० ११८] दुविधा आराहणा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मिताराहणा चेव केवलिआराहणा चेव। धम्मियाराहणा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- सुतधम्माराहणा चेव चरित्तधम्माराहणा चेव । 5 के वलिआराहणा दुविधा पन्नत्ता, तंजहा-अंतकिरिया चेव कप्पविमाणोववत्तिया चेव । [टी०] मूर्होपात्तकर्मणश्च क्षय आराधनयेति तां सूत्रत्रयेणाह- दुविहेत्यादि सूत्रत्रयं कण्ठ्यम्, नवरम् आराधनमाराधना ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकू लवर्तित्वम् , निरतिचारज्ञानाद्यासेवेति यावत्, धर्मेण श्रुत-चारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिका: 10 साधवस्तेषामियं धार्मिकी, सा चासावाराधना च धार्मिकाराधना, केवलिनां श्रुताऽवधि-मन: पर्याय-केवलज्ञानिनामियं कैवलिकी, सा चासावाराधना चेति कै वलिकाराधने ति। सुयधम्मेत्यादौ विषयभेदे नाराधनाभेद उक्तः, केवलिआराहणेत्यादौ तु फलभेदेनेति, तत्र अन्तो भवान्तः, तस्य क्रिया अन्तक्रिया, भवच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा साऽन्तक्रियेति, उपचारात्, एषा च 15 क्षायिकज्ञानकेवलिनामेव भवति । तथा कल्पेषु देवलोकेषु, न तु ज्योतिश्चारे, विमानानि देवावासविशेषाः, अथवा कल्पाश्च सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवर्तित्रैवेयकादीनि कल्पविमानानि, तेषूपपत्तिः उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्तिका ज्ञानाद्याराधना, एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति, एवंफला चेयमनन्तरफलद्वारेणोक्ता, परम्परया तु भवान्तक्रियानुपातिन्येवेति । 20 [सू० ११९] दो तित्थगरा नीलुप्पलसामा वण्णेणं पन्नत्ता, तंजहा-मुणिसुव्वते चेव अरिट्ठनेमी चेव १॥ दो तित्थगरा पियंगुसामा वण्णेणं पन्नत्ता, तंजहा-मल्ली चेव पासे चेव । दो तित्थगरा पउमगोरा वण्णेणं पन्नत्ता, तंजहा-पउमप्पहे चेव वासुपुज्जे चेव ३॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दो तित्थगरा चंदगोरा वण्णेणं पन्नत्ता, तंजहा-चंदप्पभे चेव पुप्फदंते चेव४। _ [टी०] ज्ञानाधाराधनाऽनन्तरमुक्ता, तत्फलभूताश्च तीर्थकरास्तैर्वा सा सम्यक् कृता देशिता वेति तीर्थकरान् द्विस्थानकानुपातेनाह- दो तित्थयरेत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम्, नवरं पद्मं रक्तोत्पलम्, तद्वद् गौरौ पद्मगौरी, रक्तावित्यर्थः, तथा चन्द्रगौरौ 5 चन्द्रशुभ्रावित्यर्थः, गाथाऽत्र पउमाभ वासुपुज्जा रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । सुव्वय-नेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा । [आव०नि० ३७६] इति । [सू० १२०] सच्चप्पवायपुव्वस्स णं दुवे वत्थू पन्नत्ता । टी०] तीर्थकरस्वरूपमनन्तरमुक्तम्, तीर्थकर्तृत्वाच्च तीर्थकराः, तीर्थं च प्रवचनमतः 10 प्रवचनैकदेशस्य पूर्वविशेषस्य द्विस्थानकावतारायाह- सच्चप्पवायेत्यादि, सद्भयो जीवेभ्यो हितः सत्यः संयमः सत्यवचनं वा, स यत्र सभेदः सप्रतिपक्षश्च प्रकर्षणोद्यते अभिधीयते तत् सत्यप्रवादम्, तच्च तत् पूर्वं च सकलश्रुतात् पूर्वं क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्वम्, तच्च षष्ठम्, तत्परिमाणं च एका पदकोटी षट्पदाधिका, तस्य द्वे वस्तुनी, वस्तु च तद्विभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति । 15 [सू० १२१] पुव्वाभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते । उत्तराभद्दवयाणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । एवं पुव्वा फग्गुणी उत्तरा फग्गुणी । [टी०] अनन्तरं षष्ठपूर्वस्वरूपमुक्तमधुना पूर्वशब्दसाम्यात् पूर्वभद्रपदानक्षत्रस्वरूपमाहपुव्वेत्यादि कण्ठ्यं च। नक्षत्रप्रस्तावान्नक्षत्रान्तरस्वरूपं सूत्रत्रयेणाह- उत्तरेत्यादि कण्ठ्यम्। [सू० १२२] अंतो णं मणुस्सखेत्तस्स दो समुद्दा पन्नत्ता, तंजहा-लवणे 20 चेव कालोदे चेव । [टी०] नक्षत्रवन्तश्च द्वीपाः समुद्राश्चेति समुद्रद्विस्थानकमाह- अंतो णमित्यादि, अन्तः मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य मनुष्योत्पत्त्यादिविशिष्टाकाशखण्डस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्य, शेषं कण्ठ्यमिति । [सू० १२३] दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा 25 अहेसत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववन्ना, तंजहा-सुभूमे चेव बंभदत्ते चेव । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२४] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । [टी०] मनुष्यक्षेत्रप्रस्तावाद्भरत क्षेत्रोत्पन्नोत्तमपुरुषाणां नरकगामितया द्विस्थानकावतारमाह- दो चक्कवट्टीत्यादि, द्वौ चक्रेण रत्नभूतप्रहरणविशेषेण वर्त्तितुं शीलं ययोस्तौ चक्रवर्त्तिनौ, कामभोग त्ति कामौ च शब्द-रूपे भोगाश्च गन्धरस-स्पर्शाः कामभोगाः, अथवा काम्यन्त इति कामा मनोज्ञा इत्यर्थः, ते च ते भुज्यन्त इति भोगाश्च शब्दादय इति कामभोगा न परित्यक्तास्ते यकाभ्यां तौ तथा, कालमासे 5 त्ति कालस्य मरणस्य मासः, उपलक्षणं चैतत् पक्षा -ऽहोरात्रादेः, ततश्च कालमासे, मरणावसर इति भावः, कालं मरणं कृत्वा अधः सप्तम्यां पृथिव्याम्, तमस्तमायामित्यर्थः, अधोग्रहणं विना सप्तमी उपरिष्टाच्चिन्त्यमाना रत्नप्रभाऽपि स्यादित्यधोग्रहणम्, अप्रतिष्ठाने नरके पञ्चानां मध्यमे नैरयिकत्वेनोत्पन्नौ, सुभूमोऽष्टमो ब्रह्मदत्तश्च द्वादशः, तत्र च तयोस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिरिति । [सू० १२४] असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता १। सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता २। ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता ३ | सणकुमारे कप्पे देवाणं जहन्नेणं दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता ४। माहिंदे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगाइं दो सागरोवमाइं ठिती 15 पन्नत्ता ५ | १६९ दोसु कप्पे कप्पित्थियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- सोहम्मे चेव ईसाणे चेव १ । दोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पन्नत्ता, तंजहा- सोहम्मे चेव ईसाणे चेव २ 10 दो कप्पेसु देवा कायपरियारगा पन्नत्ता, तंजहा- सोहम्मे चेव ईसाणे चेव ३। दो कप्पेसु देवा फासपरियारगा पन्नत्ता, तंजहा - सणकुमारे चेव माहिंदे चेव ४ । दोसु कप्पे देवा रूवपरियारगा पन्नत्ता, तंजहा - बंभलोगे चेव लंतगे ५। दो कप्पे देवा सद्दपरियारगा पन्नत्ता, तंजहा - महासुक्के चेव सहस्सारे चेव ६ । दो इंदा मणपरियारगा पन्नत्ता, तंजहा - पाणते चेव अच्चुते चेव ७| 25 20 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] नारकाणां चासङ्ख्येयकालाऽपि स्थितिर्भवतीति भवनपत्यादीनामपि तां दर्शयन् पञ्चसूत्रीमाह- असुरेत्यादि, असुरेन्द्रौ चमर-बली, तद्वर्जितानां तत्सामानिकवर्जितानां च, सूत्रे इन्द्रग्रहणेन सामानिकानामपि ग्रहणाद्, अन्यथा सामानिकत्वमेव तेषां न स्यादिति, शेषाणां त्रायस्त्रिंशादीनामसुराणां तदन्येषां च 5 भवनवासिनां देवानामुत्कर्षतो द्वे पल्योपमे किञ्चिदने स्थिति: प्रज्ञप्ता, उक्तं च चमर १ बलि २ सार १ महियं २ सेसाण सुराण आउयं वोच्छं । दाहिणदिवड्डपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥ [बृहत्सं० ५] ति । उत्कर्षत एवैतत्, जघन्यतस्तु दश वर्षसहस्राणीति, आह च दस भवण-वणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं । 10 पलिओवममुक्कोसं वंतरियाणं वियाणिज्जा ॥ [बृहत्सं० ४] इति । शेषं सुगमम्, नवरं सौधर्मादिष्वियं स्थितिःदो १ साहि २ सत्त ३ साहिय ४ दस ५ चोद्दस ६ सत्तरेव ७ अयराइं। सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि एक्केकमारोवे ॥ [बृहत्सं० १२] इति । इयमुत्कृष्टा, जघन्या तु पलियं १ अहियं २ दो सार ३ साहिया ४ सत्त ५ दस य ६ चोइस य ७ । सत्तरस सहस्सारे ८ तदुवरि एक्केकमारोवे ॥ [बृहत्सं० १४] इति । देवलोकप्रस्तावात् स्त्र्यादिद्वारेण देवलोकद्विस्थानकावतारं सप्तसूत्र्याऽऽह- दोसु इत्यादि, कल्पयोः देवलोकयोः स्त्रियः कल्पस्त्रियो देव्यः, परतो न सन्ति, शेष कण्ठ्यमिति १, नवरं तेउलेस त्ति तेजोरूपा लेश्या येषां ते तेजोलेश्याः, ते च 20 सौधर्मेशानयोरेव, न परतः, तयोस्तेजोलेश्या एव, नेतरे, आह च किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवण-वंतरिया । जोइस सोहम्मीसाणे तेऊलेसा मुणेयव्वा ॥ [बृहत्सं० १९३] इति २ । १. तद्वर्जितानामन्येषां (तद्वर्जितानां तदन्येषां खं०) भवनवासिनां देवानामित्यसुरेन्द्रवर्जनाद् नागकुमारादीन्द्राणामित्यर्थः, उत्कर्षतो द्वे पल्योपमे - पा० खं० । तद्वर्जितानां तत्सामानिकवर्जितानां च, सत्रे इन्द्रग्रहणेन सामानिकानामपि ग्रहणाद, अन्यथा सामानिकत्वमेव तेषां न स्यादिति, शेषाणां त्रायस्त्रिंशादीनामसुराणां तदन्येषां भवनवासिनां देवानामिति असुरेन्द्रवर्जनाद् नागकुमारादीन्द्राणामित्यर्थः, उत्कर्षतो वे पल्योपमे जे२ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० १२५] द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । १७१ कायपरियारग त्ति परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः, कायतः परिचारकाः कायपरिचारका: ३, एवमुत्तरत्रापि, नवरं स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शा देरेवोपशान्तवेदोपतापा भवन्तीत्यभिप्रायः। आनतादिषु चतुषु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन्तीति वक्तव्ये द्विस्थानकानुरोधाद् दो इंदा इत्युक्तम्, आनतादिषु हि द्वाविन्द्राविति, गाथाऽत्र दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोन्नि दो रूवे । सद्दे दो चउर मणे उवरिं परियारणा नत्थि ॥ [बृहत्सं० १८१] त्ति । [सू० १२५] जीवा णं दुट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तंजहा-तसकायनिव्वत्तिते चेव थावरकायनिव्वत्तिते चेव १। एवं उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा उवचिणिस्संति वा २, बंधिंसु वा बंधंति वा बंधिस्संति वा ३, उदीरिंसु वा उदीरेंति वा 10 उदीरिस्संति वा ४, वेदेंसु वा वेदेति वा वेदिस्संति वा ५, णिज्जरिंसु वा णिजरिंति वा णिजरिस्संति वा ६। [टी०] इयं च परिचारणा कर्मतः, कर्म च जीवाः स्वहेतुभिः कालत्रयेऽपि चिताद्यवस्थं कुर्वन्तीत्याह- जीवा णमित्यादिसूत्राणि षट् सुगमानि च, नवरं जीवा जन्तवः, णं वाक्यालङ्कारे, द्वयोः स्थानयोः आश्रययोस्त्रस-स्थावरकायलक्षणयोः समाहारो द्विस्थानम्, 15 तत्र मिथ्यात्वादिभिर्ये निर्वर्तिताः सामान्येनोपार्जिताः वक्ष्यमाणावस्थाषट्कयोग्यीकृताः द्वयोर्वा स्थानयोः निर्वृत्तिर्येषां ते द्विस्थाननिर्वृत्तिकास्तान् पुद्गलान् कार्मणान्, पापकर्म घातिकर्म सर्वमेव वा ज्ञानावरणादि, तद्भावस्तत्ता, तया पापकर्मतया, तद्रूपतयेत्यर्थः, चितवन्तो वा अतीतकाले, चिन्वन्ति वा सम्प्रति, चेष्यन्ति वा अनागतकाले केचिदिति गम्यते, चयनं च कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं तु 20 चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः, स चैवम्- प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनमेवं जावुक्कोसियाए विसेसहीणं णिसिंचइ [ ] त्ति, बन्धनं तु तस्यैव ज्ञानावरणादितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणं त्वनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये क्षेपणमिति, वेदनम् अनुभवः, निर्जरा कर्मणोऽकर्मताभवनमिति । १. योग्यकृता: खं० ॥ 25 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० १२६] दुपएसिता खंधा अणंता पण्णत्ता । दुपदेसोगाढा पोग्गला अनंता पन्नत्ता । एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । दु 10 १७२ सम्मत्तं । [टी०] कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलान् द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावैर्द्विस्थानकावतारेण 5 निरूपयन्नाह - दुपएसीत्यादिसूत्राणि त्रयोविंशतिः, सुगमा चेयम्, नवरम् एवं यावत्करणात् दुसमयट्ठिइएत्यादिसूत्राण्येकविंशतिर्वाच्यानि, कालं पञ्च-द्वि-पञ्चाऽष्टभेदान् वर्ण-गन्ध-रस- - स्पर्शांश्चाश्रित्येति, वाचना चैवं 'दुसमयद्वितिया पोग्गले 'त्यादि । ॥ द्विस्थानकस्य चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः || तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे द्वितीयमध्ययनं द्विस्थानकाभिधानं समाप्तमिति ॥ श्लोकाः १६७५ * * १. बिट्ठाणस्स चउत्थो उद्देसगो सम्मत्तो । तस्स समत्तीए बिट्ठाणं च समत्तं क० ॥। २. एवं जे१ मध्ये नास्ति ॥ ३. तत्समाप्तौ च जे१ मध्ये नास्ति || Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ [सू० १२७] अथ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । [सू० १२७] तओ इंदा पण्णत्ता, तंजहा-णामिंदे, ठवणिंदे, दव्विंदे । तओ इंदा पन्नत्ता, तंजहा-णाणिंदे, दंसणिंदे, चरित्तिदे । तओ इंदा पन्नत्ता, तंजहा-देविंदे, असुरिंदे, मणुस्सिंदे। 5 [टी०] द्विस्थानकानन्तरं त्रिस्थानकमेव भवति सङ्ख्याक्रमप्रामाण्यादित्यनेन सम्बन्धेनायातस्य चतुरनुयोगद्वारस्य चतुरुद्देशकस्यास्य तत्रापि द्वितीयाध्ययनान्त्योद्देशके जीवादिपर्याया उक्ता अस्याप्यध्ययनस्य प्रथमोद्देशके त एवाभिधीयन्त इत्येवम्सम्बन्धस्यैतत्प्रथमोद्देशकस्य तत्राप्यनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे पुद्गलधर्मा उक्ता एतत्प्रथमसूत्रे तु जीवधर्मा उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यैतदादिसूत्रस्य तओ इंदेत्यादेर्व्याख्या, सा च 10 सुकरैव, नवरमिन्दनाद् ऐश्वर्याद् इन्द्रः, नाम संज्ञा, तदेव यथार्थमिन्द्रत्यक्षरात्मकमिन्द्रो नामेन्द्रः, अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थं नाम क्रियते स नामनामवतोरभेदोपचारान्नाम चासाविन्द्रश्चेति नामेन्द्रः, अथवा नाम्नैवेन्द्र इन्द्रार्थशून्यत्वान्नामेन्द्र इति, नामलक्षणं पुनरिदम्यद्वस्तुनोऽभिधानं १ स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयञ्च २ नाम यादृच्छिकं च ३ तथा ॥ [ ] इति । अयमर्थः-यद्वस्त्वित्यादिना यथार्थमिन्द्र इत्याधुक्तम् १, स्थितमित्यादिना त्वयथार्थ गोपालादाविन्द्रेत्यादि २, यादृच्छिकमनर्थकं डित्थादीति ३ । अथवा यदिन्दनाद्यर्थनिरपेक्ष गोपालादिवस्तुन इन्द्र इत्यादिकमभिधानं यथार्थतया शक्रादावन्यत्रार्थे स्थितं तन्नामेति, इन्द्रादिवस्तुनो वा अभिधानमिन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं सद् गोपालादावन्यत्रार्थे स्थितं नामेति। 20 तथा इन्द्राद्यभिप्रायेण स्थाप्यत इति स्थापना लेप्यादिकर्म, सैवेन्द्रः स्थापनेन्द्रः, इन्द्रप्रतिमा साकारस्थापनेन्द्रः, अक्षादिन्यासस्त्वितर इति । स्थापनालक्षणमिदम् यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ [ । इति । 15 १-२. संबद्धस्यै जे१ खं० ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा- लेप्पगहत्थी हत्थि त्ति एस सब्भाविया भवे ठवणा । ___ होइ असब्भावे पुण हत्थि त्ति निरागिई अक्खो ॥ [आव०नि० १४४७] त्ति । तथा द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान, द्रयते वा तैस्तैः पर्यायैः, द्रोर्वा सत्ताया अवयवो विकारो वा, वर्णादिगुणानां वा द्रावः समूह इति द्रव्यम्, तच्च भूतभावं 5 भाविभावं चेति, आह च दवए १ दुयए २ दोरवयवो विगारो ३ गुणाण संद्रावो ४ । दव्वं भव्वं भावस्स भूयभावं च जं जोगं ॥ [विशेषाव० २८] ति । तथा- भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं गदितम् ॥ [ ] 10 तथा अनुपयोगो द्रव्यमप्रधानं चेति, तत्र द्रव्यं चासाविन्द्रश्चेति द्रव्येन्द्रः, सच द्विधा आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतः खल्वागममधिकृत्य, ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः, नोआगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य, तत्रागमत इन्द्रशब्दाध्येताऽनुपयुक्तो द्रव्येन्द्रः अनुपयोगो द्रव्यम् [अनुयोग०सू०१४] इति वचनात्, अयमेवार्थो मङ्गलमाश्रित्य भाष्य उक्तः, तथाहि आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । 15 तन्नाणलद्धिजुत्तो वि णोवउत्तो त्ति तो दव्वं ॥ [विशेषाव० २९] ति । तथा नोआगमतस्त्रिविधो द्रव्येन्द्रः, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्रव्येन्द्रो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रश्चेति, तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरम्, ज्ञशरीरमेव द्रव्येन्द्रः ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रः, एतदुक्तं भवति- इन्द्रपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकालानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्धशिलातलादिगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआगमतो 20 द्रव्येन्द्र इति, इन्द्रज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः, तथा भव्यो योग्य इन्द्रशब्दार्थं ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति, तस्य शरीरं भव्यशरीरम्, तदेव द्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्रव्येन्द्रः, अयमत्र भावार्थः- भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य इन्द्रोपयोगाधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तद् बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्येन्द्र इति, नोशब्दः पूर्ववत्, उक्तं च मङ्गलमधिकृत्य मंगलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवो वि । णोआगमओ दव्वं आगमरहिओ त्ति जं भणितं ॥ [विशेषाव० ४४] ति । १. सजीवो त्ति पासं० ॥ 25 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ [सू० १२७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकार्येष्वव्यापृतः, आगमतोऽनुपयुक्तद्रव्येन्द्रवत्, तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वाऽतीतभावेन्द्रपरिणामं तच्चोभयातिरिक्तद्रव्येन्द्रः, ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रवत् । तथा यो भावीन्द्रपर्यायशरीरयोग्यः पुद्गलराशिर्यच्च भावीन्द्रपर्यायमात्मद्रव्यं तदप्युभयातिरिक्तो द्रव्येन्द्रः, भव्यशरीरद्रव्येन्द्रवत्, स चावस्थाभेदेन त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनाम-गोत्रश्चेति, तत्र 5 एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भवे इन्द्रतयोत्पत्स्यत इति, स चोत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि भवति, देवकु र्वा दिमिथुनक स्य भवनपत्यादीन्द्रतयोत्पत्तिसम्भवादिति, तथा स एवेन्द्रायुर्बन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति बद्धायुरुच्यते, स चोत्कर्षतः पूर्वकोटीत्रिभागं यावद्, अस्मात् परतः आयुष्कबन्धाभावात्, तथा अभिमुखे संमुखे जघन्योत्कर्षाभ्यां समयान्तर्मुहूर्त्तानन्तरभावितया नाम-गोत्रे 10 इन्द्रसम्बन्धिनी यस्य स तथा, तथा भावैश्वर्ययुक्ततीर्थकरादिभावेन्द्रापेक्षया अप्रधानत्वाच्छक्रादिरपि द्रव्येन्द्र एव, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थेऽपि प्रवृत्तेरिति, भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थानकानुरोधान्नोक्तः, तल्लक्षणं चेदम् भावम् इन्दनक्रियानुभवलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्र इन्दनपरिणामेन वा भवतीति भावः, स चासाविन्द्रश्चेति भावेन्द्रः, यदाह भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥ [ ] स च द्विधा आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमत इन्द्रज्ञानोपयुक्तो जीवो भावेन्द्रः। कथमिहेन्द्रोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यते ?, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव, दहन-पचन-प्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभावादिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानमवगमो भाव इत्यनर्थान्तरम्, तत्र अर्था-ऽभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामधेया 20 इति सर्ववादिनामविसंवादस्थानम्, यथा- कोऽयम् ?, घटः, किमयमाह ?, घटशब्दम्, किमस्य ज्ञानम् ?, घट इति । अग्निरिति च यत् ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभ्येत, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषान्तरवद्वा, न चानाकारं तत्, पदार्थान्तरवद्विवक्षितपदार्थापरिच्छेदप्रसङ्गात्, बन्धाद्यभावश्च ज्ञानाज्ञान-सुखदुःखपरिणामान्यत्वाद्, आकाशवत्, न चानलः सर्व एव 25 15 १. भवंति जे१ खं० ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकः, भस्मच्छन्नाग्निना व्यभिचारादिति कृतं प्रसङ्गेन । नोआगमतो भावेन्द्र इन्द्रनाम-गोत्रे कर्मणी वेदयन् परमैश्वर्यभाजनम्, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य, यतस्तत्र नेन्द्रपदार्थज्ञानमिन्द्रव्यपदेशनिबन्धनतया विवक्षितम्, इन्दनक्रियाया एव विवक्षितत्वात्, अथवा तथाविधज्ञान-क्रियारूपो यः परिणामः स नागम एव केवलो 5 न चानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वात् नोशब्दस्य नोआगम इत्याख्यायत इति ।। ननु नाम-स्थापना-द्रव्येष्विन्द्राभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वाद् द्रव्यत्वं च समानं वर्त्तते, ततश्च क एषां विशेषः ?, आह च अभिहाणं दव्वत्तं तदत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाइं। को भाववज्जियाणं नामाईणं पइविसेसो ? ॥ [विशेषाव० ५२] इति । 10 अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारो लक्ष्यते तथा कर्तुः सद्भतेन्द्राभिप्रायो भवति तथा द्रष्टुस्तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययस्तथा प्रणतिकृतधियश्च फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्त्तन्ते फलं च प्राप्नुवन्ति केचिद्देवतानुग्रहात्, न तथा नाम-द्रव्येन्द्रयोरिति, तस्मात् स्थापनायास्तावदित्थं भेद इति, आह च आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरियाफलं च पाएणं । 15 जह दीसइ ठवणिंदे न तहा नामे न दविंदे ॥ [विशेषाव० ५३] इति । यथा च द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकारणतां प्रतिपद्यते तथोपयोगापेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयत्यवाप्तवांश्च न तथा नाम-स्थापनेन्द्रावित्ययं विशेष इति, आह च भावस्स कारणं जह दव्वं भावो य तस्स पज्जाओ । उवओगपरिणतिमओ न तहा नामं न वा ठवणा ॥ [विशेषाव० ५४] इति । 20 उक्ता नाम-स्थापना-द्रव्येन्द्राः, इदानीं भावेन्द्रं त्रिस्थानकावतारेणाह- तओ इंदेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः परमेश्वरो ज्ञानेन्द्रः अतिशयवच्छूताद्यन्यतरज्ञानवशविवेचितवस्तुविस्तर: केवली वा, एवं दर्शनेन्द्रः क्षायिकसम्यग्दर्शनी, चरित्रेन्द्रो यथाख्यातचारित्रः, एतेषां च भावेन सकलभावप्रधानक्षायिकलक्षणेन विवक्षितक्षायोपशमिकलक्षणेन वा भावतः परमार्थतो 25 वेन्द्रत्वात् सकलसंसार्यप्राप्तपूर्वगुणलक्ष्मीलक्षणपरमैश्वर्ययुक्तत्वाद् भावेन्द्रताऽवसेयेति । १. नोआगमत इत्या' जे१ विना ॥ २. "विसरः जे१, २ । विशरः पा० ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । [सू० १२८] उक्तमाध्यात्मिकैश्वर्यापेक्षया भावेन्द्रत्रैविध्यमथ बाह्यैश्वर्यापेक्षया तदेवाह - तओ इंदेत्यादि भावितार्थम्, नवरं देवा वैमानिका ज्योतिष्क - वैमानिका वा रूढेः, असुराः भवनपतिविशेषा भवनपति - व्यन्तरा वा सुरपर्युदासात्, मनुजेन्द्रः चक्रवर्त्त्यादिरिति । [सू० १२८] तिविहा विकुव्वणा पन्नत्ता, तंजहा - बाहिरते पोग्गलए परियातित्ता एगा विकुव्वणा, बाहिरते पोग्गले अपरियादित्ता एगा विकुव्वणा, बाहिरए 5 पोग्गले परियादित्ता वि अपरियादित्ता वि एगा विकुव्वणा । १७७ तिविहा विकुव्वणा पन्नत्ता, तंजहा - अब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुव्वणा, अब्भंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विकुव्वणा, अब्भंतरए पोग्गले परियातित्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा विकुव्वणा । तिविहा विकुव्वणा पन्नत्ता, तंजहा - बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा 10 विकुव्वणा, बाहिरब्भंतरए पोग्गले अपरियादित्ता एगा विकुव्वणा, बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा विकुव्वणा । [0] त्रयाणामप्येषां वैक्रियकरणादिशक्तियुक्ततयेन्द्रत्वमिति विकुर्वणानिरूपणायाहतिविहेत्यादिसूत्रत्रयी कण्ठ्या । नवरं बाह्यान् पुद्गलान् भवधारणीयशरीरानवगाढक्षेत्रप्रदेशवर्त्तिनो वैक्रियसमुद्घातेन पर्यादाय गृहीत्वैका विकुर्वणा 'क्रियते' 15 इति शेषः, तानपर्यादाय या तु भवधारणीयरूपैव साऽन्या, यत् पुनर्भवधारणीयस्यैव किञ्चिद्विशेषापादनं सा पर्यादायापि अपर्यादायापि इति तृतीया व्यपदिश्यते, अथवा विकुर्वणा भूषाकरणम्, तत्र बाह्यपुद्गलानादायाभरणादीन् अपर्यादाय केशनखसमारचनादिना उभयतस्तूभयथेति, अथवाऽपर्यादायेति कृकलास-सर्पादीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षणेति । एवं द्वितीयसूत्रमपि, नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीयेनौदारिकेण 20 वा शरीरेण ये क्षेत्र प्रदेशा अवगाढास्तेष्वेव ये वर्त्तन्ते तेऽवसेयाः, विभूषापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला इति । तृतीयं तु बाह्याभ्यन्तरपुद्गलयोगेन वाच्यम्, तथाहिउभयेषामुपादानाद् भवधारणीयनिष्पादनं तदनन्तरं तस्यैव केशादिरचनं च, अनादानाच्चिरविकुर्वितस्यैव मुखादिविकारकरणम्, उभयतस्तु बाह्याभ्यन्तराणामनभिमतानामादानतोऽन्येषां चानादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीयेतररचनमिति । 25 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० १२९] तिविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-कतिसंचिता, अकतिसंचिता, अवत्तव्वगसंचिता । एवमेगिंदियवजा जाव वेमाणिया । [टी०] अनन्तरं विकुर्वणोक्ता, सा च नारकाणामप्यस्तीति नारकान्निरूपयन्नाहतिविहेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं कतीत्यनेन सङ्ख्यावाचिना द्यादयः सङ्ख्या5 वन्तोऽभिधीयन्ते, अयं चान्यत्र प्रश्नविशिष्टसङ्ख्यावाचकतया रूढोऽपीह सङ्ख्यामात्रे द्रष्टव्यः, तत्र नारकाः कति कति सङ्ख्याताः सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिता: कत्युत्पत्तिसाधाद् बुद्ध्या राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः, तथा न कति न सङ्ख्याता इत्यकति असङ्ख्या अनन्ता वा, तत्र ये अकति अकति असङ्ख्याताः असङ्ख्याता एकै कसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते 10 अकतिसञ्चिताः, तथा य: परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः, स चैक इति तत्सञ्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः, समये समये एकतयोत्पन्ना इत्यर्थः, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽसङ्ख्येयान्ताः, उक्तं च एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा व एगसमएणं । 15 उववज्जंतेवइया उव्वटुंता वि एमेव ॥ [बृहत्सं० १५६] त्ति । एतद्देवपरिमाणम्, एतदेव नारकाणामपि, यत उक्तम्- संखा पुण सुरवरतुल्ल [बृहत्सं० २८२] त्ति, कतिसञ्चितादिकमर्थमसुरादीनां दण्डकोक्तानामतिदिशन्नाह- एवमित्यादि, एवमिति नारकवच्छेषाश्चतुर्विंशतिदण्डकोक्ता वाच्या एकेन्द्रियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः सङ्ख्याता 20 वा इति, आह च अणुसमयमसंखेज्जा संखेज्जाऊय तिरिय मणुया य । एगिदिएसु गच्छे आरा ईसाणदेवा य ॥ [बृहत्सं० ३३५] एगो असंखभागो वट्टइ उव्वदृणोववायम्मि । एगनिगोए निच्चं एवं सेसेसु वि स एव ॥ [बृहत्सं० ३३५ प्रक्षेप०] त्ति । 25 [सू० १३०] तिविहा परियारणा पन्नत्ता, तंजहा-एगे देवे अन्ने देवे अन्नेसिं १. संख्याता: एकैक: पा० । संख्याता एकैकः जे२ ।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ [सू० १३० -१३१] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः।। देवाणं देवीओ अभिमुंजिय २ परियारेति, अप्पणिजियाओ देवीओ अभिमुंजिय २ परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विकुव्विय २ परियारेति । एगे देवे णो अन्ने देवे णो अन्नेसिं देवाणं देवीओ अभिमुंजिय २ परियारेति, अप्पणिजियाओ देवीओ अभिमुंजिय २ परियारेइ, अप्पाणमेव अप्पणा विकुब्विय २ परियारेति। एगे देवे णो अन्ने देवे णो अन्नेसिं देवाणं देवीओ णो अप्पणिजियाओ 5 देवीओ अभिजुंजिय २ परितारेति], अप्पाणमेव अप्पणा विकुव्विय २ परियारेति । [टी०] अनन्तरसूत्रे कतिसंचितादिको धर्मो वैमानिकानां देवानामुक्तः, अधुना देवानां सामान्येन परिचारणाधर्मनिरूपणायाह- तिविहा परीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं परिचारणा देवमैथुनसेवेति, एकः कश्चिद्देवो न सर्वोऽप्येवमिति, किम् ? अण्णे देवे त्ति अन्यान् 10 देवान् अल्पर्धिकान् तथाऽन्येषां देवानां सत्का देवीश्चाभियुज्याभियुज्य आश्लिष्याश्लिष्य वशीकृत्य वा परिचारयति परिभुङ्क्ते वेदबाधोपशमायेति । न च न सम्भवति देवस्य देवसेवा पुंस्त्वेनेत्याशङ्कनीयम्, मनुष्येष्वपि तथा श्रवणात्, न चात्रार्थे नरा-ऽमरयोः प्रायो विशेषोऽस्तीति, एक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्वसामान्यादत एव द्वयोरपि पदयोरेकः क्रियाभिसम्बन्ध इति । एवमात्मीया 15 देवी: परिचारयतीति द्वितीयः । तथाऽऽत्मानमेव परिचारयति, कथम् ? आत्मना विकृत्य परिचारणायोग्य विधायेति तृतीयः । एवं प्रकारत्रयरूपाऽप्येकेयं परिचारणा, प्रभविष्णूत्कटकामैकपरिचारकवशादिति । अथाऽन्यो देव आद्यप्रकारपरिहारेणाऽन्त्यप्रकारद्वयेन परिचारयतीति द्वितीयेयमप्रभविष्णूचितकामपरिचारकदेवविशेषात् । तथाऽन्यो देव आद्यप्रकारद्वयवर्जनेनान्त्यप्रकारेण परिचारयतीति तृतीयाऽनुत्कट- 20 कामाल्पर्धिकदेवविशेषस्वामिकत्वादिति । [सू० १३१] तिविहे मेहुणे पन्नत्ते, तंजहा-दिव्वे, माणुस्सते, तिरिक्खजोणीते। तओ मेहुणं गच्छंति, तंजहा-देवा, मणुस्सा, तिरिक्खजोणिता । तओ मेहुणं सेवंति, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा । १. किंचि । अन्ने देवे जे१ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे टी०] परिचारणेति मैथुनविशेष उक्तः, अधुना तदेव मैथुनं सामान्यतः प्ररूपयन्नाहतिविहे मेहुणे इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं मिथुनं स्त्रीपुंसयुग्मम्, तत्कर्म मैथुनम्, नारकाणां तन्न सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थं नास्त्येवेति नोक्तम् । मिथुनकर्मण एव कारकानाहतओ इत्यादि कण्ठ्यम् । तेषामेव भेदानाह- तओ मेहुणमित्यादि कण्ठ्यम्,नवरं 5 स्त्र्यादिलक्षणमिदमाचक्षते विचक्षणाः योनि १ मुंदुत्व २ मस्थैर्य ३ मुग्धता ४ क्लीबता ५ स्तनौ ६ । पुंस्कामितेति ७ लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ मेहनं १ खरता २ दाढय ३ शौण्डीर्यं ४ श्मश्रु ५ धृष्टता ६ । स्त्रीकामितेति ७ लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥ 10 स्तनादि-श्मश्रु-केशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ [ ] तथाऽन्यत्राप्युक्तम्स्तन-केशवती स्त्री स्याद्, रोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच्च, तदभावे नपुंसकम् ॥ [ ] इत्यादि । ___ 15 [सू० १३२] तिविहे जोगे पन्नत्ते, तंजहा-मणजोगे, वतिजोगे, कायजोगे। एवं णेरझ्याईणं विगलिंदियवजाणं जाव वेमाणियाणं । तिविहे पओगे पन्नत्ते, तंजहा-मणपओगे, वतिपओगे, कायपओगे। जहा जोगो विगलिंदियवज्जाणं तधा पओगो वि । तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा-मणकरणे, वतिकरणे, कायकरणे । एवं 20 विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । तिविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा-आरंभकरणे, संरंभकरणे, समारंभकरणे । निरंतरं जाव वेमाणियाणं । [टी०] एते च योगवन्तो भवन्तीति योगप्ररूपणायाह- तिविहे जोए इत्यादि, इह वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य 25 योगः, आह च जोगो वीरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स हवंति पज्जाया ॥ [पञ्चसं० ३९६] इति । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___10 [सू० १३२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । १८१ ___ स च द्विधा सकरणोऽकरणश्च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोर्जेय-दृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैव त्रिस्थानकावतारित्वाद्, अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या। युज्यते जीवः कर्मभिर्येन कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ [उपदेशपद० ४७१] त्ति वचनात् युङ्क्ते वा प्रयुङ्क्ते यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षय-क्षयोपशमजनितो 5 जीवपरिणामविशेष इति, आह च मणसा वयसा काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ । तेओजोगेण जहा रत्तत्ताई घडस्स परिणामो । जीवकरणप्पओगे विरियमवि तहप्पपरिणामो ॥ [ ] त्ति । मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति, स च चतुर्विधः सत्यमनोयोगो मृषामनोयोगः सत्यमृषामनोयोगो असत्यमृषामनोयोगश्चेति, मनसो वा योगः करण-कारणा-ऽनुमतिरूपो व्यापारो मनोयोगः, एवं वाग्योगोऽपि, एवं काययोगोऽपि, नवरं स सप्तविधः औदारिकौ १ दारिकमिश्र २ वैक्रिय ३ वैक्रियमिश्रा ४ ऽऽहारका ५ ऽऽहारकमिश्र ६ कार्मणकाययोग ७ भेदादिति, 15 तत्रौदारिकादयः शुद्धाः सुबोधाः, औदारिकमिश्रस्तु औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्रं दधि न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत्त्वाभ्यामपरिपूर्णत्वात्, एवमौदारिकं मिश्रं कार्मणेन नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यम् अपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रिया-ऽऽहारकमिश्रावपीति शतकटीकालेशः, प्रज्ञापनाव्याख्यानांशस्त्वेवम्- औदारिकाद्याः शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य 20 मिश्रास्त्वपर्याप्तकस्येति, तत्रोत्पत्तावौदारिककायः कार्मणेन, औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियाऽऽहारककरणकाले वैक्रिया-ऽऽहारकाभ्यां मिश्रो भवति इत्येवमौदारिकमिश्रः, तथा वैक्रियमिश्रो देवाद्युत्पत्तौ कार्मणेन, कृतवैक्रियस्य चौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकेण, आहारकमिश्रस्तु साधिताहारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति, कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घाते वेति, सर्व एवायं योगः पञ्चदशधेति, सङ्ग्रहोऽस्य- 25 १. “कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ बंधट्ठिति कसायवसा। सुहजोयम्मी अकसायभावओऽवेइ तं खिप्पं ।।४७१॥” इति संपूर्णा गाथा । २. तत्ताभ्या पा० जे२ ॥ ३. परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सच्चं १ मोसं २ मीसं ३ असच्चमोसं ४ मणो वती चेवं ८ । काओ उराल १ विक्किय २ आहारग ३ मीस ६ कम्मइगो ७ ॥ [ 20 १८२ ] त्ति । सामान्येन योगं प्ररूप्य विशेषतो नारकादिषु चतुर्विंशतौ पदेषु तमतिदिशन्नाहएवमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरमतिप्रसङ्गपरिहारायेदमुक्तं विगलिंदियवज्जाणं ति, तत्र 5 विकलेन्द्रियाः अपञ्चेन्द्रियाः, तेषां ह्येकेन्द्रियाणां काययोग एव, द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियाणां तु काययोग-वाग्योगाविति । मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमाह - तिविहे पओगे इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं मनः प्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीवेन हेतुकर्तृभूतेन यद् व्यापारणं प्रयोजनं प्रयोगः, मनसः प्रयोगो मनः प्रयोगः, एवमितरावपि, जहेत्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववद्भावनीयमिति । 10 मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमपरमाह-तिविहे करणे इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं क्रियते येन तत् करणं मनआदिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा-तथापरिणामवत्पुद्गलसङ्घात इति भावः, तत्र मन एव करणं मनःकरणम्, एवम् इतरे अपि, एवमित्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववदेव भावनीयमिति, अथवा योग- प्रयोग-करणशब्दानां मनः प्रभृतिकमभिधेयतया योग-प्रयोग-करणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया 15 आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथाहि-- योगः पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्यातः, प्रज्ञापनायां त्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहि --- कतिविहे णं भंते ! पओगे पन्नत्ते, गोतमा ! पन्नरसविहे [ प्रज्ञापना० १५ । १०६८ ] इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्तः, तथाहि जुंजणकरणं तिविहं मणवतिकाए य मणसि सच्चाई | सट्टाणे तेसि भेओ चउ चउहा सत्तहा चेव ॥ [ आव०नि० १०३८ ] त्ति । प्रकारान्तरेण करणत्रैविध्यमाह - तिविहे इत्यादि, आरम्भणमारम्भः पृथिव्याद्युपमर्द्दनम्, तस्य कृतिः करणं स एव वा करणमित्यारम्भकरणम्, एवमितरे अपि वाच्ये, नवरमयं विशेष: संरम्भकरणं पृथिव्यादिविषयमेव मनःसङ्क्लेशकरणम्, समारम्भकरणं तेषामेव सन्तापकरणमिति, आह च Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ [सू० १३३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ॥ [व्यवहारभा० ४६] ति ।। इदमारम्भादिकरणत्रयं नारकादीनां वैमानिकान्तानां भवतीत्यतिदिशन्नाहनिरन्तरमित्यादि । सुगमम्, केवलं संरम्भकरणमसंज्ञिनां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तिमात्रतया भावनीयमिति । [सू० १३३] तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहापाणे अतिवातित्ता भवति, मुसं वतित्ता भवति, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवति, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति । तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा-णो पाणे 10 अतिवातित्ता भवति, णो मुसं वतित्ता भवति, तधारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवति, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति । तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजधा-पाणे अतिवातित्ता भवति, मुसं वतित्ता भवति, तहारूवं समणं वा माहणं वा 15 हीलित्ता जिंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमाणित्ता अन्नयरेणं अमणुण्णेणं अपीतिकारतेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभित्ता भवति, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति । तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा-णो पाणे अतिवातित्ता भवति, णो मुसं वदित्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं 20 वा वंदित्ता नमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं मंगलं देवतं चेतितं पज्जुवासेत्ता मणुण्णेणं पीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवति, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति । [टी०] आरम्भादिकरणस्य क्रियान्तरस्य च फलमुपदर्शयन्नाह– तिहिं ठाणेहीत्यादि, १. उवद्द जे१ ॥ २. फासुतेसणिजेणं क० भां० विना ॥ ३. अवमंनित्ता अमणुण्णेणं भा० ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे त्रिभिः स्थानैः कारणैः जीवा: प्राणिनः अप्पाउयत्ताए त्ति अल्पं स्तोकमायुः जीवितं यस्य सोऽल्पायुस्तद्रावस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्टायै, तदर्थं तन्निबन्धनमित्यर्थः, कर्म आयुष्कादि, अथवा अल्पमायुः जीवितं यत आयुषस्तदल्पायुः, तद्भावस्तत्ता, तया कर्म आयुर्लक्षणं प्रकुर्वन्ति बध्नन्तीत्यर्थः, तद्यथा- प्राणान् प्राणिनोऽतिपातयितेति 5 शीलार्थतन्नन्तमिति कर्मणि द्वितीयेति, प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थः, एवंभूतो यो भवति, एवं मृषावादं वक्ता यश्च भवति, तथा तत्प्रकारं रूपं स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूप: दानोचित इत्यर्थः, तम्, श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः तपोयुक्तस्तम्, मा हन इत्याचष्टे यः परं प्रति स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो मूलगुणधरस्तम्, वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयार्थी, प्रगता असवः असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तत् प्रासुकम्, 10 तनिषेधादप्रासुकं सचेतनमित्यर्थः, तेन, एष्यते गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभिर्यत्तदेषणीयं कल्प्यं तन्निषेधादनेषणीयम्, तेन, अश्यते भुज्यते इत्यशनं च ओदनादि, पीयत इति पानं च सौवीरकादि, खादनं खादस्तेन निर्वृत्तं खादनार्थं तस्य निर्वर्त्यमानत्वादिति खादिमं च भक्तौषधादि, स्वादनं स्वादः तेन निर्वृत्तं स्वादिमं दन्तपवनादीति समाहारद्वन्द्वः, तेन, गाथाश्चात्र15 असणं ओदण-सत्तुग-मुग्ग-जगाराइ खज्जगविही य । खीराइ सूरणादी मंडगपभिती य विन्नेयं ॥ पाणं सोवीरजवोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउक्काओ सव्वो कक्कडगजलाइयं च तहा ॥ भत्तोसं दंताई खज्जूरं नालिकेर-दक्खाई। कक्कडिगंबग-फणसादि बहुविहं खाइमं नेयं ।। दंतवणं तंबोलं चित्तं अज्जग-कुहेडगादीयं । महुपिप्पलिसुंठादी अणेगहा सादिमं होइ ॥ [पञ्चाशक० ५।२७-३०] त्ति । प्रतिलम्भयिता लाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो यश्च भवति, ते अल्पायुष्कतया कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः, इच्चेएहिं ति इत्येतैः प्राणातिपातादिभिरुक्तप्रकारैस्त्रिभिः स्थानैः 25 जीवा अल्पायुष्टया कर्म कुर्वन्तीति निगमनमिति । इह च प्राणातिपातयित्रादि पुरुषनिर्देशेऽपि प्राणातिपातादीनामेवाल्पायुर्बन्धनिबन्धनत्वेन तत्कारणत्वमुक्त द्रष्टव्यमिति। १. “आ क्वेस्तच्छील-तद्धर्म-तत्साधुकारिषु । तृन् ।"-पा० ३।२।१३४-१३५ । “न निष्ठा-ऽव्यय-खलर्थ तृनाम् ।”-पा० २।३।६९ 20 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ [सू० १३३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । इयं चास्य सूत्रस्य भावना- अध्यवसायविशेषेणैतत्त्रयं यथोक्तफलं भवतीति, अथवा यो हि जीवो जिनादिगुणपक्षपातितया तत्पूजाद्यर्थं पृथिव्याद्यारम्भेण न्यासापहारादिना च प्राणातिपातादिषु वर्त्तते तस्य सरागसंयम-निरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा समवसेया । ___ अथ नैतदेवम्, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य, अल्पायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि 5 प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद्, अतः कथमभिधीयते सविशेषणप्राणातिपातादिवर्ती जीव आपेक्षिकी चाल्पायुष्कतेति ?, उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेर्विशेषणमवश्यं वाच्यम्, यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एव अशुभदीर्घायुष्टां वक्ष्यति, न हि समानहेतोः कार्यवैषम्यं युज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्, तथा समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं 10 असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा !, बहुतरिया निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ [भगवती० ८।६।२] त्ति भगवतीवचनश्रवणादवसीयते नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्टा, न हि स्वल्पपाप-बहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्तता सम्भाव्यते, जिनपूजनाद्यनुष्ठानस्यापि तथाप्रसङ्गात्, अथाप्रासुकदानस्य भवतूक्ताऽल्पायुष्टा, प्राणातिपात-मृषावादयोस्तु क्षुल्लकभवग्रहणमेव 15 फलमिति, नैतदेवम्, एकयोगप्रवृत्तत्वाद् अविरुद्धत्वाच्चेति । अथ मिथ्यादृष्टिश्रमणब्राह्मणानां यदप्रासुकदानं ततो निरुपचरितैवाल्पायुष्टा युज्यते, इतराभ्यां तु को विचार इति ?, नैवम्, अप्रासुकेनेति तत्र विशेषणस्यानर्थकत्वात्, प्रासुकदानस्यापि अल्पायुष्कफलत्वाविरोधाद्, उक्तं च भगवत्याम्- समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं असंजतअविरयअपडिहयअपच्चक्खायपावकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा 20 अणेसणिज्जेण वा असणं ४ पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा !, एतसो पावे कम्मे कज्जइ, नो से काइ निज्जरा कज्जइ [भगवती० ८।६।३] त्ति, यच्च पापकर्मण एव कारणं तदल्पायुष्टाया अपि कारणमिति । नन्वेवं प्राणातिपात-मृषावादावप्रासुकदानं च कर्त्तव्यमापन्नमिति ?, उच्यते, आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया, को दोषः ?, यतः अधिकारिवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ॥ [हारि० अष्टक० २।५] 25 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा च गृहिणं प्रति जिनभवनकारणफलमुक्तम्एतदिह भावयज्ञः सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयाव्युच्छित्त्या नियमादपवर्गबीजमिति ॥ [षोडशक० ६।१४] तथा भण्णइ जिणपूयाए कायवहो जइ वि होइ उ कहिंचि । 5 तह वि तई परिसुद्धा गिहीण कूवाहरणजोगा ॥ असदारंभपवत्ता जं च गिही तेण तेसिं विन्नेया । तन्निव्वित्तिफलच्चिय एसा परिभावणीयमिदं ॥ [पञ्चाशक० ४।४२-४३] ति । दानाधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः श्रमणोपासकाः संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्चेति, यथोक्तम्10 संविग्गभावियाणं लोद्धयदिटुंतभावियाणं च । मोत्तूण खेत्तकाले भावं च कहिंति सुद्धञ्छं ॥ [निशीथभा० १६४९] ति । तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथाकथञ्चिद्ददति, संविग्नभावितास्त्वौचित्येनेति, तच्चेदम् संथरणम्मि असुद्धं दोण्ह वि गेण्हन्त-देंतयाणऽहियं । ___ 15 आउरदिटुंतेणं तं चेव हितं असंथरणे ॥ [निशीथभा० १६५०] इति । तथा णायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्न-पाणाईणं दव्वाणं देस-काल-सद्धा-सक्कार-कमजुयं [आव० सू० ६] इत्यादि । क्वचित् पाणे अतिवायित्ता मुसं वयित्तेत्येवं भवतिशब्दवर्जा वाचना, तत्रापि स एवार्थः, क्त्वाप्रत्ययान्तता वा व्याख्येया, प्राणानतिपात्य मृषोक्त्वा श्रमणं प्रतिलम्भ्य 20 अल्पायुष्टया कर्म बध्नन्तीति प्रक्रमः, शेषं तथैव, अथवा प्रतिलम्भनस्थानकस्यैवेतरे विशेषणे, तथाहि- प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त्वा यथा 'अहो साधो ! स्वार्थसिद्धमिदं भक्तादि कल्पनीयं वा, न शङ्का कार्या' इत्यादि, ततः प्रतिलम्भ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः, इह च द्वयस्य विशेषणत्वेन एकस्य विशेष्यत्वेन त्रिस्थानकत्वमवगन्तव्यम्, गम्भीरार्थं चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि भावनीयमिति । 25 अल्पायुष्कताकारणान्युक्तान्यधुनैतद्विपर्ययस्यैतान्येव विपर्यस्ततया कारणान्याह १. 'लभ्य पा० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० १३३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । १८७ तिहीत्यादि प्राग्वदवसेयम्, नवरं दीहाउयत्ताए त्ति शुभदीर्घायुष्टायै शुभदीर्घायुष्टया वेति प्रतिपत्तव्यम्, प्राणातिपातविरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तत्वाद्, उक्तं च महवय अणुव्वएहि य बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मट्ठिी य जो जीवो ॥ [बन्धशतक० २३] तथा - पयईए तणुकसाओ दाणरओ सील-संजमविहूणो । ___मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ॥ [बन्धशतक० २२] देव-मनुष्यायुषी च शुभे इति । तथा भगवत्यां दानमुद्दिश्योक्तम्- समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा २ फासुएसणिज्जेणं असण ४ पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ?, गोयमा !, एगंतसो निज्जरा कज्जइ, णो से केइ पावे कम्मे कज्जइ [भगवती० ८।६।१] इति, यच्च निर्जराकारणं तच्छुभदीर्घायु:कारणतया न विरुद्धम्, महाव्रतवदिति । अनन्तरमायुषो दीर्घ ताकारणान्युक्तानि, तच्च शुभाशुभमिति तत्रादौ तावदशुभायुर्दीर्घताकारणान्याह- तिहीत्यादि प्राग्वत्, नवरम् अशुभदीर्घायुष्टायै इति नारकायुष्कायेति भावः, तथाहि- अशुभं च तत् पापप्रकृतिरूपत्वात् दीर्घ च तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्र स्थितिकत्वादुत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपत्वादशुभदीर्घम्, तदेवंभूतमायुः जीवितं यस्मात् कर्मणस्तदशुभदीर्घायुः, तद्भावस्तत्ता, 15 तस्यै तया वेति, प्राणान् प्राणिन इत्यर्थोऽतिपातयिता भवति मृषावादं वक्ता भवति तथा श्रमण-माहनादीनां हीलनादि कृत्वा प्रतिलम्भयिता भवतीत्यक्षरघटना, हीलनं तु जात्याधुघट्टनतः, निन्दनं मनसा, खिंसनं जनसमक्षम्, गर्हणं तत्समक्षम्, अपमाननमनभ्युत्थानादिभिः, अन्यतरेण बहूनां मध्ये एकतरेण, क्वचित्त्वन्यतरेणेति न दृश्यते, अमनोज्ञेन स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिनाऽत एवाऽप्रीतिकारकेण, 20 भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव, तत्फलत्वाद्, आर्यचन्दनाया इव, आर्यचन्दनया हि कुल्माषाः सूर्पकोणकृता भगवते महावीराय पञ्चदिनोनषाण्मासिकक्षपणपारणके दत्ताः, तदैव च तस्या लोहनिगडानि हेममयनूपुरौ सम्पन्नौ, केशाः पूर्ववदेव जाताः, पञ्चवर्णविविधरत्नराशिभिर्गेहं भृतम्, सेन्द्रदेव-दानव-नरनायकै रभिनन्दिता काले नावाप्तचरित्रा च सिद्धिसौधशिखरमुपगते ति, इह च सूत्रेऽशनादि 25 प्रासुकाप्रासुकत्वादिना न विशेषितम्, हीलनादिकर्तुः प्रासुकादिविशेषणस्य फलविशेष Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रत्यकारणत्वात्, मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव प्रधानतया तत्कारणत्वादिति । प्राणातिपात-मृषावादयोर्दानविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव, अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेर्दृश्यमानत्वादिति, भवति च प्राणातिपातादेर्नरकायुः, यदाह– मिच्छादिट्ठी महारंभपरिग्गहो तिव्वलोहनिस्सीलो । नरयाउयं निबंधइ पावमती रोद्दपरिणामो ॥ [ बन्धशतक० २०] ति । उक्तविपर्ययेणाधुनेतरदाह—- तिहिं ठाणेहीत्यादि पूर्ववत् । नवरं वन्दित्वा स्तुत्वा नमस्यित्वा प्रणम्य सत्कारयित्वा वस्त्रादिना सन्मानयित्वा प्रतिपत्तिविशेषेण कल्याणं समृद्धिः, तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणम्, एवं मंगलं विघ्नक्षयः, तद्योगान्मङ्गलम्, दैवतमिव देवतेव दैवतम्, चैत्यमिव जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं पर्युपास्य उपसेव्येति, 10 इहापि प्रासुकाप्रासुकतया दानं न विशेषितम्, पूर्वसूत्रविपर्ययत्वादस्य, पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वादिति, न च प्रासुकाप्रासुकदानयोः फलं प्रति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्मादिह प्रासुकैषणीयस्य कंल्पा (ल्प्या?) प्राप्तावितरस्य चेदं फलमवसेयम्, अथवा भावप्रकर्षविशेषादनेषणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतेः, सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति, 15 भरतादीनामिवेति, इह च प्रथममल्पायुः सूत्रं द्वितीयं तद्विपक्षः तृतीयमशुभदीर्घायुः सूत्रं चतुर्थं तद्विपक्ष इति न पुनरुक्ततेति । [सू० १३४ ] ततो गुत्तीतो पन्नत्ताओ, तंजहा- मणगुत्ती, वतिगुत्ती, कायगुत्ती । संजतमणुस्साणं ततो गुत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- मणगुत्ती, वइगुत्ती, कायगुत्ती । तओ अगुत्तीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-मणअगुत्ती, वइअगुत्ती, कायअगुत्ती । एवं नेरइताणं जाव थणियकुमाराणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं असंजतमणुस्साणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं । ततो दंडा पन्नत्ता, तंजहा -मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे । [ नेरइयाणं तओ दंडा पण्णत्ता, तंजहा-मणदंडे, वइदंडे, कायदंडे ।] विगलिंदियवज्जं जाव 25 वेमाणियाणं । १. कल्पप्रा जे१, खं० पा० ॥ 5 20 १८८ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० १३५] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । १८९ [टी०] प्राणानतिपातनादि च गुप्तिसद्भावे भवतीति गुप्तीराह- तओ इत्यादि कण्ठ्यम् । नवरं गोपनं गुप्ति: मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्त्तनमकुशलानां च निवर्त्तनमिति, आह चमणगुत्तिमाइयाओ गुत्तीओ तिन्नि समयकेऊहिं । पवियारेयररूवा णिद्दिट्ठाओ जओ भणियं ॥ समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणम्मि भइयव्वो । कुसलवइमुरेतो जं वइगुत्तो वि समिओ वि ॥ . [निशीथभा० ३७, बृहत्कल्प० ४४५१, उपदेशपद ६०४-५] त्ति । एताश्चतुर्विंशतिदण्डके चिन्त्यमाना मनुष्याणामेव, तत्रापि संयतानाम्, न तु नारकादीनामित्यत आह– संजयमणुस्साणमित्यादि कण्ठ्यम् । __ उक्ता गुप्तयस्तद्विपर्ययभूता अथागुप्तीराह- तओ इत्यादि कण्ठ्यम् । 10 विशेषतश्चतुर्विंशतिदण्डके एता अतिदिशन्नाह- एवमित्यादि, एवमिति सामान्यसूत्रवन्नारकादीनां तिस्रोऽगुप्तयो वाच्याः, शेष कण्ठ्यम्, नवरमिहैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया नोक्ताः, वाङ्-मनसयोस्तेषां यथायोगमसम्भवात्, संयतमनुष्या अपि नोक्ताः, तेषां गुप्तिप्रतिपादनादिति । अगुप्तयश्चात्मनः परेषां च दण्डनानि भवन्तीति दण्डान्निरूपयन्नाह- तओ दण्डेत्यादि 15 कण्ठ्यम्, नवरं मनसा दण्डनमात्मनः परेषां चेति मनोदण्डः, अथवा दण्ड्यते अनेनेति दण्डः, मन एव दण्डो मनोदण्ड इति, एवमितरावपि, विशेषचिन्तायां चतुर्विंशतिदण्डके नेरइयाणं तओ दंडा इत्यादि यावद्वैमानिकानामिति सूत्रं वाच्यम्, नवरं विगलिंदियवज्जं ति एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः, तेषां हि दण्डत्रयं न सम्भवति, यथायोगं वाङ्-मनसयोरभावादिति । 20 [सू० १३५] तिविहा गरहा पन्नत्ता, तंजहा-मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति, कायसा वेगे गरहति पावाणं कम्माणं अकरणयाए । अहवा गरहा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-दीहं पेगे अद्धं गरहति, रहस्सं पेगे अद्धं गरहति, कायं पेगे पडिसाहरति पावाणं कम्माणं अकरणयाए । [टी०] दण्डश्च गर्हणीयो भवतीति गहाँ सूत्राभ्यामाह- तिविहेत्यादि सूत्रद्वयं गतार्थम्, 25 गर्हते जुगुप्सते दण्डं स्वकीयं परकीयम् आत्मानं वा कायसा वि त्ति सकारस्यागमिकत्वात् १. मनसोस्तेषां पा० जे२ ।। २. मनसोरभा जे१ पा० जे२ ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कायेनाप्ये कः, कथमित्याह- पापानां कर्मणामकरणतया हेतुभूतया, हिंसाद्यकरणेनेत्यर्थः, कायग हि पापकर्माप्रवृत्त्यैव भवतीति भावः, उक्तं च पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक् परिशुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता चेत्यनुक्रमत: ॥ [षोडशक० ४।५] इति । 5 अथवा पापकर्मणामकरणतायै तदकरणार्थं त्रिधाऽपि गर्हते, अथवा चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, ततः पापेभ्यः कर्मभ्यो गर्हते, तानि जुगुप्सत इत्यर्थः, किमर्थम् ? अकरणतायै ‘मा कार्षमहमेतानि' इति । दीहं पेगे अद्धं ति दीर्घ कालं यावत्, तथा कायमप्येकः प्रतिसंहरति निरुणद्धि, कया ? पापानां कर्मणामकरणतया हेतुभूतया, तदकरणेन तदकरणतायै वा तेभ्यो 10 वा गर्हते, कायं वा प्रतिसंहरति तेभ्यः, अकरणतायै तेषामेवेति । [सू० १३६] तिविहे पच्चक्खाणे पन्नत्ते, तंजहा-मणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति, कायसा वेगे पच्चक्खाति । एवं जधा गरहा तधा पच्चक्खाणे वि दो आलावगा भाणितव्वा । [टी०] अतीते दण्डे गर्दा भवति, सा चोक्ता, भविष्यति च प्रत्याख्यानमिति सूत्रद्वयेन 15 तदाह तिविहेत्यादि गतार्थम्, नवरं गरिह त्ति गर्हायाम्, आलापकौ चेमौ ‘मणसे'त्यादिः 'कायसा वेगे पच्चक्खाइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए' इत्येतदन्त एकः, ‘अहवा पच्चक्खाणे तिविहे पं० तं०-दीहं पेगे अद्धं पच्चक्खाइ, रहस्सं पेगे अद्धं पच्चक्खाइ, कायं पेगे पडिसाहरति पावाणं कम्माणं अकरणयाए' इति द्वितीयः, तत्र कायमप्येकः प्रतिसंहरति पापकर्माकरणाय अथवा कायं प्रतिसंहरति पापकर्मभ्योऽकरणाय तेषामेवेति। 20 [सू० १३७] ततो रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा-पत्तोवते, पुप्फोवते, फलोवते १॥ एवामेव ततो पुरिसज्जाता पन्नत्ता, तंजहा-पत्तो वारुक्खसामाणे, पुप्फोवारुक्खसामाणे, फलोवारुक्खसामाणे २।। ततो पुरिसज्जाता पन्नत्ता, तंजहा-नामपुरिसे, ठवणपुरिसे, दव्वपुरिसे १॥ ततो पुरिसज्जाया पन्नत्ता, तंजहा-नाणपुरिसे, दंसणपुरिसे, चरित्तपुरिसे २। १. दीर्घकालं जे१,२, पा० ।। २. 'त्यादि जे१ खं० ॥ ३. हस्सं पा० जे२ । हस्सं खं० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । १९१ तओ पुरिसज्जाता पन्नत्ता, तंजहा - वेदपुरिसे, चिंधपुरिसे, अभिलावपुरिसे ३ | तिविहा पुरिसा पन्नत्ता, तंजहा - उत्तमपुरिसा, मज्झिमपुरिसा, जहन्नपुरिसा ४ | [१] उत्तमपुरिसा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा । धम्मपुरिसा अरहंता, भोगपुरिसा चक्कवट्टी, कम्मपुरिसा वासुदेवा ५। [२] मज्झिमपुरिसा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा - उग्गा, भोगा, राइन्ना ६ | [३] जहन्नपुरिसा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - दासा, भयगा, भातिलगा ७| [टी०] पापकर्मप्रत्याख्यातारश्च परोपकारिणो भवन्तीति तदुपदर्शनाय दृष्टान्तभूतवृक्षाणां तद्दान्तिकानां च पुरुषाणां प्ररूपणार्थमाह- तओ रुक्खेत्यादि सूत्रद्वयम्, पत्राण्युपगच्छति प्राप्नोति पत्रोपगः, एवमितरौ । एवमेवेति दाष्टन्तिकोपनयनार्थः, 10 पुरुषजातानि पुरुषप्रकारा यथा पत्रादियुक्तत्वेनोपकारमात्र विशिष्टविशिष्टतरोपकारकारिणोऽर्थिषु वृक्षाः तथा लोकोत्तरपुरुषाः सूत्रार्थोभयदानादिना यथोत्तरमुपकारविशेषकारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः, एवं लौकिका अपीति, इह च ‘पत्तोवग’ इत्यादौ वाच्ये पत्तोवा इत्यादि प्राकृतलक्षणवशादुक्तम्, ‘समाण’ इत्यत्रापि 'सामाण' इति । 5 - अथ पुरुषप्रस्तावात् पुरुषान् सप्तसूत्र्या निरूपयन्नाह - तओ इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरुषप्रतिमादि, द्रव्यपुरुष: पुरुषत्वेन य उत्पत्स्यते उत्पन्नपूर्वो वेति, विशेषोऽत्रेन्द्रसूत्राद् द्रष्टव्यो भवति, अत्र भाष्यगाथाआगमओऽणुवउत्तो इयरो दव्वपुरिसो तिहा तइओ । एगभवियाइ तिविहो मूलुत्तरनिम्मिओ वा वि ॥ [ विशेषाव० २०९१] 20 मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोम्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येवेति । भावपुरुषभेदाः पुनर्ज्ञानपुरुषादयः । ज्ञानलक्षणभावप्रधानः पुरुषो ज्ञानपुरुष:, एवमितरावपि। वेदः पुरुषवेद:, तदनुभवनप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः, स च स्त्री-पुंनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति । तथा पुरुषचित्रैः श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्चिह्नपुरुषः, यथा नपुंसकं श्मश्रुचिह्नमिति, पुरुषवेदो वा चिह्नपुरुषस्तेन चिह्नयते 25 १. 'त्रापि च सा पा० जे२ ॥ 15 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुरुष इति कृत्वेति, पुरुषवेषधारी वा स्त्र्यादिरिति । अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलाप: शब्दः, स एव पुरुषः पुल्लिँङ्गतया अभिधानात् यथा घटः कुटो वेति, आह च अभिलावो पुल्लिंगाभिहाणमेत्तं घडो व्व चिंधे उ । पुरिसाकिई नपुंसो वेओ वा पुरिसवेसो वा ॥ वेयपुरिसो तिलिंगो वि पुरिसवेदाणुभूतिकालम्मि । [विशेषाव० २०९२-२०९३] इति । धम्मपुरिस त्ति धर्मः क्षायिकचारित्रादिः, तदर्जनपराः पुरुषाः धर्मपुरुषाः, उक्तं 5 च धम्मपुरिसो तयज्जणवावारपरो जहा साहु ॥ [विशेषाव० २०९३] त्ति । भोगा: मनोज्ञाः शब्दादयः, तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषा:, आह च- भोगपुरिसो 10 समज्जियविसयसुहो चक्कवट्टि व्व [ विशेषाव० २०९४] त्ति । कर्माणि महारम्भादिसम्पाद्यानि नरकायुष्कादीनीति। उग्रा भगवतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन्, भोगास्तत्रैव गुरवः, राजन्यास्तत्रैव वयस्याः, तदुक्तम्उग्गा भोगा रायन्न खत्तिया संगहो भवे चउहा । आरक्खि गुरु वयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥ [आव० नि० २०२] त्ति । 15 तद्वंशजा अपि तत्तद्व्यपदेशा इति । एषां च मध्यमत्वमनुत्कृष्टत्वाजघन्यत्वाभ्यामिति। दासा दासीपुत्रादयः, भृतका: मूल्यतः कर्मकराः, भाइल्लग त्ति भागो विद्यते येषां ते भागवन्तः शुद्ध-चातुर्थिकादय इति ।। [सू० १३८] तिविधा मच्छा पन्नत्ता, तंजहा-अंडया, पोतया, संमच्छिमा १॥ अंडया मच्छा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा २१ पोतया 20 मच्छा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा ३। तिविधा पक्खी पन्नत्ता, तंजहा-अंडया पोतया, संमुच्छिमा ११ अंडया पक्खी तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा २। पोतजा पक्खी तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा ३।। एवमेतेणं अभिलावेणं उरपरिसप्पा वि भाणियव्वा ३, भुजपरिसप्पा वि 25 भाणियव्वा एवं चेव ३[१२] । [टी०] उक्तं मनुष्यपुरुषाणां त्रैविध्यमधुना सामान्यतस्तिरश्चां जलचर-खचर Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ [सू० १३९] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । स्थलचरविशेषाणां तिविहा मच्छेत्यादिसूत्रै‘दशभिस्तदाह, सुगमानि चैतानि, नवरम् अण्डाज्जाता अण्डजाः, पोतं वस्त्रं तद्वज्जरायुवर्जितत्वाज्जाताः, पोतादिव वा बोहित्थाज्जाताः पोतजाः, सम्मूर्छिमा अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मूर्छिमानां स्त्र्यादिभेदो नास्ति नपुंसकत्वात्तेषामिति स सूत्रे न दर्शित इति । पक्षिणोऽण्डजा: हंसादयः, पोतजा वल्गुलीप्रभृतयः, सम्मूर्छिमाः खञ्जनकादयः, 5 उद्भिज्जत्वेऽपि तेषां सम्मूर्छ जत्वव्यपदेशो भवत्येव, उद्भिज्जादीनां सम्मूर्च्छनजविशेषत्वादिति । एवमिति पक्षिवत्, एतेन प्रत्यक्षेणाभिलापेन ‘तिविहा उरपरिसप्पे' त्यादिसूत्रत्रयलक्षणेन, उरसा वक्षसा परिसर्पन्तीति उरःपरिसर्पाः सर्पादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यां बाहुभ्यां परिसर्पन्ति ये ते तथा 10 नकुलादयस्तेऽपि भणितव्याः । एवं चेव त्ति, एवमेव यथा पक्षिणस्तथैवेत्यर्थः, इहापि सूत्रत्रयमध्येतव्यमिति भावः । [सू० १३९] [१] तिविहाओ इत्थीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-तिरिक्खजोणियाओ, मणुस्सित्थीओ, देवित्थीओ १। तिरिक्खजोणित्थीओ तिविधातो पन्नत्ताओ, तंजहा-जलचरीओ, थलचरीओ, खहचरीओ २। मणुस्सित्थीओ तिविधाओ 15 पन्नत्ताओ, तंजहा-कम्मभूमियाओ, अकम्मभूमियाओ, अंतरदीविगाओ ३। [२] तिविधा पुरिसा पन्नत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा । तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-जलचरा, थलचरा, खहचरा २। मणुस्सपुरिसा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-कम्मभूमया, अकम्मभूमया, अंतरदीवगा ३। 20 [३] तिविधा नपुंसगा पन्नत्ता, तंजहा-णेरतियनपुंसगा, तिरिक्खजोणियनपुंसगा, मणुस्सनपुंसगा १। तिरिक्खजोणियनपुंसगा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-जलचरा, थलचरा, खहचरा २। मणुस्सनपुंसगा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा ३। [४] तिविहा तिरिक्खजोणिया पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। 25 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] उक्तं तिर्यग्विशेषाणां त्रैविध्यमिदानीं स्त्री-पुरुष-नपुंसकानां तदाहतिविहेत्यादि नवसूत्री सुगमा, नवरं खहं ति प्राकृतत्वेन खम् आकाशमिति । कृष्यादिकर्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः भरतादिका पञ्चदशधा, तत्र जाताः कर्मभूमिजा:, एवमकर्मभूमिजाः, नवरमकर्मभूमिः भोगभूमिरित्यर्थः देवकुर्वादिका त्रिंशद्विधा, अन्तरे 5 मध्ये समुद्रस्य द्वीपा ये ते तथा, तेषु जाता आन्तरद्वीप्यस्ता एवाऽऽन्तरद्वीपिकाः । विशेषत्रैविध्यमुक्त्वा सामान्यतस्तिरश्चां तदाह- तिविहेत्यादि कण्ठ्यम् । [सू० १४०] नेरइयाणं तओ लेस्सातो पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा। असुरकुमाराणं ततो लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा, एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं 10 पुढविकाइयाणं, आउ-वणस्सतिकाइयाण वि । तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिंदियाणं तओ लेस्सा जधा नेरइयाणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ, तंजहाकण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेसाओ असंकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा, एवं 15 मणुस्साण वि । वाणमंतराणं जधा असुरकुमाराणं । वेमाणियाणं तओ लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा । [टी०] स्त्र्यादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भवति तन्निबन्धनकर्मकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु लेश्या: त्रिस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह- नेरइयाणमित्यादि दण्डकसूत्रं कण्ठ्यम्, नवरं नेरइयाणं तओ लेस्साओ त्ति एतासामेव तिसृणां 20 सद्भावादविशेषणो निर्देशः, असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् संक्लिष्टा इति विशेषितम्, चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु सा न संक्लिष्टेति, पृथिव्यादिष्वसुरकुमारसूत्रार्थमतिदिशन्नाह- एवं पुढवीत्यादि, पृथिव्यब्वनस्पतिषु देवोत्पादसम्भवाच्चतुर्थी तेजोलेश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिर्देशोऽतिदिष्टः । तेजो-वायु-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्त्या तदभावान्निर्विशेषण इत्यत एवाह- तओ इत्यादि । पञ्चेन्द्रियतिरश्चां 25 मनुष्याणां च षडपीति संक्लिष्टासंक्लिष्टविशेषणतश्चतुःसूत्री, नवरं मनुष्यसूत्रे अतिदेशेनोक्ते Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । इति व्यन्तरसूत्रे संक्लिष्टा वाच्या:, अत एवोक्तं वाणमंतरेत्यादि । वैमानिकसूत्रं निर्विशेषणमेव, असंक्लिष्टस्यैव त्रयस्य सद्भावात्, व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति । ज्योतिष्कसूत्रं नोक्तम्, तेषां तेजोलेश्याया एव भावेन त्रिस्थानकानवतारादिति । [सू० १४१] तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेज्जा, तंजहा - विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, ठाणातो वा ठाणं संकममाणे तारारूवे चलेज्जा । १९५ तिहिं ठाणेहिं देवे विजुतारं करेजा, तंजहा - विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इहिं जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसगारपरक्कमं उवदंसेमाणे देवे विज्जुतारं करेजा । तिहिं ठाणेहिं देवे थणियसद्दं करेज्जा, तंजहा - विकुव्वमाणे, एवं जहा विज्जुतारं तव थणितसद्दं पि । 5 [टी०] अनन्तरं वैमानिकानां लेश्याद्वारेणेहावतार उक्तः, ज्योतिष्काणां तु तथा तदसम्भवाच्चलनधर्मेण तमाह- तारारूवे त्ति तारकमात्रं चलेज्जा स्वस्थानं त्यजेत्, वैक्रियं कुर्वद्वा, परिचारयमाणं वा मैथुनार्थं संरम्भयुक्तमित्यर्थः, स्थानाद्वैकस्मात् स्थानान्तरं सङ्क्रामत् गच्छदित्यर्थः, यथा धातकीखण्डादिमेरुं परिहरदिति, अथवा क्वचिन्महर्द्धिके देवादौ चमरवद्वैक्रियादि कुर्वति सति तन्मार्गदानार्थं चलेदिति, उक्तं च- 15 तत्थ णं जे से वाघाइए अंतरे से जहन्त्रेणं दोन्नि छावट्टे जोयणसए, उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साइं [ जम्बूद्वीपप्र० ७ ३५० ] ति, तत्र व्याघातिकमन्तरं महर्द्धिकदेवस्य मार्गदानादिति । 10 अनन्तरं तारकदेवचलनक्रियाकारणान्युक्तानि, अथ देवस्यैव विद्युत्स्तनितक्रिययोः कारणानि सूत्रद्वयेनाह– तिहीत्यादि, कण्ठ्यम्, नवरं विज्जुयारं ति विद्युत् तडित् 20 सैव क्रियत इति कारः कार्यम्, विद्युतो वा करणं कारः क्रिया विद्युत्कारः, तम्, विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, वैक्रियकरणादीनि हि सदर्पस्य भवन्ति, तत्प्रवृत्तस्य च दर्पोल्लासवतश्चलनविद्युद्गर्जनादीन्यपि भवन्तीति चलन- विद्युत्कारादीनां वैक्रियादिकं कारणतयोक्तमिति, ऋद्धिं विमानपरिवारादिकां द्युतिं शरीराभरणादीनां यशः प्रख्यातिं बलं शारीरं वीर्यं जीवप्रभवम्, पुरुषकारश्च अभिमानविशेषः, स एव निष्पादितस्वविषयः पराक्रमश्चेति 25 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुरुषकारपराक्रमं समाहारद्वन्द्वः, तदेतत् सर्वमुपदर्शयमान इति । तथा स्तनितशब्दो मेघगर्जितम् । एवमित्यादि वचनं ‘परियारेमाणे वा तहारूवस्से'त्याद्यालापकसूचनार्थमिति । [सू० १४२] तिहिं ठाणेहिं लोगंधयारे सिया, तंजहा- अरहंतेहि 5 वोच्छिज्जमाणेहिं, अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे । तिहिं ठाणेहिं लोगुजोते सिया, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेसु पव्वयमाणेसु, अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु २॥ तिहिं ठाणेहिं देवंधगारे सिया, तंजहा-अरहंतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं, 10 अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे ३। तिहिं ठाणेहिं देवुजोते सिया, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु ४। तिहिं ठाणेहिं देवसंनिवाए सिया, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं नाणुप्पयमहिमासु ५, एवं देवुक्कलिता ६, 15 देवकहकहए ७। तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु ८। एवं सामाणिया ९, तायत्तीसगा १०, लोगपाला देवा ११, अग्गमहिसीओ देवीओ १२, परिसोववन्नगा देवा १३, अणियाधिपती देवा १४, आतरक्खा देवा 20 १५ माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति ।। तिहिं ठाणेहिं देवा अब्भुटेजा, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव तं चेव १, एवमासणाइं चलेजा २, सीहणातं करेज्जा ३, चेलुक्खेवं करेजा ४। तिहिं ठाणेहिं देवाणं चेतितरुक्खा चलेजा, तंजहा-अरहंतेहिं तं चेव ५। तिहिं ठाणेहिं लोगंतिया देवा माणुसं लोगं हव्वमागच्छेज्जा, तंजहा25 अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । [टी०] विद्युत्कार-स्तनितशब्दावुत्पातरूपावनन्तरमुक्तौ, अथोत्पातरूपाण्येव लोकान्धकारादीनि पञ्चदशसूत्र्या तिहिं ठाणेहीत्यादिकया प्राह, कण्ठ्या चेयम्, नवरं लोके क्षेत्रलोकेऽन्धकारं तमो लोकान्धकारं स्याद् भवेत् द्रव्यतो लोकानुभावाद्भावतो वा प्रकाशकस्वभावज्ञानाभावादिति, तद्यथा, अर्हन्ति अशोकाद्यष्ट प्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूढा-नवद्यवासना- 5 जलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यरूपां पूजां निखिलप्रतिपन्थिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः, उक्तं च अरहंति वंदण-नमंसणाणि अरहंति पूयसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुच्चंति ॥ [विशेषाव० ३५६४] त्ति । तेषु व्यवच्छिद्यमानेषु निर्वाणं गच्छत्सु, तथाऽर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने 10 तीर्थव्यवच्छेदकाले, तथा पूर्वाणि दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि गतं प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छ्रुतं तत् पूर्वगतम् तत्र व्यवच्छिद्यमाने, इह च राजमरणदेशनगरभङ्गादावपि दृश्यते दिशामन्धकारमानं रजस्वलतयेति, यत् पुनर्भगवत्स्वर्हदादिषु निखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धकारं भवति तत् किमद्भुतमिति?। लोकोद्योतो लोकानुभावान्मनुष्यलोके देवागमाद्वा, नाणुप्पयमहिमासु 15 केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेष्विति । देवानां भवनादिष्वन्धकारं देवान्धकारं लोकानुभावादेवेति । लोकान्धकारे उक्तेऽपि यद्देवान्धकारमुक्तम्, तत् सर्वत्रान्धकारसद्भावप्रतिपादनार्थमिति । एवं देवोद्योतोऽपि देवसन्निपातो भुवि तत्समवतारो, देवोत्कलिका तत्समवायविशेषः, एवमिति त्रिभिरेव स्थानः, देवकहकहे त्ति देवकृतः 20 प्रमोदकलकलस्त्रिभिरेवेति । हव्वं ति शीघ्रम्, सामाणिय त्ति इन्द्रसमानर्द्धयः, तायत्तिंसग त्ति महत्तरकल्पाः पूज्याः, लोकपालाः सोमादयो दिग्नियुक्तकाः, अग्रमहिष्यः प्रधानभार्याः, परिषत् परिवारः, तत्रोपपन्नका ये ते तथा, अनीकाधिपतयो गजादिसैन्यप्रधाना ऐरावतादयः, १. तत्स्वरूपं नास्ति जे१ ।। २. समा जे१ खं० ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आत्मरक्षा अङ्गरक्षा राज्ञामिवेति, माणुस्सं लोयं हव्वमागच्छन्तीति प्रतिपदं सम्बन्धनीयम् १५ । मनुष्यलोकागमने देवानां यानि कारणान्युक्तानि तान्येव देवाभ्युत्थानादीनां कारणतया सूत्रपञ्चकेनाह- तिही इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् अब्भुट्ठिज्ज त्ति सिंहासनादभ्युत्तिष्ठेयुरिति, 5 आसनानि शक्रादीनां सिंहासनानि, तच्चलनं लोकानुभावादेवेति, सिंहनाद-चेलोत्क्षेपौ प्रमोदका? जनप्रतीतौ, चैत्यवृक्षा ये सुधर्मादिसभानां प्रतिद्वारं पुरतो मुखमण्डपप्रेक्षामण्डप-चैत्यस्तूप-चैत्यवृक्ष-महाध्वजादिक्रमतः श्रूयन्ते । लोकान्तिकानां प्रधानतरत्वेन भेदेन मनुष्यक्षेत्रागमनकारणान्याह- तिहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं लोकस्य ब्रह्मलोकस्याऽन्तः समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं निवासो येषां ते, लोकान्ते वा 10 औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः सारस्वतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाणरूपा इति । [सू० १४३] तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो, तंजहा-अम्मापिउणो, भट्टिस्स, धम्मायरियस्स। [१] संपातो वि य णं केति पुरिसे अम्मापियरं सयपाग-सहस्सपागेहिं 15 तेल्लेहिं अब्भंगेत्ता, सुरभिणा गंधट्टएणं उव्वट्टित्ता, तिहिं उदगेहिं मजावित्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावजीवं पिट्ठिवडेंसियाए परिवहेजा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं भवइ । अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पन्नवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडितारं 20 भवति समणाउसो ! [२] केति महच्चे दरिदं समुक्कसेजा, तते णं से दरिदे समुक्किढे समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसमन्नागते यावि विहरेज्जा, तते णं से महच्चे अन्नदा कयाइ दरिद्दीहूते समाणे तस्स दरिद्दस्स अंतिए हव्वमागच्छेजा, तते णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समवि दलयमाणे तेणावि तस्स भट्टिस्स १. लौका पा० जे२ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः।। दुप्पडियारं भवति । अहे णं से तं भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पन्नवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवति । __ [३] केति तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निस्सम्म कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोगेसु 5 देवत्ताए उववन्ने, तते णं से देवे तं धम्मायरियं दब्भिक्खातो वा देसातो सुभिक्खं देसं साहरेजा, कंतारातो वा णिक्वंतारं करेजा, दीहकालिएणं वा रोगातंकेण अभिभूतं समाणं विमोएजा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति । अधे णं से तं धम्मायरियं केवलिपण्णत्ताओ धम्मातो भट्टं समाणं भुजो वि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवतित्ता जाव ठावतित्ता भवति, तेणामेव 10 तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति । [टी०] अथ किमर्थं भदन्त ! ते इहागच्छन्तीति ? उच्यते, अर्हतां धर्माचार्यतया महोपकारित्वात् पूजाद्यर्थम्, अशक्यप्रत्युपकाराश्च भगवन्तो धर्माचार्याः, यतः- तिण्हं त्रयाणां दुःखेन कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते कृतोपकारेण पुंसा प्रत्युपक्रियत इति खेल्प्रत्यये सति दुष्प्रतिकरं प्रत्युपकर्तुमशक्यमिति यावत्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो 15 वा हे श्रमणायुष्मन्निति भगवता शिष्यः सम्बोधितः । अम्बया मात्रा सह पिता जनक अम्बापिता, तस्येत्येकं स्थानम्, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात् । तथा भट्टिस्स त्ति भर्तुः पोषकस्य स्वामिन इत्यर्थ इति द्वितीयम् । धर्मदाता आचार्यो धर्माचार्यः, तस्येति तृतीयम् । आह चदुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहाऽमुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः ॥ [प्रशम० ७१] इति । तत्र जनकदुष्प्रतिकार्यतामाह- संपाओ त्ति प्रातः प्रभातम्, तेन समं सम्प्रातः सम्प्रातरपि च प्रभातसमकालमपि च, यदैव प्रातः संवृत्तं तदैवेत्यर्थः, अनेन कार्यान्तराव्यग्रतां दर्शयति, संशब्दस्यातिशयार्थत्वाद्वा अतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद्वाऽस्य १-२. सुपडियरं क० ॥ ३. “ईषद्-दुः-सुषु कृच्छा-ऽकृच्छ्रार्थेषु खल् ॥” - पा० ३।३।१२६।। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रतिप्रभातमित्यर्थः, कश्चिदिति कुलीन एव, न तु सर्वोऽपि पुरुषो मानवो देवतिरश्चोरेवंविधव्यतिकरासम्भवात्, शतं पाकानाम् ओषधिक्काथानां पाके यस्य १, ओषधिशतेन वा सह पच्यते यत् २, शतकृत्वो वा पाको यस्य ३, शतेन वा रूपकाणां मूल्यतः पच्यते ४ यत्तच्छतपाकम्, एवं सहस्रपाकमपि, ताभ्यां तैलाभ्याम्, अब्भंगेत्ता 5 अभ्यङ्गं कृत्वा गन्धट्टएणं ति गन्धाट्टकेन गन्धद्रव्यक्षोदेन उद्वर्त्य उद्वलनं कृत्वा त्रिभिरुदकैः गन्धोदकोष्णोदकशीतोदकैः मज्जयित्वा स्नापयित्वा, मनोज्ञं कलमौदनादि, स्थाली पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कमपक्वं वा न तथाविधं स्यादितीदं विशेषणमिति, शुद्धं भक्तदोषवर्जितम्, स्थालीपाकं च तच्छुद्धं च स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः, अष्टादशभिर्लो कप्रतीतैर्व्यञ्जनैः 10 शालनकैस्तक्रादिभिर्वा आकुलं सङ्कीर्णं यत्तत्तथा, अथवाऽष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुलं चेति, अत्र भेदपदलोपेन समासः, भोजनं भोजयित्वा, एते चाष्टादश भेदा:सूओ १ दणो २ जवनं ३ तिन्नि य मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरियगं १२ डागो १३ ।। होइ रसालू व तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ ।। 15 अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥ [ ] मांसत्रयं जलजादिसत्कं, जूषो मुद्ग-तन्दुल-जीरक-कटुभाण्डादिरसः, भक्ष्याणि खण्डखाद्यादीनि, गुललावणिका गुडपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा, मूलफलान्येक एव पदम्, हरितकं जीरकादेः, डाको वस्तुलादिभर्जिका, रसालू मज्जिका, तल्लक्षणमिदम्20 दो घयपला महुपलं दहिस्स अद्धाढयं मिरिय वीसा। दस खण्डगुलपलाई एस रसालू णिवइजोग ॥ [ ] त्ति । पानं सुरादि, पानीयं जलम्, पानकं द्राक्षापानकादि, शाकः तक्रसिद्ध इति । यावान् जीवो यावज्जीवं यावत्प्राणधारणं पृष्ठौ स्कन्धे अवतंस इवाऽवतंस: शेखरस्तस्य करणमवतंसिका पृष्ठ्यवतं सिका, तया पृष्ठ्यवतंसिकया परिवहेत्, 25 पृष्ठ्यारोपितमित्यर्थः, तेनापि परिवाहकेन परिवहनेन वा तस्य अम्बापितुर्दुःप्रतिकरम्, अशक्यः प्रतीकार इत्यर्थः, अनुभूतोपकारतया तस्य प्रत्युपकारकारित्वाद्, आह च१. सागो जे१ विना ।। २. शाको जे१ विना ।। ३. पष्ठारो जे१ खं० ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ [सू० १४३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । कयउवयारो जो होइ सज्जणो होइ को गुणो तस्स ? । उवयारबाहिरा जे हवंति ते सुंदरा सुयणा ॥ [ ] इति । अहे णं से त्ति अथ चेत् णमित्यलङ्कारे स पुरुषस्तम् अम्बापितरं धर्मे स्थापयिता स्थापनशीलो भवति, अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः, किं कृत्वेत्याह- आघवइत्ता धर्ममाख्याय प्रज्ञाप्य बोधयित्वा प्ररूप्य प्रभेदत इति, अथवा आख्याय सामान्यतो 5 यथा कार्यो धर्मः, प्रज्ञाप्य विशेषतो यथाऽसावहिंसादिलक्षणः, प्ररूप्य प्रभेदतो यथा शीलाङ्गसहस्ररूप इति, शीलार्थतन्नन्तानि वैतानीति, तेणामेव त्ति ततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव न परिवहनेन अथवा तेनैव धर्मस्थापकपुरुषेण न परिवाहिना, तस्य प्रत्युपकरणीयस्याऽम्बापितुः सुपडियरं ति सुखेन प्रतिक्रियते प्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकरम्, भावसाधनोऽयम्, तद्भवति, प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः, धर्मस्थापनस्य 10 महोपकारत्वाद्, आह च सम्मत्तदायगाणं दुप्पडियारं भवेसु बहुएसुं । सव्वगुणमेलियाहि वि उवगारसहस्सकोडीहिं ॥ [उपदेशमाला० २६९] ति । अथ भर्तुः दुःखप्रतिकार्यतामाह- कश्चित् कोऽपि महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चा ज्वाला पूजा वा यस्य, अथवा महांश्चासावर्थपतितया अय॑श्च पूज्य इति महा! महार्यो 15 वा, माहत्यं महत्त्वं तद्योगान्माहत्यो वा, ईश्वर इत्यर्थः, दरिद्रम् अनीश्वरं कञ्चन पुरुषमतिदुःस्थं समुत्कर्षयेत् धनदानादिनोत्कृष्टं कुर्यात्, ततः समुत्कर्षणानन्तरं स दरिद्रः समुत्कृष्टो धनादिभिः समाणे त्ति सन् पच्छ त्ति पश्चात्काले पुरं च णं ति पूर्वकाले च, समुत्कर्षणकाल एवेत्यर्थः, अथवा पश्चाद् भर्तुरसमक्षं पुरश्च भर्तुः समक्षं च, विपुलया भोगसमित्या भोगसमुदयेन समन्वागतो युक्तो यः स तथा स चापि 20 विहरेत् वर्तेत, ततोऽनन्तरं स महा! भर्ता । सव्वस्सं ति सर्वं च तत् स्वं च द्रव्यं चेति सर्वस्वं तदपि, आस्तामल्पमिति, दलमाणे त्ति ददत्, न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति शेषः, अतस्तेनापि सर्वस्वदानेन सर्वस्वदायकेनापि वा दुष्प्रतिकारमेवेति २। अथ धर्माचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाह- के इत्यादि, आरियं ति पापकर्मभ्य आराद्यातमित्यार्यमत एव धार्मिकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण निशम्य मनसाऽवधार्य 25 १. स्तदम्बापितरं जे१ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अन्यतरेषु देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थो देवत्वेनोत्पन्न इति, दुर्लभा भिक्षा यस्मिन् देशे स दुर्भिक्षस्तस्मात् संहरेत् नयेत् कान्तारम् अरण्यम्, निर्गतः कान्तारान्निष्कान्तारस्तं निष्क्रमितारं वा, दीर्घः कालो विद्यते यस्य स दीर्घकालिकस्तेन, रोगः कालसहः कुष्ठादिः, आतङ्कः कृच्छ्रजीवितकारी 5 सद्योघातीत्यर्थः शूलादिः, अनयोर्द्वन्द्वैकत्वे रोगातङ्कं तेनेति, धर्मस्थापनेन तु भवति कृतोपकारः, यदाह– जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा । सो तं तओ चुयं तम्मि चेव काउं भवे निरिणो ॥ [ निशीथभा० ५५९३] त्ति । शेषं सुगमत्वान्न स्पृष्टमिति । [सू० १४४] तिहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं वीतीवतेजा, तंजहा अणिदाणयाए, दिट्ठिसंपन्नयाए, जोगवाहियाए । [टी०] धर्म्मस्थापनेन चास्य भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः कृतः स्यादिति धर्मस्य स्थानत्रयावतारणेन भवच्छेदकारणतामाह - तिहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् अनादिकम् 15 आदिरहितमनवदग्रम् अनन्तं दीर्घाध्वं दीर्घमार्गं चत्वारोऽन्ता विभागा नरकगत्यादयो यस्य तच्चतुरन्तम्, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, संसार एव कान्तारम् अरण्यं संसारकान्तारं तद् व्यतिव्रजेत् व्यतिक्रामेदिति, अनादिकत्वादीनि विशेषणानि कान्तारपक्षेऽपि विवक्षया योजनीयानि, तथाहि— अनाद्यनन्तमरण्यमतिमहत्त्वाच्चतुरन्तं दिग्भेदादिति । निदानं भोगर्द्धिप्रार्थनास्वभावमार्त्तध्यानम्, तद्विवर्जितता अनिदानता, तया, दृष्टिसम्पन्नता 20 सम्यग्दृष्टिता, तया, योगवाहिता श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्थायिता वा, तयेति । [सू० १४५ ] तिविहा ओसप्पिणी पन्नत्ता, तंजहा - उक्कस्सा, मज्झिमा, जहन्ना १, एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ जाव दूसमदूसमा ७। तिविहा उस्सप्पिणी पन्नत्ता, तंजहा - उक्कस्सा, मज्झिमा, जहन्ना ८, एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ जाव सुसमसुसमा १४ | 10 २०२ - 25 [टी०] भवव्यतिव्रजनं च कालविशेष एव स्यादिति कालविशेषनिरूपणायाहतिविहेत्यादिसूत्राणि चतुर्द्दश कण्ठ्यानि, नवरम् अवसर्पिणी प्रथमेऽरके उत्कृष्टा, चतुर्षु Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४६ ] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । मध्यमा, पश्चिमे जघन्या, एवं सुषमसुषमादिषु प्रत्येकं त्र्यं त्र्यं कल्पनीयम्, तथा उत्सर्पिण्या: दुःषमदुः : षमादि तद्भेदानां चोक्तविपर्ययेणोत्कृष्टत्वं प्राग्वद्योज्यमिति । [सू० १४६] तिहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पोग्गले चलेज्जा, तंजहा - आहारिज्जमाणे वा पोग्गले चलेज्जा, विकुव्वमाणे वा पोग्गले चलेज्जा, ठाणातो वा ठाणं संकामिज्जमाणे पोग्गले चलेज्जा १ | तिविधे उवधी पन्नत्ते, तंजहा- कम्मोवही, सरीरोवही, बाहिरभंडमत्तोवही । एवं असुरकुमाराणं भाणियव्वं, एवं एगिंदिय-नेरइयवज्जं जाव वेमाणियाणं २। २०३ अहवा तिविधे उवधी पन्नत्ते, तंजहा - सचित्ते, अचित्ते, मीसए । एवं रइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ३ | तिविधे परिग्गहे पन्नत्ते, तंजहा- कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे । एवं असुरकुमाराणं, एवं एगिंदियनेरतियवजं जाव वेमाणियाणं ४ | अहवा तिविहे परिग्गहे पन्नत्ते, तंजहा- सचित्ते, अचित्ते, मीसए । एवं रतियाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ५ । " [टी०] काललक्षणा अचेतनद्रव्यधर्म्मा अनन्तरमुक्ताः तत्साधर्म्यात् पुद्गलधर्म्मान्निरूपयन् सूत्राणि पञ्च चतुरश्च दण्डकानाह - तिहीत्यादि, छिन्नः खड्गादिना पुद्गलः समुदायाच्चलत्येवेत्यत आह- अच्छिन्नपुद्गल इति, आहारेज्जमाणे त्ति आहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाच्चलति, जीवेनाकर्षणात्, एवं विक्रियमाणो वैक्रियकरणवशवर्त्तितयेति, स्थानात् स्थानान्तरं सङ्क्रम्यमाणो हस्तादिनेति । उपधीयते पोष्यते जीवोऽनेनेत्युपधिः, कर्मैवोपधिः कर्मोपधिः, एवं शरीरोपधिः, बाह्यः शरीरबहिर्वर्त्ती, भाण्डानि च भाजनानि मृन्मयानि, मात्राणि च मात्रायुक्तानि कांस्यादिभाजनानि, भोजनोपकरणमित्यर्थः, भाण्डमात्राणि, तान्येवोपधिः भाण्डमात्रोपधिः, अथवा भाण्डं वस्त्राभरणादि, तदेव मात्रा परिच्छदः, सैवोपधिरिति, १. कांश्या पा० जे२ ।। २. परिच्छेदः जे१ ॥ 5 10 15 20 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ततो बाह्यशब्दस्य कर्मधारय इति । चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः नारकैकेन्द्रियवर्जाः, तेषामुपकरणस्याभावाद्, द्वीन्द्रियादीनां तूपकरणं दृश्यते एव केषाञ्चिदित्यत एवाह- एवमित्यादि । ___ अहवेत्यादि, सचित्तोपधिर्यथा शैलं भाजनम्, अचित्तो वस्त्रादिः, मिश्रः परिणतप्रायं 5 शैलभाजनमेवेति, दण्डकचिन्ता सुगमा, नवरं सचित्तोपधि रकाणां शरीरम्, अचेतनः उत्पत्तिस्थानम्, मिश्रः शरीरमेवोच्छ्वासादिपुद्गलयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति, एवमेव शेषाणामप्ययमूह्य इति । तिविहे परिग्गहेत्यादिसूत्राणि उपधिवत्नेयानि, नवरं परिगृह्यते स्वीक्रियते इति परिग्रहो मूर्छाविषय इति, इह च एषामयमिति व्यपदेशभागेव ग्राह्यः, स च 10 नारकैकेन्द्रियाणां कादिरेव सम्भवति, न भाण्डादिरिति । [सू० १४७] तिविहे पणिधाणे पन्नत्ते, तंजहा-मणपणिहाणे, वइपणिहाणे, कायपणिहाणे। एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं । तिविधे सुप्पणिधाणे पन्नत्ते, तंजहा-मणसुप्पणिहाणे, वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । संजतमणुस्साणं तिविधे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तंजहा15 मणसुप्पणिहाणे, वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे ।। तिविधे दुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तंजहा-मणदुप्पणिहाणे, वइदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे । एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं । [टी०] पुद्गलधर्माणां त्रित्वं निरूप्य जीवधर्माणां तिविहे इत्यादिभिस्त्रिभिः सदण्डकैः सूत्रैस्तदाह, कण्ठ्यानि चैतानि, नवरं प्रणिहितिः प्रणिधानम् एकाग्रता, तच्च 20 मनःप्रभृतिसम्बन्धिभेदात् विधेति, तत्र मनसः प्रणिधानं मनःप्रणिधानमेवमितरे, तच्च चतुर्विंशतिदण्डके सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां भवति, तदन्येषां तु नास्ति, योगानां सामस्त्येनाभावादित्यत एवोक्तम्- एवं पचेंदियेत्यादीति । प्रणिधानं हि शुभाशुभभेदम्, अथ शुभमाह- तिविहे त्यादि सामान्यसूत्रम् १ । विशेषमाश्रित्य तु चतुर्विंशतिदण्डक चिन्तायां मनुष्याणामेव तत्रापि संयतानामेवेदं भवति, 25 चारित्रपरिणामरूपत्वादस्येति, अत एवाह- संजयेत्यादि २ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ [सू० १४८] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । दुष्प्रणिधानमशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपं सामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति ३। [सू० १४८] तिविधा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-सीता, उसिणा, सीओसिणा। एवं एगिदियाणं विगलिंदियाणं तेउकाइयवज्जाणं संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य । तिविहा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-सचित्ता, अचित्ता, मीसिता । एवं एगेंदियाणं 5 विगलिंदियाणं संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य । तिविधा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-संवुडा, वियडा, संवुडवियडा । तिविधा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-कुम्मुन्नत्ता, संखावत्ता, वंसीवत्तिया । कुम्मुन्नता णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं, कुम्मुन्नताते णं जोणीते तिविहा उत्तमपुरिसा गब्भं वक्कमंति, तंजहा-अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेव-वासुदेवा । 10 संखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स, संखावत्ताते णं जोणीते बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववजंति, नो चेव णं निप्फज्जति । वंसीवत्तिता णं जोणी पिहजणस्स, वंसीवत्तिताते णं जोणीते बहवे पिहजणे गब्भं वक्कमति । [टी०] जीवपर्यायाधिकारात् तिविहेत्यादिना गन्भं वक्कमंतीत्येतदन्तेन ग्रन्थेन 15 योनिस्वरूपमाह । तत्र युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनि: जीवस्योत्पत्तिस्थानं शीतादिस्पर्शवदिति । एवं ति यथा सामान्यतस्त्रिविधा तथा चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामे केन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणां तेजोवर्जानाम्, तेजसामुष्णयोनित्वात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्पदे मनुष्यपदे च सम्मूर्च्छनजानां त्रिविधा, शेषाणां त्वन्यथेति, यत आह 20 सीओसिणजोणीया सव्वे देवा य गब्भवक्कंती । उसिणा य तेउकाए दुह णिरए तिविह सेसाणं ॥ [जीवस० ४७, बृहत्सं० ३६०] ति । अन्यथा योनित्रै विध्यमाह- तिविहे त्यादि कण्ठ्यम्, नवरं दण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियादीनां सचित्तादिस्त्रिविधा योनिरन्येषां त्वन्यथा, यत उक्तम्अच्चित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं । 25 मीसा य गब्भवसही तिविहा जोणी य सेसाणं ॥ [जीवस० ४६, बृहत्सं० ३५९] ति । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ पुनरन्यथा तामाह-तिविहेत्यादि, संवृता सङ्कटा घटिकालयवत्, विवृता विपरीता, संवृतविवृता तूभयरूपेति, एतद्विभागोऽयम् एगिंदिय-नेरइया संवुडजोणी हवंति देवा य । विगलिंदियाण वियडा संवुडवियडा य गन्भम्मि ॥ [जीवस० ४५, बृहत्सं० ३५८] त्ति । 5 कुम्मुन्नयेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं कूर्मः कच्छपः, तद्वदुन्नता कूर्मोन्नता, शङ्खस्येवावर्तो यस्यां सा शङ्खावा, वंश्या वंशजाल्या: पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका। गन्भं वक्कमंति त्ति गर्भे उत्पद्यन्ते, बलदेव-वासुदेवानां सहचरत्वेनैकत्वविवक्षयोत्तमपुरुषत्रैविध्यमिति । बहवे इत्यादि, योनित्वाज्जीवा: पुद्गलाश्च तद्ग्रहणप्रायोग्याः, किम् ? व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते, व्यवक्रामन्ति विनश्यन्ति, एतदेव व्याख्याति10 विउक्कमंति त्ति, कोऽर्थः ? च्यवन्ते, वक्कमंति त्ति किमुक्तं भवति ? उत्पद्यन्ते इति। पिहज्जणस्स त्ति पृथग्जनस्य सामान्यजनस्योत्पत्तिकारणं भवतीति । [सू० १४९] तिविहा तणवणस्सतिकाइया पन्नत्ता, तंजहा-संखेजजीविता असंखेज्जजीविता अणंतजीविता । टी०] अनन्तरं योनितो मनुष्याः प्ररूपिताः, अधुना मनुष्यस्य सधर्मणो 15 बादरवनस्पतिकायिकान् प्ररूपयन्नाह-तिविहेत्यादि, तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः, सङ्ख्यातजीविकाः सङ्ख्यातजीवाः, यथा नालिकाबद्धकुसुमानि जात्यादीनीत्यर्थः, असङ्ख्यातजीविका यथा निम्बाम्रादीनां मूल-कन्द-स्कन्ध-त्वक्-छाखा-प्रवालाः, अनन्तजीविका: पनकादय इति, इह प्रज्ञापनासूत्राण्यपीत्थम् जे के वि नालियाबद्धा, पुप्फा संखेज्जजीविया । 20 णीहूआ अणंतजीवा, जे यावन्ने तहाविहा ।। पउमुप्पलनलिणाणं, सुभगसोगंधियाण य । अरविंद-कोंकणाणं, सयवत्त-सहस्सवत्ताणं ॥ बिंटे बाहिरपत्ता य कन्निया चेव एगजीवस्स । अन्भिंतरगा पत्ता पत्तेयं केसरं मिंजा ॥ [प्रज्ञा० ११८७,९०,९१] इति । 25 तथा- लिंबंब जंबु कोसंब साल अंकुल्ल पीलु सल्लू या । सल्लइ मोयइ मालूय बउल पलासे करंजे य ॥ [प्रज्ञा० १३] इत्यादि । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५०-१५२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । सिं मूला वि असंखेज्जजीविया कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि, पत्ता पत्तेयजीविया, पुप्फा अणेगजीविया, फला एगट्टिया [ प्रज्ञापना० १४०] इति । [सू० १५०] जंबूदीवे दीवे भारहे वासे तओ तित्था पन्नत्ता, तंजहा - मागहे, वरदामे, पभासे, एवं एरवए वि । जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्कवट्टिविजये ततो तित्था पन्नत्ता, तंजहा- मागधे, वरदामे, पभासे ३ । एवं 5 धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे वि ३, पच्चत्थिमद्धे वि ३, पुक्खरवरदीवड्ढपुरत्थिमद्धे वि ३, पच्चत्थिमद्धे वि ३ । २०७ [ टी०] अनन्तरं वनस्पतय उक्तास्ते च जलाश्रया बहवो भवन्तीति सम्बन्धाज्जलाश्रयाणां तीर्थानां निरूपणायाह - जंबूदीवेत्यादि पञ्चदशसूत्री साक्षादतिदेशाभ्याम्, सुगमा च, केवलं तीर्थानि चक्रवर्त्तिनः समुद्र- 10 शीतादिमहानद्यवतारलक्षणानि तन्नामकदेवनिवासभूतानि, तत्र भरतैरावतयोस्तानि पूर्वदक्षिणा-ऽपरसमुद्रेषु क्रमेणेति, विजयेषु तु शीता - शीतोदामहानद्योः पूर्वादिक्रमेणैवेति । [सू० १५१] जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीते सुसमाए समाते तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो होत्था १। एवं ओसप्पिणीते, नवरं पण्णत्ते २। आगमेस्साते उस्सप्पिणीते भविस्सति ३ । एवं धायइसंडे 15 पुरत्थिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि ९, एवं पुक्खरवरदीवड्डपुरत्थिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि कालो भाणियव्वो १५ । [टी०] जम्बूद्वीपादौ मनुष्यक्षेत्रे सन्ति तीर्थानि प्ररूपितानि, अधुना तत्रैव सन्तं कालं त्रिस्थानोपयोगिनं सूत्रपञ्चदशकेन साक्षादतिदेशाभ्यां निरूपयन्नाह - जंबुद्दीवेत्यादि सुबोधम्, किन्तु पन्नत्ते त्ति अवसर्पिणीकालस्य वर्त्तमानत्वेनाऽतीतोत्सर्पिणीवत् 'होत्थ' त्ति 20 न व्यपदेशः कार्यः, अपि तु पन्नत्ते त्ति कार्य इत्यर्थः । [सू० १५२] जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए मणुया तिन्नि गाउयाई उड्डउच्चत्तेणं तिन्नि पलिओवमाई परमाउं पालयित्था, एवं इमीसे ओसप्पिणीते, आगमेस्साते उस्सप्पिणी । जंबूदीवे दीवे देवकुरु - उत्तरकुरासु मणुया तिन्नि गाउयाई उड्डुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता, 25 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तिन्नि पलिओवमाइं परमाउं पालयंति, एवं जाव पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे। जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु एगमेगाते ओसप्पिणीउस्सप्पिणीते तओ वंसा उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा, तंजहा-अरहंतवंसे चक्कवट्टिवंसे दसारवंसे, एवं जाव पुक्खरवरदीवट्ठपच्चत्थिमद्धे । 5 जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु एगमेगाते ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीए तओ उत्तमपुरिसा उप्पजिसु वा उप्पज्जति वा उप्पजिस्संति वा, तंजहा-अरहंता चक्कवट्टी बलदेव-वासुदेवा, एवं पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धे । तओ अहाउयं पालयंति, तंजहा-अरहंता चक्कवट्टी बलदेव-वासुदेवा । तओ मज्झिममाउयं पालयंति, तंजहा-अरहंता चक्कवट्टी बलदेव-वासुदेवा । 10 [टी०] जंबूदीवेत्यादिना वासुदेवेत्येतदन्तेन ग्रन्थेन कालधर्मानेवाह, सुगमश्चायम्, किन्तु अहाउयं पालयंति त्ति निरुपक्रमायुष्कत्वात्, मध्यमायुः पालयन्ति वृद्धत्वाभावात्। [सू० १५३] बादरतेउकाइयाणं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई ठिती पन्नत्ता १। बादरवाउकाइयाणं उक्कोसेणं तिन्नि वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता २। 15 [टी०] आयुष्काधिकारादिदं सूत्रद्वयमाह- बादरेत्यादि स्पष्टम् ।। [सू० १५४] अह भंते ! सालीणं वीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एतेसि णं धन्नाणं कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं पिहिताणं केवतितं कालं जोणी संचिट्ठति ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि संवच्छराई, तेण परं जोणी 20 पमिलायति, तेण परं जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदे पन्नत्ते । [टी०] स्थित्यधिकारादेवेदमपरमाह- अहेत्यादि, अह भंते त्ति अथ परिप्रश्नार्थः. भदन्त इति भदन्तः कल्याणस्य सुखस्य च हेतुत्वात् कल्याणः सुखश्चेति, आह च भदि कल्लाणसुहत्थो धाऊ तस्स य भदंतसद्दोऽयं । 25 स भदंतो कल्लाणं सुहो य कल्लं किलारोग्गं ॥ [विशेषाव० ३४३९] इत्यादि । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५४ ] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । अथवा भजते सेवते सिद्धान् सिद्धिमार्गं वा, अथवा भज्यते सेव्यते शिवार्थिभिरिति भजन्तः, आह च अहवा भज सेवाए तस्स भयंतो त्ति सेवए जम्हा । सिवगइणो सिवमग्गं सेव्वो य जओ तदत्थीणं ॥ [ विशेषाव० ३४४६] अथवा भाति दीप्यते भ्राजते वा दीप्यते एव ज्ञान - तपोगुणदीप्त्येति भान्तो भ्राजन्तो 5 वेति, आह च अहवा भा भाजो वा दित्तीए होइ तस्स भंतो त्ति । भाजंतो वाऽऽयरिओ सो णाण - तवोगुणजुईए ॥ [ विशेषाव० ३४४७] ति । अथवा भ्रान्तः अपेतो मिथ्यात्वादेः, तत्रानवस्थित इत्यर्थ:, इति भ्रान्तः । अथवा भगवान् ऐश्वर्ययुक्त इति, आह च अहवा भंतोऽपेओ जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ । अहवेसरियाइ भगो विज्जइ सो तेण भगवंतो ॥ [ विशेषाव० ३४४८ ] इति । भवस्य वा संसारस्य भयस्य वा त्रासस्याऽन्तहेतुत्वात् नाशकारणत्वाद्भवान्त भयान्तो वेति, उक्तं च नेरइया भवस्स व अंतो जं तेण सो भवंतो ति । अहवा भयस्स अंतो होइ भयंतो भयं तासो ॥ [ विशेषाव० ३४४९] त्ति । इह च भदन्तादीनां शब्दानां स्थाने प्राकृतत्वादामन्त्रणार्थं भंते त्ति पदं साधनीयमिति, अतो भंते त्ति महावीरमामन्त्रयन्नुक्तवान् गौतमादिः । शालीनां कलमादिकानामिति विशेषः, व्रीहीणामिति सामान्यम्, यवयवा यवविशेष एव एतेषाम् अभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां कोष्ठे कुशूले आगुप्तानि प्रक्षेपणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषाम्, एवं 20 सर्वत्र, नवरं पल्यं वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः, मञ्चः स्थूणानामुपरि स्थापितवंशकटकादिमयो जनप्रतीतः, मालको गृहस्योपरितनभागः, अभिहितं च २०९ 9 10 अकुडो होड़ मंचो मालो य घरोवरिं होई | ] त्ति । ओलित्ताणं ति द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवलिप्तानाम्, लित्ताणं ति सर्वतः, लंछियाणं ति रेखादिभिः कृतलाञ्छनानाम्, मुद्दियाणं ति मृत्तिकादिमुद्रावताम्, 25 १. परि परिस्थापि जे१ खं० ॥ 15 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पिहियाणं ति स्थगितानाम्, केवतियं ति कियन्तं कालं योनिर्यस्यामङ्कुर उत्पद्यते?, ततः परं योनिः प्रम्लायति वर्णादिना हीयते, प्रविध्वस्यते विध्वंसाभिमुखा भवति, विध्वस्यते क्षीयते, एवं च तद् बीजमबीजं भवति उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयति, किमुक्तं भवति ? ततः परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तो मयाऽन्यैश्च केवलिभिरिति, शेष स्पष्टम्। 5 [सू० १५५] दोच्चाते णं सक्करप्पभाते पुढवीते णेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता १॥ तच्चाते णं वालुयप्पभाते पुढवीते जहन्नेणं णेरइयाणं तिनि सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससतसहस्सा पन्नत्ता १। तिसु णं पुढवीसु नेरइया उसिणवेयणा पन्नत्ता, तंजहा-पढमाते, दोच्चाते, 10 तच्चाते । तिसु णं पुढवीसु णेरतिया उसिणं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहापढमाते, दोच्चाते, तच्चाते ३॥ [टी०] स्थित्यधिकारादेवेदमपरं सूत्रद्वयमाह- दोच्चेत्यादि स्फुटम्, नवरं द्वितीयायां पृथिव्याम्, किंनामिकायामित्याह- शर्कराप्रभायामित्येवं योजनीयम् । सर्वपृथिवीषु 15 चेयं स्थिति: सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा । तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ॥ जा पढमाए जेट्ठा सा बिइयाए कणिट्ठिया भणिया । तरतमजोगो एसो दस वाससहस्स रयणाए ॥ [बृहत्सं० २३३-२३४] इति ॥ 20 नरकपृथिव्यधिकारान्नरक-नारकविशेषस्वरूपप्ररूपणाय सूत्रत्रयमाह- पंचमाए इत्यादि सुबोधम्, केवलम् उसिणवेयण त्ति तिसृणामुष्णस्वभावत्वात् । तिसृषु नारका उष्णवेदना इत्युक्त्वापि यदुच्यते नैरयिका उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति तत्तद्वेदनासातत्यप्रदर्शनार्थम् । [सू० १५६] तओ लोगे समा सपक्खिं सपडिदिसिं पन्नत्ता, तंजहा25 अप्पतिट्ठाणे णरए, जंबूदीवे दीवे, सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे १। तओ लोगे समा सपक्खिं सपडिदिसिं पन्नत्ता, तंजहा-सीमंतए णरए, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ [सू० १५६-१५७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । समयक्खेत्ते, ईसिपब्भारा पुढवी २। [सू० १५७] तओ समुद्दा पगतीते उदगरसेणं पन्नत्ता, तंजहा-कालोदे, पुक्खरोदे, सयंभुरमणे ३॥ __तओ समुद्दा बहुमच्छ-कच्छभाइण्णा पन्नत्ता, तंजहा-लवणे, कालोदे, सयंभुरमणे ४। 5 [टी०] नरकपृथिवीनां क्षेत्रस्वभावानां प्राक् स्वरूपमुक्तम्, अथ क्षेत्राधिकारात् क्षेत्रविशेषस्वरूपस्य त्रिस्थानकावतारिणो निरूपणाय सूत्रचतुष्टयमाह-तओ इत्यादि, त्रीणि लोके समानि तुल्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात्, न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु औत्तराधर्यव्यवस्थिततया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह- सपक्खिमित्यादि, पक्षाणां दक्षिण-वामादिपार्थानां सदृशता समता सपक्षमित्यव्ययीभावः, तेन समपार्श्वतया 10 समानीत्यर्थः, इकारस्तु प्राकृतत्वात्, तथा प्रतिदिशां विदिशां सदृशता सप्रतिदिक् तेन, समप्रतिदिक्तयेत्यर्थः, अप्रतिष्ठान: सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा जम्बूद्वीप: सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थसिद्धं विमानं पञ्चानामनुत्तराणां मध्यममिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे नरकेन्द्रकः पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षाणि, समय: कालः तत्सत्तोपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद् अल्पो 15 योजनाष्टकबाहल्यपञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भारः पुद्गलनिचयो यस्याः सेषत्प्राग्भाराऽष्ट मपृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्या महाप्राग्भाराः, अशीत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षबाहल्यत्वात्, तथाहि पढमाऽसीइसहस्सा बत्तीसा अट्ठवीस वीसा य ।। अट्ठार सोलस य अट्ठ सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥ [बृहत्सं० २४१] इति । विष्कम्भस्तु तासां क्रमेणैकाद्याः सप्तान्ता रज्जव इति । अथवेषत्प्राग्भारा मनागवनतत्वादिति । प्रकृत्या स्वभावेनोदकरसेन युक्ता इति, क्रमेण चैते द्वितीय-तृतीया-ऽन्तिमाः। प्रथम-द्वितीया-ऽन्तिमाः समुद्रा बहुजलचराः, अन्ये त्वल्पजलचरा इति, उक्तं च१. प्राग्रूपमुक्त जे१,२, पा० ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे लवणे उदगरसेसु य महोरया मच्छ-कच्छहा भणिया । अप्पा सेसेसु भवे न य ते णिम्मच्छया भणिया ॥ [ ] अन्यच्चलवणे कालसमुद्दे सयंभुरमणे य होंति मच्छा उ । अवसेससमुद्देसुं न हुति मच्छा न मयरा वा ॥ 5. नत्थि त्ति पउरभावं पडुच्च न उ सव्वमच्छपडिसेहो । अप्पा सेसेसु भवे न य ते निम्मच्छया भणिया ॥ [बृहत्सं० ९०-९१] इति । [सू० १५८] तओ लोगे णिस्सीला णिव्वता निग्गुणा निम्मेरा णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववजंति, तंजहा-रायाणो, मंडलिया, जे य 10 महारंभा कोडंबी । तओ लोए ससीला सव्वता सगुणा समेरा सपच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तंजहा-रायाणो परिचत्तकामभोगा, सेणावती, पसत्थारो । [टी०] क्षेत्राधिकारादेवाप्रतिष्ठाने नरकक्षेत्रे ये उत्पद्यन्ते तानाह- तओ इत्यादि, 15 निःशीला निर्गतशुभस्वभावाः, दुःशीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपञ्च्यते- निर्वता: अविरताः प्राणातिपातादिभ्यः, निर्गुणा उत्तरगुणाभावात्, निम्मेर त्ति निर्मर्यादा: प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यानं च नमस्कारसहितादि, पौषधः पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवास: अभक्तार्थकरणं स च, तौ निर्गतौ येषां ते निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासा: कालमासे मरणमासे कालं मरणमिति । णेरइयत्ताए 20 त्ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थम्, तत्र टेकेन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानः चक्रवर्ति-वासुदेवाः, माण्डलिकाः शेषा राजानः, ये च महारम्भाः पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेषं कण्ठ्यम् । __ अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उत्पद्यन्ते तानाह- तओ इत्यादि १. तुलना- “कति णं भंते ! समुद्दा बहुमच्छ-कच्छभाइण्णा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुद्दा पन्नत्ता, तंजहालवणे कालोए सयंभुरमणे । अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छ-कच्छभाइण्णा नोच्चेव णं णिम्मच्छ-कच्छभा पण्णत्ता समणाउसो ।" - जीवाजीवाभि० ३।३०३ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५९-१६०] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । सुगमम्, केवलं राजानः प्रतीताः परित्यक्तकामभोगाः सर्व्वविरताः, एतच्चोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीयम्, सेनापतयः सैन्यनायकाः, प्रशास्तारो लेखाचार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठकाः इति क्वचित् । [सू० १५९ ] बंभलोग - लंतएसु णं कप्पेसु विमाणा तिवण्णा पन्नत्ता, तंजहा - किण्हा, नीला, लोहिता २१३ आणय-पाणया-ऽऽरण - ऽच्चुतेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं तिणि रयणीओ उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता । [टी०] अनन्तरोक्तसर्वार्थसिद्धविमानसाधर्म्याद्विमानान्तरनिरूपणायाह- बंभेत्यादि, इह च किण्हा नीला लोहिय त्ति पुस्तकेष्वेवं त्रैविध्यं दृश्यते, स्थानान्तरे च लोहितपीत - शुक्लत्वेनेति, यत उक्तम् सोहम्मे पंचवन्ना एक्कगहाणी य जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥ [ बृहत्सं० १३२] ति । अनन्तरं विमानान्युक्तानि तानि च देवशरीराश्रया इति देवशरीरमानं त्रिस्थानकानुपात्याह– आणयेत्यादि, भवं जन्मापि यावद्धार्यन्ते भवं वा देवगतिलक्षणं धारयन्तीति भवधारणीयानि तानि च तानि शरीराणि चेति भवधारणीयशरीराणीति, उत्तरवैक्रियव्यवच्छेदार्थं चेदम्, तस्य लक्षप्रमाणत्वात्, उक्कोसेणं ति उत्कर्षेण, न तु जघन्यत्वादिना, जघन्येन तस्योत्पत्तिसमयेऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रत्वादिति शेषं कण्ठ्यमिति । [सू० १६०] तओ पन्नत्तीओ कालेणं अधिजंति, तंजहा - चंदपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती । || तिट्ठाणस्स पढमओ उद्देसओ समत्तो ॥ [टी०] अनन्तरं देवशरीराश्रयवक्तव्यतोक्ता, तत्प्रतिबद्धाश्च प्रायस्त्रयो ग्रन्था इति तत्स्वरूपाभिधानायाह- तओ इत्यादि, कालेन प्रथम- पश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेतुभूतेनाऽधीयन्ते, व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति, शेषं स्पष्टम् । ॥ इति त्रिस्थानकस्य प्रथम उद्देशको विवरणतः समाप्तः || " १. " सेणावई पसत्थारं रायाणं देवयाणं च || [ आव० नि० ११०५] प्रशास्तारं प्रकर्षेण शास्ता प्रशास्ता, तं धर्मपाठकादिलक्षणम् " - आवश्यकसूत्रस्य द्वितीयेऽध्ययने हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ 5 10 15 20 25 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ [अथ द्वितीय उद्देशकः] [सू० १६१] तिविहे लोगे पन्नत्ते, तंजहा-णामलोगे, ठवणालोगे, दव्वलोगे। तिविधे लोगे पन्नत्ते, तंजहा-णाणलोगे, दंसणलोगे, चरित्तलोगे । तिविधे लोगे पन्नत्ते, तंजहा-उड्ढलोगे, अहोलोगे, तिरियलोगे । 5 [टी०] व्याख्यातः प्रथम उद्देशकः, तदनन्तरं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः- प्रथमोद्देशके जीवधर्माः प्राय उक्ताः, इहापि प्रायस्त एवेतीत्थंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- तिविहे इत्यादि । अस्य चायमभिसम्बन्धःअनन्तरसूत्रेण चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिग्रन्थस्वरूपमुक्तमिह तु चन्द्रादीनामेवार्थानामाधारभूतस्य लोकस्य स्वरूपमभिधीयत इत्येवंसम्बन्धवतोऽस्य सूत्रस्य व्याख्या- लोक्यते अवलोक्यते 10 केवलालोकेनेति लोकः, नाम-स्थापने इन्द्रसूत्रवत्, द्रव्यलोकोऽपि तथैव, नवरं ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि जीवाजीवरूपाणि रूप्यरूपीणि सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः, उक्तं च जीवमजीवे रूवमरूवी सपएस अप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोयं णिच्चमणिच्चं च जं दव्वं ॥ [आव०भा० १९५] ति । 15 भावलोकं त्रिधाऽऽह-तिविहे इत्यादि, भावलोको द्विविधः- आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगः तदुपयोगानन्यत्वात् पुरुषो वा, नोआगमतस्तु सूत्रोक्तो ज्ञानादिः, नोशब्दस्य मिश्रवचनत्वाद्, इदं हि त्रयं प्रत्येकमितरेतरसव्यपेक्षं नागम एव केवलो नाप्यनागम इति, तत्र ज्ञानं चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य क्षायिक-क्षायोपशमिकभावरूपत्वात्, क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वाद्, 20 उक्तं च ओदइय उवसमिए य खइए य तहा खओवसमिए य । परिणाम सन्निवाए य छव्विहो भावलोगो उ ॥ [आव०भा० २००] त्ति । एवं दर्शन-चारित्रलोकावपीति । अथ क्षेत्रलोकं त्रिधाऽऽह-तिविहे इत्यादि, इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे 25 मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रतरस्योपरिष्टान्नव योजनशतानि १. द्धस्या जे१,२, ।। २. केवलावलोके° पा० जे२ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । यावज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकः, ततः परत ऊर्ध्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः, रुचकस्याधस्तनप्रतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोकोर्ध्वलोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति, प्रकारान्तरेण चायं गाथाभिर्व्याख्यायते [सू० १६२] अहवा अहपरिणामो खेत्तणुभावेण जेण ओसन्नं । अहो अहो त्ति भणिओ दव्वाणं तेणऽहोलोगो ॥ | १ || उ उवरिं जं ठिय सुहखेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा । उप्पज्जति सुभा वा तेण तओ उड्डलोगो त्ति ॥२॥ मज्झणुभावं खेत्तं जं तं तिरियं ति वयणपज्जवओ । २१५ 5 tors तिरिय विसालं अओ य तं तिरियलोगो ति ॥ ३॥ [ 1 [सू० १६२] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो ततो परिसातो पन्नत्ताओ, तंजहा - समिता, चंडा, जाया । अब्भिंतरिता समिता, मज्झिमिता चंडा, बाहिरिता जाया । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सामाणियाणं देवाणं ततो परिसातो पन्नत्ताओ, तंजहा - समिता जहेव चमरस्स, एवं 15 तायत्तीसगाण वि । लोगपालाणं तुंबा, तुडिया, पव्वा, एवं अग्गमहिसीण वि । बलिस व एवं चेव जाव अग्गमहिसीणं । जाता, धरणस्स य सामाणिय- तायत्तीसगाणं च समिता, चंडा, लोगपालग्गमहिसीणं ईसा, तुडिया, दढरधा, जहा धरणस्स तहा सेसाणं भवणवासीणं । कालस्स णं पिसाइंदस्स पिसायरण्णो तओ परिसाओ पन्नत्ताओ, तंजहाईसा, तुडिया, दढरधा, एवं सामाणियअग्गमहिसीणं, एवं जाव गीयरतिगीयजसाणं । चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो ततो परिसातो पन्नत्ताओ, तंजहातुंबा, तुडिया, पव्वा । एवं सामाणियअग्गमहिसीणं । एवं सूरस्स वि । 25 सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरन्नो ततो परिसातो पन्नत्ताओ, तंजहा - समिता, 10 20 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चंडा, जाया । जहा चमरस्स एवं जाव अग्गमहिसीणं । एवं जाव अच्चुतस्स लोगपालाणं । [टी०] लोकस्वरूपनिरूपणानन्तरं तदाधेयानां चमरादीनां चमरस्सेत्यादिना अच्चुयलोगवालाणमित्येतदन्तेन ग्रन्थेन पर्षदो निरूपयति, सुगमश्चायम्, नवरम् 5 असुरिंदस्सेत्यादौ इन्द्र ऐश्वर्ययोगात् राजा तु राजनादिति, परिषत् परिवारः, सा च त्रिधा प्रत्यासत्तिभेदेन, तत्र ये परिवारभूता देवा देव्यश्चातिगौरव्यत्वात् प्रयोजनेष्वाहूता एवागच्छन्ति साभ्यन्तरा परिषत्, ये त्वाहूता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा, ये त्वनाहूता अप्यागच्छन्ति सा बाह्येति, तथा यया सह प्रयोजनं पर्यालोचयति साऽऽद्या, यया तु तदेव पर्यालोचितं सत् प्रपञ्चयति सा द्वितीया, यस्यास्तु तत् प्रवर्णयति 10 साऽन्त्येति। _ [सू० १६३] ततो जामा पन्नत्ता, तंजहा-पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । तिहिं जामेहिं आता केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणताते, तंजहापढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । एवं जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे । 15 ततो वया पन्नत्ता, तंजहा-पढमे वते, मज्झिमे वते, पच्छिमे वते । तिहिं वतेहिं आता केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तंजहा-पढमे वते, मज्झिमे वते, पच्छिमे वते, एसो चेव गमो णेयव्वो जाव केवलनाणं ति। [टी०] अनन्तरं परिषदुत्पन्नदेवाः प्ररूपिताः, देवत्वं च कुतोऽपि धर्मात्, तत्प्रतिपत्तिश्च कालविशेषे भवतीति कालविशेषनिरूपणपूर्वं तत्रैव धर्मविशेषाणां प्रतिपत्तीराह- तओ 20 जामेत्यादि स्पष्टम्, केवलं यामो रात्रेर्दिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथाऽपीह त्रिभाग एव विवक्षितः पूर्वरात्र-मध्यरात्रा-ऽपररात्रलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिस्त्रियामेत्युच्यते, एवं दिनस्यापि, अथवा चतुर्थभाग एव सः, किन्त्विह चतुर्थो न विवक्षितः, त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि त्रयो यामा इत्यभिहितम्, एवं जाव त्ति करणादिदं दृश्यम् 'केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, केवलं 25 बंभचेरवासमावसेज्जा, एवं संजमेणं संजमेज्जा, संवरेणं संवरेज्जा, आभिणिबोहियनाणं Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ [सू० १६४-१६५] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः ।। उप्पाडेज्जा' इत्यादि। यथा कालविशेषे धर्मप्रतिपत्तिरेवं वयोविशेषेऽपीति तन्निरूपणतस्तत्र धर्मविशेषप्रतिपत्तीराह- तओ वयेत्यादि स्फुटम्, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते, तत् त्रिधा बाल-मध्यम-वृद्धत्वभेदादिति, वयोलक्षणं चेदम् आ षोडशाद्भवेद्बालो यावत् क्षीरान्नवर्त्तकः । मध्यम: सप्ततिं यावत् परतो वृद्ध उच्यते ॥ [ ] शेषं प्राग्वत् । [सू० १६४] तिविधा बोधी पन्नत्ता, तंजहा-णाणबोधी, दंसणबोधी, चरित्तबोधी १। तिविहा बुद्धा पन्नत्ता, तंजहा-णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा २। एवं मोहे ३ मूढा ४॥ [टी०] उक्तानेव धर्मविशेषांत्रिधा बोधिशब्दाभिधेयान् १ बोधिमतो २ बोधिविपक्षभूतं मोहं ३ तद्वतश्च ४ सूत्रचतुष्टयेनाह- तिविहेत्यादि सुबोधम्, किन्तु बोधिः सम्यग्बोधः, 10 इह च चारित्रं बोधिफलत्वात् बोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद्वा । बोधिविशिष्टाः पुरुषास्त्रिधा ज्ञानबुद्धादय इति, एवं मोहे मूढ त्ति बोधिवद् बुद्धवच्च मोहो मूढाश्च त्रिविधा वाच्याः, तथाहि- ‘तिविहे मोहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणमोहे' इत्यादि, 'तिविहा मूढा पन्नत्ता, तंजहा-णाणमूढे' त्यादि । [सू० १६५] तिविहा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोग- 15 पडिबद्धा, दुहतो पडिबद्धा १। तिविहा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-पुरतो पडिबद्धा, मग्गतो पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा २॥ तिविधा पव्वज्जा पन्नत्ता, तंजहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता ३॥ तिविहा पव्वज्जा पन्नत्ता, तंजहा-ओवातपव्वज्जा, अक्खातपव्वज्जा, 20 संगारपव्वजा ४। [टी०] चारित्रबुद्धाः प्रागभिहिताः, ते च प्रव्रज्यायां सत्याम्, अतस्तां भेदतो निरूपयन्नाह- तिविहेत्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमम्, केवलं प्रव्रजनं गमनं पापाच्चरणव्यापारेष्विति प्रव्रज्या, एतच्च चरणयोगगमनं मोक्षगमनमेव, कारणे कार्योपचारात्, तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इत्यादिवदिति, उक्तं च 25 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पव्वयणं पव्वज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु ।। इय मोक्खं पइ गमणं कारण कज्जोवयाराओ ॥ [पञ्चव० ५] इति । इहलोकप्रतिबद्धा ऐहलौकिकभोजनादिकार्यार्थिनाम्, परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाद्यर्थिनाम्, द्विधाप्रतिबद्धा इहलोक-परलोकप्रतिबद्धा सा चोभयार्थिनामिति, पुरतः अग्रतः प्रतिबद्धा प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शिष्यादिष्वाशंसनतः प्रतिबन्धात्, मार्गत: पृष्ठतः स्वजनादिषु स्नेहाच्छेदात्, तृतीया द्विधाऽपीति । तुयावइत्त त्ति तुद व्यथने [पा०धा० १२८२] इति वचनात् तोदयित्वा तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते, पुयावइत्त त्ति, प्लुङ् गतौ [पा०धा० ९५८] इति वचनात् प्लावयित्वा अन्यत्र नीत्वा आर्यरक्षितवद् या दीयते 10 सा तथेति, बुयावइत्ता संभाष्य गौतमेन कर्षकवदिति । अवपातः सेवा सद्गुरूणाम्, ततो या सा अवपातप्रव्रज्या, तथा आख्यातेन धर्मदेशनेन आख्यातस्य वा प्रव्रजेत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽऽख्यातप्रव्रज्या फल्गुरक्षितस्येवेति, संगार त्ति सङ्केतः, तस्माद् या सा सङ्गारप्रव्रज्या मेतार्यादीनामिवेति, अथवा यदि त्वं प्रव्रजसि तदा मया प्रव्रजितव्यमित्येवं या सा यथा । 15 [सू० १६६] तओ णियंठा णोसण्णोवउत्ता पन्नत्ता, तंजहा-पुलाए, णियंठे, सिणाते ११ ततो णियंठा सन्न-णोसण्णोवउत्ता पन्नत्ता, तंजहा-बउसे, पडिसेवणाकुसीले, कसायकुसीले २॥ [टी०] उक्तप्रव्रज्यावन्तो निर्ग्रन्था भवन्तीति निर्ग्रन्थस्वरूपं सूत्रद्वयेनाह- तओ इत्यादि, निर्गता ग्रन्थात् सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः संयताः, नो नैव संज्ञायाम् 20 आहाराद्यभिलाषरूपायां पूर्वानुभूतस्मरणा-ऽनागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसंज्ञोपयुक्ताः, तत्र पुलाको लब्ध्युपजीवनादिना संयमासारताकारको वक्ष्यमाणलक्षणः, निर्ग्रन्थः उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वेति, स्नातको घातिकर्ममलक्षालनावाप्तशुद्धज्ञानस्वरूपः । तथा त्रय एव संज्ञोपयुक्ता नोसंज्ञोपयुक्ताश्चेति सङ्कीर्णस्वरूपाः, तथास्वरूपत्वात्, _25 तथा चाह- सन्न-नोसण्णोवउत्त त्ति, संज्ञा च आहारादिविषया नोसंज्ञा च Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ [सू० १६७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । तदभावलक्षणा संज्ञानोसंज्ञे, तयोरुपयुक्ता इति विग्रहः, पूर्वहस्वता प्राकृतत्वादिति, तत्र बकुशः शरीरोपकरणविभूषादिना शबलचारित्रपटः, प्रतिषेवणया मूलगुणादिविषयया कुत्सितं शीलं यस्य स तथा, एवं कषायकुशील इति ।। [सू० १६७] तओ सेहभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहन्ना। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहन्ना सत्तरातिदिया । 5 ततो थेरभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-जातिथेरे, सुतथेरे, परियायथेरे। सट्ठिवासजाए समणे णिग्गंथे जातिथेरे, ठाण-समवायधरे णं समणे णिग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए णं समणे णिग्गंथे परियायथेरे । [टी०] निर्ग्रन्थाश्चारोपितव्रताः केचिद् भवन्तीति व्रतारोपणकालविशेषानाह- तओ सेहेत्यादि सुगमम्, किन्तु सेह त्ति षिधू संराद्धौ [पा०धा० ११९२] इति वचनात् सेध्यते 10 निष्पाद्यते यः स सेधः, शिक्षां वाऽधीत इति शैक्षः, तस्य भूमिका महाव्रतानारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति सेधभूमयः शैक्षभूमयो वेति, अयमभिप्रायः-उत्कृष्टतः षड्भिर्मासैरुत्थाप्यते न तानतिक्राम्यते, जघन्यतः सप्तभिरेव रात्रिन्दिवैर्गृहीतशिक्षत्वादिति, उक्तं च सेहस्स तिन्नि भूमी जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राइंदि सत्त चउमासिगा य छम्मासिआ चेव ॥ [व्यव० १०।४६०४] इति । आसु चायं व्यवहारोक्तो विभाग:पुव्वोवट्ठपुराणे करणजयट्ठा जहन्निया भूमी । उक्कोसा दुम्मेहं पडुच्च अस्सद्दहाणं च ॥ एमेव य मज्झिमगा अणहिज्जते असद्दहते य । भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठा य मज्झिमगा ॥ [व्यव० १०।४६०५-६] इति ॥ शैक्षस्य च विपर्यस्तः स्थविरो भवतीति तद्भूमिनिरूपणायाह- तओ थेर इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं स्थविरो वृद्धः, तस्य भूमय: पदव्यः स्थविरभूमय इति, जाति: जन्म, श्रुतम् आगमः, पर्याय: प्रव्रज्या, तैः स्थविरा वृद्धा ये ते तथोक्ता इति, इह च भूमिका-भूमिकावतोरभेदादेवमुपन्यासः, अन्यथा भूमिका उद्दिष्टा इति ता एव 25 १. भूमयो महाव्रता पा० जे२ ।। २. महाव्रतारोपण' जे१ ॥ ३. क्रम्यते जे१ ॥ ४. थेरेत्यादि जे२ ॥ 15 20 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वाच्याः स्युरिति, एतेषां च त्रयाणां क्रमेणानुकम्पा-पूजा-वन्दनानि विधेयानि, यत उक्तं व्यवहारे आहारे उवही सेज्जा, संथारे खेत्तसंकमे । किइच्छंदाणुवत्तीहि अणुकंपइ थेरगं ॥ उट्ठाणासणदाणाई जोगाहारप्पसंसणा । नीयसेज्जाइ निद्देसवत्तित्ते पूयए सुयं । उट्ठाणं वंदणं चेव गहणं दंडगस्स य । अगुरुणो वि य निद्देसे तइयाए पवत्तए ॥ [व्यव० १०।४५९९-४६००-१] त्ति । [सू० १६८] ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सुमणे, दुम्मणे, णोसुमणे 10 णोदुम्मणे । ___ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गंता णामेगे सुमणे भवति, गंता णामेगे दुम्मणे भवति, गंता णामेगे जोसुमणे णोदुम्मणे भवति । __ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जामीतेगे सुमणे भवति, जामीतेगे दुम्मणे भवति, जामीतेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति । एवं जाइस्सामीतेगे सुमणे ___ 15 भवति । ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अगंता णामेगे सुमणे भवति । ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-ण जामि एगे सुमणे भवति । ततो पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-ण जाइस्सामि एगे सुमणे भवति । एवं आगंता णामेगे सुमणे भवति ३, एमीतेगे सुमणे भवति ३, एस्सामीति ____ 20 एगे सुमणे भवति ३। एवं एतेणं अभिलावेणं - गंता य अगंता य, आगंता खलु तधा अणागंता । चिट्ठित्तमचिट्ठित्ता, णिसितित्ता चेव नो चेव ॥८॥ हंता य अहंता य, छिदित्ता खलु तहा अछिंदित्ता । बुतित्ता अबुतित्ता, भासित्ता चेव णो चेव ॥९॥ १. अगुरुणोरविय जे१ खं० पा० ॥ २. 'जाइस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, जाइस्सामीतेगे णोसुमणे णोदुम्मणे भवति' इत्येवं यथायोगं त्रीणि त्रीणि पदानि '३' इत्यनेन बोध्यानि अत्र सत्रे ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ [सू० १६८] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः ।। दच्चा य अदच्चा य, भुंजित्ता खलु तधा अभुंजित्ता । लभित्ता अलभित्ता य, पिवइत्ता चेव नो चेव ॥१०॥ सुतित्ता असुतित्ता य, जुज्झित्ता खलु तधा अजुज्झित्ता । जइत्ता अजइत्ता य, पराजिणित्ता चेव नो चेव ॥११॥ सदा रूवा गंधा, रसा य फासा तहेव ठाणा य । निस्सीलस्स गरहिता पसत्था पुण सीलवंतस्स ॥१२॥ एवमेक्कक्के तिन्नि तिन्नि उ आलावगा भाणितव्वा । सदं सुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति ३, एवं सुणेमीति ३, सुणेस्सामीति ३। एवं असुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति ३, न सुणेमीति ३, ण सुस्सामीति ३। 10 एवं रूवाई गंधाइं रसाइं फासाइं, एक्कक्के छ छ आलावगा भाणियव्वा। [टी०] स्थविरा इति पुरुषप्रकारा उक्ताः, तदधिकारात् पुरुषप्रकारानेवाह- तओ पुरिसेत्यादि । पुरुषजातानि पुरुषप्रकाराः, सुष्ठ मनो यस्यासौ सुमनाः हर्षवान्, रक्त इत्यर्थः, एवं दुर्मना दैन्यादिमान्, द्विष्ट इत्यर्थः, नोसुमना नोदुर्मना: मध्यस्थः, सामायिकवानित्यर्थः । 15 ___सामान्यतः पुरुषप्रकारा उक्ताः, एतानेव विशेषतो गत्यादिक्रियापेक्षया तओ इत्यादिभिः सूत्रैराह, तत्र गत्वा यात्वा क्वचिद्विहारक्षेत्रादौ नामेति सम्भावनायामेकः कश्चित् सुमना भवति हृष्यति, तथैवान्यो दुर्मना: शोचति, अन्यः सम एवेति । अतीतकालसूत्रमिव वर्तमान-भविष्यत्कालसूत्रे, नवरं जामीतेगे इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थः । एवमगंतेत्यादिप्रतिषेधसूत्राणि आगमनसूत्राणि च सुगमानि, एवम् 20 एतेनानन्तरोक्तेनाभिलापेन शेषसूत्राण्यपि वक्तव्यानि । अथोक्तान्यनुक्तानि च सूत्राणि संगृह्णन् गाथापञ्चकमाह- गंतेत्यादि, गंता अगंता आगन्तेत्युक्तम्, अणागंत त्ति 'अणागंता नामेगे सुमणे भवइ, अणागंता नामेगे दुम्मणे भवइ, अणागंता नामेगे नोसुमणे नोदुम्मणे भवइ ३, एवं न आगच्छामीति ३, एवं न आगमिस्सामीति ३', चिट्ठित्त त्ति स्थित्वा उर्ध्वस्थानेन सुमना दुर्माना अनुभयं च भवति, ‘एवं चिट्ठामीति, 25 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चिट्ठिस्सामीति'। अचिट्टित्ता इहापि कालतः सूत्रत्रयम्, एवं सर्वत्र, नवरं निषद्य उपविश्य ३, नो चेव त्ति अनिषद्य अनुपविश्य ३, हत्वा विनाश्य किञ्चित् ३, अहत्वा अविनाश्य ३, छित्त्वा द्विधा कृत्वा ३, अच्छित्त्वा प्रतीतम् ३, वुइत्त त्ति उक्त्वा भणित्वा पद-वाक्यादिकम् ३, अवुइत्त त्ति अनुक्त्वा ३, भासित्त त्ति भाषित्वा संभाष्य 5 कञ्चन सम्भाषणीयम् ३, नो चेव त्ति अभासित्ता असंभाष्य कञ्चन ३, दच्च त्ति दत्त्वा ३, अदत्त्वा ३, भुक्त्वा ३, अभुक्त्वा ३, लब्ध्वा ३, अलब्ध्वा ३, पीत्वा ३, नो चेव त्ति अपीत्वा ३, सुप्त्वा ३, असुप्त्वा ३, युद्ध्वा ३, अयुद्ध्वा ३, जइत्त त्ति जित्वा परम् ३, अजित्वा परमेव ३, पराजिणित्ता भृशं जित्वा ३ परिभङ्गं वा प्राप्य सुमना भवति, वर्द्धनकभाविमहावित्तव्ययविनिर्मुक्तत्वात्, पराजितात् प्रतिवादिनः 10 सम्भावितानर्थविनिर्मुक्तत्वाद्वा, नो चेव त्ति अपराजित्य ३ । सद्देत्यादि गाथा सूत्रत एव बोद्धव्या, प्रपञ्चितत्वात् तत्रैवास्या इति । एवमेक्के त्यादि, एवमिति गत्वादिसूत्रोक्तक्रमेण एकैकस्मिन् शब्दादौ विषये विधि-प्रतिषेधाभ्यां प्रत्येकं त्रयस्त्रय आलापका: सूत्राणि कालविशेषाश्रयाः सुमनाः दुर्मना नोसुमना नोदुर्मना इत्येतत्पदत्रयवन्तो भणितव्याः, एतदेव दर्शयन्नाह- सद्दमित्यादि भावितार्थम्, एवं 15 रूवाइं गंधाइं त्यादि, यथा शब्दे विधि-निषेधाम्यां त्रयस्त्रय आलापका भणिता एवं 'रूवाइं पासित्ते'त्यादयः त्रयस्त्रय एव दर्शनीयाः, एवं च यद्भवति तदाह- एक्केक्केत्यादि, एकैकस्मिन् विषये षडालापका भणितव्या भवन्तीति, तत्र शब्दे दर्शिता एव, रूपादिषु पुनरेवम्- रूपाणि दृष्ट्वा सुमना दुर्मना अनुभयम् १, एवं पश्यामीति २, एवं द्रक्ष्यामीति ३, एवम् अदृष्ट्वा ४, न पश्यामीति ५, न द्रक्ष्यामीति ६ षट्, एवं गन्धान् घ्रात्वा 20 ६ रसानास्वाद्य ६ स्पर्शान् स्पृष्ट्वेति ६ । [सू० १६९] ततो ठाणा णिस्सीलस्स निव्वयस्स णिग्गुणस्स णिम्मेरस्स णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तंजहा-अस्सिं लोगे गरहिते भवति, उववाते गरहिते भवति, आयाती गरहिता भवति । ततो ठाणा ससीलस्स सव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स १. 'मेकेत्यादि जे१ खं० ॥ २. गंधाईत्यादि जे१ खं० । गंधाइत्यादि जे२ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १६९-१७०] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । २२३ सपच्चक्खाणपोसहोववासस्स पसत्था भवंति, तजंहा-अस्सिं लोगे पसत्थे भवति, उववाते पसत्थे भवति, आयाती पसत्था भवति । [टी०] तहेव ठाणा य त्ति यत् सङ्ग्रहगाथायामुक्तं तद् भावयन्नाह- तओ ठाणेत्यादि, त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य सामान्येन शुभस्वभाववर्जितस्य, विशेषतः पुनः निव्रतस्य प्राणातिपाताद्यनिवृत्तस्य, निर्गुणस्योत्तरगुणापेक्षया, निर्मर्यादस्य लोक- 5 कुलाद्यपेक्षया, निष्प्रत्याख्यान-पौषधोपवासस्य पौरुष्यादिनियम-पर्वोपवासरहितस्य, गर्हितानि जुगुप्सितानि भवन्ति, तद्यथा-अस्सिं ति विभक्तिपरिणामादयं लोकः इदं जन्म गर्हितो भवति, पापप्रवृत्त्या विद्वज्जनजुगुप्सितत्वात्, तथा उपपात: अकामनिर्जरादिजनितः किल्बिषिकादिदेवभवो नारकभवो वा, उपपातो देव-नारकाणाम् तत्त्वार्थ० २/३५] इति वचनात्, स गर्हितो भवति किल्बिषिका-ऽऽभियोग्यादिरूपतयेति, 10 आजाति: तस्माच्च्युतस्योवृत्तस्य वा कुमानुषत्व-तिर्यक्त्वरूपा गर्हिता, कुमानुषादित्वादेवेति । उक्तविपर्ययमाह- तओ इत्यादि निगदसिद्धम् । [सू० १७०] तिविधा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। तिविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मद्दिट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी, 15 सम्मामिच्छद्दिट्ठी। अहवा तिविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तगा, अपजत्तगा, णोपज्जत्तगा णोअपज्जत्तगा । एवं सम्मद्दिट्ठि परित्ता, पज्जत्तगा सुहुम सनि भविया य । एतानि च गर्हित-प्रशस्तस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति संसारिजीवनिरूपणायाह- 20 तिविहेत्यादि सूत्रसिद्धम् । जीवाधिकारात् सर्वजीवांस्त्रिस्थानकावतारेण षड्भिः सूत्रैराह- तिविहेत्यादि सुबोधम, नवरं नोपज्जत्त त्ति नोपर्याप्तका नोअपर्याप्तकाः सिद्धाः । एवमिति पूर्वक्रमेण सम्मद्दिट्टीत्यादिगाथार्द्धमुक्तानुक्तसूत्रसङ्ग्रहार्थमिति। 'तिविहा सव्वजीवा पं० तं० परित्ता १. 'नारक-देवानामुपपातः' इति तत्त्वार्थसूत्रे २।३५ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे १ अपरित्ता २ नोपरित्ता नोअपरित्ता ३' । तत्र परीत्ताः प्रत्येकशरीराः, अपरीत्ताः साधारणशरीराः, परीत्तशब्दस्य छन्दोऽर्थं व्यत्यय इति, सुहुम त्ति ‘तिविहा सव्वजीवा पं० तं०-सुहुमा बायरा नोसुहुमा नोबायरा', एवं संज्ञिनो भव्याश्च भावनीयाः, सर्वत्र च तृतीयपदे सिद्धा वाच्या इति । 5 [सू० १७१] तिविधा लोगट्ठिती पन्नत्ता, तंजहा-आगासपतिट्ठिते वाते, वातपतिट्ठिए उदही, उदहिपतिट्टिता पुढवी । । तओ दिसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-उड्ढा, अहा, तिरिया १। तिहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, तंजहा-उडाते, अहाते, तिरियाते २। एवं आगती ३, वक्कंती ४, आहारे ५, वुड्डी ६, णिवुड्डी ७, गतिपरियाते ८, समुग्घाते ९, 10 कालसंजोगे १०, दंसणाभिगमे ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३॥ तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पन्नत्ते, तंजहा-उड्डाते अहाते तिरियाते १४। एवं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साण वि । [टी०] सर्व एव चैते लोके व्यवस्थिता इति लोकस्थितिनिरूपणायाह-तिविहेत्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु लोकस्थिति: लोकव्यवस्था, आकाशं व्योम, तत्र प्रतिष्ठितो 15 व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितो वातो घनवात- तनुवातलक्षण: सर्वद्रव्याणामाकाशप्रतिष्ठितत्वात्, उदधिः घनोदधिः, पृथिवी तमस्तमःप्रभादिकेति । ___ उक्तस्थितिके च लोके जीवानां दिशोऽधिकृत्य गत्यादि भवतीति दिग्निरूपणपूर्वकं तासु गत्यादि निरूपयन् तओ दिसेत्यादि सूत्राणि चतुर्दशाह, सुगमानि च, नवरं दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्त्वनयेति दिक्, सा च नामादिभेदेन सप्तधा, आह च नामं १ ठवणा २ दविए ३ खेत्तदिसा ४ तावखेत्त ५ पन्नवए ६। सत्तमिया भावदिसा ७ सा होअट्ठारसविहा उ ॥ [आव०नि० ८०९] तत्र द्रव्यस्य पुद्गलस्कन्धादेर्दिक द्रव्यदिक्, क्षेत्रस्य आकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक्, सा चैवम् अट्ठपएसो रुयगो तिरियंलोयस्स मज्झयारम्मि । ___25 एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ [आचाराङ्गनि० ४२] तत्र पूर्वाद्या महादिशश्चतम्रोऽपि द्विप्रदेशादिका व्युत्तराः, अनुदिशस्तु एकप्रदेशा 20 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ 10 [सू० १७१] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । अनुत्तराः, ऊर्ध्वाधोदिशौ तु चतुरादी अनुत्तरे, यतोऽवाचि दुपएसादि दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव ।। चउरो ४ चउरो य दिसा चउरादि अणुत्तरा दुन्नि २ ॥१॥ सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावली उ चउरो दो चेव य हुति रुयगनिभा ॥२॥ [आचाराङ्गनि० ४४,४६] 5 नामानि चासाम्इंद १ ग्गेयी २ जम्मा य ३ नेरई ४ वारुणी य ५ वायव्वा ६ । सोमा ७ ईसाणा वि य ८ विमला य ९ तमा १० य बोद्धव्वा ॥ [आचाराङ्गनि० ४३] तापः सविता, तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक्, सा च अनियता, यत उक्तम्जेसिं जत्तो सूरो उदेइ तेसिं तई हवइ पुव्वा । तावक्खेत्तदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सिं ॥ [विशेषाव० २७०१] तथा प्रज्ञापकस्य आचार्यादेर्दिक् प्रज्ञापकदिक्, सा चैवम्पन्नवओ जयभिमुहो सा पुव्वा सेसिया पयाहिणओ। तस्सेवऽणुगंतव्वा अग्गेयाई दिसा नियमा ॥ [ ] भावदिक् चाष्टादशविधापुढवि १ जल २ जलण ३ वाया ४ मूला ५ खंध ६ ऽग्ग ७ पोरबीया य ८ ।। बि ९ ति १० चउ ११ पंचिंदियतिरिय १२ नारगा १३ देवसंघाया १४ ॥ संमुच्छिम १५ कम्मा १६ ऽकम्मभूमगनरा १७ तहंतरद्दीवा १८ । भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं ॥ [विशेषाव० २७०३-४] इति । इह च क्षेत्र-ताप-प्रज्ञापकदिग्भिरेवाधिकारः, तत्र च तिर्यग्ग्रहणेन पूर्वाद्याश्चतस्र एव 20 दिशो गृह्यन्ते, विदिक्षु जीवानामनुश्रेणिगामितया वक्ष्यमाणगत्यागतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमानत्वात्, शेषपदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात्, यतोऽत्रैव वक्ष्यति- छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तई [सू०४९९] त्यादि, तथा ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्तम्निव्वाघाएणं नियमा छद्दिसिं [प्रज्ञापना० २८।१८०९] ति, तत्र तिहिं दिसाहिं ति सप्तमी तृतीया पञ्चमी वा यथायोगं व्याख्येयेति, गतिः प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र 25 गमनम्, एवमिति पूर्वोक्ताभिलापसूचनार्थः, आगतिः प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगमनमिति, व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिः, आहारः प्रतीतः, वृद्धिः शरीरस्य वर्द्धनम्, 15 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे निवृद्धिः शरीरस्यैव हानिः, गतिपर्यायश्चलनं जीवत एव, समुद्घातो वेदनादिलक्षणः, कालसंयोगो वर्तनादिकाललक्षणानुभूतिः मरणयोगो वा, दर्शनेन अवध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमो बोधो दर्शनाभिगमः, एवं ज्ञानाभिगमः, जीवानां ज्ञेयानाम् अवध्यादिनैवाभिगमो जीवाभिगम इति । तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे 5 पन्नत्ते, तं०-उड्डाए ३ एवं सर्वत्राभिलपनीयमिति दर्शनार्थं परिपूर्णान्त्यसूत्राभिधानमिति। एतान्यपि जीवाभिगमान्तानि सामान्यजीवसूत्राणि चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां तु नारकादिपदेषु दिक्त्रये गत्यादीनां त्रयोदशानामपि पदानां सामस्त्येनासम्भवात् पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु मनुष्येषु च तत्सम्भवात् तदतिदेशमाह- एवमित्यादि, यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि त्रयोदश पदानि दिक्त्रये अभिहितान्येवं पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्येष्विति भावः, 10 एवं चैतानि षड्विंशतिः सूत्राणि भवन्तीति । अथैषां नारकादिषु कथमसम्भव इति ?, उच्यते, नारकादीनां द्वाविंशतेर्जीवविशेषाणां नारक-देवेषुत्पादाभावाद धोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शन-ज्ञान-जीवा-ऽजीवाभिगमा गुणप्रत्यया अवध्यादिप्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु नारक ज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपति-व्यन्तरा ऊर्ध्वावधयः वैमानिका अधोऽवधय 15 एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणां त्ववधिर्नास्त्येवेति । [सू० १७२] तिविधा तसा पन्नत्ता, तंजहा-तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा । तिविधा थावरा पन्नत्ता, तंजहा-पुढ विकाइया, आउकाइया, वणस्सतिकाइया । 20 [टी०] यथोक्तानि च गत्यादिपदानि सानामेव सम्भवन्तीति सम्बन्धात् त्रसान्निरूपयन्नाह- तिविहेत्यादि स्पष्टम्, किन्तु त्रस्यन्तीति त्रसा: चलनधर्माणः । तत्र तेजो-वायवो गतियोगात् त्रसाः । उदाराः स्थूलाः, वसा इति त्रसनामकर्मोदयवर्त्तित्वात्, प्राणा इति व्यक्तोच्छ्वासादिप्राणयोगात् द्वीन्द्रियादयस्तेऽपि गतियोगादेव त्रसा इति । उक्तास्त्रसाः, तद्विपर्ययमाह तिविहेत्यादि, स्थानशीलत्वात् 25 स्थावरनामकर्मोदयाच्च स्थावरा:, शेष व्यक्तमेवेति । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ 10 [सू० १७३-१७४] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । [सू० १७३] ततो अच्छेजा पन्नत्ता, तंजहा-समये, पदेसे, परमाणू १॥ एवमभेज्जा २, अडज्झा ३, अगिज्झा ४, अणद्धा ५, अमज्झा ६, अपएसा ७। ततो अविभातिमा पन्नत्ता, तंजहा-समते, पएसे, परमाणू ८।। [टी०] इह च पृथिव्यादयः प्रायोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहनत्वात् अच्छेद्यादिस्वभावा व्यवहारतो भवन्तीति तत्प्रस्तावान्निश्चयाच्छेद्यादीनष्टभिः सूत्रैराह- 5 तओ अच्छेज्जेत्यादि, छेत्तुमशक्या बुद्ध्या क्षुरिकादिशस्त्रेण वेत्यच्छेद्याः, छेद्यत्वे समयादित्वायोगादिति, समय: कालविशेषः, प्रदेशो धर्मा-ऽधा-ऽऽकाश-जीवपुद्गलानां निरवयवोंऽशः, परमाणुः अस्कन्धः पुद्गल इति, उक्तं च सत्थेण सुतिक्खेण वि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का । तं परमाणुं सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥ [जम्बूद्वीपप्र० २।२८] ति । एवमिति पूर्वसूत्राभिलापसूचनार्थ इति, अभेद्याः सूच्यादिना, अदाह्या अग्निक्षारादिना, अग्राह्या हस्तादिना, न विद्यतेऽर्द्ध येषामित्यनर्द्धा विभागद्वयाभावात्, अमध्या विभागत्रयाभावात्, अत एवाह- अप्रदेशा निरवयवाः, अत एवाऽविभाज्या विभक्तुमशक्या, अथवा विभागेन निर्वृत्ता विभागिमास्तन्निषेधादविभागिमाः । - [सू० १७४] अंजो त्ति समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे 15 आमंतेत्ता एवं वयासी-किंभया पाणा समणाउसो !, गोयमादी समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीरं उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-णो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एतमढे जाणामो वा पासामो वा, तं जदि णं देवाणुप्पिया एतमढें णो गिलायंति परिकहित्तत्ते तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमढे जाणित्तए । अजो त्ति समणे 20 भगवं महावीरे गोतमाती समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-दुक्खभया पाणा समणाउसो !। से णं भंते ! दुक्खे केण कडे ? जीवेणं कडे पमादेण। से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ? अप्पमादेण । [टी०] ते च पूर्वतरसूत्रोक्ताः त्रस-स्थावराख्याः प्राणिनो दुःखभीरव इत्येतत् संविधानकद्वारेणाह अज्जो इत्यादि सुगमम्, केवलम् अज्जो तिं त्ति आरात् पापकर्मभ्यो 25 १. अजो ति क० ला० विना ।। २. ति त्ति जे१ खं० ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे याता आर्यास्तदामन्त्रणं हे आर्याः ! इत्येवमभिलापेनाऽऽमन्त्र्येति सम्बन्धः, श्रमणो भगवान् महावीर: गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थानेवं वक्ष्यमाणन्यायेनाऽवादीदिति, कस्माद् भयं येषां ते किंभयाः, कुतो बिभ्यतीत्यर्थः, प्राणा: प्राणिनः समणाउसो त्ति हे श्रमणाः ! हे आयुष्मन्त इति गौतमादीनामेवामन्त्रणमिति, अयं च भगवतः 5 प्रश्नः शिष्याणां व्युत्पादनार्थ एव, अनेन चाऽपृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्त्वमाख्येयमिति ज्ञापयति, उच्यते च कत्थइ पुच्छइ सीसो कहिंचऽपुट्ठा वयंति आयरिया । सीसाणं तु हियट्ठा विउलतरागं तु पुच्छाए ॥ [दशवै०नि० ३८] त्ति । ततश्च उवसंकमंति त्ति उपसङ्क्रामन्ति उपगच्छन्ति, तस्य समीपवर्त्तिनो भवन्ति, 10 इह च तत्कालापेक्षया क्रियाया वर्तमानत्वमिति वर्तमाननिर्देशो न दुष्टः, उपसङ्क्रम्य वन्दन्ते स्तुत्या, नमस्यन्ति प्रणामतः । एवम् अनेन प्रकारेण वयासि त्ति छान्दसत्वात् बहुवचनार्थे एकवचनमिति अवादिषुः उक्तवन्तो नो जानीमो विशेषतः नो पश्याम: सामान्यतः, वाशब्दौ विकल्पार्थो । तदिति तस्मादेतमर्थं किंभयाः प्राणा इत्येवंलक्षणम्, नो गिलायंति त्ति न ग्लायन्ति न श्राम्यन्ति परिकथयितुं परिकथनेन, तं ति ततः। 15 दुक्खभय त्ति दुःखात् मरणादिरूपात् भयमेषामिति दुःखभयाः । से णं ति तद् दुःखम् । जीवेणं कडे त्ति दुःखकारणकर्मकरणात् जीवेन कृतमित्युच्यते, कथमित्याह-पमाएणं ति प्रमादेनाऽज्ञानादिना बन्धहेतुना कारणभूतेनेति, उक्तं चपमाओ य मुणिंदेहिं भणिओ अट्ठभेयओ । अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य ॥ 20 रागो दोसो मइब्भंसो, धम्मम्मि य अणायरो। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अट्टहा वज्जियव्वओ ॥ [ ] इति । तच्च वेद्यते क्षिप्यते अप्रमादेन, बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । अस्य च सूत्रस्य दुक्खभया पाणा १, जीवेणं कडे दुक्खे पमाएणं २ अपमाएणं वेइज्जई ३ त्येवंरूपप्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारो द्रष्टव्य इति । 25 [सू० १७५] अन्नउत्थिता णं भंते ! एवं आतिक्खंति एवं भासंति एवं . इतिरेवमभि° खं० पा० जे२ ।। २. करण खं० पा० जे२ ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७५] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । २२९ पन्नवेंति एवं परूवेंति-कहनं समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजति ? तत्थ जा सा कडा कज्जति नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कज्जति नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा नो कज्जति नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कजति तं पुच्छंति, से एवं वत्तव्वं सिया-अकिच्चं दुक्खं अफुसं दुक्खं अकज्जमाणकडं दुक्खं अकट्ट अकट्ट पाणा भूता जीवा सत्ता वेयणं 5 वेदेति त्ति वत्तव्वं । जेते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवे पन्नवेमि एवं परूवेमि-किच्चं दुक्खं फुसं दुक्खं कज्जमाणकडं दुक्खं कटु कटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वं सिया। ॥ तइयट्ठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ [टी०] जीवेन कृतं दुःखमित्युक्तम्, अधुना परमतं निरस्यैतदेव समर्थयन्नाह- 10 अन्नउत्थीत्यादि प्रायः स्पष्टम्, किन्तु अन्ययूथिकाः इह तापसा विभङ्गज्ञानवन्तः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतो भाषन्ते विशेषतः, क्रमेणैतदेव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्तीति पर्यायरूपपदद्वयेन उक्तमिति, अथवा आख्यान्ति ईषद् भाषन्ते व्यक्तवाचा प्रज्ञापयन्ति उपपत्तिभिर्बोधयन्ति प्ररूपयन्ति प्रभेदादिकथनत इति, किं तदित्याह कथं केन प्रकारेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां ‘मते' इति शेषः, क्रियते इति क्रिया कर्म, सा 15 क्रियते भवति दुःखायेति विवक्षेति प्रश्नः, इह तु चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-कृता क्रियते विहितं सत् कर्म दुःखाय भवतीत्यर्थः १, एवं कृता न क्रियते २, अकृता क्रियते ३, अकृता न क्रियते ४ इति, एतेष्वनेन प्रश्न यो भङ्गः प्रष्ट मिष्टस्तं शेषभङ्गनिराकरणपूर्वकमभिधातुमाह-तत्थ त्ति तेषु चतुर्यु भङ्गकेषु मध्ये प्रथम द्वितीयं चतुर्थं च न पृच्छन्ति, एतत्त्रयस्यात्यन्तं रुचेरविषयतया तत्प्रश्नस्याप्यप्रवृत्तेरिति, तथाहि- 20 याऽसौ कृता क्रियते यत्तत् कर्म कृतं सद्भवति नो तां ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन निर्ग्रन्थमतत्वेन चासंमतत्वादिति, तत्र याऽसौ कृता नो क्रियते इति तेषु भङ्गकेषु मध्ये यत्तत् कर्म कृतं न भवति नो तां पृच्छन्ति, अत्यन्तविरोधेनासम्भवात्, तथाहि- कृतं चेत् कर्म कथं न भवतीत्युच्यते ?, न भवति १. क्रिया न भवति दःखायेति विवक्षिति प्रश्नः खं० ।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चेत् कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात्, तत्र तेषु याऽसावकृता यत्तदकृतं कर्म नो क्रियते न भवति नो तां पृच्छन्ति, अकृतस्यासतश्च कर्मणः खरविषाणकल्पत्वादिति, अमुमेव च भङ्गकत्रयनिषेधमाश्रित्यास्य सूत्रस्य त्रिस्थानकेऽवतार इति सम्भाव्यते, तृतीयभङ्गकस्तु तत्संमत इति तं पृच्छन्ति, अत एवाह- तत्र 5 याऽसावकृता क्रियते यत्तदकृतं पूर्वमविहितं कर्म भवति दु:खाय सम्पद्यते तां पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन दु:खानुभूतेश्च प्रत्यक्षतया सत्त्वेनाकृतकर्मभवनपक्षस्य सम्मतत्वादिति, पृच्छतां चायमभिप्राय:- यदि निर्ग्रन्था अपि अकृतमेव कर्म दु:खाय देहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः सुठु अस्मत्समानबोधत्वादिति शेषानपृच्छन्तः तृतीयमेव पृच्छन्तीति भावः । से त्ति अथ 10 तेषामकृतकभ्युिपगमवतामेवं वक्ष्यमाणप्रकारं वक्तव्यम् उल्लापः स्यात्, त एव वा एवमाख्यान्ति परान् प्रति यदुत-अथैवं वक्तव्यं प्ररूपणीयं तत्त्ववादिनां स्यात् भवेद्, अकृते सति कर्मणि दुःखभावात् अकृत्यम् अकरणीयमबन्धनीयम् अप्राप्तव्यमनागते काले जीवानामित्यर्थः, किम् ? दुक्खं दुःखहेतुत्वात् कर्म, अफुसं ति अस्पृश्यं कर्म अकृतत्वादेव, तथा क्रियमाणं च वर्तमानकाले बध्यमानं कृतं चातीतकाले बद्धं 15 क्रियमाणकृतं द्वन्द्वैकत्वं कर्मधारयो वा, न क्रियमाणकृतमक्रियमाणकृतम्, किं तत् ? दुःखं कर्म । अकिच्चं दुक्खमित्यादिपदत्रयं तत्थ जा सा अकडा कज्जइ तं पुच्छंतीत्यन्यतीर्थिकमताश्रितं कालत्रयालम्बनमाश्रित्य त्रिस्थानकावतारोऽस्य द्रष्टव्यः, किमुक्तं भवतीत्याह-अकृत्वा अकृत्वा कर्म प्राणा द्वीन्द्रियादयः भूता: तरवो जीवाः पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाः पृथिव्यादयः, यथोक्तम्20 प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवा: पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्त्वाः प्रकीर्तिताः ॥। ] इति । वेदनां पीडां वेदयन्तीति वक्तव्यमित्ययं तेषामुल्लापः, एतद्वा ते अज्ञानोपहतबुद्धयो भाषन्ते परान् प्रति यदुत एवं वक्तव्यं स्यादिति प्रक्रमः । एवमन्यतीर्थिकमतमुपदर्श्य निराकुर्वनाह– जेते इत्यादि, य एते अन्यतीर्थिका एवम् 25 उक्तप्रकारमाहंसु त्ति उक्तवन्तः मिथ्या असम्यक् ते अन्यतीर्थिका एवमुक्तवत् आहंसु १. सुष्ठ शोभनं अस्म पा० जे२ ॥ २. अथैवं च वक्त जे१ ॥ ३. अकृत्वा कर्म प्राणा जे१ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७६] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २३१ त्ति उक्तवन्तः, अकृतायाः क्रियात्वानुपपत्तेः, क्रियत इति हि क्रिया, यस्यास्तु कथञ्चनापि करणं नास्ति सा कथं क्रियते, अकृतकर्मानुभवने हि बद्धमुक्तसुखितदुःखितादिनियतव्यवहाराभावप्रसङ्ग इति । स्वमतमाविष्कुर्वन्नाह- अहमित्यादि, अहं ति अहमेव नान्यतीर्थिकाः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, स च पूर्ववाक्यादत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणतामाह, एवमाइक्खामीत्यादि पूर्ववत्, कृत्यं करणीयमनागतकाले, दुःखं 5 तद्धेतुत्वात् कर्म, स्पृश्यं स्पृष्टलक्षणबन्धावस्थायोग्यम्, क्रियमाणं वर्त्तमाने काले, कृतमतीते, अकरणं नास्ति कर्मणः कथञ्चनापीति भावः, स्वमतसर्वस्वमाह-कृत्वा कृत्वा कर्मेति गम्यते, प्राणादयो वेदनां कर्मकृतशुभाशुभानुभूतिं वेदयन्ति अनुभवन्तीति वक्तव्यं स्यात् सम्यग्वादिनामिति। ॥ त्रिस्थानकस्य द्वितीय उद्देशको विवरणतः समाप्तः ॥ 10 [अथ तृतीय उद्देशकः] [सू० १७६] तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु णो आलोएजा णो पडिक्कमेज्जा णो णिंदेज्जा णो गरहेज्जा णो विउद्देजा णो विसोहेजा णो अकरणताते अब्भुटेजा णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तंजहा-अकरिंसु 15 चाहं, करेमि चाहं, करिस्सामि चाहं १॥ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु णो आलोएजा णो पडिक्कमिज्जा जाव णो पडिवज्जेज्जा, तंजहा-अकित्ती वा मे सिया, अवण्णे वा मे सिया, अविणए वा मे सिया । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्ट णो आलोएजा जाव नो पडिवजेजा, 20 तंजहा-कित्ती वा मे परिहायिस्सति, जसे वा मे परिहायिस्सति, पूयासक्कारे वा मे परिहायिस्सति ३॥ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेजा जाव पडिवजेजा, तंजहा-मायिस्स णं अस्सिं लोगे गरहिते भवति, उववाते गरहिए भवति, आयाती गरहिता भवति ११ 25 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएजा जाव पडिवज्जेज्जा, तंजहाअमायिस्स णं अस्सिं लोगे पसत्थे भवति, उववाते पसत्थे भवति, आयाई पसत्था भवति २ २३२ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएजा जाव पडिवज्जेज्जा, जहा - 5 णाणताते, दंसणट्ठताते, चरित्तट्ठताते ३ | 25 [टी] उक्त द्वितीय उद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तरोद्देशके विचित्रा जीवधर्म्माः प्ररूपिताः, इहापि त एव प्ररूप्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रत्रयम् तिहिं ठाणेहीत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वसूत्रे मिथ्यादर्शनवतामसमञ्जसतोक्ता, इह तु कषायवतां 10 तामाहेत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या - मायी मायावान् मायां मायाविषयं गोपनीयं प्रच्छन्नमकार्यं कृत्वा नो आलोचयेत् मायामेवेति, शेषं सुगमम्, नवरम् आलोचनं गुरुनिवेदनम्, प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतदानम्, निन्दा आत्मसाक्षिका, गर्हा गुरुसाक्षिका, वित्रोटनं तदध्यवसायविच्छेदनम्, विशोधनम् आत्मनः चारित्रस्य वा अतीचारमलक्षालनम्, अकरणताभ्युत्थानं पुनर्नैतत् करिष्यामीत्यभ्युपगमः, अहारिहं 15 यथोचितं पायच्छित्तं ति पापच्छेदकं प्रायश्चित्तविशोधकं वा तपः कर्म्म निर्विकृतिकादि प्रतिपद्येत, तद्यथा- अकार्षमहमिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयिष्यामि स्वमाहात्म्यहानिप्राप्तेरित्येवमभिमानात् १, तथा करोमि चाहमिदानीमेव कथमसाध्विति भणामि २, करिष्यामीति चाहमेतदकृत्यमनागतकालेऽपि कथं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य इति ३। कीर्त्तिः एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः, सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णो यशः पर्यायत्वादस्य, 20 अथवा दानपुण्यफला कीर्त्तिः, पराक्रमकृतं यशः [ ], तच्च वर्ण इति, तयोः प्रतिषेधोऽकीर्त्तिः अवर्णश्चेति, अविनयः साधुकृतो मे स्यादिति, इदं च सूत्रमप्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षम्, मायं कट्टु त्ति मायां कृत्वा मायां पुरस्कृत्य, माययेत्यर्थः, परिहास्यति हीना भविष्यति, पूजा पुष्पादिभिः, सत्कारो वस्त्रादिभिः, इदमेकमेव विवक्षितमेकरूपत्वादिति, इदं तु प्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षम्, शेषं सुगमम् । उक्तविपर्ययमाह-तिहीत्यादि सूत्रत्रयं स्फुटम्, किन्तु मायी मायं कटु आलोएज्ज Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७७-१७९] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । त्ति इह मायी अकृत्यकरणकाल एव आलोचनादिकाले त्वमाय्येव आलोचनाद्यन्यथानुपपत्तेरिति, अस्सिं ति अयम्, यतो मायिन इहलोकाद्या गर्हिता भवन्ति यतश्चामायिन इहलोकाद्याः प्रशस्ता भवन्ति यतश्चामायिन आलोचनादिना निरतिचारीभूतस्य ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्ते अतोऽहममायी भूत्वाऽऽलोचनादि करोमीति भावना । [सू० १७७] तओ पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - सुत्तधरे, अत्थधरे, तदुभयधरे । [टी०] अनन्तरं शुद्धिरुक्ता, इदानीं तत्कारिणोऽभ्यन्तरसम्पदा त्रिधा कुर्वन्नाह - तओ पुरीत्यादि सुबोधम्, नवरमेते यथोत्तरं प्रधाना इति । [सू० १७८ ] कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा ततो वत्थाइं धारित्तए वा परिहरितए वा, तंजहा- जंगिते, भंगिते, खोमिते १ । २३३ [सू० १७९] तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तंजहा - हिरिवत्तियं, दुगुंछावत्तियं, परीसहवत्तियं । कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा ततो पायाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा - लाउयपादे वा, दारुपादे वा, मट्टियापादे वा २ । [टी०] तेषामेव बाह्यं सम्पदं सूत्रद्वयेनाह - कप्पतीत्यादि, कल्पते युज्यते, युक्तमित्यर्थः, धारित्तए त्ति धर्तुं परिग्रहे परिहर्तुं परिभोक्तुमिति, अथवा धारणा उवभोगो, परिहरणे होइ परिभोग [बृहत्कल्पभा० २३६७ ] त्ति । जंगियं जङ्गमजमौर्णिकादि, 15 भंगियं अतसीमयम्, खोमियं कार्पासिकमिति । अलाबूपात्रकं तुम्बकम्, दारुपात्रं काष्ठमयम्, मृत्तिकापात्रं मृन्मयं शराव - वार्घटिकादि, शेषं सुगमम् । 1 5 10 [टी०] वस्त्रग्रहणकारणान्याह - तिहीत्यादि, ह्रीः लज्जा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं 20 यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा, एवं परीषहाः शीतोष्ण-दंश- मशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा, आह चवेव्विsaाउडे वाइए य हीरि खद्धपजणणे चेव । एसिं अणुग्गहट्ठा लिंगुदट्ठा य पट्टो उ ॥ [ ओघ०नि० ७२२ ] वेउव्वि त्ति विकृते तथा अप्रावृते वस्त्राभावे सति वातिके च उच्छूनत्वभाजने 25 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ह्रियां सत्यां खद्धे बृहत्प्रमाणे प्रजनने मेहने लिंगोदयट्ठ त्ति स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षार्थमित्यर्थः, तथातणगहणा-ऽनलसेवानिवारणा धम्म-सुक्कझाणट्ठा । दिळं कप्पग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ॥ [ओघनि० ७०६] त्ति । वस्त्रस्य ग्रहणकारणप्रसङ्गात् पात्रस्यापि तान्याख्यायन्तेअतरंत-बाल-वुड्डा सेहा-ऽऽदेसा गुरू असहुवग्गो । साहारणोग्गहालद्धिकारणा पायगहणं तु ॥ [ओघनि० ६९२] अतरंत त्ति ग्लानाः, आदेशाः प्राघूर्णकाः, असहु त्ति सुकुमारो राजपुत्रादिप्रव्रजितः, साधारणावग्रहात् सामान्योपष्टम्भार्थम्, अलब्धिकार्थं चेति । 10 [सू० १८०] तओ आयरक्खा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मियाते पडिचोयणाते पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीतो वा सिता, उठूत्ता वा आताते एकंतमंतमवक्कमेज्जा १। णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पंति ततो वियडदत्तीओ पडिग्गाहित्तते, तंजहा-उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना २॥ 15 तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिक्कमति, तंजहा-सयं वा दटुं, सड्डिस्स वा निसम्म, तच्चं मोसं आउदृति चउत्थं नो आउदृति ३। तिविधा अणुन्ना पन्नत्ता, तंजहा-आयरियत्ताते उवज्झायत्ताते गणित्ताते ४। तिविधा समणुन्ना पन्नत्ता, तंजहा-आयरियत्ताते उवज्झायत्ताते गणित्ताते ५। 20 एवं उपसंपदा ६, एवं विजहणा ७। [टी०] निर्ग्रन्थप्रस्तावान्निर्ग्रन्थानेवानुष्ठानतः सप्तसूत्र्याऽऽह - तओ आएत्यादिः सुगमा, नवरम् आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्याद् भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः । धम्मियाए पडिचोयणाए त्ति धार्मिकेणोपदेशेन ‘नेदं भवादृशां विधातुमुचितम्' इत्यादिना प्रेरयिता उपदेष्टा भवति अनुकूलेतरोपसर्गकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणानिवर्त्तते, ततोऽकृत्यासेवा 25 न भवतीत्यतः आत्मा रक्षितो भवतीति १, तूष्णीको वा वाचंयम उपेक्षक इत्यर्थः १. "त्यादिसुगमा खं० पा० जे२ ॥ २. षष्ठ्येकवचनान्तमिदम् ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८०] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २३५ स्यादिति २, प्रेरणाया अविषये उपेक्षणाऽसामर्थ्य च ततः स्थानादुत्थाय आय त्ति आत्मना एकान्तं विजनम् अन्तं भूविभागमवक्रामेत् गच्छेत् ३। निर्ग्रन्थस्य ग्लायत: अशक्नुवतः, तृड्वेदनादिना अभिभूयमानस्येत्यर्थः, आहारग्रहणं हि वेदनादिभिरेव कारणैरनुज्ञातम् । तओ त्ति तिस्रः वियड त्ति पानकाहारः, तस्य दत्तय: एकप्रक्षेपदानरूपाः, प्रतिग्रहीतुम् आश्रयितुं वेदनोपशमायेति । उत्कर्षः प्रकर्षः, 5 तद्योगादुत्कर्षा, उत्कर्षतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टेत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा यया दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामानं वा लभते। अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्या वाच्याः, तथाहि-कलमकाञ्जिका-ऽवश्रावणादेः द्राक्षापानकादेर्वा प्रथमा १, षष्टिकादिकाञ्जिकादेमध्यमा २, तृणधान्यकाञ्जिकादेष्णोदकस्य वा जघन्येति । देश-काल-स्वरुचिविशेषाद्वोत्कर्षादि नेयमिति। 10 ___ साहम्मियं ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तम्, सम् एकत्र भोगो भोजनं सम्भोगः साधूनां समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदान-ग्रहणसंव्यवहारलक्षणः, स विद्यते यस्य स सम्भोगिकः, तम्, विसम्भोगो दानादिभिरसंव्यवहारः, स यस्यास्ति स विसम्भोगिकः, तं कुर्वन् नातिक्रामति न लघयत्याज्ञां सामायिकं वा विहितकारित्वादिति, स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्वा सम्भोगिकेन क्रियमाणामसंभोगिकदान- 15 ग्रहणादिकामसामाचारीम् । तथा सविस्स त्ति श्रद्धा श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्राद्धः श्रद्धेयवचन: कोऽप्यन्य: साधुस्तस्य वचनमिति गम्यते निशम्य अवधार्य । तथा तच्चं ति एकं द्वितीयं यावत् तृतीयं मोसं ति मृषावादम् अकल्प्यग्रहण-पार्श्वस्थदानादिना सावधविषयप्रतिज्ञाभङ्गलक्षणमाश्रित्येति गम्यते, आवर्त्तते निवर्त्तते, तमालोचयतीत्यर्थ:. अनाभोगतस्तस्य भावात्, प्रायश्चित्तं चास्योचितं दीयते, चतुर्थं त्वाश्रित्य प्रायो नो 20 आवर्त्तते तं नालोचयति, तस्य दर्पत एव भावादिति, आलोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्याऽदानमस्येति, अतश्चतुर्थासम्भोगकारणकारिणं विसम्भोगिकं कुर्वन्नातिक्रामतीति प्रकृतम्, उक्तं च १. "समाचा' खं० पा० ।। २. समाचा' खं० पा० जे२।। ३. अथवा तच्चं जे१ ।। ४. अकल्पग्र पा० जे२।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ एग व दो व तिन्न व आउट्टंतस्स होइ पच्छित्तं । आउट्टंते वि तओ परेण तिन्हं विसंभोगो ॥ [ निशीथभा० २०७५ ] इति । एतच्चूर्णि:- संभोइओ असुद्धं गिण्हंतो चोइओ भाइ- संता पडिचोयणा, मच्छामि दुक्कडं, ण पुणो एवं करिस्सामो, एवमाउट्टो जमावन्नो तं पायच्छित्तं दाउ संभोगो । एवं 5 बीयवारा वि, एवं तइयवाराए वि, तइयवाराओ परओ चउत्थवाराए तमेवाइयारं सेविऊण आउट्टंतस्स वि विसंभोगो [ निशीथचू० ] इति । इह चाद्यं स्थानद्वयं गुरुतरदोषाश्रयम्, यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च विसंभोगः क्रियते, तृतीयं त्वल्पतरदोषाश्रयम्, तत्र हि चतुर्थवेलायां स विधीयत इति । अणुन्न त्ति, अनुज्ञानमनुज्ञा अधिकारदानम् । आचर्यते मर्यादावृत्तितया सेव्यत 10 इत्याचार्य:, आचारे वा पञ्चप्रकारे साधुरित्याचार्य:, आह चपंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता । आयारं दंसेंता आयरिया तेण वच्चंति || [ आव०नि० ९९८ ] सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरिओ ॥ [ ] 15 तद्भावस्तत्ता, तया, उत्तरत्र गणाचार्यग्रहणादनुयोगाचार्यतयेत्यर्थः । तथा उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः, आह च– सम्मत्ताणदंसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू । आयरियठाणजोगो सुत्तं वाएउवज्झाओ ॥ [ ] त्ति । 25 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा तद्भाव उपाध्यायता, तया, तथा गणः साधुसमुदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ 20 गणी गणाचार्य:, तद्भावस्तत्ता, तया, गणनायकतयेति भाव इति । तथा समिति सङ्गता औत्सर्गिकगुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहिअनुयोगाचार्यस्यौत्सर्गिकगुणाः तम्हा वयसंपन्ना कालोचियगहियसयलसुत्तत्था । अणुजोगाणुण्णाए जोगा भणिया जिणिदेहिं ॥ इरा उ मुसावाओ पवयणखिंसा य होड़ लोयम्मि । साण वि गुणहाणी तित्थुच्छेओ य भावेणं ॥ [ पञ्चव० ९३२-३३] ति, १. “ आयरिय उवज्झाए पवत्ति थेरे... [आव० नि० १९९५ ] " इति गाथाया हारिभद्र्यां वृत्तौ उद्धृतेयं गाथा ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ [सू० १८०] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २३७ गणाचार्योऽप्यौत्सर्गिकगुणयुक्तत्वे एवम्सुत्तत्थे निम्माओ पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य ॥ संगहुवग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥ [पञ्चव० १३१५-१६] ति । 5 अथैवंविधगुणाभावे अनुज्ञाया अप्यभावात् कथमन्या समनुज्ञा भविष्यतीति ?, अत्रोच्यते, उक्तगुणानां मध्यात् अन्यतरगुणाभावेऽपि कारणविशेषात् सम्भवत्येवासी, कथमन्यथाऽभिधीयते जे यावि मंदि त्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ [दशवै० ९।१।२] ति । 10 अतः केषाञ्चित् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा, समग्रगुणभावे तु समनुज्ञेति स्थितम् । अथवा स्वस्य मनोज्ञा: समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः, सह वा मनोज्ञैर्ज्ञानादिभिरिति समनोज्ञा: एकसाम्भोगिका: साधवः, कथं त्रिविधा इत्याहआचार्यतयेत्यादि, भिक्षु-क्षुल्लकादिभेदा: सन्तोऽपि न विवक्षिता:, त्रिस्थानकाधिकारादिति । एवं उवसंपय त्ति, एवमित्याचार्यत्वादिभिस्त्रिधा समनुज्ञावत् 15 उपसंपत्तिरुपसंपत् ज्ञानाद्यर्थं भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, तथाहि-कश्चित् स्वाचार्यादिसन्दिष्टः सम्यक्श्रुतग्रन्थानां दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा सूत्रार्थयोर्ग्रहणस्थिरीकरण-विस्मृतसन्धानार्थं तथा चारित्रविशेषभूताय वैयावृत्याय क्षमणाय वा सन्दिष्टमाचार्यान्तरं यदुपसम्पद्यते, उक्तं चउवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरित्ते य । 20 दंसण-णाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ॥ [आव० नि० ६९८, पञ्चा० ५८६] त्ति। से यमाचार्योपसम्पद्, एवमुपाध्याय-गणिनोरपीति । एवं विजहणत्ति एवमित्याचार्यत्वादिभेदेन त्रिधैव विहानं परित्याग: तच्च आचार्यादेः स्वकीयस्य प्रमाददोषमाश्रित्य वैयावृत्य-क्षमणार्थमाचार्यान्तरोपसम्पत्त्या भवतीति, आह चनियगच्छादन्नम्मि उ सीयणदोसाइणा होइ [आव०नि० ७१८] त्ति । अथवा आचार्यो 25 ज्ञानाद्यर्थमुपसम्पन्नं यतिं तमर्थमननुतिष्ठन्तं सिद्धप्रयोजनं वा परित्यजति यत् १. 'त्सर्गिक एवं खं० पा० जे२ ॥ २. वृत्त्याय जे१, २ ॥ ३. वृत्त्यक्षपणा' जे१ ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे साऽऽचार्यविहानि:, उक्तं च उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं अपूरितो। अहवा समाणियम्मी सारणया वा विसग्गो वा ॥ [आव०नि० ७२०] इति । एवमुपाध्याय-गणिनोरपीति। 5 [सू० १८१] तिविधे वयणे पन्नत्ते, तंजहा-तव्वयणे, तदन्नवयणे, णोअवयणे १॥ तिविहे अवयणे पन्नते, तंजहा-णोतव्वयणे, णोतदनवयणे, अवयणे २॥ तिविधे मणे पन्नत्ते, तंजहा-तम्मणे, तदन्नमणे, णोअमणे ३॥ तिविहे अमणे पन्नत्ते, तंजहा-णोतम्मणे, णोतदन्नमणे, अमणे ४॥ [टी०] इयमनन्तरं विशिष्टा साधुकायचेष्टा त्रिस्थानकेऽवतारिता, अधुना तु वचन10 मनसी तत्पर्युदासौ च तत्रावतारयन्नाह-तिविहे इत्यादि सूत्रचतुष्टयम्, अस्य गमनिका तस्य विवक्षितार्थस्य घटादेर्वचनं भणनं तद्वचनम्, घटार्थापेक्षया घटवचनवत्, तस्माद् विवक्षितघटादेरन्य: पटादिस्तस्य वचनं तदन्यवचनम्, घटापेक्षया पटवचनवत्, नोअवचनम्, अभणननिवृत्तिर्वचनमात्रं डित्थादिवदिति, अथवा सः शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यत इति तद्वचनं यथार्थनामेत्यर्थः, ज्वलन15 तपनादिवत्, तथा तस्मात् शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्म विशिष्टादन्यः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यते अनेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत्, उभयव्यतिरिक्तं नोअवचनम्, निरर्थकमित्यर्थः, डित्यादिवत् । अथवा तस्य आचार्या देवचनं तद्वचनम्, तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनम् अविवक्षितप्रणेतृ विशेषम्, नोअवचनं वचनमात्रमित्यर्थः । त्रिविधवचन20 प्रतिषेधस्त्ववचनम्, तथाहि-नोतद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत्, नोतदन्यवचनं घटे घटवचनवत, अवचनं वचननिवृत्तिमात्रमिति, एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि नेयम् । तस्य देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्तन्मनः, ततो देवदत्ताद् अन्यस्य यज्ञदत्तादेघटापेक्षया पटादौ वा मनस्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धिविशेषं तु मनोमात्रं नोअमन इति, एतदनुसारेणाऽमनोऽप्यूह्यमिति । 25 [सू० १८२] तिहिं ठाणेहिं अप्पवुट्टीकाए सिता, तंजहा-तंसिं च णं देसंसि १. तंसि भां० । एवमग्रेऽपि पृ०२३९ पं० ६ ॥ 25. पिं० १८२] तिहिं ठाणेहि अप्प Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २३९ वा पदेसंसि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताते वक्कमति विउक्कमति चयंति उववजंति १, देवा णागा जक्खा भूता णो सम्ममाराहिता भवंति, तत्थ समुट्ठियं उदगपोग्गलं परिणतं वासितुकामं अन्नं देसं साहरंति २, अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं परिणतं वासितुकामं वाउकाए विधुणति ३, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अप्पवुट्ठिगाते सिता १ 5 __ तिहिं ठाणेहिं महावुट्ठीकाते सिता, तंजहा-तंसिं च णं देसंसि वा पतेसंसि वा बहवे उदगजोणिता जीवा य पोग्गला य उदगत्ताते वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जति १, देवा नागा भूता जक्खा सम्ममाराहिता भवंति, अन्नत्थ समुट्टितं उदगपोग्गलं परिणतं वासिउकामं तं देसं साहरंति २, अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं परिणयं वासितुकामं णो वाउआते विधुणति ३, इच्चेतेहिं 10 तिहिं ठाणेहिं महावुट्टिकाए सिया २। [टी०] अनन्तरं संयतमनुष्यादिव्यापारा उक्ता:, इदानीं तु प्रायो देवव्यापारान् तिहीत्यादिभिरष्टाभि: सूत्रैराह, सुगमानि चैतानि, किन्तु अप्पवुट्ठिकाए त्ति, अल्प: स्तोक: अविद्यमानो वा, वर्षणं वृष्टिः अध: पतनम्, वृष्टिप्रधान: कायो जीवनिकायो व्योमनिपतदप्काय इत्यर्थः, वर्षणधर्मयुक्तं वोदकं वृष्टिः, तस्या: कायो राशिर्वृष्टिकाय:, 15 अल्पश्चासौ वृष्टिकायश्च अल्पवृष्टिकाय:, स स्याद् भवेत् । तस्मिंस्तत्र मगधादौ, चशब्दोऽल्पवृष्टिताकारणान्तरसमुच्चयार्थः, णमित्यलङ्कारे, देशे जनपदे, प्रदेशे तस्यैवैकदेशरूपे, वाशब्दौ विकल्पार्थो । उदकस्य योनयः परिणामिकारणभूता उदकयोनयः, त एवोदकयोनिका उदकजननस्वभावा व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते व्यपक्रामन्ति च्यवन्ते, एतदेव यथायोगं पर्यायत आचष्टे -च्यवन्ते उत्पद्यन्ते 20 क्षेत्रस्वभावादित्ये कम्, तथा देवा वैमानिक-ज्योतिष्का:, नागा नागकुमारा भवनपत्युपलक्षणमेतत्, यक्षा भूता इति व्यन्तरोपलक्षणम्, अथवा देवा इति सामान्यम्, नागादयस्तु विशेष:, एतद्ग्रहणं च प्राय एषामेवंविधे कर्मणि प्रवृत्तिरिति ज्ञापनाय, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति, नो सम्यगाराधिता भवन्ति अविनयकरणाज्जनपदैरिति गम्यते, ततश्च तत्र मगधादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुत्थितम् उत्पन्नम् उदकप्रधानं 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पौद्गलं पुद्गलसमूहो मेघ इत्यर्थः उदकपौगलम्, तथा परिणतम् उदकदायकावस्थाप्राप्तम्, अत एव विद्युदादिकरणाद्वर्षितुकामं सदन्यं देशमङ्गादिकं संहरन्ति नयन्तीति द्वितीयम्। अभ्राणि मेघास्तैर्वईलकं दुर्दिनम् अभ्रवर्द्दलकं वाउयाए त्ति वायुकाय: प्रचण्डवातो विधुनाति ध्वंसयतीति तृतीयम् । इच्चे इत्यादि निगमनमिति । एतद्विपर्यासादनन्तर5 सूत्रम् । [सू० १८३] तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तए। अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाति णो परियाणाति णो अटुं बंधति णो 10 नियाणं पकरेति णो ठिइपकप्पं पकरेति १, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, तस्स णं माणुस्सए पेम्मे वोच्छिन्ने दिव्वे संकंते भवति २, अहणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेस कामभोगेसु मुच्छिते जाव अज्झोववन्ने, तस्स णं एवं भवति-इयण्डिं गच्छं, मुहुत्तं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मणा संजुत्ता भवंति 15 ३, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते ३॥ __तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, संचातेइ हव्वमागच्छित्तते । अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते अगिद्धे अगढिते अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं 20 भवति-अत्थि णं मम माणुस्सए भवे आयरिए ति वा उवज्झाए ति वा पवत्ती ति वा थेरे ति वा गणी ति वा गणधरे ति वा गणावच्छेदिए ति वा, जेसिं पभावेणं मए इमा एतारूवा देविड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागते, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि, कल्लाणं मंगलं देवतं चेइयं पजुवासामि १, अहुणोववन्ने देवे १. विध्वंस पा० जे२ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २४१ देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णं एवं भवति-एस णं माणुस्सए भवे णाणी ति वा तवस्सी ति वा अतिदुक्करदुक्करकारगे, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि २, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवतिअत्थि णं मम माणुस्सए भवे माता ति वा जाव सुण्हा ति वा, तं गच्छामि 5 णं तेसिमंतियं पाउब्भवामि, पासंतु ता मे इमं एतारूवं दिव्वं देविढेि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमन्नागतं ३, इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, संचातेति हव्वमागच्छित्तते ४॥ [टी०] अधुनोपपन्नो देवः, क्वेत्याह-देवलोकेष्विति, इह च बहुवचनमेकस्यैकदा 10 अनेकेषुत्पादासम्भवादेकार्थे दृश्यं वचनव्यत्ययाद् देवलोकानेकत्वोपदर्शनार्थं वा, अथवा देवलोकेषु मध्ये क्वचिद्देवलोक इति, इच्छेद् अभिलषेत्, पूर्वसङ्गतिकदर्शनाद्यर्थं मानुषाणामयं मानुषस्तम्, हव्वं शीघ्रम्, संचाएइ त्ति शक्नोति, दिवि देवलोके भवा दिव्यास्तेषु, कामौ च शब्द-रूपलक्षणौ भोगाश्च गन्ध-रस-स्पर्शाः कामभोगास्तेषु, अथवा काम्यन्त इति कामा: मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त इति भोगा: शब्दादयस्ते च 15 कामभोगास्तेषु मूर्च्छित इव मूर्छितो मूढः, तत्स्वरूपस्याऽनित्यत्वादेर्विबोधाक्षमत्वात्, गृद्धः तदाकाङ्क्षावान्, अतृप्त इत्यर्थः, ग्रथित इव ग्रथितस्तद्विषयस्नेहरज्जुभि: सन्दर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्न: आधिक्येनाऽऽसक्तोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः, नो आद्रियते न तेष्वादरवान् भवति, नो परिजानाति एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते, नो अर्थं बध्नाति एतैरिदं प्रयोजनमिति न निश्चयं करोति, तथा तेषु नो निदानं 20 प्रकरोति एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा तेष्वेव नो स्थितिप्रकल्पम् अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठेयमिति एते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरा भवन्त्वित्येवंरूपं स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टः प्रकल्प: आचार आसेवेत्यर्थस्तं प्रकरोति कर्तुमारभते, प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरित्येकं कारणम् १ । तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूर्च्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकं 25 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मनुष्यविषयं प्रेम स्नेहो येन मनुष्यलोके आगम्यते तद् व्यवच्छिन्नम्, दिवि भवं दिव्यं स्वर्गगतवस्तुविषयं सङ्क्रान्तं तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्तिरिति द्वितीयम् २ । तथाऽसौ देवो यतो दिव्यकामभोगेषु मूर्च्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् तस्स णं ति तस्य देवस्य एवं ति एवंप्रकारं चित्तं भवति, यथा इयण्हिं ति इत इदानीं 5 गच्छामि, मुहुत्तं ति मुहूर्तेन गच्छामि, कृत्यसमाप्तावित्यर्थः, तेणं कालेणं ति येन तत् कृत्यं समाप्यते स च कृतकृत्यत्वादागमनशक्तो भवति तेन कालेन गतेनेति शेष:, तस्मिन् वा काले गते, णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, अल्पायुषः स्वभावादेव मनुष्या मात्रादयो यद्दर्शनार्थमाजिगमिषति ते कालधर्मेण मरणेन संयुक्ता भवन्ति, कस्यासौ दर्शनार्थमागच्छत्विति असमाप्तकर्त्तव्यता नाम तृतीयमिति ३ । इच्चे इत्यादि निगमनम्। 10 देवकामेषु कश्चिदमूर्च्छितादिविशेषणो भवति, तस्य च मन इति गम्यते, एवं भूतं भवति, आचार्य: प्रतिबोधक-प्रव्राजकादि: अनुयोगाचार्यो वा, इति: एवंप्रकारार्थो वाशब्दो विकल्पार्थः, प्रयोगस्त्वेवम्- मनुष्यभवे ममाचार्योऽस्तीति वा, उपाध्याय: सूत्रदाता, सोऽस्तीति वा, एवं सर्वत्र, नवरं प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती, उक्तं च15 तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ । असहुं च नियत्तेई गणतत्तिल्लो पवत्ती उ ॥ [व्यव० ११९५९] त्ति । प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून् संयमयोगेषु सीदत: स्थिरीकरोति इति स्थविरः, उक्तं च थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिएसु अत्थेसु । 20 जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ [व्यव० १९६१] त्ति । गणोऽस्यास्तीति गणी गणाचार्य:, गणधरो जिनशिष्यविशेष: आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेष:, उक्तं चपियधम्मे दढधम्मे संविग्गाप(व)ज ओयतेयंसी । संगहुवग्गहकुसलो सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥ [निशीथभा० २४४९, बृहत्कल्प० २०५०] 25 गणस्यावच्छे दो विभागोंऽशोऽस्यास्तीति, यो हि गणांशं गहीत्वा १. "वृत्त्या पा० जे२ ।। २. 'ग्गायेज्जओय जे१ । 'ग्गाउज्जओय जे२ ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ [सू० १८४] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति स गणावच्छेदिकः, आह च उहावणा-पहावण-खेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई।। सुत्तत्थतदुभयविऊ गणवच्छो एरिसो होइ ॥ [व्यव० १।९६२] त्ति । इम त्ति इयं प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरे रूपान्तरभाक् सा एतद्रूपा, दिव्या स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा, देवानां सुराणामृद्धिः श्रीर्विमानरत्नादिसम्पद् देवर्द्धिः, 5 एवं सर्वत्र, नवरं द्युति: दीप्ति: शरीराभरणादिसम्भवा युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा अनुभाग: अचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिः, लब्धः उपार्जितो जन्मान्तरे, प्राप्तः इदानीमुपनत:, अभिसमन्वागतो भोग्यतां गतः, तदिति तस्मात् तान् भगवतः पूज्यान् वन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि प्रणामेन सत्करोम्यादरकरणेन वस्त्रादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति बुद्ध्या 10 पर्युपासे सेवे इत्येकम् । एस णं ति एष: अवध्यादिप्रत्यक्षीकृतः, मानुष्यके भवे वर्तमान इति शेषः, मनुष्य इत्यर्थः, ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा, किम् ? अतिदुष्कराणां सिंहगुहाकायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमनुरक्तपूर्वोपभुक्तप्रार्थनापरतरुणीमन्दिरवासाप्रकम्पब्रह्मचर्यानुपालनादिकं करोतीति अतिदुष्करदुष्करकारकः, स्थूलभद्रवत्, तत् तस्माद् गच्छामि, ते त्ति 15 पूर्वमेकवचननिर्देशेऽपीह पूज्यविवक्षया बहुवचनमिति, तान् दुष्करदुष्करकारकान् भगवतो वन्द इति द्वितीयम् । तथा ‘माया इ वा पिया इ वा भज्जा इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वे'ति यावच्छब्दाक्षेप:, स्नुषा पुत्रभार्या, तदिति तस्मात् तेषामन्तिके समीपे प्रादुर्भवामि प्रकटीभवामि, ता मे त्ति तावत् मे ममेति तृतीयम् । 20 [सू० १८४] ततो ठाणाई देवे पीहेज्जा, तंजहा-माणुस्सगं भवं, आरिते खेत्ते जम्मं, सुकुलपच्चायातिं ५। तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेज्जा, तंजहा-अहो णं मते संते बले संते वीरिए संते पुरिसक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसि आयरिय-उवज्झाएहिं विजमाणेहिं कल्लसरीरेणं णो बहुते सुते अहीते १, अहो णं मते इहलोगपडिबद्धेणं 25 १. किमिति दुष्कराणां जे१ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परलोगपरंमुहेणं विसयतिसितेणं णो दीहे सामन्नपरिताते अणुपालि २, अहो णं मते इरिस - सायगरुएणं भोगाससगिद्धेणं णो विसुद्धे चरिते फासिते ३, इच्चेतेहिं [तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा] ६ | [टी०] पीहेज्ज ति स्पृहयेद् अभिलषेत्, आर्यक्षेत्रम् अर्द्धषड्विंशतिजनपदानामन्यतरत् 5 मगधादि, सुकुले इक्ष्वाक्कादौ देवलोकात् प्रतिनिवृत्तस्याऽऽजाति: जन्म आयर्वाि आगतिः सुकुलप्रत्याजाति: सुकुलप्रत्यायातिर्वा, तामिति । परितप्पेज्ज त्ति पश्चात्तापं करोति, अहो विस्मये सति विद्यमाने बले शारीरे वीर्ये जीवाश्रिते पुरुषकारे अभिमानविशेषे पराक्रमे अभिमान एव च निष्पादितस्वविषये इत्यर्थः, क्षेमे उपद्रवाभावे सति सुभिक्षे सुकाले सति कल्यशरीरेण नीरोगदेहेनेति सामग्रीसद्भावेऽपि नो बहु 10 श्रुतमधीतमित्येकम् । विसयतिसिएणं ति विषयतृषितत्वादिहलोकप्रतिबन्धादिना दीर्घश्रामण्यपर्यायापालनम् इति द्वितीयम् । तथा ऋद्धिः आचार्यत्वादौ नरेन्द्रादिपूजा रसा मधुरादयो मनोज्ञाः सातं सुखमेतानि गुरूणि आदरविषया यस्य सोऽयमृद्धिरस- सातगुरुकस्तेन, अथवा एभिर्गुरुकस्तेषां प्राप्तावभिमानतोऽप्राप्तौ च प्रार्थनातोऽशुभभावोपात्तकर्म्मभारतयाऽलघुकस्तेन भोगेषु कामेषु आशंसा च 15 अप्राप्तप्रार्थनं गृद्धं च प्राप्तातृप्तिर्यस्य स भोगाशंसागृद्धः, इह चानुस्वारलोप- हस्वत्वे प्राकृततयेति पाठान्तरेण भोगामिषगृद्धेनेति, नो विशुद्धम् अनतिचारं चरित्रं स्पृष्टमिति तृतीयम् । इत्येतैरित्यादि निगमनम् । [सू० १८५] तिहिं ठाणेहिं देवे चतिस्सामीति जाणति - विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता, कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्ता, अप्पणो तेयलेस्सं 20 परिहायमाणिं जाणित्ता, इच्चेतेहिं [तिहिं ठाणेहिं देवे चतिस्सामीति जाणति] ७ | तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा, तंजहा - अहो णं मते इमातो एतारूवातो दिव्वातो देविडीओ दिव्वाओ देवजुतीतो लद्धातो पत्तातो अभिसमन्नागतातो चतियव्वं भविस्सति १, अहो णं मते मातुओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसठ्ठे तप्पढमयाते आहारो आहारेयव्वो भविस्सति २, अहो णं मते कलमलजंबाला ते १. 'संस क० विना । 'संसा भां० ॥ २४४ " Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० १८५-१८६] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । असुतीते उव्वेयणिताते भीमाते गब्भवसहीते वसियव्वं भविस्सइ, इच्चेतेहिं तिहिं [ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा] ८॥ [टी०] विमानाभरणानां निष्प्रभत्वमौत्पातिकं तच्चक्षुर्विभ्रमरूपं वा, कल्परुक्खगं ति चैत्यवृक्षम्, तेयलेस्सं ति शरीरदीप्तिं सुखासिकां वा, इच्चेतेहीत्यादि निगमनम्, भवन्ति चैवंविधानि लिङ्गानि देवानां च्यवनकाले, उक्तं चमाल्यम्लानि: कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्री-ह्रीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागा-ऽङ्गभङ्गौ, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथुश्चारतिश्च ॥ [ ] इति । उव्वेगं ति उद्वेगं शोकं ‘मयेतश्च्यवनीयं भविष्यति' इत्येकम् । तथा मातुरोज: आर्तवं पितः शक्रं तत्तथाविधं किमपि विलीनानामतिविलीनं तयोः ओजःशक्रयोरुभयं द्वयं तदुभयं तच्च तत् संसृष्टं च, संश्लिष्टं चेति वा, परस्परमेकीभूतमित्यर्थः, तदुभयसंसृष्टं 10 तदुभयसंश्लिष्टं वा एवंलक्षणो य आहारः तस्य गर्भवासकालस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्याम्, प्रथमसमय एवेत्यर्थः, स आहर्त्तव्य: अभ्यवहार्यो भविष्यतीति द्वितीयम्, तथा कलमलो जठरद्रव्यसमूह: स एव जम्बाल: कईमो यस्यां सा तथा, तस्याम्, अत एवाऽशुचिकायाम् उद्वेजनीयायाम् उद्वेगकारिण्यां भीमायां भयानिकायां गर्भ एव वसतिर्गर्भवसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयम् । अत्र गाथे भवत: देवा वि देवलोए दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । जं परिवडंति तत्तो तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥ तं सुरविमाणविभवं चिंतिय चयणं च देवलोगाओ। अइबलियं चिय जं न वि फुटइ सयसक्करं हिययं ॥ [उप० माला २८५-२८६] ति । इच्चेएहीत्यादि निगमनम् । 20 [सू० १८६] तिसंठिया विमाणा पन्नत्ता, तंजहा-वट्टा, तंसा, चउरंसा । तत्थ णं जे ते वट्टा विमाणा ते णं पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिता सव्वतो समंता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा पन्नत्ता, तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा ते णं सिंघाडगसंठाणसंठिता दुहतो पागारपरिक्खित्ता एगतो वेतितापरिक्खित्ता तिदुवारा पन्नत्ता, तत्थ णं जे ते चउरंसा विमाणा ते णं अक्खाडगसंठाणसंठिता 25 सव्वतो समंता वेतितापरिक्खिता चउदुवारा पन्नत्ता । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 तिविधा विमाणा पन्नत्ता, तंजहा - अवट्ठिता, वेउव्विता, परिजाणिता ३। [टी०] अथ देववक्तव्यतानन्तरं तदाश्रयविमानवक्तव्यतामाह - तिसंठिएत्यादि सूत्रत्रयं 5 स्फुटमेव, केवलं त्रीणि संस्थितानि संस्थानानि येषां तानि, त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थितानि त्रिसंस्थितानि, तत्थ णं ति तेषु मध्ये पुक्खरकण्णिय त्ति पुष्करकर्णिका पद्ममध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवति, सर्व्वत इति दिक्षु समन्तादिति वक्षु । सिंघाडगं ति त्रिकोणो जलजफलविशेष:, एकत एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः । अक्खाडगो चतुरस्र: प्रतीत एव, वेदिका मुण्डप्राकारलक्षणा, एतानि 10 चैवंक्रमाण्येवावलिकाप्रविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानि त्वन्यथाऽपीति, भवन्ति चात्र 20 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तिपतिट्टिया विमाणा पन्नत्ता, तंजहा घणोदधिपतिट्ठिता, घणवातपइडिया, ओवासंतरपट्ठिता २। 25 २४६ गाथा: सव्वेस पत्थडेसुं मझे वहं अणंतरे तंसं । एयंतरचतुरंसं पुणोवि वट्टं पुणो ॥ वट्टं वट्टस्सुवरिं तंसं तंसस्स उप्परे हो । चउरंसे चउरंसं उट्टं तु विमाणसेढीओ ॥ वहं च वलयगं पि व तंसं सिंघाडगं पिव विमाणं । चउरंसविमाणं पि य अक्खाडगसंठियं भणियं ॥ सव्वे वट्टविमाणा एगदुवारा हवंति विन्नेया । तिनिय तंसविमाणे चत्तारि य होंति चउरंसे ॥ पागारपरिक्खित्ता वट्टविमाणा हवंति सव्वे वि । चउरंसविमाणाणं चउद्दिसिं वेइया होई ॥ जत्तो वट्टविमाणं तत्तो तंसस्स वेइया होई । पागारो बोद्धव्वो अवसेसेहिं तु पासेहिं ॥ आवलियासु विमाणा वट्टा तसा तहेव चउरंसा । पुप्फावगिन्नया पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥ [ विमान० २४५ - २५१] इति । प्रतिष्ठानसूत्रस्येयं विभजना १. उप्परं खंसं० ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ [सू० १८७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २४७ घणउदहिपइट्ठाणा सुरभवणा होंति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपइट्ठाणा तदुभयसुपइट्ठिया तीसु ॥ तेण परं उवरिमगा आगासंतरपइट्ठिया सव्वे । [बृहत्सं० १२६-१२७] त्ति । अवस्थितानि शाश्वतानि । वैक्रियाणि भोगाद्यर्थं निष्पादितानि, यतोऽभिहितं भगवत्याम्- जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजिउकामे भवइ 5 से कहमियाणिं पकरेति ?, गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवगं विउव्वइ, नेमिरिति चक्रधारा, तद्वद् वृत्तविमानमित्यर्थः, एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं इत्यादि यावत् पासायवडिसए सयणिजे, तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणिएहिं णट्टाणीएण य गंधव्वाणीएण य सद्धिं महया नट्ट जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ [भगवती० १४।६।६] त्ति । परियानं 10 तिर्यग्लोकावतरणादि, तत् प्रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि पालक-पुष्पकादीनि वक्ष्यमाणानीति। [सू० १८७] तिविधा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-सम्मादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी । एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । ततो दुग्गतीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-णेरइयदुग्गती, तिरिक्खजोणीयदुग्गती, 15 मणुससदुग्गती १॥ ततो सुग्गतीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-सिद्धसुग्गती, देवसुग्गती, मणुस्ससुग्गती ततो दुग्गता पन्नत्ता, तंजहा-णेरतितदुग्गता, तिरिक्खजोणितदुग्गता, मणुस्सदुग्गता ३। 20 ततो सुग्गता पत्नत्ता, तंजहा-सिद्धसुग्गता, देवसुग्गता, मणुस्ससुग्गता ४। [टी०] पूर्वतरसूत्रेषु देवा उक्ताः, अधुना वैक्रियादिसाधान्नारकान्निरूपयन्नाहतिविधेत्यादि स्पष्टम् । नारका दर्शनतो निरूपिताः, शेषा अपि जीवा एवंविधा एवेत्यतिदेशत: शेषानाह- एवमित्यादि गतार्थम्, नवरं विगलेंदियवज्जं ति नारकवत् दण्डकस्त्रिधा वाच्यः एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियान् विना, यतः पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव 25 १. परि खं० पा० जे२ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 20 २४८ 25 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु न मिश्रमिति । त्रिविधदर्शनाश्च दुर्गति-सुगतियोगात् दुर्गताः सुगताश्च भवन्तीति दुर्गत्यादिदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमाह - तओ इत्यादि व्यक्तम्, परं दुष्टा गतिर्दुर्गतिः, मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव, तत्सुगतेरप्यभिधास्यमानत्वादिति । दुर्गताः दुःस्थाः, सुगताः सुस्थाः । [सू० १८८] चउत्थभत्तितस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति ततो पाणगाई पडिगाहेत्तए, तंजहा - उस्सेतिमे, संसेतिमे, चाउलधोवणे १ । अट्टमभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति ततो पाणगाई पडिगाहेत्तए, तंजहा10 आयामते, सोवीरते, सुद्धवियडे ३ | तिविहे उवहडे पन्नत्ते, तंजहा- फलिओवहडे, सुद्धोवहडे, संसट्ठोवहडे ४ | तिविहे उग्गहिते पन्नत्ते, तंजहा- जं च ओगिण्हति, जं च साहरति, जं च आसगंसि पक्खिवति ५ । तिविधा ओमोयरिया पन्नत्ता, तंजहा - उवकरणोमोयरिया, भत्तपाणोमोदरिता, 15 भावोमोदरिता ६ । उवकरणो मोदरिता तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - एगे वत्थे, एगे पाते, चियत्तोवहिसातिज्जणता ७। ततो ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहियाते असुभाते अक्खमाते अणिस्सेसाते अणाणुगामियत्ताए भवंति, तंजहा- कूअणता, कक्करणता, छट्ठभत्तितस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति ततो पाणगाई पडिगाहेत्तए, तंजहातिलोदए, तुसोदए, जवोदए २ अवज्झाणता ८। ततो ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा हिताते सुहाते खमाते णिस्सेसाते आणुगामियत्ता भवति, तंजहा - अकूअणता, अकक्करणता, अणवज्झाणया ९। ततो सल्ला पन्नत्ता, तंजहा - मायासल्ले णिदाणसल्ले मिच्छादंसणसल्ले १०। तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तंजहा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८८] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २४९ आतावणताते, खंतिखमाते, अपाणगेणं तवोकम्मेणं ११॥ तेमासितं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति ततो दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, ततो पाणगस्स १२। एगरातियं भिक्खुपडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे ततो ठाणा अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेसाते अणाणुगामियत्ताते भवंति, 5 तंजहा- उम्मायं वा लभेज्जा, दीहकालियं वा रोगातंकं पाउणेज्जा, केवलिपन्नत्तातो वा धम्मातो भंसेज्जा १३। ___ एगरातियं णं भिक्खुपडिमं सम्मं अणुपालेमाणस्स अणगारस्स ततो ठाणा हिताते सुभाते खमाते णिस्सेसाते आणुगामियत्ताते भवंति, तंजहा-ओहिणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवनाणे वा से समुप्पज्जेजा, केवलनाणे वा से 10 समुप्पज्जेज्जा १४। [टी०] सिद्धादिसुगताश्च तपस्विनः सन्तो भवन्तीति तत्कर्त्तव्य-परिहर्त्तव्यविशेषमाहचउत्थेत्यादिसूत्राणि चतुर्दश व्यक्तानि, केवलम् एकं पूर्वदिने द्वे उपवासदिने चतुर्थं पारणकदिने भक्तम् भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत् चतुर्थभक्तम्, तद्यस्यास्ति स चतुर्थभक्ति कस्तस्य, एवमन्यत्रापि, शब्दव्युत्पत्तिमात्रमेतत्, प्रवृत्तिस्तु 15 चतुर्थभक्तादिशब्दानामेकाद्युपवासादिष्विति, भिक्षणं शीलं धर्म: तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुः, तस्य पानकानि पानाहारा:, उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमं येन व्रीह्यादिपिष्टं सुराद्यर्थम् उत्स्वेद्यते, तथा संसेकेन निवृत्तमिति संसेकिमम् अरणिकादिपत्रशाकमुत्क्वाथ्य येन शीतलजलेन संसिच्येत तदिति, तन्दुलधावनं प्रतीतमेव १। तिलोदकादि तत्प्रक्षालनजलम्, नवरं तुषोदकं व्रीह्युदकम् २। 20 आयामकम् अवश्रावणम्, सौवीरकं काञ्जिकम्, शुद्धविकटम् उष्णोदकम् ३। उपहृतमुपहितम्, भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः, फलिकं प्रहेणकादि, तच्च तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतम् अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैषणाविषयभूतमिति, यदाह व्यवहारभाष्ये फलियं पहेणगाई वंजणभक्खेहिं वाऽविरहियं तु । भोत्तुमणस्सोवहियं पंचमपिंडेसणा एस ॥ [व्यव० ९।३८२१] त्ति । 25 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा शुद्धम् अलेपकृतं शुद्धौदनं च, तच्च तदुपहृतं चेति शुद्धोपहृतम्, एतच्चाल्पलेपाभिधानचतुर्थेषणाविषयभूतमिति । तथा संसृष्टं नाम भोक्तुकामेन गृहीतं कूरादौ क्षिप्ते हस्त: क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संसृष्टोपहतम्, इदं चतुर्थेषणात्वेन भजनीयम् , 5 लेपालेपकृतादिरूपत्वादस्येति, अत्र गाथा सुद्धं च अलेवकडं अहवण सुद्धोदणो भवे सुद्धं ।। संसटें आउत्तं भोक्तुमारब्धमित्यर्थः लेवाडमलेवडं वा वि ॥ [व्यव० ९।३८२०] त्ति । इह च त्रये एकत्व-द्वि-त्रिसंयोगैः सप्ताभिग्रहवन्त: साधवो भवन्तीति ४ । अवगृहीतं नाम केनचित् प्रकारेण दायकेनात्तं भक्तादि यदिति भक्तम्, चकारा: 10 समुच्चयार्थाः, अवगृह्णाति आदत्ते हस्तेन दायकस्तदवगृहीतम्, एतच्च षष्ठी पिण्डैषणेति, एवं च वृद्धव्याख्या- परिवेषक: पिटिकाया: कूरं गृहीत्वा यस्मै दातुकामस्तद्भाजने क्षेप्तुमुपस्थितस्तेन च भणितम्-मा देहि, अत्रावसरे प्राप्तेन साधुना धर्मलाभितम्, तत: परिवेषको भणति-प्रसारय साधो ! पात्रम्, तत: साधुना प्रसारिते पात्रे क्षिप्तमोदनम्, इह च संयतप्रयोजने गृहस्थेन हस्त एव परिवर्तितो नान्यत् गमनादि कृतमिति 15 जघन्यमाहृतजातमिति, इह च व्यवहारभाष्यश्लोक: भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं तं च तेण उ।। जहन्नोवहडं तं तु, हत्थस्स परियत्तणे ॥ [व्यव० ९।३८३८] त्ति । तथा यच्च परिवेषक: स्थानादविचलन् संहरति भक्तभाजनात् भोजनभाजनेषु क्षिपति तच्चावगृहीतमिति प्रक्रमः, श्लोकोऽत्र20 अह साहीरमाणं तु, वढ्तो परिवेषयन्नित्यर्थ: जो उ दायओ । दलेजाविचलिओ तत्तो, छट्ठा एसा वि एसणा ॥ [व्यव० ९।३८२९] इति । तथा यच्च भक्तमास्यके पिठरादिमुखे क्षिपति तच्चावगृहीतमिति, एवं चात्र वृद्धव्याख्या-कूरमवह्लादननिमित्तं कलिंजादिभाजने विशालोत्तानरूपे क्षिप्तम्, ततो भाक्तिकेभ्यो दत्तं ततो भुक्तशेषं यद् भूय: पिठरके प्रकाशमुखे क्षिपन्ती दद्यात् परिवेषयन्ती ___ 25 वा प्रकाशमुखे भाजने तत् तृतीयमवगृहीतम्, श्लोकोऽत्र १. ख्याता परि' जे१ ।। २. जघन्यमाहृतजातमिति जे१ मध्ये नास्ति । जघन्यतोहत' खं० ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । [सू० १८८] भुत्तसेसं तु जं भूओ, छुब्भंती पिठरे दये । संवट्टंती व अन्नस्स, आसगम्मि पगास ॥ [ व्यव० ९ । ३८३० ] ति । ननु आस्ये मुखे यत् प्रक्षिपतीति मुख्यार्थे सति किं पिठरकादिमुखे इति व्याख्यायत इति ?, उच्यते, आस्यप्रक्षेपव्याख्यानमयुक्तम्, जुगुप्साभावादिति, आह च- पक्खेवए दुगुंछा आएसो कुडमुहाईसु[व्यव० ९।३८२६]त्ति । अवमम् ऊनमुदरं जठरं यस्य सोऽवमोदरः, अवमं वोदरम् अवमोदरम्, तद्भावोऽवमोदरता, प्राकृतत्वादोमोयरिय त्ति, अवमोदरस्य वा करणमवमोदरिका, व्युत्पत्तिरेवेयमस्य, प्रवृत्तिस्तूनतामात्रे, तत्र प्रथमा जिनकल्पिकादीनामेव न पुनरन्येषाम्, शास्त्रीयोपध्यभावे हि समग्रसंयमाभावादिति, अतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति, उक्तं चजं वइ उवगारे उवकरणं तं सि होइ उवगरणं । अइरेगं अहिगरणं अजओ यजयं परिहरंतो ॥ [ ] अयतश्च यकद् भुञ्जानो भवतीत्यर्थः । पुनरात्मीयाहारमानपरित्यागतो वेदितव्या, उक्तं चबत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ | पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला || [पिण्डनि० ६४२ ] कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगियवयणो वयणम्मि छुहेज्ज वीसत्थ ॥ [ ] त्ति । इयं चाष्ट १ द्वादश २ षोडश ३ चतुर्विंशत्ये ४ कत्रिंशदन्तैः कवलैः ५ क्रमेणाल्पाहारादिसंज्ञिता पञ्चधा भवति, उक्तं च अप्पाहार १ अवड्डा २ दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५ । इति । अट्ठ १ दुवाल २ सोलस ३ चउवीस ४ तहेक्कतीसा य ५ ॥ [ एवम् अनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्या, भगवत्यामप्युक्तम् बत्तीसं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्ते ति वत्तव्वं सिया, एत्तो एक्केण वि कवलेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गंथे नो पगामरसभोइ त्ति वत्तव्वं सिय [भगवती० ७।१।१९] त्ति । भावोनोदरता पुनः क्रोधादित्यागः, उक्तं चकोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ उ । भावेणोमोदरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ [ ] २५१ भक्तपानावमोदरता 5 10 15 20 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ उपकरणावमोदरिकाया भेदानाह- उवकरणेत्यादि, एकं वस्त्रं जिनकल्पिकादेरेव, एवं पात्रमपि, एगं पायं जिणकप्पियाणं [ओघनि० ६७९] इति वचनादिति, तथा चियत्तेणं संयमोपकारकोऽयमिति प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणेन वा चियत्तस्स वा संयमिनां संमतस्य उपधेः रजोहरणादिकस्य साइजणय त्ति सेवा चियत्तोवहिसाइजणय त्ति 5 ७। चियत्तेणेति प्रागुक्तम्, एतद्विपर्ययभेदान् सफलानाह- तओ इत्यादि स्पष्टम्, किन्तु अहिताय अपथ्याय असुखाय दु:खाय अक्षमाय अयुक्तत्वाय अनिःश्रेयसाय अमोक्षाय अनानुगामिकत्वाय न शुभानुबन्धायेति, कूजनता आर्तस्वरकरणम्, कर्क रणता शय्योपध्यादिदोषोद्भावनगर्भं प्रलपनम्, अपध्यानता आर्त्त रौद्रध्यायित्वमिति ८। उक्तविपर्ययसूत्रं व्यक्तम् ९ । 10 निर्ग्रन्थानामेव परिहर्त्तव्यं त्रयमाह- तओ इत्यादि, शल्यते बाध्यते अनेनेति शल्यम्, द्रव्यतस्तोमरादि, भावतस्तु इदं त्रिविधं- माया निकृतिः, सैव शल्यं मायाशल्यम्, एवं सर्वत्र, नवरं नितरां दायते लूयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्या दिसाध्यं कुशलकर्मकल्पतरुवनमनेन देवर्द्धयादिप्रार्थनपरिणामनिशितासिनेति निदानम्, मिथ्या विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनमिति १० । ___निर्ग्रन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाह तिहीत्यादि । सङ्क्षिप्ता लघूकृता विपुलाऽपि विस्तीर्णाऽपि सती, अन्यथाऽऽदित्यबिम्बवत् दुर्दर्श: स्यादिति, तेजोलेश्या तपो विभूतिजं तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं येन स सङ्क्षिप्तविपुलतेजोलेश्य: । आतापनानां शीतादिभिः शरीरस्य सन्तापनानां भाव आतापनता शीतातपादिसहनमित्यर्थः, तया, क्षान्त्या क्रोधनिग्रहेण क्षमा मर्षणं न 20 त्वशक्ततयेति क्षान्तिक्षमा, तया, अपानकेन पारणककालादन्यत्र तप:कर्मणा षष्ठादिनेति, अभिधीयते च भगवत्याम्__ जे णं गोसाला ! एगाए सनहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासणेणं छठे छट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविपुलतेयलेस्से भवइ [भगवती०१५।५४] 25 त्ति ११ । १. परिशिष्टेषु टिप्पणेषु द्रष्टव्यम् ॥ २. “दाप् लवने" -पा० धा० १०५९, दांवक् लवने- हैमधा० १०७० ।। 15 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८८ ] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । तेमासियमित्यादि, भिक्षुप्रतिमाः साधोरभिग्रहविशेषाः, ताश्च द्वादश, तत्रैकमासिक्यादयो मासोत्तराः सप्त, तिस्रः सप्तरात्रिन्दिवप्रमाणाः प्रत्येकम्, एका अहोरात्रिकी, एका एकरात्रिकीति, उक्तं च मासाई सत्ता ७ पढमा १ बि २ तईय ३ सत्तराइदिणा १० । १ अहराइ ११ एगराई १२ भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥ [ आव० भा०, पञ्चाशक० १८ । ३ ] ति । 5 अयमत्र भावार्थ: पडिवज्जइ एयाओ संघयणधिईजुओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ || गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुव्वा दस भवे असंपूण्णा । नवमस्स तइयवत्थू होइ जहन्नो सुयाभिगमो ॥ वोसचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवडं तस्स ॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जइ मासियं महापडिमं । दत्तेग भोयणस्सा पाणस्स वि एग जा मासं ॥ पच्छा गच्छमतीती एव दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तिविवड्डी जा सत्त उसत्तमासी ॥ २५३ 10 तत्तो य अट्ठमी खलु हवड़ इहं पढमसत्तराइंदी | ती चउत्थेण अपाणएणं अह विसेसो ॥ [ पञ्चाशक० १८२४, ५, ६,७,१३,१४] तथा चागमः पढमसत्त इंदियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पड़ से चउत्थेणं भत्तेणं 20 अपाणएणं बहिया गामस्स वे [ दशाश्रुत० ७/५१] त्यादि, उत्ताणग पासल्ली नेसज्जी वा वि ठाण ठाड़ता । अह उवसग्गे घोरे दिव्वाई सहइ अविकंपो ॥ दोच्चा वि एरिसि च्चिय बहिया गामादियाण नवरं तु । उक्कडु लगंडसाई डंडायतिउ व्व ठाइत्ता | तच्चाए वी एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमहवा वी ठाएज व अंबखुज्जो य ॥ एमेव अहोराई छ भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया वग्घारियपाणिए ठाणं ॥ १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थेऽध्ययने 'बारसहिं भिक्खुपडिमाहिं' इत्यस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ भाष्यगाथेयम् || 15 25 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एमेव एगराई अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरओ। ईसिं पन्भारगते अणिमिसणयणेगदिट्ठीए ॥ साहटु दो वि पाए वग्घारियपाणि ठायति ठाणं । वग्धारिलंबियभुओ सेस दसासु जहा भणियं ॥ [पञ्चाशक० १८।१५-२०] ति । 5 तत्र त्रिमासिकी तृतीया, तां प्रतिपन्नस्य आश्रितस्य, दत्ति: सकृत्प्रक्षेपलक्षणेति १२। एकरात्रिकी द्वादशी, तां सम्यगननुपालयत: उन्मादः चित्तविभ्रमः, रोग: कुष्ठादिः, आतङ्कः शूल-विशूचिकादि: सद्योघाती, स च स चेति रोगातङ्कम्, पाउणेज त्ति प्राप्नुयात्, धर्मात् श्रुत-चारित्रलक्षणात् भ्रश्येत्, सम्यक्त्वस्यापि हान्येति, उन्माद रोग-धर्मभ्रंशा: प्रतिमाया: सम्यगननुपालनाजन्या अहिताद्यर्थाः दुःखार्था भवन्तीति 10 हृदयम् १३ । विपर्ययसूत्रमेतदनुसारतो बोद्धव्यमिति १४।। [सू० १८९] जंबूदीवे दीवे ततो कम्मभूमीओ पन्नत्ताओ तंजहा- भरहे, एरवते, महाविदेहे १। एवं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे जाव पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धे २-५। [टी०] उक्तरूपाणि च साध्वनुष्ठानानि कर्मभूमिष्वेव भवन्तीति तन्निरूपणायाह15 जंबूदीवेत्यादिसूत्राणि साक्षादतिदेशाभ्यां पञ्च सुगमानि चेति । [सू० १९०] तिविधे दंसणे पन्नत्ते, तंजहा-सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदसणे १॥ तिविधा रुती पन्नत्ता, तंजहा-सम्मरुती, मिच्छरुती, सम्मामिच्छरुती २। तिविधे पओगे पन्नत्ते, तंजहा-सम्मप्पओगे, मिच्छप्पओगे, 20 सम्मामिच्छप्पओगे ३।। [सू० १९१] तिविधे ववसाते पन्नत्ते, तंजहा-धम्मिते ववसाते, अधम्मिए ववसाते, धम्मियाधम्मिते ववसाते ४। __ अथवा तिविधे ववसाते, पन्नत्ते, तंजहा-पच्चक्खे, पच्चतिते, आणुगामिते ५। १. धर्मः श्रुतचारित्रलक्षण: भ्रश्येत् खं० । धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणाद् भ्रश्येत् जे१ ॥ २. साध्वननुष्ठा' जे१ ॥ ३. जंबुद्दी' खं० पामू० ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १९०-१९९] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । अहवा तिविधे ववसाते पन्नत्ते, तंजहा - इहलोइए, परलो गिते, इहलोगितपरलोगिते ६ | इहलगिते ववसाते तिविहे पन्नत्ते, तंजहा - लोगिते, वेतिते, सामतिते ७ । लोगिते ववसाते तिविधे पन्नत्ते, तंजहा - अत्थे, धम्मे, कामे ८ । वेतिते ववसाते तिविधे पन्नत्ते, तंजहा- रिव्वेदे, जजुवेदे, सामवेदे ९ | सामतिते ववसाते तिविधे पन्नत्ते, तंजहा - णाणे, दंसणे, चरित्ते १० । तिविधा अत्थजोणी पन्नत्ता, तंजहा - सामं, दंडे, भेदे ११ । 5 [टी०] उक्ता: कर्मभूमयः, अथ तद्गतजनधर्म्मनिरूपणायाह-तिविहेत्यादिसूत्राण्येकादश कण्ठ्यानि, किन्तु त्रिविधं दर्शनं शुद्धा ऽशुद्ध- मिश्रपुञ्जत्रयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयम्, तथाविधदर्शनहेतुत्वादिति १ । रुचिस्तु तदुदयसम्पाद्यं तत्त्वानां 10 श्रद्धानम् २। प्रयोगः सम्यक्त्वादिपूर्वी मनःप्रभृतिव्यापार इति, अथवा सम्यगादिप्रयोगः उचितानुचितोभयात्मक औषधादिव्यापार इति ३ । व्यवसायो वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा, स च व्यवसायिनां धार्मिकाधार्मिक-धार्मिकाधार्मिकाणां संयता - ऽसंयत- देशसंयतलक्षणानां सम्बन्धित्वादभेदेनोच्यमानस्त्रिधा भवतीति, संयमा-ऽसंयम- देशसंयमलक्षणविषयभेदाद्वा 15 ४ । व्यवसायो निश्चयः, स च प्रत्यक्षोऽवधि- मन: पर्याय- केवलाख्यः, प्रत्ययात् इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणान्निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अग्न्यादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी, ततो जातमानुगामिकम् अनुमानम्, तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक एवेति । अथवा प्रत्यक्ष: स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिक: 20 आप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति ५ । इहलोके भव ऐहलौकिको य इह भवे वर्त्तमानस्य निश्चयोऽनुष्ठानं वा स ऐहलौकिको व्यवसाय इति भाव:, यस्तु परलोके भविष्यति स पारलौकिकः, यस्त्विह परत्र च स ऐहलौकिकपारलौकिक इति ६ । १. सामे भां० जे० ॥। २. प्रत्य' जे१ खं० ॥ २५५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे लौकिक: सामान्यलोकाश्रयो निश्चयोऽनुष्ठानं वा, वेदाश्रितो वैदिकः, समय: साङ्ख्यादीनां सिद्धान्तः, तदाश्रितस्तु सामयिकः ७) लौकिकादयो व्यवसाया: प्रत्येकं त्रिविधाः, ते च प्रतीता एव, नवरम् अर्थधर्म-कामविषयो निर्णयो यथा5 अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दानं च दया दमश्च । कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरम: क्रियासु ॥ [ ] इत्यादिरूपः, तदर्थमनुष्ठानं वा अर्थादिरेव व्यवसाय उच्यते इति ८ । ऋग्वेदाद्याहितो निर्णयो व्यापारो वा ऋग्वेदादिरेवेति ९ । ज्ञानादीनि सामयिको व्यवसाय:, तत्र ज्ञानं व्यवसाय एव, पर्यायशब्दत्वात्, दर्शनमपि श्रद्धानलक्षणं व्यवसायः, 10 व्यवसायांशत्वात्तस्येति प्रतिपादितमेव, चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मन: परिणतिविशेषत्वात्, यच्चोच्यते सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपडिसेहाणुगं तत्थ [ ] त्ति तद् बाह्यचारित्रापेक्षमवगन्तव्यमिति । अथवा ज्ञानादौ विषये यो व्यवसायो बोधोऽनुष्ठानं वा स विषयभेदात् त्रिविध इति । सामयिकता चास्य सम्यग्मिथ्याशब्दलाञ्छितस्य ज्ञानादित्रयस्य सर्वसमयेष्वपि भावादिति १० ।। 15 अर्थस्य राजलक्ष्म्यादेोनि: उपायोऽर्थयोनिः, साम प्रियवचनादि, दण्डो वधादिरूप: परनिग्रहः, भेदो जिगीषितशत्रपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिः, क्वचित्तु दण्डपदत्यागेन प्रदानेन सह तिम्रोऽर्थयोनय: पठ्यन्ते, भवन्ति चात्र श्लोका:परस्परोपकाराणां दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यान ३ मायत्या: संप्रकाशनम् ४ ॥ [ ] अस्मिन्नेवं कृते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशाजननमायतिसंप्रकाशनमिति, वाचा पेशलया साधु तवाहमिति चार्पणम् ५ । इति सामप्रयोगज्ञैः साम पञ्चविधं स्मृतम् ॥ वधश्चैव १ परिक्लेशो २ धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधानजैर्दण्डोऽपि त्रिविध: स्मृतः ॥ स्नेहरागापनयनं १ संहर्षोत्पादनं तथा २ । सन्तर्जनं च ३ भेदज्ञैर्भेदस्तु त्रिविधः स्मृतः ॥ [ ] संहर्ष: स्पर्धा, सन्तर्जनं च अस्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो 20 25 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ [सू० १९२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः भविष्यतीत्यादिरूपमिति, प्रदानलक्षणमिदम् य: सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः । प्रतिदानं तथा तस्य १ गृहीतस्यानुमोदनम् २॥ द्रव्यदानमपूर्वं च ३, स्वयंग्राहप्रवर्त्तनम् ४ । देयस्य प्रतिमोक्षश्च ५, दानं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ [ ] धनोत्सर्गो धनसम्पत्, स्वयंग्राहप्रवर्त्तनम् परस्वेषु, देयप्रतिमोक्ष ऋणमोक्ष इति। प्रयोगश्चासामेवम् उत्तमं प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समं तुल्यपराक्रमैः ॥ [ ] इति । [सू० १९२] तिविधा पोग्गला पन्नत्ता, तंजहा-पओगपरिणता, मीसापरिणता, 10 वीससापरिणता । तिपतिट्ठिया णरगा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविपतिट्ठिता, आगासपतिट्ठिता, आयपतिट्टिता । णेगम-संगह-ववहाराणं पुढविपइट्ठिया, उजुसुतस्स आगासपतिट्ठिया, तिण्हं सद्दणयाणं आयपतिट्ठिया । [टी०] अनन्तरं जीवा धर्मत: प्ररूपिता:, इदानीं पुद्गलांस्तथैव प्ररूपयन्नाह- तिविहा 15 पुग्गलेत्यादि । प्रयोगपरिणता: जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीता:, यथा पटादिषु कादिषु वा, मीस त्ति प्रयोग-विस्रसाभ्यां परिणताः, यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया विस्रसापरिणामेन चाऽभोगेऽपि पुराणतयेति, विस्रसा' स्वभाव:, तत्परिणता अभ्रेन्द्रधनुरादिवदिति । ___ पुद्गलप्रस्तावाद्विस्रसापरिणतपुद्गलरूपाणां नरकावासानां प्रतिष्ठाननिरूपणायाह- 20 तिपतिट्ठियेत्यादि स्फुटम्, केवलं नरका नरकावासाः, आत्मप्रतिष्ठिता: स्वरूपप्रतिष्ठिताः। तत्प्रतिष्ठानं नयैराह- णेगमेत्यादि, नैकेन सामान्य-सामान्यविशेषविशेषग्राहकत्वात् तस्याऽनेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैकमः, अथवा निगमा: निश्चितार्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगम:, अथवा नैको गम: अर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगम: १, संग्रहणं भेदानां सङ्गृह्णाति वा तान् संगृह्यन्ते वा ते येन स 25 १. प्रतिषु पाठा:- नरकावासा: जे१ । नरका नारकावासा: खं० पा० जे२ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सङ्ग्रहो महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति २, व्यवहरणं व्यवह्रियते वा स व्यवह्रियते वा तेन विशेषेण वा सामान्यमवह्रियते निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो वा व्यवहारो विशेषमात्राभ्युपगमपर: ३, एतेषां नयानां मतेनेति गम्यम् । ऋजु अवक्रमभिमुखं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजुश्रुतः, ऋजु वा अतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वर्त्तमानं वस्तु सूत्रयति 5 गमयतीति ऋजुसूत्र:, स्वकीयं साम्प्रतं च वस्तु नान्यदित्यभ्युपगमपर: ४, शप्यते अभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो वाचको ध्वनि:, नयन्ति परिच्छिन्दन्त्यनेकधर्मात्मकं सद्वस्तु सावधारणतयैकेन धर्मेणेति नया:, शब्दप्रधाना नया: शब्दनया:, ते च त्रय:शब्द-समभिरूद्वैवंभूताख्या:, तत्र शपनमभिधानं शप्यते वा य: शप्यते वा येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, स च भावनिक्षेपरूपं 10 वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति ५, वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहति आश्रयति य: स समभिरूढः, स ह्यनन्तरोक्तविशेषणस्यापि वस्तुनः शक्र-पुरन्दरादिवाचकभेदेन भेदमभ्युपगच्छति घट-पटादिवदिति । यथा शब्दार्थो घटते चेष्टत इति घट इत्यादिलक्षण: एवमिति तथा भूत: सत्यो घटादिरों नान्यथेत्येवमभ्युपगमपर एवंभूतो नय:, अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं 15 व्युत्पत्त्यर्था विष्ट मेवार्थमिच्छति, जलाहरणादिचेष्टावन्तं घट मिवेति ७ । तत्राद्यत्रयस्याशुद्धत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रतिष्ठितत्वं नरकाणामिति मतम् । चतुर्थस्य शुद्धत्वात् आकाशस्य च गच्छ तां तिष्ठतां वा सर्वभावानामैकान्तिकाधारत्वात् भुवोऽनैकान्तिकत्वाच्चाकाशप्रतिष्ठितत्वमिति, त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाधिकरणस्यान्तरङ्गत्वादव्यभिचारित्वाच्च 20 आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति, न हि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणा भावा: कदाचनापि भवन्तीति, यत आह वत्थु वसइ सहावे सत्ताओ चेयणव्व जीवम्मि । न विलक्खणत्तणाओ भिन्ने अन्यत्र छायातवे चेव ॥ [विशेषाव० २०४२] त्ति । [सू० १९३] तिविहे मिच्छत्ते पन्नत्ते, तंजहा-अकिरिया, अविणए, अन्नाणे 25 १॥ १. दृश्यतां पृ० ४० टि० २ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १९३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । २५९ अकिरिया तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाणकिरिया २॥ पओगकिरिया तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-मणपओगकिरिया, वइपओगकिरिया, कायपओगकिरिया ३। __ समुदाणकिरिया तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-अणंतरसमुदाणकिरिया, 5 परंपरसमुदाणकिरिया, तदुभयसमुदाणकिरिया ४। अन्नाणकिरिया तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-मतिअन्नाणकिरिया, सुतअन्नाणकिरिया, विभंगअन्नाणकिरिया ५। अविणए तिविहे पन्नत्ते,तंजहा-देसच्चाती, निरालंबणता, नाणापेजदोसे ६॥ अन्नाणे विविधे पन्नत्ते, तंजहा-देसण्णाणे, सव्वण्णाणे, भावण्णाणे ७। 10 [टी०] नरकेषु च मिथ्यात्वाद् गतिर्जन्तूनां भवतीति अथवा नया मिथ्यादृश इति सम्बन्धान्मिथ्यात्वस्वरूपमाह- तिविहे मिच्छत्ते इत्यादिसूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं मिथ्यात्वं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षितम्, प्रयोगक्रियादीनां वक्ष्यमाणतद्भेदानां असम्बध्यमानत्वात्, ततोऽत्र मिथ्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्र पता, मिथ्यादर्शनानाभोगादिजनितो विपर्यासो दुष्टत्वमशोभनत्वमिति भाव: । अकिरिय त्ति 15 नजिह दु:शब्दार्थो यथा अशीला दु:शीले त्यर्थः, ततश्चाक्रि या दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहतस्यामोक्षसाधकमनुष्ठानम्, यथा मिथ्यादृष्टे ज्ञानमप्यज्ञानमिति, एवमविनयोऽपि, अज्ञानम् असम्यग्ज्ञानमिति १। अक्रिया हि अशोभना क्रियैवाऽतोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियैवोक्तेति, तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते व्यापार्यत इति 20 प्रयोगो मनोवाक्कायलक्षणः, तस्य क्रिया करणं व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगै: मन:प्रभृतिभिः क्रियते बध्यते इति प्रयोगक्रिया, कर्मेत्यर्थः, सा च दुष्टत्वादक्रिया, अक्रिया च मिथ्यात्वमिति सर्वत्र प्रक्रमः, समुदाणं ति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां समिति सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देश-सर्वोपघातिरूपतया च आदानं १. मिच्छत्तेत्यादि जे२ विना ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्वीकरणं समुदानं निपातनात्तदेव क्रिया कर्मेति समुदानक्रियेति, अज्ञानाद्या चेष्टा कर्म वा सा अज्ञानक्रियेति २। प्रयोगक्रिया त्रिविधा व्याख्यातार्था ३ । नास्त्यन्तरं व्यवधानं यस्या: साऽनन्तरा, सा चासौ समुदानक्रिया चेति विग्रह:, प्रथमसमयवर्तिनीत्यर्थः, द्वितीयादिसमयवर्तिनी तु परम्परसमुदानक्रियेति, 5 प्रथमाप्रथमसमयापेक्षया तु तदुभयसमुदानक्रियेति ४ । मइअन्नाणकिरिय त्ति अविसेसिया मइच्चिय सम्मद्दिट्ठिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुयं पि एमेव ॥ [विशेषाव० ११४] त्ति । मत्यज्ञानात् क्रिया अनुष्ठानं मत्यज्ञानक्रिया, एवमितरे अपि, नवरं विभङ्गो मिथ्यादृष्टेरवधिः, स एवाज्ञानं विभङ्गाज्ञानमिति ५। 10 व्याख्यातमक्रियामिथ्यात्वम्, अविनयमिथ्यात्वव्याख्यानायाह- अविणयेत्यादि, विशिष्टो नयो विनय: प्रतिपत्तिविशेषः, तत्प्रतिषेधादविनयः, देशस्य जन्मक्षेत्रादेस्त्यागो देशत्यागः, स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीदानादावस्ति स देशत्यागी। निर्गत आलम्बनाद् आश्रयणीयात् गच्छ-कुटुम्बकादेरिति निरालम्बनः, तद्भावो निरालम्बनता, आश्रयणीयानपेक्षत्वमिति भावः, पुष्टालम्बनाभावेन वोचितप्रतिपत्तिभ्रंशः । प्रेम च द्वेषश्च 15 प्रेमद्वेषम्, नानाप्रकारं प्रेमद्वेषं नानाप्रेमद्वेषमविनयः, इयमत्र भावना आराध्यविषयमाराध्यसंमतविषयं वा प्रेम तथाऽऽराध्यासम्मतविषयो द्वेष इत्येवं नियतावेतौ विनय: स्यात्, उक्तं च सरुषि नुति: स्तुतिवचनं तदभिमते प्रेम तद्विषि द्वेषः । दानमुपकारकीर्तनममन्त्रमूलं वशीकरणम् ॥ [ ] इति । 20 नानाप्रकारौ तु तावाराध्यतत्संमतेतरलक्षणविशेषानपेक्षत्वेनानियतविषयावविनय इति। अज्ञानमिथ्यात्वमित उच्यते – अन्नाणेत्यादि, ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधः, तन्निषेधोऽज्ञानम्, तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्, यदा च सर्वतस्तदा सर्वाज्ञानम्, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति, अथवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति अकारप्रश्लेषं विनापि न दोष इति। १. लीप्रदाना' पा० जे२ ।। २. नतिः पासं० जे२ । अत्र प्राचीनत्वात् 'नुतिः' इति पाठोऽस्माभिः स्वीकृतः ।। ३. रौ च तावा पा० जे२ ।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _२६१ [सू० १९४] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । [सू० १९४] तिविहे धम्मे पन्नत्ते, तंजहा-सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अत्थिकायधम्मे । तिविधे उवक्कमे पन्नत्ते, तंजहा-धम्मिते उवक्कमे, अधम्मिते उवक्कमे, धम्मिताधम्मिते उवक्कमे १। अहवा तिविधे उवक्कमे पन्नत्ते, तंजहा-आतोवक्कमे, परोवक्कमे, तदुभयोवक्कमे २॥ एवं वेयावच्चे ३, अणुग्गहे ४, अणुसट्ठी ५, 5 उवालंभे ६, एवमिक्किक्के तिनि तिनि आलावगा जहेव उवक्कमे ।। तिविहा कहा पन्नत्ता, तंजहा-अत्थकहा, धम्मकहा, कामकहा ७। तिविधे विणिच्छते पन्नत्ते, तंजहा-अत्थविणिच्छते, धम्मविणिच्छते, कामविणिच्छते ८॥ [टी०] उक्तं मिथ्यात्वम्, तच्चाधर्म इति तद्विपर्ययमधुना धर्ममाह- तिविहे धम्मे 10 इत्यादि, श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्म: स्वाध्याय:, एवं चरित्रधर्म: क्षान्त्यादिश्रमणधर्म:, अयं च द्विविधोऽपि द्रव्य-भावभेदे धर्मे भावधर्म उक्तः, यदाह दुविहो उ भावधम्मो सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ [दशवै० नि० ४३] त्ति । अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्ते, तेषां कायो राशिरस्तिकाय:, स चासौ संज्ञया 15 धर्मश्चेत्यस्तिकायधर्मः, गत्युपष्टम्भलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यर्थः, अयं च द्रव्यधर्म इति । ___ अनन्तरं श्रुतधर्म-चारित्रधर्मावुक्तौ, अधुना तद्विशेषानाह- तिविहे उवक्कमे इत्यादिसूत्राणि अष्टौ सुगमानि, परम् उपक्रमणमुपक्रम: उपायपूर्वक आरम्भः, धर्मे श्रुत-चारित्रात्मके भव: स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकः, श्रुत-चारित्रार्थ आरम्भ 20 इत्यर्थः, तथा न धार्मिक: अधार्मिकः असंयमार्थः, तथा धार्मिकश्चासौ देशत: संयमरूपत्वात् अधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वात् धार्मिकाधार्मिकः, देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः, अथवा नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदात् षड्विध उपक्रमः, तत्र नाम-स्थापने सुज्ञाने, द्रव्योपक्रमस्तु ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिधा सचित्ता-ऽचित्तमिश्रद्रव्यभेदात्, तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमो द्विपद-चतुष्पदा-ऽपदभेदभिन्न:, पुनरेकैको द्विविध: 25 १. दुविहो लोगुत्तरिओ सुय – दशवै० नि० ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे " परिकर्म्मणि वस्तुविनाशे च तत्र परिकर्म्म द्रव्यस्य गुणविशेषकरणम्, तस्मिन् सति, तद्यथा- घृताद्युपयोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणम्, एवं शुक-सारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणम्, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनामपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणापादनमिति तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां 5 खड्गादिभिर्विनाश एवोपक्रमः, एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पद्मरागादिमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनं विनाशश्चेति, मिश्र द्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति । तथा क्षेत्रस्य शालिक्षेत्रादेः परिकर्म्मविनाशो वा क्षेत्रोपक्रमः । तथा कालस्य चन्द्रोपरागादिलक्षणस्योपक्रमः उपायेन परिज्ञानं कालोपक्रमः । तथा भावस्य प्रशस्ता प्रशस्तरूपस्योपायतः परिज्ञानमेव भावोपक्रमः, चाप्रशस्तो डोड्डिनी गणिका-sमात्यदृष्टान्तादवसे यः, प्रशस्तश्च श्रुतादिनिमित्तमाचार्यादिभावोपक्रम इति, तथा च धार्मिकस्य संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थं द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावानामुपक्रम उक्तस्वरूपः स धार्मिक एवोपक्रम:, तथा अधार्मिकस्य असंयतस्यासंयमार्थं यः सोऽधार्मिक एव, तथा धार्मिकाधार्मिकस्य देशविरतस्य यः स धार्मिक धार्मिक इति । अथ स्वाम्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधाऽऽह, तत्रात्मनोऽनुकू लोपसर्गादौ शीलरक्षणनिमित्तमुपक्रमो वैहानसादिना विनाश: परिकर्म्म वा आत्मार्थं वा उपक्रमोऽन्यस्य वस्तुनः आत्मोपक्रम इति । तथा परस्य परार्थं वोपक्रमः परोपक्रम इति । तदुभयस्य आत्म-परलक्षणस्य तदुभयार्थं वोपक्रमस्तदुभयोपक्रम इति । एवमिति उपक्रमसूत्रवत् आत्मपरोभयभेदेन वैयावृत्यादयो वाच्याः, व्यावृतस्य भावः कर्म्म वा वैयावृत्यं 20 भक्तादिभिरुपष्टम्भ:, तत्रात्मवैयावृत्यं गच्छ निर्गतस्यैव, परवैयावृत्यं ग्लानादिप्रतिजागरकस्य, तदुभयवैयावृत्यं गच्छ्वासिन इति । अनुग्रहो ज्ञानाद्युपकारः, तत्र आत्माऽनुग्रहोऽध्ययनादिप्रवृत्तस्य, परानुग्रहो वाचनादिप्रवृत्तस्य तदुभयानुग्रहः शास्त्रव्याख्यान-शिष्यसङ्ग्रहादिप्रवृत्तस्येति । अनुशिष्टि: अनुशासनम्, तत्र आत्मनो २६२ 10 स 15 - यथा १. क्रम इति एवम पा० जे२ ॥ २. न्तावसेयः पामू० जे२ ॥ ३. एवं च खं० पा० जे२ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ 10 [सू० १९४] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । बायालीसेसणसंकडम्मि गहणम्मि जीव ! न हु छलिओ। इण्हिं जह न छलिजसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥ [ओघनि० ५४५, पञ्चव० ३५४] ति, तथा विधेयमिति शेष इति । परानुशिष्टिर्यथाता तंसि भाववेजो भवदुक्खनिपीडिया तुहं एते । हंदि सरणं पवन्ना मोएयव्वा पयत्तेणं ॥ [पञ्चव० १३५१] ति । तदुभयानुशिष्टिर्यथा - कहकहवि माणुसत्ताइ पावियं चरणपवररयणं च । ता भो एत्थ पमाओ कइया वि न जुज्जए अम्हं ॥ [ ] ति । उपालम्भ: इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भा, स चात्मनो यथा- 10 चोल्लगदिटुंतेणं दुलहं लहिऊण माणुसं जम्मं । जं न कुणसि जिणधम्मं अप्पा किं वेरिओ तुज्झ? ॥ [ ] त्ति । परोपालम्भो यथाउत्तमकुलसंभूओ उत्तमगुरुदिक्खिओ तुमं वच्छ ! । उत्तमनाणगुणड्डो कह सहसा ववसिओ एवं ? ॥ [ ] ति । 15 तदुभयोपालम्भो यथाएगस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे के वि ताण किं सासयं जीयं ? ॥ [ ] ति । एवमित्यादिना पूर्वोक्तोऽतिदेशो व्याख्यात:, एवं चात्राक्षरघटना- यथैवोपक्रमे आत्म-पर-तदुभयैस्त्रय आलापका उक्ता:, एवमेकैकस्मिन् वैयावृत्यादिसूत्रे ते त्रयस्त्रयो 20 वाच्या इति । अथ श्रुतधर्मभेदा उच्यन्ते- अर्थस्य लक्ष्म्या: कथा उपायप्रतिपादनपरो वाक्यप्रबन्धोऽर्थकथा, उक्तं च सामादि-धातुवादादि-कृष्यादिप्रतिपादिका । अर्थोपादानपरमा कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता ।। [ ] १. तेऽत्र त्रयस्त्रयो जे । तेऽत्रयस्त्रयो खं० ॥ 25 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा-अर्थाख्य: पुरुषार्थोऽयं प्रधान: प्रतिभासते । तृणादपि लघु लोके धिगर्थरहितं नरम् ॥ [ ] इति । इयं च कामन्दकादिशास्त्ररूपा । एवं धर्मोपायकथा धर्मकथा, उक्तं चदया-दान-क्षमाद्येषु धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता। धर्मोपादेयतागर्भा बुधैर्धर्म्मकथोच्यते ॥ [ ] तथा-धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते । पापसक्तं पशोस्तुल्यं, धिग्धर्मरहितं नरम् ॥ [ ] इति । इयं चोत्तराध्ययनादिरूपाऽवसेयेति । एवं कामकथाऽपि, यदाह कामोपादानगर्भा च, वयोदाक्षिण्यसूचिका। 10 अनुरागेङ्गिताद्युत्था, कथा कामस्य वर्णिता ॥ [ ] तथा- स्मितं न लक्षण वचो न कोटिभिर्न कोटिलक्षैः सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यैर्हदयोपगृहनं न कोटिकोट्याऽपि तदस्ति कामिनाम् ॥[ ] इति । इयमपि वात्स्यायनादिरूपाऽवसेयेति, प्रकीर्णा वा तत्तदर्था वचनपद्धतिः कथाचरित्रवर्णनरूपा वा । अर्थादिविनिश्चयाः अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानि, तानि च अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखम्, धिगर्थं दुःखकारणम् ॥ [ ] तथा- धनदो धनार्थिनां धर्मः, कामदः सर्वकामिनाम् ।। धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ॥ [धर्मबिन्दु० १।२] तथा- शल्यं कामा विषं कामा: कामा आशीविषोपमाः । 20 कामानभिलषन्तोऽपि निष्कामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ [ ] इत्यादीनि । [सू० १९५] तहारूवं णं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किंफला पन्जुवासणता ? सवणफला । से णं भंते ! सवणे किं फले ? णाणफले । से णं भंते ! णाणे किंफले ? विण्णाणफले । एवमेतेणं अभिलावेणं इमा गाधा अणुगंतव्वासवणे णाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे ।। अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरि णिव्वाणे ॥१३॥ १. सल्लं कामा विसं कामा कामा आसीविसोपमा। कामे य पत्थेमाणा अकामा जंति दोग्गई ॥ -- उत्तरा० ९।५३।। 15 25 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १९५] २६५ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । जाव सा णं भंते ! अकिरिया किंफला ? निव्वाणफला । से णं भंते! णिव्वाणे किंफले ? सिद्धिगइगमणपज्जवसाणफले पन्नत्ते समणाउसो ! ॥ तइयस्स तृतीयः॥ [टी०] अनन्तरमा दिविनिश्चय उक्त इति तत्कारणफलपरम्परां त्रिस्थानकानवतारिणीमपि प्रसङ्गतो भगवत्प्रश्नद्वारेण निरूपयन्नाह- तहारूवेत्यादि 5 पाठसिद्धम्, केवलं पर्युपासना सेवा, श्रवणं फलं यस्या: सा तथा, साधवो हि धर्मकथादिकं स्वाध्यायं कुर्वन्तीति श्रवणं तत्सेवायां भवतीति, ज्ञानं श्रुतज्ञानम्, विज्ञानम् अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः, एवमिति पूर्वोक्तेनाऽभिलापेन ‘से णं भंते! विन्नाणे किंफले?, पच्चक्खाणफले' इत्यादिना, इयं गाथा अनुगन्तव्या अनुसरणीया, एतद्गाथोक्तानि पदान्यध्येतव्यानीत्यर्थः, सवणेत्यादि, भावितार्था, नवरं 10 प्रत्याख्यानं निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणम्, संयम: प्राणातिपाताद्यकरणम्, उक्तं च पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयम: सप्तदशभेदः ॥ [प्रशम० १७२] इति ।। अनाश्रवो नवकर्मानुपादानम् । अनाश्रवणाल्लघुकर्मत्वेन तपोऽनशनादिभेदं भवति। व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनलवनं दाप् लवने [पा० धा० १०५९] इति वचनात्, 15 कर्मकचवरशोधनं वा दैप शोधने [पा० धा० ९२४] इति वचनादिति । अक्रिया योगनिरोधः, निर्वाणं कर्मकृतविकारविरहितत्वम् । सिद्ध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः लोकाग्रम्, सैव गम्यमानत्वाद् गतिः, तस्यां गमनम्, तदेव पर्यवसानफलं सर्वान्तिमप्रयोजनं यस्य निर्वाणस्य तत् सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं प्रज्ञप्तं मया अन्यैश्च के वलिभिः, हे श्रमणायुष्मन्निति गौतमादिकं शिष्यं 20 भगवानामन्त्रयन्निदमुवाचेति। ॥ त्रिस्थानकस्य तृतीयोद्देशको विवरणत: समाप्त: ।। १. काररहित पा० जे२ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 20 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [ अथ चतुर्थ उद्देशक: ] [सू० १९६] पडिमापडिवन्नस्स णं अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सया पडिलेहित्तते, तंजहा - अहे आगमणगिहंसि वा, अहे वियडगिहंसि वा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा । एवमणुण्णवित्तते, उवातिणित् । पडिमापडिवन्नस्स णं अणगारस्स कप्पंति तओ संथारगा पडिलेहित्तते, तंजहा - पुढविसिला, कट्ठसिला, अधासंथडमेव । एवं अणुण्णवित्तते, वातिणित्तते । [टी०] व्याख्यात: तृतीय उद्देशकः, अधुना चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःपूर्वस्मिन् उद्देशके पुद्गल - जीवधर्मास्त्रित्वेनोक्ता इहापि त एव तथैवोच्यन्त इत्यनेन 10 सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रषट्कं पडिमेत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः- पूर्वसूत्रे श्रमणमाहनस्य पर्युपासनायाः फलपरम्परोक्ता इह तु तद्विशेषस्य कल्पविधिरुच्यत इत्येवंसम्बन्धितस्यास्य व्याख्या - प्रतिमां मासिक्यादिकां भिक्षुप्रतिज्ञाविशेषलक्षणां प्रतिपन्नः अभ्युपगतवान् यः स तथा तस्याऽनगारस्य कल्पन्ते युज्यन्ते त्रय उपाश्रीयन्ते भज्यन्ते शीतादित्राणार्थं थे ते उपाश्रयाः वसतयः प्रत्युपेक्षितुम् 15 अवस्थानार्थं निरीक्षितुमिति, अहेत्ति अथार्थ:, अथशब्दश्चेह पदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया तुल्यताप्रतिपादनार्थः, वा विकल्पार्थः, पथिकादीनामागमनेनोपेतं तदर्थं वा गृहमागमनगृहं सभा - प्रपादि, यदाह 25 २६६ आगंतु गारत्थजो जहिं तु, संठाइ जं वाऽऽगमणम्मि तेसिं । तं आगमोकं तु विदू वयंति, सभा - पवा - देउलमाइयं च || [ बृहत्कल्प० ३४८६]त्ति । तस्मिन् उपाश्रयः तदेकदेशभूतः प्रत्युपेक्षितुं कल्पत इति प्रक्रम इति । तथा वियडं ति विवृतम् अनावृतम्, तच्च द्वेधा अध ऊर्ध्वं च तत्र पार्श्वत एकादिदिक्षु अनावृतमधोविवृतम्, अनाच्छादितममालगृहं चोर्ध्वविवृतम्, तदेव गृहं विवृतगृहम्, उक्तं च 2 अवाउडं जं तु चउद्दिसिं पि दिसामहो तिन्नि दुवे य एक्का । अहे भवे तं वियडं गिहं तु, उट्टं अमालं च अतिच्छदं च ॥ [ बृहत्कल्प० ३५००] त्ति । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १९७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २६७ तस्मिन् वा, तथा वृक्षस्य करीरादेर्निर्गलस्य मूलम् अधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहं तस्मिन् वेति। प्रत्युपेक्षया चोपाश्रये शुद्धे गृहस्थं प्रति तदनुज्ञापनं भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम्एवमिति एतदेव पडिमापडिवन्नेत्याधुच्चारणीयम्, नवरं प्रत्युपेक्षणास्थाने अनुज्ञापन वाच्यमिति । अनुज्ञाते च गृहिणा तस्योपादानमित्युपादानसूत्रम्, तदप्येवमेवेति, ओवाइणित्तए त्ति उपादातुं ग्रहीतुम्, प्रवेष्टमित्यर्थः, एवं संस्तारकसूत्रत्रयमपि, नवरं 5 पृथिवीशिला उवट्टगो त्ति य: प्रसिद्धः, काष्ठं चासौ शिलेवाऽऽयति-विस्तराभ्यां शिला सा चेति काष्ठशिला, यथासंस्तृतमेवेति यत्तृणादि यथोपभोगाईं भवति तथैव यल्लभत इति । [सू० १९७] तिविधे काले पण्णत्ते, तंजहा-तीते, पडुप्पन्ने, अणागते । तिविधे समए पन्नत्ते, तंजहा-तीते, पडुप्पन्ने, अणागते । एवं आवलिया 10 आणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरत्ते जाव वाससतसहस्से पुव्वंगे पुव्वे जाव ओसप्पिणी । तिविधे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते, तंजहा-तीते, पडुप्पन्ने, अणागते । [टी०] प्रतिमाश्च नियतकाला भवन्तीति कालं त्रिधाऽऽह- अति अतिशयेनेतो गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपे तीतो, वर्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः, साम्प्रतमुत्पन्न: 15 प्रत्युत्पन्नो वर्तमान इत्यर्थः, न आगतोऽनागतो वर्तमानत्वमप्राप्तः, भविष्यन्नित्यर्थः, उक्तं च भवति स नामातीत: प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति य: प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् ॥ [ ] इति । कालसामान्यं त्रिधा विभज्य तद्विशेषांस्त्रिधा विभजयन्नाह- तिविहे समये इत्यादि 20 कालसूत्राणि, समयादयो द्विस्थानकाद्योद्देशकवत् व्याख्येया:, नवरं पोग्गलपरियट्टे त्ति पुद्गलानां रूपिद्रव्याणामाहारकवर्जितानाम् औदारिकादिप्रकारेण ग्रहणत: एकजीवापेक्षया परिवर्त्तनं सामस्त्येन स्पर्श: पुद्गलपरिवर्त्तः, स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः, स चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूप इति, स चेत्थं भगवत्यामुक्त:___ कतिविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?, गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा- 25 १. शिला चेवेति काष्ठशिला जे१ ।। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ओरालियपोग्गलपरियट्टे वेउब्वियपोग्गलपरियट्टे एवं तेयाकम्मामणवइआणापाणूपोग्गलपरियट्टे [भगवती० १२।४।१५] तथा से केणऽटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-ओरालियपोग्गलपरियट्टे २?, गोयमा! जेणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपाउग्गाई दवाइं ओरालियसरीरत्ताए गहियाइं जाव णिसट्ठाई भवंति, से तेणऽटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ5 ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओ० २ । [भगवती० १२।४।४७] एवं शेषा अपि वाच्याः, तथा ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स णिव्वट्टिजइ?, गोयमा! अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं [भगवती० १२।४।५०] ति, एवं शेषा अपीति । अन्यत्र त्वेवमुच्यते ओराल १ विउव्वा २ तेय ३ कम्म ४ भासा ५ ऽऽणुपाणु ६ मणगेहिं ७ । फासे वि सव्वपोग्गल मुक्का अह बायरपरट्टो । ____ 10 दव्वे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अह सरीरेणं । लोगम्मि सव्वपोग्गल परिणामेऊण तो मुक्का ॥ [ ] इति । द्रव्यपुद्गलपरिवर्त्तसदृशा येऽन्ये क्षेत्र-काल-भावपरिवर्तास्तेऽन्यतोऽवसेया इति । [सू० १९८] तिविहे वयणे पन्नत्ते, तंजहा-एगवयणे, दुवयणे, बहुवयणे। अहवा तिविधे वयणे पन्नत्ते, तंजहा-इत्थिवयणे, पुमवयणे, नपुंसगवयणे। 15 अहवा तिविधे वयणे पन्नत्ते, तंजहा-तीतवयणे, पडुप्पन्नवयणे, अणागयवयणे । तिविधा पन्नवणा पन्नत्ता, तंजहा-णाणपन्नवणा, दंसणपन्नवणा, चरित्तपन्नवणा ॥ तिविधे सम्मे पन्नत्ते, तंजहा-नाणसम्मे, दंसणसम्मे, चरित्तसम्मे २। 20 तिविधे उवघाते पन्नत्ते, तंजहा-उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते ३। एवं विसोधी ४।। तिविहा आराहणा पन्नत्ता, तंजहा-णाणाराहणा, दंसणाराहणा, चरित्ताराहणा ५। णाणाराहणा तिविधा पन्नत्ता, तंजहा-उक्कस्सा, मज्झिमा, जहन्ना ६। एवं दंसणाराहणा वि ७, चरित्ताराहणा वि ८॥ 25 तिविधे संकिलेसे पन्नत्ते, तंजहा-नाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, १. य? त्ति ।२ एवं जे१ ॥ २. सार्धगाथा प्रवचनसारोद्धारेऽपि १०४१, १०४३-१ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ [सू० १९८] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । चरित्तसंकिलेसे ९। एवं असंकिलेसे वि १०, एवमतिक्कमे वि ११, वतिक्कमे वि १२, अइयारे वि १३, अणायारे वि १४ । तिहमतिकमाणं आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेजा जाव पडिवज्जेजा, तंजहा-णाणातिक्कमस्स, सणातिक्कमस्स, चरित्तातिक्कमस्स १५। एवं वइक्कमाणं १६, अतिचाराणं १७, अणायाराणं १८। 5 तिविधे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे १९। __ [टी०] एते च समयादयः पुद्गलपरिवर्तान्ताः स्वरूपेण बहवोऽपि तत्सामान्यलक्षणमे कम् अर्थमाश्रित्यैकवचनान्ततयोक्ता:, भवन्ति चैकादिष्वर्थेष्वेकवचनादीनीत्येकवचनादिप्ररूपणायाह- तिविहे इत्यादि, एकोऽर्थ 10 उच्यतेऽनेन उक्तिर्वेति वचनम्, एकस्यार्थस्य वचनमेकवचनम्, एवमितरे अपि, अत्र क्रमेणोदाहरणानि देवो देवौ देवा: । वचनाधिकारे अहवेत्यादि सूत्रद्वयं सुबोधम्, उदाहरणानि तु स्त्रीवचनादीनां नदी, नदः, कुण्डम्, तीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति। __ वचनं हि जीवपर्यायस्तदधिकारात् तत्पर्यायान्तराणि त्रिस्थानकेऽवतारयन्नाह तिविहे इत्यादिसूत्राणामेकोनविंशति:, स्पष्टा चेयम्, परं प्रज्ञापना भेदाद्यभिधानम्, तत्र 15 ज्ञानप्रज्ञापना आभिनिबोधिकादि पञ्चधा ज्ञानम्, एवं दर्शनं क्षायिकादि त्रिधा, चारित्रं सामायिकादि पञ्चधेति । समञ्चतीति सम्यक् अविपरीतम्, मोक्षसिद्धि प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः, तच्च ज्ञानादीति । उपहननमुपघात:, पिण्ड-शय्यादेरकल्प्यतेत्यर्थः, तत्र उद्गमनमुद्गम: पिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः, तस्य चाधाकादय: षोडश दोषा:, उक्तं च तत्थुग्गमो पसूई पभवो एमादि होंति एगट्ठा । सो पिंडस्सिह पगओ तस्स य दोसा इमे होंति ॥ [पञ्चाशक० १३१४, पञ्चवस्तुक० ७४०] आहाकम्मु १ देसिय २ पूइकम्मे य ३ मीसजाए य ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओयर ७ कीय ८ पामिच्चे ९॥ [पञ्चा०१३।५, पिण्डनि० ९२] परियट्टिए १० अभिहडे ११ उब्भिन्ने १२ मालोहडे इय १३ । अच्छेज्जे १४ अनिसट्टे १५ अज्झोयरए य १६ सोलसमे ॥[पञ्चा०१३।६,पिण्डनि०९३] त्ति। 20 25 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इह चाभेदविवक्षया उद्गमदोषा एवोद्गमः, अतस्ते नोद्गमे नो पघात: पिण्डादेरकल्पनीयताकरणं चरणस्य वा शबलीकरणमुद्गमोपघात:, उद्गमस्य वा पिण्डादिप्रसूतेरुपघात: आधाकर्मत्वादिभिर्दष्टता उद्गमोपघातः, एवमितरावपि, केवलमुत्पादना सम्पादनम्, गृहस्थात् पिण्डादेरुपार्जनमित्यर्थः, तद्दोषा धात्रीत्वादय: 5 षोडश, यदाह उप्पायण संपायण णिव्वत्तणमो य होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया तीय य दोसा इमे होंति ॥ [पञ्चाशक० १३।१७, पञ्चव० ७५३] धाई १ दुइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा य ६ । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे य १० हवंति दस एए ॥ [पञ्चाशक० १३।१८, पञ्चव० ७५४ पिण्डनि० ४०८] पुव्विं पच्छा संथव ११ विज्जा १२ मंते य १३ चुन्न १४ जोगे य १५ । उप्पायणाए दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥ पिण्डनि० ४०९, पञ्चा० १३।१९, पञ्चव० ७५५] त्ति । तथा एषणा गृहिणा दीयमानपिण्डादेर्ग्रहणम्, तदोषा: शङ्कितादयो दशेति, 15 आह च एसणगवेसणन्नेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया तीय य दोसा इमे होंति ॥ [पञ्चा० १३।२५, पञ्चव० ७६१] संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥ __20 [पञ्चा० १३।२६, पञ्चव० ७६२, पिण्डनि० ५२०] इह चसोलस उग्गमदोसा गिहियाओ समुट्ठिए वियाणाहि । उप्पायणाए दोसा साहूओ समुट्ठिए जाण ॥ [पिण्डनि० ४०३] एषणादोषास्तूभयसमुत्था इति । एवमुद्गमादिभिर्दोषैरविद्यमानतया या विशुद्धिः पिण्डचरणादीनां निर्दोषता सा उद्गमादिविशुद्धिरुद्मादीनां वा विशुद्धिर्या सा तथेति, 25 इदमेवातिदिशन्नाह- एवं विसोही । ज्ञानस्य श्रुतस्याराधना कालाध्ययनादिष्वष्टस्वाचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना, एवं दर्शनस्य नि:शङ्कितादिषु, चारित्रस्य समिति-गुप्तिषु, सा चोत्कृष्टादिभेदा भावभेदात् कालभेदाद्वेति । ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षण: Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । सक्लिश्यमानपरिणामनिबन्धनो ज्ञानादिसङ्क्लेशः, ज्ञानादिशुद्धिलक्षणो विशुद्धयमानपरिणामहेतुकस्तदसङ् क्लेशः । एवमिति, ज्ञानादिविषया एवाऽतिक्रमादयश्चत्वारः, तत्राधाकर्म्माश्रित्य चतुर्णामपि निदर्शनम् - आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ १ । पयभेयादि वइक्कम २ गहिए तइए ३ यरो गिलिए ४ ॥ [ व्यवहारपीठिका ४३ ] त्ति । 5 इत्थमेवोत्तरगुणरूपचारित्रस्य चत्वारोऽपि, एतदुद्देशेन ज्ञानदर्शनयोस्तदुपग्रहकारिद्रव्याणां च पुस्तक - चैत्यादीनामुपघाताय मिथ्यादृशामुपबृंहणार्थं वा निमन्त्रणप्रतिश्रवणादिभिर्ज्ञानदर्शनातिक्रमादयोऽप्यायोज्या इति । तिण्हं अइक्कमाणं ति षष्ठ्या द्वितीयार्थत्वात् त्रीनतिक्रमानालोचयेत् गुरवे निवेदयेदित्यादि प्राग्वत्, नवरं यावत्करणात् 'विसोहेज्जा विउट्टेज्जा अकरणयाए अब्भुट्ठेज्जा अहारिहं तवोकम्मं 10 पायच्छित्त’मित्यध्येतव्यमिति । पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राकृते 'पायच्छित्तमिति शुद्धिरुच्यते, तद्विषय: शोधनीयातिचारोऽपि प्रायश्चित्तमिति, तच्च त्रिधा, दशविधत्वेऽपि तस्य त्रिस्थानकानुरोधादिति, तत्रालोचनमालोचना गुरवे निवेदनं तां शुद्धिभूतामर्हति तयैव शुद्ध्यति यदतिचारजातं भिक्षाचर्यादि तदालोचनार्हमिति, एवं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतम्, तदर्हं सहसा असमितत्वमगुप्तत्वं चेति, उभयम् आलोचना-प्रतिक्रमणलक्षणमर्हति यत्तत्तथा, मनसा रागद्वेषगमनादि, सार्द्धगाथेहभिक्खायरियाइ सुज्झइ अइयारो को वि वियडणाए उ । बीओ य असमिओ मि त्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ? ॥ [सू० १९९] २७१ सद्दाइएसु रागं दोसं च मणो गओ तइयगम्मि [ आव०नि० १४३९ - १४४० ]त्ति । [सू० १९९] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं ततो अकम्मभूमीओ 20 पन्नत्ताओ, तंजहा - हेमवते, हरिवासे, देवकुरा । जंबूदीवे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहाउत्तरकुरा, रम्मगवासे, एरण्णवए । जंबुमंदरस्स दाहिणेणं ततो वासा पन्नत्ता, तंजहा - भरहे, हेमवए, हरिवासे । जंबुमंदरस्स उत्तरेणं ततो वासा पन्नत्ता, तंजहा - रम्मगवासे, हेरन्नवते, 25 एरवते । 15 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ जंबुमंदरस्स दाहिणेणं तओ वासहरपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, णिसढे । जंबुमंदरस्स उत्तरेणं तओ वासहरपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-णीलवंते, रुप्पी, सिहरी । 5 जंबुमंदरस्स दाहिणेणं तओ महादहा पन्नत्ता, तंजहा-पउमदहे, महापउमदहे, तिगिंच्छिदहे । तत्थ णं ततो देवताओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमट्टितीताओ परिवसंति, तंजहा-सिरी, हिरी, धिती । एवं उत्तरेण वि, णवरं केसरिदहे, महापोंडरीयदहे, पोंडरीयदहे । देवताओ- कित्ती, बुद्धी, लच्छी । ___ जंबुमंदरदाहिणेणं चुल्लहिमवंतातो वासधरपव्वताओ पउमदहातो महादहातो 10 तओ महाणदीओ पवहंति, तंजहा- गंगा, सिंधू, रोहितंसा । जंबुमंदरउत्तरेणं सिहरीओ वासधरपव्वताओ पोंडरीयद्दहातो महादहाओ तओ महानदीओ पवहंति, तंजहा- सुवन्नकूला, रत्ता, रत्तावती । जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महाणतीते उत्तरेणं ततो अंतरणतीतो पन्नत्ताओ, तंजहा- गाहावती, दहवती, पंकवती । 15 जंबुमंदरपुरस्थिमेणं सीताते महाणतीते दाहिणेणं ततो अंतरणतीतो पन्नत्ताओ, तंजहा- तत्तजला, मत्तजला, उम्मत्तजला । जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीओदाते महाणतीते दाहिणेणं ततो अंतरणदीतो पन्नत्ताओ, तंजहा- खारोदा, सीहसोया, अंतोवाहिणी । ___ जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोदाए महाणदीए उत्तरेणं तओ अंतरणदीतो 20 पन्नत्ताओ, तंजहा- उम्मिमालिणी, फेणमालिणी, गंभीरमालिणी । __ एवं धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे वि अकम्मभूमीतो आढवेत्ता जाव अंतरणदीओ त्ति णिरवसेसं भाणियव्वं, जाव पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । [टी०] एते च प्रज्ञापनादयो धाः प्रायो मनुष्यक्षेत्र एव स्युरिति तद्वक्तव्यतामाह25 जंबूदीवेत्यादि, इदं च प्रकरणं द्विस्थानकानुसारेण जम्बूद्वीपपटानुसारेण चावसेयमिति । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ [सू० २००] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । नवरमन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमिति । [सू० २००] तिहिं ठाणेहिं देसे पुढवीते चलेज्जा, तंजहा-अधे णमिमीसे रयणप्पभाते पुढवीते उराला पोग्गला णिवतेज्जा, तते णं ते उराला पोग्गला णिवतमाणा देसं पुढवीते चलेज्जा १, महोरते वा महिड्डिए जाव महेसक्खे इमीसे रतणप्पभाते पुढवीते अहे उम्मजणिमज्जियं करेमाणे देसं पुढवीते 5 चलेज्जा २, णाग-सुवन्नाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देसं पुढवीते चलेज्जा ३, इच्चेतेहिं तिहिं [ठाणेहिं देसे पुढवीते चलेजा] । ___ तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, तंजहा-अधे णं इमीसे रतणप्पभाते पुढवीते घणवाते गुप्पेज्जा, तते णं से घणवाते गुविते समाणे घणोदहिमेएज्जा, तते णं से घणोदधी एइए समाणे केवलकप्पं पुढविं 10 चालेज्जा, देवे वा महिड्डिते जाव महेसक्खे तहारूवस्स समणस्स माहणस्स वा इढेि जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कारपरक्कम उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढविं चालेजा, देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेजा, इच्चेतेहिं [ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेजा] । [टी०] अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रलक्षणक्षितिखण्डवक्तव्यतोक्तेत्यधुना भङ्ग्यन्तरेण 15 सामान्यपृथिवीदेशवक्तव्यतामाह-तिहीत्यादि स्पष्टम्, केवलं देश इति भाग:, पृथिव्या: रत्नप्रभाभिधानाया इति, अहे त्ति अध:, ओराल त्ति उदारा बादरा निपतेयुः विस्रसापरिणामात् ततो विचटेयुरन्यतो वाऽऽगत्य तत्र लगेयुर्यन्त्रमुक्तमहोपलवत्, तए णं ति ततस्ते निपतन्तो देशं पृथिव्याश्चलयेयुरिति पृथिवीदेशश्चलेदिति । महोरगो व्यन्तरविशेष:, महिड्डिए परिवारादिना, यावत्करणात् महज्जुइए शरीरादिदीप्त्या, 20 महाबले प्राणतः, महाणुभागे वैक्रियादिकरणतः, महेसक्खे महेश इत्याख्या यस्येति, उन्मग्ननिमग्निकाम् उत्पतनिपतां कुतोऽपि दादेः कारणात् कुर्वन् देशं पृथिव्याश्चलयेत्, स च चलेदिति, नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां च भवनपतिविशेषाणां परस्परं सङ्ग्रामे वर्तमाने जायमाने सति देसं ति देशश्चलेदिति, इच्चेएहिं त्यादि निगमनमिति। 25 १. पुढवीते अहे क०मध्ये नास्ति ।। २. स्पष्ट केवलं जे१ ख० मध्ये नास्ति ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पृथिव्या देशतश्चलनमुक्तम्, अधुना समस्तायास्तदाह- तिहीत्यादि स्पष्टम्, किन्तु केवलैव केवलकल्पा, ईषदूनता चेह न विवक्ष्यते, अत: परिपूर्णेत्यर्थ: परिपूर्णप्राया वेति, पृथिवी भू:, अहे त्ति अधो धनवात: तथाविधपरिणामो वातविशेषो गुप्येत् व्याकुलो भवेत्, क्षुभ्ये दित्यर्थः, ततः स गुप्तः सन् घनोदधिं 5 तथाविधपरिणामजलसमूहलक्षणमेजयेत् कम्पयेत्, तए णं ति ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजित: कम्पित: सन् केवलकल्पां पृथिवीं चलयेत्, सा च चलेदिति, देवो वा ऋद्धिं परिवारादिरूपाम्, द्युतिं शरीरादे:, यश: पराक्रमकृतां ख्यातिम्, बलं शारीरम्, वीर्यं जीवप्रभवम्, पुरुषकारं साभिमानं व्यवसायम्, निष्पन्नफलं तमेव पराक्रममिति, बल-वीर्याधुपदर्शनं हि पृथिव्यादिचलनं विना न भवतीति तदर्शयंस्तां 10 चलयेदिति । देवाश्च वैमानिका असुरा: भवनपतयस्तेषां भवप्रत्ययं वैरं भवति, अभिधीयते च भगवत्याम्- किंपत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य ? गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइए वेराणुबंधे [भगवती० ३।२।१३] त्ति, ततश्च सङ्ग्राम: स्यात्, तत्र वर्तमाने पृथिवी चलेत्, तत्र तेषां महाव्यायामत उत्पातनिपातसम्भवादिति । इच्चेएहीत्यादि निगमनमिति । 15 [सू० २०१] तिविधा देवकिब्बिसिया पन्नत्ता, तंजहा-तिपलिओवमट्टितीता, तिसागरोवमट्ठितीता, तेरससागरोवमद्वितीया । कहि णं भंते ! तिपलितोवमट्टितीता देवकिब्बिसिया परिवसंति ?, उप्पिं जोतिसिताणं हव्विं सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु एत्थ णं तिपलिओवमट्टितीता देवकिब्बिसिता परिवसंति १। 20 कहि णं भंते ! तिसागरोवमट्टितीता देवकिब्बिसिता परिवसंति ?, उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हव्विं सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु एत्थ णं तिसागरोवमट्टितीया देवकिब्बिसिया परिवसंति २॥ __ कहि णं भंते ! तेरससागरोवमद्वितीया देवकिब्बिसिता परिवसंति ?, उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स हव्विं लंतगे कप्पे एत्थ णं तेरससागरोवमद्वितीया 25 देवकिब्बिसिता परिवसंति ३॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०२-२०३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २७५ [टी०] देवासुरा: सङ्ग्रामकारितयाऽनन्तरमुक्ता:, ते च दशविधाः इन्द्र-सामानिकत्रायस्त्रिंश-पार्षद्या-ऽऽत्मरक्ष-लोकपाला-ऽनीक-प्रकीर्णका-ऽऽभियोग्य-किल्बिषिकाश्चैकशः [तत्त्वार्थ० ४।४] इति वचनात्, इति तन्मध्यवर्तिन: त्रिस्थानकावतारित्वात् किल्बिषिकानभिधातुमाह- तिविहेत्यादि स्फुटम् । केवलं किब्बिसिय त्तिनाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । 5 माई अवनवाई किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १३०२] त्ति । एवंविधभावनोपात्तं किल्बिषं पापम् उदये विद्यते येषां ते किल्बिषिकाः, देवानां मध्ये किल्बिषिका: पापाः, अथवा देवाश्च ते किल्बिषिकाश्चेति देवकिल्बिषिका: मनुष्येषु चण्डाला इवाऽस्पृश्या:, उप्पिं उपरि, हव्विं अधस्तात् सोहम्मीसाणेसु त्ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी । 10 [सू० २०२] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो बाहिरपरिसाते देवाणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता १। सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अब्भंतरपरिसाते देवीणं तिन्नि पल्लिओवमाइं ठिती पन्नत्ता २। ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो बाहिरपरिसाते देवीणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ [टी०] देवाधिकारायातं सक्केत्यादि सूत्रत्रयं सुगममिति । [सू० २०३] तिविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते । ततो अणुग्घातिमा पन्नत्ता, तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं सेवमाणे, रातीभोयणं भुंजमाणे २॥ तओ पारंचिता पन्नत्ता, तंजहा-दुढे पारंचिते, पमत्ते पारंचिते, अन्नमन्नं 20 करेमाणे पारंचिते ३। ततो अणवठ्ठप्पा पन्नत्ता, तंजहा-साहम्मियाणं तेणं करेमाणे, अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणे, हत्थातालं दलयमाणे ४। [टी०] देवीनामनन्तरं स्थितिरुक्ता, देवीत्वं च पूर्वभवे सप्रायश्चित्तानुष्ठानाद्भवतीति १. पञ्चवस्तुके १६३६ ॥ २. चाण्डाला जे१ ॥ ३. हत्थादाणं भां० । 15 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रायश्चित्तस्य तद्वतां च प्ररूपणायाह-तिविहेत्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमम्, केवलं नाणेत्यादि, ज्ञानाद्यतिचारशुद्ध्यर्थं यदालोचनादि ज्ञानादीनां वा योऽतिचारस्तत् ज्ञानप्रायश्चित्तादि, तत्राकाला-ऽविनयाध्ययनादयोऽष्टावतिचारा ज्ञानस्य, शकितादयोऽष्टौ दर्शनस्य, मूलगुणोत्तरगुणविराधनारूपा विचित्रा: चारित्रस्येति । अणुग्घाइम त्ति उद्घातो भागपातः, 5 तेन निर्वृत्तमुद्घातिमम्, लघ्वित्यर्थः, यत उक्तम् अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं तु संजुयं काउं । देजाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥ [ ] त्ति ।। भावना- मासोऽर्द्धन छिन्नो जातानि पञ्चदश दिनानि, ततो मासापेक्षया पूर्वं तपः पञ्चविंशतितमं तद सार्द्धद्वादशकं तेन संयुतं मासार्द्धम, जातानि सप्तविंशतिर्दिनानि 10 सार्द्धानीत्येवं कृत्वा यद् दीयते तल्लघुमासदानम्, एवमन्यान्यपि, एतन्निषेधादनुद्घातिमं तपः, गुवित्यर्थः, तद्योगात् साधवोऽपि वा तथोच्यन्ते । हस्तकर्म हस्तेन शुक्रपुद्गलनिर्घातनक्रिया, तत् कुर्वन्, सप्तमी चेयं षष्ठ्या , तेन कुर्वत इति व्याख्येयम्, एतेषां च हस्तकर्मादीनां यत्र विशेषे योऽनुद्घातिमविशेषो दीयते स कल्पादितोऽवसेयः। पारंचिय त्ति पारं तीरं तपसा अपराधस्याऽञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते य: स पाराञ्ची, 15 स एव पाराञ्चिकः, तस्य यदनुष्ठानं तच्च पाराञ्चिकमिति दशमं प्रायश्चित्तम्, लिङ्गक्षेत्र-काल-तपोभिर्बहिःकरणमिति भाव:, इह च सूत्रे कल्पभाष्य इदमभिधीयते आसायण पडिसेवी दुविहो पारंचिओ समासेणं । एकेक्कंमि य भयणा सचरित्ते चेव अचरित्ते ॥ सव्वचरित्तं भस्सइ केण वि पडिसेविएण उ पएणं । कत्थइ चिट्ठइ देसो परिणामवराहमासज्ज ॥ तुल्लम्मि वि अवराहे परिणामवसेण होइ नाणत्तं । कत्थइ परिणामम्मि वि तुल्ले अवराहनाणत्तं ॥ [बृहत्कल्प० ४९७२-७३-७४] तत्र आशातकपाराञ्चिक: तित्थयरपवयणसुए आयरिए गणहरे मड्डिीए । 25 एते आसायंते पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥ [बृहत्कल्प० ४९७५, ५०६०] त्ति । तत्र सव्वे आसायंते पावति पारंचियं ठाणं [बृहत्कल्प० ४९८३] ति । १. हस्तकर्म आगमप्रसिद्धम्, तत् कुर्वन् पा० ख० जे२ ॥ 20 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ [सू० २०३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २७७ इह च सूत्रे प्रतिसेवकपाराञ्चिक एव त्रिविध उक्त:, तदुक्तम् पडिसेवणपारंची तिविहो सो होइ आणुपुव्वीए । दुढे य १ पमत्ते या २ नेयव्वे अन्नमन्ने य ३ ॥ [बृहत्कल्प० ४९८५] तत्र दुष्टो दोषवान् कषायतो विषयतश्च, पुनरेकैको द्वेधा, सपक्ष-विपक्षभेदात्, उक्तं च दुविहो य होइ दुट्ठो कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य । दुविहो कसायदुट्ठो सपक्ख-परपक्ख चउभंगो ॥ [बृहत्कल्प० ४९८६] तत्र स्वपक्षे कषायदुष्टो यथा सर्षपनालिकाभिधानशाकभर्जिकाग्रहणकुपितो मृताचार्यदन्तभञ्जकः साधुः, विषयदुष्टस्तु साध्वीकामुकः, तत्र चोक्तम्लिंगेण लिंगिणीए संपत्तिं जो णिगच्छई पावो । 10 सव्वजिणाणऽज्जाओ संघो वाऽऽसाइतो तेणं ॥ पावाणं पावयरो दिट्ठिप्फासे वि सो न कप्पति तु । जो जिणपुंगवमुई नमिऊण तमेव धरिसेड़ ॥ त्ति । संसारमणवयग्गं जाइ-जरा-मरणवेयणापउरं ।। पावमलपडलछन्ना भमंति मुद्दाधरिसणेणं ॥ [बृहत्कल्प० ५००८-१०] ति । 15 परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधको द्वितीयो राजाग्रमहिष्यधिगन्तेति, उक्तं चजो य सलिंगे दुट्ठो कसाय-विसएहिं रायवहगो य । रायग्गमहिसिपडिसेवओ य बहुसो पयासो य ॥ [ ] प्रमत्त: पञ्चमनिद्राप्रमादवान्, मांसाशिप्रव्रजितसाधुवदिति, अयं च सद्गुणोऽपि त्याज्य इति, आह च 20 अवि केवलमुप्पाडे ण य लिंगं देइ अणइसेसी से । देसवयदंसणं वा गेण्ह अणिच्छे पलायंति ॥ [बृहत्कल्प० ५०२४] तथा, अन्योन्यं परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनं कुर्वत्, पुरुषयुगमिति शेष:, उच्यते च आसय-पोसयसेवी के वि मणूसा दुवेयगा होति । तेसिं लिंगविवेगो [बृहत्कल्प० ५०२६] त्ति । आसे वितातिचारविशेष: सन्ननाचरिततपोविशेषस्तद्दोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु 25 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नावस्थाप्यते नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्यः, तदतिचारजातं तच्छुद्धिरपि वाऽनवस्थाप्यमुच्यत इति नवमं प्रायश्चित्तमिति । तत्र साधर्मिकाः साधवस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधि-शिष्यादेर्वा बहुशो वा प्रद्विष्टचित्तो वा तेणं ति स्तेयं चौर्यं कुर्वन् १, तथा अन्यधार्म्मिका: शाक्यादयो गृहस्था वा, तेषां सत्कस्योपध्यादेः स्तेयं 5 कुर्वन्निति २, तथा हस्तेनाऽऽताडनं हस्तातालस्तं दलमाणे ददत्, यष्टि-मुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति भाव:, उक्तं च उक्कोसं बहुसो वा पट्ठचित्तो व तेणियं कुणइ । पहरड़ जो य सपक्खे निरवेक्खो घोरपरिणामो ॥ [ ] अथवा अत्थादाणं दलमाणो त्ति पाठस्तत्र अर्थादानं द्रव्योपादानकारणमष्टाङ्गनिमित्तं 10 तद्ददत् प्रयुञ्जान इत्यर्थः, अथवा हत्थालंबं दलमाणे ति पाठः तत्र हस्तालम्ब व हस्तालम्बस्तं हस्तालम्बं ददत्, अशिव-पुररोधादौ तत्प्रशमनार्थमभिचारकमन्त्र-विद्यादि प्रयुञ्जान इत्यर्थ: ३। 15 20 २७८ 25 [सू० २०४ ] ततो णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तंजहा - पंडए, वातिए, कीवे १। एवं मुंडावेत्तए २, सिक्खावेत्तए ३, उवट्टावेत्तए ४, संभुंजेत्तए ५, संवासित ६ । ततो अवायणिज्जा पन्नत्ता, तंजहा - अविणीते, विगतीपडि बद्धे, अविओसवितपाहडे । ततो कप्पंति वातित्तते, तंजहा - विणीते, अविगती पडि बद्धे, विओसवियपाहुडे । तओ दुसन्नप्पा पत्ता, तंजहा दुट्ठे, मूढे, वुग्गाहिते । तओ सुसन्नप्पा पत्ता, तंजहा - अदुट्ठे, अमूढे, अवुग्गाहि । [0] पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं प्रव्राजनादियुक्तस्य भवति, तानि चायोग्यनिरासेन योग्यानां विधेयानीति तदयोग्यान्निरूपयन् सूत्रषट्कमाह- तओ इत्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु पण्डकं नपुंसकम्, तच्च लक्षणादिना विज्ञाय परिहर्त्तव्यम्, लक्षणानि चास्य महिलासहावो १ सर २ वन्नभेओ ३, मेंढं महंतं ४ मउई य वाया ५ । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च ६, एयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥ [ बृहत्कल्प० ५१४४ ] त्ति । १. माणो जे१ ।। २. संवसि क० भा० । दृश्यतां सू० ६६ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०४ ] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः, यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहनं कषायितं भवति तदा न शक्नोति यो वेदं धारयितुं यावन्न प्रतिसेवा कृता स वातिक इति, अयं च निरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति, क्वचित्तु वाहिय त्ति पाठः, तत्र व्याधितो रोगीत्यर्थः। तथा क्लीब: असमर्थ:, स च चतुर्द्धा - दृष्टिक्लीब-शब्दक्लीबा-ऽऽदिग्धक्लीबनिमन्त्रणक्लीबभेदात्, तत्र यस्यानुरागतो विवस्त्राद्यवस्थं विपक्षं पश्यतो मेहनं गलति 5 दृष्टिक्लीब:, यस्य तु सुरतादिशब्दं शृण्वतः स द्वितीयः, यस्तु विपक्षेणावगूढो निमन्त्रितो वा व्रतं रक्षितुं न शक्नोति स आदिग्धक्लीबो निमन्त्रितक्लीबश्चेति, चतुर्विधोऽप्ययं निरोधे नपुंसकतया परिणमतीति, वातिक-क्लीबयोस्तु परिज्ञानं तयोस्तन्मित्रादीनां वा कथनादेरिति, विस्तरश्चात्र कल्पादवसेयः, एते चोत्कटवेदतया व्रतपालनासहिष्णव इति न कल्पन्ते प्रव्राजयितुम्, प्रव्राजकस्याप्याज्ञाभङ्गेन दोषप्रसङ्गादिति, उक्तं चजिणवणे पडिकुट्टं जो पव्वावेइ लोभदोसेणं । चरणट्ठिओ तवस्सी लोवे तमेव उ चरितं ॥ [ निशीथ० ३७४५ ] ति । २७९ इह त्रयोऽप्रव्राज्या उक्ताः त्रिस्थानकानुरोधाद्, अन्यथा अन्येऽपि ते सन्ति, बाले वुढे नपुंसे य जड्डे कीवे य वाहिए । तेणे रायावगारी य उम्मत्ते य अदंसणे ॥ दासे दुट्ठे [य] मूढे [य] अणत्ते जुंगिए इय | ओबद्ध य भयए सेहनिप्फेडिया इय ॥ व्विणी बालवच्छाय पव्वावेउं न कप्पइ ॥ [ निशीथ० ३५०६-८ ]त्ति । अदंसणो अन्धः, अणत्तो ऋणपीडितः, जुंगिओ जात्यङ्गहीन, ओबद्धओ विद्यादायकादिप्रतिजागरकः, सेहणिप्फेडिआ अपहृत इति । एवमित्यादि, यथैते 20 प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते एवमेत एव कथञ्चिच्छलितेन प्रव्राजिता अपि सन्तो मुण्डयितुं शिरोलोचेन न कल्पन्ते, उक्तं च 10 यदाह पव्वाविओ सियत्ति, यः स्यादितीत्यर्थः, मुंडावेउं अणायरणजोगो । अहवा मुंडाविंते दोसा अणिवारिया पुरिमा || [ तुलना- बृहत्कल्प० ५१९०] इति । एवं शिक्षयितुं प्रत्युपेक्षणादिसामाचारीं ग्राहयितुम्, तथा उपस्थापयितुं महाव्रतेषु 25 व्यवस्थापयितुम्, तथा सम्भोक्तुम् उपध्यादिना, एवमनाभोगात् संभुक्ताश्च संवासयितुम् 15 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आत्मसमीपे आसयितुं न कल्पन्त इति प्रक्रम इति । __ कथञ्चित् संवासिता अपि वाचनाया अयोग्या: न वाचनीया इति तानाह- तओ इत्यादि सुगमम्, नवरं न वाचनीया: सूत्रं न पाठनीया:, अत एवार्थमप्यश्रावणीया:, सूत्रादर्थस्य गुरुत्वात्, तत्राऽविनीत: सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहित:, तद्वाचने हि दोष:, 5 यत उक्तम् इहरह वि ताव थब्भइ अविणीओ लंभिओ किमु सुएणं ? । मा णट्ठो नासिहिई खए व खारोवसेगो उ ।। गोजूहस्स पडागा सयं पलायस्स वड्डयइ य वेगं । दोसोदए य समणं न होइ न नियाणतुल्लं च ॥ [बृहत्कल्प० ५२०१-२] 10 निदानतुल्यमेव भवतीत्यर्थः, विणयाहीया विजा देइ फलं इह परे य लोयम्मि । न फलंतऽविणयगहिया सस्साणि व तोयहीणाइं ॥ [बृहत्कल्प० ५२०३] ति । तथा विकृतिप्रतिबद्धो घृतादिरसविशेषगृद्धः, अनुपधानकारीति भाव:, इहापि दोष एव, यदाह15 अतवो न होइ जोगो न य फलए इच्छियं फलं विजा । अवि फलति विउलमगुणं साहणहीणा जहा विजा ॥ [बृहत्कल्प० ५२०६] इति । अव्यवशमितम् अनुपशान्तं प्राभृतमिव प्राभृतं नरकपालकौशलिकं परमक्रोधो यस्य सोऽव्यवंशमितप्राभृतः, उक्तं च अप्पे वि पारमाणिं अवराहे वयइ खामियं तं च । 20 बहुसो उदीरयंतो अविओसियपाहुडो स खलु ॥ [बृहत्कल्प० ५२०७] त्ति । पारमाणिं परमक्रोधसमुद्घातं व्रजतीति भाव:, एतस्य वाचने इहलोकतस्त्यागोऽस्य प्रेरणायां कलहनात् प्रान्तदेवताछलनाच्च, परलोकतोऽपि त्यागः, तत्र श्रुतस्य दत्तस्य निष्फलत्वात्, ऊषरक्षिप्तबीजवदिति, आह च दुविहो उ परिच्चाओ इह चोयण कलह १ देवयाछलणं २ । 25 परलोगम्मि अ अफलं खित्तं पि व ऊसरे बीयं ॥ [बृहत्कल्प० ५२०८] ति । एतद्विपर्ययसूत्रं सुगमम् । १. 'वसित जे१ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०५] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २८१ __ श्रुतदानस्यायोग्या उक्ता:, इदानीं सम्यक्त्वस्याप्ययोग्यानाह- तओ इत्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु दुःखेन कृच्छ्रेण संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोध्यन्त इति दुःसंज्ञाप्या:, तत्र दुष्टो द्विष्टः तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति, स चाऽप्रज्ञापनीयः, द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः, एवं मूढो गुण-दोषानभिज्ञः, व्युद्ग्राहित: कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यास:, सोऽप्युपदेशं न प्रतिपद्यते, उक्तं च पुव्वं कुग्गाहिया केई, बाला पंडियमाणिणो । नेच्छंति कारणं सोउं, दीवजाए जहा णरे ॥ [बृहत्कल्प० ५२२४] त्ति ४। एतेषां स्वरूपं कल्पात् कथाकोशाच्चावसेयमिति । एतद्विपर्यस्तान् सुसंज्ञाप्यतयाऽऽह- तओ इत्यादि स्फुटमिति । [सू० २०५] ततो मंडलिया पव्वता पन्नत्ता, तंजहा-माणुसुत्तरे, कुंडलवरे, 10 रुयगवरे । ततो महतिमहालया पन्नत्ता, तंजहा-जंबुद्दीवते मंदरे मंदरेसु, सयंभुरमणे समुद्दे समुद्देसु, बंभलोए कप्पे कप्पेसु । [टी०] उक्ता: प्रज्ञापनार्हाः पुरुषा:, अधुना तत्प्रज्ञापनीयवस्तूनि त्रिस्थानकावतारीण्याह- तओ मंडलिएत्यादि, मण्डलं चक्रवालम्, तदस्ति येषां ते मण्डलिका: 15 प्राकारवलयवदवस्थिताः, मानुषेभ्यो मानुषक्षेत्राद्वोत्तरः परतोवर्ती मानुषोत्तर इति, तत्स्व रूपं चेदम् पुक्खरवरदीवड्ढं परिखिवई माणुसुत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवो विभयंतो माणुसं लोगं ॥ सत्तरस एगवीसाइं जोयणसयाई सो समुव्विद्धो । चत्तारि य तीसाई मूले कोसं च ओगाढो ॥ दस बावीसाइं अहे वित्थिण्णो होइ जोयणसयाइं । सत्त य तेवीसाइं वित्थिण्णो होइ मज्झम्मि ॥ चत्तारि य चउवीसे वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अड्डाइजे दीवे दो य समुद्दे अणुपरीइ ॥ [द्वीपसागर० १-४] त्ति । तथा- जंबूदीवो १ धायइ २ पुक्खरदीवो य ३ वारुणिवरो य ४ । खीरवरो वि य दीवो ५ घयवरदीवो य ६ खोयवरो ७ ॥ १. संज्ञाप्यंते बोध्यंत इति दुःसंज्ञाप्याः जे१ । संज्ञ(ज्ञा खंसं०)प्यंते बोध्यंते इति दुःसंज्ञ(ज्ञा खंसं०)प्या: खं०॥ 25 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नंदीसरो य ८ अरुणो ९ अरुणावाओ य १० कुंडलवरो य ११ । तह संख १२ रुयग १३ भुयवर १४ कुस १५ कुंचवरो १६ तओ दीवो ॥ [बृहत्सं० ८२-८३] । इति क्रमापेक्षया एकादशे कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृति: कुण्डलवर 5 इति, तद्रूपमिदम् कुंडलवरस्स मज्झे णगुत्तमो होति कुण्डलो सेलो । पागारसरिसरूवो विभयंतो कुण्डलं दीवं ॥ बायालीससहस्से उव्विद्धो कुंडलो हवइ सेलो । एगं चेव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो य मूलम्मि । सत्तेव जोयणसए बावीसे वित्थडो मज्झे ॥ चत्तारि जोयणसए चउवीसे वित्थडो उ सिहरतले । [द्वीपसागर० ७२-७५] त्ति । तथा त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे कुण्डलाकृती रुचक इति, एतस्य त्विदं स्वरूपम्रुयगवरस्स उ मज्झे नगुत्तमो होति पव्वओ रुयगो । पागारसरिसरूवो रुयगं दीवं विभयमाणो । रुयगस्स उ उस्सेहो चउरासीतिं भवे सहस्साइं । एगं चेव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ दस चेव सहस्सा खलु बावीसा जोयणाण बोधव्वा । मूलम्मि उ विक्खंभो साहीओ रुयगसेलस्स ॥ [द्वीपसागर० ११२-११४] 20 तथा मध्यविस्तारोऽस्य सप्त सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि, शिरोविस्तारस्तु चत्वारि सहस्राणि चतुर्विंशत्यधिकानीति । __ मानुषोत्तरादयो महान्त उक्ता इति महदधिकारादतिमहत आह- तओ महतीत्यादि व्यक्तम्, केवलमतिमहान्तश्च ते आलयाश्च आश्रया: अतिमहालयाः, महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति महातिमहालया:, अथवा 'लय' इत्येतस्य स्वार्थिकत्वात् 25 महातिमहान्त इत्यर्थः, द्विरुच्चारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्वगुरुत्वख्यापनार्थम्, अव्युत्पन्नो वाऽयमतिमहदर्थे वर्त्तत इति । मंदरेसु त्ति मेरूणां मध्ये जम्बूद्वीपकस्य सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वाच्छेषाणां चतुर्णां सातिरेकपञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणत्वा१. तेवीसे इति द्वीपसागरप्रज्ञप्तौ ।। 15 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०६] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २८३ दिति । स्वयम्भूरमणो महान् सुमेरोरारभ्य तस्य शेषसर्वद्वीप-समुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात्, तेषां तस्य च क्रमेण किञ्चिन्न्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति । ब्रह्मलोकस्तु महान्, तत्प्रदेशे पञ्चरज्जुप्रमाणत्वात् लोकविस्तरस्य, तत्प्रमाणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । [सू० २०६] तिविधा कप्पट्ठिती पन्नत्ता, तंजहा-सामाइयकप्पट्टिती, 5 छेदोवट्ठावणियकप्पद्विती, निव्विसमाणकप्पट्टिती १॥ अहवा तिविहा कप्पट्टिती पन्नत्ता, तंजहा-णिव्विट्ठकप्पट्टिती, जिणकप्पट्टिती, थेरकप्पट्टिती २।। [टी०] अनन्तरं ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधर्म्यात् कल्पस्थितिं त्रिधाऽऽह तिविहेत्यादि सूत्रद्वयं व्यक्तम्, केवलं समानि ज्ञानादीनि, तेषामायो लाभ: समाय:, 10 स एव सामायिकं संयमविशेषः, तस्य तदेव वा कल्प: करणमाचारः, यथोक्तम्सामर्थ्य वर्णनायां च, करणे छेदने तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ [ ] इति सामायिककल्पः, स च प्रथम-चरमतीर्थयोः साधूनामल्पकाल:, छे दोपस्थापनीयस्य सद्भावात्, मध्यतीर्थेषु महाविदेहेषु च यावत्कथिकः, 15 छेदोपस्थापनीयाभावात्, तदेवं तस्य तत्र वा स्थिति: मर्यादा सामायिककल्पस्थितिः, सा च शय्यातरपिण्डपरिहारे चतुर्यामपालने पुरुषज्येष्ठत्वे बृहत्पर्यायस्येतरेण वन्दनकदाने च नियमलक्षणा, शुक्लप्रमाणोपेतवस्त्रापेक्षया यदचेलत्वं तत्र १ तथा आधाकर्मिकभक्ताद्यग्रहणे २ राजपिण्डाग्रहणे ३ प्रतिक्रमणकरणे ४ मासकल्पकरणे ५ पर्युषणकल्पकरणे ६ चाऽनियमलक्षणा चेति, अत्रोक्तम् सिज्जायरपिंडे या १ चाउज्जामे य २ पुरिसजेट्टे य २ । किइकम्मस्स य करणे ४ चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥ आचेल १ कुद्देसिय २ सपडिक्कमणे य ३ रायपिंडे य ४ । मासं ५ पज्जोसवणा ६ छप्पेयणवट्ठिया कप्पा ॥ [बृहत्कल्प० ६३६१-६२] तत्राचेलकत्वमेवम्१. स्वयंभुर जे१ ॥ 25 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दुविहो होइ अचेलो असंतचेलो य संतचेलो य । तत्थ असंतेहिं जिणा संताऽचेला भवे सेसा ॥ सीसावेढियपोत्तं नइउत्तरणम्मि नग्गयं बेंति । जुन्नेहिं नग्गियऽम्हि तुर सालिय ! देहि मे पोत्तिं ॥ 5 जुन्नेहिं खंडिएहिं असव्वतणुपाउएहिं ण य णिच्चं । संतेहि वि णिग्गंथा अचेलया होंति चेलेहिं ॥ [बृहत्कल्प० ६३६५-६३६७) इत्यादि । तथा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थापनीयम् आरोपणीयं छेदोपस्थापनीयम्, व्यक्तितो महाव्रतारोपणमित्यर्थः, तच्च प्रथम-पश्चिमतीर्थयोरेवेति, शेषा व्युत्पत्तिस्तथैव, तत्स्थितिश्चोक्तलक्षणेष्वेव दशसु स्थानकेष्ववश्यपालनलक्षणेति, तथाहि10 दसठाणठिओ कप्पो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुयरयकप्पो दसठाणपइट्ठियो होइ ॥ त्ति । आचेल १ कुद्देसिय २ सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ । वय ६ जे? ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ पजोसवणकप्पे १० ॥ [बृहत्कल्प० ६३६३-४] त्ति। निर्विशमाना ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति, परिहारिका इत्यर्थः, तेषां कल्पे 15 स्थितिर्यथा ग्रीष्म-शीत-वर्षाकालेषु क्रमेण तपो जघन्यं चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमानि मध्यम षष्ठादीनि उत्कृष्टमष्टमादीनीति, पारणे चायाममेव, पिण्डैषणासप्तके चाद्ययोरेग्रह एवेति, पञ्चसु पुनरेकया भक्तमेकया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रह इति, उक्तं च बारस १ दस २ अट्ठ ३ दस १ ४ २ छ? ३ अट्ठेव १ छ? २ चउरो य ३ । उक्कोस-मज्झिम-जहन्नगा उ वासा-सिसिर-गिम्हे ॥ [बृहत्कल्प० ६४७२] 20 पारणगे आयामं पंचसु गहो दोसऽभिग्गहो भिक्खे [ ] त्ति । निर्विष्टा आसेवितविवक्षितचारित्राः, अनुपरिहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितिर्यथा प्रतिदिनमायाममात्रं तपो भिक्षा तथैवेति, उक्तं च-कप्पट्ठिया वि पइदिण करेंति एमेव चायाम [ ] ति । एते च निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते, तेषां च नवको गणो भवति, ते च एवंविधा:१. पारणं जेसं१ विना ॥ २. रग्रह एव पंचसु पा० जे२ ॥ ३. सामाइयं च पढमं..... ॥११४॥ इति आवश्यकनियुक्तिगाथाया हारिभद्र्यां वृत्तौ निर्दिष्टासु परिहारविशुद्धिचारित्रवर्णनपरासु नवसु गाथासु चतुर्थीयं गाथा ।। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०७] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २८५ सव्वे चरित्तवंतो उ, दंसणे परिनिट्ठिया । नवपुव्विया जहन्नेणं, उक्कोसा दसपुव्विया ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पम्मि दविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिनिट्ठिया ॥ [बृहत्कल्प० ६४५४-५५] इत्यादि । जिना गच्छनिर्गतसाधुविशेषाः, तेषां कल्पस्थितिर्जिनकल्पस्थिति:, सा 5 चैवम्-जिनकल्पं हि प्रतिपद्यते जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तुनि सति उत्कृष्टतस्तु दशसु भिन्नेषु, प्रथमे संहनने, दिव्याधुपसर्ग-रोगवेदनाश्चासौ सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपेतस्थण्डिल एवोच्चारादि जीर्णवस्त्राणि च त्यजति, वसति: सर्वोपाधिविशुद्धाऽस्य, भिक्षाचर्या तृतीयपौरुष्याम्, पिण्डैषणोत्तरासां पञ्चानामेकतरैव, विहारो मासकल्पेन, तस्यामेव वीथ्यां षष्ठदिने भिक्षाटनमिति, एवंप्रकारा चेयं 10 सुयसंघयणेत्यादिकाद् गाथासमूहात् कल्पोक्तादवगन्तव्येति, भणितं चगच्छम्मि य निम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । अग्गह जोग अभिग्गहे, उति जिणकप्पियचरित्तं ॥ [बृहत्कल्प० ६४८३] अग्रहे आद्ययोः, अभिग्रहे पञ्चानां पिण्डैषणानां योगे द्वयोर्मध्ये एकतरस्या गृहीतपरमार्थाः, 15 धिइबलिया तवसूरा निती गच्छाउ ते पुरिससीहा । बलवीरियसंघयणा उवसग्गसहा अभीरु (रू) य ॥ [बृहत्कल्प० ६४८४] त्ति । स्थविरा: आचार्यादयो गच्छप्रतिबद्धाः, तेषां कल्पस्थिति: स्थविरकल्पस्थितिः, सा च पव्वज्जा सिक्खावयमत्थगहणं च अनियओ वासो । निप्फत्ती य विहारो सामायारी ठिई चेव ॥ [बृहत्कल्प० ११३२, १४४२, विशेषाव० ७] इत्यादिकेति । इह च सामायिके सति छेदोपस्थापनीयं तत्र च परिहारविशुद्धिकभेदरूपं निर्चिशमानकं तदनन्तरं निर्विष्टकायिकं तदनन्तरं जिनकल्प: स्थविरकल्पो वा भवतीति सामायिककल्पस्थित्यादिक: सूत्रयोः क्रमोपन्यास इति । [सू० २०७] रतियाणं ततो सरीरगा पन्नता, तंजहा-वेउव्विए, तेयए, 25 कम्मए। असुरकुमाराणं ततो सरीरगा एवं चेव, एवं सव्वेसिं देवाणं । १. परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ।। २. योगे पञ्चानां मध्ये खं० पा० जे२ । दृश्यतां पृ० २८४ पं० १७ ॥ 20 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुढविकाइयाणं ततो सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए। एवं वाउकाइयवजाणं जाव चउरिंदियाणं । [टी०] उक्तकल्पस्थितिव्यतिक्रामिणो नारकादिशरीरिणो भवन्तीति तच्छरीरनिरूपणायाह- नेरइयाणमित्यादिदण्डक: कण्ठ्य:, किन्तु एवं सव्वदेवाणं ति यथा 5 असुराणां त्रीणि शरीराणि एवं नागकुमारादिभवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानाम्, एवं वाउकाइयवज्जाणं ति, वायूनां हि आहारकवर्जानि चत्वारि शरीराणीति तद्वर्जनमेवं पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारि मनुष्याणां तु पञ्चापीति त इह न दर्शिताः । [सू० २०८] गुरुं पडुच्च ततो पडिणीता पन्नत्ता, तंजहा-आयरियपडिणीते, उवज्झायपडिणीते, थेरपडिणीते १॥ 10 गतिं पडुच्च ततो पडिणीया पन्नत्ता, तंजहा-इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए, दुहओलोगपडिणीए २। समूहं पडुच्च ततो पडिणीता पन्नत्ता, तंजहा-कुलपडिणीते, गणपडिणीते, संघपडिणीते ३॥ अणुकंपं पडुच्च ततो पडिणीया पन्नत्ता, तंजहा-तवस्सिपडिणीए, 15 गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए ४। __ भावं पडुच्च ततो पडिणीता पन्नत्ता, तंजहा-णाणपडिणीए, दंसणपडिणीए, चरित्तपडिणीए ५। सुतं पडुच्च ततो पडिणीता पन्नत्ता, तंजहा-सुत्तपडिणीते, अत्थपडिणीते, तदुभयपडिणीते ६। 20 टी०] कल्पस्थितिव्यतिक्रामिणश्च प्रत्यनीका अपि भवन्तीति तानाह- गुरुमित्यादि सूत्राणि षड् व्यक्तानि, किन्तु गृणाति अभिधत्ते तत्त्वमिति गुरुस्तं प्रतीत्य आश्रित्य प्रत्यनीका: प्रतिकूला: । स्थविरो जात्यादिभिः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम् जच्चाईहि अवन्नं विभासइ वटइ न यावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही पगासवादी अणणुलोमो ॥ [बृहत्कल्प० १३०५] अहवा वि वए एवं उवएसं परस्स देंति एवं तु ।। दसविहवेयावच्चे कायव्व सयं न कुव्वंति ॥ [ ] त्ति । १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'तेत्तीसाए आसायणाहि....' इत्यस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ निर्दिष्टेयं गाथा॥ २. उवएसु जे१ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०९] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । गति: मानुषत्वादिका, तत्रेहलोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीकः परलोको जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकः इन्द्रियार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः । यद्वा इहलोकप्रत्यनीक इहलोकोपकारिणां भोगसाधनादीनामुपद्रवकारी इहलोकप्रत्यनीकः, एवं ज्ञानादीनामुपद्रवकारी परलोकप्रत्यनीकः, उभयेषां तु 5 द्विधालोकप्रत्यनीक इति । अथवेहलोको मनुष्यलोकः, परलोको नारकादिः, उभयमेतदेव द्वितयम्, प्रत्यनीकता तु तद्वितथप्ररूपणेति । कुलं चान्द्रादिकम्, तत्समूहो गणः कोटिकादिः, तत्समूहः सङ्घ इति, प्रत्यनीकता चैतेषाम् अवर्णवादादिभिरिति, कुलादिलक्षणं चेदम् एत्थ कुलं विनेयं गायरियस्स संतई जा उ । तिह कुलाण मिहो पुण सावेक्खाणं गणो होइ ॥ सव्वो वि नाण - दंसण- चरणगुणविभूसियाण समणाणं । समुदाय पुण संघ गुणसमुदाओ त्ति काऊणं ॥ [ ] मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहि किं कज्जं ? ॥ " अनुकम्पाम् उपष्टम्भं प्रतीत्य आश्रित्य । तपस्वी क्षपकः, ग्लानो रोगादिभिरसमर्थः, शैक्ष: अभिनवप्रव्रजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति, तदकरणाकारणाभ्यां च 15 प्रत्यनीकतेति। भावः पर्यायः, स च जीवाजीवगतः, तत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तः क्षायिकादि:, अप्रशस्तो विवक्षयौदयिकः, क्षायिकादिश्च ज्ञानादिरूप:, ततो भावं ज्ञानादिं प्रतीत्य प्रत्यनीकस्तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा, यथापाययसुत्तनिबद्धं को वा जाणइ पणीय केणेयं ? । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणा उ किं हवइ ॥ [ त्ति । सूत्रं व्याख्येयमर्थः तद्व्याख्यानं निर्युक्त्यादिस्तदुभयं द्वितयमिति, तत्प्रत्यनीकता– काया वया य ते च्चिय. ते चेव पमाय अप्पमाया य । २८७ 10 [ बृहत्कल्प० १३०३] इत्यादि दूषणोद्भावनमिति । [सू० २०९ ] ततो पितियंगा पन्नत्ता, तंजहा - अट्ठी अट्ठिमिंजा केस-मंसु - 25 रोम - नहे १ | १. दृश्यतां पृ० २८६ टि०१ ॥ 20 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तओ माउयंगा पन्नत्ता, तंजहा-मंसे सोणिते मत्थुलुंगे । [टी०] उक्ता कल्पस्थितिर्गर्भजमनुजानामेव तच्छरीरं च मातापितृहेतुकमिति तयोस्तदङ्गेषु हेतुत्वे विभागमाह-तओ पियंगेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यम्, केवलं पितुः जनकस्याऽङ्गानि अवयवा: पित्रङ्गानि प्राय: शुक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः, अस्थि प्रतीतम्, 5 अस्थिमिंजा अस्थिमध्यरस:, केशाश्च शिरोजा: श्मश्रु च कूर्च: रोमाणि च कक्षादिजातानि नखाश्च प्रतीता: केश-श्मश्रु-रोम-नखमित्येकमेव प्रायः समानत्वादिति। मात्रङ्गानि आर्त्तवपरिणतिप्रायाणीत्यर्थः, मांसं प्रतीतम्, शोणितं रक्तम्, मस्तुलुङ्गं शेषं मेद:- फिप्फिसादि, कपालमध्यवर्ति भेजकमित्येके । सू० २१०] तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, 10 तंजहा-कया णं अहं अप्पं वा बहं वा सुयं अहिन्जिस्सामि, कया णं अहमेकल्लविहारपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरिस्सामि, कया णं अहमपच्छिममारणंतितसंलेहणाझूसणाझसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि, एवं स मणस स वयस स कायस पंधारेमाणे निग्गंथे महानिजरे महापजवसाणे भवति । 15 तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तंजहा कया णं अहमप्पं वा बहुं वा परिग्गहं परिचइस्सामि १, कया णं अहं मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वइस्सामि २, कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसिते भत्तपाणपडियातिक्खिते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि ३, एवं स मणस स वयस स कायस 20 पधारेमाणे समणोवासते महानिजरे महापजवसाणे भवति । [टी०] पूर्वोक्तस्थविरकल्पस्थितिप्रतिपन्नस्य विशिष्टनिर्जराकारणान्यभिधातुमाहतिहीत्यादि सुगमम्, नवरं महती निर्जरा कर्मक्षपणा यस्य स तथा, महत् प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसानं पर्यन्तं समाधिमरणतोऽपुनर्मरणतो वा जीवितस्य यस्य स तथा, अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, एवं स मणस त्ति एवमुक्तलक्षणं त्रयम्, स इति 25 साधुः मणस त्ति मनसा हस्वत्वं प्राकृतत्वात्, एवं स वयस त्ति वचसा, स कायस १. पागडेमाणे भां० विना ।। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २११-२१२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २८९ त्ति कायेनेत्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणैरित्यर्थः, अथवा स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन् पर्यालोचयन्, क्वचित्तु पागडेमाणे त्ति पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यक्तीकुर्वन्नित्यर्थः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि त्रीणि निर्जरादिकारणानीति दर्शयन्नाह- तिहीत्यादि कण्ठ्यम् । [सू० २११] तिविहे पोग्गलपडिघाते पन्नत्ते, तंजहा-परमाणुपोग्गले 5 परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहम्मेजा, लुक्खत्ताते वा पडिहम्मेजा, लोगंते वा पडिहम्मेजा। [टी०] अनन्तरं. कर्म निर्जरोक्ता, सा च पुद्गलपरिणामविशेषरूपेति पुद्गलपरिणामविशेषमभिधातुमाह- तिविहेत्यादि, पुद्गलानाम् अण्वादीनां प्रतिघातो गतिस्खलनं पुद्गलप्रतिघात:, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्च परमाणुपुद्गल: स तदन्तरं प्राप्य 10 प्रतिहन्येत गतेः प्रतिघातमापद्येत, रूक्षतया वा तथाविधपरिणामान्तरात् गतित: प्रतिहन्येत, लोकान्ते वा, परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । [सू० २१२] तिविहे चक्खू पन्नत्ते, तंजहा-एगचक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू। छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे बिचक्खू, तहारूवे समणे वा माहणे वा उत्पन्ननाणदंसणधरे से णं तिचक्खु त्ति वत्तव्वं सिता । [टी०] पुद्गलप्रतिघातं च चक्षुरेव जानातीति तन्निरूपणायाह- तिविहेत्यादि प्राय: कण्ठ्यम्, चक्षुः लोचनम्, तद् द्रव्यतोऽक्षि भावतो ज्ञानम्, तद्यस्यास्ति स तद्योगाच्चक्षुरेव, चक्षुष्मानित्यर्थः, स च त्रिविधः चक्षुःसङ्ख्याभेदात्, तत्रैकं चक्षुरस्येत्येकचक्षुरेवमितरावपि । छादयतीति छद्म ज्ञानावरणादि, तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थ:, स च यद्यप्यनुत्पन्नकेवलज्ञान: सर्व एवोच्यते तथापीहातिशयवत्श्रुतज्ञानादिवर्जितो 20 विवक्षित इति एकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया । देवो द्विचक्षुः चक्षुरिन्द्रिया-ऽवधिभ्याम् । उत्पन्नमावरणक्षयोपशमेन ज्ञानं च श्रुता-ऽवधिरूपं दर्शनं च अवधिदर्शनरूपं यो धारयति वहति स तथा, य एवंभूत: स त्रिचक्षुः चक्षुरिन्द्रिय-परमश्रुता-ऽवधिभिरिति वक्तव्यं स्यात्, स हि साक्षादिवावलोकयति हेयोपादेयानि समस्तवस्तूनि, केवली त्विह 15 १. च सचक्षुरेव जे१ विना ।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे न व्याख्यातः केवलज्ञान-दर्शनलक्षणचक्षुर्द्वयकल्पनासम्भवेऽपि चक्षुरिन्द्रियलक्षणचक्षुष उपयोगाभावेनासत्कल्पतया तस्य चक्षुस्त्रयं न विद्यत इति कृत्वेति, द्रव्येन्द्रियापेक्षया तु सोऽपि न विरुध्यत इति । [सू० २१३] तिविधे अभिसमागमे पन्नत्ते, तंजहा - उहं, अहं, तिरियं । जया 5 णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पज्जति से णं तप्पढमताते उड्डमभिसमेति, ततो तिरितं, ततो पच्छा अधे, अहोलोगे णं दुरभिगमे पत्ते समणाउसो ! | [टी०] चक्षुष्माननन्तरमुक्तः, तस्य चावगमो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजन्नाह– तिविहेत्यादि, अभीत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपर्यासरूपतया समिति सम्यक् न संशयतया 10 तथा आ मर्यादया गमनमभिसमागमो वस्तुपरिच्छेदः । इहैव ज्ञानभेदमाह - जया णमित्यादि, अइसेस त्ति शेषाणि छद्मस्थज्ञानान्यतिक्रान्तमतिशेषं ज्ञानदर्शनं तच्च परमावधिरूपमिति भाव्यते, केवलस्य न क्रमेणोपयोगो येन तत्प्रथमतयेत्यादि सूत्रमनवद्यं स्यादिति, तस्य ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्याम् उड्डुं ति ऊर्ध्वलोकमभिसमेति समवगच्छति जानाति, ततस्तिर्यगिति तिर्यग्लोकम्, ततस्तृतीय15 स्थानेऽध इत्यधोलोकमभिसमेति, एवं च सामर्थ्यात् प्राप्तमधोलोको दुरभिगम:, क्रमेण पर्यन्ताधिगम्यत्वादिति, हे श्रमणायुष्मन्निति गौतमामन्त्रणमिति । 20 [सू० २१४] तिविधा इड्डी पन्नत्ता, तंजहा-देविड्डी, राइड्डी, गणिड्डी १ । देविड्डी तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- विमाणिड्डी, विगुव्वणिड्डी, परियारणिड्डी २| अहवा देवड्डी तिविधा पन्नत्ता, तंजहा - सचित्ता, अचित्ता, मीसिता ३। राइड्डी तिविधा पत्ता, तंजहा - रण्णो अतियाणिड्डी, रण्णो निज्जाणिड्डी, रण्णो बल-वाहण-कोस- कोट्ठागारिड्डी ४ अहवा रातिड्डी तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - सचित्ता, अचित्ता, मीसिता ५ । गणिड्डी तिविहा पन्नत्ता, तंजहा - णाणिड्डी, दंसणिड्डी, चरित्तिड्डी ६ | अहवा गणिड्डी तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- सचित्ता, अचित्ता, मीसिया ७৷ १. चागमो जे२ ॥ २. न्निति शिष्यामन्त्रण पा० जे२ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २१४] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २९१ [टी०] अनन्तरमभिसमागम उक्त:, स च ज्ञानम्, तच्चर्द्धिरिहैव वक्ष्यमाणत्वादिति ऋद्धिसाधर्म्यात् तद्भेदानाह- तिविहा इड्डी इत्यादिसूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं देवस्य इन्द्रादेरृद्धिः ऐश्वर्यं देवर्द्धिः, एवं राज्ञ: चक्रवर्त्यादेर्गणिनो गणाधिपतेराचार्यस्येति १। विमानानां विमानलक्षणा वा ऋद्धिः समृद्धिः, द्वात्रिंशल्लक्षादिकं बाहुल्यं महत्त्वं रत्नादिरमणीयत्वं चेति विमानर्द्धिः, भवति च द्वात्रिंशल्लक्षादिकं सौधर्मादिषु 5 विमानबाहुल्यम्, यथोक्तम्बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ठ य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा लंत-सुक्क-सहसारे । सय चउरो आणय-पाणएसु तिन्नारण-ऽच्चुयए ॥ एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ [बृहत्सं० ११७-११९] इति । उपलक्षणं चैतत् भवन-नगराणामिति । वैक्रियकरणलक्षणा ऋद्धिक्रियर्द्धिः, वैक्रियशरीरैर्हि जम्बूद्वीपद्वयमसङ्ख्यातान् वा द्वीप-समुद्रान् पूरयन्तीति, उक्तं च भगवत्याम्- चमरे णं भंते ! केमहिडिए जाव केवतियं च णं पभू विउव्वित्तए ?, गोयमा! 15 चमरे णं जाव पभू णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य आइन्नं जाव करेत्तए, अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे जाव तिरियमसंखेजे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं आइन्ने जाव करित्तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स ३ अयमेयारूवे विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु ३, एवं सक्के वि दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे जाव आइन्ने करेज्ज [भगवती० ३।१।३,१५] त्ति । परिचारणा कामासेवा, तदृद्धिः अन्यान् 20 देवानन्यसत्का देवीः स्वकीया देवीरभियुज्यात्मानं च विकृत्य परिचारयतीत्येवमुक्तलक्षणेति २ । सचित्ता स्वशरीरा-ऽग्रमहिष्यादिसचेतनवस्तुसम्पत्, अचेतना वस्त्राऽऽभरणादिविषया, मिश्रा अलङ्कृतदेव्यादिरूपा ३ । अतियानं नगरप्रवेशः, तत्र ऋद्धिः तोरण-हट्टशोभा-जनसम्म दिलक्षणा, निर्याणं नगरान्निर्गमः, तत्र ऋद्धिः हस्तिकल्पन-सामन्तपरिवारणादिका, बलं चतुरङ्गम्, वाहनानि वेगसरादीनि, कोशो 25 भाण्डागारम्, कोष्ठा धान्यभाजनानि, तेषामगारं गेहं कोष्ठागारं धान्यगृहमित्यर्थः, तेषां तान्येव वा ऋद्धिर्या सा तथा ४ । सचित्तादिका पूर्ववद् भावनीयेति ५ । . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ज्ञानर्द्धिर्विशिष्टश्रुतसम्पत्, दर्शनर्द्धिः प्रवचने निःशङ्कितादित्वं प्रवचनप्रभावकशास्त्रसम्पद्वा, चारित्रर्द्धिनिरतिचारता ६ । सचित्ता शिष्यादिका, अचित्ता वस्त्रादिका, मिश्रा तथैवेति ७ । इह च विकुर्वणादिऋद्धयोऽन्येषामपि भवन्ति, केवलं देवादीनां विशेषवत्यस्ता इति तेषामेवोक्ता इति । 5 [सू० २१५] ततो गारवा पन्नत्ता, तंजहा-इडीगारवे रसगारवे सातगारवे। [टी०] ऋद्धिसद्भावे च गौरवं भवतीति तद्भेदानाह- तओ गारवेत्यादि व्यक्तम्, परं गुरोर्भावः कर्म वेति गौरवम्, तच्च द्वेधा द्रव्यतो वज्रादेर्भावतोऽभिमानलोभलक्षणाशुभभावत आत्मनः, तत्र भावगौरवं त्रिधा, तत्र ऋद्ध्या नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभिमानादिद्वारेण गौरवम् ऋद्धिगौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमाना10 ऽप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवमित्यर्थः, एवमन्यत्रापि, नवरं रसो रसनेन्द्रियार्थो मधुरादिः, सातं सुखमिति, अथवा ऋद्ध्यादिषु गौरवमादर इति । [सू० २१६] तिविधे करणे पन्नत्ते, तंजहा-धम्मिते करणे, अधम्मिए करणे, धम्मिताधम्मिते करणे । [टी०] अनन्तरं चारित्रर्द्धिरुक्ता, चारित्रं च करणमिति तद्भेदानाह- तिविहेत्यादि, 15 कृतिः करणमनुष्ठानम्, तच्च धार्मिकादिस्वामिभेदेन त्रिविधम्, तत्र धार्मिकस्य संयतस्येदं धार्मिकमेवमितरे, नवरमधार्मिकः असंयतः, तृतीयो देशसंयतः । अथवा धर्मे भवं धर्मो वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकम्, विपर्यस्तमितरत्, एवं तृतीयमपीति। [सू० २१७] तिविहे भगवता धम्मे पन्नत्ते, तंजहा-सुअधिजिते सुज्झातिते सुतवस्सिते । जया सुअधिज्जितं भवति तदा सुज्झातियं भवति, जया 20 सुज्झातितं भवति तदा सुतवस्सितं भवति । से सुअधिज्जिते सुज्झातिते सुतवस्सिते सुतक्खाते णं भगवता धम्मे पण्णत्ते । [टी०] धार्मिककरणमनन्तरमुक्तम्, तच्च धर्म एवेति तद्भेदानाह- तिविहेत्यादि स्पष्टम्, केवलं भगवता महावीरेणेत्येवं जगाद सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीति, सुष्ठ काल-विनयाद्याराधनेनाऽधीतं गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतम्, तथा सुष्ठ 25 विधिना तत एव व्याख्यानेनाऽर्थतः श्रुत्वा ध्यातम् अनुप्रेक्षितम्, श्रुतमिति गम्यम्, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २१८-२१९] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २९३ सुध्यातम्, अनुप्रेक्षणाऽभावे तत्त्वानवगमेनाऽध्ययन-श्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति, अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्म उक्तः, तथा सुष्ठ इहलोकाद्याशंसारहितत्वेन तपसितं तपस्यानुष्ठानं सुतपसितमिति च चारित्रधर्म उक्त इति, त्रयाणामप्येषामुत्तरोत्तरतोऽविनाभावं दर्शयतिजया इत्यादि व्यक्तम्, परं निर्दोषाध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुध्यातं न भवति, तदभावे ज्ञानविकलतया सुतपसितं न भवतीति भावः, यदेतत् स्वधीतादित्रयं भगवता 5 वर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्त: से त्ति स स्वाख्यातः सुष्ठुक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात्, तयोश्चैकान्तिकात्यन्तिकसुखावन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात्, सुगतिधारणाद्धि धर्म इति, उक्तं च नाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिण्हं पि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ [आव० नि० १०३] त्ति । 10 णमिति वाक्यालङ्कारे । [सू० २१८] तिविधा वावत्ती पन्नत्ता, तंजहा-जाणू, अजाणू, वितिगिच्छा। एवमज्झोवजणा, परियावज्जणा । [टी०] सुतपसितमिति चारित्रमुक्तम्, तच्च प्राणातिपातादिविनिवृत्तिस्वरूपमिति तस्या भेदानाह– तिविहेत्यादि, व्यावर्त्तनं व्यावृत्तिः, कुतोऽपि हिंसाद्यवधेर्निवृत्तिरित्यर्थः, 15 सा च या ज्ञस्य हिंसादेर्हेतु-स्वरूप-फलविदुषो ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः सा तदभेदात् जाणु त्ति गदिता, या त्वज्ञस्याज्ञानात् सा अजाणू इत्यभिहिता, या तु विचिकित्सातः संशयात् सा निमित्त-निमित्तिनोरभेदाद्विचिकित्सेत्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेनाऽऽन्तरं चारित्रमुक्तं तद्विपक्षश्चाशुभाध्यवसाया-ऽनुष्ठाने इति तयोरधुना भेदानतिदेशत आहएवमित्यादिसूत्रे, एवमिति व्यावृत्तिरिव त्रिधा अज्झोवज्जण त्ति अध्युपपदनं 20 क्वचिदिन्द्रियार्थे अध्युपपत्तिरभिष्वङ्ग इत्यर्थः, तत्र जानतो विषयजन्यमनर्थं या तत्राध्युपपत्तिः सा जाणू, या त्वजानतः सा अजाणू, या तु संशयवतः सा विचिकित्सेति, परियावज्जण त्ति पर्यापदनं पर्यापत्तिरासेवेति यावत्, साऽप्येवमेवेति । [सू० २१९] तिविधे अंते पन्नत्ते, तंजहा-लोगंते, वेयंते, समयंते । [टी०] जाणु त्ति ज्ञः, स च ज्ञानात् स्यादित्युक्तम्, ज्ञानं चातीन्द्रियार्थेषु प्रायः 25 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शास्त्रादिति शास्त्रभेदेन तद्भेदानाह- तिविहे अंते इत्यादि, अमनमधिगमनमन्तः परिच्छेदः, तत्र लोको लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाच्चार्थशास्त्रादिः तस्मादन्तो निर्णयस्तस्य वा परमरहस्यं पर्यन्तो वेति लोकान्त:, एवमितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः ४, समया जैनादिसिद्धान्ता इति । 5 [सू० २२०] ततो जिणा पन्नत्ता, तंजहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे १। __ ततो केवली पन्नत्ता, तंजहा-ओहिनाणकेवली, मणपज्जवनाणकेवली, केवलनाणकेवली २। तओ अरहा पन्नत्ता, तंजहा-ओहिनाणअरहा, मणपज्जवनाणअरहा, 10 केवलनाणअरहा ३॥ [टी०] अनन्तरं समयान्त उक्तः, समयश्च जिन-केवल्यर्हच्छब्दवाच्यैरुक्तः सम्यग् भवतीति जिनादिशब्दवाच्यभेदानभिधातुं त्रिसूत्रीमाह- तओ जिणेत्यादि, सुगमा, नवरं राग-द्वेष-मोहान् जयन्तीति जिनाः सर्वज्ञाः, उक्तं च रागो द्वेषस्तथा मोहो जितो येन जिनो ह्यसौ।। 15 अस्त्री-शस्त्रा-ऽक्षमालत्वादहन्नेवानुमीयते ॥ [ ] इति । तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपि जिनाः, तत्रावधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिजिनः, एवमितरावपि, नवरमाद्यावुपचरितावितरो निरुपचारः, उपचारकारणं तु प्रत्यक्षज्ञानित्वमिति, केवलम् एकमनन्तं पूर्णं वा ज्ञानादि येषामस्ति ते केवलिनः, उक्तं च20 कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलचरित्तणाणी तम्हा ते केवली होति ॥ [आव० नि० १०९२] त्ति । इहापि जिनवद् व्याख्या, अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः, अथवा नास्ति रहः प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वात्ते अरहसः, शेषं प्राग्वत् । [सू० २२१] तओ लेसाओ दुब्भिगंधाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा, 25 णीललेसा, काउलेसा १। तओ लेसाओ सुब्भिगंधाओ पन्नत्ताओ, तंजहा १. ऋग्वेदादयः खं० ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २२१-२२२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । तेऊ, पम्हा, सुक्कलेसा २ । एवं दोग्गतिगामिणीओ ३, सोग्गतिगामिणीओ ४, संकिलिट्ठाओ ५, असंकिलिट्ठाओ ६, अमणुन्नाओ ७, मणुन्नाओ ८, अविसुद्धाओ ९, विसुद्धाओ १०, अप्पसत्थाओ ११, पसत्थाओ १२, सीतलुक्खाओ १३, णिगुहाओ १४। [टी०] एते च सलेश्या अपि भवन्तीति लेश्या प्रकरणमाह - तओ इत्यादि सुगमम्, 5 नवरं दुब्भिगंधाओ त्ति दुरभिगन्धा दुर्गन्धाः, दुरभिगन्धत्वं च तासां पुद्गलात्मत्कत्वात्, पुद्गलानां च गन्धादीनाम् अवश्यं भावादिति, आह च जह गोमडस्स गंधो सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तो वि अनंतगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ [ उत्तरा० ३४।१६ | ति । - नामानुसारी चासां वर्णः, कपोतवर्णा लेश्या कपोतलेश्या, धूम्रवर्णेत्यर्थः । 10 सुभिगंधाओ त्ति सुरभिगन्धयः, आह च जह सुरभिकुसुमगंधो गंधो वासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अणंतगुणो पसत्थलेसाण तिहं पि ॥ [ उत्तरा० ३४।१७] ति । तेजो वह्निस्तद्वर्णा लेश्या, लोहितवर्णेत्यर्थः, तेजोलेश्येति । पद्मगर्भवर्णा लेश्या, पीतवर्णेत्यर्थः, पद्मलेश्या । शुक्ला प्रतीता, एवंकरणात् प्रथमसूत्रवत् तओ 15 इत्याद्यभिलापेन शेषसूत्राण्यध्येयानीति, तत्र दुर्गतिं नरकक - तिर्यग्रूपां गमयन्ति प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः, सुगतिः मनुष्य - देवगतिरूपा, सक्लिष्टाः सङ्क्लेशहेतुत्वादिति, विपर्ययः सर्वत्र सुज्ञानः, अमनोज्ञाः अमनोज्ञरसोपेतपुद्गलमयत्वात्, अविशुद्धा वर्णतः, अप्रशस्ताः अश्रेयस्योऽनादेया इत्यर्थः, शीतरूक्षाः स्पर्शतः आद्याः, द्वितीयास्तु स्निग्धोष्णाः स्पर्शत एवेति । [सू० २२२ ] तिविहे मरणे पन्नत्ते, तंजहा - बालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे १। बालमरणे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा - ठितलेस्से, संकि लिट्ठलेस्से, पज्जवजातलेस्से २॥ पंडियमरणे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा - ठितलेस्से, असंकिलिट्ठलेस्से, 25 पज्जवजातस्से ३ | २९५ 20 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे __ बालपंडितमरणे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा-ठितलेस्से, असंकिलिट्ठलेस्से, अपजवजातलेस्से ४॥ [टी०] अनन्तरं लेश्या उक्ताः, अधुना तद्विशेषितमरणनिरूपणायाह- तिविहेत्यादि सूत्रचतुष्टयम्, बाल: अज्ञः, तद्वद् यो वर्त्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बाल: 5 असंयतः, तस्य मरणं बालमरणम्, एवमितरे, केवलं पडिधातोर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद्विरतिफलेन फलवद्विज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो बुद्धतत्त्वः, संयत इत्यर्थः, तथा अविरतत्वेन बालत्वाद्विरतत्वेन च पण्डितत्वाद् बालपण्डितः संयतासंयत इति। स्थिता अवस्थिता अविशुध्यन्त्यसक्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन् तत् स्थितलेश्यम्, सक्लिष्टा सक्लिश्यमाना सङ्क्लेशमागच्छन्तीत्यर्थः, सा लेश्या 10 यस्मिंस्तत्तथा, तथा पर्यवा: पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्ध्या वर्द्धमानेत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथेति । अत्र प्रथमं कृष्णादिलेश्यः सन् यदा कृष्णादिलेश्येष्वेव नारकादिषूत्पद्यते तदा प्रथमं भवति, यदा तु नीलादिलेश्यः सन् कृष्णादिलेश्येषूत्पद्यते तदा द्वितीयम्, यदा पुनः कृष्णलेश्यादिः सन् नील कापोतलेश्येषूत्पद्यते तदा तृतीयम् । उक्तं चान्त्यद्वयसंवादि भगवत्यां यदुत15 से णूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे जाव सुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइएसु उववज्जइ ?, हंता, गोयमा !, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! लेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस्सं परिणमइ २ काउलेसेसु नेरइएसु उववज्जइ [भगवती० १३।१।२९-३०] त्ति । एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्यादिविभागो नेय इति । पण्डितमरणे सक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्ययं बालमरणाद्विशेषः । 20 बालपण्डितमरणे तु सक्लिश्यमानता विशुध्यमानता च लेश्याया नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्ययं विशेष इति । एवं च पण्डितमरणं वस्तुतो द्विविधमेव, सक्लिश्यमानलेश्यानिषेधे अवस्थित-वर्द्धमानलेश्यत्वात् तस्य, त्रिविधत्वं तु व्यपदेशमात्रादेव, बालपण्डितमरणं त्वेकविधमेव, सक्लिश्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधे अवस्थितलेश्यत्वात् तस्येति, त्रैविध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरिति । 25 [सू० २२३] ततो ठाणा अव्ववसितस्स अहिताते असुभाते अखमाते १. “पडि गतौ” - पा० धा० २८१ ।। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २२३] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । , अणिस्सेसाते अणाणुगामियत्ताते भवंति, तंजहा से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वइते णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिंच्छिते भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति णो से परिस्सहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवइ १, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वति s पंचहिं महव्वतेहिं संकिते जाव कलुससमावन्ने पंच महव्वताइं नो सद्दहति जाव णो से परिस्सहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवति २, से णं मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते छहिं जीवनिकाएहिं जाव अभिभवइ ३ । ततो ठाणा ववसियस्स हिताते जाव आणुगामितत्ताते भवंति, तंजहासे मुंडे भवत्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिते णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते 10 णिक्कंखिते जाव नो कलुससमावन्ने णिग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोतेति से परिस्सहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवति, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति १, से णं मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते समाणे पंचहिं महव्वतेहिं णिस्संकिते जाव परिस्सहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवति, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति २, से 15 णं मुंडे भवेत्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते छहिं जीवनिकाएहिं णिस्संकिते जाव परिस्सहे अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवति, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय अभिजुंजिय अभिभवंति ३ । [टी०] मरणमनन्तरमुक्तम्, मृतस्य च जन्मान्तरे यथाविधस्य यद्वस्तुत्रयं यस्मै सम्पद्यते तस्य तत्तस्मै दर्शयितुमाह-- तओ ठाणेत्यादि, त्रीणि स्थानानि प्रवचन- 20 महाव्रत- -जीवनिकायलक्षणानि, अव्यवसितस्य अनिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वाऽहिताय अपथ्यायाऽसुखाय दुःखाय अक्षमाय असङ्गतत्वाय अनिःश्रेयसाय अमोक्षायाननुगामिकत्वाय अशुभानुबन्धाय भवन्ति, से णं ति यस्य त्रीणि स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति स शङ्कितो देशतः सर्वतो वा संशयवान्, काङ्क्षितस्तथैव मतान्तरस्यापि साधुत्वेन मन्ता, विचिकित्सितः फलं प्रति शङ्कोपेतः, अत एव भेदसमापन्नो 25 २९७ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे द्वैधीभावमापन्नः एवमिदं न वैवमितिमतिकः, कलुषसमापन्नो नैतदेवमितिप्रतिपत्तिकः, ततश्च निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थं प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा वचनमिति प्रवचनम् आगमः, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात, न श्रद्धत्ते सामान्यतो न प्रत्येति न प्रीतिविषयीकरोति नो रोचयति न चिकीर्षाविषयीकरोति तमिति य एवंभूतस्तं प्रव्रजिताभासं परिषह्यन्त इति 5 परीषहाः क्षुदादयः अभियुज्य अभियुज्य सम्बन्धमुपगत्य प्रतिस्पर्द्धय वा अभिभवन्ति न्यक्कुर्वन्तीति, शेषं सुगमम् ।। ___ उक्तविपर्ययसूत्रं प्राग्वत्, किन्तु हितम् अदोषकरमिह परत्र चात्मनः परेषां च पथ्यानभोजनवत्, सुखम् आनन्दस्तृषितस्य शीतलजलपान इव, क्षमम् उचितं तथाविधव्याधिव्याघातकौषधपानमिव, निःश्रेयसं निश्चितं श्रेयः प्रशस्यं भावतः 10 पञ्चनमस्कारकरणमिव, अनुगामिकम् अनुगमनशीलं भास्वरद्रव्यजनितच्छायेवेति । _ [सू० २२४] एगमेगा णं पुढवी तिहिं वलएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, तंजहा-घणोदधिवलएणं, घणवातवलएणं, तणुवायवलएणं । [टी०] अयं चैवंविधः साधुरिहैव पृथिव्यां भवतीत्यर्थेन सम्बन्धेन पृथिवीस्वरूपमाहएगमेगेत्यादि, एकैका पृथ्वी रत्नप्रभादिका सर्व्वतः, किमुक्तं भवति ? समन्तात्, 15 अथवा दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः, सम्परिक्षिप्ता वेष्टिता, आभ्यन्तरं घनोदधिवलयं ततः क्रमेणेतरे, तत्र घनः स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिः जलनिचयः, स चासौ स चेति घनोदधिः, स एव वलयमिव वलयं कटकं घनोदधिवलयम्, तेन, एवमितरे अपि, नवरं घनश्चासौ वातश्च तथाविधपरिणामोपेतो घनवातः, एवं तनुवातोऽपि तथाविधपरिणाम एवेति, भवन्त्यत्र गाथाः20 न वि य फुसंति अलोगं चउसुं पि दिसासु सव्वपुढवीओ। संगहिया वलयेहिं विक्खंभं तेसि वोच्छामि ॥ छच्चेव १ अद्धपंचम २ जोयण अद्धं च ३ होइ रयणाए। उदही १ घण २ तणुवाया ३ जाहासंखेण निद्दिट्टा ॥ तिभागो १ योजनस्य, गाउयं चेव २ तिभागो गाउयस्स य ३ । 25 आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिय ॥ [बृहत्सं० २४३-२४५] त्ति । १. जोयणं अद्धं खं० । 'जोयणमद्धं' इति बृहत्स् पाठः ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० २२५-२२६] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । [सू० २२५] णेरइया णं उक्कोसेणं तिसमइएणं विगहेणं उववजंति, एगिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । [टी०] एतासु च पृथिवीषु नारका एव उत्पद्यन्त इति तदुत्पत्तिविधिमभिधातुमाहनेरइया णमित्यादि, त्रयः समयास्त्रिसमयं तद्यत्रास्ति स त्रिसमयिकस्तेन विग्रहेण वक्रगमनेन, उक्कोसेणं ति त्रसानां हि त्रसनाड्यन्तरुत्पादात् वक्रद्वयं भवति, तत्र च 5 त्रय एव समयाः, तथाहि- आग्नेयदिशो नैर्ऋतदिशमेकेन समयेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समश्रेण्याऽधः, ततस्तृतीयेन वायव्यदिशि समश्रेण्यैवेति, सानामेव त्रसोत्पत्तावेवंविध उत्कर्षेण विग्रह इत्याह- एगें दियेत्यादि, एके न्द्रियास्त्वे के न्द्रियेषु पञ्चसामयिकेनाप्युत्पद्यन्ते, यतस्ते बहिस्तात् त्रसनाडीतो बहिरप्युत्पद्यन्ते, तथाहि विदिसाउ दिसं पढमे बीए पइसरइ लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥ पंचमए विदिसीए गंतुं उप्पज्जए उ एगिंदी [ ] ति, सम्भव एवायम्, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तथोक्तत्वादिति, तथाहि- अपज्जत्तगसुहमपुढविकाइए णं भंते ! अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं 15 उववज्जेज्जा ?, गो० ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा [भगवती० ३४।१।३८] इत्यादि, विशेषणवत्यामप्युक्तम् सुत्ते चउसमयाओ नत्थि गई उ परा विणिद्दिट्ठा । जुज्जइ य पंचसमया जीवस्स इमा गई लोए ॥ जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववज्जई गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥ उववायाभावाओ न पंचसमयाहवा न संता वि । भणिया जह चउसमया महल्लबंधे न संता वि ॥ [विशेषणवती २३,२४,२६] त्ति । अत उक्तम्- एगिदियवज्जं ति, यावद्वैमानिकानामिति वैमानिकान्तानां जीवानां त्रिसामयिक उत्कर्षेण विग्रहो भवतीति भावः । [सू० २२६] खीणमोहस्स णं अरहतो ततो कम्मंसा जुगवं खिजंति, तंजहा१. अपज्जत्तासुहु' इति भगवतीसूत्रे पाठः ।। 25 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नाणावरणिजं दंसणावरणिजं अंतरातियं । मोहवतां त्रिस्थानकमभिधायाधुना क्षीणमोहस्य तदाह- खीणेत्यादि, क्षीणमोहस्य क्षीणमोहनीयकर्मणोऽर्हतो जिनस्य त्रयः कर्मांशा: कर्मप्रकृतय इति, उक्तं च चरमे नाणावरणं पंचविहं सणं चउविगप्पं । 5 पंचविहमंतरायं खवइत्ता केवली होइ ॥ [ ] त्ति । शेषं कण्ठ्य म् । [सू० २२७] अभितीणक्खत्ते तितारे पन्नत्ते १। एवं सवणे २, अस्सिणी ३, भरणी ४, मगसिरे ५, पूसे ६, जेट्ठा ७। [टी०] अनन्तरमशाश्वतानां त्रिस्थानकमुक्तम्, अधुना शाश्वताना तदाह10 अभीत्यादिसूत्राणि सप्त कण्ठ्यानीति ।। [सू० २२८] धम्मातो णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोवमेहिं तिचउब्भागपलिओवमऊणएहिं वीतिकंतेहिं समुप्पन्ने । - [सू० २२९] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी । 15 मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते, एवं पासे वि । [सू० २३०] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवातीणं जिणो इव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया होत्था । 20 [सू० २३१] तओ तित्थयरा चक्कवट्टी होत्था, तंजहा-संती कुंथू अरो ३। [टी०] परम्परसूत्रे क्षीणमोहस्य त्रिस्थानकमुक्तम्, अधुना तद्विशेषाणां तीर्थकृतां तदाह- धम्मेत्यादि प्रकरणम्, तिचउन्भाग त्ति त्रिभिश्चतुर्भागैः पादैः पल्योपमस्य सत्कैरूनानि त्रिचतुर्भागपल्योपमोनानि तैर्व्यतिक्रान्तैरिति, उक्तं च धम्मजिणाओ संती तिहि उ तिचउभागपलियऊणेहिं । 25 अयरेहिं समुप्पन्नो [आव० नि० १३] त्ति ।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ [सू० २३२] तृतीयमध्ययनं त्रिस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । समणस्सेत्यादि, युगानि पञ्चवर्षमानानि कालविशेषा लोकप्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि तानि च क्रमव्यवस्थितानि ततश्च पुरुषा गुरुशिष्यक्रमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा युगानीव पुरुषयुगानि, पुरुषसिंहवत् समासः, ततश्च पञ्चम्या द्वितीयार्थत्वात् तृतीयं पुरुषयुगं यावत्, जम्बूस्वामिनं यावदित्यर्थः, युग त्ति पुरुषयुगं तदपेक्षयाऽन्तकराणां भवान्तकारिणां निर्वाणगामिनामित्यर्थः, भूमि: कालो युगान्तकरभूमिः, इदमुक्तं भवति- 5 भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेस्तृतीयं पुरुषं जम्बूस्वामिनं यावनिर्वाणमभूत्, तत उत्तरं तद्व्यवच्छेद इति १ ।। मल्लीत्यादि सूत्रद्वयम्, तत्र संवादः- एगो भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सतेहिं [आव० नि० २२४,विशेषाव० १६४२] ति, मल्लिजिनः स्त्रीशतैरपि त्रिभिः । समणेत्यादि, अजिणाणं ति असर्वज्ञत्वेन जिनसंकाशानां सकलसंशयच्छेदकत्वेन, 10 सर्वे सकला अक्षरसन्निपाता: अकारादिसंयोगा विद्यन्ते येषां ते तथा, स्वार्थिकेन्प्रत्ययोपादानात्, तेषाम्, विदितसकलवाङ्मयानामित्यर्थः, वागरमाणाणं ति व्यागृणताम्, व्याकुर्वतामित्यर्थः । तओ इत्यादि, अत्रोक्तम् संती कुंथू य अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अवसेसा तित्थयरा मंडलिआ आसि रायाणो ॥ [आव० नि० २२३] त्ति । 15 [सू० २३२] ततो गेवेजविमाणपत्थडा पन्नत्ता, तंजहाहेट्ठिमगेवेजविमाणपत्थडे, मज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे, उवरिमगेवेजविमाणपत्थडे । हेट्ठिमगेवे जविमाणपत्थडे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा-हेट्ठि महेट्ठिमगेवेज्जविमाणपत्थडे, हेट्ठिममज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे, हेट्ठिमउवरिम- 20 गेवेजविमाणपत्थडे । __ मज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे तिविधे पन्नत्ते, तंजहा-मज्झिमहेट्ठिमगेवेजविमाणपत्थडे, मज्झिममज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे, मज्झिमउवरिमगेवेजविमाणपत्थडे । उवरिमगेवेजविमाणपत्थडे तिविधे पन्नत्ते, तंजहा-उवरिमहेट्ठिमगेवेज- 25 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विमाणपत्थडे, उवरिममज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे, उवरिमउवरिमगेवेजविमाणपत्थडे । [टी०] तीर्थकराश्चैते विमानेभ्योऽवतीर्णा इति विमानत्रिस्थानकमाह- तओ इत्यादि, लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि तानि च तानि विमानानि च तेषां प्रस्तटा 5 रचनाविशेषवन्तः समूहाः । _[सू० २३३] जीवा णं तिट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तंजहा-इत्थिणिव्वत्तिते, पुरिसणिव्वत्तिते, णपुंसगणिव्वत्तिते । एवं - ___ चिण उवचिण बंध उदीर वेद तह णिजरा चेव ॥१४॥ 10 टी०] इयं च ग्रैवेयकादिविमानवासिता कर्मणः सकाशात् भवतीति कर्मणः त्रिस्थानकमाह- जीवा णमित्यादिसूत्राणि षट्, तत्र त्रिभिः स्थान: स्त्रीवेदादिभिर्निर्वतितान् अर्जितान् पुद्गलान् पापकर्मतया अशुभकर्मत्वेनोत्तरोत्तराशुभाध्यवसायतश्चितवन्तः आसकलनत एवमुपचितवन्तः परिपोषणत एवं बद्धवन्तो निर्मापणतः उदीरितवन्तः 15 अध्यवसायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतः वेदितवन्तः अनुभवनतः निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशाटनतः, सङ्ग्रहणीगाथार्द्धमत्र- एवं चिण उवचिण बंध उदीर वेय तह निज्जरा चेव त्ति एवमिति यथैकं कालत्रयाभिलापेनोक्तं तथा सर्वाण्यपीति ।। [सू० २३४] तिपतेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता, एवं जाव तिगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता । ॥ तिट्ठाणं समत्तं ॥ [टी०] कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलस्कन्धान प्रति त्रिस्थानकमाह- तिपएसिएत्यादि स्पष्टमिति, सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेषं कण्ठ्यमिति ।। ॥ त्रिस्थानकस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ।। तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचितस्थानाङ्गविवरणे 25 तृतीयं त्रिस्थानकाख्यमध्ययनं समाप्तमिति । ग्रन्थाग्रं श्लोक १९९५ ॥ १. मिति १९९५ ।- जे१ । "मिति श्लोकाः १९९५ - पा० । मिति श्लोक १९९५ - जे२ ॥ 20 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितायां स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां गाथानां वाचनाचार्यश्री सुमतिकल्लोलगणि-वादीन्द्रश्री हर्षनन्दनगणिसंकलितं विवरणम् । ॐ अहँ नमो वीतरागाय । स्वस्तिश्रीवृत्तिमन्तं सहृदयहृदयस्वर्णपात्रोपविष्टं लोकालोकप्रकाशप्रकटितपटुताकेवलज्ञानतैलम् । प्रत्यूहव्यूहसङ्ख्यामितशलभपरिप्लोषनिश्शेषतोषं श्री पार्श्व दीप्रदीपं धवलगुणमनोमन्दिरे धारयामि ॥१॥ *. अत्रेदमादाववधेयम्- आचार्यप्रवरैः श्रीमदभयदेवसूरिभिः वैक्रमे ११२० तमे वर्षे स्थानाङ्गसूत्रटीका विरचिता, तत्र च तैः विभिन्नेषु स्थलेषु प्रसङ्गानुरूपाः परःशताः पाठाः ग्रन्थान्तरेभ्यः उद्धृताः । पूर्वापरसम्बन्धावलोकनं तद्विवरणावलोकनं च विना तेषां सम्यगावगमोऽस्मादृशां दुष्करः । एतदर्थमस्माभिः टिप्पनेषु किञ्चित् प्रयतितम्। ___एतमेवार्थं मनसिकृत्य विक्रमसंवत् १७०५ तमे वर्षे खरतरगच्छीयेन वाचकसुमतिकल्लोलेन वाचकेन हर्षनन्दनेन च सम्भूय स्थानाङ्गटीकायामुद्धृतानां गाथानां विवरणं तांस्तान् मूलग्रन्थान् तद्विवरणानि च दृष्ट्वा महता महता परिश्रमेण तेषां पाठान् क्वचिदक्षरश उद्धृत्य क्वचिच्च तेषां सारभागं गृहीत्वा यथायोग संकलितमस्ति। क्वचित् स्वमत्यापि उत्प्रेक्ष्य विवरण ताभ्यामकारि, एतादृशं स्वमत्युत्प्रेक्षितं विवरण क्वचित् मिथ्यापि वर्तते। किञ्चान्यत्, यान् हस्तलिखितान् ग्रन्थानवलोक्य तद्विवरणं ताभ्यां लिखितं त एव तेषां समक्षं विद्यमाना हस्तलिखितादर्शा यदि अशुद्धा भवेयुः तर्हि अस्मिन् विवरणेऽपि ता अशुद्धयः आगच्छेयुरेव ।। ___ अपि च, श्रीअभयदेवसूरिभिः तेषां समक्षं विद्यमानेभ्यो ग्रन्थेभ्यो यादृशाः पाठा उद्धृताः ततः क्वचिद् भिन्ना अपि पाठाः तद्विवरणकाराणां मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिप्रभृतीनां समक्षमासन्, अतः अभयदेवसूरिविरचितटीकायाम् उद्भूताः पाठाः अत्र संगृहीताश्च विवरणपाठा यदि क्वचित् क्वचिद् भिन्ना दृष्टिपथमवतरेयुस्तर्हि व्यामोहो न कार्यः।। वाचकसमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनसंकलितस्य स्थानाइटीकागतगाथाविवरणस्य हस्तलिखिता आदर्शाः 'पाटण-लींबडी-सुरत-छाणी-वडोदरा' इति पञ्चसु स्थानेषु सन्तीति श्रूयते । छाणी मध्ये १७१ ग्रन्थाङ्के, वडोदरानगरे हंसविजयलायब्रेरीमध्ये ४७ ग्रन्थाङ्के, सुरतनगरे जैनानन्दपुस्तकालये १६०७ ग्रन्थाङ्के वर्तते। तत्र पाटणनगरे श्री हेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमन्दिरै ६८९६ ग्रन्थाङ्के विद्यमानः १-४०० पत्रेषु लिखितः आदर्शः अस्मत्सविधे वर्तते। लींबडीस्थहस्तलिखित-जैनज्ञानभण्डार-सूचीपत्रानुसारेण ४३२ ग्रन्थाङ्के विद्यमानः १३६७ पत्रात्मकः विक्रमसंवत् १७१४ वर्षे लिखित आदर्शोऽपि अस्मत्सविधे वर्तते । पाटणनगरस्थ आदर्शः अतीव अतीव अशुद्धः। ततो लींबडीनगरस्थः किञ्चित् समीचीनतरः, तथापि तत्रापि प्रभूताः पाठा अशुद्धाः खण्डिताश्च वर्तन्ते । अन्ये त्वादर्शा अस्माभिर्न दृष्टाः । अशुद्धपाठानामाकररूपोऽयं गाथाविवरणस्य हस्तलिखितो ग्रन्थ इति तत्तन्मूलग्रन्थानुसारेण यथायोग संशोध्यैवात्र मुद्रित इति ध्येयम् ।। ___ वाचकश्रीसुमतिकल्लोल-हर्षनन्दनसंकलितगाथाविवरणस्य हस्तलिखितावादी तदनुसारेण केनचिद् विहिता प्रतिलिपिश्च [Copy] आचार्यश्रीविजयप्रद्युम्नसूरिभिः मुनिचन्द्रसूरिभ्यो दत्ताः, मुनिचन्द्रसूरीणां सकाशाच्च मया लब्धाः । मुनिचन्द्रसूरि: मदीयमातुलपुत्रस्य तपस्विप्रवरमुनिश्रीजिनचन्द्रविजयस्य पुत्रः शिष्यश्च । तेन महता परिश्रमेण प्रयत्नेन च प्रतिलिप्यां संशोधनादिकं विहितमासीत्। एतच्च मम महत् सहायक संजातमस्ति । अतो मम भ्रातृव्यः आचार्यश्रीमुनिचन्द्रसूरिः भृशं धन्यवादार्हः । आचार्यश्रीप्रद्युम्नसूरयोऽपि अत्र संस्कारं कृतवन्त इति तेऽपि सुतरां सुतरां धन्यवादार्हाः । . Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अंबा मायाबीजं विमलकमलाबीजमिलितं त्रिदेवतद्बीजं विसहरफुलिंगाख्यसहितम् । ॐकाराद्यं ह्रीं श्रीं नम इति तु पदं मन्त्रमनघं मया ध्येयं प्रारिप्सितकरणपर्यन्तमनिशम् ॥२॥ पाशांकायु[प?]र्युपास्तिं विसृजति नितरां स्थापना पार्श्वनेतुः श्री पार्थो यक्षराजो भविकजनमनोवाञ्छिते प्रातिहार्यम् । सान्निध्यं सिद्धपीठे विषधरविषनिर्नाशकोऽसौ विधत्ते वैरोट्या दुःखजातं विघटयति सदा सेवकानां जनानाम् ॥३॥ कीनाशो मम्मणो यन्नवमणिवपुषः पार्श्वनाथस्य बिम्बं पाताले पन्नगेन्द्रो दशरथतनयो रत्नराशेः प्रतीरे । सिद्धायां द्वारकायां यदुकुलतिलको दुष्टकष्टाभि[भू]त्यै कान्तीपुर्यां सपुत्रो नगरजनमुखः पूजयामास पूर्वम् ॥४॥ श्रीसेढीतटिनीतटप्रकटितप्रोत्तुङ्गपुष्पावलि[भ्रा]जत्किंशुकपादपस्थुडतले नागार्जुनः श्रावकः । कोटीवेधरसोपदेशनविधौ श्री पादलिप्तप्रभोः प्राप्याऽऽम्नायबलं तदेव सकलं बिम्बं व्यवस्थापयत् ॥५॥ युग्मम् ॥ पद्मावतीवाग्विहितप्रसादो, द्विकत्रिसङ्ख्येयनवीनवाक्यैः । तपस्विराजोऽभयदेवसूरिस्तदेव बिम्बं प्रकटीचकार ॥६॥ आचार्यश्रेणिमुख्यः खरतरगणभृद्देवतादत्तमन्त्रस्तद्विम्बस्नात्रनीरव्यपगतकठिनव्याधिकुष्ठप्रदाहः । द्रोणाचार्योपदेशानिजगुरुचरणामर्शनिश्चिन्तितार्थः श्री स्थानाङ्गस्य टीकां व्यरचयदतुलां सम्प्रदायैकमूलाम् ॥७॥ युग्मम् ॥ कर्मग्रन्थ-बहुप्रकीर्णक-बृहन्नियुक्ति-भाष्योत्तराः, देवेन्द्रस्तव-सद्विशेषणवती-प्रज्ञप्ति-कल्पाश्रयाः । अङ्गोपाङ्गक-मूलसूत्रमिलिताः षट्त्रिंशिका-सप्ततिश्लिष्यत्सङ्ग्रहणीसमप्रकरणाः पञ्चाशिकासंस्थिताः ॥८॥ सिद्धप्राभृत-सम्मतिप्रकरण- ज्योतिष्क-सङ्गीतक१. 'नगरश्रेष्ठी धनेश्वरनामा इत्यर्थः' इति टिप्पने ॥ तत्र 25 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् शिक्षा-प्राकृत-कोष-सूक्तललिता गाथाः सहस्रात् पराः । सूत्रालापकमुद्रितार्थविवृतौ तत्साक्षिभूताः धृताः, प्रायस्ताः कठिनास्तदर्थविवृतौ टीकां विना दुर्घटाः ॥९॥ युग्मम् ।। तदुपायश्च-- गच्छे खरतरे दीप्ता जिनचन्द्रयतीश्वराः । युगप्रधानबिरुदास्तेषां शिष्या हि वाचकाः ॥१०॥ नाम्ना सुमतिकल्लोला विद्यासागरपारगाः । श्रीपूज्यप्रथमः शिष्यो गणिः सकलचन्द्रकः ॥११॥ शिष्यस्तस्य कलादक्षो य: कूर्चालसरस्वती । महोपाध्यायबिरुदः क्रिया-ज्ञानसमन्वितः ॥१२॥ वाणीविश्रान्तरसो नाम्ना समयसुन्दरः । शिष्यस्तस्य विशेषज्ञो वादीन्द्रो हर्षनन्दनः ॥१३॥ सुधीः सुमतिकल्लोलो वाचको हर्षनन्दनः । पूर्वोल्लिखितगाथानामर्थस्ताभ्यां प्रकाश्यते ॥१४॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ इह तावदभीष्टकर्मणो निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थं मङ्गलमाचरणीयम्, तत्तु टीकाकृता स्वयमेवाऽऽचरितमिति नेह प्रतन्यते । 15 [पृ०२] फलादिद्वारनिरूपणे महापुरुषप्रणीतमहाग्रन्थान्तरसम्मतिमाह तस्स फल-जोग-मंगल-समुदायत्था तहेव दाराई । तब्भेअ-निरुत्त-कम-पओअणाई च वच्चाई ॥१॥ [विशेषाव० २] व्या०- तस्येति प्रारब्धशास्त्रानुयोगस्य प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिमित्तं फलं मोक्षप्राप्तिलक्षणं तावदत्र ग्रन्थे वक्तव्यम् । ततोऽस्य योग: शिष्यप्रदानेऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः । प्रारब्धशास्त्रानुयोगे 20 च क्रियमाणे किं मङ्गलमित्येतदपि निरूपणीयम् । ततस्समुदायार्थो वाच्यः । समुदायः 'तंत्र तिष्ठन्ति आसते' इत्येतदारभ्य ‘स्थानाङ्गम्' इत्यन्तः समुदायार्थष्टीकाकृता परमगुरुणा व्याख्यात एव, सोऽप्यत्र ग्रन्थेऽभिधानीयः । फलं च योगश्च मङ्गलं च समुदायार्थश्चेति इतरेतरसमासः । तहेव दाराई ति तथैव द्वाराणि चोपक्रम-निक्षेपादीनि कथनीयानि । तेषां द्वाराणां भेदस्तद्भेदो वक्तव्यः । तद्यथा- आनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-ऽर्थाधिकार-समवतारभेदादुपक्रमः षोढा, 25 ओघनिष्पन्न-नामनिष्पन्न-सूत्रालापकनिष्पन्नभेदाद् निक्षेपस्त्रिधा, सूत्र-नियुक्तिभेदादनुगमो द्विधा, १. यत्र पृ० पं० इति लिखितं भवेत् तत्र अनेन सहैवात्र मुद्रितस्य अभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य पृष्ठाङ्कः पङ्क्त्य कश्च ज्ञेयः ।। २. तुलना- वि०भा०मलधारि० । अत्र गाथाविवरणे यत्र यत्र विशेषावश्यकभाष्यगाथानां व्याख्यानं लिखितं तत्र सर्वत्र प्रायो मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितां विशेषावश्यकभाष्यव्याख्यामनुसृत्यैव लिखितमिति ध्येयम् ॥ ३. दृश्यतां पृ०५ पं०१७-२१ ।। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे नैगमादिभेदाद् नयाः सप्तविधा इत्यादि । उपक्रमणमुपक्रमः, निक्षेपणं निक्षेप इत्यादि निरुक्तं च शब्दव्युत्पत्तिरूपं भणनीयम् । तथा क्कम त्ति तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथममुपक्रम एव ततो यथाक्रमं निक्षेपादय एवेत्येवंरूपो योऽसौ नियतः क्रमः स युक्त्यभिधानतो निर्देष्टव्यः । युक्तिं चात्रैव वक्ष्यति, तद्यथा- नानुपक्रान्तं निक्षिप्यते, नानिक्षिप्तमनुगम्यते । तथोपक्रमादिद्वाराणामेव 5 प्रयोजनं शास्त्रोपकाररूपं नगरदृष्टान्तेन वाच्यम्, यथा सप्राकारं महानगरं किमप्यकृतद्वारं लोकस्यानाश्रयणीयं भवति, एकादिद्वारोपेतमपि दुःखनिर्गम-प्रवेशं जायते, चतुर्द्वारोपेतं तु सर्वजनाभिगमनीयं सुखनिर्गम-प्रवेशं च सम्पद्यते, एवं शास्त्रमप्युपक्रमादिचतुर्द्वारयुक्तं सुबोधं सुखचिन्तन-धारणादिसम्पन्नं च भवतीति । एवमुपक्रमादिद्वाराणां सुखावबोधादिरूपः शास्त्रोपकारः प्रयोजनमिह वक्ष्यत इति भावः । भेदश्च निरुक्तं च क्रमश्च प्रयोजनं चेति द्वन्द्वं कृत्वा पश्चात् 10 तेषामुपक्रमादिद्वाराणां भेद-निरुक्त-क्रम- प्रयोजनानीत्येवं षष्ठीतत्पुरुषसमासो विधेयः । चः समुच्चये । वाच्यानीति यथायोगमर्थतः सर्वत्र योजितमेवेति द्वारगाथासङ्क्षेपार्थः ॥१॥ [पृ०२] तिवरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउवरिसस्स उ सम्मं सूअगडं नाम अंगं ति ॥ २ ॥ दस- कप्प - ववहारा, संवच्छरपणगदिक्खि अस्सेव । ठाणं समवाओ वि अ, अंगे ते अट्ठवासस्स ॥३॥ [ पञ्चवस्तु० ५८२-३ ] व्या० - तिवरिसेति गाथाद्वयं पञ्चस्थानके एतदधिकारे व्याख्यास्यते ||२|| ३ || [पृ०३ पं०६] मङ्गलोपदर्शने महाग्रन्थसम्मतिमाह 15 20 25 ४ बहुविग्घाई सेयाई, तेण कयमंगलोवयारेहिं । घेत्तव्वो सो सुमहानिहि व्व जह वा महाविजा ||४|| [विशेषाव० १२] व्या० - श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि [ ] इति वचनाद् येन बहुविघ्नानि श्रेयांसि भवन्ति तेन कारणेन परमश्रेयोरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारैरेव स योगो ग्रहीतव्यः । किंवद् इत्याह-- शोभनमहारत्नादिनिधिवद् महाविद्यावद्वेति गाथार्थः ॥४॥ [पृ०३ पं०१०] क्व पुनस्तद् मङ्गलं शास्त्रस्येष्यते इत्याहतं मंगलमाईए, मज्झे पज्जंतए अ सत्थस्स । पढमं सत्थऽत्थाविग्घपारगमणाय निहिं ||५|| [विशेषाव० १३] व्या०- तद् मङ्गलं शास्त्रस्याऽऽदौ क्रियते, तथा मध्ये पर्यन्ते चेति । अथैकैकस्य करणफलमाह - प्रथमं मङ्गलं तावच्छास्त्रार्थस्याविघ्नेन पारगमनाय निर्दिष्टम् ॥५॥ [पृ०३ पं०१२] शेषमङ्गलद्वयफलं प्रचिकटयिषुराह Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् 10 तस्सेव य थेजत्थं मज्झिमयं अंतिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्स-पसिस्साइवंसस्स ॥६॥ [विशेषाव० १४] व्या० तस्यैव शास्त्रस्य प्रथममङ्गलकरणानुभावादविघ्नेन परं पारमुपगतस्य स्थैर्यार्थं स्थिरताऽऽपादनार्थं मध्यममङ्गलम्, निर्दिष्टमिति वर्तते । अंतिमं पीति अन्त्यमपि मङ्गलं तस्यैव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्गलसामर्थ्येन स्थिरीभूतस्याऽव्यवच्छित्तिनिमित्तम् । कस्य योऽसौ 5 शास्त्रार्थः इत्याह- शिष्य-प्रशिष्यादिवंशस्य, शिष्य-प्रशिष्यादिवंशगतस्येत्यर्थः । शिष्यप्रशिष्यादिवंशे शास्त्रार्थस्याव्यवच्छेदनिमित्तं चरममङ्गलमिति भावः ॥६॥ [पृ०३] नोआगमओ भावो, सुविसुद्धो खाइयाइओ । [विशेषाव० ४९] व्या०- नोआगमतो भावो भावमङ्गलं सुविशुद्धः क्षायिकादिकः ॥ [पृ०४] नामं ठवणा दविए, खेत्तद्धा-उद-उवरती-वसही । संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा-भावे॥७॥ [आचा०नि०१८४] व्या०- नामं ठवणा इति गाथा टीकाकृता व्याख्यातत्वादुपेक्षितेति ॥७॥ [पृ०५] नामंगं ठवणंगं, दव्वंगं चेव होइ भावंगं । एसो खलु अंगस्सा निक्खेवो चउव्विहो होइ॥८॥ [उत्त०नि० १४४] व्या०- नामंगमिति गाथाऽपि टीकाकृता व्याख्यातत्वात् सुगमत्वाच्चोपेक्षितेति ॥८॥ 15 [पृ०६] अनुयोगशब्दार्थं विस्तरार्थाभिधित्सया गाथाद्वयेन भाष्यकृदाह अणुजोअणमणुजोगो सुअस्स निअएण जमभिधेएणं । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥९॥ [पृ०६] अहवा जमत्थओ थोव-पच्छभावेहि सुअमणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं व संबंधो ॥१०॥ [विशेषाव०१३८६-१३८७] 20 व्या०- यत् सूत्रस्य निजेनाभिधेयेनार्थेन अनुयोजनं सम्बन्धनं सोऽनुयोगः, अथवा योगो व्यापार उच्यते, ततश्च अनुरूपोऽनुकूलो वा घटमानः सम्बध्यमानो व्यापार: प्रतिपादनलक्षणो योग: सूत्रस्य निजे अभिधेये व्यापारः, यथा घटशब्देन घटोऽभिधीयत इत्यनुयोगः । अथवा सूत्रम् अणु इत्युच्यते, कुतः ? यस्मादर्थस्यानन्तत्वात् तदपेक्षया सूत्रमणु। अथवा 'उप्पन्ने इ वा' इत्यादितीर्थकरोक्तार्थात् पश्चादेव गणधराः सूत्रं कुर्वन्ति, इतरकवयोऽपि 25 अर्थं हृदये निवेश्य ततः काव्यं कुर्वन्तीत्येवम् अर्थात् पश्चादेव भवनात् सूत्रम् अनु व्यपदिश्यते। ततस्तस्य अणोः सूत्रस्य अभिधेये व्यापारो योगोऽणुयोगः, तेन वाऽणुना यः सूत्रेण सह अभिधेयस्य योग: सम्बन्धोऽणुयोग इति गाथाद्वयार्थः ॥१०॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०७ पं०१] द्वारक्रममेव सविस्तरव्याख्यानाय गाथाद्वयेनाह भाष्यकार:दारक्कमोऽयमेव उ, निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नाऽणत्थं, नाणुगमो नयमयविहूणो ॥११॥ [विशेषाव० ११५] व्या०- अत्राऽग्रेतना गाथा टीकाकृता नाऽऽनीता, परं भाष्यकारेण गाथायुग्मेनैव 5 द्वारक्रमो व्याख्यातः, अर्थश्च तथैव सङ्गतः, अतस्तत उद्धृत्याऽग्रेकृता सा लिखिता संबंधोवक्कमओ, समीवमाणीअ नत्थनिक्खेवं । सत्थं तओऽणुगम्मइ, नएहि नाणाविहाणेहिं ॥१२॥ [विशेषाव० ९१६] व्या०- एषामनुयोगद्वाराणामयमेवोपन्यासक्रमः, येन नासमीपस्थम् अनुपक्रान्तं निक्षिप्यते, न च नामादिभिरनिक्षिप्तमर्थतोऽनुगम्यते, नापि नयमतविकलोऽनुगम इति । यतश्च 10 सम्बन्धरूप उपक्रमः सम्बन्धोपक्रम: तेन सम्बन्धका उपक्रमेण समीपमानीय न्यासयोग्य विधाय न्यस्तनिक्षेपं विहितनाम-स्थापनादिनिक्षेपं सत् शास्त्रं ततोऽर्थतो अनुगम्यते व्याख्यायते नानाविधानैर्नानाभावभेदैर्नयैः, तस्मादयमेवानुयोगद्वारक्रमः इति क्रमप्रयोजनद्वारं समाप्तम्, तत्समाप्तौ च तस्स फलजोगेत्यादि गाथा समाप्तेति ॥१२॥ पृ०७] श्रुतस्य क्षायोपशमिकत्वावतारे भाष्यकृत्सम्मतिमाह15 छव्विहनामे भावे खओवसमिए सुअं समोयरति । जं सुअनाणावरणखओवसमजं तयं सव्वं ॥१३॥ [विशेषाव० ९४५] व्या०- अनुयोगद्वाराध्ययने षड्नाम्न्यौदयिकादयः षड् भावाः पठ्यन्ते । तत्र क्षायोपशमिके भावे सर्वमप्याचारादिश्रुतं समवतरति, यद् यस्मात् सर्वमपि तत् श्रुतं श्रुतज्ञानावरण कर्मक्षयोपशमादेव जायते, नान्यतः, तस्मात् क्षायोपशमिक एव भावे समवतरति नान्यत्र 20 इत्यर्थादुक्तं भवतीति उक्तं संक्षेपतो नाम ॥१३॥ साम्प्रतं प्रमाणमभिधित्सुराह[पृ०७] दव्वाइ चउन्भेअं, पमीयते जेण तं पमाणंति ।। इणमज्झयणं भावो त्ति, भावमाणे समोअरति ॥१४॥ [विशेषाव०९४६] व्या० - द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाच्चतुर्विधं प्रमेयम्, प्रमेयचातुर्विध्यात् प्रमाणमपि 25 चतुर्विधम्- द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रप्रमाणं कालप्रमाणं भावप्रमाणं चेति, द्रव्यादिकं चतुर्विधं प्रमेयं प्रमीयतेऽनेनेति कृत्वा । तत्रेदं सामायिकाध्ययनं श्रुतज्ञानविशेषत्वेन जीवपर्यायत्वाज्जीवभावत्वाद् भावप्रमाणे समवतरति ॥१४॥ [पृ०७ पं०२४] 'न तु नयप्रमाणे सम्प्रति' । नन्विदानीमत्र नयाः कथं न समवतार्यन्त इति Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् चेत्, शिष्यव्यामोहापोहायेत्येतदर्थं मनसि निधाय पूज्यपादा आहुः मूढनइअं सुअं कालिअं तु न नया समोयरंति इह । अपुहत्ते समोयारो, नत्थि पुहत्ते समोयारो ॥१५॥ [विशेषाव०२२७९] व्या०- कालिकं श्रुतं मूढनयिकम्, मूढा नयाः नैगमादयः सप्त यत्र तद् मूढनयिकम्। कालिके श्रुते नया मूढा वर्तन्ते, इह कालिकश्रुते न नया: समवतरन्ति, अतो नयप्रमाणे 5 इदं न समवतरति । अपृथक्त्वे नयानां समवतारः । कालिके श्रुते चत्वारोऽनुयोगाः पूर्वमासन्, एकस्मिन् सूत्रव्याख्याने चरण-धर्मकथा-गणित-द्रव्यप्रधानाः चत्वारोऽप्यनुयोगाः प्रदर्श्यन्ते, यदा आर्यरक्षितेन ग्रहण-धारणाहानि ज्ञात्वा अनुयोगः पृथक्कृतः, भिन्ने भिन्ने श्रुते स्थापितः, तदानीं नयानां समवतारो नास्ति । श्रुतं कालिकं मूढनयिकम्, येन प्रज्ञापको मुह्यति, एतैः सर्वैर्नयैरवतार्य द्रव्यं व्याख्यातुं 10 न शक्नोतीति भणितं भवति, अतो नयप्रमाण इदं न समवतरति, यदा अपृथक्त्वं आसीत्तदा एकस्मिन्ननुयोगे चत्वारोऽप्यनुयोगाः प्ररूप्यन्ते, पृथक्त्वे कृते सति प्रत्येकं भाष्यन्ते, ते अर्थास्तत्र व्यवच्छिन्नाः, यदा चरणानुयोगो व्याख्यायते तदा अन्ये त्रयोऽनुयोगा न भाष्यन्ते । एवं शेषेष्वपि भावनीयम् । कदा पुनः पृथक्त्वं जातम् ? कियच्चिरं कालं अपृथक्त्वमासीत् ? यावदार्यवज्रस्वामिनः तावदपृथक्त्वमासीत्, तेषामारतः पृथक्त्वं जातम् । पूर्वमार्यवज्रस्वामिपार्श्वे 15 आर्यरक्षितेन नव पूर्वाणि सम्पूर्णान्यधीतानि, ‘दशमपूर्वपठने समुद्राद् बिन्दुरधीतः' इति गुरोर्वचनं श्रुत्वा अवसन्नः, स्वस्मिन्नेव दशमपूर्वव्यवच्छेदं ज्ञात्वा श्रीवज्रस्वामिभिरनशनं चक्रे, तत आर्यरक्षितसूरयः स्वगच्छे अर्थवाचनां ददति । तस्मिन् गच्छे चत्वारो जनाः सन्तिदुर्बलिकापुष्प:१ विन्ध्यः२ फल्गुरक्षितः३ गोष्ठामाहिलश्च ४ । तन्मध्ये विन्ध्योऽतीव मेधावी, सूत्रार्थतभयग्रहणसमर्थो महत्यामर्थमण्डल्यां विषीदति, ततः स आचार्यैर्भण्यते-किमर्थं 20 विषीदसि ? तेनोक्तम्- स्वामिन् ! सर्वाऽर्थमण्डली चालयितुं न शक्यते । आचार्यैरुक्तम् ओम्। ततो विन्ध्यस्य दुर्बलिकापुष्पो वाचनाचार्यो दत्तः । कतिभिर्दिनैर्दुर्बलिकापुष्प उपस्थितो वक्ति- स्वामिन् ! मम श्रुतं नश्यति। यच्च स्वज्ञातगृहे नानुप्रेक्षितं तच्च शङ्कितं जातम् । यद्यहमेतस्य वाचनां दद्मि ततो मम नवमपूर्वं विस्मरिष्यति । तत आर्यरक्षितैश्चिन्तितं यदि तावदेतस्य परममेधाविन एवं कुर्वतः श्रुतं नश्यति, तद्यन्येषामल्पमेधसां नष्टमेव । तत उपयोगं 25 गताः, तैश्च ग्रहण-धारणादुर्बलत्वं ज्ञात्वा चत्वारि अनुयोगद्वाराणि कृतानि सुखगुणनधारणानिमित्तम्। कानि पुनस्तानि ? एकादशाङ्गानि सबाहिराङ्गानि यच्च महाकल्पश्रुतादि तत् चरण-करणानुयोगः । ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनानि, तच्च धर्मानुयोगः । चन्द्रप्रज्ञप्तिस्सूरप्रज्ञप्तिश्च, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे एष गणितानुयोगः । दृष्टिवादस्तु द्रव्यानुयोगः । अपृथक्त्वे एकस्मिन् सूत्रे चत्वारोऽनुयोगा आसन्, पृथक्त्वे ते अर्था व्यवच्छिन्ना एक एव स्थित इति गाथार्थः ॥ ननु भावप्रमाणमपि त्रिविधम्- गुणप्रमाणं नयप्रमाणं सङ्ख्याप्रमाणं चेति, तत्र सामायिक क्व समवतरति इत्युच्यते-गुणप्रमाणे । ननु गुणप्रमाणमपि द्विविधम्-जीवगुणप्रमाणम-जीवगुणप्रमाणं 5 च, तत्र प्रस्तुताध्ययनं सामायिकं व समवतरति ? इत्युच्यते-जीवानन्यत्वेन जीवगुणप्रमाणे। ननु जीवगुणोऽपि त्रिविधः- ज्ञान-दर्शन-चारित्रभेदात्, तत्र व सामायिकस्यावतार: ? उच्यतेबोधात्मकत्वाज्ज्ञानगुणे । ननु ज्ञानमपि प्रत्यक्षा-ऽनुमानोपमाना-ऽऽगमभेदाच्चतुर्विधम्, तत् क्वेदमवतरति ? इत्युच्यते-आगमे । ननु सोऽपि लौकिक-लोकोत्तरभेदाद् द्विविधः, लोकोत्तरोऽपि सूत्रार्थोभयरूपत्वात् त्रिविध एव, तत् क्वेदं समवतरति ? इत्युच्यते-सूत्रार्थोभयभेदात् त्रिविधेऽपि 10 लोकोत्तरागमे समवतरति, तत्स्वभावत्वात् तत्स्वरूपत्वादित्येतदेवाह[पृ०८ पं०६] जीवाणण्णत्तणओ जीवगुणे बोहभावओ नाणे । ____ लोकोत्तरसुत्तत्थोभयागमे तस्सभावाओ ॥१६॥ [विशेषाव० ९४७] व्या०- व्याख्याताईव । [पृ०८ पं०१८] स्वसमयावतारमेव स्पष्टयन्नाह15 परसमओ उभयं वा, सम्मदिट्ठिस्स ससमओ जेणं । तो सव्वज्झयणाई ससमयवत्तव्वनिययाइं ॥१७॥ [विशेषाव०९५३] व्या०- परसमय उभयसमयो वा सम्यग्दृष्टेः स्वसमय एव, यथावद्विषयविभागेन व्यवस्थापनात् । ततो यद्यपि केषुचिदध्ययनेषु परोभयसमयवक्तव्यताऽपि श्रूयते, तथापि तानि सर्वाण्यपि स्वसमयवक्तव्यतानियतान्येव, सम्यग्दृष्टिपरिग्रहात् । एतच्च पूर्वमनेकशो भावितमेवेति । 20 समवतारानवतारणे हेतुमाहुः पूर्वाचार्याः[पृ०८ पं०२३] अहुणा य समोयारो, जेण समोयारिअं पइद्दारं । ___एगट्ठाणमणुगओ, सो लाघवओ ण पुण वच्चो ॥१८॥ [विशेषाव०९५६] व्या०- अधुना समवतारोऽवसरप्राप्तः, चकारो भिन्नक्रमे, तद्यथा- स च लाघवओ त्ति लाघवमाश्रित्य, लाघवार्थमित्यर्थः, अनुगत: पूर्वमेव गतोऽतिक्रान्तः पूर्वमेवाभिहित इत्यर्थः । 25 कथम् ? इत्याह- येन यस्मात् प्रतिद्वारं सामायिकाध्ययनं समवतारितमेव, ततो नेदानीं पुनरपि समवतारो वाच्यस्तद्व्यापारस्याध्ययनसमवतारणलक्षणस्य प्रतिद्वारमनुष्ठितत्वात् । एतदुक्तं भवतिअधुना षष्ठ उपक्रमभेदः समवतारः प्रस्तुतः, स च लाघवार्थं प्रतिद्वारं समवतारितत्वात् पूर्वमेवाभिहित इति न पुनरप्यत्रोच्यते, पौनरुक्त्यप्रसङ्गादिति ॥१८॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् अत्र परमगुरुभिः श्रीअभयदेवसूरिभिः 'तस्स फलजोगमंगल' इत्यादिकाः गाथाः श्री विशेषावश्यकभाष्यलिखिताः साक्षित्वेन श्रीस्थानाङ्गवृत्तावुपदर्शिताः, मयाऽपि श्रीमलयगिरिविहितटीकापाठो लिखितः, तत्र सामायिकाध्ययनमाश्रित्य सर्वं व्याख्यातम्, अत्र तु श्रीस्थानाङ्गनामोच्चारणेन व्याख्येयमिति तात्पर्यम् । [पृ०८ पं० २६] निक्षेपत्रैविध्यमेव स्पष्टयन्नाह 5 भण्णइ घिप्पइ अ सुहं, निक्खेवपयाणुसारओ सत्थं । ओहो नाम सुत्तं, निक्खेयव्वं तओऽवस्सं ॥१९॥ [विशेषाव०९५७] व्या० यस्मान्नामादिनिक्षेपानुसारतः शास्त्रम् अध्ययनमुद्देशको वा सुखेनैव भण्यते अभिधीयते, सुखेनैव गृह्यते अधिगम्यते, तस्माच्छास्त्रादेः सम्बन्धी ओघो नाम सूत्रं चाऽवश्यमेव निक्षेप्तव्यम्। एतेन यन्निक्षेपस्य पूर्वं सामान्येन त्रैविध्यमुक्तं तदिदानी विशेषतो 10 दर्शितमवगन्तव्यम्, तद्यथा- त्रिविधो निक्षेपः-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति ॥१९।। तत्र ओघः किमुच्यते ? इत्याह[पृ०९ पं०२] ओहो जं सामन्नं, सुआभिहाणं चउव्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं, आओ ज्झवणा य पत्तेयं ॥२०॥ [पृ०९ पं०४] नामादिचउन्भेअं, वन्नेऊणं सुआणुसारेणं । एगट्ठाणं जोजं, चउसुं पि कमेण भावेसुं ॥२१॥[विशेषाव०९५८-९५९] व्या० इह यच्छ्रुतस्य जिनवचनरूपस्य सामान्यम् अङ्गाध्ययनोद्देशकादि नाम तदोघ इत्युच्यते, सामान्यं शास्त्रनामेत्यर्थः । तत्रेह सामायिकस्य प्रस्तुतत्वात्तद्विषयं सामान्यनाम प्राहअध्ययनम् अक्षीणम् आय: क्षपणा चेति । इदं च सामायिकादिशास्त्रविषयस्य सामान्यमध्ययनादिकमभिधानमनुयोगद्वारलक्षणश्रुतानुसारेण प्रत्येकं नामादि चतुर्विधमुपवर्ण्यम्, तद्यथा- 20 नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावाध्ययनम् । तथा नामाक्षीणं स्थापनाक्षीणं द्रव्याक्षीणं भावाक्षीणम् । एवमाय-क्षपणयोरप्युक्त्वा क्रमेण चतुर्ध्वपि भावेषु भावाध्ययने भावाक्षीणे भावाऽऽये भावक्षपणायां चेत्यर्थः । किमित्याह- सामायिकमायोज्यम्, सामायिकमेव भावाध्ययनादिवाच्यत्वेनात्र बोद्धव्यमित्यर्थः ॥२१॥ १. अत्र सर्वत्र लिखितः विशेषावश्यकभाष्यटीकापाठः मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविहितटीकानुसार्येव वर्तते, अतो 'मलयगिरि' इति निर्देशः अनवधानेनैव विवरणकाराभ्यां विहित इति भाति ॥ २. ‘सामाइयमाओजं' इति विशेषावश्यकभाष्ये पाठः, किन्तु अत्र ‘एकस्थानस्य' प्रस्तुतत्वात् किञ्चित् शब्दपरिवर्तनं विधाय ‘एगट्ठाणं जोजं' इति अभयदेवसूरिभिरत्र लिखितम् । एवमग्रेऽपि सर्वत्र ज्ञातव्यम् ॥ 15 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अथाध्ययनादीनां चतुर्णामपि क्रमेण गाथद्वयेन निरुक्तमाह[पृ०९ पं०९] जेण सुहज्झप्पयणं, अज्झप्पाणयणमहिअमयणं वा । ___ बोहस्स संजमस्स व, मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥२२॥[विशेषाव० ९६०] व्या० इह नैरुक्तेन विधिना प्राकृतस्वाभाव्याच्च शुभमज्झप्पं चित्तं जणेइ त्ति प्पगारलोआओ 5 अज्झयणं, अहवा अज्झप्पाणयणं प्पगार-आकार-णगारलोवाओ अज्झयणं ति । अथवा बोधस्य संयमस्य मोक्षस्य वा अधिकमयनं तद्धेतुत्वात् प्रापकं यत्तदध्ययनमिति । [पृ०९ पं०१४] अज्झीणं दिजंतं, अव्वोच्छित्तिनयतो अलोगो व्व । ___आओ नाणाईणं, झवणा पावाण खवणं ति ॥२३॥ [विशेषाव० ९६१] व्या० अर्थिभ्योऽनवरतं दीयमानमपि वर्धत एव, न तु क्षीयते इत्यक्षीणम्, अथवा 10 अव्यवच्छित्तिनयमतेन सर्वदैवाव्यवच्छे दादलोकवदक्षीणम् । आयो लाभः प्राप्तिर्ज्ञानादीनामस्मादित्यायः । क्षपणा अपचयो निर्जरा पापकर्मणामस्मादिति क्षपणेति । [पृ०९ पं०१८] नामं १ ठवणा २ दविए ३ माउअपय ४ संगहेक्कए चेव ५ । पज्जव ६ भावे ७ अ तहा, सत्तेते एक्कगा होति ॥२४॥ [दशवै०नि०८,२१८] व्या० इयं गाथा वृत्तिकृतैव व्याख्यातेति न प्रतन्यते ॥ 15 व्याख्यायाः किं लक्षणमित्याह[पृ०१० पं०१६] सुत्तं १ पयं २ पयत्थो ३, संभवतो विग्गहो ४ विआरो ५ य । __ दूसिअसिद्धी नयमयविसेसओ नेयमणुसुत्तं ॥२५॥ [विशेषाव०१००२] व्या० व्याख्यानविधौ प्रस्तुते प्रथमं तावदस्खलितादिगुणोपेतं यथोक्तलक्षणयुक्तं सूत्रमुच्चारणीयम्, इयं चान्यत्रास्खलितपदोच्चारणरूपा संहिता भण्यते । ततश्च पयमिति पदच्छेदो 20 दर्शनीयः, ततः पदार्थो वक्तव्यः, ततः सम्भवतो विग्रह इति समासः कर्तव्यः, ततश्चालनारूपो विचारः कर्तव्यः, ततो दूषितसिद्धिर्दूषणपरिहारः प्रत्यवस्थानरूपो निरूपणीयः, एवमुक्तक्रमेणाऽनुसूत्रं नयमतविशेषतो नयानां मतविशेषैर्व्याख्यानं ज्ञेयमिति ।। [पृ०१० पं०२०] होइ कयत्थो वोत्तुं, सुपयच्छेयं सुअं सुआणुगमो ॥ विशेषाव०१००९] गाथार्द्धम्। 25 व्या० सुगमम्, नवरं सुपदच्छेदं सुष्ठकृतपदच्छेदं श्रुतम्, स च श्रुतानुगमो भवति वक्तुं कृतार्थः, सूत्रानुगमस्य श्रुतपदच्छेदरूपत्वादिति ॥ १. 'प्पजणं इति पाठोऽत्र ॥ २. सप' इति विशेषावश्यके । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् निक्षेपस्य योग्यतां विवृण्वन्नाह [पृ०११ पं०१] जत्थ उ जं जाणिज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि अ न जाणेजा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ||२६|| [आचाराङ्गनि०४] व्या० यत्र जीवादौ वस्तुनि यं जानीयात्तं निक्षेपं न्यासं यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तत्र वस्तुनि तं निक्षेपं निक्षिपेत् निरूपयेन्निरवशेषं समग्रम्, यत्रापि न जानीयान्निरवशेषं निक्षेपं 5 तत्रापि नाम-स्थापना- द्रव्य-भावलक्षणं चतुष्कं निक्षिपेत् इदमुक्तं भवति यत्र तावन्नामस्थापना- द्रव्य- क्षेत्र - काल - भावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते तत्र तैः सर्वैरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र तु सर्वे भेदा न ज्ञायन्ते तत्रापि नामादिचतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात्तस्य, न हि किमपि तद् वस्तु यन्नामादिचतुष्टयं व्यभिचरतीति गाथार्थः ॥ [पृ०११ पं०४] तदेवाह नामं १ ठवणा २ दविए ३, ओहे ४ भव५ तब्भवे य ५ भोगे ७ अ । संजम ८ जस ९ कित्ती १० जीविअं च तं भण्णति दसहा ||२७|| [आव०नि० १०५६] व्या० नामजीवितं १ स्थापनाजीवितं च २ द्रव्यजीवितम् ३ ओघजीवितं ४ भवजीवितं ५ तद्भवजीवितं ६ भोगजीवितं च ७ तथा संयमजीवितं ८ यशोजीवितं ९ कीर्तिजीवितं 15 १० च तद् भण्यते दशधेति गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थं तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नाम - स्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदव्याचिख्यासयाऽऽह ११ दव्वे सच्चिताई, आउअसद्दव्वया भवे आहे । नेर आईण भवे, तब्भव तत्थेव उप्पत्ती || [ आवश्यकभा० १८९] 20 व्या० द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यजीवितं सच्चित्तादि, आदिशब्दान्मिश्राचित्तपरिग्रहः । इह कारणे कार्योपचाराद् येन द्रव्येण सच्चित्ताचित्तमिश्रभेदेन पुत्र- हिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीवितमात्तं तस्य तथा द्रव्यजीवितमिति । द्विपदादिद्रव्यस्य चान्ये । उक्तं द्रव्यजीवितम् । आउअसद्दव्वया भवे ओहे त्ति आयुरिति प्रदेशकर्म, तद्द्द्रव्यसहचरितं जीवस्य प्राणधारणं सदैव संसारे भवेत्, ओघ इति द्वारपरामर्श: । ओघजीवितं सामान्यजीवितमित्यर्थः, इदं चाङ्गीकृत्य 25 यदि परं सिद्धाः मृता न पुनरन्ये कदाचन इति । उक्तमोघजीवितम् । नेरइआई १. अत्र सर्वत्र यत्र आवश्यक निर्युक्तिगाथाया विवरणं तत्र प्रायः सर्वत्र हरिभद्रसूरिविरचितवृत्त्यनुसारेण लिखितमिति ध्येयम् ॥ 10 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे नारकादीनामिति, आदिशब्दात्तिर्यङ्-नरा-ऽमरपरिग्रहः, भव इति द्वारपरामर्शः स्वभवे स्थितिर्भवजीवितम् इत्युक्तं भवजीवितम् । तब्भव तत्थेव उप्पत्ति त्ति, तस्मिन् भवे जीवितं तद्भवजीवितम्, इदं चौदारिकशरीरिणामेव भवति, यत आह तत्रैवोत्पत्तिस्तत्रैव उपपात इत्यर्थः, तेषां चेदं स्वकायस्थित्यनुसारतो विज्ञेयमिति गाथार्थः । उक्तं तद्भवजीवितम् ॥ 5 भोगम्मि चक्किमाई संजमजीयं तु संजयजणस्स । जसकित्ती अ भगवओ, [आव०नि०१०४४] व्या० भोगम्मि त्ति द्वारपरामर्शः, भोगजीवितं च चक्रवर्त्यादीनाम्, आदिशब्दाबलदेववासुदेवादिपरिग्रहः, उक्तं भोगजीवितम् । संयमजीयं तु संजयजणस्स त्ति संयमजीवितं तु संयतजनस्य साधुलोकस्य, उक्तं संयमजीवितम् । जसकित्ती य भगवतो त्ति यशोजीवितं भगवतो 10 महावीरस्य, कीर्तिजीवितमपि तस्यैव । अयं चानयोर्विशेष:- दानपुण्यफला कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः इति । अन्ये त्विदमेकमेवाभिदधति । असंयमजीवितं चाविरतिगतं संयमप्रतिपक्षत्वेन गृह्यते ॥ [पृ०१२ पं०५] श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात्, उक्तं च15 किं एत्तो पावयरं ? सम्म अणहिगयधम्मसब्भावो । अण्णं कुदेसणाए कट्ठयरागम्मि पाडेइ ॥२८॥ [ ] व्या० किमस्मात् पापतरम् ? अतिशयेन पापं पापतरम्, उत्कृष्टं पापमित्यर्थः । सम्यग् अनधिगतधर्मसद्भाव: अज्ञातधर्मसद्भावः स्वयं सम्यग्धर्मं न करोति, परम् अन्यम् आत्मव्यतिरिक्तं कुदेशनया कुमार्गनिरूपणेन कट्ठयरागम्मीति कष्टतरागसि कष्टकार्यपराधे पातयति कदाग्रहे 20 स्थापयति, कुदेशनाव्युद्ग्राहितो जीवः सहस्रधोपदेशदानेऽपि शुद्धमार्ग नाङ्गीकरोतीति पापतरप्रकारः॥ [पृ०१२ पं०१०] धम्ममएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो अ मणं, सीसं चोएइ आयरिओ ॥२९॥ [उपदेशमाला १०४] व्या० धर्मेण निर्वृत्तानि निरवद्यत्वाद्धर्ममयानि, तैः, तथा अतिसुन्दरैर्वचनदोषरहितैः, 25 तथा कारणगुणोपनीतैः, तत्र कारणं स्वभणनप्रयोजनम्, गुणाः शिष्य(क्ष्य)माणस्य ज्ञानभाजनतादयः, कारणं च गुणाश्चेति द्वन्द्वः, तैरुपनीतानि उपढौकितानि, शिष्यस्यापि प्रतीतावारोहितानीत्यर्थः, तैर्वचनैरिति गम्यते, प्रह्लादयन्निव मनश्चित्तमन्याश्रुतत्वात्तस्यैव, शिष्यं चोदयति शिष्य(क्ष)यत्याचार्यो गुरुरिति, तेन च प्रह्लादनं सत्यवचनैरेव कार्यम्, न पुनरसत्यं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् प्रियमपि वक्तव्यम्, सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, ब्रूयात् सत्यमपि प्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥१॥ [ ] इति गाथार्थः । [पृ०१२ पं० २०] वुढे वि दोणमेहे, न कण्हभूमाउ लोट्टए उदयं । गहणधरणासमत्थे, इय देयमच्छित्तिकारिम्मि ॥३०॥ [विशेषाव० १४५८] 5 व्या० यावता वृष्टेनाकाशबिन्दुभिर्महती गर्गरी भ्रियते तावत्प्रमाणजलवर्षी मेघो द्रोणमेघ उच्यते, तस्मिन् वृष्टेऽपि सति कृष्णभूमिर्यत्र प्रदेशेऽसौ कृष्णभूमः प्रदेशस्तस्मान्न प्रलोठति बह्वपि तन्मेघजलं पतितं न लुठित्वाऽन्यत्र गच्छति, किन्तु तत्रैवान्तः प्रविशतीति भावः । एवं शिष्योऽपि स कश्चिद्भवति यो गुरुभिरुक्तं बह्वप्यवधारयति, न पुनरक्षरमपि पार्श्वतो गच्छतीत्येवम्भूते च सूत्रार्थग्रहणावधारणासमर्थे शिष्ये सूत्रार्थयोः शिष्यप्रशिष्यपरम्पराप्रदानेनाऽव्यवच्छेदकारिणि 10 देयं सूत्रार्थजातम्, नान्यस्मिन्निति गाथार्थः ॥ (पृ०१२ पं०२३] ननु परोपकारकारकैराचार्यवर्घनवृष्टिदृष्टान्तेन शिष्टाशिष्टशिष्याणां सूत्रार्थदानं कथं न क्रियत इति चेत्तत्र दोषमाह - आयरिए सुत्तम्मि अ, परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसि पि अ हाणी, पुट्ठा वि न दुद्धदा वंझा ॥३१॥ [विशेषाव० १४५७] 15 व्या० आचार्ये सूत्रेऽपि च आगमे परिवादोऽवर्णवादो लोकसमुत्थो भवति, तद्यथा'अहो ! नास्य सूरेः प्रतिपादिका शक्तिर्नापि तथाविधं किमपि परिज्ञानम्, यतोऽमुमप्येकं शिष्यमवबोधयितुं न क्षमः, आगमोऽप्यमीषां सम्बन्धी निरतिशयो युक्तिविकलश्च, इतरथा कथमयमेकोऽप्यस्मान्नावबुध्यते' इत्यादि । तथा सूत्रार्थयोरन्तरायसम्भवात् परिमन्थनं मर्दनं विनाशनं सूत्रार्थपरिमन्थः, तच्छिक्षणप्रवृत्तस्य सूरेरात्मनः सूत्रपठन-परावर्तन-व्याख्यानभङ्गो 20 भवतीत्यर्थः, परं च तद्ग्रहणप्रसक्ते सूरौ अन्येषां शिष्याणां सूत्रार्थहानिः, तद्ग्रहणभङ्ग इत्यर्थः। न च बहुनाऽपि कालेन तथाविधः शिष्यः किञ्चिदपि ग्राहयितुं शक्यः । कुतः ? इत्याशङ्क्याऽत्रार्थे दृष्टान्तमाह-पुट्ठा वीत्यादि, नियमनेन नियन्त्र्य स्तनेषु करैर्बहुधा स्पृष्टाऽपि वन्ध्या गौर्न खलु दुग्धदा भवति, एवं मुद्गशैलसमः शिष्योऽपि ग्राहणकुशलेनाऽपि गुरुणा ग्राह्यमाणोऽपि नाक्षरमपि गृह्णाति, ततस्तादृशस्य सूत्रार्थो न दातव्यः, 25 ऐहिकामुष्मिकक्लेशादिबहुदोषसम्भवात्, ददाति चेत्तर्हि समयोक्तप्रायश्चित्तभागिति ॥ । [पृ०१३ पं०१६] नन्विदमपि सूत्रमपौरुषेयं भविष्यतीति चेत्, न, व्यतिरेकदृष्टान्तेनास्य पौरुषेयत्वं प्रतिपादयन्नाह Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे वेअवयणं तु नेवं, अपोरुसेअं तु तं मयं जेण । इदमच्चंतविरुद्धं, वयणं च अपोरुसेअं च ॥३२॥ [पञ्चवस्तु० १२७८] व्या० वेदवचनं तु नैवं सम्भवत्स्वरूपम्, अपौरुषेयम् एव तन्मतम्, येन कारणेन इदमत्यन्तविरुद्धं यदुत- वचनं चापौरुषेयं चेति । एतद्भावनायाह5 [पृ०१३ पं०१८] जं वुच्चइ त्ति वयणं, पुरिसाभावे उ नेअमेयं ति । ता तस्सेवाभावो, निअमेण अपोरुसेअत्ते ॥३३॥ [पञ्चवस्तु० १२७९] [पृ०१४ पं०७] भत्तीइ जिणवराणं खिजति पुव्वसंचिया कम्मा । आयरिअनमोक्कारेणं विज्जा मंता य सिझंति ॥३४॥ [आवश्यकनि० १११०] व्या० भक्त्या जिनवराणां पूर्वसञ्चितानि पूर्वभवसञ्चयीकृतानि कर्माणि खिजंतीति क्षयं 10 यान्ति, च पुनराचार्यनमस्कारेण विद्या मन्त्रास्सिध्यन्ति, नमस्कारश्चेह भक्तिरिति ॥ [पृ०१४ पं०२२] गुरुकुलवासस्यैव ज्ञानादिकारणतां पुरस्कुर्वन् गाथाद्वयमाहनाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते अ । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥३५॥ गीयावासो रई धम्मे अणायतणवजणं । ___ 15 निग्गहो अ कसायाणं, एअं धीराण सासणं ॥३६॥ [बृहत्कल्प० ५७१३-५७१४, विशेषाव० ३४५९-३४६०] व्या० ज्ञानस्य श्रुतज्ञानादेर्भवति स्याद् भागी भाजनं गुरुकुले वसन्निति प्रकृतम्, प्रत्यहं वाचनादिभावात् । तथा स्थिरतरकः पूर्वप्रतिपन्नदर्शनोऽपि सन्नतिशयस्थिरो भवति दर्शने सम्यक्त्वे, अन्वहं स्वसमय-परसमयतत्त्वश्रवणात्, तथा चरित्रे चरणे स्थिरतरो भवति, अनुवेलं 20 वारणादिभावात्, चशब्दः समुच्चये । यत एवं ततो धन्या धर्मधनं लब्धारो यावत्कथं यावजीवं गुरुकुलवासं गुरुगृहनिवसनं न मुञ्चन्ति न परित्यजन्तीति गाथार्थः ॥ तथा गुरुकुलवासे वसतां साधूनां गीतावासः, रतिर्द्धर्मे धर्मे साधुधर्मे रागो भवति, अनायतनवर्जनम्, अनायतनानि साधूनामयोग्यानि यानि, तेषां वर्जनम्, च पुनः कषायाणां निग्रहो भवति उदयविफलीकरणेन कषाया निगृहीता एव, एतद्धीराणां शिष्याणां गुरुकुलवासिनां 25 शासनं शिक्षा ॥ [पृ०१५ पं०२] जहाऽऽहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुतीमंतपयाभिसित्तं । एवायरिअं उवचिट्ठएजा, अणंतनाणोवगओ वि संतो ॥३७॥ [दशवै० ९।१।११] १. न माणं-स्थानाङ्गवृत्तौ ॥ २. बृहत्कल्पभाष्ये 'भीयावासो इति पाठः ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् १५ १ व्या० यथा आहिताग्निः कृतावसथादिर्ब्राह्मणः ज्वलनम् अग्निं नमस्यति, किं विशिष्टम् ? इत्याह- नानाऽऽहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम्, तत्र आहुतयो घृतप्रक्षेपादिरूपाः, मन्त्रपदानि 'अग्नये स्वाहा'इत्येवमादीनि, तैरभिषिक्तं दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः । एवमग्निमिव आचार्यमुपतिष्ठेद् विनयेनासेवेत । किंविशिष्ट इत्याह- अनन्तज्ञानोपगतोऽपीति, अनन्तं स्व- परपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानम्, तदुपगतोऽपि सन्, किं पुनरज्ञ इति गाथार्थः ॥ [पृ०१५ पं०७] निद्दाविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ||३८|| [ पञ्चवस्तुके १००६ ] व्या० निद्राविकथापरिवर्जितैः परिवर्जितनिद्राविकथैरित्यर्थः, गुप्तैर्मनो - वाक्कायगुप्तैः, पंजलिउडेहिं ति निष्ठान्तस्य प्राकृतत्वात् परनिपात इति कृतप्राञ्जलिभिः, भक्तिः यथोचिता बाह्या प्रतिपत्तिः, बहुमानम् आन्तरः प्रीतिविशेषः, तत्पूर्वमुपयुक्तैः श्रवणैकनिष्ठैः श्रोतव्यं 10 गुरुवचनमिति शेषः ॥ [पृ०१५ पं०२७] वस्तुनो नित्यानित्यत्वमेव विशेषतः प्रकटयन्नाह - सव्वं चिअ पइसमयं, उप्पज्जइ नस्सए अ निच्चं च । एवं चेव य सुहदुक्ख - बंधमोक्खादिसन्भावो ॥ ३९ ॥ [ विशेषाव० ५४४ ] व्या० सर्वमेव वस्तु प्रतिसमयम् उत्पद्यते नश्यति च नित्यं चेति, कोऽर्थः ? 15 आद्यास्त्रयो नयाः द्रव्यार्थवादितया नित्यं वस्तु, इतरे नयाः पर्यायार्थवादितया अनित्यं सर्वं मन्वते, उभयमताश्रयणेन नित्यानित्यं वस्तु । अयमाशयः - द्रव्यार्थतया नित्यम्, कदापि तन्नाशाभावात्, पर्यायार्थतया त्वनित्यम्, प्रतिसमयं तदन्यान्यसद्भावात् । एवमेव च अनेनैव प्रकारेण सुख-दुःख-बन्ध-मोक्षादिसद्भावः ॥ [पृ०१६ पं०४] अनुगमादिस्वरूपमाह सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगैकओ अ निक्खेवो । सुत्तप्फासिअजुत्ती, नया य समगं तु वच्चंति ॥४०॥ [ विशेषाव० १००१] व्या० तदेवं सूत्रानुगमोऽनुगमप्रभेदः, तथा सूत्रालापकगतस्य निक्षेपो निक्षेपद्वारतृतीयभेदः, तथा सूत्रस्पर्शिका निर्युक्तिः निर्युक्त्यनुगमतृतीयभेदः, तथा नयाश्च चतुर्थानुयोगद्वारोपन्यस्ताः समकं युगपत् प्रतिसूत्रं व्रजन्ति गच्छन्तीति ॥ १. अस्मिन् गाथाविवरणे यत्र यत्र दशवैकालिकसूत्रात् तन्निर्युक्तेर्वा किमपि उद्धृतं तत्र दशवैकालिकसूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः तुलनार्थं द्रष्टव्या ॥ २. एवं विशेषावश्यके ॥ ३. गगओ - विशेषावश्यके ॥ 5 20 25 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०१६ पं०७] होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुअं सुआणुगमो । सुत्तालावन्नासो नामाइन्नासविणिओगं ॥४१॥ सुत्तप्फासिअनिजुत्तिनियोगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो च्चिअ नेगमनयाइमयगोअरो होइ ॥४२॥ [विशेषाव० १००९-१०१०] 5 व्या० अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार्य तत्पदच्छेदं चाभिधाय सूत्रानुगमोऽनुगमप्रथमभेदः कृतार्थोऽवसितप्रयोजनो भवति, सूत्रालापकन्यासस्तु निक्षेपतृतीयभेदस्वरूपो नामस्थापनादिन्यासविनियोगमात्रं कृत्वा कृतार्थो जायते, वक्ष्यमाणं प्रायोग्रहणमत्रापि सम्बध्यते, ततश्च प्रायः शेषः पदार्थ-पदविग्रह-चालना-प्रत्यवस्थानलक्षणव्याख्याचतुष्टयरूप: सूत्रस्पर्शि(श)कनिर्युक्तेर्नियोगो व्यापारः, स एव च पदार्थादिः प्रायो नैगमादिनयमतगोचरो 10 भवति, पदार्थादावेव कथ्यमाने नैगमादिनयप्रवृत्तेरिति ॥ [पृ०१८ पं०१५] अन्वयदृष्टान्तेनात्मनः प्रत्यक्षत्वमेव साधयन् गाथात्रयमाह महाग्रन्थकृत्गुणपच्चक्खत्तणओ, गुणी वि जीवो घडो व्व पच्चक्खो । घडओ वि घिप्पड़ गुणी, गुणमेत्तग्गहणओ जम्हा ॥४३॥ [विशेषाव० १५५८] व्या० प्रत्यक्ष एव गुणी जीवः, स्मृति-जिज्ञासा-चिकीर्षा-जिगमिषा-संशीत्यादिज्ञानविशेषाणां 15 तद्गुणानां स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वाद्, इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टो यथा घटः, प्रत्यक्षगुणश्च जीवस्तस्मात् प्रत्यक्षः, यथा घटोऽपि गुणी रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेव प्रत्यक्षः तद्वद् विज्ञानादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मापीति ।। आह- अनैकान्तिकोऽयम्, यस्मादाकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षोऽस्ति, न पुनराकाशमिति, तदयुक्तम्, यतो नाकाशगुणः शब्दः, किन्तु पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात्, रूपादिवदिति ॥ 20 [पृ०१८] गुणानां प्रत्यक्षत्वे गुणिनस्तद्रूपतायां किमायातमिति चेदुच्यते अन्नोऽणन्नो व्व गुणी, होज गुणेहिं जइ नाम सोऽणन्नो । नणु गुणमेत्तग्गहणे, घिप्पइ जीवो गुणी सक्खं ॥४४॥ अह अन्नो तो एवं, गुणिणो न घडादओ वि पच्चक्खा । गुणमित्तग्गहणाओ, जीवम्मि कुतो विआरोऽयं ॥४५॥[विशेषाव० १५५९-१५६०] ति। व्या० ननु भवता गुणेभ्यो गुणी किमर्थान्तरभूतोऽभ्युपगम्यतेऽनर्थान्तरभूतो वा ?, यदि नाम सोऽनन्यस्तेभ्योऽनर्थान्तरभूतस्तर्हि ज्ञानादिगुणग्रहणमात्रादेव गुणी जीवः प्रत्यक्षेण गृह्यत इति सिद्धमेव । प्रयोगः- यो यस्मादनन्तरं स तद्ग्रहणे गृह्यत एव, यथा वाससि रागः, गुणेभ्योऽनर्थान्तरं च गुणी, तस्माद् गुणग्राहकप्रत्यक्षेण सोऽपि गृह्यत एवेति । अथ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् ssर्थान्तरभूत एव गुणी, तत एवं सति घटादयोऽपि गुणिनो न प्रत्यक्षाः, तदर्थान्तरभूतस्य रूपादिगुणमात्रस्यैव ग्रहणात् । इह यद्यस्मादर्थान्तरभूतं तद्ग्रहणेऽपि नेतरस्य ग्रहणम्, यथा घटे गृहीते पटस्य, अर्थान्तरभूताश्च गुणिनो गुणा इष्यन्ते, अतो गुणग्रहणेऽपि न गुणिग्रहणमतो घटादीनामपि समानेऽग्रहणदोषे कोऽयं नाम भवतः केवले जीवे विचारो नास्तित्वविवक्षा, येनोच्यते- पच्चक्खं जं न दीसई घडो व्वे [ विशेषाव० १५४९] त्यादि ? अथ द्रव्यविरहिताः केऽपि 5 न सन्त्येव गुणा इत्यतस्तद्ग्रहणद्वारेण गृह्यन्त एव घटादयः । नन्वेतदात्मन्यपि समानमेव। किञ्च, गुणिनो गुणानामर्थान्तरत्वेऽभ्युपगम्यमाने गुणी भवतु मा भूद्वा प्रत्यक्षस्तथाऽपि ज्ञानादिगुणेभ्यः पृथगात्मा गुणी त्वदभ्युपगमेनापि सिध्यत्येवेति । [पृ०१८] जो कत्तादि स जीवो, सज्झविरुद्धो त्ति ते मई होज्जा । 10 मुत्ताइपसंगाओ, तन्नो संसारिणो दोसो ॥४६॥ [विशेषाव० १५७० ] त्ति । व्या० यश्चायमनन्तरं देहेन्द्रियादीनां कर्त्ता अधिष्ठाता आदाता भोक्ता अर्थी चोक्तः स सर्वोऽपि जीव एव, अन्यस्य ईश्वरादेर्युक्त्यक्षमत्वेन कर्तृत्वाद्यसम्भवादिति । अथ साध्यविरुद्धसाधकत्वाद् विरुद्वा एते हेतव इति तव मतिर्भवेत्, तथाहि - घटादीनां कर्त्रादिरूपाः कुलालादयो मूर्तिमन्तः सङ्घातरूपा अनित्यादिस्वभावाश्च दृष्टा इत्यतो जीवोऽप्येवंविध a सिध्यति, एतद्विपरीतश्च किलास्माकं साधयितुमिष्टः, इत्येवं साध्यविरुद्धसाधकत्वं हेतूनामिति । 15 तदेतदयुक्तत्वान्न, यतः खलु संसारिणो जीवस्य साधयितुमिष्टस्यादोषोऽयम्, सह्यष्टकर्मपुद्गलसङ्घातोपगूढत्वात् सशरीरत्वाच्च कथञ्चिन्मूर्त्तत्वादिधर्मयुक्त एवेति भावः ॥ [पृ०१९] यच्च न य जीवलिंगसंबंधदरिसणमभू [विशेषाव० १५५१] इत्यादिपूर्वोक्तपूर्वपक्षानुसारेण मन्यसे त्वम्, किम् ? इत्याह सोऽणेगंतो जम्हा, लिंगेहिं समं अदिट्ठपुव्वो वि । गहलिंगदरिसणाओ, गहोऽणुमेओ सरीरम्मि ||४७ ॥ [विशेषाव ० १५६६ ] व्या० ततो न लिङ्गतो लिङ्गादनुमेयोऽसौ जीवः, यतः किम् ? इत्याह-यतो न खलु लिङ्गैः कैश्चिदपि समं लिङ्गी जीवः क्वापि केनापि पुरा पूर्वं गृहीतः, किंवत् ? इत्याहशृङ्गमिव शशकेन समम्, ततो लिङ्गलिङ्गिनोः पूर्वं सम्बन्धाग्रहणान्न लिङ्गाज्जीवोऽनुमीयते, इति मन्यसे त्वम्, तत्र प्रतिविधीयते - सोऽणेगंतो सोऽनेकान्तः, यस्मात् लिङ्गैः सममदृष्टपूर्वोऽपि 25 ग्रहो देवयोनिविशेषः शरीरे हसन- गान - रोदन - कर-चरण- १ -भ्रूविक्षेपादिविकृतलिङ्गदर्शनादनुमीयत इति बालानामपि प्रतीतमेवेति ॥ [पृ०१९] आत्मनोऽविनाशित्वमेव द्रढयन्नाह १७ 20 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे न हि सव्वहा विणासो, अद्धापजायमेत्तनासम्मि । सपरप्पजायाणंतधम्मुणो वत्थुणो जुत्तो ॥४८॥ [विशेषाव० २३९३] व्या० नहि सर्वथैव वस्तुनो विनाशो युक्तः, क्व सति ? इत्याह- अद्धापर्यायमात्रनाशे, तत्र इहाऽद्धा नारकादीनामुत्पत्तिप्रथमादिसमयः, स एव पर्यायमात्रम्, तस्य नाशोऽपगमस्तस्मिन् 5 सति । कथम्भूतस्य वस्तुनः ? इत्याह- स्वपरपर्यायानन्तधर्मकस्य, इदमुक्तं भवति-यस्मिन्नेव समये तन्नारकवस्तु प्रथमसमयनारकत्वेन समुच्छिद्यते तस्मिन्नेव समये द्वितीयसमयनारकत्वेनोत्पद्यते, जीवद्रव्यतया त्ववतिष्ठते, ततो यदि नाम अद्धापर्यायमात्रमुच्छिन्नं ततः सर्वस्य वस्तुनः समुच्छेदे किमायातम् ? अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनः एकपर्यायमात्रोच्छेदे सर्वोच्छेदस्य दूरविरुद्धत्वादिति ॥ [पृ०२०] अथ सर्वेषां भावानां साक्षेपं क्षणिकत्वादिप्रश्नपूर्वकं तदुक्तपक्षमनूद्य सद्यस्तत्पक्ष 10 तिरस्कुर्वन् स्वपक्षं च सद्युक्त्या पुरस्कुर्वन् गाथाषट्कमाह कह वा सव्वं खणिअं, विनायं जइ मई सुआओ त्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थगहणपरिणामओ जुत्तं ॥४९॥ न तु पइसमयविणासे, जेणेकेक्कक्खरं पि य पयस्स । संखाईयसामइयं संखिजाइं पयं ताई ॥५०॥ संखेजपयं वक्त्रं, तदत्थगहणपरिणामओ होजा । सव्वखणभंगनाणं, तदजुत्तं समयनट्ठस्स ॥५१॥ [विशेषाव० २४०१-२४०३] व्या० वा इत्यथवा पर्यनुयुज्यते भवान् ननु सर्वं वस्तु क्षणिकमित्येतत् कथं भवता विज्ञातमिति वक्तव्यम्, श्रुतादिति चेन्ननु तच्छुतादर्थविज्ञानम् असङ्ख्येयसमयैर्निष्पन्नो यः सूत्रार्थग्रहणपरिणामस्तस्मादेव युक्तम्, न तु प्रतिसमयविनाशे, इदमुक्तं भवति-असङ्ख्येयानेव 20 समयान् यावच्चित्तस्यावस्थाने सर्वं क्षणिकमिति विज्ञानोपयोगो युज्यते, न तु प्रतिसमयोच्छेदे। अत्र कारणमाह- येन यस्मात् कारणात् पदस्य सावयवत्वात्तत्सम्बन्ध्येकैकमप्यक्षरं सङ्ख्यातीतसामयिकम्, असङ्ख्यातैः समयैर्निष्पद्यत इत्यर्थः । तानि चाक्षराणि सङ्ख्यातानि समुदितानि पदं भवति, सङ्ख्यातैश्च पदैर्वाक्यं निष्पद्यते, तदर्थग्रहणपरिणामाच्च वाक्यार्थग्रहणपरिणामादित्यर्थः, सर्वक्षणभङ्गज्ञानं भवेत्, तच्चोत्पत्तिसमयानन्तरमेव नष्टस्य 25 समुच्छिन्नस्य मनसोऽयुक्तमेवेति । अन्यदपि क्षणभङ्गवादे यन्नोपपद्यते तद्दर्शयति[पृ०२०] तित्ती समो किलामो, सारिक्ख-विवक्ख-पच्चयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सव्वनासम्मि ? ॥५२॥ [विशेषाव० २४०४] व्या० तृप्तिर्धाणिः, मार्गगमनादिप्रवृत्तस्य खेदः श्रमः, क्लमो ग्लानिः, सादृश्यं साधर्म्यम्, Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् विपक्षो वैधर्म्यम्, प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञानादिः, आदिशब्दात् स्वनिहितप्रत्यनुमार्गणस्मरणादिपरिग्रहः। अध्ययनं पुनःपुनर्ग्रन्थाभ्यासः, ध्यानम् एकालम्बने मनःस्थैर्यम्, भावना पौन:पुन्येनानित्यत्वादिप्रकारतो भवनैर्गुण्यपरिभावनरूपा, एतानि सर्वाण्यप्युत्पत्त्यनन्तरमेव वस्तुनः सर्वनाशेऽङ्गीक्रियमाणे कथमुपपद्यन्ते ? इति ॥ [पृ०२०] किमित्येतन्मिथ्यात्वम् ? इत्याहजमणंतपज्जयमयं वत्थु भवणं व चित्तपरिणामं । ठिईविभवभंगरूवं निच्चानिच्चाइ तोऽभिमयं ॥५३॥ [विशेषाव० २४१६] । व्या० यद् यस्मान्नैकान्तत: पर्यायमयम्, नाप्येकान्तेन द्रव्यरूपम्, किन्त्वनन्तपर्यायस्थित्युत्पादविनाशरूपत्वाद् भू-भवन-विमान-द्वीप-समुद्रादिरूपतया त्रिभुवनमिव समस्तमपि वस्तु नित्या-ऽनित्यादिरूपतया विचित्रपरिणामम् अनेकस्वरूपं भगवतामभिमतम्, अतोऽस्यैकान्त- 10 विनश्वरलक्षणैकरूपाभ्युपगमो मिथ्यात्वमेवेति ॥ अपि च[पृ०२०] एवं च- सुहदुक्ख-बंधमोक्खा उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता । एगयरपरिच्चाए, सव्वव्ववहारवोच्छित्ती ॥५४॥ [विशेषाव० २४१७] व्या० एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सुखदुःख-बन्धमोक्षाः उभयनयमतानुवर्त्तिनो वादिनो युक्ताः, एकतरनयपरित्यागे सर्वव्यवहारव्युच्छित्तिः ॥ [पृ०२२] तत्र लोकस्योद्योतकरानिति यदुक्तं तत्र लोकनिरूपणायाह नामं ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोगे य तहा, अट्ठविहो लोगनिक्खेवो ॥ [आव०नि० १०७०] व्या० नामलोकः स्थापनालोकः द्रव्यलोकः क्षेत्रलोकः काललोकः भवलोकः भावलोकश्च पर्यायलोकश्च तथा, एवमष्टविधो लोकनिक्षेप इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं तु भाष्यकार 20 एव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराह जीवमजीवे रूवमरूवी सप्पएसमप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोगं निच्चमनिच्चं च जं दव्वं ॥ [आव०भा० १९५] व्या० जीवाजीवावित्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवो विपरीतस्त्वजीवः, एतौ च द्विभेदौ रूप्यरूपिभेदाद्, आह च-- रूप्यरूपिणाविति । 25 तत्रानादिकर्मसन्तानपरिगता रूपिणः संसारिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहितास्सिद्धा इति । अजीवास्त्वरूपिणो धर्माधर्माकाशास्तिकायाः, रूपिणस्तु परमाण्वादय इति । एतौ च जीवाजीवावोघतः सप्रदेशाप्रदेशाववगन्तव्यौ, तथा चाह- सप्रदेशाप्रदेशाविति । तत्र सामान्यविशेषरूपत्वात् 15 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे परमाणुव्यतिरेकेण सप्रदेशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेव भावनीयम्, परमाणवस्त्वप्रदेशा एव। अन्ये तु व्याचक्षते-जीवः किल कालादेशेन नियमात् सप्रदेशः, लब्ध्यादेशेन तु सप्रदेशो वाऽप्रदेशो वेति । एवं धर्मास्तिकायादिष्वपि त्रिष्वस्तिकायेषु परापरनिमित्तं पक्षद्वयं वाच्यम्। पुद्गलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपेक्षया चिन्त्यः, यथा- द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशः व्यणुकादयः सप्रदेशाः, 5 क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढोऽप्रदेशः व्यादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशाः, एवं कालतोऽप्येकानेकसमयस्थितिः, भावतोऽप्येकानेकगुणकृष्णादिरिति कृतं विस्तरेण । प्रकृतमुच्यते-इदमेवम्भूतं जीवाजीवव्रातं जानीहि द्रव्यलोकम्, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोक इति कृत्वा । अस्यैव शेषधर्मोपदर्शनायाह- नित्यानित्यं च यद् द्रव्यम्, चशब्दाद् अभिलाप्या-ऽनभिलाप्यादिसमुच्चय इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं जीवाजीवयोर्नित्यानित्यतामेवोपदर्शयन्नाहगइसिद्धा भविआया, अभविय पुग्गल अणागयद्धा य । तीयद्धतिन्नि काया, जीवाजीवट्टिई चउहा ॥ [आव०भा० १९६] व्या० अस्याः सामायिकवद् व्याख्या कार्येति द्वारम् । अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते तत्र आगासस्स पएसा, उडं च अहे य तिरियलोए अ । 15 जाणाहि खेत्तलोगं, अणंतजिणदेसि सम्मं ॥ [आव०भा० १९७] व्या० आकाशस्य प्रदेशाः, प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तान्, ऊर्ध्वं चेत्यूर्ध्वलोके च, अधश्चेत्यधोलोके च, तिर्यग्लोके च, किम् ? जानीहि क्षेत्रलोकम्, क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोक इति कृत्वा, लोक्यत इति च लोक इति, ऊर्ध्वादिलोकविभागस्तु सुज्ञेयः । अनन्तमि त्यलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चाऽनन्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, जिनदेशितमिति जिनकथितं सम्यक् 20 शोभनेन विधिनेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनायाहसमयावलियमुहुत्ता, दिवस-अहोरत्त-पक्ख-मासा य । संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-उसप्पि-परियट्टा ॥ [आव०भा० १९८] व्या० इह परमनिकृष्टः कालस्समयोऽभिधीयते, असङ्ख्येयसमयमाना त्वावलिका, द्विघटिको 25 मुहूर्त्तः, षोडश मुहूर्त्ता दिवसः, द्वात्रिंशदहोरात्रम्, पञ्चदशाहोरात्राणि पक्षः, द्वौ पक्षौ मासः, द्वादश मासाः संवत्सरमिति, पञ्चसंवत्सरं युगम् । पल्योपममुद्धारादिभेदं यथाऽनुयोगद्वारेषु तथाऽवसेयम्, सागरोपमं तद्वदेव, दशसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणोत्सर्पिणी, एवमवसर्पिण्यपि द्रष्टव्या, परावर्त्तः पुद्गलपरावर्त्तः, स चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः, तेऽनन्ता अतीतकालः अनन्ता एवैष्यन्निति गाथार्थः ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् उक्तः काललोकः, लोकयोजना पूर्ववत्, अधुना भवलोकमभिधित्सुराहनेरइअ-देव-मणुआ, तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता । तम्मि भवे वटुंता, भवलोगं तं वियाणाहि ॥ [आव०भा० १९९] व्या० नारक-देव-मनुष्यास्तथा तिर्यग्योनिगताश्च ये सत्त्वाः प्राणिनस्तम्मि त्ति तस्मिन् भवे वर्तमानाः यद्नुभावमनुभवन्ति भवलोकं तं विजानीहि, लोकयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः।। 5 साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयतिओदइए उवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए य । परिणामि सन्निवाए य, छव्विहो भावलोगो उ ॥ [आव०भा० २००] व्या० उदयेन निर्वृत्त औदयिकः, कर्मण इति गम्यते, तथा उपशमेन निर्वृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः, एवं शेषेष्वपि वाच्यम् । ततश्च क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च 10 पारिणामिकश्च सान्निपातिकश्च,एवं षड् विधो भावलोकस्तु । तत्र सान्निपातिक ओघतोऽनेकभेदोऽवसेयः, अविरुद्धस्तु पञ्चदशभेद इति । उक्तं च ओदइय खओवसमे, परिणामेक्केक्को गतिचउक्के वि । खयजोगेण वि चउरो. तदभावे उवसमेणं पि ॥ उवसमसेढी एक्को, केवलिणो वि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइयभेदा एमेव पण्णरस ॥ [ ] त्ति गाथार्थः । तिव्वो रागो य दोसो य उइन्ना जस्स जंतुणो । जाणाहि भावलोगं अणंतजिणदेसियं सम्मं ॥ [आव०भा० २०१] व्या० तीव्र उत्कटो रागश्च द्वेषश्च । तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागः, अप्रीतिलक्षणो द्वेष इति। एतावुदीर्णो यस्य जन्तोर्यस्य प्राणिन इत्यर्थः । तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्यत्वाजानीहि 20 भावलोकम् अनन्तजिनदेशितम् एकवाक्यतयाऽनन्तजिनकथितम्, सम्यगिति क्रियाविशेषणम् । अयं गाथार्थः ॥ द्वारम् ॥ साम्प्रतं पर्यायलोक उच्यते, तत्रौघतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, इह तु किल नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं चाधिकृत्य चतुर्विधं पर्यायलोकमाह____दव्वगुण-खित्तपजव-भवाणुभावे य भावपरिणामे । 25 जाण चउव्विहमेयं, पज्जवलोगं समासेणं ।। व्या० द्रव्यस्य गुणा रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्यायाः अगुरुलघवः, भरतादिभेदा एव चान्ये, भवस्य च नारकादेरनुभावस्तीव्रतमदुःखादिः, यथोक्तम् 15 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल - वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अच्छिणिमीलियमेत्तं णत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबंधं । ण णेरइयाणं, अहोणिसिं पच्चमाणाणं ॥ १ ॥ असुभा उव्वियणिज्जा, सद्द - रसा रूवगंघफासा य । रए रइयाणं, दुक्कयकम्मोवलित्ताणं ॥२॥ [ ] इत्यादि । 5 एवं शेषानुभावोऽपि वाच्यः, तथा भावस्य जीवाजीवसम्बन्धिनः परिणामस्तेन तेन अज्ञानाज्ज्ञानं नीलाल्लोहितमित्यादिप्रकारेण भवनमित्यर्थः । जानीहि अवबुध्यस्व चतुर्विधमेनम् ओघतः पर्यायलोकं समासेन सङ्क्षेपेणेति गाथार्थः ॥ तत्र यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि, तदुपदर्शनेन निगमयन्नाहवण्ण-रस-गंध-संठाण- फास- ट्ठाण - गई - वण्णभेए य । 10 परिणामे य बहुविहे, पज्जवलोगं वियाणाहि || [ आव० भा० २०३ ] व्या० वर्ण-रस- गन्ध-संस्थान- स्पर्श-स्थान-गति-वर्णभेदाश्च चशब्दाद्रसादिभेदपरिग्रहः । अयमत्र भावार्थः- वर्णादयः सभेदा गृह्यन्ते, तत्र वर्णः कृष्णादिभेदात् पञ्चधा, रसोऽपि तिक्तादिभेदात् पञ्चधैव, गन्धः सुरभ्यादिभेदाद् द्विधा, संस्थानं परिमण्डलादिभेदात् पञ्चधैव, स्पर्शः कक्खटादिभेदादष्टधा, स्थानमवगाहनालक्षणं तदाश्रयप्रदेशभेदादनेकधा, गतिः 15 स्पर्शवद्गतिरित्यादिभेदाद् द्विधा, चशब्द उक्तार्थ एव, अथवा कृष्णादिवर्णादीनां स्वभेदापेक्षया एकगुणकृष्णाद्यनेकभेदोपसङ्ग्रहार्थ इति । अनेन किल द्रव्यगुणा इत्येतद् व्याख्यातम्, परिणामांश्च बहुविधानित्यनेन तु चरमं द्वारम्, शेषं द्वारद्वयं स्वयमेव भावनीयम्, तच्च भावितमेवेत्यक्षरगमनिका। भावार्थस्त्वयम्- परिणामांश्च बहुविधान् जीवाजीवभावगोचरान् किम् ? पर्यायलोकं विजानीहि इति गाथार्थः॥ अक्षरयोजना पूर्ववदिति द्वारम् । साम्प्रतं लोकपर्यायशब्दान्निरूपयन्नाह २२ 20 आलुक्कड़ पलुक्कड़, लुक्कड़ संलुक्कई य एकट्ठा । लोगो अट्ठविहो खलु, तेणेसो वुच्चाई लोगो || [ आव० भा० १०५८ ] व्या० आलोक्यत इत्यालोकः, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति लोकः, संलोक्यत इति च संलोकः, एते एकार्थिकाः शब्दाः, एवं लोकोऽष्टविधः खल्वित्यत्र आलोक्यत इत्यादि 25 योजनीयम्, अत एवाह - तेनैष उच्यते लोकः येन आलोक्यत इत्यादि भावनीयम् [इति] गाथार्थः ॥ व्याख्यातो लोकः । [पृ०२३] विपक्षद्वारा दृष्टान्तद्वाराऽलोकं साधयन्नाह लोगस्सऽत्थि विवक्खो, सुद्धत्तणओ घडस्स अघडो व्व । प्रेरक :- स घडादी चेव मई, गुरुः- न निसेहाओ तदणुरूवो ॥ ५६॥ [विशेषाव० १८५१] Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् व्या० अस्ति लोकस्य विपक्षो व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वाद्, इह यद् व्युत्पत्तिमता शुद्धपदेनाभिधीयते तस्य विपक्षो दृष्टः, यथा घटस्याऽघटः, यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकः । अथ स्यान्मतिः- न लोकोऽलोक इति यो लोकस्य विपक्ष: स घटादिपदार्थानामन्यतम एव भविष्यति, किमिह वस्त्वन्तरपरिकल्पनया ? तदेतन्न, पर्युदासनञा निषेधात् निषेध्यस्यैवानुरूपोऽत्र विपक्षोऽन्वेषणीयः, न लोकोऽलोक इत्यत्र च लोको निषेध्यः, स चाकाशविशेषः, अतोऽलोकेनापि 5 तदनुरूपेण भवितव्यम्, यथेहापण्डित इत्युक्ते विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एव पुरुषविशेषो गम्यते, नाचेतनो घटादिः । एवमिहापि लोकानुरूप एवालोको मन्तव्यः । उक्तं चनञ्युक्तमिवयुक्तं वा यद्धि कार्यं विधीयते । २३ तुल्याधिकरणेऽन्यस्मिन् लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा ॥ १॥ [ ] नञिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः, तस्माल्लोकविपक्षादस्त्यलोक इति ।। [पृ०२४] अथालोकास्तित्वादेव धर्माधर्मास्तिकाय साधयन्नाहतम्हा धम्मा-ऽधम्मा, लोगपरिच्छेयकारिणो जुत्ता । इहराऽऽगासे तुल्ले, लोगोऽलोगो त्ति को भेओ ? ॥५७॥ लोगविभागाभावे, पडिघाताभावओऽणवत्थाओ । संववहाराभावो, संबंधाभावओ होजा ॥५८॥ [ विशेषाव० १८५२-१८५३] ॥ व्या॰ यस्मादुक्तप्रकारेणास्त्यलोकस्तस्मादलोकास्तित्वादेवावश्यं लोकपरिच्छेदकारिभ्यां धर्माधर्म्मास्तिकायाभ्यां भवितव्यम्, अन्यथा आकाशसामान्ये सत्ययं लोकोऽयं चाऽलोक इति किंकृतोऽयं विशेषः स्यात् ? तस्माद्यत्र क्षेत्रे धर्माधर्मास्तिकायौ वर्तेते तल्लोकः, शेषं त्वलोक इति लोकालोकव्यवस्थाकारिणौ धर्माधर्मास्तिका विद्येते इति । 10 लोगेत्यादि, यदि हि धर्माधर्माभ्यां लोकविभागो न स्यात्ततो लोकविभांगाभावेऽविशिष्ट 20 एव सर्वस्मिन्नप्याकाशे गतिपरिणतानां जीवानां पुद्गलानां च प्रतिघाताभावेन तद्गत्यवस्थानाभावादलोकेऽपि गमनात्तस्य चानन्तत्वात्तेषां परस्परसम्बन्धो न स्यात्, ततश्च औदारिकादिकार्मणवर्गणापर्यन्तपुद्गलकृतो जीवानां बन्ध-मोक्ष - सुख-दुःख - भवसंसरणादिव्यवहारो न स्यात् । जीवस्य च जीवेन सहान्योन्यं मीलनाभावात्तत्कृतोऽनुग्रहोपघातादिव्यवहारो न स्यादिति ॥ [ पृ० २५] जह वेह कंचणोवलसंजोगोऽणादिसंत गओ वि । वोच्छिजड़ सोवायं, तह जोगो जीवकम्माणं ॥ ५९ ॥ [विशेषाव०९८१९] व्या० यथा वा काञ्चनोपलयोरनादिकालप्रवृत्तसन्तानभावगतोऽपि संयोगः सोपायं अग्नितापाद्युपायाद् व्यवच्छिद्यते, तथा जीवकर्मणोरपि संयोगोऽनादिसन्तानगतोऽपि 15 25 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वाचकसमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे 10 तपस्संयमाद्युपायाद् व्यवच्छिद्यत इति । [पृ०२५] तथाऽनादेरपि सन्तानस्य विनाशो दृष्टो बीजाङ्कुरसन्तानवत् । आह चअन्नतरमणिव्वत्तिअकजं बीअंकुराण जं विहअं । तत्थ हओ संताणो, कुक्कुडिअंडाईआणं व ॥६०॥ [विशेषाव० १८१८] 5 व्या० अन्यतरत् अनित्यं चेत् बीजाङ्कुरयोर्विहतं कार्यम्, तत्र हतः सन्तानः, कोऽर्थः ? बीजमङ्कुरमुत्पादयति, इदं सन्तानकार्यं तदन्वयित्वेन सम्भवति, सति बीजेऽङ्करः सत्यकुरे बीजम्, तत्र बीजाङ्कुरयोः सन्तानिनोर्मध्ये एकस्य नाशे कार्यनाशः सन्तानरूपकार्यनाशः । तत्र दृष्टान्तयतिकुर्कुट्यण्डयोरिव, आदिशब्दादन्येषां परिग्रहः, यथा कुर्कुटीनाशे अण्डनाशे वा सन्तानं हतमेव॥ [पृ०२६] मोक्षाभावरूपं पूर्वपक्षिपक्षं प्रतिपिपादयिषुर्गाथैकयाऽऽहजं नारकादिभावो, संसारो नारकादिभिन्नो य । को जीवो तं मन्नसि, तन्नासे जीवनासो त्ति ॥६१॥ [विशेषाव० १९७८] व्या० यद् यस्मान्नारक-तिर्यङ्-नरा-ऽमरभाव एव नारकादित्वमेव संसार उच्यते, नान्यः, नारकादिपर्यायभिन्नश्च कोऽन्यो जीवः, न कोऽपीत्यर्थः, नारकादिभावादन्यत्वेन कदाचिदपि जीवस्यानुपलम्भादिति भावः, ततस्तन्नाशे नारकादिभावरूपसंसारनाशे जीवस्य स्वस्वरूपनाशात् 15 सर्वथा नाश एव भवति । ततः कस्यासौ मोक्ष इति त्वं मन्यसे, तदेतदयुक्तम्, कुतः इत्यत आह[पृ०२६] न हि नारगादिपज्जायमेत्तनासम्मि सव्वहा नासो । जीवदव्वस्स मओ, मुद्दानासे व हेमस्स ॥६२॥ अपि च-कम्मकओ संसारो, तन्नासे तस्स जुज्जए नासो । 20 जीवत्तमकम्मकयं, तन्नासे तस्स को नासो ? ॥६३॥[विशेषाव०१९७९-१९८०]|| व्या० नारकतिर्यगादिरूपेण यो भावः स जीवस्य पर्याय एव, न च पर्यायमात्रनाशे पर्यायिणो जीवद्रव्यस्यापि सर्वथा नाशो मतः, कथञ्चित्तु भवत्यपि, न हि मुद्रादिपर्यायमात्रनाशे हेम्नः सुवर्णस्य सर्वथा नाशो दृष्टः, ततो नारकादिसंसारपर्यायनिवृत्तौ मुक्तिपर्यायान्तरोत्पत्तिर्जीवस्य, मुद्रापर्यायनिवृत्तौ कर्णपूरपर्यायान्तरोत्पत्तिरिव सुवर्णस्य न किञ्चिद्विरुध्यत इति । ननु यथा कर्मणो 25 नाशे संसारो नश्यति, तथा तन्नाशे जीवत्वस्यापि नाशान्मोक्षाभावो भविष्यति, एतदप्यसारम्, कुतः ? इत्याह-कम्मकओ इत्यादि, कर्मकृतः कर्मजनितः संसारः, ततस्तन्नाशे कर्मनाशे तस्य संसारस्य नाशो युज्यत एव, कारणाभावे कार्यस्याभावस्य सुप्रतीतत्वात् । जीवत्वं पुनरनादिकालप्रवृत्तत्वात् कर्मकृतं न भवत्यतस्तन्नाशे कर्मनाशे तस्य जीवत्वस्य को नाशः ? न कश्चित् । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् कारण-व्यापकयोरेव कार्य-व्याप्यनिवर्तकत्वात् । कर्म तु जीवत्वस्य न कारणं नापि व्यापकमिति भावः ॥ [पृ०२५] द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृती मतः सार्द्धगाथात्रयेणाह सायं १ उच्चागोयं २, नर ३ तिरि ४ देवाउ ५ नाम एयाओ । मणुअदुगं ७ देवदुगं ८, पंचिंदिअजाइ १० तणुपणगं १५ ॥६४॥ 5 अंगोवंगतिअं पि अ १८, संघयणं वजरिसहनारायं १९ । पढमं चिअ संठाणं २०, वण्णाइचउक्क सुपसत्थं २४ ॥६५॥ अगुरुलहु २५ पराघायं २६, उस्सासं २७ आयवं २८ च उज्जोअं २९ । सुपसत्था विहयगई ३०, तसाइदसगं ४० च निम्माणं ४१ ॥६६॥ तित्थयरेण सहिआ, बायाला पुण्णपगईओ । [प्रवचनसारो० १२८३-१२८६] त्ति। 10 व्या० सातं सातवेदनीयम्, उच्चैर्गोत्रम्, तथा नरायुस्तिर्यगायुर्देवायुश्च, तथा एताश्च नामकर्मप्रकृतयस्तद्यथा-मनुष्यद्विकं मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीलक्षणम्, देवद्विकं देवगतिदेवानुपूर्वीलक्षणम्, पञ्चेन्द्रियजातिः, तनुपञ्चकम् औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारक-तैजसकार्मणलक्षणम्, अङ्गोपाङ्गत्रिकम् औदारिकवैक्रियाहारकलक्षणम्, संहननं वज्रर्षभनाराचाख्यम्, प्रथमं चैव संस्थानं समचतुरस्राख्यम्, तथा वर्णादिचतुष्कं वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शस्वरूपं 15 सुप्रशस्तम्, तत्र वर्णाः शुक्ल-पीत-रक्ताः, गन्धः सुरभिः, रसाः मधुरा-ऽम्ल-कषायाः, स्पर्शाः मृदु-लघु-स्निग्धोष्णा इति । अगुरुलघु पराघातम् उच्छ्वासम् आतपम् उद्द्योतं सुप्रशस्ता विहायोगतिः, सादिदशकं च त्रस-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक-स्थिर-शुभ-सुभग-सुस्वरा-ऽऽदेययश:कीर्तिलक्षणं निर्माणं च । एता एव तीर्थकरनाम्ना सहिता द्विचत्वारिंशत् पुण्यप्रकृतयः शुभसंज्ञिका प्रकृतयो भवन्ति । एताश्च शिवश्रीकटाक्षितानां सत्त्वानां सदैव प्राप्यन्त इति 20 गाथासार्द्धत्रयार्थः । ___ [पृ०२७ पं०६] प्रतिप्राणि प्रसिद्धयोः सुखदुःखयोर्हेतुरस्ति, कार्यत्वात्, अङ्कुरस्येव बीजमिति, यश्चेह सुख-दुःखयोर्हेतुस्तत् कर्मैव, इत्यस्ति तदिति । स्यान्मतिः- स्त्रक्-चन्दनादयः सुखहेतवः, दुःखस्य त्वहि-विष-कण्टकादय इति सुख-दुःखयोर्हेतुरस्ति, किमदृष्टस्य कर्मणस्तद्धेतुत्वकल्पनेन ?, नहि दृष्टपरिहारेणादृष्टकल्पना सङ्गतत्वमावहत्यतिप्रसङ्गात्, तदयुक्तम्, व्यभिचारात्, तथाहि- 25 १. अभयदेवसूरीणां प्रवचनसारोद्धारकर्तुः प्राचीनत्वात् न प्रवचनसारोद्धारसत्का इमा गाथाः । किन्तु कुतश्चित् प्रवचनसारोद्धारेऽपि इमा गाथाः संगृहीताः सन्ति । अत ईदृशीनां प्रायः सर्वासामपि गाथानां विवरणं प्रवचनसारोद्धारवृत्त्यनुसारेण प्रायः सर्वत्रात्र वर्तते । अतो विशेषजिज्ञासुभिरीदृशेषु स्थलेषु प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ विलोकनीयम् ।। २. 'सिवसिरिकडक्खियाणं सया वि सत्ताणमेया' इति १२८६ तमगाथाया उत्तरार्द्ध प्रवचनसारोद्धारे।। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे जो तुल्लसाहणाणं, फले विसेसो न सो विणा हेउं । कजत्तणओ गोअम !, घडोव्व हेऊ अ से कम्मं ॥६७॥ [विशेषाव० १६१३] व्या० इह यस्तुल्यसाधनयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरनिष्टार्थसाधनसंयुक्तयोश्च द्वयोर्बहूनां वा फले सुखदुःखानुभवनलक्षणे विशेषस्तारतम्यरूपो दृश्यते, नासौ अदृष्टं कमपि 5 हेतुमन्तरेणोपपद्यते, कार्यत्वाद्, घटवत् । यश्च तत्र विशेषाधायकोऽदृष्टहेतुस्तद् गौतम ! कर्मेति प्रतिपद्यस्वेति ॥ [पृ०२७] अनुमानान्तरं कर्मसाधनायाहबालसरीरं देहतरपुव्वं इंदिआइमत्ताओ ।। जह बालदेहपुव्वो, जुवदेहो पुव्वमिह कम्मं ॥६८॥ [विशेषाव० १६१४] 10 व्या० शरीरान्तरपूर्वकम् आद्यं बालशरीरम्, इन्द्रियादिमत्त्वात्, युवशरीरवदिति । आदिशब्दात् सुखित्वदुःखित्व-प्राणाऽपान-निमेषोन्मेष-जीवनादिमत्त्वादयोऽपि हेतवो ग्राह्याः। न च जन्मान्तरातीतशरीरपूर्वकमेवेदमिति शक्यते वक्तुम्, तस्यापान्तरालगतावसत्त्वेन तत्पूर्वकत्वानुपपत्तेः, न चाशरीरिणो नियतगर्भ-देश-स्थानप्राप्तिपूर्वकशरीरग्रहो युज्यते, नियामककारणाभावात् । नापि स्वभावो नियामकः, तस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । यच्चेह बालशरीरस्य पूर्वं शरीरान्तरं तत् 15 कर्मेति मन्तव्यम्, कार्मणं शरीरमित्यर्थः । [पृ०२८] ननु किमदृष्टेन पुण्यकर्मस्वीकारेणेत्येवं पूर्वपक्षं कुर्वन्नाहपावुक्करिसेऽधमया, तरतमजोगावकरिसओ सुभया । तस्सेव खए मोक्खो, अपत्थभत्तोवमाणाओ ॥६९॥ [विशेषाव० १९१०] व्या० इहापथ्याहारोपमानाद्वैपरीत्येन भावना कार्या, तथाहि-यथा क्रमेणाऽपथ्यवृद्धौ 20 रोगवृद्धिस्तथा पांशयत्यात्मानं मलिनयतीति पापम्, तस्य वृद्धौ दुःखवृद्धिरूपाऽधमता मन्तव्या, क्रमेण दुःखं वर्द्धते यावदुत्कृष्टं नारकदुःखम् । यथा चापथ्यत्यागात् क्रमेणारोग्यवृद्धिस्तथा क्रमेण पापस्यापकर्षात् सुखस्य वृद्धिर्यावदुत्कृष्टं सुरसौख्यम् । यथा चाऽपथ्याहारस्य सर्वथा परित्यागात् परमारोग्यमुपजायते, एवं सर्वपापक्षये मोक्ष इति ॥ [पृ०२८] व्यशीतिपापभेदान्नामत आहनाणंतरायदसगं १०, दंसण णव ९-१९ मोहणीय छव्वीसा २६-४५ । अस्साय १-४६ निरियाऊ १-४७, नीयगोएण १ अडयाला ४८ ॥७॥ नरयदुर्ग २ तिरियदुर्ग २, जाइचउक्कं ४ च पंच संघयणा ५-१३ । संठाणा वि अ पंच उ ५-१८, वण्णाइचउक्क ४ मप्पसत्थं २२ ॥७१॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् उवघा २३ कुविहयगई २४, थावरदसगेण होंति चोत्तीसा ३४ । सव्वाओ मिलियाओ, बासीती पावपगईओ ॥७२॥ [ प्रवचनसारो०१२८७-१२८९]।। व्या० ज्ञानावरणपञ्चकम्, अन्तरायपञ्चकम्, दर्शनावरणनवकम्, सम्यक्त्व - - मिश्र उदयमेव केवलमाश्रित्याऽशुभे, न बन्धमपि, तयोर्बन्धासम्भवात्, अतस्तद्वर्जं मोहनीयस्य षड्विंशतिः प्रकृतयः, असातं नरकायुष्कं नीचैर्गोत्रं चेत्येता अष्टचत्वारिंशत् प्रकृतयः । नरकद्विकं 5 नरकगतिनरकानुपूर्वीस्वरूपम्, तिर्यद्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीलक्षणम्, जातिचतुष्कम् एकेन्द्रियद्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियजातिलक्षणम्, पञ्च संहनानि प्रथमवर्जानि, संस्थानान्यप्याद्यवर्णान पञ्च, वर्णादिचतुष्कमप्रशस्तम्, तत्र वर्णौ नील- कृष्णौ, गन्धो दुरभिः, रसौ तिक्त कटुकौ, स्पर्शाश्च– गुरु-खर-रुक्ष-शीतरूपा इति, उपघातः, कुत्सिता चाप्रशस्तविहायोगतिः, स्थावरदशकं च स्थावर-सूक्ष्मा-ऽपर्याप्त-साधारणा-ऽस्थिरा -ऽशुभ- दुर्भग- दुःस्वरा-ऽनादेया- ऽयशः कीर्त्तिलक्षणम्, 10 एताश्चतुस्त्रिंशन्नामकर्मप्रकृतयः, मिलिताश्च सर्वा द्व्यशीतिः पापप्रकृतयोऽशुभसञ्ज्ञाः प्रकृतय इत्यर्थः । वर्णादिचतुष्कं हि शुभप्रकृतिसङ्ख्यायामशुभप्रकृतिसङ्ख्यायां च परिगृह्यते, तस्य द्विधा सम्भवात्, अतो बन्धोक्ताया विंशत्युत्तरशतलक्षणसङ्ख्याया न व्याघात इति गाथाकदम्बार्थः ॥ [पृ० २९] पुण्यकर्मफलस्वीकारदृष्टान्ते पापकर्मफलस्वीकारमप्युररीकारयन्नाह - कम्मप्पगरिसजणिअं, तदवस्सं पगरिसाणुभूईओ । सोक्खप्पगरिसभूई, जह पुन्नप्पगरिसप्पभवा ॥ ७३|| [विशेषाव० १९३१] व्या० तद् दुःखं प्रकर्षानुभूतितोऽतिशयानुभवात् अवश्यं कर्मप्रकर्षजनितं तदनुरूपपापकर्मजनितम्, यत इति गम्यते, सौख्यप्रकर्षानुभूतिर्यथा पुण्यप्रकर्षप्रभवा त्वयाऽङ्गीक्रियते तथा दुःखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापकर्मप्रभवैव भविष्यतीति स्वीकुर्वित्यर्थः ।। 20 [पृ०२९] आश्रवभेदान्नामत आह इंदिअ ५ कसाय ४ अव्वय ५, किरिया २५ पण - चउर-पंच - पणवीसा ॥ जोगा तिन्नेव भवे, आसवभेया उ बायाला ॥७४॥ [नवतत्त्वप्र० ९] व्या० आश्रवभेदास्तु द्विचत्वारिंशत्, आश्रवन्ति आगच्छन्ति कर्माणि येभ्यस्ते आश्रवाः, महासरोवरे जलमार्गा इव, तद्भेदानाह - इन्द्रियाणि पञ्च, स्पर्शन - रसना - प्राण- चक्षुः - श्रोत्ररूपाणि, 25 कषायाश्चत्वारः क्रोध-मान- माया - लोभरूपाः, अव्रतानि पञ्च प्राणातिपात - मृषावादा-ऽदत्तादानमैथुन - परिग्रहरूपाणि, क्रियाश्च पञ्चविंशति: १. देवगुप्तसूरिविरचिते नवतत्त्वप्रकरणे 'बायालं आसवो होइ' इति पाठः ॥ २७ 15 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे काइअ अहिगरणीया, पाउसिया पारिताविणी किरिया । पाणाइवायारंभिअ, परिग्गहिआ मायवत्ती अ ॥१॥ मिच्छादसणवत्ती, अपच्चक्खाणा य दिट्ठिपुट्ठी अ । पाडुच्चिअ सामंतोवणीअ नेसत्थि साहत्थि ॥२॥ आणवणि विआरणीआ, अणभोगा अणवकंखपच्चइया । अन्ना पओगसमुदाणपिज्जदोसेरिआवहिआ ॥३॥ [नेवतत्त्वप्र० २२-२४] आसामर्थो नवतत्त्वटीकातोऽवसेयः । योगाश्च त्रयः मनोवाक्कायरूपाः । यथासङ्ख्यम् इन्द्रिय-कषाया-ऽव्रत-क्रियाः पञ्च-चतुः-पञ्च-पञ्चविंशतिसङ्ख्याः , योगाश्च त्रयः मिलिताः द्विचत्वारिंशदाश्रवभेदा भवन्ति ।। 10 [पृ०३०] संवरभेदान्नामत आह समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १०, अणुप्पेह १२ परीसहा २२ चरित्तं ५ च । सत्तावन्नं भेआ, पणतिगभेआइ संवरणे ॥५॥ व्या० संवरणे संवरतत्त्वे सप्तपञ्चाशद् भेदाः, तथाहि-समितयः पञ्च ईर्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः, गुप्तयस्त्रिधा मनो-वचन-कायरूपाः, धर्मो यतिधर्मः, स च 15 दशधा खंती अजव मद्दव मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे । सच्चं सोयं अकिंचणं, च बंभं च जइधम्मो ॥१॥ [नवतत्त्वप्र० २९] अनुप्रेक्षणम् अनुप्रेक्षा भावनाः, ताश्च द्वादशपढममणिच्चमसरणं, संसारो एगया य अण्णत्तं । असुइत्तं आसव संवरो य तह निजरा नवमी ॥१॥ लोगसहावो बोही दुलहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एयाओ भावणाओ, भावेयव्वा पयत्तेणं ॥२॥ [नवतत्त्वप्र० ३०-३१] परीषहाश्च द्वाविंशतिः खुहा पिवासा सीउण्हं, दंसाचेलारइत्थीओ । 25 चरिआ निसीहिआ सेजा, अक्कोस वह जायणा ॥१॥ अलाभ रोग तणफास-मलसक्कारपरीसहा । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं, इय बावीसं परीसहा ॥२॥ [नवतत्त्वप्र० २७-२८] चारित्राणि पञ्च१. इदं नवतत्त्वप्रकरणं चिरन्तनाचार्यविरचितम् ।। 20 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् सामाइयत्थ पढम, छेओवट्ठावणं भवे बीअं । परिहारविसुद्धीअं, सुहुमं तह संपरायं च ॥१॥ तत्तो य अहक्खायं [नवतत्त्वप्र. ३१-३२] इति । एतासामर्थो नवतत्त्वटीकातोऽवसेयः ॥ [पृ०३५] एकस्मिन् समये उपयोगद्वयनिरासाय सयुक्तिकं सदृष्टान्तकं गाथाद्वयमाह- 5 समयातिसुहुमयाओ, मन्नसि जुगवं व भिन्नकालं पि ।। उप्पलदलसयवेहं व, जह व तमलायचक्कं ति ॥७६॥ [विशेषाव० २४३३] व्या० समयावलिकादिकालकृतविभागस्य सूक्ष्मत्वाद्भिन्नकालमपि कालविभागेन प्रवृत्तमपि क्रियाद्वयसंवेदनमुत्पलपत्रशतवेधवद् युगपत् प्रवृत्तमिव मन्यसे त्वम्, न ह्युत्पलपत्रशतमौत्तराधर्येण व्यवस्थापितं सुतीक्ष्णयाऽपि सूच्या छेकेन समर्थेनापि च वेधका समकालमेव विध्यते, किन्तु 10 कालभेदेन, उपर्युपरितनेऽविद्धेऽधोवर्तिनः पत्रस्य वेधायोगात् । अथ च वेधकर्ता युगपद्विहितमेव वेधं मन्यते, तद्वेधनकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुर्लक्षत्वात् । यथा वा तत् प्रसिद्धमलातचक्रं कालभेदेन दिक्षु भ्रमदपि भ्रमणकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुरवगमत्वान्निरन्तरभ्रमणमेव लक्ष्यते, एवमिहापि शीतोष्णक्रियानुभवकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुरवसेयत्वाद्युगपदिव तमनुभवं मन्यते भवानिति। मनोऽपि शिर:-पादादिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च युगपन्न सम्बध्यते, किन्तु 15 क्रमेणैव ॥ [पृ०३५] अन्नविणिउत्तमन्नं, विणिओगं लहइ जइ मणो तेणं । हत्थिं पि ठिअं पुरओ, किमन्नचित्तो न लक्खेइ ॥७७॥ [विशेषाव० २४३६] व्या० अन्यस्मिन् शीतवेदनादिकेऽर्थे विनियुक्तमुपयुक्तमन्यविनियुक्तं मनो यदि अन्नं ति अन्य उष्णवेदनादिकोऽर्थस्तद्विषय उपयोगोऽन्यस्तमन्यं विनियोगं लभते, तर्हि 20 किमित्यन्यचित्तोऽन्यार्थोपयुक्तचित्तो देवदत्तादिर्हस्तिनमपि पुरतो व्यवस्थितं न लक्षयति ? तस्मादेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तं मनो न कदाचिदन्यार्थोपयोगं लभत इति । [पृ०३६] आणागिज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयव्वो । दिटुंता दिटुंतिअ कहणविहिविराहणा इहरा ॥७८॥ [आव०नि०१६६९]।। व्या० आज्ञाग्राह्योऽर्थः आज्ञयैव स कथयितव्यः, दृष्टान्ताद् दार्टान्तिकोऽर्थ इत्यर्थः, 25 तत्कथनविधिर्वक्तव्यः, इतरथा विराधना भवति । परमार्थस्तु टीकाकृता व्याख्यात एव ।। [पृ०३७] पराक्रमादेश्च ज्ञानादिमोक्षमार्गोऽवाप्यते, यतःअब्भुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाए य । सम्मइंसणलंभो, विरयाविरईए विरईए ॥७९॥ [आव०नि० ८४८] Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० अभ्युत्थाने गुर्वादीनामभ्युत्थानविषये पराक्रमे तथा विनये विनयसम्बन्धिनि पराक्रमे साधुसेवायां साधुसेवासम्बन्धिनि पराक्रमे सम्यग्दर्शनलाभो भवति, च पुनर्विरताविरतिलाभो भवति, विरत्या चोत्तरोत्तरगुणप्राप्तिः, तत्प्रतिपादिका गाथा तु न लिखिता ।। [पृ०३८ पं०४] ननु दर्शनस्य ज्ञानव्यपदेश्यत्वमयुक्तं विषयभेदात्, उक्तं च5 जं सामन्नग्गहणं, दंसणमेयं विसेसिअं णाणं ॥ ति गाथार्द्धम् । ___ व्या० यत् सामान्यग्रहणं तदर्शनं निर्विकल्पकज्ञानमित्यर्थः, विशेषितं ज्ञानं यत्र विशेषः प्रतिभासते नाम-जातियोजनात्मको यथा डित्थोऽयं ब्राह्मणोऽयं श्यामोऽयमित्यादि तत् सविकल्पकं ज्ञानम्, अत एव ईहा-ऽवग्रहौ हि दर्शनम्, सामान्यग्राहकत्वात्, अवाय-धारणे च ज्ञानम्, विशेषग्राहकत्वात् । अथ चोभयमपि ज्ञानग्रहणेन गृहीतमागमे ॥ 10 [पृ०३८ पं०६] अभिणिबोहिअणाणे, अट्ठावीसं हवंति पयडीओ।[आव०नि०१६] गाथार्धम्। अभिनिबोधिकज्ञानम् अष्टाविंशतिप्रकृतिकम्, तेन मतिज्ञानस्यैव भेदो दर्शनमिति स्थितम् ३ । [पृ०३८] नन्ववबोधसामान्याज्ज्ञान-सम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेष: ? उच्यते-रुचिः सम्यक्त्वम्, रुचिकारणं तु ज्ञानम्, यथोक्तम् नाणमवायधिईयो, दसणमिटुं जहोग्गहेहाओ । 15 तह तत्तरुई सम्मं, रोतिज्जइ जेण तं नाणं ॥८०॥ [विशेषाव० ५३६] व्या० ज्ञानमवाय-धृती, दर्शनम् इष्टं यथाऽवग्रहेहे, तथा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम्, येन रोच्यते तद् ज्ञानमिति ॥ एगा सिद्धी, सिद्ध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा च यद्यपि लोकाग्रम्, यत आह20 [पृ०३९ पं०१६] इह बुंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ । [औपपातिकसू. ८८/ २, आव०नि० ९५९] त्ति गाथार्धम् । ____ अत्र बुंदि देशीभाषया शरीरं त्यक्त्वा तत्र लोकाग्रे गत्वा सिध्यति निःशेष]क्षीणकर्मा भवति, तथापि तत्प्रत्यासन्नेषत्प्राग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते । आह च[पृ०३९ पं०१८] बारसहिं जोयणेहिं, सिद्धी सव्वट्ठसिद्धाओ। [आव.नि. ९६०] [इति] गाथार्द्धम्। 25 सर्वार्थसिद्धविमानाद् द्वादशभिर्योजनैः सिद्धिरिति, यदि लोकाग्रमेव सिद्धिः स्यात्तदा कथमेतदनन्तरमुक्तम्[पृ०३९ पं०१९] निम्मलदगरयवण्णा, तुसार-गोखीर-हारसरिवण्णा।[आव०नि० ९६१] गाथार्द्धम् । निर्मलदकरजोवर्णा तुषार-गोक्षीर-हारसदृशवर्णा इति तत्स्वरूपवर्णनं घटते, Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम लोकाग्रस्यामूर्त्तत्वादिति। [पृ०४२] स च प्राणातिपातो द्रव्य-भावभेदाद् द्विविधः, विनाश-परिताप-सङ्क्लेशभेदात् त्रिविधो वा । आह च तप्पज्जायविणासो, दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ, वज्जेयव्वो पयत्तेणं ॥८१॥ [श्रावकप्र० १९१] 5 व्या० तत्पर्यायविनाशो मनुष्यादिजीवपर्यायः, तस्य विनाशः १, दुःखोत्पादः २, सङ्क्लेशश्च ३, त्रिविध एष वधो जिनभणित: प्रयत्नेन वर्जनीयः । [पृ०४६] चउवीसदंडउ त्ति चतुर्विंशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्विंशतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, स चायम् - नेरइया १ असुरादी १०, पुढवाइ ५ बेइंदियादओ चेव ४ । 10 नर १ वंतर १ जोइसिआ १, वेमाणी १ दंडओ एवं ॥८२॥ व्या० सुगमैव, सप्तपृथिवीनामेको दण्डकः, भवनपतीनामसुरादिदशनिकायभेदाद्दश दण्डकाः, पृथिव्यादीनां पञ्च, विकलानां त्रयः, गर्भजतिर्यङ्-मनुष्य-व्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिका एकैकदण्डकाश्चेति सर्वे चतुर्विंशतिः । इह सूक्ष्मा अपर्याप्तकाश्च प्रायो नाधिक्रियन्ते । भवनपतयो दशविधा: 15 [पृ०४६] असुरा १ नाग २ सुवण्णा विजू ४, अग्गी ५ अ दीव ६ उदही अ ७। दिसि ८ पवण ९ थणिअ १० नामा, दसहा एए भवणवासी ॥८३॥ [प्रज्ञापनासू० २।१७७।१३७] व्या० अवान्तरजातिभेदाद्दशविधा भवनपतयस्ते च कुमाराकारत्वात्कुमारवत् क्रीडाप्रियत्वाच्च कु मारा असुरादिविशेषणाश्च सन्तोऽसुरकु मारा इत्यादिनामभिर्व्यपदिश्यन्ते । 20 तत्रासुरकुमारास्तथाविधनामकर्मोदयान्निचितशरीरावयवाः सर्वाङ्गोपाङ्गेषु परमलावण्याः कृष्णरुचयो रत्नोत्कटमुकुटभास्वरा महाकायाः१, नागकुमाराः शिरोमुखेष्वधिकशोभाः श्वेतरुचयो ललितगतयः २, सुवर्णकुमाराश्चाधिकप्रतिरूपग्रीवोरस्काः कनकगौरा: ३, विद्युत्कुमाराः स्निग्धरुचयो जिष्णुस्वभावा उत्तप्तकनकवर्णाः ४, अग्निकुमाराः सर्वाङ्गोपाङ्गेषु मानोन्मानप्रमाणोपपन्ना विविधाभरणभास्वन्त उत्तप्तस्वर्णवर्णाः ५, द्वीपकुमाराः स्कन्धवक्षःस्थलबाह्वग्रहस्तेष्वधिकशोभा उत्तम- 25 हेमप्रभाः ६, उदधिकुमारा ऊरुषु कटीष्वधिकरूपा अवदातश्वेतवर्णाः ७, दिक्कुमारा जवाग्रपदेष्वत्यन्तरूपाः सुवर्णगौरा: ८, वायुकुमारा: स्थिरपीनवृत्तगात्रा निम्नोदराः प्रियङ्गुविमलश्यामवर्णाः १. 'तत्पर्यायः प्राणातिपातपर्यायः विनाशः १' इति लीं० पा० मध्ये पाठः, किन्तु स न संगतः ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ९, स्तनितकुमाराः स्निग्धच्छवयः स्निग्धगम्भीरानुनादिमहास्वना जात्यस्वर्णगौरा: १० । सर्वेऽपि चैते विविधवस्त्राभरणप्रहरणा इति । अयं च क्रमोऽसुरादीनाम् उत्तराध्ययन-प्रज्ञापनौपपातिकाऽनुयोगद्वाराद्यनुसारतः, तेषां च दशानामप्यसुरादिनिकायानां दक्षिणोत्तरदिग्भेदद्वयेन द्वौ द्वाविन्द्रौ। [पृ०४६] इदमन्यत् नारक सत्तासाधनाय अनुमानप्रमाणमवतारयन् 5 महापुरुषप्रणीतगाथाद्वयसम्मतिमाह पावफलस्स पगिट्ठस्स, भोइणो कम्मओऽवसेसु व्व । संति धुवं तेऽभिमया, नेरइआ अह मई होज्जा ॥८४॥ अच्चत्थदुक्खिया जे, तिरिअनरा नारग त्ति तेऽभिमया । तं न जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं न तं दुक्खं ॥८५।। [विशेषाव० १८९९-१९००] 10 व्या० प्रकृष्टस्य पापफलस्य भोगिनः केचिद् ध्रुवं सन्ति, कम्मओ त्ति कर्मफलत्वात् तस्येत्यर्थः, अवशेषवदिति यथा जघन्य-मध्यमपापफलभोगिनः शेषास्तिर्यङ्-नरा विद्यन्त इत्यर्थः इति दृष्टान्तः । तेऽभिमया नेरइय त्ति चोत्कृष्टपापफलभोगिनस्ते नारका इत्यभिमताः । अथ परस्यैवम्भूता मतिर्भवेत्- अत्यर्थं दुःखिता ये तिर्यङ्-मनुष्यास्त एवोत्कृष्टपापफलभोगित्वान्नारक व्यपदेशभाजो भविष्यन्ति, किमदृष्टनारककल्पनया ? इति, तदेतन्न, यतोऽतिदुःखितानामपि 15 तिर्यङ्-मनुष्याणां यदुःखं तदमरसौख्यप्रकर्षसदृशप्रकर्षवन्न भवति । इदम् उक्तं भवति येषामुत्कृष्टपापफलभोगस्तेषां सम्भवद्भिस्सर्वैरपि प्रकारैर्दुःखेन भवितव्यम्, न चैवमतिदुःखितानामपि तिर्यगादीनां दृश्यते, आलोक-तरुच्छाया-शीतपवन-सरित्-सर:- कूपजलादिसुखस्यातिदुःखितेष्वपि तेषु दर्शनात्, छेदन-भेदन-पाचन-दहन-दम्भन-वज्रकण्टक-शिलास्फालनादिभिश्च नरकप्रसिद्धैः प्रकारैर्दु:खस्यादर्शनादित्यादि प्रागुक्तानुसारेण स्वयमेवाभ्यूह्य वाच्यमिति । आगमार्थश्चाय20 मवगन्तव्यः सततमनुबद्धमुक्तं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम् । तिर्यसृष्ण-भय-क्षुत्तृडादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥१॥ सुख-दुःखे मनुजानां मन:-शरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवानाम् अल्पं दुःखं तु मनसि भवम् ॥२॥ इति । 25 [पृ०४७] देवसत्त्वोपपादनाय प्रमाणोपपन्नं गाथाद्वयमाह देव त्ति सत्थयमिदं, सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व । अहव मई मणुओ च्चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो ॥८६॥ तं न जओ तच्चत्थे, सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी । तच्चत्थसीह सिद्धे, माणवसीहोवयारो व्व ॥८७॥ [विशेषाव० १८८०-१८८१] Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् व्या० देवा इत्येतत् पदं सार्थकम्, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदत्वात्, घटादिवत् । तत्र दीव्यन्तीति देवा इति व्युत्पत्तिमत्त्वम्, समास-तद्धितविरहितत्वेन च शुद्धत्वम् । भावना चात्र प्रागुक्तैव। अथ परस्य मतिर्भवेत्-ननु मनुष्य एवेह दृश्यमानो देवो भविष्यति, किमदृष्टदेवकल्पनया? । किं सर्वोऽपि मनुष्यो देवः ? इति चेदाह- गुणसम्पन्नो गणधरादिः ऋद्धिसम्पन्नश्चक्रवर्त्यादिः। अत्रोच्यते, तदेतन्न, यस्मात्तथ्ये मुख्ये वस्तुनि क्वचित् सिद्धे सत्यन्यत्रोपचारतस्तत्सिद्धिमता, 5 यथा मुख्ये यथार्थे सिंहेऽन्यत्र सिद्धे ततो माणवके सिंहोपचारः सिध्यति, एवमिहापि यदि मुख्या देवाः क्वचित् सिद्धा भवेयुस्तदा राजादेर्देवोपचारो युज्यते, नान्यथेति ॥ पुनरपि देवसत्तोपपत्तये प्रत्यक्षप्रमाणोपेतां गाथामाह[पृ०४७] पुव्वं पि न संदेहो, जुत्तो जं जोइसा सपच्चक्खं । दीसंति तक्कया वि अ, उवघायाणुग्गहा जगओ॥८८॥[विशेषाव० १८७०] 10 व्या० इह समवसरणादिगतदेवदर्शनात् पूर्वमपि तवान्येषां च संशयो न युक्तः, यद् यस्माच्चन्द्रादिज्योतिष्कास्त्वया सर्वेणापि च लोकेन स्वप्रत्यक्षत एव सर्वथा दृश्यन्ते, अतो देशतः प्रत्यक्षत्वात् कथं समस्तामरास्तित्वाशङ्का? । किञ्च, सन्त्येव देवाः, लोकस्य तत्कृतानुग्रहोपघातदर्शनात्, तथाहि-दृश्यन्ते क्वचित् केचित् त्रिदशाः कस्यापि किञ्चिद्विभवप्रदानादिनाऽनुग्रहं तदपहरणादिना चोपघातं कुर्वन्तः, ततो राजादिवत् कथम् एते 15 न सन्तीति ॥ पुनरपि परमाशक्य ज्योतिष्कदेवास्तित्वं साधयन्नाह[पृ०४७] आलयमेत्तं च मई, पुरं व तव्वासिणो तह वि सिद्धा । जे ते देव त्ति मया, न य निलया निच्चपडिसुण्णा ॥८९॥ [विशेषाव० १८७१] व्या० अथैवम्भूता मति: परस्य भवेत्-आलया एव आलयमानं चन्द्रादिविमानानि, 20 न तु देवाः, तत् कथं ज्योतिष्कदेवानां प्रत्यक्षत्वमभिधीयते ?, किं तद्यथा आलयमात्रमित्याहपुरं ति, यथा पुरं शून्यं लोकानामालयमात्रं स्थानमात्रम्, न तु तत्र लोकास्सन्ति, एवं चन्द्रादिविमानान्यप्यालयमात्रमेव, न तु तत्र देवाः केचित्तिष्ठन्ति, अतः कथं तेषां प्रत्यक्षत्वम् ?। अत्रोत्तरमाह- तथापि तद्वासिन: आलयवासिनः सामर्थ्याचे सिद्धास्ते देवा इति मता: सम्मताः, यो ह्यालयस्स सर्वोऽपि तन्निवासिनाऽधिष्ठितो दृष्टः, यथा प्रत्यक्षोपलभ्यमाना 25 देवदत्ताद्यधिष्ठिता वसन्तपुराद्यालयाः, आलयाश्च ज्योतिष्क विमानानि, अतः आलयत्वान्यथाऽनुपपत्तेः ये तन्निवासिनः सिद्धास्ते देवा इति मताः । आह-ननु कथं ते देवाः १ देवेसु - इति स्थानाङ्गवृत्तौ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे सिध्यन्ति?, यादृशा हि प्रत्यक्षेण देवदत्तादयो दृश्यन्ते तेनापि तादृशा एव स्युरिति, तदयुक्तम्, विशिष्टा हि देवदत्ताद्यालयेभ्यश्चन्द्राद्यालया इति, अतस्तन्निवासिनोऽपि विशिष्टाः सिध्यन्ति, ते च देवदत्तादिविलक्षणा देवा इति । अपरस्त्वाह - ननु आलयत्वादित्ययं हेतुस्तन्निवासिजनसाधनेऽनैकान्तिकः, शून्यालयैर्व्यभिचारात् । अत्रोत्तरमाह - न च निलया आलया नित्यमेव 5 शून्या भवन्ति । अयमभिप्रायः- ये केचिदालयास्ते प्राणिदानीमेष्यति कालेऽवश्यमेव तन्निवासिभिरधिष्ठिता एव भवन्ति, न तु नित्यमेव परिशून्यास्ततो यदा तदा वा चन्द्राद्यालयनिवासिन देवाः सिध्यन्तीति ॥ [पृ०४७] पुनरप्यत्राभिप्रायमाशङ्क्य परिहारमाह को जाणइ ? किमेयं ति, होज्ज णिस्संसयं विमाणाई | रयणमयनभोगमणा, इह जह विज्जाहरादीणं ॥ ९० ॥ [विशेषाव० १८७२] व्या० यदि वा एवम्भूता मतिः परस्य भवेद्यदुत - चन्द्राद्यालयत्वेन यद् गीयते भवद्भिस्तदिदं को जानाति किञ्चिद्भवेत् किम् सूर्योऽग्निमयो गोलश्चन्द्रस्त्वम्बुमयः स्वभावतः स्वच्छः आहोश्विदेवम्भूता एवैते भास्वररत्नमया गोलका ज्योतिष्कविमानानि, अतः कथमेतेषामालयत्वसिद्धिः?। अत्र प्रतिविधानमाह - निस्संशयं विमानान्येतानि, रत्नमयत्वे सति नभोगमनात्, 15 पुष्पकादिविद्याधरतपस्सिद्धविमानवदिति । अभ्रविकार - पवनादिव्यवच्छेदार्थं रत्नमयत्वं विशेषणमिति ॥ 10 ३४ 20 [पृ०४७] पृथिव्यादीनां दृष्टान्तद्वारा सात्मकत्वं साधयन्नाह महाग्रन्थकारःमंसंकुरो व्व समाणजाइरूवंकुरोवलंभाओ । तरुगण-विद्दुम-लवणोवलादयो सासयावत्था ||११|| [विशेषाव० १७५६ ] व्या० तरुगणास्तथा विद्रुम - लवणोपलादयश्च स्वाश्रयावस्थाः स्वजन्मस्थानगतास्सन्तश्चेतनाः, छिन्नानाममीषां पुनस्तत्स्थान एव समानजातीयाङ्कुरोत्थानात्, अर्शोमांसाङ्कुरवत् । आह-ननु पृथिव्यादिभूतानामिह सचेतनत्वं साधयितुमारब्धम्, ततः पृथिव्या एवादौ तत् साधयितुं युक्तम्, तस्या एवादावुपन्यासात्, तत् किमिति तरुगणेत्यादिना तरूणामेवादौ तत् साधितम्, पश्चात्तु विद्रुम-लवणोपलादीनामिति ? । सत्यम्, किन्तु पृथ्वीविकारतया पृथ्वीभूत व 25 तरूणामन्तर्भावो लोके प्रसिद्धः, सुव्यक्तचैतन्यलिङ्गाश्च यथा तरवो न तथा लवणोपल-जलादय इति तेषामेवादौ चैतन्यं साधितमिति ॥ [पृ०४८] अथोदकस्य सचेतनत्वं साधयितुमाह Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् भूमिक्खयसाभाविअसंभवओ दद्दुरो व्व जलमुत्तं । अहवा मच्छो व सहाववोमसंभूअपायाओ || १२ || [विशेषाव० १७५७ ] व्या० भौमम् अम्भः सचेतनमुक्तम्, क्षतभूमिसजातीयस्वाभाविकस्य तस्य सम्भवाद्, दर्दुरवत् । अथवा चेतनमन्तरिक्षम् अम्भः अभ्रादिविकारस्वभावसम्भूतपातात् मत्स्यवदिति ॥ [पृ०४८] तेजोऽनिलावधिकृत्याह 5 अपरप्पेरिअतिरिआनियमिअदिग्गमणओऽनिलो गो व्व । अनलो आहाराओ, विद्धिविगारोवलंभाओ || ९३॥ [विशेषाव० १७५८] व्या० सात्मको वायुः अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमनाद् गोवत्, तथा सात्मकं तेज आहारोपादानात्तद्वृद्धौ विकारविशेषोपलम्भाच्च नरवद् । गाथाबन्धानुलोम्याच्च व्यत्ययेनोपन्यास इति ॥ ३५ [पृ०४८] तदेवं पृथिव्यादीनां प्रत्येकं सचेतनत्वं प्रसाध्य सामान्येन तत् साधयन्नाहतणवोऽणब्भाइविगारमुत्तजाइत्तओऽनिलंताइं भूतानीति प्रक्रमः । सत्थासत्थहयाओ, निज्जीवसजीवरूवाओ || १८ || [ विशेषाव० १७५९] व्या॰ पृथिव्याद्यनिलान्तानि चत्वारि भूतानि जीवनिर्वर्त्तितास्तदाधारभूतास्तनव इति प्रतिज्ञा, अभ्रादिविकारादन्यत्वे सति मूर्त्तजातित्वाद्, गवादिशरीरवत् । अभ्रादिविकारस्तु 15 विश्रसापरिणतपुद्गलसङ्घातरूपत्वेनाचेतनत्वाद्वर्जितः । ताश्च पृथिव्यादितनवः शस्त्रोपहता निर्जीवाः, अशस्त्रोपहतास्तु सजीवा वर्ण - गन्ध - रसादिलक्षणतः समवसेया इति ।। [पृ०४८] अथ वनस्पतीनां विशिष्टैर्लोकप्रसिद्धैर्लक्षणैस्सात्मकत्वं तिसृभिर्गाथाभिर्भाष्यकार आहजम्मजराजीवणमरणरोहणाहारदोहलामयओ । रोगतिगिच्छाईहि अ, णारि व्व सचेअणा तरवो ॥ ९५ ॥ [ विशेषाव० १७५३ ] 20 10 व्या० सचेतनास्तरव इति प्रतिज्ञा, जन्म-जरा-जीवन-मरण-क्षतसंरोहणा -ऽऽहार-दौहृदाऽऽमय-तच्चिकित्सादिसद्भावादिति हेतु:, नारीवदिति दृष्टान्तः । आह- नन्वनैकान्तिकोऽयम्, अचेतनेष्वपि जन्मादिव्यपदेशदर्शनात्, तथाहि - जातं तद् दधीति व्यपदिश्यते, न चैतत् सचेतनम्, तथा जीवितं विषं मृतं कुसुम्भकमित्यादि । अत्रोच्यते - वनस्पतेस्सर्वाण्यपि सचेतनलिङ्गानि जन्मादीन्युपलभ्यन्ते, अतो मनुष्येष्विव तानि तेषु निरुपचरितानि, दध्यादौ तु प्रतिनियत एव 25 कश्चिज्जातादिव्यपदेशो दृश्यते स चौपचारिक एव, जातमिव जातं दधि, मृतमिव मृतं कुसुम्भकमित्यादि ।। [पृ०४८] वनस्पतेरेव सचेतनत्वसाधने हेत्वन्तराण्यप्याह Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे छिक्कप्परोइआ छिक्कमेत्तसंकोअओ कुलिंगो व्व । आसयसंचाराओ, विअत्त वल्ली विआणाहि ॥१६॥ सम्मादयो वि साव-प्पबोह- संकोअणादिओऽभिमया । बउलादयो अ सद्दाइविसयकालोवलंभाओ ॥९७॥ [विशेषाव० १७५४-५] व्या० सचेतनाः स्पृष्टप्ररोदिकादयो वनस्पतयः स्पृष्टमात्रसङ्कोचात्, कुलिङ्गः कीटादिस्तद्वत्, तथा सचेतना वल्ल्यादयः, स्वरक्षार्थं वृति-वृक्ष-वरण्डकाद्याश्रयं प्रति सञ्चरणात्, तथा शम्यादयश्चेतनत्वेनाभिमताः, स्वाप-प्रबोध-सङ्कोचादिमत्त्वाद्देवदत्तवत्, तथा सचेतना बकुलाऽशोक-कुरुबक-विरहक-चम्पक-तिलकादयः, शब्दादिविषयकालोपलम्भात्, शब्द-रूप-गन्धरस-स्पर्शविषयाणां काले प्रस्तावे उपभोगस्य यथासम्भवमुपलम्भादित्यर्थः, यज्ञदत्तवदिति । एवं 10 पूर्वमपि दौहृदादिलिङ्गेषु कौष्माण्डी-बीजपूरकादयो वनस्पतिविशेषाः पक्षीकर्तव्या इति ॥ [पृ०४९] भव्याभव्ययोर्द्रव्यत्वाविशेषेऽपि स्वभावकृतभेदसूचिकां गाथामाहदव्वाइत्ते तुल्ले, जीव-नभाणं सभावओ भेदो । जीवाजीवाइगओ, जह तह भव्वेअरविसेसो ॥९८॥ [विशेषाव० १८२३] व्या० यथा जीव-नभसोर्द्रव्यत्व-सत्त्व-प्रमेयत्व-ज्ञेयत्वादौ तुल्येऽपि जीवाजीवत्व-चेतना15 चेतनत्वादिस्वभावतो भेदस्तथा जीवानामपि जीवत्वसाम्येऽपि यदि भव्याभव्यकृतो विशेष: स्यात्तर्हि को दोष इति ॥ [पृ०५०] जेसिमवड्डो पुग्गल-परिअट्टो सेसओ अ संसारो । ते सुक्कपक्खिआ खलु, अहिए पुण किण्हपक्खीआ ॥९९॥ [श्रावकप्र० ७२] व्या० जेसिमिति, येषाम् अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तः शेषसंसारः, येषामर्द्धपुद्गलपरावर्तोऽवशिष्टः 20 संसार इत्यर्थः, ते शुक्लपाक्षिका: खलु निश्चयेन । कृष्णपाक्षिकलक्षणमाह- अहिए अधिके अर्धपुद्गलपरावर्तादधिकसंसाराः कृष्णपाक्षिका इति गाथार्थः ।। [पृ०५२] अत्र सङ्ग्रहणीकाउ नीला किन्हा, लेसाओ तिण्णि हुंति नरएसु । तइयाए पृथिव्यामित्यर्थः काउ नीला, नीला किन्हा य रिट्टाए ॥१००॥ पञ्चम्यामित्यर्थः। 25 किन्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिआ । ___ जोइससोहम्मीसाणे, तेउलेसा मुणेयव्वा ॥१०१।। १ वल्लीवियाणाई इति प्रत्यन्तरेषु तथा विशेषावश्यकभाष्ये पाठः ।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् कप्पे सणंकुमारे, माहिंदे चेव बंभलोए अ । एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसाओ ॥१०२॥ पुढवी आउ वणस्सइ, बायर-पत्तेय लेस चत्तारि । गब्भे तिरिअ नरेसुं, छल्लेसा तिण्णि सेसाणं ॥१०३॥ [बृहत्संग्रहणी २८८,१९३,१९४,३४२ प्रवचनसारो० ११५९,११६०,१११०] 5 व्या० व्याख्या तु सुगमैव, कृष्णा नीला कापोती तेजोलेश्या भवनपति-व्यन्तराणाम्, ज्योतिःसौधर्मेशानेषु तेजोलेश्या, सनत्कुमारे माहेन्द्रे ब्रह्मलोके च पद्मलेश्या, ततः परं देवलोकेषु शुक्ललेश्या, पृथिव्याम् अप्सु वनस्पतिषु बादर-प्रत्येकजीवेषु चतस्रो लेश्या कृष्ण-नीलकापोत-तेजोलेश्याः, गर्भजतिर्यङ्-नरेषु षड् लेश्याः कृष्ण-नील-कापोत-तेजः-पद्म-शुक्लरूपाः। शेषाणाम् उक्तव्यतिरिक्तानां तिम्रो लेश्या आद्या इति ॥ 10 [पृ०५२] ओहो१ भव्वाईहिं१, विसेसिओ२ दंसणेहिं३ पखेहिं ४ । लेसाहिं ५ भव्व ६ दंसण ७, पक्खेहिं ८, विसिट्ठलेसाहिं ॥१०४॥ व्या० व्याख्या सुगमैव । [पृ०५३] तित्थशब्दस्य विशेषव्युत्पत्त्याऽनेकार्थतामुत्पादयन् गाथाचतुष्टयमाहजं नाणदंसणचरित्तभावओ तव्विवक्खभावाओ । 15 भवभावओ अ तारेइ, तेण तं भावओ तित्थं ॥१०५॥ [विशेषाव० १०३३] व्या० यद्यस्मात्तारयति पारं प्रापयति, तेन तत् सङ्घलक्षणं भावतस्तीर्थमिति सम्बन्धः। कुतस्तारयति ? इत्याह-तद्विपक्षभावादिति, तेषां ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां विपक्षोऽज्ञान-मिथ्यात्वाऽविरमणानि तद्विपक्षस्तल्लक्षणो भावो जीवपरिणामस्तद्विपक्षभावस्तस्मात्तारयति। कुतः ? इत्याहज्ञान-दर्शन-चारित्रभावतः, ज्ञानाद्यात्मकत्वादित्यर्थः । यो हि ज्ञानाद्यात्मको भवति 20 सोऽज्ञानादिभावात् परं तारयत्येवेति भावः । न केवलमज्ञानादिभावात् तारयति, तथा भवभावतश्च तारयति, भवः संसारस्तत्र भवनं भावः तस्मादित्यर्थः । यस्मात् स्वयं ज्ञानादिभावात्मकस्तथाऽज्ञानादिभावाद्भवभावाच्च भव्यांस्तारयति तस्मादसौ सङ्घो भावतीर्थमितीह तात्पर्यम् ।। [पृ०५३] दाहोवसमादिसु वा, जं तिसु थिअमहव दंसणाईसुं। तो तित्थं संघो च्चिअ उभयं व विसेसणविसेस्सं ॥१०६॥ [विशेषाव० १०३५] 25 व्या० अथवा यद् यस्माद्यथोक्तदाहोपशम-तृष्णाछेद-मलक्षालनरूपेषु यदिवा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रलक्षणेषु त्रिष्वर्थेषु स्थितं ततस्त्रिस्थं सङ्घ एव, उभयं वा सङ्घ-त्रिस्थितिलक्षणविशेषणविशेष्यरूपं द्वयं त्रिस्थम्, इदमुक्तं भवति-किं त्रिस्थं सङ्घः, कश्च सङ्घस्त्रिस्थो नान्य इत्येवं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे विशेषणविशेष्ययोरुभयं संलुलितं त्रिस्थमुच्यत इति ॥ [पृ०५३] अथवा प्राकृते तित्थमित्युक्ते व्यर्थमित्यपि लभ्यत इत्येतद्दर्शयन्नाहकोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव तिण्णि जस्सत्था । होइ तिअत्थं तित्थं तमत्थसद्दो फलत्थोऽयं ॥१०७॥ [विशेषाव० १०३६] व्या० क्रोधाग्निदाहोपशम-लोभतृष्णाव्यवच्छेद-कर्ममलक्षालनलक्षणास्त एवाऽनन्तरोक्तास्त्रयोऽर्थाः फलरूपा यस्य तत् त्र्यर्थम्, तच्च सङ्घ एव, तदव्यतिरिक्तं ज्ञानादित्रयं वा व्यर्थं प्राकृते तित्थमुच्यते, अर्थशब्दश्चायं फलार्थो मन्तव्यः । इदमुक्तं भवति-भगवान् सङ्घस्तदव्यतिरिक्तं ज्ञानादित्रयं वा महातरुरिव भव्यैर्निषेव्यमाणं क्रोधाग्निदाहशमनादिकांस्त्रीनर्थान् फलत्यतस्त्र्यर्थमुच्यते इति ॥६॥ 10 [पृ०५३] अथवा वस्तुपर्यायोऽत्रार्थ इत्याह अथवा सम्मईसण-नाण-चरित्ताई तिनि जस्सत्था । तत्तित्थं पुव्वोदिअमिहमत्थो वत्थुपज्जाओ ॥१०८॥ [विशेषाव० १०३७] व्या० अथवा सम्यग्दर्शनादयस्त्रयोऽर्था यस्य तत् त्र्यर्थम्, अर्थशब्दश्चात्र वस्तुपर्यायस्त्रिवस्तुकमित्यर्थः । तच्च सङ्घ एव, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत एव सम्यग्दर्शनादयस्त्रयोऽर्था15 स्समाहृतास्त्र्यर्थम्, सङ्ख्यापूर्वत्वात् स्वार्थत्वाच्च द्विगोरिति । तदेव सङ्घो भावतस्तीर्थं त्रिस्थं त्र्यर्थं वेति ॥ [पृ०५३] अणुलोमहेउतस्सीलत्तया य जं भावतित्थमेअं तु । कुव्वंति पगासंति तु, ते तित्थयरा हिअत्थकरा॥१०९॥ [विशेषाव० १०४७] व्या० इयं गाथा टीकाकृता व्याख्यातप्राया, तथापि किञ्चिदुच्यते- आनुलोम्यं च हेतुश्च 20 तच्छीलं च आनुलोम्य-हेतु-तच्छीलानि, तेषां भाव आनुलोम्य-हेतु-तच्छीलता, तया ये तीर्थकरा य एतं भावतीर्थम् आनुलोम्य-हेतु-तच्छीलतया कुर्वन्ति तु पुनः प्रकाशयन्ति । कथम्भूतास्तीर्थकरा: ? हितार्थकराः ।। [पृ०५४] स्वयम्बुद्धानां द्वादशोपकरणानि नामतो व्यर्द्धगाथया आह - पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिआ । 25 पडलाइं रयत्ताणं, गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥११०॥ तिण्णेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपुत्ती । [ओघनि. ६६८-६६९] व्या० पात्रं पात्रबन्धः झोलिकेति, पात्रकस्थापनं पात्रकेसरिका पात्रमुखवस्त्रिका पटलानि रजस्त्राणं गोच्छकम्, अयं पात्रनिर्योगः, पात्रपरिकर इत्यर्थः । त्रयः प्रच्छादकाः कल्पा इत्यर्थः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् तथा रजोहरणम्, तथा मुखवस्त्रिका चेति ॥ [पृ०५४] बत्तीसा अडयाला, सट्ठी बावत्तरी अ बोधव्वा । चुलसीई छन्नउई, दुरहिअमठुत्तरसयं च ॥१११॥ [संग्रहणी २४७] व्या० वृत्तिकृतैव सङ्ग्रहणीगाथा सविस्तरं व्याख्याता इति नेहार्थो व्याख्यातः ॥ [पृ०५८] महावीरशब्दं समासतो निरुक्ततो गाथाद्वयेन व्याख्याति भाष्यकृत्- 5 तिहुअणविक्खायजसो, महायसो नामओ महावीरो । विक्कंतो व कसायाइसत्तुसेन्नपराजयओ ॥११२॥ ईरेइ विसेसेण व खिवइ अ कम्माई गमयइ सिवं वा । गच्छइ अ तेण वीरो, स महं वीरो महावीरो ॥११३॥ [विशेषाव० १०५९-१०६०] व्या० उभयत्रापि महावीर इतिनामा जिनो जयतीति शेषः, किम्भूतः ? महत् 10 त्रिभुवनव्यापित्वाद् यशोऽस्येति महायशाः, अत एव पुनः किंविशिष्टः ? त्रिभुवने विख्यातं प्रसिद्धं यशोऽस्येति, पुनः किम्भूतः ? विक्कंतो वेति, कषायादिमहाशत्रुसैन्यपराजयाद्वीरः, शूर वीर विक्रान्तौ पान्धा० १९०३-१९०४] इति हेतोरपि महावीर इति । ईर गतौ [पा०धा० १०१८] कियत्क्षपितकर्मसाध्वपेक्षया विशेषत ईरयति क्षपयति तिरस्करोत्यशेषाण्यपि कर्माणीति वीरः, अथवा विशेषत ईरयति शिवपदं प्रति भव्यजन्तून् गमयतीति वीरः, यदि वा विशेषतः शिवपदं 15 स्वयमियर्ति गच्छतीति वीरः, अथवा दृ विदारणे [पा०धा० १४९४], विदारयति कर्मरिपुसङ्घट्टमिति वीरः, अत एव महाँश्चासौ वीरश्चेति च महावीरो जयतीति ॥ महावीरस्य सिद्धिगमनैकत्वे ग्रन्थसम्मतिमाह[पृ०५९] एगो भगवं वीरो, तित्तीसाए सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहि, सएहिं नेमी उ सिद्धिगओ ॥११४॥ [आव०नि० ३०८] 20 व्या० एको भगवान्महावीरो निर्वृतो मोक्षं गतः, त्रयस्त्रिंशद्भिः पार्श्वः, षट्त्रिंशद्भिरधिकैः पञ्चभिः शतैस्सह नेमिः सिद्धिं गतः ॥ [पृ०५९] सूत्रोक्तनक्षत्रत्रयताराप्रमाणव्यतिरिक्तशेषनक्षत्रताराप्रमाणविशेषज्ञापनार्थं प्रसङ्गतो गाथाद्वयमाह छप्पंच तिण्णि एगं, चउ तिग रस वेद जुअल जुअलं च । इंदिअ एगं एगं, विसयग्गि समुद्द बारसगं ॥११५॥ चउरो तिण्णि तिअ तिअ पंच सत्त बे बे भवे तिआ तिण्णि । रिक्खे तारपमाणं, जइ तिहितुल्लं हयं कजं ॥११६॥ व्या० कृत्तिकादि कृत्वा सर्वेषां नक्षत्राणां यथासङ्ख्यं तारामानं ज्ञातव्यम्, तथाहि-कृत्तिका 25 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे षट्तारा, तारा नाम ज्योतिर्विमानरूपा, कृत्तिकाणां षड् विमानानीत्यर्थः, एवं सर्वत्र ज्ञेयम्, नवरं जड़ तिहीति यदि तिथितुल्यं नक्षत्रं भवति तदा हतं कार्यम्, कोऽर्थः ? कृत्तिकायुक्तं यदि षष्ठीदिनं भवति तदा तत्र कार्यं न सिध्यतीत्यर्थः ॥ [पृ०६०] ज्ञानक्रिययोः प्रत्येकं पुरुषार्थतामाह हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणिणो किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अ अंधओ ।। ११७ ॥ [ आव० नि० १०१, विशेषाव ० ११५९] व्या० हतमिह ज्ञानम्, किंविशिष्टम् ? इत्याह-क्रियाहीनमिति, यत्र चारित्रक्रिया नास्तीत्यर्थः । ननु कथं क्रियाहीनं ज्ञानं हतमुच्यते ? इत्याह-यद्विफलं तदिह हतं विवक्षितम्, 10 फलं च ज्ञानस्य क्रियैव, ततो विगतफलं ज्ञानं क्रियाहीनमेवोच्यते, नान्यत् । अत्र च प्रयोग:हतं ज्ञानमेव केवलम्, सत्क्रियाहीनत्वात्, महानगरप्रदीपनकदाहे पलायनक्रियारहितपङ्गुलोचनज्ञानवदिति । एवमुक्ते सति क्रियात एव मोक्षमिच्छन् ज्ञानेऽनादृतस्तत्त्यागं मा कार्षीच्छिष्य इत्यतो भण्यते - हताऽज्ञानतः क्रिया, हता मोक्षलक्षणफलरहिता अज्ञानपरिगृहीता निह्नवादेः क्रिया, सम्यग्दृष्टेरपि ज्ञानोपयोगोशून्यस्य क्रिया हतैव, तथाविधफलविकलत्वात्, 15 सर्वतः सङ्कटप्रदीप्तनगरे दह्यमानगृहाद्यभिमुखपलायमानान्धगतिक्रियावदिति । तस्मादन्योन्यापेक्षे समुदिते एव ज्ञानक्रिये मोक्षस्य साधनमेष्टव्ये, न प्रत्येकमिति ॥ [पृ०६०] ज्ञानक्रियाभ्यां सहचरिताभ्यामेवेष्टविशिष्टफलसिद्धिरिति सूचिकां सदृष्टान्तां ४० 20 गाथामाह संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाति । अंध अपंगू य वणे समेच्चा ते संपयुत्ता नयरं पविट्ठा ॥ ११८ ॥ [आव० नि० १०२, विशेषाव० ११६५ ] व्या० ज्ञान - क्रिययोः संयोगनिष्पत्तावेव मोक्षलक्षणं फलमाचक्षते तीर्थकराः, नहि लोकेऽप्येकचक्रेण रथः प्रवर्तते, एवमन्यदपि सर्वसामग्रीजन्यमेव कार्यमवगन्तव्यम् । तथा चान्धपङ्गूदाहरणमिह वक्तव्यम् । तद्यथा - कस्यापि नगरस्य सत्को लोकः कुतोऽपि राजभयादरण्यं 25 गतः, तत्रापि तस्करधाटीभयाद्वाहनादिकमुज्झित्वा प्रपलायितः, अन्ध-पङ्गू पुनरनाथौ तत्रैव स्थितौ, तत्र च दवाग्नौ सर्वतः प्रदीप्ते तौ परस्परं सम्प्रयुक्तौ पङ्गुरन्धेन स्वस्कन्धमारोपितः स चान्धस्य समविषमस्थाणुकण्टकादिकं कथयत्यतः तस्य सत्केन चाक्षुषज्ञानेनान्धसत्कया च गतिक्रियया सम्यग्मार्गप्रवृत्त्या क्षेमेण नगरं प्रविष्टौ, इत्येवं सर्वत्र संयोगात् फलसिद्धिर्भावनीयेति ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमाध्ययनटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०६०] अत्रार्थे भाष्यकारसम्मतिमप्याहनाणाहीणं सव्वं, णाणणओ भणइ किं च किरिआए ?। किरिआए करणनओ, तदुभयगाहो अ सम्मत्तं ॥११९॥ [विशेषाव० ३५९१] व्या० ज्ञानाधीनमेव सर्वम् ऐहिकामुष्मिकं सुखम्, किमत्र क्रियया कर्त्तव्यम् ?, युक्तिं चेहानन्तरमेव वक्ष्यति । करणनयस्तु क्रियानयो वक्ष्यमाणयुक्तेरेव सर्वम् ऐहिकामुष्मिकं सुखं 5 क्रियाया एवाधीनमिति भणति। उभयग्राहश्चेह सम्यक्त्वं स्थित: पक्ष इति । [पृ०६१] सामान्यवादी स्वमतमेव गाथाद्वयेन स्पष्टयतिएकं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामण्णं । णिस्सामण्णत्ताओ, नत्थि विसेसो खपुप्फं व ॥१२०॥ [विशेषाव० ३२] व्या० एकम् अद्वितीयत्वादेकसङ्ख्योपेतं सामान्यम् । एकमपि क्षणिकं स्यात्तत्राह- नित्यम् 10 अनपायि, नित्यमप्याकाशवत् सावयवं स्यात् तन्निरवयत्वे सवितुरुदयास्तमयायोगादित्यत्राहनिरवयम् अनंशम्, पूर्वापरकोटिशून्यत्वादिति । निरवयवमपि परमाणुवत् सक्रियं स्यादत आहअक्रियं कियारहितम्, परिस्पन्दनिर्मुक्तत्वादिति । अक्रियमपि दिगादिवत् सर्वगतं न स्यादत्राहसर्वगं च सकललोकावाप्तसत्ताकम्, इदमित्थम्भूतं सामान्यमेवास्ति, न तु विशेष: कश्चनापि विद्यते । कुतः ? इत्याह- निस्सामान्यत्वात् सामान्यविरहितत्वात्, खपुष्पवत्, यच्चास्ति 15 तत् सामान्यविरहितं न भवति, यथा घटः ॥ [पृ०६१] सामन्नाओ विसेसो, अन्नोऽणन्नो व होज ? जइ अन्नो । सो नत्थि खपुप्फं पि वऽणन्नो सामन्नमेव तयं ॥१२॥ [विशेषाव० ३४] व्या० भो विशेषवादिन् ! सामान्याद्विशेषोऽन्यो वा स्यादनन्यो वेति विकल्पद्वयम्, यद्याद्यो विकल्पस्तर्हि नास्त्येव विशेषः, निस्सामान्यत्वात्, खपुष्पवत् । इह यद्यत् सामान्यविनिर्मुक्तं 20 तत्तन्नास्ति, यथा गगनारविन्दम् । सामान्यविरहितश्च विशेषवादिना विशेषोऽभ्युपगम्यते तस्मान्नास्त्येवायमिति । अथानन्य इति द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते, हन्त तर्हि सामान्यमेवासौ, तदनन्यत्वात्, सामान्यात्मवत्। यद्यस्मादनन्यत् तत्तदेव यथा सामान्यस्यैवात्मा, अनन्यश्च सामान्याद्विशेष इति सामान्यमेवायमिति। यदि चातिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न [पचारेणोच्यमानो भेदस्तात्त्विकमेकत्वं बाधितुमलम्।। 25 [पृ०६१] न विसेसत्थंतरभूयमत्थि सामन्नमाह ववहारो । उवलंभव्ववहाराभावाओ खरविसाणं व ॥१२२॥ [विशेषाव०३५] व्या० व्यवहारो विशेषनयः, विशेषेभ्योऽर्थान्तरम्- अन्योऽर्थः अर्थान्तरम्- सामान्य Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे नास्ति, विशेषा एव सामान्यमित्याह । कस्मात् ? उपलम्भव्यवहाराभावात् । विशेषेभ्योऽन्यत् सामान्यं नोपलभ्यते प्रत्यक्षेण, इन्द्रिय-सामान्ययोरसन्निकर्षाद् व्यवहाराभावाच्च, सामान्येन दाहपाकादिव्यवहारो नास्ति, दाह-पाकादीनां विशेषेष्वेव व्यवहारात् । किंवत् ? खरविषाणवत्, यदा खरविषाणं प्रत्यक्षमपि नास्ति व्यवहारसाधकं नास्तीति अभाव एव । सर्वगाथा १२२ इति श्री वाचनाचार्यसुमतिकल्लोलगणि-वादिहर्षनन्दनगणिभ्यां विविच्य लिखितं श्री स्थानाङ्गतृतीयाङ्गे प्रथमस्थानटीकायामुक्तगाथार्थविवरणं सम्पूर्णम् ।।ग्रन्थाग्रं ८९३॥ 5 [अथ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ] [पृ०७१] द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थतामपि दृष्टान्तद्वारा द्योतयति10 अप्पाहन्ने वि इहं, कत्थइ दिट्ठो ह दव्वसद्दो त्ति । अंगारमद्दओ जह, दव्वायरिओ सयाऽभव्वो ॥१॥ [पञ्चाशक० ६।१३] व्या० अप्रधान्येऽपि इह क्वचिद् दृष्टो हुर्निश्चयेन द्रव्यशब्दः, कोऽर्थः ? द्रव्यशब्दस्यानेकार्थत्वेन अप्रधानार्थोऽपि द्रव्यशब्दो वर्त्तत इत्यर्थः । यथेत्युपदर्शने । कुत्र द्रव्य शब्दोऽप्रधानार्थः ? इत्यत आह- अङ्गारमर्दको द्रव्याचार्य: अप्रधानाचार्यः, सदाऽभव्य 15 इत्यर्थः ॥१॥ [पृ०७३] ज्ञानवादी ज्ञानस्यैव प्राधान्यख्यापनाय गाथात्रयमाहआह पहाणं नाणं, न चरित्तं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिआ, सावि हु नाणप्फलं जम्हा ॥२॥ विशेषाव०११३३] व्या० ज्ञानमेव प्रधानं मोक्षकारणम्, न चारित्रम्, यदिवा शुद्धं ज्ञानमेवैकं मोक्षस्य कारणम्, 20 न तु क्रिया, यस्मादसावपि ज्ञानफलमेव ज्ञानकार्यमेव, ततश्च यथा मृत्तिका घटस्य कारणं भवन्त्यपि तदपान्तरालवर्त्तिनां पिण्ड-शिवक-कुशूलादीनामपि कारणं भवति, एवं ज्ञानमपि मोक्षस्य कारणं तदपान्तरालभाविनां सर्वसंवरक्रियादीनामपीति । यथा क्रिया ज्ञानस्य कार्यम्, तथा शेषमपि यत् क्रियाऽनन्तरभावि मोक्षादिकं यच्च क्रियाया अर्वाग्भावि बोधिलाभकाले तत्त्वपरिज्ञानादिकं रागद्वेषनिग्रहादिकं च तत् सर्वं ज्ञानस्यैव कार्यम्, यच्चेह सकलजनप्रत्यक्षं 25 मनश्चिन्तितमहामन्त्रपूतविषभक्षण-भूत-शाकिनीनिग्रहादिकं तत् सर्वं क्रियारहितस्य ज्ञानस्यैव Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् कार्यम्, अतो दृष्टेनादृष्टमपि निर्वाणं ज्ञानस्यैव कार्यम् इत्यनुमीयते ॥२॥ इत्येतद्दर्शयन्नाह जह सा नाणस्स फलं, तह सेसं पि तह बोहकाले वि । नेअपरिच्छेअमयं, रागादिविणिग्गहो जो य ॥३॥ जं च मणोचिंत्तिअमंतपूअविसभक्खणाइबहुभेयं । फलमिह तं पच्चक्खं, किरियारहिअस्स नाणस्स॥४॥ [विशेषाव०११३४-११३५] 5 व्या० द्वे अप्युक्तार्थे एव । [पृ०७४] ननु केवलं ज्ञानमेव सर्वत्र कार्ये सोपयोगीत्येव वक्तुं न शक्यते, फलस्य क्रियया जन्यत्वात्, इत्येवार्थं मनसिकृत्याह तो तं कत्तो आचार्यः भण्णइ, तस्समयनिबद्धदेवओवहियं । किरिआफलं चिअ जओ, न मंतणाणोवओगस्स ॥५॥ [विशेषाव०११४१] 10 व्या० यदि केवलं मन्त्रज्ञानकृतं नभोगमनादिकार्यं न भवति ततस्तर्हि कुतस्तदिति वाच्यम्, भण्यतेऽत्रोत्तरम्- तद् नभोगमनादिकार्यं समयनिबद्धदेवतोपहितं तत् क्रियाफलमेव यस्मात्ततो न ज्ञानोपयोगमात्रस्यैव फलमिति । इदमुक्तं भवति-समयः सङ्केतस्ततो यत्र यत्र देवतानां समये सङ्केते उपनिबद्धा मन्त्रास्तद्देवताकृतमेव तत्तत् फलम्, देवताश्च सक्रिया एव, अतः सक्रियदेवताभिरुपाहृतं सत् तत् क्रियाफलमेव यतोऽतो न केवलस्य ज्ञानमात्रोपयोगस्य फलमिति 15 स्थितम् ॥ ___ आह-ननु देवताह्वानं तावत् केवलादेव मन्त्रानुस्मरणज्ञानोपयोगाद्भवति न वेति वक्तव्यम्, यदि भवति तर्हि शेषकार्याण्यपि केवलात्तत एव किं नेष्यन्ते ?, अथ न भवति तर्हि कथमसाविहागत्य नभोगमन-विषवीर्यापहारादिकार्याणि कुर्यात् ?, अत्रोच्यते- देवताह्वानं भवति, परं न केवलादेव मन्त्रस्मरणज्ञानोपयोगमात्रात्, किन्तु पुनः पुनस्तज्जपनादिक्रियासहायात् 20 तस्माद्देवताह्वानमपि सम्पद्यते इत्यलं विस्तरेणेति । आह- किं ज्ञानं सर्वथैव निष्क्रियम् ? किंवा कांचिदेव विशिष्टां क्रियामधिकृत्य तनिष्क्रियमिति । अत्रोच्यते-वस्तुपरिच्छेदमात्रं तत् करोति, तत्करणादेव च सहकारिकारणतया जीवस्य चारित्रक्रियां जनयति ॥५॥ [पृ०७९] औपशमिकसम्यक्त्वलाभविधिस्तत्कालमानं च गाथाचतुष्टयेनाहउवसामगसेढिगयस्स, होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखविअमिच्छो लहइ सम्मं ॥६॥ [विशेषाव०५२९] 25 १. तं समय' - विशेषावश्यके ।। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० उपशमश्रेणिगतस्य दर्शनसप्तके उपशमं नीते औपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । किमुपशमश्रेणिगतस्यैवैतद्भवति ? नेत्याह- यो वा जन्तुरनादिमिथ्यादृष्टिस्सनकृतत्रिपुञ्जो मिथ्यात्वमोहनीयस्याऽविहितशुद्धा-ऽशुद्ध-मिश्रपुञ्जत्रयविभागोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्वं तस्याप्यन्तरकरणप्रविष्टस्यौपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, क्षपितमिथ्यात्वपुञ्जोऽप्यविद्यमानत्रिपुञ्जो 5 भवति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तम्-- अक्षपितमिथ्यात्वः सन् योऽत्रिपुञ्जः सम्यक्त्वं लभते तस्यैवौपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, क्षपितमिथ्यात्वः क्षायिकसम्यक्त्वमेव लभत इति भावः ॥६॥ खीणम्मि उदिण्णम्मि य, अणुदिजंते अ सेसमिच्छत्ते । अंतोमुत्तकालं, उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥७॥ [विशेषाव० ५३०] व्या० इहानादिमिथ्यादृष्टिः कश्चिदायुर्वर्जसप्तकर्मप्रकृतिषु यथाप्रवृत्तकरणेन क्षपयित्वा 10 प्रत्येकमन्तस्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणतां नीतासु अपूर्वकरणेन ग्रन्थिभेदं कृत्वा अनिवृत्तिकरणं प्रविशति । ततस्तत्रानिवृत्तिकरणे यदीर्णम् उदयमागतं मिथ्यात्वं तस्मिन्ननुभवेनैव क्षीणे निर्जीणे, शेषे तु सत्तावर्तिनि मिथ्यात्वेऽनुदीयमाने परिणामविशुद्धिविशेषादुपशान्ते विष्कम्भितोदयेऽन्तर्मुहूर्तमुदयमनागच्छतीत्यर्थः । किमित्याह- अन्तर्मुहूर्त्तमानं कालम् औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीवः, अस्माच्चौपशमिकसम्यक्त्वादतिक्रान्तो मिथ्यात्वपुञ्जस्यैवोदयान्मिथ्यात्वमेव गच्छति, 15 शेषपुञ्जद्वयस्याकृतत्वेनाविद्यमानत्वादिति ॥७॥ [पृ०८०] नन्वौपशमिक -क्षायोपशमिकयोः को भेदः ?, उभयत्रापि क्षयोपशमयोर्जायमानत्वादिति शङ्काशङ्ख क्षायोपशमिकलक्षणम् औपशमिकाच्च तद्भेदं दर्शयन्नाह मिच्छत्तं जमुदिण्णं, तं खीणं अणुइअं च उवसंतं ।। ___ मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ॥८॥ [विशेषाव०५३२] 20 व्या० यदुदीर्णम् उदयमागतं मिथ्यात्वं तद्विपाकोदयेन वेदितत्वात् क्षीणं निर्जीर्णम्, यच्च शेषं सत्तायामनुदयगतं वर्त्तते तदुपशान्तम्, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च शेषमिथ्यात्वं मिथ्यात्व-मिश्रपुञ्जावाश्रित्य विष्कम्भितोदयं शुद्धपुञ्जमाश्रित्य पुनरपनीतमिथ्यात्वस्वभावमित्यर्थः । अणुइअं चेति चशब्दस्य व्यवहितप्रयोगाच्छुद्धपुञ्जलक्षणं तदुपशान्तं चेति, अनपनीतमिथ्यास्वभावमित्यर्थः । इत्येवं सर्वं सुस्थं भवति । तदेवम् 25 उदीर्णमिथ्यात्वस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च उपशम एतत्स्वभावद्वयस्य योऽसौ मिश्रीभाव एकत्र मिथ्यात्वलक्षणे धर्मिणि भवनरूपस्तमापन्नं मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानम् अनुभूयमानं त्रुटितरसं शुद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षयोपशमाभ्यां निर्वृत्तत्वात् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमुच्यते, शोधिता हि मिथ्यात्वपुद्गला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दृष्टे यथावस्थितत्त्वरुच्यध्यवसायरूपस्य Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् सम्यक्त्वस्याऽऽवारका न भवन्ति, अतस्तेऽप्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यत इत्यक्षरार्थघटना । भावार्थस्त्वयम् - क्षायोपशमिके मिथ्यात्वस्य विपाकतोऽनुभावो नास्ति, प्रदेशतस्तु तदनुभावोऽस्त्येव वेइज्जंतं इत्युक्तत्वात् शोधितमिथ्यात्वपुद्गलानां सम्यक्त्वानावारकाणामुदयसद्भावात्, औपशमिके तु विपाक-प्रदेशाभ्यां मिथ्यात्वपुद्गलानामनुभवनं नास्त्येवेति ॥८॥ [पृ०८०] औपशमिक-क्षायोपशमिकस्वरूपं तद्भेदं चाभिधाय क्षायिकस्वरूपमाह- 5 खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि भवनियाणभूअम्मि । निप्पच्चवायमउलं, सम्मत्तं खाइअं होइ ॥ ९॥ [तुला - विशेषाव०५३३] व्या० अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयानन्तरं भवनिदानभूते संसारासाधारणकारणभूते मिथ्यात्वमिश्र-सम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीये सर्वथा क्षीणे क्षायिकं भवति, शेषं सुगमम् । इति गाथाचतुष्टयसङ्क्षेपार्थः, विस्तरार्थस्तु विशेषावश्यकादिग्रन्थादवसेयः, गाथाक्षरार्थस्यैवात्र 10 प्रतिज्ञातत्वादिति ॥ [पृ०८१] तत्र प्रत्यक्षस्य लक्षणमाह अक्खो जीवो अत्थव्वावणभोअणगुणण्णिओ जेण । तं पड़ वट्टइ नाणं, जं पच्चक्खं तमिह तिविहं ॥ १०॥ [विशेषाव०८९ ] व्या० अक्षस्तावज्जीव उच्यते, केन हेतुना ? इत्याह- अत्थव्वावणेत्यादि, अर्थव्यापन - 15 भोजनगुणान्वितो येन तेन अक्षो जीवः । इदमुक्तं भवति - अशू व्याप्तौ [ पा०धा० १५२४] अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीत्युणादिनिपातनादक्षो जीवः । अथवा अश भोजने [पा०धा०१२६५] अश्नाति समस्तत्रिभुवनान्तर्वत्तिनो देवलोकसमृद्ध्यादीनर्थान् पालयति भुङ्क्ते वेति निपातनादक्षो जीवः । अश्नातेर्भोजनार्थत्वाद्भुजेश्च पालना - ऽभ्यवहारार्थत्वादिति भावः । इत्येवमर्थव्यापनभोजनगुणयुक्तत्वेन जीवस्याक्षत्वं सिद्धं भवति, तमक्षं जीवं प्रति साक्षाद् गतमिन्द्रियनिरपेक्षं 20 वर्त्तते यज् ज्ञानं तत् प्रत्यक्षम्, तच्चावधि - मनः पर्याय- केवलज्ञानभेदात् त्रिविधं त्रिप्रकारम्, तस्यैव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति साक्षाद्वर्त्तमानत्वादिति गाथार्थः ||१०|| [पृ०८१] अथ परोक्षज्ञानस्वरूपमाह अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विंदिअमणा परा तेण । ४५ तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥ ११ ॥ [विशेषाव० १०] व्या० यद् यस्माद् द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च अक्षस्य जीवस्य पराणि भिन्नानि वर्त्तन्ते । कथम्भूतानि पुनर्द्रव्येन्द्रिय- द्रव्यमनांसि ? इत्याह- पुद्गलकृतानि पुद्गलस्कन्धनिचयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चेदं विशेषणं द्रष्टव्यम्, पुद्गलकृतत्वाद् येन द्रव्येन्द्रिय- मनांसि जीवस्य परभूतानि 25 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे तेन तेभ्यो यन्मतिश्रुतलक्षणं ज्ञानमुत्पद्यते तत्तस्य साक्षादनुत्पत्तेः परोक्षम्, अनुमानवदिति । इदमुक्तं भवति-अपौद्गलिकत्वादमूर्तो जीवः, पौद्गलिकत्वात्तु मूर्तानि द्रव्येन्द्रिय-मनांसि, अमूर्ताच्च मूर्तं पृथग्भूतम्, ततस्तेभ्यः पौद्गलिकेन्द्रिय-मनोभ्यो यन्मति-श्रुतलक्षणं ज्ञानमुपजायते तद्भूमादेरग्न्यादिज्ञानवत् परनिमित्तत्वात् परोक्षमिह जिनमते परिभाष्यत इति गाथार्थः ॥११॥ 5 पृ०८२] अवधेः क्षायोपशमिके विद्यमानत्वेन सुर-नारकयोर्भवप्रत्ययिकभणितावाक्षेप तत्परिहारं चापि गाथाद्वयेनाह ओही खओवसमिए, भावे भणिओ भवो तहोदइए । ता किह भवपच्चइओ, वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं? ॥१२॥ सो वि हु खओवसमिओ, किंतु स एव खओवसमलाभो । __10 तम्मि सइ होअऽवस्सं, भण्णइ भवपच्चओ तो सो ॥१३॥ विशेषाव० ५७३-५७४] व्या० अवधिः क्षायोमशमिके भावे भवति, भवस्तु औदयिके भावे, तत् कथं भवप्रत्ययिको वक्तुं युक्तोऽवधिः?। दोण्हं ति सुर-नारकाणाम् । इत्यत्राह- सोऽपि सुर-नारकावधिः खओवसमिओ त्ति क्षयोपशमादेव, स च तस्मिन् सुर-नारकभवे सत्यवश्यं भवति, अतोऽसौ 15 सुर-नारकावधिर्भवप्रत्ययो भण्यते ॥१२-१३।। [पृ०८२] ननु कर्मणः क्षयोपशमादयः किं भवादिनिमित्ता भवन्ति ? इत्याहउदय-क्खय-खओवसमोवसमा वि अ जं च कम्मुणो भणिआ । दव्वं खेत्तं कालं, भवं च भावं च संपप्प ॥१४॥ [विशेषाव० ५७५] व्या० यतः सक्-चन्दना-हिविषादिद्रव्यादीनि प्राप्य प्राणिनां सुखदुःखोदयादयस्तीर्थकर20 गणधरैरागमे भणिताः प्रत्यक्षतो दृश्यन्ते च, अतः सुर-नारकाणां तद्भवमपेक्ष्यावधिक्षयोपशमोऽप्यवश्यं भवतीति ॥१४॥ [पृ०८३] द्विभेदं मनःपर्यवज्ञानं गाथाद्वयेनाहरिजु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं, घडमेत्तं चिंतिअं मुणइ ॥१५॥ [विशेषाव० ७८४] व्या० ऋजु सामान्यम्, तन्मात्रग्राहिणी ऋजुमतिः, ऋज्वी प्रायो घटादिसामान्यमात्रग्राहिणी मतिरिति व्युत्पत्तेः, विपुलमत्यपेक्षया किञ्चिदविशुद्धतरं मनःपर्यायज्ञानं प्रायो विशेषविमुखं घटमात्रं चिन्तितं जानाति ॥१५॥ 25 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतिअमणुसरड़ घडं, पसंगओ पज्जयसएहिं ||१६|| [विशेषाव० ७८५] व्या० विपुलं वस्तुनो घटादेर्विशेषणानां देश - क्षेत्र - कालादीनां मानं सङ्ख्यास्वरूपम्, तद्ग्राहिणी विपुलमतिः, चिन्तितमनुस्मरति घटं प्रसङ्गतः पर्यायशतैः सहेति शेषः ॥ १६ ॥ [पृ०८३] मतिज्ञानस्य भेदद्वयमाह - ४७ पुव्वं सुअपरिकम्मिअमइस्स जं संपयं सुआतीतं । तं निस्सिअमिअरं पुण, अणिस्सिअं मइचउक्कं तं ॥ १७॥ [विशेषाव ० १६९ ] व्या० व्यवहारकालात् पूर्वं यथोक्तरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा, तस्य साध्वादेर्यत् साम्प्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षं ज्ञानमुपजायते, तच्छ्रुतनिश्रितमवग्रहादिकं सिद्धान्ते प्रतिपादितम्, इतरत् पुनरश्रुतनिश्रितम्, तच्चौत्पत्तिक्यादि- 10 मतिचतुष्टयं द्रष्टव्यम्, श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात्तस्य ॥१७॥ 5 [पृ०८३] व्यञ्जनावग्रहस्य सदृष्टान्तं व्याख्यानमाह वंजिज्जइ जेणsत्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं । उवगरणिंदियसद्दाइपरिणयद्दव्वसंबंध || १८ || [विशेषाव० १९४ ] व्या० व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थो येन दीपेनेव घटस्तद् व्यञ्जनम्, किं पुनस्तदित्याह - 15 तं चेत्यादि तच्च व्यञ्जनम् उपकरणेन्द्रिय- शब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धः । इन्द्रियं द्विविधम्द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च । तत्र निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् [तत्त्वार्थ० २।१७-१८], निर्वृत्तिश्च द्विधा-अङ्गुलासङ्ख्येयभागादिमाना कदम्बकुसुमगोलक - धान्यमसूर-काहलाक्षुरप्राकारमांसगोलकरूपा शरीराकारा च श्रोत्रादीन्द्रियाणां पञ्चानामपि यथासङ्ख्यमन्तर्निर्वृत्तिः, कर्णशष्कुलिकादिरूपा तु बहिर्निर्वृत्तिः । तत्र कदम्बकुसुमगोलकाकारमांसखण्डादिरूपाया 20 अन्तर्निर्वृत्तेः शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुर्यः शक्तिविशेषः स उपकरणेन्द्रियम्, शब्दादिश्च श्रोत्रादीन्द्रियाणां विषयः, आदिशब्दाद्रस- गन्ध - स्पर्शपरिग्रहः । तद्भावेन परिणतानि च भाषावर्गणादिसम्बन्धीनि द्रव्याणि च शब्दादिपरिणतद्रव्याणि, उपकरणेन्द्रियं च शब्दादिपरिणतद्रव्याणि च तेषां परस्परं सम्बन्धः उपकरणेन्द्रिय- शब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धः, एष तावद् व्यञ्जनमुच्यते । अपरं च इन्द्रियेणाप्यर्थस्य व्यज्यमानत्वात्तदपि व्यञ्जनमभिधीयते, 25 इत्येवमुपलक्षणव्याख्यानात् त्रितयमपि यथोक्तं व्यञ्जनमवगन्तव्यम् । ततश्चेन्द्रियलक्षणेन व्यञ्जनेन व्यञ्जनपरिणतद्रव्यसम्बन्धस्वरूपस्य व्यञ्जनस्यावग्रहो व्यञ्जनावग्रहः । अथवा तेनैव व्यञ्जनेन Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे शब्दादिपरिणतद्रव्यात्मकानां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, इत्युभयत्राप्येकस्य लोपं कृत्वा समास इति गाथार्थः ॥१८॥ [पृ०८४] अत्राक्षेपं परिहारं चाभिधित्सुराहअन्नाणं सो बहिराईणं व तक्कालमणुवलंभाओ । आचार्य:- न तदंते तत्तो च्चिअ, उवलंभाओ तयं नाणं ॥१९॥ [विशेषाव० १९५] व्या० स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानम्, ज्ञानं न भवति, तस्य उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धस्य कालस्तत्कालस्तस्मिन् ज्ञानस्यानुपलम्भात् स्वसंवेदनेनाऽसंवेद्यमानत्वाद् बधिरादीनामिव, यथा हि बधिरादीनामुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिविषयद्रव्यैस्सह सम्बन्धकाले न किमपि ज्ञानमनुभूयते अननुभूयमानत्वाच्च तन्नास्ति तथेहापीति भावः । अत्रोत्तरमाह- न तदंते 10 इत्यादि, नासौ जडरूपतया ज्ञानरूपेणाननुभूयमानत्वादज्ञानम्, किं तर्हि ? तकोऽसौ व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव, कुतः ? तदन्ते तस्य व्यञ्जनावग्रहस्यान्ते तत एव ज्ञानात्मकस्यार्थावग्रहोपलम्भस्य भावात्, तथाहि-यस्य ज्ञानस्यान्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत एव ज्ञानमुपजायते तज्ज्ञानं दृष्टम्, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानत ईहासद्भावादर्थावग्रहो ज्ञानम्, जायते च व्यञ्जनावग्रहस्य पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत एवार्थावग्रहज्ञानम्, तस्माद् व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमिति गाथार्थः ।।१९।। 15 [पृ०८४] अवग्रहेहा-ऽपायान् स्पष्टतया गाथैकया व्याख्यानयति किह पडिकुक्कुडहीणो, जुज्झे बिंबेण वग्गहो ईहा । किं सुसिलिट्ठमवाओ, दप्पणसंकंतबिंब ति ॥२०॥ [विशेषाव० ३०४] व्या० राज्ञा नटकुमारकस्य भरतस्य किल बुद्धिपरीक्षणार्थमादिष्टम्, यदुत अयं मदीयः कुर्कुटो द्वितीयकुर्कुटमन्तरेणैकक एव योधनीयः, ततस्तेन जिज्ञासितं मनसि- कथमयं 20 प्रतिकुर्कुटहीन: प्रतिपक्षभूतद्वितीयकुर्कुटवर्जितो युध्येत ?, एतच्च जिज्ञासमानस्य तस्य झगित्येव स्फुरितं चेतसि, किमित्याह- बिम्बेनेति, आत्मीयेन प्रतिबिम्बेन पुरो वीक्षितेन दर्पाध्यातत्वादयं युध्यत इत्यवगृहीतमित्यर्थः । एतच्च किमित्याह- अवग्रहः, सामान्येनैव बिम्बमात्रावग्रहणादवग्रहो मतिप्रथमभेद इत्यर्थः । ईहा तर्हि का ? इत्याह- ईहा किं सुसिलिट्ठमिति, किं पुनस्तत्प्रतिबिम्बमस्य योधनाय सुश्लिष्टं सुष्ठ युज्यमानकं भवेत् किं तडागपयःपूरादिगत25 माहोश्विद्दर्पणगतम् ? इत्यादि बिम्बविशेषान्वेषणम् ईहा इत्यर्थः । अपायमुपदर्शयति- अवाओ दप्पणसंकंतबिंब ति कल्लोलादिभिः प्रतिक्षणमपनीयमानत्वादस्पष्टत्वाच्च जलादिगतबिम्बमिह न युक्तम्, ततः स्थिरत्वेन स्पष्टादित्वेन च चरणाघातादिविषयत्वाद्दर्पणसङ्क्रान्तमेव तदत्र युज्यत इत्येवं बिम्बविशेषनिश्चयोऽपाय इत्यर्थः । एवमन्येष्वपि बुद्ध्युदाहरणेष्ववग्रहादयो भावनीयास्तस्माद् Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् बुद्धिचतुष्टयेऽप्येषां सद्भावाच्छुतनिश्रितमतिज्ञानसम्बन्धिष्ववग्रहादिगताष्टाविंशतिभेदेष्ववग्रहादिसामान्येन बुद्धिचतुष्टयस्यान्तर्भावो भावनीयः, ततो न युक्तं व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयापगमेन पुनबुद्धिचतुष्टयप्रक्षेपणमिति गाथार्थः ॥२०॥ [पृ०८४] अङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतयोरिदं नानात्वम्, एतद्भेदकारणं किमर्थम् ? आहगणहर १ थेराइकयं २, आएसा मुक्कवागरणओ वा २ १ । 5 धुव १ चल २ विसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥२१॥ [विशेषाव० ५५०] व्या० गणधरा गौतमादयस्तत्कृतं श्रुतं द्वादशाङ्गरूपमङ्गप्रविष्टमुच्यते, स्थविरास्तु भद्रबाहुस्वाम्यादयस्तत्कृतं तु श्रुतमावश्यकनियुक्त्यादिकमनङ्गप्रविष्टम् अङ्गबाह्यमुच्यते । अथवा वारात्रयं गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्य सम्बन्धी यः आदेशः प्रतिवचनम् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाचकं पदत्रयमित्यर्थः, तस्माद्यन्निष्पन्नं तदङ्गप्रविष्टं द्वादशाङ्गमेव । मुक्तं मुत्कलम् अप्रश्नपूर्वकं यद् 10 व्याकरणम् अर्थप्रतिपादनम्, तस्मान्निष्पन्नमङ्गबाह्यमभिधीयते, तच्चाऽऽवश्यकादिकम् । वाशब्दोऽङ्गानङ्गप्रविष्टत्वे पूर्वोक्तभेदकारणादन्यत्वसूचकः । तृतीयं भेदकारणमाह- धुवचलविसेसओ व त्ति ध्रुवं सर्वतीर्थकरतीर्थेषु नियतम् निश्चयभावि श्रुतमङ्गप्रविष्टमुच्यते द्वादशाङ्गमिति, यत् पुनश्चलम् अनियतमनिश्चयभावि तत्तन्दुलवैकालिकप्रकीर्णकादिश्रुतमङ्गबाह्यम् । वाशब्दोऽत्रापि भेदकारणान्तरत्वसूचकः, इदमुक्तं भवति-गणधरकृतं पदत्रयलक्षणतीर्थकरादेशनिष्पन्नं ध्रुवं च 15 यच्छ्रुतं तदङ्गप्रविष्टमुच्यते, तच्च द्वादशाङ्गीरूपमेव, यत् पुनः स्थविरकृतं मुत्कलार्थाभिधानं चलं च तदावश्यक-प्रकीर्णकादिश्रुतमङ्गबाह्यमिति ।।२१।। [पृ०८४] आवश्यकशब्दार्थमेव स्पष्टयतिसमणेण सावएण य, अवस्स कायव्वं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥२२॥ [विशेषाव० ८७३] 20 व्या० श्रमणादिभिरहोरात्रमध्ये अवश्यं करणादावश्यकमितीह तात्पर्यमिति ॥२२।। [पृ०८५] सुत्तशब्दस्य निरुक्तेन सार्द्धगाथया नानार्थताम् अर्द्धगाथया च अर्थशब्दनिरुक्तमाह सिंचइ खरइ जमत्थं, जम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा वा । सूएइ सवइ सुव्वइ, सिव्वइ सरए व जेणऽत्थं ॥२३॥ [विशेषाव० १३६८] 25 व्या० षिच क्षरणे [पा०धा० १४३५], सिञ्चति क्षरति यस्मादस्तितो निरुक्तविधिना सूत्रम्, श्रूयत इति वा सूत्रम्, सीव्यते विशिष्टघटनामानीयत इति वा सूत्रम्, सरति वाऽर्थमनुगच्छति यस्मात्तत: सूत्रमिति ॥२३॥ तथा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५० अविवरिअं सुत्तं पिव, सुट्ठिअ - वावित्तओ व सुत्तं ति । जो सुत्ताभिप्पाओ, सो अत्थो अज्जए जम्हा ||२४|| [विशेषाव० १३६९] व्या० अर्थव्याख्यानतो यावदद्यापि अविवृतं तावत् सूत्रं सुप्तमिव सुप्तम् उच्यते, प्राकृतशैल्या च सुत्तमिति, अथवा सुस्थितत्वात् प्रमाणाबाधितत्वाद् व्यापित्वाच्च सूक्तम्, 5 प्राकृतत्वादेव च सुत्तं । अर्थशब्दस्यार्थमाह-यः सूत्राभिप्रायः सोऽर्थोऽभिधीयते, यस्मादर्यते अधिगम्यते अर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरत्यर्थो व्याख्यानमित्यर्थः ||२४| [पृ० ८७] 'कोहाइ संपराओ तेण जुओ संपरीति संसारं । [ विशेषाव० १२७७] “क्रोधादिः कषायवर्गः सम्पराय उच्यते, कुत इत्याह- यत: सम्परैति पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः ।” इति विशेषाव० मल० ॥ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे 20 [पृ०८९] षट् पर्याप्तीर्नामत आह आहार १ सरीरिं २ दिय ३ पज्जत्ती आणपाण ४ भास ५ मणे ६ । चत्तारि पंच छप्पिअ, एगिंदिअ - विगल - सन्नीणं ॥ २५ ॥ [सङ्ग्रहणी ३६३, प्राचीनकर्मग्रन्थे ११३६, जीवसमासे २५, प्रवचनसारो० १३१७] व्या० आहारशरीरेन्द्रियाणि पर्याप्तयः, आनपान - भाषा - मनांसि च चतस्रः पञ्च षट् च 15 यथाक्रममेकेन्द्रिय-विकल - सञ्ज्ञिनामिति । इयं गाथा वृत्तिकृता विस्तरतया व्याख्याताऽस्तीति नाममात्रमेवात्रोक्तम् ॥ २५॥ [पृ०९०] पृथिव्यादीनामचित्ततामाचीर्णानाचीर्णतामेतदचित्तादिप्रयोजनं च साधूनां गाथासार्द्धत्रयेणाह जो अणसयं तु गंताऽणाहारेणं तु भंडसंकंती | २ वायागणिधूमेण य, विद्धत्थं होइ लोणाई ||२६|| [ बृहत्कल्पभा० ९७३] व्या० लवणादिकं स्वस्थानाद् गच्छत् प्रतिदिवसं बहुबहुतरादिक्रमेण विध्वस्यमानं योजनशतात् परतो गत्वा सर्वथैव विध्वस्तम् अचित्तं भवति । आह- शस्त्राभावे योजनशतगमनमात्रेणैव कथमचित्तीभवति ? इत्याह- अनाहारेण, यस्य यदुत्पत्तिदेशादिकं साधारणं तत्तो व्यवच्छिन्नं स्वोपष्टम्भकाहारव्यवच्छेदाद्विध्वस्यते, तच्च लवणादिकं भाण्डसङ्क्रान्त्या पूर्वस्माद्भाज25 नादपरापरभाजनेषु यद्वा पूर्वस्या भाण्डशालाया अपरस्यां भाण्डशालायां सङ्क्रम्यमाणं विध्वस्यते, · तथा वातेन वा अग्निना वा महानसादौ धूमेन वा लवणादिकं विध्वस्तं भवति ॥२६॥ लोणाई इत्यत्रादिशब्दादमी द्रष्टव्याः हरिआल मणोसिल पिप्पली अ खज्जूर मुद्दिआ अभया । आइण्णमणाइण्णा, ते वि हु एमेव णायव्वा ||२७|| [बृहत्कल्पभा० ९७४] १. इदं गाथात्रयं निशीथभाष्ये ४८३३-४८३४-४८३५ प्रवचनसारोद्धारे चापि १००१-१००२-१००३ वर्तते । २. यत्र बृहत्कल्पभाष्याद् गाथा उद्धृताः तत्र बृहत्कल्पभाष्यस्य क्षेमकीर्तिसूरिविरचिता टीकात्र सर्वत्रान् ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् व्या० हरितालं मनःशिला पिप्पली च खर्जूरः, एते प्रतीताः, मुद्रिका द्राक्षा, अभया हरीतकी, एतेऽप्येवमेव लवणवद्योजनशतगमनादिभिरचित्तीभवन्तो ज्ञातव्याः, परमेके अत्राचीर्णा अपरेऽनाचीर्णास्तत्र पिप्पली - हरीतकीप्रभृतय आचीर्णा इति कृत्वा गृह्यन्ते, खर्जूर- मुद्रिकादयः पुनरनाचीर्णा इति न गृह्यन्ते ||२७|| अथ सर्वेषां सामान्येन परिणमनकारणमाह आरुहणे ओरुहणे, निसिअण गोणाइणं च गाउम्हा । भूमाहारच्छेए, उवक्कमेणेव परिणामो ||२८|| [बृहत्कल्पभा० ९७५] व्या० आरुहणे ओरुहणे इति, शकटे गवादिपृष्ठेषु च लवणादीनां यद्भूयो भूय आरोहणमवरोहणं च, तथा यत्तस्मिन् शकटादौ लवणादिभरोपरि मनुष्या निषीदन्ति, तेषां गवादीनां च यः कोऽपि पृष्ठादिगात्रोष्मा, तेन च परिणामो भवति । तथा यो यस्य भौमादिकः 10 पृथिव्यादिक आहारस्तद्व्यवच्छेदे तस्य परिणाम उपक्रमः शस्त्रम्, उपक्रम्यन्ते जीवानामायूंषि अनेनेति व्युत्पत्तेः तच्च शस्त्रं त्रिधा - स्वकायशस्त्रं परकायशस्त्रं तदुभयशस्त्रं चेति । तत्र स्वकायशस्त्रं यथा— लवणोदकं मधुरोदकस्य कृष्णभूमं वा पाण्डुभूमस्येति, परकायशस्त्रं यथाअग्निरुदकस्य उदकं चाग्नेरिति, तदुभयशस्त्रं यथा— उदकमृत्तिका शुद्धोदकस्येत्यादि, एवमादीनि सचित्तवस्तूनां परिणमनकारणानि मन्तव्यानि । , ५१ 15 [पृ०९०] घुट्टगडगलगलेवो, एमाइ पयोअणं बहुसो [ ओघनि. ३४२] || गाथार्द्धम् । घुट्टकोऽमत्रादिमसृणकारः, डगलका लेष्टवः, पुतादिनिर्लेपनार्थाः, लेपद्रव्यादिप्रयोजनानि बहूनि अचित्तपृथिव्यां साधूनामिति ॥२८॥ [पृ०९५] पावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णए [पृ०९४] पुव्वामुहो उ उत्तरमुहो व देज्जाऽहवा पडिच्छेजा । जीए जिणादओ वा, हवेज जिणचेइआइं वा ॥२९॥ [तुला - पञ्चव. १३१] 20 व्या० सुगमैव, नवरं पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा दद्याद् गुरुरथवा प्रतीच्छेच्छिष्यो यस्यां जिनादयो वा, जिना: मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिसम्पन्नाश्चतुर्दशपूर्वधरा नवमपूर्वधराश्च निचैत्यानि वा यस्यां दिशि आसन्नानि, तदभिमुखो वा दद्यादथवा प्रतीच्छेदिति गाथार्थः ||२९|| प्रायश्चित्तशब्दं व्याख्यानयन् व्यवहारकृदाह 5 1 पाएण वावि चित्तं, विसोहते तेण पच्छित्तं ॥३०॥ [ व्यवहारपीठिका. ३५] १. घट्टकः - पाषाणकः येन पात्रकं लेपितं सद् घृष्यते इति ओघनिर्युक्तिवृत्तौ ॥ २. जेण... तेणं- व्यवहारभाष्ये ॥ 25 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे __व्या० यस्माच्छोधिरूपो व्यवहारोऽपराधसञ्चितं पापं छिनत्ति विनाशयति, तेन कारणेन स प्रायश्चित्तं भण्यते, पृषोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः, अथवा प्रायेण प्रायोऽपराधमलिनं चित्तं जीवम्, अत्र चित्तशब्देन चित्त-चित्तवतोरभेदोपचाराज्जीवोऽभिधीयते, तथा चाह चूर्णिकृत्चित्त इति जीवस्याख्ये ति । विशोधयत्यपराधमलरहितं करोति, तेन कारणेन प्रायश्चित्तम्, प्रायः 5 प्रायेण चित्तं यथावस्थितं भवत्यस्मादिति प्रायश्चित्तमिति व्युत्पत्तेः, वैयाकरणाभियुक्तास्तु प्रायश्चित्तशब्दस्यैवं व्युत्पत्तिं कुर्वन्ति, यदाह श्री रामस्वामी- प्रायो विनाशः, चित्तं सन्धानम्, विनष्टस्य सन्धानं प्रायश्चित्तमिति । प्रायस्य चितिचित्तयोरिति पारस्करादिपाठात् सुट् । तथा शोधनमपि प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् । तथा निश्चयमपि प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते । ___ 10 तपो निश्चयसंयुक्तं, प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः ॥१॥ [मनुस्मृति ११।४७] । इति द्विस्थानकप्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणं समाप्तम् ॥१॥ [अथ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ।] [पृ०१०७ पं०७] अथैतद्व्याख्यानाय भाष्यम्15 पुढे रेणुं व तणुम्मि, बद्धमप्पीकयं पएसेहिं । छिक्काई चिअ गिण्हइ, सद्ददव्वाइं जं ताई ॥१॥ बहुसुहुमभावुगाई, जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । गंधाईदव्वाइं, विवरीआई जओ ताई ॥२१॥ फरिसाणंतरमत्तप्पएसमीसीकयाई घेप्पंति । 20 पडुअरविण्णाणाई, जं च न घाणाइकरणाई ॥३॥ [विशेषाव० ३३७-३३९] व्या० स्पृष्टमित्यस्य व्याख्यानं पुढे रेणुं व तणुम्मि त्ति, यथा रेणोस्तनौ सम्बन्ध इत्येतावन्मात्रेण यद्वस्तु सम्बद्धं तदिह स्पृष्टमुच्यते इति भावः । बद्धमित्यादि, यदात्मीकृतम् आत्मना गाढतरमागृहीतम्, आत्मप्रदेशस्तनुलग्नतोयवन्मिश्रीकृतं तद् बद्धमुच्यत इत्यर्थः । तत्र छिक्काइं चिअ त्ति स्पृष्टान्येव शब्दद्रव्याणि गृह्णाति श्रोत्रम्, यतस्तानि बहूनि सूक्ष्माणि भावुकानि १. यत्र यत्र व्यवहारभाष्यसत्का गाथा उद्धृताः तत्र सर्वत्र मलयगिरिसूरिविरचिता व्यवहारभाष्यवृत्तिरनुसन्धेया । २. पाणिनीयव्याकरणे "पारस्करप्रभृतीनि च” इति ६११५७ सूत्रं द्रष्टव्यम् ।। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानकें तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् वासकानि चेत्यर्थः । पटुतरं च श्रोत्रविज्ञानम्, गन्धादिद्रव्याणि तु विपरीतानि - स्तोक - बादराऽभावुकानि यतोऽतस्तानि स्पर्शानन्तरमात्मप्रदेशैर्मिश्रीकृतानि स्पृष्टबद्धानि गृह्यन्ते घ्राणादिभिः, पटुतरविज्ञानानि च न भवन्ति, यतो घ्राणादिकरणानीति गाथात्रयार्थः । यद्यपि परमगुरुभिः श्रीमदभयदेवसूरिभिर्गाथार्द्धमेव लिखितम्, परमावाभ्यां गाथात्रयं विशेषावश्यकभाष्याल्लिखितम् 11311 ५३ [पृ०१०७] पुढं सुणेइ सद्दं, रूवं पुण पासइ अपुट्ठे तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुट्ठे विआगरे ॥४॥ [विशेषाव० ३३६ ] व्या० श्रोत्रेन्द्रियं कर्त्तृ शब्दं कर्मतापन्नं शृणोति । कथम्भूतम् ? इत्याह-स्पृश्यत इति स्पृष्टस्तं स्पृष्टं तनौ रेणुवदालिङ्गितमात्रमेवेत्यर्थः । इदमुक्तं भवति - स्पृष्टमात्राण्येव शब्दद्रव्याणि श्रोत्रमुपलभते, यतो घ्राणेन्द्रियादिविषयभूतद्रव्येभ्यस्तानि सूक्ष्माणि बहूनि भावुकानि च, पटुतरं 10 च श्रोत्रेन्द्रियं विषयपरिच्छेदे घ्राणेन्द्रियादिगणादिति । श्रोत्रेन्द्रियस्य चेह कर्त्तृत्वं शब्दश्रवणान्यथाऽनुपपत्तेर्लभ्यते, एवं घ्राणेन्द्रियादिष्वपि वाच्यम् । तानि पुनः कथं गन्धादिकं गृह्णन्तीत्याह-गन्ध्यत इति गन्धः, तमुपलभते घ्राणेन्द्रियम्, रस्यत इति रसस्तं च गृह्णाति रसनेन्द्रियम्, स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं च जानाति स्पर्शनेन्द्रियम् । कथम्भूतं गन्धादिकम् ? इत्याहबद्धस्पृष्टम्, तत्र स्पृष्टमिति पूर्ववदेव, बद्धं तु गाढतरमाश्लिष्टम्, आत्मप्रदेशैस्तोयवदात्मीकृत- 15 मित्यर्थः । ततश्च गन्धादिद्रव्यसमूहं प्रथमं स्पृष्टम् आलिङ्गितम्, ततश्च स्पर्शनानन्तरं बद्धम् आत्मप्रदेशैर्गाढतरमागृहीतमेवोपलभते घ्राणेन्द्रियादिकम्, इत्येवं व्यागृणीयात् प्ररूपयेत् प्रज्ञापकः, यतो घ्राणेन्द्रियादिविषयभूतानि गन्धादिद्रव्याणि शब्दद्रव्यापेक्षया स्तोकानि बादराण्यभावुक च, विषयपरिच्छेदे श्रोत्रापेक्षयाऽपटूनि च घ्राणादीनि, अतो बद्धस्पृष्टमेव गन्धादिद्रव्यसमूहं गृह्णन्ति, न पुनः स्पृष्टमात्रमिति भावः । ननु यदि स्पर्शनानन्तरं बद्धं गृह्णाति तर्हि पुट्ठबद्धमिति पाठो युक्त इति चेदुच्यतेविचित्रत्वात् सूत्रगतेरित्थं निर्देशः, अर्थतस्तु यथा त्वयोक्तं तथैव तद् द्रष्टव्यम् । अपरस्त्वाहयद् बद्धं तत् स्पृष्टं भवत्येव, विशेषबन्धे सामान्यबन्धस्यान्तर्भावात् ततः किं स्पृष्टग्रहणेनेति, तदयुक्तम्, सकलश्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्य प्रपञ्चितज्ञाऽनुग्रहार्थमर्थापत्तिगम्यार्थाभिधानेऽप्यदोषादिति । चक्षुरिन्द्रियं त्वप्राप्तमेव विषयं गृह्णातीत्याह - रूवं पुण पास अपुट्ठे 25 तु इति, रूपं कर्मतापन्नं चक्षुरस्पृष्टमप्राप्तमेव पश्यति, पुनः शब्दस्य विशेषणार्थत्वादस्पृष्टमपि योग्यदेशस्थमेव पश्यति, नायोग्यदेशस्थं सौधर्मादि कट-कुटयादिव्यवहितं वा घटादीति । [पृ०१०८ पं०७] अष्टविधं ज्ञानाचारमाह 5 20 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे काले १ विणए २ बहुमाणु ३ वहाणे ४ तहा अनिन्हवणे ५ । वंजण ६ अत्थ ७ तदुभए ८, अट्ठविहो नाणमायारो ॥५॥ [प्रवचनसारो० २६७, पञ्चाशक० १५।२३, दशवै० नि० १८४, निशीथ० ८] व्या० काले कालविषये, ज्ञानाचारो भवतीति सर्वत्र सम्बन्धः, तत्र यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः 5 श्रुतस्य काल उक्तस्तस्य तस्मिन्नेव स्वाध्यायः कार्यः, नान्यदा, प्रत्यवायसम्भवात्, दृश्यते च लोकेऽपि कृष्यादेः कालकरणे फलम्, विपर्यये तु विपर्यय इति, यत उक्तम् कालम्मि कीरमाणं, किसिकम्मं बहुफलं जहा भणियं । इय सव्व च्चिय किरिया, नियनियकालम्मि कायव्वा ॥१॥ [पञ्चाशक० ४।४] इति। विणए त्ति विनये विनयविषये ज्ञानस्य ज्ञानिनां ज्ञानसाधनानां च पुस्तकादीनामुपचाररूपः, 10 यतो विनयेनाऽऽसनदाना-ऽऽदेशकरणादिना पठनीयम्, न पुनरविनयेनाऽऽसनदानाद्यकरणेन ।२। तथा बहुमाणे बहुमान: प्रीतिस्तद्विषये, यतो बहुमानेनैवान्तरचित्तप्रमोदलक्षणेन पठनादि विधेयम्, न पुनर्बहुमानाभावेन ।३। तथा उवहाणे त्ति उप समीपेऽधीयते क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानं तपोविशेषस्तद्विषये, यद्यस्य अध्ययनोद्देशकादेस्तप उक्तं तत्तपः कृत्वैव तस्य पाठादिकं विधेयम्, नान्यथेति ।४। तथा अनिह्नवणे त्ति, तथाशब्दः समुच्चये, निह्नवनम् अपलपनम्, 15 न निह्नवनम् अनिह्नवनम्, तद्विषये, यतोऽनिह्नवेनैव पाठादि सूत्रे विधेयम्, न पुनर्मानादिवशादात्मनो लाघवाद्याशङ्कया श्रुतगुरूणां श्रुतस्य चापलापेनेति ।५। तथा वंजणअत्थतदुभए इति, व्यञ्जनानि ककारादीनि, अर्थोऽभिधेयम्, तदुभयं च व्यञ्जनार्थयोरुभयम्, ततः समाहारद्वन्द्वस्तद्विषये, कोऽर्थः ? व्यञ्जनविषये अर्थविषये तदुभयविषये च ज्ञानाचारत्रयं भवति, एतत्त्रयानन्यथाकरणेन सम्यगुपयोगेन च ततः सूत्रादि पठनीयम्, नान्यथा । अत्र व्यञ्जनग्रहणमुपलक्षणम्, स्वरा अपि द्रष्टव्याः । 20 एवमष्टविधोऽष्टप्रकारो ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्याचारो ज्ञानाराधनतत्पराणां व्यवहार इति ॥५॥ अथ दर्शनाचारभेदानाह - निस्संकिय १ निक्कंखिय २, निवितिगिच्छा ३ अमूढदिट्ठी ४ य । उववूह ५ थिरीकरणे ६, वच्छल्ल ७ पभावणे ८ अट्ठ ॥६॥ - [पञ्चाशक० १५।२४, प्रवचनसारो० २६८,दशवै०नि० १८२, निशीथ० २३] व्या० शङ्कितं शङ्का सन्देहस्तस्याभावो निःशङ्कितम्, दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य आचार इति, एवमन्यत्रापि ।१। तथा काक्षितं काङ्क्षा अन्यान्यदर्शनग्रहस्तदभावो निष्काक्षितम् ।२। तथा 25 १. विनयविषयः विनय एव वा-इति पञ्चाशकवृत्तौ ॥ २. ध्रियते-इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। ३. सूत्रादेर्विइति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। ४. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा. २६८ ।। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ५५ विचिकित्सा मतिविभ्रमः युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहस्तदभावो निर्विचिकित्सम्, यद्वा विद्वज्जुगुप्सा मलमलिना एते इत्यादि साधुजुगुप्सा, तदभावो निर्विद्वज्जुगुप्सम्, तत एषां द्वन्द्वः, पुल्लिँङ्गनिर्देशश्च प्राकृतत्वात् ।३। तथा अमूढा तपो-विद्याऽतिशयादिकुतीर्थिकर्द्धिदर्शनेऽप्यमोहसद्भावादविचलता, सा च सा दृष्टिश्च सम्यग्दर्शनम् अमूढदृष्टिः । अथवा निर्गताः शङ्कितादिभ्यो ये ते निःशङ्कित-निष्काक्षित-निर्विचिकित्सा जीवाः । अमूढा दृष्टिरस्येत्येवममूढ- 5 दृष्टिश्च जीव एव, तत एते धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् दर्शनाचारभेदा भवन्तीति ।४। तथा उपबृंहणम् उपबृंहा समानधार्मिकाणां क्षामणा-वैयावृत्यादिसद्गुणप्रशंसनेन तत्तद्गुणवृद्धिकरणम् । स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां तत्रैव चारुवचनचातुर्यादवस्थापनम्, उपबृंहा च स्थिरीकरणं च उपबृंहास्थिरीकरणे ।५-६। तथा वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यं समानदेवगुरुधर्माणां भोजन-निवसन-दानोपकारादिभिस्सम्माननम्, प्रभावना धर्मकथा प्रतिवादिनिर्जय-दुष्करतपश्चरण- 10 करणादिभिर्जिनप्रवचनप्रकाशनम् । यद्यपि च प्रवचनं शाश्वतत्वात्तीर्थकरभाषितत्वाद्वा सुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा स्वयमेव दीप्यते, तथापि दर्शनशुद्धिमात्मनोऽभीप्सुर्यो येन गुणेनाधिकः स तेन तत् प्रवचनं प्रभावयति, यथा-भगवदार्यवज्रस्वामिप्रभृतिक इति । एतेऽष्टौ दर्शनाचाराः, साम्प्रतं चारित्राचारानाह पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं ।। एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥७॥ [पञ्चाशक०१५।२५,प्रवचनसारो०२६९] व्या० प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यम्, तत्प्रधाना योगा व्यापारा: प्रणिधानयोगास्तैर्युक्तः समन्वितो यः साधुः पञ्चभिः समितिभिस्तिसृभिर्गुप्तिभिः कृत्वा, अथवा सुपां सुपो भवन्ती [ ]ति वचनात् सप्तम्यर्थे तृतीया, ततः पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु विषये एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो यः स एष चरणाचार आचाराचारवतोः कथञ्चिदभेदादिति यो जीव 20 इति शेषः । एष चरित्राचारोऽष्टविधो भवतीति ज्ञातव्यः ॥७॥ नोचारित्राचारस्तपआचारप्रभृतिः, तत्र तपआचारो द्वादशधा, उक्तं च बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिढे । अगिलाए अणाजीवी, नायव्वो सो तवायारो ॥८॥ [पञ्चाशक० १५।२६] व्या० द्वादशविधे द्वादशप्रकारे तपसि आभ्यन्तरबार्बी, षडाभ्यन्तरं तपःपायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो वि अ अभिंतरो तवो होइ ॥ [दशवै०नि० ४८, प्रवचनसारो०२७१] 15 25 १. चाटु-इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। २. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिःगा. २६९ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे षड् बाह्यं तपःअणसणमूणोअरिआ, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥ [दशवै०नि० ४७, प्रवचनसारो०२७०] कथम्भूते तपसि ? कुशलदृष्टे, कुशला: पण्डितास्तैर्दृष्टे, अग्लान्या ग्लानिं वर्जयित्वा 5 अनाजीवी आजीवो जीवनं वार्ता [अभिधान० ८६५] इत्यभिधानकोशाद् आजीवा आजीविका, न आजीवो यस्यास्ति अनाजीवी यस्य तपसा आजीविका नास्ति, बहव आजीविकानिमित्तं तपः कुर्वन्ति सिंधजीवत्, तत् तपस्तपआचारो न भवति, किन्तु आजीविकादिकारणं विना ग्लानिवर्जितो द्वादशविधं तपः करोति स तपआचारो विज्ञेयः ॥८॥ वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनं तदनतिक्रमश्चेति, उक्तं च10 अणिगूहिअबलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । झुंजइ अ जहाथाम, नायव्वो वीरिआयारो ॥९॥ [पञ्चाशक०१५।२७] व्या० अगोपितस्वशक्तिस्तपोवैयावृत्यकरणादौ यो यस्यातिचारस्तं प्रतिक्रामेत्, यत् यथास्थानं तत्तथास्थानं युनक्ति, अत्र यत् पातकं यथा कृतं तत् प्रायश्चितविशुद्ध्या तपो-मूल-पाराञ्चिकादिभिः शोधयतीत्यर्थः । इति वीर्याचारो ज्ञातव्यः ॥९॥ 15 [पृ०११३] निरुपक्रमायुष्मत आह देवा नेरइआ वि अ, असंखवासाउआ य तिरिमणुआ । उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा य निरुवक्कमा ॥१०॥ व्या० देवाश्चतुर्निकायिकाः, नैरयिका नारकाः, असङ्ख्यवर्षायुष्का नर-तिर्यञ्चो युगलिन इत्यर्थः, उत्तमपुरुषाश्चरमशरीराश्च निरुपक्रमाः सप्तभिरप्युपक्रमैस्तेषामायुषोऽनुपक्रमणात् ॥१०॥ 20 [पृ०११४] भरतादिक्षेत्राणां नामानि सार्थकानि विवृण्वन्नाह भरहं हेमवयं ति अ, हरिवासं ति अ महाविदेहं ति । रम्मयमेन्नवयं, एरवयं चेव वासाइं ॥११॥ [बृहत्क्षेत्रसमासे २३] व्या० भरतं हैमवतम्, इतिशब्दो नाम स्वरूपमात्रप्रदर्शने, चः समुच्चये, हरिवर्षं महाविदेहं रम्यकं हैरण्यवतम् एरावतमिति वर्षाणि । अमूनि च वर्षाणि प्रज्ञापकापेक्षया क्रमेण व्यवस्थितानि, 25 तद्यथा-इदं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं भरतक्षेत्रम्, तत उत्तरत एतदनन्तरं हैमवतं क्षेत्रम्, ततः परं हरिवर्षम्, ततोऽप्यनन्तरं महाविदेहक्षेत्रम्, तदनन्तरं रम्यकम्, ततः परं हैरण्यवतम्, ततोऽपि पर्यन्ते एरावतमिति । १. हेरन्नवयं एरा-इति बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ २. यत्र यत्र बृहत्क्षेत्रसमासगाथाया विवरणं तत्र प्रायः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितबृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तेरनुसन्धानं कर्तव्यम् ।। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् स्यादेतत्-अमूनि भरतादीनि नामानि क्षेत्राणां प्रवृत्तानि किञ्चिन्निमित्तमपेक्ष्याहोश्विद्यथा कथञ्चित् ?, उच्यते-किञ्चिन्निमित्तमपेक्ष्य, तथाहि- अस्मिन् क्षेत्रे भरतनामा देवः पल्योपमस्थितिको महाद्युतिबलविभवसम्पन्न आधिपत्यं परिपालयति, ततस्तद्योगादिदं भरतमिति व्यपदिश्यते । यश्चास्य भरतक्षेत्रस्याधिपतिरुत्पद्यते देवः तत्सम्बन्धिभिरिन्द्रसामानिकैर्देवैर्भरतो भरत इति गीयते तत्स्थितिप्रतिपादके कल्पपुस्तकेऽभिधानात् ततो भरतदेवयोगत: प्रवाहतोऽनादिसन्ततिपतितं 5 भरतमिति नामास्य क्षेत्रस्य । न चैतदनार्षम्, यत उक्तमागमे- से केणऽटेणं भंते ! भरहे वासे २ इति ?। गोअमा ! भरहे देवे महड्डिए महजुइए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से एएणऽटेणं गोअमा ! एवं वुच्चइ भरहे वासे भरहे वासे [जम्बूद्वीपप्र० ३५४,१२६] इति । तथा हिमवतोरिदं हैमवतम्, तथाहि-क्षुल्लहिमवतो महाहिमवतश्चापान्तराले तत् क्षेत्रम्, ततो द्वाभ्यामपि ताभ्यां यथाक्रमम् उभयोर्दक्षिणोत्तररूपयोः पार्श्वयोः कृतसीमापर्यन्तमिति भवति तयोः सम्बन्धि, यदिवा 10 हेम सुवर्णम्, तज्जनेभ्य आसनप्रदानादितया प्रयच्छति, अथवा दर्शनमनोहारितया सततं जनेभ्यो हेम प्रकाशयति, तथाहि-बहवस्तत्र युगलधार्मिकाणां मनुष्याणाम् उपवेशन-शयनादिरूपोपभोगयोग्या: कनकमयाः शिलापट्टकाः सन्ति पश्यन्ति च ते युगलधार्मिकास्तत्र तत्र प्रदेशे मनोहारिणो हेममयान् निवेशान्, ततो हेम प्रभूतं प्रशस्यं नित्ययोगि वा अस्यास्तीति हेमवत्, हेमवदेव वा हैमवतं, इति प्रज्ञादेराकृतिगणतया प्रज्ञादिभ्यः [पा० ५।४।३८] इति स्वार्थेऽण् प्रत्ययः, शेष 15 पूर्ववत् आलापकपर्यन्तं सर्वत्र वाच्यम्, नवरं क्षेत्रनाम्ना देवो वाच्यः । तथा हरिशब्देन सूर्य उच्यते शीतांशुश्च, तत्र केचिन्मनुष्या हरिरिव सूर्य इव अरुणाभासाः केचित् पुनर्हरिरिव शीतांशुरिव श्वेताः शङ्खदलसन्निकाशाः, ततस्तद्योगात् क्षेत्रं हरय इति व्यपदिश्यते, हरयश्च तद्वर्षं च हरिवर्षम्, शेषं पूर्ववत् । विशेषस्तूच्यते- यदा च मनुष्ययोगाद् हरिशब्दः क्षेत्रे वर्त्तते तदा स्वभावाद् बहुवचनान्तः, यदाह तत्त्वार्थमूलटीकाकृद् गन्धहस्ती- 20 हरयो विदेहाश्च पञ्चालादितुल्या: [तत्त्वार्थसिद्ध० ३।१०] इति ।। ___ तथा महान् अतिशयेन विकृष्टो गरीयान् देहः शरीरमाभोग इति यावत्, येषां ते महाविदेहाः, तथाहि-भरतैरावत-हैमवत-हैरण्यवत-हरिवर्ष-रम्यकवर्षापेक्षया महान्तावस्य क्षेत्रस्यायामविष्कम्भौ। प्रतीतश्चायमर्थः प्रवचनवेदिनाम्, तत् क्षेत्रं महाविदेहाः । अथवा महान् अतिशयेन विकृष्टो गरीयान् देहः शरीरं कलेवरं येषां ते महाविदेहास्तत्रत्या मनुष्याः, तथाहि- तत्र विजयेषु सर्वेष्वपि 25 सर्वदैव पञ्चधनु:शतप्रमाणोच्छ्रया देवकुरूत्तरकुरुषु तु त्रिगव्यूतोच्छ्रया मनुष्यास्ततो महाविदेहमनुष्ययोगात्तदपि क्षेत्रं महाविदेहाः । महाविदेहशब्दश्च स्वभावाद्बहुवचनान्तः एतच्च प्रागेवोक्तम्, ततो बहुवचनेन व्यवह्रियते, दृश्यते क्वचिदेकवचनान्तोऽपि, तदपि प्रमाणम्, पूर्वमहर्षिभिस्तथा प्रयोगकरणात्, शेषं पूर्ववत् । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे __ तथा रम्यते क्रीड्यते नानाविधैः कल्पपादपैः सुवर्णमणिखचितैश्च तैस्तैः प्रदेशैरतिरमणीयतया रतिविषयतां नीयत इति रम्यम्, रम्यमेव रम्यकम्, शेषं पूर्ववत् । तथा रुक्मी शिखरी च, एतौ द्वावपि पर्वतौ यथाक्रमं रूप्य-सुवर्णमयौ, यच्च यन्मयं तत्र तद्विद्यते, हिरण्यं सुवर्णमिति चानान्तरम्, ततो हिरण्यं सुवर्णं विद्यते यस्यासौ हिरण्यवान् शिखरी पर्वतस्तस्येदं हैरण्यवतम्, 5 तथाहि- तद् द्वाभ्यामपि रुक्मिशिखरिभ्यां पर्वताभ्यां यथाक्रममुभयोर्दक्षिणोत्तररूपयोः पार्श्वयोः कृतसीमाकम्, ततो भवति हिरण्यवतः शिखरिणोऽपि सम्बन्धीति हैरण्यवतम्, यदिवा हिरण्यं जनेभ्य आसनप्रदानादितया प्रयच्छति, अथवा दर्शनमनोहारितया तत्र प्रदेशे हिरण्यं जनेभ्यः प्रकाशयति, तथाहि- बहवस्तत्र मिथुनकमनुष्याणामुपवेशन-शयनादिरूपोपभोगयोग्याः कनकमयाः शिलापट्टकाः सन्ति । पश्यन्ति च ते मिथुनकमनुष्यास्तत्र प्रदेशे मनोहारिणो हिरण्यमयान्निवेशान्, 10 ततो हिरण्यं प्रशस्यं नित्ययोगि चास्यास्तीति हिरण्यवत्, हिरण्यवदेव हैरण्यवतम्, स्वार्थेऽण्प्रत्ययः, शेषं पूर्ववत् । तथा ऐरावते क्षेत्रे ऐरावतनामा देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तद्योगादैरावतमपि तत् प्रसिद्धम् । से केणऽटेणमिति पूर्ववत् ॥११॥ [पृ०११४] वर्षधरपर्वतानां यथार्थानि नामानि विवृण्वन्नाह हिमवंत १ महाहिमवंत २, पव्वया निसढ ३ नीलवंता ४ य । 15 रुप्पी ५ सिहरी ६ एए, वासहरगिरी मुणेयव्वा ॥१२॥ [बृहत्क्षेत्रस० २४] व्या० एते गाथायामुपन्यस्ता वर्षधराः वर्षधररूपा गिरयः पर्वता ज्ञातव्याः, कस्कः? इत्याह-हिमवान् पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् क्षुल्लहिमवान् महाहिमवान् निषधो नीलवान् रुक्मी शिखरी, एते च षडपि वर्षधरपर्वताः प्रज्ञापकापेक्षया क्रमेण व्यवस्थिता वेदितव्याः, तथाहि एतत्क्षेत्रनिवासिनं प्रज्ञापकमपेक्ष्योत्तरतः प्रथमो वर्षधरः क्षुल्लहिमवान्, तदनन्तरं महाहिमवान्, 20 ततो निषधः, तदनन्तरं नीलवान्, ततो रुक्मी, ततः परं शिखरी । सम्प्रति नाम्नां यथार्थता भाव्यते- तत्राद्ये वर्षधरे पर्वते महाहिमवन्तमचलं प्रणिधाय विष्कम्भायामोद्वेधोच्चस्त्वपरिरयाः क्षुल्लास्तेन क्षुल्लहिमवान्, यदिवेति पूर्ववत् । तथा क्षुल्लहिमवन्नामानं प्रथमं वर्षधरमपेक्ष्य द्वितीये वर्षधरपर्वते आयाम-विष्कम्भोद्वेधोच्चस्त्व-परिरया अतीव महत्तरा इति महाहिमवान्, अग्रे पूर्ववक्तव्यतैव । 25 तथा नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो वृषभः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तत्र तृतीये वर्षधरपर्वते भूयांसि निषधाकाराणि कूटानि वर्तन्ते, यदिवेति पूर्ववत् । तथा नीला वैडूर्याख्या मणयो भूयांसो यत्र स नीलवान्, तथाहि- चतुर्थो वर्षधरपर्वतः Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् सर्ववैडूर्यरत्नमयः, तेनासौ नीलमणियोगान्नीलवानिति व्यपदिश्यते, शेषं पूर्ववक्तव्यतावत् । तथा रुक्मं रूप्यम्, शब्दानामनेकार्थत्वात्, तद्यस्यास्तीति रुक्मी, अत्र नित्ययोगलक्षणमधिकृत्येन् प्रत्ययः, स हि पर्वतो रूप्यमयः शाश्वतिक इति नित्ययोगे इन् प्रत्ययः, अन्यत् पूर्ववदेव। तथा शिखराणि कूटान्यस्य सन्तीति शिखरी, यदिवा शिखरिणः पादपास्तदाकाराणि 5 सर्वरत्नमयानि कूटानि वर्त्तन्त इति तेन तद्योगाच्छिखरी, अग्रेतनं पूर्ववक्तव्यतावत् ॥१२॥ [पृ०११४] उत्तरभरतार्द्धस्य जीवामानमाहचउदस य सहस्साइं, सयाई चत्तारि एगसयराई । भरहद्भुत्तरजीवा, छा य कला ऊणिया किंचि ॥१३॥ [बृहत्क्षेत्रस०४९] व्या० चतुर्दश सहस्राणि चत्वारि शतानि एकसप्तत्यधिकानि षट् च कला: 10 एकोनविंशतितमभागरूपाः किञ्चिदनाः, इत्येतावत्परिमाणा उत्तरभरतार्धजीवा, तथाहिउत्तरभरतार्धस्येषुपरिमाणं कलारूपं दश सहस्राणि, तेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, जातं शेषमष्टादश लक्षा नवतिसहस्राणि १८९००००, एतच्च यथोक्तपरिमाणेषुणा १०००० गुण्यते, गुणिते च सति जात एककोऽष्टकः नवकः शून्यानि चाष्टौ १८९००००००००, एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातः सप्तकः पञ्चकः षट्कोऽष्टौ च 15 शून्यानि ७५६०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धो द्विकस्सप्तकश्चतुष्को नवकः पञ्चकश्चतुष्कः २७४९५४, शेषमुद्धरति द्विको नवकस्सप्तकोऽष्टकोऽष्टकश्चतुष्क: २९७८८४, छेदराशिस्तु पञ्चकश्चतुष्को नवको नवकः शून्यमष्टौ ५४९९०८, वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशेर्योजनानयनार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां चतुर्दश सहस्राणि चत्वारि शतानि एकसप्तत्यधिकानि कलाश्च पञ्च १४४७१ क०५, उद्धरितशेषकलाराश्यपेक्षया 20 च किञ्चिदूनैककला लभ्यते, इति तदपेक्षया छच्च कला ऊणिया किंचीत्युक्तम् ॥१३॥ [पृ०११४] गाथाढेन भरतविष्कम्भमानमाहपंच सए छव्वीसे, छच्च कला वित्थडं भरहवासं । [बृहत्क्षेत्रस.२९] गार्थाद्धम् । व्या० पञ्च शतानि योजनानां षड्विंशत्यधिकानि, षट् च कला एकोनविंशतितमभागरूपाः, एतावद्विस्तृतं भरतवर्ष भरतक्षेत्रमित्यर्थः ॥ [पृ०११४] साम्प्रतमुत्तरभरतार्द्धस्यैव धनुःपृष्ठमाहचोद्दस य सहस्साइं, पंचेव सयाइं अट्ठवीसाई । एगारस य कलाओ, धणुपिटुं उत्तरद्धस्स ॥१४॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५०] 25 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० चतुर्दश सहस्राणि पञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि योजनानाम्, कलाश्चैकादश, एतावत्परिमाणमुत्तरार्द्धस्य धनुःपृष्ठम्, तथाहि- उत्तरभरतार्द्धस्येषुः कलारूपः सहस्रदशकरूपो वर्ग्यते, वर्गितश्च सन् जात एककोऽष्टौ च शून्यानि १००००००००, एष भूयः षड्भिर्गुण्यते, जात: षट्कोऽष्टौ च शून्यानि ६००००००००, एष राशिरुत्तरभरतार्द्धस्य सम्बन्धिनि जीवावर्गे 5 सप्तकः पञ्चकः षट्कोऽष्टौ शून्यानि ७५६०००००००० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो जातो राशिरेवंरूपः सप्तकः षट्को द्विकोऽष्टौ शून्यानि ७६२००००००००, अस्य वर्गमूलानयने लब्धो द्विकः सप्तकः षट्कः शून्यं चतुष्कस्त्रिक: २७६०४३, शेषस्तु राशिरुद्धरति द्विकः षट्को द्विक एककः पञ्चक एकक: २६२१५१, छेदराशिः पञ्चकः पञ्चको द्विकः शून्यमष्टकः षट्कः ५५२०८६, वर्गमूललब्धस्तु कलाराशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां 10 चतुर्दश सहस्राणि पञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि कलाश्चैकादश १४५२८ क० ११ ॥१४॥ [पृ०११६] देवकुरूत्तरकुरूणां विष्कम्भमानं जीवामानं चाहअट्ठ सया बायाला, एक्कारस सहस दो कलाओ अ । विक्खंभो अ कुरूणं, तेवन्न सहस्स जीवा सिं ॥१५॥ [बृहत्क्षेत्रस० २६३] व्या० देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च प्रत्येकं विष्कम्भो दक्षिणोत्तरतया विस्तारो योजनानामेकादश 15 सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि द्वे चैकोनविंशतिभागरूपे कले ११८४२२ । तथा सिं ति आसां देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च प्रत्येकं या जीवा पूर्वापरायता सा त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि ५३००० ॥१५॥ [पृ०११६] जम्बू-शाल्मल्योः स्वरूपं गाथात्रयेणाहरयणमया पुप्फफला, विक्खंभो अट्ठ अट्ठ उच्चतं । जोअणमद्धव्वेहो, खंधो दो जोअणुव्विद्धो ॥१६॥ दो कोसे वित्थिन्नो, विडिमा छज्जोअणाणि जंबूए । चाउदिसि पि साला, पुग्विल्ले तत्थ सालम्मि ॥१७॥ भवणं कोसपमाणं, सयणिज्जं तत्थऽणाढिअसुरस्स । तिसु पासाया सालेसु, तेसु सीहासणा रम्मा ॥१८॥ [बृहत्क्षेत्रस०२८६-२८८] 25 व्या० तस्या जम्ब्वाः पुष्पाणि फलानि च रत्नमयानि नानारत्नात्मकानि, तस्याः सशाखाकायाः जम्ब्वाः पृथुत्वमष्टौ योजनानि, अष्टावेव योजनान्युच्चत्वम्, क्रोशद्विकमुद्वेधो भूमध्ये प्रवेशः, अत एव सर्वाग्रेण सा जम्बूः सातिरेकाण्यष्टौ योजनान्युच्चस्त्वेन भवति । १. कोसदुगं उब्वेहो-इति बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ 20 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् तथा तस्याः जम्ब्वाः स्कन्धः कन्दादुपरितन: शाखाप्रभवपर्यन्तो विभागो द्वे योजने उद्विद्ध उच्चः, द्वौ क्रोशौ विस्तीर्णः । या तु दिक्प्रसृतशाखामध्यभागप्रभवा ऊर्ध्वगतशाखा विडिमाऽपरपर्याया सा षड् योजनान्युच्चस्त्वेन, अत एव कन्दादारभ्य सर्वाग्रेण सा जम्बूरष्टौ योजनान्युच्चस्त्वेन प्रागुक्ता, स्कन्धगताभ्यां द्वाभ्यां योजनाभ्यां विडिमागतै : षभिर्योजनैर्योजनाष्टकभावात् । तस्याश्च जम्ब्वातश्चतसृष्वपि दिक्षु शाखाः, किमुक्तं भवति ? 5 चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकमेकैका शाखा, ताश्च शाखाः प्रत्येकं क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि दीर्घाः, तथाहि-तस्या जम्ब्वा विष्कम्भोऽष्टौ योजनानि, तत्र स्कन्धगतस्योपरितनभागस्य द्वौ क्रोशौ, तत एकैकस्याः शाखायाः पृथुत्वं क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि भवन्ति, तत्र तासु चतसृषु शाखासु मध्ये पूर्वस्यां शाखायां बहुमध्यदेशभागेऽनादृतस्य अनादृताभिधानस्य देवस्य योग्यं महदेकं भवनम्, तच्च सर्वरत्नमयमनेकमणिमयस्तम्भशतसन्निविष्टं क्रोशप्रमाणमायामतो 10 विष्कम्भतोऽर्द्धक्रोशं देशोनं क्रोशमुच्चस्त्वेन, तस्य च भवनस्य त्रीणि द्वाराणि, तद्यथा-एकं द्वारं पूर्वस्यामेकमुत्तरत एकं दक्षिणतः । तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्च धनुःशतान्युच्चस्त्वेनाऽर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भतः, तत्र च भवने बहुमध्यदेशभागे महत्येका मणिमयी पीठिका, सा च पञ्चधनु:शतायामविष्कम्भाऽर्द्धतृतीयधनुःशतबाहल्या । तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं शयनीयम् । शेषासु च तिसृषु शाखासु प्रासादा: प्रासादावतंसकाः, एकैकस्यां 15 शाखायामेकैकः प्रासादावतंसक इत्यर्थः, तेऽपि च प्रासादावतंसकाः सर्वरत्नमयाः, तेषु च प्रासादेषु मध्ये सिंहासनानि रम्याणि नानामणिमयतया रमणीयानि । किमुक्तं भवति ? एकैकस्य प्रासादावतंसकस्य मध्ये पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भा अर्द्धतृतीयधनुःशतबाहल्या मणिमयपीठिका, तासां च मणिमयपीठिकानामुपरि प्रत्येकमनादृतदेवयोग्यं सर्वरत्नमयं सिंहासनमिति ॥१६-१८॥ [पृ०११७] क्षुल्लहिमवज्जीवामानमाह 20 चउवीस सहस्साई, णव य सया जोअणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा, आयामेणं कलद्धं च ॥१९॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५२] व्या० योजनानां चतुर्विंशतिः सहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशानि द्वात्रिंशदधिकानि, एकं च कलार्द्धम्, इत्येतावत्परिमाणाऽऽयामेन पूर्वापरतया दैट्रंण क्षुल्लहिमवतो जीवा, तथाहिजम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाणोऽवगाहने क्षुल्लहिमवतः सम्बन्धिना 25 त्रिंशत्सहस्रपरिमाणेन ३०००० इषुणा हीनः क्रियते, ततो जातं शेषमिदम्-अष्टादश लक्षाः सप्ततिः सहस्राणि १८७०००० । एतद् यथोक्तपरिमाणेन ३०००० अवगाहेन गुण्यते जातः पञ्चकः षट्क एककोऽष्टौ शून्यानि ५६१०००००००० । एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातो Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे द्विको द्विकश्चतुष्कश्चतुष्कोऽष्टौ शून्यानि २२४४०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धश्चतुष्कस्सप्तकस्त्रिकस्सप्तकः शून्यम् अष्टकः ४७३७०८, शेषस्तु राशिरुद्धरति सप्तकस्त्रिकः शून्यं सप्तकः त्रिकः षट्कः ७३०७३६ । छेदराशिनवकश्चतुष्कः सप्तकश्चतुष्क एककः षट्कः ९४७४१६ । ततः कलार्द्धानयनार्थमुद्धरितो राशिर्द्विकेन गुण्यते छेदराशिना च भज्यते, ततो 5 लब्धमेकं कलार्द्धम् । वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशेर्योजनानयनार्थम् एकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां चतुर्विंशतिः सहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २४९३२ एकं च कलार्द्धम् ॥१९॥ [पृ०११७] अथो हिमवतः परिधिमाह पणयालीस सहस्सा, सयमेगं नव य बारस कलाओ । 10 अद्धकलाए हिमवंतपरिरओ सिहरिणो चेवं ॥२०॥ व्या० पञ्चचत्वारिंशत् सहस्राः योजनानां शतमेकं च नव च योजनानि, योजनस्यैकोनविंशतिकला: क्रियन्ते, एवंविधा द्वादश कला: कलार्द्धं च, अयं हिमवतः परिधिः। सिहरिणो चेवं ति शिखरिणोऽप्येवमेव परिरयो ज्ञातव्यः ॥२०॥ [पृ०११७] अत्र भरतमानं सामान्यतो गाथार्द्धनोक्तमपि साम्प्रतं भरतक्षुल्लहिमवदादीनां 15 विष्कम्भादिस्वरूपं पंच सए इत्यत आरभ्य उस्सेह इत्यन्तेन गाथासप्तकेनाह पंच सए छव्वीसे, छच्च कला वित्थडं भरहवासं । दससयबावन्नऽहिआ, बारस य कलाओ हिमवंते ॥२१॥ [बृहत्क्षेत्रस० २९] व्या० पञ्च शतानि षड्विंशत्यधिकानि, योजनस्यैकोनविंशतिः कलाः क्रियन्ते, एवंविधाः षट् कलाः, एतावद्विस्तारं भरतवर्षम्, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो योजनलक्षम्, तदेकेन 20 गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातमेकमेव लक्षम्, तस्य नवत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां पञ्च शतानि षड्विंशत्यधिकानि, शेषस्य राशेश्छेदराशिगतेन शून्येन सह शून्यस्यापवर्त्तना क्रियते, लब्धा एकोनविंशतिभागरूपाः कलाः षट्, एतावत्परिमाणो भरतक्षेत्रस्य विष्कम्भो विस्तार इति । दश योजनशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि, कलाश्चैकोनविंशतिभागरूपा द्वादश, एतावान् विष्कम्भः क्षुल्लहिमवद्वर्षधरे, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य 25 विष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणं क्षुल्लहिमवद्वर्षधरविष्कम्भानयनाय द्विकेन गुण्यते, जाते द्वे लक्षे, तयोर्नवत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धानि दश योजनशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि, कलाश्च द्वादश ॥२१॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् हेमवए पंचऽहिआ इगवीस संया उ पंच य कलाओ । दस हि बायाल सया, दस य कलाओ महाहिमवे ||२२|| [बृहत्क्षेत्रस० ३०] व्या० पञ्चाधिकान्येकविंशतिशतानि योजनानामेकोनविंशतिभागरूपाश्च कलाः पञ्च, एतावद्धैमवतक्षेत्रविष्कम्भमानम्, तथाहि - स एव जम्बूद्वीपविष्कम्भो योजनलक्षमानो हैमवतक्षेत्रविष्कम्भानयनाय चतुर्भिर्गुण्यते, जाताश्चतम्रो लक्षास्तासां नवत्यधिकेन शतेन भागहरणम्, 5 लब्धानि एतावन्त्येव । दशाधिकानि द्विचत्वारिंशच्छतानि योजनानां दश चैकोनविंशतिभागरूपाः कलाः, एतावत्परिमाणो महाहिमवतो विष्कम्भः । तथाहि - महाहिमवन्नगविष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणोऽष्टाभिर्गुण्यते, जाता अष्टौ लक्षास्तासां नवत्यधिकेन शतेन भागे हते लब्धानि दशाधिकानीत्यादि ॥२२॥ हरिवासे इगवीसा, चुलसीइ सया कला य एक्का य । सोलस सहस्स अट्ठसय, बायाला दो कला निसढे ||२३|| [ बृहत्क्षेत्रस० ३१] व्या० हरिवर्षक्षेत्रे एकविंशत्यधिकानि चतुरशीतिशतानि योजनानामेका चैकोनविंशतिभागरूपा कला, तथाहि - हरिवर्षक्षेत्रविष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणः षोडशभिर्गुण्यते, जातानि षोडश लक्षाणि तेषां नवत्यधिकेन शतेन भागहरणम्, लब्धान्येतावन्त्येव । षोडश सहस्राण्यष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि अपरे चैकोनविंशतिभागरूपे द्वे कले, एतावन्निषधपर्वतविष्कम्भपरिमाणम्, तथाहि - निषधपर्वतस्य विष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो लक्षप्रमाणो द्वात्रिंशता गुण्यते जाता द्वात्रिंशल्लक्षाः, तासां नवत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धमेतावदेव ॥२३॥ ६३ 10 [पृ०११८] तेत्तीसं च सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चुलसीया । चउरो अ कला सकला, महाविदेहस्स विक्खंभो ||२४|| [बृहत्क्षेत्रस० ३२] 20 व्या० त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि चत्वारश्चैकोनविंशतिभागाः, एतावत्परिमाणो महाविदेहानां विष्कम्भः, तथाहि - महाविदेहक्षेत्रविष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणश्चतुःषष्ट्या गुण्यते, जाताश्चतुःषष्टिर्लक्षास्तासां नवत्यधिकेन शतेन भागहरणे लब्धमेतावदेव ॥२४॥ जोअणसयमुव्विद्धा, कणगमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पिमहाहिमवंता, दुसउच्चा रुप्पकणगमया ||२५|| [ बृहत्क्षेत्रस० १३०] व्या० योजनशतमुद्विद्धौ उच्चौ, कनकमयौ पीतसुवर्णमयौ शिखरि - क्षुल्लहिमवन्तौ, १. सयाइ - बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ २. अउणावीसइ भागा, चउरो य विदेहविक्खंभो - इति बृहत्क्षेत्रमा रुक्मि 15 25 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे महाहिमवन्तौ पुनवपि प्रत्येकं द्विशतोच्चौ योजनशतद्वयमुच्चौ, वर्णमधिकृत्य पुनर्यथाक्रमं रुक्म श्वेतहेम, कनकं पीतं सुवर्णम्, तन्मयौ । किमुक्तं भवति ? श्वेतसुवर्णमयो रुक्मी, पीतसुवर्णमयो महाहिमवान्, केचित् पुना रुक्मिपर्वतं रुक्ममयम् इच्छन्ति अपरे महाहिमवन्तं सर्वरत्नमयम् ॥२५॥ 5 चत्तारि जोअणसए, उव्विद्धा निसढनीलवंता य । निसहो तवणिज्जमओ, वेरुलिओ नीलवंतगिरी ॥२६॥ [बृहत्क्षेत्रस० १३१] व्या० निषधनीलवन्तौ वर्षधरपर्वतौ द्वावपि प्रत्येकं चत्वारि योजनशतान्युद्विद्धौ उच्चौ, तत्र वर्णमधिकृत्य निषधस्तपनीयमय आरक्तच्छायः सुवर्णमयः, नीलवन्नामा च गिरिर्वैडूर्यरत्नमयः । एतेषां षण्णामपि वर्षधरपर्वतानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैका पद्मवरवेदिका, 10 एकैकश्च वनखण्डः । तथाहि-क्षुल्लहिमवान् दक्षिणस्मिन्नपि पार्श्वे पद्मवरवेदिकावनखण्डाभ्यां परिक्षिप्त उत्तरस्मिन्नपि पार्श्वे, एवं सर्वेऽपि वर्षधरा भावनीयाः ॥२६॥ उस्सेहचउन्भागो, ओगाहो पायसो नगवराणं । वट्टपरिही उ तिगुणो, किंचूणछब्भायजुत्तो अ ॥२७॥ [पृ०११९] चतुर्णां वक्षस्काराणां गाथात्रयेण स्वरूपमाह15 वासहरगिरंतेणं, रुंदा पंचेव जोअणसयाई । चत्तारि सय उव्विद्धा, ओगाढा जोयणाण सयं ॥२८॥ [बृहत्क्षेत्रस० २६०] व्या० वर्षधरगिर्यन्ते वर्षधरपर्वतसमीपे रुंदा विस्तीर्णाः पञ्च योजनशतानि, किमुक्तं भवति ? निषधसमीपे विद्युत्प्रभ-सौमनसौ नीलवतः समीपे गन्धमादन-माल्यवन्तौ प्रत्येकं पञ्च योजनशतानि विस्तीर्णाविति । तथा चत्वारोऽपि वर्षधरपर्वतसमीपे प्रत्येकं चत्वारि 20 योजनशतान्युद्विद्धा उच्चाः अवगाढा भूमावन्तः प्रविष्टाः पुनः प्रत्येकं योजनानामेकं शतम्, तदनन्तरं च मात्रया विष्कम्भतः परिहीयमानाः परिहीयमाना उत्सेधावगाढा(हा?)भ्यां परिवर्द्धमानाः परिवर्द्धमानास्तावदवसेया यावन्मेरोस्समीपम् ॥२८।। ततस्तत्रोच्चत्वादिपरिमाणमाहपंच सए उव्विद्धा, ओगाढा पंच गाउयसयाई । अंगुलअसंखभागो, विच्छिन्ना मंदरतेणं ॥२९॥ [बृहत्क्षेत्रस० २६१] व्या० मन्दरान्ते मन्दरगिरिसमीपे चत्वारोऽपि वक्षस्कारगिरयः प्रत्येकं पञ्च योजनशतानि उद्विद्धा उच्चाः । अवगाढा: भूमौ निमग्नाः पञ्च गव्यूतशतानि, पञ्चविंशतियोजनशतमित्यर्थः। १. 'ता वि-बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ 25 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् तथा अङ्गुलासङ्ख्यभागम् अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रं विस्तीर्णाः । एकैकश्च वक्षस्कारो गिरिरुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकया पद्मवरवेदिकया एकैकेन च वनखण्डेन परिक्षिप्तः ॥ २९ ॥ वक्खारपव्वयाणं, आयामो तीस जोअणसहस्सा । दोन य सया णवऽहिआ, छच्च कलाओ चउन्हं पि ||३०|| [ बृहत्क्षेत्रस० २५९ ] व्या० चतुर्णामपि विद्युत्प्रभादीनां वक्षस्कारपर्वतानामायामः प्रत्येकं त्रिंशत्सहस्राणि । द्वे 5 शते नवोत्तरे योजनानां षट् चैकोनविंशतिभागरूपाः कलाः ३०२०९ ॥३०॥ [पृ०१२०] वैताढ्यस्वरूपमाह पंणवीसं उव्विद्धो, पन्नासं जोअणाणि विच्छिन्नो । वेडो रययमओ, भारहखेत्तस्स मज्झम्मि ||३१|| [ बृहत्क्षेत्रस० १७८] व्या० भरतक्षेत्रमध्ये वैताढ्यो नाम पर्वतः द्वे अर्द्धे भरतक्षेत्रस्य करोतीति वैताढ्यः 10 पृषोदरादयः [३।२।१५५] इति वचनतो रूपनिष्पत्तिः, यदि वा वैताढ्यनामा देवस्तत्र पल्योपमस्थितिको महर्द्धिक आधिपत्यं पालयति, तेन तद्योगाद्वैताढ्य इत्युच्यते, उक्तं च- से केणऽट्टेणं भंते! एवं वच्च वेअड्डे पव्वए वेअड्ढे पव्वए ? गोअमा ! वेअड्डे पव्वए भरहवासं दुहा भयमाणे चिट्ठ तं जहा - दाहिणभरहद्धं उत्तरभरहद्धं च वेअड्डनामगे अ एत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसति, सेणऽट्टेणं गोअमा ! एवं वुच्च वेअड्डे पव्वते वेअड्ढे पव्वते [ ] इति । स च 15 रजतमयो रूप्यमयः पञ्चविंशतियोजनान्युद्विद्ध उच्चः, सक्रोशानि षड् योजनानि भूमाववगाढः पञ्चाशद्योजनानि विस्तीर्णः । तस्य च वैताढ्यपर्वतस्य दक्षिणपार्श्वे उत्तरपार्श्वे च प्रत्येकं पद्मवरवेदिका वनखण्डश्च । तत्रैकैका पद्मवरवेदिका द्वे गव्यूते उच्छ्रिता पञ्च धनुःशतानि विस्तीर्णा वैताढ्यप्रमाणा, एकैकोऽपि च वनखण्डो देशोने द्वे योजने विस्तीर्ण आयामतो वैताढ्यपरिमाणः ॥३१॥ [पृ०१२१] सूत्राणां गतिवैचित्र्यमाह कत्थइ देसग्गहणं, कत्थइ घेप्पंति निरवसेसाई । ६५ उक्कमकमजुत्ताइं, कारणवसओ निउत्ताइं ||३२|| [विशेषाव० ३८८ ] व्या० क्वापि सूत्रे देशस्यैकपक्षलक्षणस्य ग्रहणम्, क्वचित्सूत्रे निरवशेषाण्यपि पक्षान्तराणि गृह्यन्ते । अपरञ्च, कानिचित् सूत्राणि कुतोऽपि कारणवशादुत्क्रमयुक्तानि निबद्धानि दृश्यन्ते, 25 कानिचित्तु क्रमयुक्तानीत्येवं विचित्रा सूत्रगतिः ||३२|| [पृ०१२१] यत्र यावन्ति कूटानि तत्र तन्मानं गाथाद्वयेनाह १. पणवीसइमुव्विद्धो- बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ 20 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे वेअड्डमालवंते, विजुप्पहनिसढनीलवंते अ । नव नव कूडा भणिआ, एकारस सिहरिहिमवंते ॥३३॥ [बृहत्क्षेत्रस० १३२] व्या० वैताढ्येषु विजयभरतैरावतसत्केषु चतुस्त्रिंशत्सङ्ख्येषु माल्यवति विद्युत्प्रभे निषधे नीलवति च, प्रत्येकं नव नव कूटानि भणितानि तीर्थकरगणधरैः, शिखरिणि क्षुल्लहिमवति 5 च पुनः प्रत्येकं एकादशैकादश कूटानि ॥३३॥ [पृ०१२१] रुप्पिमहाहिमवंते सोमणसे गंधमायणनगे य । अट्ठऽ? सत्त सत्त य, वक्खारगिरीसु चत्तारि ॥३४॥ [बृहत्क्षेत्रस० १३३] व्या० इहाद्ये पादत्रये यथासङ्ख्येन सङ्ख्या-संङ्ख्येयपदयोजना, सा चैवं-रुक्मिणि वर्षधरपर्वते महाहिमवति च प्रत्येकमष्टावष्टौ कूटानि, सौमनसे गन्धमादने च पर्वते प्रत्येक 10 सप्त सप्त, वक्षस्कारगिरिषु पुनः षोडशस्वपि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि कूटानि । एतानि च कूटानि सर्वाण्यपि प्रत्येकमेकैकया पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च समन्ततः परिक्षिप्तानि । तदेवमुक्तानि सङ्ख्यामात्रमधिकृत्य कूटानि ॥३४॥ [पृ०१२२] इह च हिमवदादिषु षट्सु वर्षधरेषु क्रमेणैते पद्मादयः षडेव ह्रदास्तद्यथापउमे य महापउमे, तिगिच्छी केसरी दहे चेव । हरए महपुंडरिए, पुंडरीए चेव य दहाओ ॥३५॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५६८] व्याख्या सुगमैव ॥३५॥ [पृ०१२२] पद्मह्रदादिवासिनीनां देवीनामायुःस्थित्यादिस्वरूपं गाथाद्वयेनाहअद्भुट्ठ अद्धपंचम, पलिओवम असुरजुअलदेवीणं । सेसवणदेवयाणं, देसूणं अद्धपलिअमुक्कोसं ॥३६॥ [बृहत्सङ्ग्रहणी ६, प्रवचनसारो० ११३९] व्या० सार्द्धानि त्रीणि, अर्द्धं पञ्चमं येषु तान्यर्द्धपञ्चमानि, सार्द्धचत्वारीत्यर्थः, पल्योपमानि असुरयुगलस्य चमरेन्द्र-बलीन्द्रलक्षणस्य देव्यस्तासामायुरिति शेषः । कोऽर्थः ? चमरेन्द्रदेवीनां सार्द्धानि त्रीणि पल्योपमान्यायुः, बलीन्द्रदेवीनां सार्द्धानि चत्वारि पल्योपमानि, शेषाणां नागकुमाराद्यधिपतीनाम् उत्तरदिग्वर्त्तिनां तथा वण त्ति वनचराणां व्यन्तराणाम् उत्तर-दक्षिण25 दिग्वर्तिनां चशब्दाद्दक्षिणदिग्भाविनागकुमाराद्यधिपतीनां च सम्बन्धिनीनां देवीनां यथाक्रमम् उत्कृष्टमायुर्देशोनपल्योपमम्, दक्षिणदिग्भाविनागकुमाराद्यधिपतिदेवीनां दक्षिणोत्तरदिग्भाविव्यन्तराधिपतिदेवीनां चोत्कृष्टमायुरर्द्धं पल्योपममिति ॥३६॥ गीतिरार्येयम् ॥ १. णे कूडा-बृहत्क्षेत्रसमासे ।। 15 20 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१२३] एएसु सुरवहूओ, वसंति पलिओवमठितीआओ । सिरिहिरिधितिकित्तीओ, बुद्धिलच्छीसनामाओ ॥३७॥ [बृहत्क्षेत्रस० १७०] व्या० एतेषु पद्मादिषु पुण्डरीकपर्यवसानेषु षट्सु ह्रदेषु महर्द्धिकाः पल्योपमस्थितयः सुरवध्वो देव्यः परिवसन्ति, महर्द्धिकत्वं चासां स्वयमेवाग्रे सूत्रकृद् भावयिष्यति । किंनामानस्ताः ? इत्याह-श्री-ही-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मीसनामानः श्री-ही-धृति-कीर्त्ति-बुद्धि- 5 लक्ष्मीरूपैर्नामभिः सनामकाः । किमुक्तं भवति ? पद्महदे वसति आधिपत्येन श्रीनामा देवता, महापद्ये ह्रीनामा, तेगिच्छिहदे धृतिनामा, केसरिह्रदे कीर्त्तिनामा, महापुण्डरीकह्रदे बुद्धिनामिका, पुण्डरीकहदे लक्ष्मीनामा । एताश्च किल सर्वा अपि भवनपतिनिकायान्तर्वत्तिन्यो वेदितव्याः, पल्योपमस्थितिकत्वात्, व्यन्तरीणां चैतावत्याः स्थितेरभावादिति ॥३७।। [पृ० १२८] यथा पूर्वं वर्षे वर्षे द्वौ द्वौ प्रपातह्रदायुक्तौ एवं नद्यो वाच्याः, यथा- 10 गंगा सिंधू तह रोहिअंस रोहीणई य हरिकंता । हरिसलिला सीओया, सत्तेया होंति दाहिणओ ॥३८॥ सीआ य नारिकंता, नरकंता चेव रुप्पकूला य । सलिला सुव्वणकूला, रत्तवई रत्त उत्तरओ ॥३९॥ [बृहत्क्षेत्रस० १७१-१७२] व्या० गाथाद्वयं सुगमम् ॥३८-३९।। पृ०१३०] देवकुरूत्तरकुरुमनुष्यस्वरूपं गाथाद्वयेनाहदोसु वि कुरासु मणुआ, तिपल्लपरमाउणो तिकोसोच्चा । पिट्ठकरंडसयाई, दो छप्पण्णाई मणुआणं ॥४०॥ सुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणाणऽवच्चगोवणया । अउणापण्णदिणाई, अट्ठमभत्तस्स आहारो ॥४१॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३०१-३०२] 20 व्या० द्वयोरपि कुर्वोर्देवकुरुषु उत्तरकुरुषु चेत्यर्थः । मनुजा मनुष्यास्त्रीणि पल्यानि परमम् उत्कृष्टमायुर्येषां ते त्रिपल्यपरमायुषः, जघन्यतस्तु पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनत्रिपल्योपमायुषः, तथा चोक्तं जीवाभिगमे स्त्रियमधिकृत्य- देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमिगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई तिण्णि पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणगाई, उक्कोसेण तिण्णि पलिओवमाइं [जीवाभि० २५५] इति । तथा त्रिक्रोशोच्चास्त्रीणि 25 गव्यूतान्युच्चाः, तथा तेषां तत्रत्यानां मनुष्याणां पृष्ठकरण्डशते द्वे षट्पञ्चाशदधिके । ते च मनुष्याः सदैव सुषमसुषमानुभावमनुभवन्ति, यदपि च कल्पपादपुष्पफलास्वादादिकं तदपि १. रोहियणई-इति बृहत्क्षेत्रसमासे ।। 15 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे हरिवर्षा दिक्षेत्राऽनन्तगुणविशिष्टानुभावम्, इत्थम्भूतं च सुषमसुषमानुभावमनुभवतां मनुष्याणामपत्यगोपना स्वापत्यपरिपालना एकोनपञ्चाशद्दिनानि, तत ऊर्ध्वं काश-जृम्भादिव्याजेन मरणमुपगम्य दिवमुपसर्पन्ति । तथा तेषां तत्रत्यानां मनुष्याणामाहार आहारग्रहणमष्टमभक्तस्योर्ध्वम्, उपवासत्रयातिक्रमे इत्यर्थः ॥४०-४१॥ [पृ०१३०] हरिवर्षरम्यकक्षेत्रयुग्मधर्मिकस्वरूपं गाथायुग्मेनाहहरिवासरम्मएसुं, आउपमाणं सरीरउस्सेहो । पलिओवमाणि दोण्णि उ, दोण्णि अ कोसुस्सिआ भणिआ ॥४२॥ छट्ठस्स य आहारो, चउसट्ठिदिणाणि पालणा तेसिं । पिट्ठकरंडाण सयं, अट्ठावीसं मुणेअव्वं ॥४३॥ [बृहत्क्षेत्रस० २५५-२५६] 10 व्या० हरिवर्ष-रम्यकयोः क्षेत्रयोः पुनः, तुशब्दः पुनरर्थे, मनुष्याणामायुःप्रमाणं शरीरस्य चोत्सेधो यथाक्रमं सदा द्वे पल्योपमे द्वौ च क्रोशौ भणितौ तीर्थकरादिभिः, आयुःप्रमाणं चेदमुत्कर्षतो द्रष्टव्यम्, जघन्यतः पुनढे पल्योपमे पल्योपमासङ्ख्येयभागहीने, तथा च स्त्रियमधिकृत्य जीवाभिगमसूत्रम्- हरिवासरम्मगवासअकम्मभूमिगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं देसूण्णाई दो पलिओवमाइं पलिओवमासंखिजभागेणं ऊणगाई, उक्कोसेणं दो 15 पलिओवमाइं । [जीवाभि० २।५५] तथा षष्ठस्य भक्तस्योर्ध्वमुपवासद्वयातिक्रमे इत्यर्थः आहार आहारग्रहणम् । तथा तेषां हरिवर्ष-रम्यकभाविनां मनुष्याणां जन्मानन्तरं मातापितृभ्यां पालना क्रियते चतुःषष्टिर्दिनानि, तत ऊर्ध्वं तौ मातापितरौ क्षुतादियोगेन मरणमुपगम्य देवलोकमुपसर्पतः। तथा तेषां मनुष्याणां पृष्ठकरण्डकानां शतमष्टाविंशत्यधिकं ज्ञातव्यम् । शेषं संहननादिकं पूर्ववद्वक्तव्यम्, नवरं हैमवतहैरण्यवतवर्षापेक्षयाऽत्र मनुष्याणामुत्थान-बल-वीर्यादिकं कल्पपादपाना20 मास्वादो भूमेर्माधुर्यमित्येवमादिका भावाः पर्यायानधिकृत्यानन्तगुणा ज्ञातव्याः ॥४२-४३।। [पृ०१३०] हैमवतहैरण्यवतवर्षगतयुगलिकस्वरूपं गाथायुगलकेनाहगाउअमुच्चा पलिओवमाउणो वज्जरिसहसंघयणा । हेमवएरण्णवए, अहमिंदनरा मिहुणवासी ॥४४॥ चउसट्ठी पिट्ठिकरंडयाण, मणुआण तेसिमाहारो । 25 भत्तस्स चउत्थस्स उ, उणसीइदिणाणुपालणया ॥४५॥ [बृहत्क्षेत्रस० २५३-२५४] व्या० हैमवते हैरण्यवते च वर्षे प्रत्येकं नरा मनुष्या मिथुनवासिनः, मिथुनं स्त्रीपुरुषयुग्मम्, तद्रूपतया वसन्तीति, एवंशीला मिथुनवासिनो गव्यूतमुच्चा: क्रोशपरिमाणशरीरोच्छ्यास्तथा पल्योपमायुषः पल्योपममायुर्येषां ते तथा । इदं चोत्कर्षत आयुःप्रमाणमुक्तम्, जघन्यतः पुनः Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनं पल्योपमं द्रष्टव्यम्, तथा च जीवाभिगमे स्त्रियमधिकृत्योक्तम् - हेमवयहेरण्णवयअकम्मभूमिगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोअमा ! जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं एगं पलिओवमं [जीवाभि० २१५५] इति । वज्रर्षभं वज्रर्षभनाराचसझं संहननं येषां ते वज्रर्षभनाराचसंहननाः, उपलक्षणमेतत्, तेनानुलोमवायुवेगाः कङ्ककुक्षिपरिमाणाः समचतुरस्रसंस्थानाः सुरूपास्तद्यथा-सुप्रतिष्ठितकूर्मचारु- 5 चरणाः सुकुमारश्लक्ष्णप्रविरलरोमकुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगला निगूढसुबद्धसन्धिजानुप्रदेशाः करिकरसमवृत्तोरवः कण्ठीरवसदृक्षकटिप्रदेशाः शक्रायुधसममध्यभागाः प्रदक्षिणावर्त्तनाभिमण्डलाः श्रीवत्सलाञ्छितविशालमांसलवक्षःस्थला: पुरपरिघानुकारिदीर्घबाहवः सुश्लिष्टमणिबन्धा रक्तोत्पलपत्रानुकारिशोणिमपाणिपादतलाश्चतुरङ्गुलप्रमाणसमवृत्तकम्बुग्रीवाः शारदशशाङ्कसोमवदनाश्छत्राकारशिरसोऽस्फुटितस्निग्धकान्तिश्लक्ष्णमूर्द्धजाः कमण्डलु-कलश-यूप-स्तूप-वापी-छत्र- 10 ध्वज-पताका-सौवस्तिक-यव-मत्स्य-मकर-कूर्म-रथ-वरस्थाल-शुका-ऽष्टापदाङ्कुश-प्रतिष्ठ-मयूरश्रीदामा-ऽभिषेकतोरण- मे दिनी-जलधि-वरभवना-ऽऽदर्श-पर्वत-गज-वृषभ-सिंहचामररूपप्रशस्तोत्तमद्वात्रिंशल्लक्षणधराः, स्त्रियोऽपि सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः समस्तमहेलागुणसमन्विताः संहताङ्गुलिदलपद्मसुकुमारकूर्मसंस्थानमनोहारिचरणाः रोमरहितप्रशस्तलक्षणोपेतजङ्घायुगला निगूढसन्धिमांसलजानुप्रदेशाः कदलीस्तम्भनिभसंहतसुकुमारपीवरोरुका वदनायामप्रमाण- 15 द्विगुणमांसलविशालजघनधारिण्यः स्निग्धकान्तिसुविभक्तश्लक्ष्णरोमराजयः प्रदक्षिणावर्त्ततरङ्गभङ्गुर- . नाभिमण्डलाः प्रशस्तलक्षणोपेतकुक्षयः सङ्गतपार्थाः कनककलशोपमसमसहिताऽत्युन्नतवृत्ताकृतिपीवरपयोधराः सुकुमारबाहुलतिकाः सौवस्तिक-शङ्ख-चक्राधाकृतिरेखालङ्कृतपाणिपादतलाः वदनविभागोच्छ्रितमांसलकम्बुग्रीवाः विकसितकुवलयपत्रायतकान्तलोचना आरोपितचापपृष्ठाकृतिसुसङ्गभ्रूलताकाः प्रमाणोपपन्न-ललाटपट्टकाः सुस्निग्धकान्तश्लक्ष्णशिरोरुहाः 20 पुरुषेभ्यः किञ्चिदूनोच्छ्रयाः स्वभावत उदारशृङ्गारचारुवेषाः प्रकृत्यैव हसितभणितिविलासविषयपरमनैपुण्योपेताः । तथा मनुष्या मनुष्यश्च स्वभावत एव सुरभिवदनाः प्रतनुक्रोधमानमायलोभाः सन्तोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसम्पन्नाः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धाः हस्त्यश्वकरभगोमहिषादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारिणो ज्वरादिरोग-यक्षभूतपिशाचादिग्रहमारिव्यसनोपनिपातविकलाः । तथा अहमिंद त्ति सर्वेऽपि मनुष्यास्तत्राहमिन्द्राः, परस्परप्रेष्यप्रेषक- 25 भावरहितत्वात् । तथा तत्रत्यानां मनुष्याणां पृष्ठकरण्डकानि चतुःषष्टिसङ्ख्याकानि भवन्ति, चतुर्थस्य च भक्तस्योर्ध्वम् एकोपवासातिक्रमे इत्यर्थः, आहार आहारग्रहणम्, स चाहारो न शाल्यादिधान्यनिष्पन्नः, किन्तु पृथिवीमृत्तिका कल्पद्रुमाणां पुष्पफलानि च, तथाहि- जायन्त Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [एव] खलु तत्रापि विश्रसात एव शालि-गोधूम-माष-मुद्गादीनि धान्यानि, परं न तानि मनुष्याणामुपभोगं गच्छन्ति । या तु पृथिवी सा शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या यश्च कल्पद्रुमफलानामास्वादः स चक्रवर्त्तिभोजनादप्यनन्तगुणः, तथा चोक्तं- तेसिं णं भंते ! पुप्फलाणं केरिसे आसाए पण्णत्ते ? गोअमा ! से जहा नामए रण्णो चाउरंतचक्कवहिस्स कल्लाणे भोअणजाए 5 सयसहस्सनिप्फन्ने वण्णोववेए गंधोववेए रसोववेए फासोववेए आसायणिजे दप्पणिजे मयणिज्जे सिंघणिज्जे सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे आसाए एत्तो इट्टतराए चेव आसाए पन्नत्ते । [जम्बूद्वीपप्र० २।३५] ततः पृथिवी कल्पद्रुमपुष्पफलानि च तेषामाहारस्तथाभूतं चाहारम् आहार्य प्रासादादिसंस्थाना ये गृहाकाराः कल्पद्रुमास्तेषु यथासुखमवतिष्ठन्ते, न च तत्र क्षेत्रे दंश-मशक-यूका-मत्कुण मक्षिकादयः शरीरोपद्रवकारिणो जन्तव उपजायन्ते, येऽपि जायन्ते भुजग-व्याघ्र-सिंहादयस्तेऽपि 10 मनुष्याणां नाबाधायै प्रभवन्ति नापि ते परस्परं हिंस्य-हिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रभावरहितत्वात् । मनुष्ययुगलानि च पर्यवसानसमये युगलं प्रसुवते, जातं च युगलमेकोनाशीतिदिनानि पालयन्ति, तथा चाह- गुणसी दिणऽवच्चपालणया अपत्यपालना एकोनाशीतिर्दिनानि, स्तोककषायतया स्तोकप्रेमानुबन्धतया च ते मृत्वा दिवमुपसर्पन्ति, मरणं च तेषां जृम्भा-काश-क्षुतादिमात्रव्यापारेषु, न शरीरपीडारम्भपुरस्सरमिति ॥४४-४५।। 15 [पृ०१३०] महाविदेहमनुष्यस्वरूपमाहमणुआण पुव्वकोडी, आउ पंच ऊसिया धणुसयाइं । दूसमसुसमाणुभावं, अणुहोति नरा निययकालम्मि ॥४६॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३९४] व्या० तस्मिन् विदेहविजयेषु मनुष्याणामायुरुत्कर्षतः पूर्वकोटिः । उच्छ्रिता उच्चा मनुष्या उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि । तथा नियतकालं सर्वदैव नरा मनुष्या अनुभवन्ति दुष्षमसुषमानुभावम्, 20 तथाक्षेत्रस्वाभाव्यात् ॥४६।। [पृ०१३४] इंगालए १ विआलए २, लोहिअक्खे ३ सणिच्छरे ४ चेव । आहुणिए ५ पाहुणिए ६, कणगसनामा उ पंचेव ११ ॥४७॥ सोमे १२ सहिए १३ आसासणे १४ अ कजोअए ४-१५ कब्बडए ५-१६ । अयकरए ६-१७ दुंदुहए ७-१८, संखसनामा उ तिन्नेव १०-२१ ॥४८॥ 25 तिन्नेव कंसनाभ ३-२४, णीला ५-२६ रुप्पी ७-२८ अ होति चत्तारि । भास ९-३० तिलपुप्फवण्णे ११-३२, दगे य दगपंचवण्णे य १३-३४ काय १४-३४ काकंधे १५-३६ ॥४९॥ इंदग्गि १ धूमकेऊ २, हरि ३ पिंगलए ४ बुहे ५ अ सुक्के ६ अ । बहस्सइ ७ राहु ८ अगत्थी ९, माणवए १० कास ११ फासे अ १२ ॥४८॥५०॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् धुरे १ पमुहे २ विअडे ३, विसंधी ४ णिअले ५ तहा पयल्ले ६ अ । जडिआइलए ७ अरुणे ८, अग्गिल ९ काले १० महाकाले ११ ॥५९॥५१॥ सोत्थिअ १ सोवत्थिए २, वद्धमाणग ३ तहा पलंबे ४ अ । निच्चालोए ५ निच्चुजोए ६, सयंपभे ७ चेव ओभासे ८ १६७॥५२॥ सेअंकर १ खेमंकर २, आभंकर ३ पभंकरे ४ अ बोधव्वे । 5 अरए ५ विरए ६ य तहा, असोग ७ तह वीअसोगे ८ अ ॥७५॥५३॥ विमल १ विभत्त २ वितत्थे ३, विसाल ४ तह साल ५ सुव्वए ६ चेव । अनिअट्टी ७ एगजडी ८ अ, होइ बिजडी ९ अ बोधव्वे ॥८४॥५४॥ करिकरए १ रायग्गल २, बोधव्वे पुप्फ ३ भावकेऊ ४ अ ॥८८॥ अट्ठासीई गहा खलु, अव्वा आणुपुव्वी ॥५५॥ [सूर्यप्र० २०] व्या० गाथाकदम्बकं सुगमम्, नवरं कणगसनामा उ पंचेवेति कण१ कणक २ कणकणक ३ कणवितानक ४ कणसन्तानक ५ । लोही इति आर्षत्वाद् दीर्घत्वम् । द्वितीयगाथायां संखसनामा उ त्ति शङ्ख शङ्खनाभ २-शङ्खवर्णाभ ३ । तृतीयगाथायां तिन्नेति कंस १ कंसनाभ २, कंसवर्णाभ ३ । नीला रुप्पी अ इति, चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तेन नीलो नीलावभासो बहुत्वं प्राकृतत्वात् रूपी रूपावभासः । भस्म भस्मराशी चेति । तिलस्तिलपुष्पवर्णः, आर्षत्वादेकस्य तिलशब्दस्य 15 लोपः । पुष्पकेतुर्भावकेतुः, केतुशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते । अत्र छन्दोभङ्गादिकम् आर्षत्वान्न दोषायेति, सकूटपुस्तकत्वाद्वा ग्रन्थान्तरेभ्यः सम्यक्पाठो विलोकनीयः। [पृ०१३८] धातकीखण्डगतेषुकारपर्वतोच्चत्वादिमानं गाथाद्वयेनाहपंचसयजोअणुच्चा, सहस्समेगं तु होति विच्छिन्ना । कालोययलवणजले, पुट्ठा ते दाहिणुत्तरओ ॥५६॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/४] 20 दो उसुआरनगवरा, धायइसंडस्स मज्झयारठिआ । तेहि दुहा निहिस्सइ, पुव्वद्धं पच्छिमद्धं च ॥५७॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/५] व्या० धातकीखण्डस्य मध्यभागे दक्षिणोत्तरतो दक्षिणोत्तरदिग्भाविनौ द्वाविषुकाराख्यौ नगवरौ, तद्यथा- एको दक्षिणभागे एक उत्तरभागे। तौ च किंविशिष्टौ ? इत्याह- कालोदलवणजले स्पृष्टौ, इहत्यं प्रज्ञापकमपेक्ष्यार्वाग्भागेन लवणजलं परभागेन कालोदजलं स्पृष्टौ स्पृष्टवन्तौ । 25 तथा तो प्रत्येकं पञ्च योजनशतानि ५०० उच्चौ सहस्रमेकं विस्तीर्णी, ताभ्यां च द्वाभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डद्वीपो द्विधा निर्दिश्यते- एक पूर्वार्द्धमपरं पश्चिमार्द्धम् । तत्र यजम्बूद्वीपगतं मन्दरपर्वतमपेक्ष्य पूर्वस्यां दिशि वर्त्तते तत् पूर्वार्द्धमपरमपरार्द्धम् ॥५६-५७।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ 15 वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ० १३९] सम्प्रत्यनयोरेव पूर्वार्द्धापरार्द्धयोर्मध्ये मेर्वादिवक्तव्यतामाहपुव्वद्धस्स य मज्झे, मेरू तस्स पुण दाहिणुत्तरओ । वासाइं तिणि तिणि य विदेहवासं च मज्झमि ॥५८॥ [ बृहत्क्षेत्रस० ३ / ६ ] व्या० पूर्वार्द्धस्य, चशब्दात् पश्चिमार्द्धस्य च मध्यमभागे प्रत्येकमेकैको मेरुः, तस्य 5 चैकैकस्य मेरोः प्रत्येकं दक्षिणत उत्तरतश्च त्रीणि त्रीणि वर्षाणि क्षेत्राणि हरिवर्ष - रम्यकादीनि, मध्ये चोभयत्रापि विदेहवर्षम् । इहत्यं प्रज्ञापकमपेक्ष्य यो दक्षिणस्यां दिशि इषुकाराख्यः पर्वतस्तस्य पूर्वतः प्रथमं भरतक्षेत्रम् १, ततो हिमवन्तम् २, ततोऽपि परतो हरिवर्षम् ३, ततो महाविदेहक्षेत्रम् ४, ततो रम्यकम् ५, ततो हैरण्यवतम् ६, तत ऐरावतम् ७ । तत उत्तरदिग्वर्ती द्वितीय इषुकारपर्वतः, तथाऽस्यैव दक्षिणदिग्भाविन इषुकारपर्वतस्य पश्चिमदिशि प्रथमं 10 भरतक्षेत्रम् १, ततो हैमवतम् २, ततो हरिवर्षम् ३, ततो महाविदेहवर्षम् ४, ततोऽपि परतो रम्यकम् ५, ततोऽपि हैरण्यवतम् ६, ऐरावतम् ७ । ततः स एव प्रागुक्त उत्तरदिग्भावी इषुकारः पर्वतः ॥५८॥ सम्प्रति भरतादिक्षेत्राणामेव संस्थानमाह अरविवरसंठिआई, चउ लक्खा आययाइं खेत्ताइं । दीर्घतया, अंतो संखित्ताई, रुंदयराई कमेण पुणो ॥ ५९ ॥ [ बृहत्क्षेत्रस० ३ / ७] व्या० क्षेत्राणि भरतादीनि अरविवरसंस्थितानि, अरकाश्चक्रावयवास्तेषां विवराणि तद्वत् संस्थितानि, तथाहि- चक्रनाभिस्थानीयौ जम्बूद्वीप- लवणोदधी, अरकस्थानीया वर्षधरपर्वताः, ततो या वर्षधराणामपान्तरालवर्त्तीनि वर्षाणि तान्यरकविवराणीव प्रतिभान्ति । तानि च प्रत्येकं चतस्रो लक्षा आयतानि दीर्घाणि, तथा अरविवराणीव अंतर्लवणदिशि विष्कम्भमधिकृत्य 20 सङ्क्षिप्तानि सङ्कीर्णानि, तदनन्तरं पुनः क्रमेण मात्रया २ रुन्दतराणि विस्तीर्णतराणि ॥५९॥ भरहे मुहविक्खंभो, छावट्ठि सयाइं चोद्दसऽहिआई । अउणत्तीसं च सयं, बारसऽ हिअदुसयभागाणं || ६० || [ बृहत्क्षेत्रस० ३ / १३] व्या० भरते भरतक्षेत्रे मुखविष्कम्भो अभ्यन्तरविष्कम्भः षट्षष्टिः शतानि चतुर्दशाधिकानि योजनानामेकोनत्रिंशं च शतं द्वादशोत्तरद्विशतभागानां योजनस्य । तथाहि - चतुर्दशलक्षादिकः 25 पूर्वोक्तो ध्रुवराशिध्रियते १४०२२९७ । ततो यावत्तावता एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवति । ततो द्वाभ्यां द्वादशोत्तराभ्यां शताभ्यां भागो हियते, लब्धं यथोक्तं भरतक्षेत्रे मुखविष्कम्भपरिमाणं ६६१४ १२९ २१२ ॥६०॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् अट्ठारस य सहस्सा, पंचेव सया हवंति सीयाला । पणपन्नं अंससयं, बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥६१॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/२६] व्या० बाह्यो बहिर्भूतः, कालोददिशीत्यर्थः, धातकीखण्डे भरतक्षेत्रविष्कम्भोऽष्टादश सहस्राणि पञ्च शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि योजनानामंशानां च शतं पञ्चपञ्चाशदधिकम् । तथाहि- ध्रुवराशिः एकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततो द्वाभ्यां द्वादशोत्तराभ्यां 5 शताभ्यां भागो ह्रियते, लब्धं यथोक्तं भरतक्षेत्रबहिर्विष्कम्भपरिमाणं १८५४७ २१२ ॥६१|| चउगुणिअ भरहवासो व्यास इत्यर्थः, हेमवए तं चउग्गुणं 'तइयं हरिवर्षमित्यर्थः । हरिवासं चउगुणिअं, महाविदेहस्स विक्खंभो ॥६२॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/३०] व्या० भरतक्षेत्रस्यान्तर्भागे मध्यभागे बहिर्भागे च यो व्यासो विष्कम्भः, स चतुर्गुणितः सन् हैमवते यथाक्रममन्तर्मध्ये बहिर्व्यासपरिमाणं भवति । तदपि च चतुर्भिर्गुणितं सत् तृतीये 10 हरिवर्षक्षेत्रे यथाक्रममन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भमानं भवति । तदपि च हरिवर्षमन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भपरिमाणं चतुर्गुणितं सत् महाविदेहे यथाक्रममन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भो भवति ॥६२॥ सम्प्रति ऐरावतादीनामन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भपरिमाणमतिदेशनाह-- जह विक्खंभो दाहिणदिसाए तह उत्तरे वि वासतिए । जह पुव्वद्धे सत्त उ, तह अवरद्धे वि वासाइं ॥६३॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/३१] 15 व्या० यथा पूर्वार्धे मेरोदक्षिणस्यां दिशि भरत-हैमवत-हरिवर्षाणामन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भपरिमाणमुक्तं तथा उत्तरदिश्यपि वर्षत्रिके ऐरावत-हैरण्यवत-रम्यकरूपे यथाक्रम द्रष्टव्यम्, भरतैरावतादीनां समानविष्कम्भपरिमाणत्वात्, एतच्च प्रागेव भणितम् । तथा यथा पूर्वार्द्ध सप्त क्षेत्राणि भरतादीन्युक्तानि, तथा परार्धेऽपि सप्त भरतादीनि वर्षाणि यथोक्तपरिमाणान्यवसेयानि ॥६३॥ 20 सम्प्रति धातकीखण्डगतदेवकुरूत्तरकुरूणां विष्कम्भादिमानं गाथाद्वयेनाहसत्ताणवई सहस्सा, सत्ताणउआइं अट्ठ य सयाई ।। तिन्नेव य लक्खाइं, कुरूण भागा य बाणउई ॥६४॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/४३] व्या० विष्कम्भ इति, सप्तनवतिसहस्राणि, सप्तनवत्यधिकानि अष्टौ शतानि, त्रीणि लक्षाणि, द्विनवतिश्च द्वादशोत्तरद्विशतभागानां योजनस्य ३९७८९७ २२, स विष्कम्भः कुरूणां 25 देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च ज्ञातव्यः ॥६४॥ १. तइए- बृहत्क्षेत्रसमासे ॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अडवण्णसयं तेवीस, सहस्सा दो अ लक्ख जीवाओ । दोण्ह गिरीणायामो, संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥६५॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/४८] । व्या० द्वे लक्षे त्रयोविंशतिस्सहस्राणि, अष्टपञ्चाशदधिकं शतं २२३१५८, एषा कुरूणां जीवा, तथाहि- भद्रशालवनदैर्घ्यपरिमाणमेको लक्षः सप्त सहस्राण्यष्टौ शतानि एकोनाशीत्यधिकानि 5 १०७८७९, एतद् द्विगुणीक्रियते, जाते द्वे लक्षे पञ्चदश सहस्राणि सप्तशतान्यष्टपञ्चाशदधिकानि २१५७५८, एतन्मेरुपृथुत्वपरिमाणेन चतुर्नवतियोजनशतरूपेण सहितं क्रियते, जाते द्वे लक्षे पञ्चविंशतिः सहस्राणि शतमेकमष्टापञ्चाशदधिकं २२५१५८, द्वयोश्च गजदन्ताकृतिपर्वतयोर्विष्कम्भे द्वे योजनसहस्रे २०००, ते पूर्वस्माद्राशेरपनीयेते, ततो यथोक्तं कुरुजीवापरिमाणं भवति २२३१५८ । सम्प्रति धनुःपृष्ठानयनाय करणमाह- दोण्हेति, द्वयोर्गजदन्ताकृत्योः पर्वतयोः 10 आयाम एकत्र सक्षिप्तो मीलितः सन् यावान् भवति तत् कुरूणां देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च प्रत्येकं धनुःपृष्ठपरिमाणं जानीहि ॥६५॥ धातकीखण्डगतहिमवदादिवर्षधरवक्षस्कारादिमानमाहवासहरगिरी १२ वक्खारपव्वया ३२ पुव्व-पच्छिमद्धेसु । जंबुद्दीवगदुगुणा, वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥६६॥ बृहत्क्षेत्रस० ३/३८] व्या० धातकीखण्डे पूर्वार्द्ध पश्चिमार्द्ध च ये वर्षधरा हिमवदादयः षट् षट् ये च वक्षस्काराश्चित्रादयः षोडश षोडश, ये च वक्षस्काराः एव विद्युत्प्रभादयो गजदन्ताश्चत्वारश्चत्वारस्ते सर्वे जम्बूद्वीपगतहिमवदादिवर्षधर-चित्रादिवक्षस्कार-गजदन्ताकारविद्युत्प्रभाद्यपेक्षया द्विगुणविस्ताराः प्रतिपत्तव्याः, तद्यथा-जम्बूद्वीपे हिमवच्छिखरिणोर्विष्कम्भः पृथग् दशयोजनशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि योजनानां द्वादश च कलाः, १०५२-क०९। महाहिमवद्रुक्मिणोः पृथक् 20 द्विचत्वारिंशच्छतानि दशोत्तराणि योजनानां दश च कलाः, ४२१०-क०३:। निषधनीलवतोः पृथक् षोडश योजनसहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि द्वे च कले, १६८४२-क० १२। धातकीखण्डे पुनः पूर्वाद्धेऽपराद्धे च पृथग् हिमवच्छिखरिणोः प्रत्येकमेकविंशतिः योजनशतानि पञ्चोत्तराणि कलाश्च पञ्च, २१०५-क०६। महाहिमवद्रुक्मिणोश्चतुरशीतिर्योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि कला चैका, ८४२१-क। निषधनीलवतोस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि षट् 25 शतानि चतुरशीत्यधिकानि कलाश्चतस्रः, ३३६८४-क०५ । तथा जम्बूद्वीपे चित्रादीनां षोडशानां वक्षस्कारपर्वतानां विष्कम्भः पृथक् पञ्च योजनशतानि ५०० । धातकीषण्डे पुनस्तेषां पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध च पृथक् योजनसहस्रं १००० । तथा जम्बूद्वीपे चतुर्णां विद्युत्प्रभादीनां गजदन्ताकृतीनां विष्कम्भः पृथक् पञ्च योजनशतानि ५००, धातकीखण्डे तु पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध च पृथक् तेषां योजनसहस्रम् Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ७५ १००० । मेरुसमीपे पुनरुभयोरपि द्वीपयोस्तेषां पृथुत्वमङ्गुलासङ्ख्येयभागः । उस्सए य तुल्ल त्ति उच्छ्रये चिन्त्यमाने पुनर्धातकीखण्डेऽमी सर्वेऽपि वर्षधरवक्षस्कारपर्वता जम्बूद्वीपवर्षधरवक्षस्कारपर्वतैस्तुल्याः, तथाहि- जम्बूद्वीप इव धातकीखण्डेऽपि पूर्वार्धे अपरार्धे च पृथक् हिमवतः शिखरिणश्चोच्छ्रयपरिमाणं योजनशतम्, महाहिमवतो रुक्मिणश्च द्वे द्वे योजनशते, निषधस्य नीलस्य चत्वारि चत्वारि योजनशतानि, चित्रादीनां षोडशानां वक्षस्काराणां वर्षधरसमीपे 5 चत्वारि चत्वारि योजनशतानि ४००, शीताशीतोदासमीपे पञ्च पञ्च योजनशतानि ५००, तथा विद्युत्प्रभादीनां चतुर्णा गजदन्ताकृतीनां पर्वतानां वर्षधरसमीपे चत्वारि चत्वारि योजनशतानि ४००, मेरुसमीपे पञ्च पञ्च योजनशतानि ५०० ॥६६॥ धातकीखण्डगतकाञ्चनगिर्यादिमानमाहकंचणगजमगसुरकुरुनगा य वेअड्ड दीहवटा य । 10 विक्खंभोव्वेहसमुस्सएण जह जंबूदीविच्चा ॥६७॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/४१] व्या० देवकुरुषूत्तरकुरुषु च हृदोभयपार्श्ववर्त्तिनो ये काञ्चनगिरयः, यौ चोत्तरकुरुषु यमकसझौ पर्वतौ, यौ च सुरकुरुषु देवकुरुषु नगौ चित्रविचित्राख्यौ, ये च दीर्घवैताढ्या भरतक्षेत्रादिसम्बन्धिनः, ये च वृत्तवैताढयाः शब्दापात्यादयः, एते सर्वेऽपि विष्कम्भोद्वेधसमुच्छ्रयेण यथा जम्बूद्वीपसत्का उक्तास्तथा धातकीखण्डेऽपि पूर्वार्द्धऽपराः च प्रत्येकमवगन्तव्याः । तद्यथा- जम्बूद्वीप इव 15 धातकीखण्डेऽपि पूर्वाद्धेऽपरार्द्ध च काञ्चनगिरीणां प्रत्येकमुच्चत्वं योजनशतम् १००, मूले विष्कम्भो योजनशतम् १००, मध्ये पञ्चसप्ततियोजनानि ७५, शिरसि पञ्चाशद्योजनानि ५०, भूमौ निमग्नत्वं पञ्चविंशतियोजनानि २५। तथा मूले परिधिस्त्रीणि योजनशतानि षोडशोत्तराणि ३१६, मध्ये द्वे शते सप्तत्रिंशदधिके २३७, शिरसि शतमष्टपञ्चाशदधिकम् १५८ । अन्तरे तु विशेषः, तथाहि- जम्बूद्वीपे काञ्चनगिरयो भूप्रदेशे परस्परं सम्बद्धाः, अत्र धातकीखण्डे 20 एकादशोत्तरं योजनानां शतम् एकश्च नवभागो योजनस्य १११-२ । तथाहि- ह्रदानां दैर्घ्य द्वे योजनसहस्रे २०००, काञ्चनगिरिदशकस्य च पृथुत्वं योजनसहस्रम् १०००, ततः सहस्रद्वयादेकस्मिन् सहस्रेऽपनीते शेषमवतिष्ठते सहस्रम्, दशानां चान्तराणि नव, ततः सहस्रस्य नवभिर्भागे हृते लब्धं योजनानामेकादशोत्तरं शतम् एकश्च नवभागो योजनस्य । तथा जम्बूद्वीप इव धातकीखण्डे पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध च प्रत्येकमुत्तरकुरुषु यमकपर्वतयोर्देवकुरुषु चित्रविचित्रकूटयोः 25 पर्वतयोः पृथगुच्चत्वं योजनसहस्रम् १०००, मूले विष्कम्भो योजनसहस्रम् १०००, मध्ये सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ७५०, उपरि पञ्च शतानि ५०० । तथा मूले परिधिरेकत्रिंशद्योजनशतानि द्विषष्ट्यधिकानि ३१६२, मध्ये त्रयोविंशतिशतानि द्विसप्तत्यधिकानि २३७२, शिरसि पञ्चदश Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे शतानि एकाशीत्यधिकानि १५८१ । तथा भरतादिषु दीर्घवैताद्यानां भूतले विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनानि ५०, ततो दशयोजनानामुपरि विष्कम्भस्त्रिंशद्योजनानि ३०, ततोऽपि दशयोजनानामुपरि विष्कम्भो दश योजनानि १०, ततः पञ्च योजनानामप्युपरि विष्कम्भो दश योजनानि १०, भूमौ निमग्नास्तु षड् योजनानि सक्रोशानि यो० ६ क्रो० १ | वृत्तवैताद्यानां शब्दापात्यादीनाम् 5 उच्चत्वं योजनसहस्रम् १०००, विष्कम्भो योजनसहस्रम् १०००, परिधिरेकत्रिंशद्योजनशतानि द्वाषष्ट्यधिकानि ३१६२, भूमावपि निमग्ना द्वे योजनशते पञ्चाशदधिके २५० ॥६७|| धातकीखण्डगतविद्युत्प्रभ - गन्धमादन- सौमनस- माल्यवतां गाथायुग्मेन मानमाहलक्खा यतिणि दीहा, विज्जुप्पभगंधमायणा दो वि । 10 ७६ 15 छप्पण्णं च सहस्सा, दोन्नि सया सत्तवीसा य ॥ ६८ ॥ [ बृहत्क्षेत्रस० ३ / ४९ ] व्या० विद्युत्प्रभो देवकुरूणां पश्चिमदिशि, गन्धमादन उत्तरकुरूणां पश्चिमदिशि, एतौ द्वावपि पर्वतौ दैर्घ्ये पृथक् त्रीणि लक्षाणि षट्पञ्चाशत् सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ३५६२२७ ॥६८॥ अउट्ठा दोन सया, उणसत्तरि सहस्स पंच लक्खा य । सोमणसमालवंता, दीहा रुंदा दस सयाई ॥ ६९ ॥ [ बृहत्क्षेत्रस० ३ / ५० ] व्या० सोमनसो देवकुरूणां पूर्वदिशि, माल्यवान् उत्तरकुरूणां पूर्वदिशि, एतौ द्वावपि पर्वतौ आयामेन पृथक् पञ्च लक्षा एकोनसप्ततिसहस्राणि द्वे शते एकोनषष्ट्यधिके ५६९२५९ । इदं प्रमाणं पूर्वमेरौ द्रष्टव्यम्, पश्चिममेरौ तु यद्विद्युत्प्रभगन्धमादनयोर्दैर्घ्यमुक्तं तत् सौमनसमाल्यवतोः प्रतिपत्तव्यम्, तयोस्तत्र सङ्कीर्णक्षेत्रव्यवस्थितत्वात् यच्च सोमनसमाल्यवतोर्दैर्घ्यमुक्तं तद्विद्युत्प्रभगन्धमादनयोरवसेयम्, तयोस्तत्र दीर्घक्षेत्रस्थितत्वात् । रुन्दा विस्तीर्णाः पुनश्चत्वारोऽपि 20 वर्षधरसमीपे दश योजनशतानि १०००॥६९॥ तदेवमुक्तं गिरीणामायामप्रमाणम्, धातकीखण्डगतसर्वनदीमानमाहसव्वाओ वि णईओ, विक्खंभोव्वेहदुगुणमाणाओ । सीयासीओयाणं, वणाणि दुगुणाणि विक्खंभो ॥७०॥ [ बृहत्क्षेत्रस० ३ /४०] व्या० धातकीखण्डे द्वीपे सर्वा अपि नद्यो जम्बूद्वीपगतनद्यपेक्षया विष्कम्भे उद्वेधे च 25 द्विगुणमाना द्विगुणप्रमाणा:, तथाहि - जम्बूद्वीपे गङ्गासिन्धु-रक्तारक्तावतीसञ्ज्ञकानामष्टषष्टिसङ्ख्यानां नदीनां प्रवाहविष्कम्भः षड् योजनानि सक्रोशानि यो० ६ क्रो० १, समुद्रप्रवेशे सार्द्धानि द्वषष्टियोजनानि यो० ६२ क्रो० २ । प्रवाहे उद्वेधः क्रोशार्द्धमेकम्, समुद्रप्रवेशे पञ्च गव्यूतानि १. विक्खंभे - बृहत्क्षेत्र० ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ५, धातकीखण्डे तु पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध च प्रत्येकममूषामष्टषष्टिसङ्ख्यानामपि नदीनां प्रवाहविष्कम्भो द्वादश योजनानि सार्द्धानि यो० १२ क्रो० २, समुद्रप्रवेशे पञ्चविंशं योजनशतम् १२५, प्रवाहे उण्डत्वं गव्यूतमेकम् क्रो० १, समुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनानि यो० २ क्रो० २। तथा जम्बूद्वीपे रोहितांशा-रोहिता-सुवर्णकूला-रूप्यकूलानां गाहावत्यादीनां च द्वादशानां विजयान्तर्वर्तिनीनां नदीनां सर्वसङ्ख्यया षोडशनदीनां प्रत्येकं प्रवाहे विष्कम्भः सार्द्धानि द्वादशयोजनानि यो० 5 १२ क्रो० २, समुद्रप्रवेशे पञ्चविंशं योजनशतम् १२५ । प्रवाहे उण्डत्वं गव्यूतमेकम् क्रो० १, समुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनानि यो० २ क्रो० २ । धातकीखण्डे तु पूर्वाद्धेऽपरार्द्ध च पृथक् अमू, षोडशानामपि नदीनां प्रवाहे विष्कम्भः पञ्चविंशतिर्योजनानि २५, समुद्रप्रवेशे द्वे शते पञ्चाशदधिके २५० । प्रवाहे उण्डत्वं द्वे गव्यूते क्रो० २, समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनानि ५ । तथा जम्बूद्वीपे हरिकान्ता-हरिसलिला-नारीकान्ता-नरकान्तानां नदीनां प्रवाहे विष्कम्भ: 10 पञ्चविंशतिर्योजनानि २५, समुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि २५०, प्रवाहे उण्डत्वं द्वे गव्यूते क्रो० २, समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनानि ५। धातकीखण्डे तु पूर्वाद्धेऽपरार्दै च प्रत्येकममूषां चतसृणामपि नदीनां पृथक् प्रवाहे विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनानि ५०, समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनशतानि ५००, प्रवहे उण्डत्वमेकं योजनम् १, समुद्रप्रवेशे दश योजनानि १०, जम्बूद्वीपे शीताशीतोदयोः प्रत्येकं प्रवहे विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनानि ५०, समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनशतानि ५००, प्रवहे 15 उण्डत्वमेकं योजनम् १, समुद्रप्रवेशे दश योजनानि १० । धातकीखण्डे तु पूर्वार्द्धऽपराः च प्रत्येकमनयोर्नद्योः पृथक् प्रवहे विष्कम्भो योजनशतम् १००, समुद्रपवेशे योजनसहस्रम् १०००, प्रवहे उण्डत्वं द्वे योजने २, समुद्रप्रवेशे विंशतिर्योजनानि २० । तथा शीताशीतोदयोरुभयकूले समुद्रप्रवेशे यानि वनानि, तान्यपि विष्कम्भे चिन्त्यमाने जम्बूद्वीपगतशीताशीतोदयोरुभयकूलभाविवनापेक्षया द्विगुणानि द्विगुणप्रमाणानि । तथाहि- जम्बूद्वीपे 20 वनविष्कम्भो निषध-नीलसमीपे योजनस्यैक एकोनविंशतिभागः १., शीताशीतोदासमीपे योजनानामेकोनत्रिंशच्छतानि द्वाविंशत्यधिकानि २९२२, धातकीखण्डे तु पूर्वाद्धेऽपरार्द्ध च प्रत्येकं वनानां विष्कम्भो निषध-नीलसमीपे द्वौ योजनगतावेकोनविंशतिभागौ २ , शीताशीतोदासमीपे योजनानामष्टापञ्चाशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५८४४ ॥७०॥ [पृ०१४०] धातकीखण्डगतपद्महदादिकुण्डादीनां च मानमाहवासहरकुरुसु दहा, नईण कुंडाइ तेसु जे दीवा ।। उव्वेहुस्सयतुल्ला, विक्खंभायामओ दुगुणा ॥७१॥ [बृहत्क्षेत्रस० ३/३९] व्या० धातकीखण्डे पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध च ये वर्षधरेषु हिमवदादिषु कुरुषु देवकुरुषु उत्तरकुरुषु 25 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे च ह्रदाः पद्महदादयो यानि च नदीनां गङ्गा-सिन्धुप्रभृतीनां कुण्डानि, तेषु कुण्डेषु च ये द्वीपा गङ्गाद्वीपादयः, एतानि सर्वाण्यपि जम्बूद्वीपगतैर्हदादिभिः सहोद्वेधोच्छ्याभ्यां तुल्यानि, विष्कम्भायामाभ्यां तु जम्बूद्वीपगतपद्महदाद्यपेक्षया द्विगुणानि, तथाहि- जम्बूद्वीप इव धातकीखण्डे पूर्वार्द्धऽपरार्धे च प्रत्येकं पद्महदादीनां हृदानां गङ्गाप्रपातकुण्डादीनां कुण्डानामुद्वेधः सर्वेषामपि 5 पृथक् पृथक् दश योजनानि १०, येऽपि च गङ्गाप्रपातकुण्डादिषु गङ्गाद्वीपादयो द्वीपास्तेऽपि प्रत्येकमुच्छ्रयेण जलमध्ये दश योजनानि १०, जलादूर्ध्वं च द्वौ द्वौ क्रोशाविति ॥७१।। [पृ०१४०] दो चंदा इह दीवे, चत्तारि अ सागरे लवणतोए । धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा य ॥७२॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५/७२,बृहत्सङ्ग्रहणी ६४] 10 व्या० द्वौ चन्द्रौ इह द्वीपे जम्बूद्वीपे, चत्वारः लवणनाम्नि सागरे, धातकीखण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राः सूर्याश्चोदयं गच्छन्ति ॥७२॥ [पृ०१४२] धातकीखण्डगतपण्डगवनशिलास्वरूपं गाथाद्वयेनाहपंडगवणम्मि चउरो, सिलाउ चउसु वि दिसासु चूलाए । चउजोयणुस्सिआओ, सव्वजुणकंचणमयाओ ॥७३॥ पंचसयायामो, मज्झे दीहत्तणऽद्धरुंदाओ । चंदऽद्धसंठिआओ, कुमुदोदरहारगोराओ ॥७४॥ [बृहत्क्षेत्रस० १।३५५-३५६] व्या० पण्डकवने चूलिकायाश्चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकमेकैकशिलाभावेन चतम्रोऽभिषेक शिलास्ताश्च प्रत्येकं चतुर्यो जनोच्छ्रिताः चतुर्यो जनप्रमाणबाहल्याः सर्वार्जुनकाञ्चनमय्यः सर्वश्वेतसुवर्णमय्यः पञ्चशतायामा: पञ्चयोजनशतप्रमाणायामाः मध्ये 20 दीर्घत्वार्द्धरुन्दाः । मध्यभागेऽर्द्धतृतीययोजनशतप्रमाणविष्कम्भाः चन्द्रार्द्धसंस्थिता अर्द्धचन्द्र संस्थानसंस्थिताः कुमुदोदरहारगौराः कुमुदगर्भ-मुक्ताफलहारवद् गौर्यः । तत्र पूर्वापरदिग्भाविन्यौ शिले दक्षिणोत्तरायते पूर्वापरविस्तृते, दक्षिणोत्तरदिग्भाविन्यौ तु पूर्वापरायते दक्षिणोत्तरविस्तृते ॥७३-७४।। [पृ०१४२] मेरुचूलास्वरूपमाह25 मरुस्स उवरि चूला, जिनभवणविभूसिआ दुवीसुच्चा ४०। बारस य अट्ठ चउरो, मूले मज्झे उवरि रुंदा ॥७५॥ व्या० सुगमा, नवरं मेरोर्मन्दरस्योपरि चूला शिखरविशेषः, तस्याः स्वरूपमिदम्१ तुलना- बृहत्क्षेत्रसमासे गा० ३१४, ३४८, ३४९ ॥ 15 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् कथम्भूता ? जिनभवनविभूषिता । पुनः कथम्भूता ? दुवीसुच्च त्ति द्विविंशत्युच्चा, द्वे विंशती उच्चा द्विविंशत्युच्चा चत्वारिंशद्योजनान्युच्चेत्यर्थः । द्वादशयोजनानि मूले आदौ रुन्दा विस्तीर्णा, अष्टौ योजनानि मध्ये मध्यभागे विस्तीर्णा, चत्वारि योजनान्युपरि विस्तीर्णा इति ॥७५|| पुष्करवरद्वीपगतभरतादिक्षेत्राणां वर्षधराणां च विष्कम्भादिमानं गाथाकदम्बकेनाह[पृ०१४२] इगुयालीस सहस्सा, पंचेव सया हवंति गुणसीआ । तेवत्तरमंसमयं, मुहविक्खंभो भरहवासे ॥७६॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५/१७] व्या० भरतवर्षे भरतक्षेत्रे मुखविष्कम्भोऽभ्यन्तरविष्कम्भः, कालोदधिदिशि विष्कम्भ इत्यर्थः, एकचत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्चशतान्येकोनाशीत्यधिकानि योजनानाम् अंशानां च शतं त्रिसप्तत्यधिकम् । तथा हरिवर्षधरविहीनक्षेत्रपरिमाणरूपो ध्रुवराशिः ८८१४९२१ एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवति, ततो द्वाभ्यां द्वादशोत्तराभ्यां शताभ्यां भागो ह्रियते, लब्धं 10 यथोक्तं भरतक्षेत्रे अभ्यन्तरविष्कम्भपरिमाणं ४१५७९३७३ ॥७६॥ पन्नट्ठि सहस्साइं, चत्तारि सया हवंति छायाला । तेरस चेव य अंसा, बाहिरओ भरहविक्खंभो ॥७७॥ [बृहत्क्षेत्रस.५/२६] व्या० भरतक्षेत्रे बाह्यो विष्कम्भः पञ्चषष्टिस्सहस्राणि चत्वारि शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनानामंशाश्च त्रयोदश । तथाहि- ध्रुवराशिः १३८७४५६५ एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं 15 तदेव भवति, ततो द्वादशोत्तराभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां भागो ह्रियते, लब्धं यथोक्तं भरतक्षेत्रे बहिर्विष्कम्भमानं ६५४४६ १३ ॥७७॥ चउगुणिअभरहवासो विस्तरत इत्यर्थः, हिमवंते तं चउगुणं भइअं हरिवर्षमित्यर्थः । हरिवासं चउगुणिअं, महाविदेहस्स विक्खंभो ॥७८॥ व्या० भरतक्षेत्रस्यान्तर्भागे मध्यभागे बहिर्भागे च यो व्यासो विष्कम्भः स चतुर्गुणितस्सन् 20 हैमवते यथाक्रम अन्तर्मध्यबहिर्व्यासपरिमाणं भवति, तदपि च चतुर्भिर्गुणितं सत् तृतीये हरिवर्षक्षेत्रे यथाक्रममन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भमानं भवति, तदपि च हरिवर्षमन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भपरिमाणं चतुर्गुणितं सत् महाविदेहे यथाक्रममन्तर्मध्यबहिर्विष्कम्भो भवति ॥७८॥ [पृ०१४३] सत्तत्तरि सयाई चउदसअहिआई सत्तरस लक्खा ।। होइ कुरुविक्खंभो, अट्ठ य भागा अपरिसेसा ॥७९॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५/४२] 25 व्या० सप्त सहस्राणि सप्त शतानि चतुर्दशाधिकानि सप्तदश लक्षाः, योजनानामष्टौ च द्वादशोत्तरद्विशतभागा योजनस्य १७०७७१४८, स विष्कम्भः कुरूणां देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च ॥७९॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे चत्तारि लक्ख छत्तीस, सहस्सा नव सया य सोलऽहिआ एषा कुरुजीवा । दोण्ह गिरीणायामो, संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥८॥ [बृहत्क्षेत्रस. ५/८७] व्या० चत्वारि लक्षाणि षट्त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि ४३६९१६, एषा कुरूणां जीवा, तथाहि- भद्रशालवनदैर्घ्यपरिमाणं द्वे लक्षे पञ्चदश सहस्राणि सप्त 5 शतान्यष्टपञ्चाशदधिकानि २१५७५८, एतद् द्विगुणीक्रियते, जाताश्चतस्रो लक्षा एकत्रिंशत्सहस्राणि पञ्च शतानि षोडशाधिकानि ४३१५१६ । एतन्मेरुपृथुत्वपरिमाणेन चतुर्नवतिशतरूपेण ९४०० सहितं क्रियते, जाताश्चतम्रो लक्षाश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशाधिकानि ४४०९१६, एतस्माच्छैलविष्कम्भमानं चतुस्सहस्ररूपं ४००० शोध्यते, ततः शेषं यथोक्तं कुरुजीवाप्रमाणं भवति ४३६९१६ । सम्प्रति धनुःपृष्ठानयनाय करणमाह- दोण्हेति, द्वयोर्गजदन्ताकृत्योः 10 पर्वतयोरायाम एकत्र सङ्क्षिप्तो मीलितस्सन् यावान् भवति तत् कुरूणां देवकुरूणामुत्तरकुरूणां च प्रत्येकं धनुः धनुःपृष्ठपरिमाणं जानीहि ॥८०॥ तत्र गिरीणामायामप्रमाणमाहसोमणसमालवंता, दीहा वीसं भवे सयसहस्सा । तेआलीस सहस्सा, अउणावीसा य दोण्णि सया ॥८१॥ [बृहत्क्षेत्रस. ५।४८] 15 व्या० सौमनसो देवकुरूणां पूर्वदिशि, माल्यवानुत्तरकुरूणां पूर्वदिशि । एतौ द्वावपि पर्वतौ दी? पृथग्विंशतिशतसहस्राणि त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते एकोनविंशत्यधिके २०४३२१९ ।।८१॥ सोलऽहि सयमेगं, छव्वीससहस्स सोलस य लक्खा । विजुप्पभो नगो गंधमायणो चेव दीहाओ ॥८२॥ [बृहत्क्षेत्रस. ५।४९] 20 व्या० विद्युत्प्रभो नगो देवकुरूणां पश्चिमदिशि, गन्धमादन उत्तरकुरूणां पश्चिमदिशि । एतौ द्वावपि पर्वतौ पृथग् आयामेन षोडश लक्षाः षड्विंशतिस्सहस्राणि शतमेकं षोडशाधिकम् १६२६११६ । इदं तु प्रमाणं पूर्वमेरौ द्रष्टव्यम्, पश्चिममेरौ तु यदनयोर्दैर्घ्यमानमुक्तं तत् सौमनसमाल्यवतोरवसेयम्, तयोस्तत्र सङ्कीर्णक्षेत्रव्यवस्थितत्वात्, यच्च सौमनसमाल्यवतोः र्दैर्घ्य मुक्तं तदनयोरवसातव्यम्, अनयोस्तत्र पृथुलक्षेत्रव्यवस्थितत्वात् । तदेवमुक्तं 25 गिरीणामायामपरिमाणम् ॥८२॥ [पृ०१४३] धायइवरम्मि दीवे जो विक्खंभो उ होइ उ नगाणं । सो दुगुणो नेयव्वो, पुक्खरद्धे नगाणं तु ॥८३॥[बृहत्क्षेत्रस. ५।३७] व्या० धायइवरम्मीत्यत्र अहवा धायइदीवे इति पाठो युक्तः, ग्रन्थेषु तथैव व्याख्यातत्वात्। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् तथाहि-अथवेति प्रकारान्तरताद्योतने, धातकीखण्डद्वीपे यो नगानां हिमवदादीनां वर्षधरपर्वतानां विष्कम्भो भवति स द्विगुणस्सन् पुष्करवरद्वीपार्द्ध नगानां हिमवदादीनां क्रमेण विष्कम्भो ज्ञातव्यः । तथाहि-धातकीखण्डे हिमवति शिखरिणि च प्रत्येकं विष्कम्भ एकविंशतिर्योजनशतानि पञ्चोत्तराणि द्वाविंशतिश्चतुरशीतिभागा योजनस्य २१०५२४, पुष्करवरद्वीपाढे द्विचत्वारिंशद्योजनशतानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्चतुरशीतिभागा योजनस्य ४२१०४४ । 5 तथा धातकीखण्डे महाहिमवति रुक्मिणि च प्रत्येकं विष्कम्भः चतुरशीतियोजनशतानि एकविंशत्यधिकानि चत्वारश्चतुरशीतिभागा योजनस्य ८४२१ ४, पुष्करवरद्वीपाः षोडश योजनसहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि अष्टौ च चतुरशीतिभागा योजनस्य १६८४२ ८ । तथा धातकीखण्डे निषधे नीले च प्रत्येकं विष्कम्भः त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां षोडश च चतुरशीतिभागा योजनस्य ३३६८४ १८ , 10 पुष्करवरद्वीपार्द्ध सप्तषष्टिः सहस्राणि त्रीणि शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि योजनानां द्वात्रिंशच्चतुरशीतिभागा योजनस्य ६७३६८३२ ॥८३॥ सम्प्रति वर्षधर-वक्षस्कारादीनां विस्तारोच्छ्रयपरिमाणमाह[पृ०१४३] वासहरा वक्खारा, दह-नइ-कुंडा वणा य सीआए । दीवे दीवे दुगुणा, वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥८४॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५/३८] 15 ___ व्या० वर्षधरा हिमवदादयः, वक्षस्काराश्चित्रादयो विजयाद्यन्तर्वर्त्तिनः पर्वता विद्युत्प्रभादयश्च गजदन्ताकृतयः, ह्रदाः पद्महदादयः, नद्यो गङ्गानद्यादयः, कुण्डानि गङ्गाप्रपातकुण्डादीनि, वनानि च शीतायाः, उपलक्षणमेतत्, शीतोदायाश्च समीपे यानि वनानि, तान्यपि द्वीपे द्वीपे विस्तारमधिकृत्य पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् द्विगुणानि वेदितव्यानि, उच्छ्रये च चिन्त्यमाने पुनः सर्वाण्यप्येतानि तुल्यानि इत्यक्षरार्थः, विस्तरार्थिना तु बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तिरवलोक्या, अक्षरार्थस्यैवात्र प्रायशः 20 प्रतिज्ञातत्वादिति ॥८४॥ साम्प्रतमिषुकारादिपर्वतगतमतिदेशमाहउसुआर-जमग-कंचण-चित्त-विचित्ता य वट्टवेअड्डा । दीवे दीवे तुल्ला, दुमेहला जे अ वेअड्डा ॥८५॥ [बृहत्क्षेत्रस० ५/३९] व्या० ये इषुकारपर्वताः, ये चोत्तरकुरुषु यमकपर्वताः, ये च देवकुरूत्तरकुरुषु ह्रदप्रत्यासन्ना: 25 काञ्चनगिरयः, ये च देवकुरुषु चित्रविचित्राभिधाः पर्वताः, ये च वृत्तवैताढ्याः, ये च मेखलाद्वयकलिता भरतैरावतविजयगता वैताढ्याः, एते सर्वेऽपि द्वीपे द्वीपे तुल्याः । किमुक्तं भवति? यदेवैषां जम्बूद्वीपे परिमाणमुक्तं तदेव धातकीखण्डे पुष्करवरद्वीपाडूंऽप्यवगन्तव्यमिति ॥८५।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे पृ०१४५] सौधर्मादिविमानानां वर्णविभागमधिकृत्याहसोहम्मि पंचवण्णा, एक्कगहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीआई ॥८६॥ [बृहत्सङ्ग्रहणी १३२] व्या० सौधर्मकल्पे विमानानि वर्णेन वर्णमधिकृत्य पञ्चवर्णानि श्वेत-पीत-रक्त-नील5 कृष्णवर्णोपेतानि भवन्ति, तत ऊर्ध्वं यावत् सहस्रारः कल्पस्तावदेकैकहानिरेकैकवर्णहानिर्द्रष्टव्या, नवरं द्वौ द्वौ कल्पौ तुल्यौ, वर्णमधिकृत्य तुल्यवक्तव्यताको वेदितव्यौ । इयमत्र भावना- सौधर्मेशानकल्पयोर्विमानानि शुक्ल-पीत-रक्त-नील-कृष्णवर्णोपेतानि भवन्ति, सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः कृष्णवर्णरहितशेषवर्णचतुष्टयोपेतानि, ब्रह्मलोक-लान्तककल्पयोः कृष्ण-नीलरहितशेषवर्ण त्रयोपेतानि, शुक्र-सहस्रारकल्पयोः कृष्ण-नील-रक्तरहितशेषवर्णद्वयोपेतानि । तेण परं पुंडरीआई 10 ति ततः सहस्रारात् परं विमानानि सर्वाण्यपि पुण्डरीकाणि पुण्डरीकतुल्यवर्णानि भवन्ति, पुण्डरीकं सिताम्बुजम्, तद्वत् श्वेतानि भवन्तीत्यर्थः । द्विस्थानकस्य तृतीयोद्देशकः ॥३॥ [अथ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम्] [पृ०१४८] गाथात्रयेण प्राणादिप्रमाणमाह15 हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चइ ॥१॥ [बृहत्सं० २०७] व्या० हृष्टस्य तुष्टस्याऽनवकल्यस्य नीरोगस्य निरुपक्लिष्टस्य श्रम-बुभुक्षादिनाऽनभिभूतस्य जन्तोर्मनुष्यादेरेकोच्छ्वासेन युक्तो निःश्वासः, य इति गम्यते, एष प्राण इत्युच्यते, शोक जरादिभिरस्वस्थस्य जन्तोरुच्छ्वासस्त्वरितादिरूपतया स्वभावस्थो न भवति, अतो 20 हृष्टादिविशेषणोपादानम् ॥१॥ सत्त पाणुणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते विआहिए ॥२॥ [बृहत्सं० २०८] व्या० सत्तपाणु इति प्राकृतत्वात् सप्त प्राणा यथोक्तस्वरूपाः, ये इति गम्यते, स एकः स्तोकः । एवं सप्त स्तोका ये, स एको लव: । लवानां सप्तसप्तत्या यो निष्पद्यते एष 25 मुहूर्त इत्याख्यातः कथितः ।।२।। तिण्णि सहस्सा सत्त य, सयाई तेवत्तरिं च उसासा । एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहिं अणंतनाणीहिं ॥३॥ व्या० अस्या भावार्थ:-सप्तभिस्सप्तभिरुच्छ्वासैरेकः स्तोको निर्दिष्टः, एवम्भूताश्च स्तोका एकस्मिल्लॅवे सप्त प्रोक्ताः, ततस्सप्त सप्तभिरेव गुणिता इत्येकस्मिल्लॅवे एकोनपञ्चाशदुच्छ्वासाः Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् सिद्धाः । एकस्मिँश्च मुहूर्ते लवाः सप्तसप्ततिर्निर्णीताः, अत एकोनपञ्चाशत् सप्तसप्तत्या गुण्यते, ततो यथोक्तमुच्छ्वासनिःश्वासमानं भवति । तच्चेदम् - त्रीणि सहस्राणि सप्त च शतानि त्रिसप्ततिश्च ३७७३ । एतावन्तो यत्रोच्छ्वासा एष मुहूर्त्तो भणितः सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ||३|| [पृ०१४८] पुव्वस्स उ परिमाणं, सयरिं खलु होंति कोडिलक्खाओ । छप्पन्नं च सहस्सा, बोधव्वा वासकोडीणं ॥ ४ ॥ [ जीवसमासे ११३, ज्योतिष्करण्डके ६२, प्रवचनसारो० १३८७, बृहत्सं० ३१६ ] व्या० पूर्वस्य तु परिमाणम्, तत्र च वर्षकोटीनां सप्ततिः कोटिलक्षा षट्पञ्चाशत् सहस्राः ७०५६०००००००० | [पृ०१५१] योगप्रत्ययस्वरूपमाह अप्पं बायरमउअं, बहुं च रुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं तिय, सायाबहुलं च तं कम्मं ॥६॥ व्या० इयं गाथा वृत्तिकृतैव किञ्चिद् व्याख्यातत्वान्न व्याख्यातेति ॥ ६॥ ८३ [पृ०१४९] पूर्वाङ्गादीनां करणमाह इच्छिअठाणेण गुणं, पण सुन्नं चउरसीइगुणिअं च । काऊण तइअवारे, पुव्वंगाइण मुण संखं ॥५॥ व्या० पञ्च शून्यानि प्रथमं स्थाप्यन्ते, तत ईप्सितगुणं द्वितीयवारे क्रियते, तदा पूर्वाङ्गादीनां मुण जानीहि सङ्ख्याम् । अत्र भावना- पूर्वं पञ्च शून्यानि स्थापितानि, तत ईप्सितं स्थानमत्र एकक एव, तद् 'एकेन गुणितं तदेव भवती 'ति न्यायात् पञ्च शून्यान्येव स्थितानि, ततश्चतुरशीतिगुणितानि जातानि चतुरशीतिलक्षाः ८४०००००, तत् पूर्वाङ्गमानम् । तथा यदा 15 पूर्वमानं ज्ञातुं विलोक्यते तदा पञ्च शून्यानि ईप्सितो द्वितीयोऽङ्कस्ततो द्विगुणिता अपि क्रियन्ते, जातानि दश शून्यानि, ततश्चतुरशीतिरूपाङ्कश्चतुरशीत्या गुण्यते, जातम् ७०५६००००००००००। एवमग्रेऽपि करणं कर्त्तव्यम्, यावच्छीर्षप्रहेलिका भवति ॥५॥ 5 10 [पृ०१५२] अत्र कषायाणामनर्थकारित्वे ग्रन्थसम्मतिमाह को दुक्खं पावेज्जा ?, कस्स व सुक्खेहिं विम्हओ होजा? | को व न लहेज मुक्खं, रागद्दोसा जइ न होज्जा ॥७॥ [ उपदेशमाला० १२९] 25 व्या० को दुःखं प्राप्नुयात् ?, हेत्वभावान्न कश्चित् । कस्य वा सौख्यैः प्राप्तैर्विस्मय आश्चर्यबुद्धिर्भवेत् ?, न कस्यचित्, [ प्रति ? ] बन्धकाभावेन सुलभत्वात् । अत एव को न लभेत मोक्षं शिवम्, राग-द्वेषौ यदि न भवेतामिति ?, तदिदं राग- -द्वेषावधिकृत्योक्तम् ॥७॥ [पृ०१५५] पल्योपम-सागरोपमस्वरूपप्ररूपणपूर्वकं द्वीप - समुद्राणां रज्जोश्च मानमाह 20 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ 25 उद्धारसागराणं, अड्डाइज्जाण जत्तिआ समया । दुगुणाद्गुणपवित्थर, दीवोदहि रज्जु एवइया ॥८॥ [ बृहत्क्षेत्रस० १ / ३, बृहत्सं० ८०] व्या० अर्द्धं तृतीयं येषां तानि अर्धतृतीयानि द्वे अर्द्धं चेत्यर्थः, तेषामुद्धारसागरोपमाणाम् । इह सागरोपमाणि त्रिधा भवन्ति, तद्यथा - अद्धासागरोपमाणि क्षेत्रसागरोपमाणि उद्धारसागरोपमाणि 5 च । तत्राद्धा-क्षेत्रव्यवच्छेदार्थमुद्धारग्रहणम् । अथ किमिदमुद्धारसागरोपमम् ? इत्युच्यतेउत्सेधाङ्गुलप्रमाणेनायामविष्कम्भाभ्यामुद्वेधेन य योजनप्रमाणः पल्यः परिकल्प्यते, ततस्तं देवकुरूत्तरकुरुमिथुनकसत्कानेकादिसप्ताहोरात्रप्ररूढान् केशान् गृहीत्वा तेषां प्रत्येकमसङ्ख्येयानि खण्डानि विधाय तैस्तथा निचितमापूर्यते यथोपरि भारशतलोहगोलकाक्रमणेऽपि न मनागपि निम्नीभवति, ततः समये समये एकैकं वालाग्रमुध्रियते, यावता च कालेन स पल्यो निर्लेपी10 भवति तावान् कालविशेष उद्धारपल्योपम उच्यते । तेषां चैवम्भूतानामुद्धारपल्योपमानां दशकोटीकोट्य एकमुद्धारसागरोपमम् । तेषामेवंरूपाणामर्द्धतृतीयानामुद्धारसागरोपमाणां यावन्तस्समयास्तावत्प्रमाणा द्वीपोदधयः । कथम्भूताः ? इत्याह- द्विगुणद्विगुणप्रविस्ताराः, पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् द्विगुणो द्विगुणः प्रविस्तारो विष्कम्भो येषां ते तथा, तथाहि - जम्बूद्वीपस्य प्रविस्तारो योजनानां शतसहस्रम्। इह योजनादिकं सर्वत्र प्रमाणाङ्गुलेन वेदितव्यम् नगपुढविविमाणाइं मिणसु पमाणगुण 15 [ ]इति वचनप्रामाण्यात् । ततो द्वे लक्षे विष्कम्भो लवणोदसमुद्रस्य, चतस्रो लक्षा धातकीखण्डे, अष्टौ कालोदसमुद्रस्य, षोडश पुष्करवरद्वीपस्य, द्वात्रिंशत् पुष्करवरोदसमुद्रस्य एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् द्विगुणद्विगुणविष्कम्भतया द्वीपसमुद्रास्तावद्वाच्या यावदसङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भात् स्वयम्भूरमणद्वीपात् स्वयम्भूरमणसमुद्रो द्विगुणविष्कम्भः । इत्थम्भूतैर्द्विगुणविष्कम्भैरर्द्धतृतीयोद्धारसागरोपमसमयप्रमितैरसङ्ख्येयैर्द्वप- समुद्रैर्यत् परिमितं क्षेत्रं तावत्प्रमाणा रज्जुर्भवति 20 इत्येतदावेदयन्नाह - रज्जु एवइआ, एतावती एतावत्प्रमाणा रज्जुर्भवति, तेन यत्र क्वापि लोकविभागचिन्तायां रज्जुव्यवहारस्तत्रैतावत्प्रमाणा रज्जुरवसेया । क्वचित् होंति एवइया इति पाठः, तत्रैवं व्याख्या- एतावन्तो द्वीप - समुद्रा भवन्ति । तदेवं प्रतिपादिताः सर्वसङ्ख्यया द्वीपसमुद्राः ||८|| [पृ०१५८] मिथ्यादृष्टेर्ज्ञानमप्यज्ञानमिति दृष्टान्तद्वारेण महाग्रन्थसम्मत्या गाथाद्वयेन तदेव सविस्तरं ख्यापयति वाचकसुमतिकल्लोल - वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अविसेसिआ मइच्चि, सम्मद्दिट्ठिस्स सा मई नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुअं पि एमेव ॥ ९ ॥ [ विशेषाव० ११४] व्या० सम्यग्दृष्टि - मिथ्यादृष्टिभावेनाऽविशेषिता मतिर्मतिरेवोच्यते, न तु मतिज्ञानं मत्यज्ञानं चेति । सम्यग्दृष्टेः सा मतिर्ज्ञानम्, मिथ्यादृष्टेः सैव मतिरज्ञानम्, श्रुतमप्येवमेव । तृतीयस्थानके तृतीयोद्देश ||९|| Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१५८] जह दुव्वयणमवयणं, कुच्छिअसीलमसीलमसईए । मण्णइ तह नाणं पि हु, मिच्छद्दिट्ठिस्स अन्नाणं ॥ १० ॥ [विशेषाव० ५२०] व्या० यथा दुर्वचनं कुत्सितं वचनं तदप्यवचनं लोके भण्यते, असत्याश्च सम्बन्धि कुत्सितशीलं विद्यमानमप्यशीलं यथाऽभिधीयते, तथा मिथ्यादृष्टेर्ज्ञानमपि मिथ्यादर्शनोदयपरिग्रहादज्ञानं भण्यते, सञ्ज्ञाऽप्यसञ्ज्ञोच्यत इत्यर्थः ॥ १० ॥ [पृ०१५८] जं सामन्नग्गहणं, भावाणं नेअ कटु आगारं । [पृ०१५८] कस्मात् पुनस्तस्य ज्ञानमप्यज्ञानं भवतीत्याहसदसदविसेसणाओ, भवहेउजइच्छिओवलंभाओ । नाणफलाभावाओ, मिच्छद्दिट्ठिस्स अन्नाणं ||११|| [विशेषाव० ११५ ] घट व्या० सच्चासच्च सदसती, तयोरविशेषणमविशेषस्तस्माद्धेतोर्मिथ्यादृष्टेः सम्बन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमुच्यते । सतो ह्यसत्त्वेनासद्विशिष्यतेऽसतोऽपि सत्त्वेन 10 सद्भिद्यते । मिथ्यादृष्टिश्च घटे सत्त्व - प्रमेयत्व - मूर्तत्वादीन् स्तम्भ - रम्भा -ऽम्भोरुहादिव्यावृत्त्यादींश्च पटादिधर्मान् सतोऽप्यसत्त्वेन प्रतिपद्यते, सर्वप्रकारैर्घट एवायमित्यवधारणात्, अनेन ह्यवधारणेन सन्तोऽपि सत्त्व-प्रमेयत्वादयः पटादिधर्मा न सन्तीति प्रतिपद्यते, अन्यथा सत्त्वप्रमेयत्वादिसामान्यधर्मद्वारेण घटे पटादीनामपि सद्भावात् सर्वथा घटः एवायमित्यवधारणाऽनुपपत्तेः, कथञ्चिद् घट एवायमित्यवधारणे त्वनेकान्तवादाभ्युपगमेन 15 सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गात् । तथा पट-पुट-नट शकटादिरूपं घटेऽसदपि सत्त्वेनाऽयमभ्युपगच्छति, सर्वप्रकारैर्घटोऽस्त्येवेत्यवधारणात् । स्यादस्त्येव घट इत्यवधारणे तु स्याद्वादाश्रयणात् सम्यग्दृष्टित्वप्राप्तेः । तस्मात् सदसतोर्विशेषाभावादुन्मत्तकस्येव मिथ्यादृष्टेर्बोधोऽज्ञानम्, तथा विपर्यस्तत्वादेव भवहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम् । तथा पशुवधहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम् । पशुवध - तिलादिदहन - जलाद्यवगाहनादिषु संसारहेतुषु मोक्षहेतुत्वबुद्धेर्दया-प्रशम-ब्रह्मचर्या - 20 ऽऽकिञ्चन्यादिषु तु मोक्षकारणेषु भवहेतुत्वाध्यवसायतो यदृच्छोपलम्भात्तस्याऽज्ञानम्, तथा विरत्यभावान्मिथ्यादृष्टेरज्ञानमिति गाथार्थः ||११|| ८५ 5 अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिति वुच्चए समए ॥ १२ ॥ व्या० समये सिद्धान्ते तद्दर्शनमित्युच्यते यत् सामान्यतो भावानां घटपटादीनां ग्रहणम्, 25 किं कृत्वा ? आकारं नैव कृत्वा । आकारस्यैव पर्यायमाह- अर्थे अविशेष्य, विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षण आकार इति, तम् अगृहीत्वा । कोऽर्थः ? निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं ज्ञानमिति तात्पर्यार्थः ||१२|| Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०१५९] ओआहारा जीवा, सव्वे अपज्जत्तगा मुणेअव्वा । पजत्तगा य लोमे, पक्खेवे होंति भइअव्वा ॥१३॥ [बृहत्सं० १९८, प्रवचनसारो० ११८१] व्या० ओज उत्पत्तिदेशे स्वशरीरयोग्यः पुद्गलसमूहस्तदाहारयन्तीत्योजआहाराः । यद्वा 5 ओजस्तैजसशरीरम्, तेनाहारो येषां ते ओजआहारा जीवाः सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियान्ता अपर्याप्ता अवगन्तव्याः । अपर्याप्तत्वं च शरीरपर्याप्तिमपेक्ष्य नाहारपर्याप्तिम्, तदपर्याप्तानामनाहारकत्वात्। सर्वाभिः स्वयोग्यपर्याप्तिभिरपर्याप्ता ओजआहारा इत्यन्ये । तथा पर्याप्ताः शरीरपर्याप्त्या, मतान्तरेण सर्वाभिः स्वयोग्यपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः सर्वे जीवा लोमाहारे नियमतो भवन्ति । पर्याप्तानां सर्वेषामपि जीवानां सर्वदाऽपि लोमाहारो भवत्येवेति भावः । 10 तथा च धर्माद्यभितप्ता छायया शीतलानिल-सलिलस्पर्शनेन वा प्रीयन्ते प्राणिनः । प्रक्षेपाहारे भवन्ति भजनीयाः, यदैव कवलप्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारः, नान्यदा, लोमाहारता तु पवनादिस्पर्शनात् सदैवेति ॥१३।। [पृ०१५९] एगिदिअ-देवाणं, नेरइआणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं, संसारत्थाण पक्खेवो ॥१४॥ [बृहत्सं० १९९] 15 व्या० एकेन्द्रियाणां देवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपाहारः कवलाहारः, ते हि पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्शेन्द्रियेणैवाहारयन्तीति कृत्वा लोमाहारा भवन्तीत्यर्थः । तत्र देवानां मनसा परिकल्पिता: शुभाः पुद्गलाः सर्वेणैव कायेनाहारतया परिणमन्ति, नारकाणां त्वशुभाः । शेषाणां जीवानां संसारस्थानां भवस्थानां द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्नराणां प्रक्षेपः कवलाहारः, सत्यभिलाषे कवलाहारोऽप्येषां भवतीत्यर्थः ॥१४॥ 20 [पृ०१५९] विग्गहगइमावन्ना १, केवलिणो समोहया २ अजोगी ३ अ । सिद्धा ४ य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥१५॥ [जीवस०८२] व्या० विग्रहगतिर्भवाद्भवान्तरे विश्रेण्या गमनम्, तामापन्नाः प्राप्ताः सर्वेऽपि जीवाः, तथा केवलिनः समुद्धताः कृतसमुद्घाताः, तथा अयोगिनः शैलेश्यवस्थाः, तथा सिद्धाः क्षीणकर्माष्टकाः सर्वेऽप्यनाहारकाः । एतव्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽप्याहारकाः । तत्र विग्रहगतिमापन्ना उत्कर्षतो 25 वक्ष्यमाणनीत्या चतुरः समयान्, केवलिनः समुद्घातेऽष्टसामयिके तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमरूपान् केवलकार्मणयोगयुक्तांस्त्रीन् समयान्, अयोगिनः शैलेश्यवस्थायामन्तर्मुहूर्तम्, सिद्धाः साद्यपर्यवसितं कालमनाहारका इति ॥१५॥ १. तुल्यप्रायं प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१६० पं०४] श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणास्तेषाम्, ते च शाक्यादयोऽपि स्युः, यथोक्तम्णिग्गंथ १ भिक्खु २ तावस ३, गेरिअ ४ आजीव ५ पंचहा समणा ॥ गाथार्द्धम्। पिण्डनि० ४४५, निशीथभा० ४४२०] व्या० निर्ग्रन्था: चरकाः, भिक्षवः धाटीभिक्षाचराः, तापसा: नदीतटवासिनः, गैरिकाः कषायाम्बराः, आजीवा: गोशालकशिष्याः, एते पञ्च श्रमणा इति ॥ [पृ०१६०] संजमजोगविसन्ना, मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदिअविसयवसगया, मरंति जे तं वसटुं तु ॥१६॥ उत्तराध्ययननि० २१६, प्रवचनसारो० १०१०] व्या० संयमयोगा: संयमव्यापारास्तैः तेषु वा विषण्णाः संयमयोगविषण्णाः, अतिदुश्चरं तपश्चरणमाचरितुमक्षमा व्रतं च कुलादिलज्जया मोक्तुमशक्नुवन्तः कथञ्चिदस्माकमितः 10 कष्टानुष्ठानान्मुक्तिर्भविष्यति नेति विचिन्तयन्तो ये म्रियन्ते तद्वलतां संयमानुष्ठानान्निवर्तमानानां मरणं वलन्मरणम्, तुशब्दो विशेषणार्थो भग्नव्रतपरिणामानां व्रतिनामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संयमयोगानामेवासम्भवात् कथं तद्विषादस्तदभावे च कथं तदिति । वशार्त्तमरणमाहइंदियेति, इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां विषया मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयास्तद्वशं गताः प्राप्ता इन्द्रियविषयवशं गताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलशलभवन्नियन्ते तद्वशार्त्तमरणम् । वशेन 15 इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता: पीडिता वशास्तेिषां मरणमप्युपचाराद्वशार्त्तमुच्यते ॥१६॥ [पृ०१६०] तद्भवमरणमाहमोत्तुं अकम्मभूमिगनरतिरिए सुरगणे य रइए । सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥१७॥ उत्तराध्ययननि० २२०, प्रवचनसारो० १०१२] 20 व्या० मुक्त्वा अपहाय, कान् ? अकर्मभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादिषूत्पन्नतया नरतिर्यञ्चश्चाकर्मभूमिजनर-तिर्यञ्चस्तान्, तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः। तथा सुरगणांश्च सुरनिकायान्, किमुक्तं भवति ? चतुर्निकायवर्त्तिनोऽपि देवान् । तथा निरया नरकास्तस्मिन् भवा नैरयिकास्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यङ्-मनुष्येष्वेवोत्पत्तेः। शेषाणाम् एतदुद्वरितानां कर्मभूमिजनर-तिरश्चां जीवानां तद्भवमरणम्, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः । 25 तद्धि यस्मिन् भवे तिर्यङ्-मनुष्यलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यायुर्बद्ध्वा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति । तुशब्दस्तेषामपि सङ्ख्येयवर्षायुषामेवेति विशेषख्यापकः । असङ्ख्येयवर्षायुषां हि १. तुला- प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा.१०१० ।। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पाद: । तेषामपि न सर्वेषाम्, किन्तु केषाञ्चित्तद्भवोपादानरूपमेवायुः कर्मोपचिन्वतामिति ॥१७॥ [पृ०१६१] साम्प्रतं वैहायस-गृध्रपृष्ठमरणेऽभिधातुमाहगिद्धादिभक्खणं गिद्धपट्टमुब्बंधणादि वेहासं । ते दोन वि मरणा, कारणजाए अणुन्नाया || १८ || [उत्तराध्ययननि० २२३, प्रवचनसारो० १०१६] व्या० गृध्राः प्रतीतास्ते आदिर्येषां शकुनिका - शिवादीनाम्, तैर्भक्षणम्, गम्यमानत्वादात्मनस्तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरि - करभादिशरीरानुप्रवेशेन च गृध्रादिभक्षणम्, तत् किमुच्यते ? इत्याह- गिद्धपट्ठि त्ति, गृधैः स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदि वा गृध्राणां भक्ष्यं 10 पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च मर्त्तुर्यस्मिंस्तद् गृध्रपृष्ठम्, स ह्यलक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृध्रादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति, पश्चान्निर्दिष्टस्याप्येतस्य प्रथमतः प्रतिपादनम् अत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम्, वेहाणसद्धिपट्ठे इत्येतदपेक्षयैतदवगन्तव्यम्। उब्बंधणेति, उत् ऊर्ध्वं वृक्षशाखादौ बन्धनमुद्बन्धनम्, तदादिर्यस्य तरु - 1 -गिरिभृगुप्रपतनादेरात्मनैव जनितस्य मरणस्य तदुद्बन्धनादि, वेहासमिति प्राकृतत्वाद्यलोपे विहायसि व्योमनि भवं वैहायसम्, 15 उद्बद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति तत्प्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्तमिति । नन्वेवं गृध्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वै हायस एवान्तर्भावः ?, सत्यमेतत्, केवलमस्याल्पसत्त्वैरध्यवसातुमशक्यत्वख्यापनार्थं भेदेनोपन्यासः । ननु भावि अजिणवयणाणं, ममत्तरहिआण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणम्मि परम्मि अ तो वज्जे पीडमुभओ वि ॥१॥ 20 इत्यागमः, एते चानन्तरोक्ते मरणेऽत्यन्तमात्मपीडाकारिणी इति कथं नागमविरोध: ? अत एव च भक्तपरिज्ञादिषु पीडापरिहाराय चत्तारि विचित्ताइ [ पञ्चव. १५७४] मित्यादि संलेखनाविधिः पानकादिविधिश्च तत्र तत्राभिहितो दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशङ्क्याह- एतेऽनन्तरोक्ते द्वे अपि गृध्रपृष्ठ- - वैहायसाख्ये मरणे कारण त्ति प्राकृतत्वेन सप्तमीलोपात् कारणे दर्शनमालिन्यपरिहारादिके जाते समुत्पन्ने, यद्वा कारणजाते कारणप्रकारे सति उदायिनृपानुमृततथाविधगीतार्थाचार्यवदनुज्ञाते 25 इत्यदोषः ॥ १८ ॥ 5 ८८ सीहादिसु अभिभूओ, पायवगमणं करेइ थिरचित्तो । आउंमि बहुप्पंते, विआणि नवरि गीअथो ||१९|| [पञ्चव० १६२०] १. पहुप्पन्ते इति पञ्चवस्तुके, प्रभवति इति तत्र वृत्तौ ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् व्या० सिंहादिभिरभिभूतः, आदिशब्दाद् गजादिपरिग्रहः, पादपगमनं करोति स्थिरचित्त: साधुः, आयुषो बह्वल्पान्तं विज्ञाय बहोरप्यायुषोऽल्पस्याप्यायुषोऽन्तं ज्ञात्वा । नवरं गीतार्थः कर्ता विलोक्यते, न त्वगीतार्थः, अगीतार्थस्यायुरन्ताज्ञानादिति ॥१९॥ संलेखनाविधिमाहचत्तारि विचित्ताई, विगइनिजूहिआइं चत्तारि । संवच्छरे अ दोण्णि उ, एगंतरिअं च आयाम ॥२०॥ [पञ्चव० १५७४,प्रवचनसारो०८७५] व्या० तत्र संलेखना आगमोक्तेन विधिना शरीराद्यपकर्षणम् । सा च त्रिविधा-जघन्या षाण्मासिकी, मध्यमा संवत्सरप्रमाणा, उत्कृष्टा तु द्वादश वर्षाणि । तत्रोत्कृष्टा तावदेवम्- प्रथम चत्वारि वर्षाणि विचित्रतपांसि करोति, किमुक्तं भवति ?, चत्वारि वर्षाणि यावत् कदाचिच्चतुर्थं कदाचित् षष्ठं कदाचिदष्टममेवं दशम-द्वादशादीन्यपि करोति, पारणकं च 10 सर्वकामगुणितेनोद्गमादिशुद्धेनाहारेण विधत्ते । तत: परमन्यानि चत्वारि वर्षाणि उक्तप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति विकृतिनिर्वृहितानि विकृतिरहितानि, किमुक्तं भवति ? विचित्रं तपः कृत्वा पारणके निर्विकृतिकं भुङ्क्ते, उत्कृष्टरसवर्जं च, ततः परतोऽन्ये द्वे च वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति, एकान्तरं चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारयतीत्यर्थः ॥२०॥ एवमेतानि दश वर्षाणि गतानि, एकादशस्य तु वर्षस्य आद्यान् षण्मासान् यत् करोति 15 तदाह नाइविगिट्ठो अ तवो, छम्मासे परिमिअं च आयामं । अन्ने वि अ छम्मासे, होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२१॥ [पञ्चव० १५७५, प्रवचनसारो०८७६] व्या० नातिविकृष्टं नातिगाढं तपः करोति । नातिविकृष्टं नाम तपश्चतुर्थं षष्ठं वाऽवसेयम्, 20 नाष्टमादिकम् । पारणके तु परिमितं किञ्चिदूनोदरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति । ततः परमपरान् षण्मासान् विकृष्टम् अष्टम-दशम-द्वादशादिकं तपः करोति, पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमिति कृत्वा परिपूर्णध्राण्या आचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरतयेति ॥२१॥ द्वादशे वर्षे यत् करोति तदाहवासं कोडीसहिअं, आयामं काउ आणुपुव्वीए । संघयणादणुरूवं, एत्तो अद्धाइ नियमेणं ॥२२॥ [पञ्चव० १५७६, प्रवचनसारो०८७७] १. तुलना- निशीथभा० ३८२४ ॥ २. तुल्यप्रायं प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ गा. ८७५। धर्मसङ्ग्रहवृत्तौ गा. १४७ द्रष्टव्यम् ॥ 25 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ___व्या० वर्ष कोटीसहितं निरन्तरमाचाम्लं करोतीत्यर्थः । तथा आनुपूर्व्या एवमेव संहननाद्यनुरूपम्, आदिशब्दाच्छक्त्यादिग्रहः । अत उक्तात् कालात् अर्द्धादि अर्धं प्रत्यर्धं वा नियमेन करोति, कोऽर्थः ? द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमेकैककवलहान्या तावदूनोदरतां करोति यावदेकं कवलमाहारयति । ततः शेषेषु दिनेषु क्रमश एकेन सिक्थेनोनमेकं 5 कवलमाहारयति, द्वाभ्यां सिक्थाभ्यां त्रिभिः सिक्थैरेवं यावदन्ते एकमेव सिक्थं भुङ्क्ते । कोडीसहिअस्स पुण भावत्थो इमो- जत्थ पच्चक्खाणस्स कोणो कोणेण मिलइ । कहं ?, गोसे आवस्सए अब्भत्तट्ठो गहिओ, अहोरत्तं अच्छिऊण पच्छा पुणरपि अब्भत्तहँ करेइ, बीअस्स पट्ठवणा पढमस्स निट्ठवणा, एए दो वि कोणा एगट्ठ मिलिआ। अट्ठमादिसु दुहओ कोडिसहितं जो चरमदिवसो तस्स वि एगा कोडी । एवं आयंबिल-निव्विइअ-एगासण-एगट्ठाणगाण वि। 10 अहवा अन्नो इमो विही-अब्भत्तटुं कयं आयंबिलेण पारिश्र, पुणरवि अब्भत्तटुं करेइ आयंबिलं च, एवं एगासणगाईहि वि संजोगा कायव्वा, णिव्विगतिगाइसु सव्वेसु सरिसेसु विसरिसेसु य, एत्थ आयंबिलेणाहिगारो त्ति गाथार्थः ॥ यतः देहम्मि असंलिहिए, सहसा धाऊहिं खिजमाणेहिं । जायइ अट्टज्झाणं, सरीरिणो चरमकालम्मि ॥२३॥ [पञ्चव० १५७७] 15 व्या० देहे असंलिखिते सति सहसा धातुभिः क्षीयमाणैर्मांसादिभिर्जायते आर्तध्यानं साधुशरीरिणश्चरमकाले मरणसमय इति गाथार्थः ॥२३॥ किञ्च- भावमवि संलिहेइ, जिणप्पणीएण झाणजोएणं । भूअत्थभावणाहिं, परिवहइ बोहिमूलाई ॥२४॥ [पञ्चव० १५९३] व्या० भावमप्यान्तरं संलिखति कृशं करोति जिनप्रणीतेन आगमानुसारिणा ध्यानयोगेन 20 धर्मादिना, भूतार्थभावनाभिश्च वक्ष्यमाणाभिः, परिवर्द्धयति वृद्धिं नयति बोधिमूलानि अवन्ध्यकारणानीति गाथार्थः ॥२४॥ भावेइ भाविअप्पा, विसेसओ नवरि तम्मि कालम्मि । पयईए निग्गुणत्तं, संसारमहासमुद्दस्स ॥२५॥ [पञ्चव० १५९४] व्या० भावयति अभ्यस्यति भावितात्मा सूत्रेण विशेषतोऽतिशयेन, नवरं तस्मिन् काले 25 चरमकाले, किमित्याह- प्रकृत्या स्वभावेन निर्गुणत्वम् असारत्वं संसारमहासमुद्रस्य भवोदधेरिति गाथार्थः ॥२५॥ १. तुला- पञ्चवस्तुकवृत्तिः ।। २. तुला- प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा. ८७७ ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 10 द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१६२] जम्म-जरा-मरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइण्णो । जीवाण दुक्खहेऊ, कटुं रोद्दो भवसमुद्दो ॥२६॥ [पञ्चव० १५९५] व्या० जन्मजरामरणजलश्च बहुत्वादमीषाम्, अनादिमानित्यगाधः, व्यसनश्वापदाकीर्णः, अपकारित्वादमीषां जीवानां दुःखहेतुः सामान्येन कष्टं रौद्रो भयानकः भवसमुद्रः एवम्भूत इति ॥२६॥ __धन्नोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि नवरमेअम्मि । भवसयसहस्सदुलहं, लद्धं सद्धम्मजाणं ति ॥२७॥ [पञ्चव० १५९६] व्या० धन्योऽहं सर्वथा, येन मया अनर्वाक्पारे महामहति, नवरम् एतस्मिन् भवसमुद्रे भवशतसहस्रदुर्लभमेकान्तेन लब्धं प्राप्तं सद्धर्मयानं सद्धर्म एव यानपात्रमिति ॥२७॥ एअस्स पभावेणं, पालिजंतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मंतरे वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगच्चं ॥२८॥ [पञ्चव० १५९७] । व्या० एतस्य प्रभावेन धर्मयानस्य पाल्यमानस्य सदा सर्वकालं प्रयत्नेन विधिना जन्मान्तरेऽपि जीवा: प्राणिनः प्राप्नुवन्ति न, किम् ? इत्याह- दुःखप्रधानं दौर्गत्यं दुर्गतिभावमिति ॥२८॥ चिंतामणी अपुव्वो, एयमपुव्वो य कप्परुक्खो त्ति । एअं परमो मंतो, एअं परमामयं एत्थं ॥२९॥ [पञ्चव० १५९८] व्या० चिन्तामणिरपूर्वोऽचिन्त्यमुक्तिसाधनत्वादेतद्धर्मयानम् अपूर्वश्च कल्पवृक्ष इत्यकल्पितफलप्रदानात्, एतत् परमो मन्त्री रागादिविषघातित्वात्, एतत् परमामृतमत्र अमरणावन्ध्यहेतुत्वादिति ॥२९॥ इच्छं वेआवडिअं, गुरुमाईणं महाणुभावाणं । जेसि पभावेणेअं, पत्तं तह पालिअं चेव ॥३०॥ [पञ्चव० १५९९] व्या० इच्छामि वैयावृत्यं सम्यग्गुर्वादीनां महानुभावानाम्,, आदिशब्दात् सहायसाधुग्रहः, येषां प्रभावेनेदं धर्मयानं प्राप्तं मया, तथा पालितं चैवाविघ्नेनेति ॥३०॥ तेसि नमो तेसि नमो, भावेण पुणो पुणो वि तेसि नमो । अणुवकयपरहिअरया, जे एअं दिति जीवाणं ॥३१॥ [पञ्चव० १६००] 25 व्या० तेभ्यो नम: तेभ्यो नम: भावेन अन्तःकरणेन पुनरपि तेभ्यो नम इति त्रिर्वाक्यम्, अनुपकृतपरहितरता: गुरवो य एतद्ददति जीवेभ्यो धर्मयानम् इति ॥३१॥ 15 20 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 ९२ 20 वाचकसुमतिकल्लोल - वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे संलिहिऊणऽप्पाणं, एवं पच्चप्पिणेत्तु फलगाई । गुरुमाइए असम्मं, खमाविउं भावसुद्धीए ॥ ३२॥ [पञ्चव० १६१३] व्या० संलिख्यात्मानम् एवं द्रव्यतो भावतश्च, प्रत्यर्प्य फलकादि प्रातिहारिकम्, गुर्वादिश्च सम्यक् क्षमयित्वा यथाऽर्हं भावशुद्ध्या संवेगेनेति ॥ ३२॥ उववूहिऊण सेसे, पडिबद्धे तम्मि तह विसेसेणं । धम्मे उज्जमिअव्वं, संजोगा इह विओगंता ||३३|| [ पञ्चव० १६१४] व्या० उपबृंह्य शेषान् गुर्वादिभ्योऽन्यान् प्रतिबद्धान् तस्मिन् स्वात्मनि, तथा विशेषेणोपबृंह्य, 'धर्मे उद्यमितव्यं यत्नः कार्यः, संयोगा इह वियोगान्ताः' एवमुपबृंह्येति ||३३|| अह वंदिऊण देवे, जहाविहिं सेसए अ गुरुमाई । पच्चक्खाइत्तु तओ, तयंतिए सव्वमाहारं ||३४|| [ पञ्चव० १६१५] व्या० अथ वन्दित्वा देवान् भगवतो यथाविधि सम्यक् शेषांश्च गुर्वादीन् वन्दित्वा, प्रत्याख्याय ततस्तदनन्तरं तदन्तिके गुरुसमीपे सर्वमाहारमिति ॥ ३४॥ समभावम्मि ठिअप्पा, सम्मं सिद्धंतभणिअमग्गेणं । गिरिकंदरम्मि गंतुं, पायवगमणं अह करे ||३५|| [पञ्चव० १६१६] व्या० समभावे स्थितात्मा सम्यक् सिद्धान्तोक्तमार्गेण निरीहस्सन् गिरिकन्दरं तु गत्वा पादपोपगमनमथ करोति पादपचेष्टारूपमिति । पादपो वृक्षस्तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम् अत्यन्तं निश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिंस्तत्पादपोपगमनम् इति गाथार्थः ॥३५॥ सव्वत्थापडिबद्धो, दंडाययमाइठाणमिह ठाउं । जावज्जीवं चिट्ठड़, निच्चेट्ठी पायवसमाणो ||३६|| [ पञ्चव० १६१७] व्या० सर्वत्राप्रतिबद्धस्समभावात्, दण्डायतादिस्थानमिह स्थित्वा स्थण्डिले यावज्जीवं तिष्ठति महात्मा निश्चेष्टः पादपसमानः, उन्मेषाद्यभावादिति गाथार्थः ||३६|| पढमिल्लुअसंघयणे, महाणुभावा करेंति एवमि । पायं सुहभावच्चिअ, निच्चलपयकारणं परमं ||३७|| [ पञ्चव० १६१८ ] व्या० प्रथमसंहनने नियोगतो महानुभावा ऋषयः कुर्वन्त्येवमेतदनशनं प्रायः शुभभावा 25 एव, नान्ये । कथम्भूतं पादपोपगमनम् ? निश्चलपदकारणं परमम् । निश्चलपदं मोक्षस्तस्य साधनम् ||३७|| Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् द्वितीयं पुनर्भक्तप्रत्याख्यानम्, तदेवाहभत्तपरिण्णाणसणं, तिचउव्विहाहारचायनिप्फन्नं । सप्पडिकम्मं नियमा, जहासमाही विणिद्दिढें ॥३८॥ व्या० भक्तपरिज्ञाऽनशनं त्रिचतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्नं त्रिविधं चतुर्विधं वा प्रत्याख्याति। कथम्भूतम् ? सप्रतिकर्म निश्चयेन । प्रतिकर्म शरीरप्रतिक्रिया, तद्युक्तम्, यथासमाधि समाधि- 5 मनतिक्रम्य भवतीति निर्दिष्टं प्रोक्तम् ॥३८॥ [पृ०१६३] इंगिअदेसम्मि सयं, चउव्विहाहारचायनिप्फन्नं । उव्वतणाइजुत्तं, नऽण्णे उ इंगिणीमरणं ॥३९॥ व्या० इङ्गितदेशे परिज्ञातस्थाने स्वयं चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्नं चतुर्विधाहारं प्रत्याख्याति। उद्वर्त्तनादियुक्तं स्वयमेवोद्वर्त्तनादिकं करोति, नान्येनोद्वर्त्तनं कारयति, तदिङ्गिनीमरणं भवति । 10 इङ्गितमरणं त्विह नोक्तम्, द्विस्थानकानुरोधात् ॥३९॥ पंचत्थिकायमइअं, लोगमणाइनिहणं जिणक्खायं ॥४०॥ [ध्यानशतके ५३] गाथार्द्धम्। व्या० सुगममेव ॥४०॥ [पृ०१६४] सरउग्गयससिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायणं जमिह । नाणावरणं कम्मं, पडोवमं होइ एवं तु ॥४१॥ प्राचीने प्रथमकर्मग्रन्थे १०] 15 व्या० शरदुद्गतशशिनिर्मलतरस्य जीवस्य छादनं जीवस्वभावस्य नैर्मल्यतिरोधायकं यत्तदिह लोके ज्ञानावरणं कर्म पटोपमं भवति एवं वक्ष्यमाणरीत्या, तु पुनरर्थे, इति गाथार्थः ॥४१॥ । तच्च द्विविधम्- देश-सर्वज्ञानावरणभेदात्, देशं ज्ञानस्याऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम्, सर्वं ज्ञानं केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयम् । केवलज्ञानावरणं हि 20 आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत् सर्वज्ञानावरणम्, मत्याद्यावरणं तु घनाच्छादितादित्येषत्प्रभावकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुट्यादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणम् । [पृ०१६५] सर्वघातिप्रकृतीदर्शयतिकेवलनाणावरणं, दंसणछक्कं च मोहबारसगं अनन्तानुबन्ध्यादयः । ता सव्वघाइसन्ना, भवंति मिच्छत्तवीसइमं ॥४२॥ [बन्धशतक० ७९] व्या० केवलज्ञानावरणं दर्शनषट्कं केवलदर्शनावरण-निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचलाप्रचला-स्त्यानाख्यम्, मोहबारसगं अनन्तानुबन्ध्यादयः, अनन्तानुबन्धिचतुष्कम् 25 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ 10 वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कं प्रत्याख्यानावरणचतुष्कम्, तत एताः प्रकृतयः सर्वघातिसज्ञाः, मिथ्यात्वं विंशतितमम्, एतावता प्रकृतिविंशतिकं सर्वघातिसज्ञकम् । मइसुअनाणावरणं, दंसणमोहं च तदुवघाईणि । तप्फड्डगाइं दुविहाई, सव्वदेसोवघाईणि ॥४३॥ [विशेषाव० २८९५] व्या० मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणं दर्शनमोहश्च, एतत् त्रयं मतिज्ञानश्रुतज्ञानसम्यक्त्वगुणावारकं वर्त्तते । तदुपघातीनि स्पर्धकानि द्विविधानि- देशसर्वोपघातीनि। देशं घातयन्तीति देशघातीनि, सर्वं घातयन्तीति सर्वघातीनि । कानिचित् स्पर्द्धकानि देशं घातयन्ति, कानिचित् सर्वं घातयन्ति ॥४३॥ सव्वेसु सव्वघाइसु, हएसु देसोवघाइआणं च ।। भागेहिं मुच्चमाणो, समए समए अणंतेहिं ॥४४॥ [विशेषाव० २८९६] व्या० सर्वेषु सर्वघातिषु स्पर्द्धकेषु हतेषु क्षयोपशमं नीतेषु मतिज्ञानावरणश्रुतज्ञानावरणयोरिति शेषः, देशोपघातिनां स्पर्धकानां तयोरेवानन्तै गैः समये समये मुच्यमानो जीवः । कोऽर्थः ? यानि देशोपघातीनि स्पर्धकानि, तेषामनन्तो भागः समये समये यदा क्षयति उपशमयति, तदा जीवः किं प्राप्नोति ? तदाह15 पढमं लहइ णगारं, एक्केक्कं वण्णमेवमन्नं पि । कमसो विसुज्झमाणो, लहइ समत्तं नमोक्कारं ॥४५॥ [विशेषाव० २८९७] व्या० प्रथमतो लभते नकारं नमो अरिहंताणमित्यस्य पदस्य प्रथमाक्षरम्, एवमेवान्यं वर्णमपि क्रमशो विशुद्ध्यमानो लभते सम्यक्त्वं नमस्कारं च, मिथ्यादर्शनस्पर्धकानां क्षयोपशमे सम्यक्त्वं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥४५॥ 20 दंसणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमाणं, सणवरणं भवे बीयं ॥४६॥ [प्राचीनप्रथमकर्मग्रन्थ० १९] व्या० दर्शनं शीलं स्वभावो यस्य स तथा दर्शनशील इति, षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदाद्दर्शनशीलस्य जीवस्येत्यर्थः । एवमन्यत्रापि भावनीयम् । दर्शनघातं करोति यत् कर्म तत् प्रतीहारसमानं दर्शनावरणं भवेद् द्वितीयमिति गाथार्थः ॥४६॥ 25 महुलित्तनिसिअकरवालधारजीहाए जारिसं लिहणं ।। तारिसयं वेअणिअं, सुहदुहउप्पायगं मुणह ॥४७॥ [प्राचीनप्रथमकर्म० २८] १. सम्मत्तं इति पाठं मत्वा विवरणकारेणात्र विवरणं लिखितम् । किन्तु समत्तं इति स्थानाङ्गवृत्तौ विशेषावश्यके च पाठः । स एव चात्र समीचीनः । 'समस्तं नमस्कारम्' इति च तस्यार्थ इति ध्येयम् । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् व्या० मधुना क्षौद्र - भ्रामरादिना लिप्तः अपदिग्धो निशितः तीक्ष्णः स चासौ करवालश्च मधुलिप्तनिशितकरवालस्तद्धारया जिह्वया यादृशं लेहनं तादृशं वेदनीयं सुखदुःखोत्पादकं जानीत । ज्ञो जाणमुणौ [प्राकृतव्या० ४७ ] इति प्राकृते आदेशविधानात् मुणह इति सिद्ध्यतीति गाथार्थः ॥४७॥ जह मज्जपाणमूढो, लोए पुरिसो परव्वसो होइ । तह मोहेण वि मूढो, जीवो वि परव्वसो होइ ||४८ || [ प्राचीनप्रथमकर्म. ३४] व्या० यथा मद्यपानमूढो मद्यपानेन नष्टचेतनो लोके पुरुषः परवशः परायत्तो भवति, तथा मोहेनापि मूढो जीवोऽपि परवशो भवतीति गाथार्थः ॥४८॥ दुक्खं न देइ आउं, नेव सुहं देइ चउसु विगई । दुक्खसुहाणाहारं, धरेइ देहट्ठिअं जीवं ॥ ४९ ॥ [ प्राचीनप्रथमकर्म ६३] व्या० दुःखम् असातं न ददात्यायुः कर्म, नैव च सुखम्, दुःखसुखदाने सातासातरूपवेदनीयस्यैव समर्थत्वात्, आयुस्तु दुःखसुखाधारभूतं जीवं देहस्थितं धारयति, एतावत एव सामर्थ्यस्य सद्भावादिति गाथार्थः ॥ ४९॥ [पृ०१६६ ] जह चित्तयरो निउणो, अणेगरूवाइं कुणइ रुवाई | सोहणमसोहणाई, चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ॥५०॥ ९५ नामं कम्मं दुविहं, सुहं असुहं च आहिअं । सुहस्स उ बहुभेया, एवमेवासुहस्स वि ॥१॥ [ ] इति गाथाद्वयार्थः ॥५१॥ जह कुंभारो भंडाई, कुणइ पुज्जेयराई लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं, लोए पुज्जेयरावत्थं ॥५२॥ व्या० यथा कुम्भकारो भाण्डानि करोति, कीदृशानि भाण्डानि ? लोकस्य पूज्येतराणि, तह नामं पि हु कम्मं, अणेगरूवाइं कुणइ जीवस्स । सोहणमसोहणाई, इट्ठाणिट्ठाई लोअस्स ॥ ५१ ॥ [प्राचीनप्रथमकर्म. ६७, ६८] व्या० यथा चित्रकरो निपुणः स्वकर्मणि प्रवीणः अनेकरूपाणि नानाप्रकाराणि रूपाणि हस्त्यश्वादीनि करोति शोभनाशोभनानि रम्यारम्याणि चुक्षाचुक्षैर्विशदाविशदैर्वर्णैः हरिताला - दिभिरिति ॥ ५० ॥ दाष्टन्तिके योजयति - तथा नामकर्मापि जीवस्य अनेकानि बहूनि रूपाणि 20 शोभना - ऽशोभनानि शुभाशुभान्यत एव लोकस्येष्टानिष्टानि करोति । अयमाशयः - शुभान्यपि बहुभेदानि अशुभान्यपि बहुभेदान्येव । एतेन सामान्यतः शुभाशुभभेदाद् द्विविधमपि नाम भवतीत्यवगन्तव्यम्, यदागमः - 5 10 15 25 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ 5 10 वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे कानिचित् पूज्यानि कर्पूरपाल्यादीनि इतराणि अपूज्यानि भुम्भलादीनि । एवं गोत्रं जीवं करोति लोके पूज्यतरावस्थम्, पूज्यावस्थम्-इक्ष्वाकुगोत्रसम्भवम्, इतरावस्थं चाण्डालादिगोत्रसम्भवम् ॥५२॥ जह राया दाणाइं, न कुणई भंडारिए विकूलम्मि ।। एवं जेणं जीवो, कम्मं तं अंतरायं ति ॥५३॥ व्या० यथेति दृष्टान्ते, राजा ग्रामाद्यधिपतिर्दानानि न करोति, व सति?, भाण्डागारिके विकूले प्रतिकूले सति । एवं जीवो येन कर्मणा दानादिकं न करोति, तत् कर्म अन्तरायम् इति ॥५३॥ [पृ०१६८] पउमाभवासुपुजा, रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । सुव्वयनेमी काला, पासो मल्ली पिअंगाभा ॥५४॥ [आव० नि० ३७६] व्या० पद्मप्रभवासुपूज्यौ जपापुष्पवद् रक्तौ, चन्द्रप्रभसुविधी शशिगौरौ चन्द्रचारुकररुची, सुव्रतनेमिनौ इन्द्रनीलमणिवत् कालौ, पार्श्वमल्लिजिनौ प्रियङ्ग्वाभौ, प्रियङ्गुः फलिनीतरुस्तदाभौ नीलावित्यर्थः ॥५४॥ [पृ०१७०] चमर१ बलिर सारमहिअं, सेसाण सुराण आउअं वोच्छं । 15 दाहिण दिवड्डपलिअं, दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥५५॥ [प्रवचनसारो०११३८, बृहत्सं०५] व्या० 'इहासुराकुमारादयो दश भवनपतिनिकायाः, एकैके च द्विधा- मेरोर्दक्षिणदिग्भागवर्त्तिनो मेरोरेवोत्तरदिग्भागवर्त्तिनश्च । तत्रासुरकुमाराणां दक्षिणदिग्भाविनामिन्द्रश्चमर उतरदिग्भाविनां बलिः। तत्र चमरबलि सारमहिअं ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सारमिति सागरोपमं द्रष्टव्यम्, प्राकृतत्वाच्चमर-बलिशब्दाभ्यां परतः षष्ठीविभक्तेर्लोपः । ततोऽयमर्थः- चमरबल्योः क्रमेण 20 सागरोपममधिकं चोत्कृष्टायुः । किमुक्तं भवति ?, चमरस्यासुरेन्द्रस्य दक्षिणदिग्वर्त्तिन उत्कृष्टमायुरेकं परिपूर्णं सागरोपमम्, बलेरसुरेन्द्रस्योत्तरदिग्वर्तिनः सागरोपमं किञ्चित्समधिकमिति । सम्प्रति शेषाणां चमर-बलिव्यतिरिक्तानां सुराणां देवानां नागकुमाराद्यधिपतीनामित्यर्थः, आयुर्वक्ष्ये । तदेव कथयति- दाहिणेति, दाक्षिणात्यानां नागकुमाराद्यधिपतीनां धरणप्रमुखानां नवानामिन्द्राणा___ मुत्कृष्टमायुर्द्वितीयमधैं यस्य तद् व्यर्द्धं पल्योपमं सार्द्ध पल्योपममित्यर्थः । उत्तरिल्लाणं ति 25 औत्तराहाणाम् उत्तरदिग्भाविनां नागकुमारादीन्द्राणां भूतानन्दप्रभृतीनां नवानां देशोने किञ्चिदूने द्वे पल्योपमे । उत्तरदिग्वर्त्तिनो ह्येते स्वभावादेव शुभाश्चिरायुषश्च भवन्ति, दक्षिणदिग्वर्त्तिनस्तु तद्विपरीता इति ॥५५॥ १. तुलना-बृहत्सङ्ग्रहणीवृतिः, प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ द्विस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् भवनपतिदेव-देवीनां जघन्यां व्यन्तरदेवानामुत्कृष्टां च स्थितिमाहदस भवणवणयराणं, वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं । पलिओवममुक्कोसं, वंतरिआणं विआणेजा ॥५६॥ [बृहत्सं०४, प्रवचनसारो०११४०] व्या० सूचकत्वात् सूत्रस्येति भवनपतिदेवानां तद्देवीनां च जघन्येन स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि। जघनमधस्तानिकृष्टो भागः, तत्र भवं जघन्यं रोममलादि, तच्च किल स्तोकम्, ततोऽन्यदपि 5 स्तोकं लक्षणया जघन्यमित्युच्यते, केवलं भावप्रधानत्वानिर्देशस्य जघन्येन जघन्यतया स्तोकतयेत्यर्थः । तथा व्यन्तराणां व्यन्तरदेवानामुत्कृष्टां स्थितिं विजानीयात् पल्योपमप्रमाणाम्, तद्देवीनां तु पल्योपमार्द्धमुत्कृष्टा स्थितिः प्रागेवोक्तेति ॥५६॥ दो १ साहि २ सत्त ३ साहिअ ४, दस ५ चोद्दस ६ सत्तरेव ७ अयराइं । सोहम्मा जा सुक्को, तदुवरि एक्केक्कमारोवे ॥५७॥ [बृहत्सं० १२, प्रवचनसारो० ११४३] 10 व्या० सौधर्मात् सौधर्मकल्पाद्यावत् शुक्रो महाशुक्रकल्पस्तावदनेन क्रमेणोत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपत्तव्या । तथाहि- सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कृष्टा स्थितिः द्वे अतरे सागरोपमे इत्यर्थः, तरीतुमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वादतरं सागरोपमम् इत्यर्थः । ईशाने त एव द्वे सागरोपमे साधिके किञ्चित्समधिके । सनत्कुमारे सप्त सागरोपमाणि, माहेन्द्रे तान्येव सप्त सागरोपमाणि साधिकानि, ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि, लान्तके चतुर्दश, महाशुक्रे सप्तदश । तदुवरि एक्केक्कमारोवे 15 इति, तस्य महाशुक्रस्य कल्पस्योपरि सहस्रारादिषु प्रतिकल्पं प्रतिग्रैवेयकं च पूर्वस्मादधिकम् एकैकं सागरोपममुत्कृष्टायुश्चिन्तायामारोपयेत् । तद्यथा- सहस्रारेऽष्टादश सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः, आनते एकोनविंशतिः, प्राणते विंशतिः, आरणे एकविंशतिः, अच्युते द्वाविंशतिः। अधस्तनाधस्तने ग्रैवेयके त्रयोविंशतिः, अधस्तनमध्यमे च चतुर्विंशतिः, अधस्तनोपरितने पञ्चविंशतिः, मध्यमाधस्तने षड्विंशतिः, मध्यममध्यमे सप्तविंशतिः, मध्यमोपरितनेऽष्टाविंशतिः, 20 उपरितनाधस्तने एकोनत्रिंशत्, उपरितनमध्यमे त्रिंशत्, उपरितनोपरितने ग्रैवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः । एकैकवृद्ध्या चैकत्रिंशतोऽनन्तरमनुत्तरेषु द्वात्रिंशदेव स्यादतस्तेषु पृथगेव स्थितिरुक्ताऽस्तीति ॥५७।। इयमुत्कृष्टा, जघन्या तु - पलियं १ अहियं २ दोसार ३ साहिआ ४ सत्त ५ दस य ६ चोद्दस ७। 25 सत्तरस सहस्सारे, तदुवरि एक्केक्कमारोवे ॥५७॥ [बृहत्सं० १४, प्रवचनसारो० ११४५] किण्हा-नीला-काऊ-तेऊलेसा य भवणवंतरिआ । जोईस-सोहम्मीसाणे, तेऊलेसा मुणेअव्वा ॥५८॥ [बृहत्सं० १९३,प्रवचनसारो० ११५९] Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० भवनपतयो व्यन्तराश्च कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याकाः, कृष्णा नीला कापोती तैजसी चैषां लेश्या भवतीत्यर्थः । तत्रापि परमाधार्मिकाः कृष्णलेश्याः, तथा ज्योतिष्केषु सौधर्मेशानयोश्च देवास्तेजोलेश्याका ज्ञातव्याः ॥५८॥ [पृ०१७१] दो कायप्पविआरा, कप्पा फरिसेण दोण्णि दो रूवे । 5 सद्दे दो चउर मणे, उवरिं परिचारणा नत्थि ॥५९॥ [बृहत्सं०१८१, प्रवचनसारो० १४३९] व्या० द्वौ कल्पाविति, मर्यादायां कल्पशब्देन तात्स्थ्यात् कल्पस्था देवाः, ततोऽयमर्थःभवनपत्यादय ईशानान्ता देवाः क्लिष्टोदर्कपुंवेदानुभावान्मनुष्यवन्मैथुने निमज्जन्तः सर्वाङ्गीणं काय क्लेशजं स्पर्शानन्दमासाद्य तृप्यन्ति, नान्यथेति । कायेन शरीरेण मनुष्यस्त्रीपुंसानामिव प्रवीचारो 10 मैथुनोपसेवनं ययोस्तौ कायप्रवीचारौ । तथा स्पर्शेन द्वौ सनत्कुमार-माहेन्द्रौ सप्रवीचारौ, तद्देवा हि मैथुनाभिलाषिणो देवीनां स्तनाद्यवयवस्पर्शलीलयैव कायप्रवीचारदेवेभ्योऽनन्तगुणं सुखमवाप्नुवन्ति तृप्ताश्च जायन्ते, देवीनामपि देवैः स्पर्शे कृते सति दिव्यप्रभावतः शुक्रपुद्गलसञ्चारेणानन्तगुणं सुखमुत्पद्यते, एवमग्रेऽपि भावना कार्या । तथा द्वौ ब्रह्मलोक-लान्तकौ रूपदर्शने सप्रवीचारौ, देवीनां दिव्योन्मादजनकरूपावलोकनेनैव तत्र सुराः सुरतसुखजुषो जायन्त इत्यर्थः । 15 तथा द्वौ शुक्र-सहस्रारौ देवीशब्दे श्रुते सति सप्रवीचारी, सुरसुन्दरीणां सविलासगीत-हसित भाषित-भूषणादिध्वनिमाह्लादकमाकर्योपशान्तवेदास्तत्र देवा भवन्तीत्यर्थः । तथा चत्वार आनतप्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युताभिधानदेवलोकदेवा मनसा सप्रवीचारा भवन्ति, ते हि यदा प्रवीचारचिकीर्षया देवीश्चित्तस्य गोचरीकुर्वन्ति तदैव तास्तत्सङ्कल्पाज्ञानेऽपि तथाविधस्वभावतः कृताद्भुतशृङ्गाराः स्वस्थानस्थिता एव उच्चावचानि स्वमनांसि दधाना मनसैव भोगायोपतिष्ठन्ते, 20 तत इत्थमन्योऽन्यं मनःसङ्कल्पे दिव्यप्रभावाद्देवीषु शुक्रपुद्गलसङ्क्रमत उभयेषां कायप्रवीचाराद नन्तगुणं सुखं सम्पद्यते तृप्तिश्चोल्लसतीति । उपरि च ग्रैवेयकादिषु स्त्रीप्रवीचारः स्त्रीसेवा च नास्तीति ॥५९॥ इति श्रीवाचनाचार्यसुमतिकल्लोलगणि-वादिहर्षनन्दनगणिभ्यां लिखिते ___श्री स्थानाङ्गटीकागतोक्तगाथाविवरणे द्विस्थानकटीकागतोक्तगाथाविवरणं सम्पूर्णम् । सर्वा गाथाः १६९। 25 १. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः ।। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अथ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम्] [पृ०१७४] सामान्येन सद्भावस्थापनोदाहरणमाहलेप्पगहत्थी हत्थि त्ति, एस सब्भाविआ भवे ठवणा । होइ असब्भावे पुण, हत्थि त्ति निरागिई अक्खो ॥१॥ [आव०नि० १४४७] व्या० यदिह लेप्यकहस्ती हस्तीति स्थापनायां निवेश्यते । एस सब्भाविआ भवे ठवण 5 त्ति एषा सद्भावस्थापना भवति । असद्भावे पुनर्हस्तीति निराकृतिः अक्षो हस्त्याकृतिशून्य एव चतुरङ्गादाविति । तदेवं स्थापनाकायोऽपि भावनीय इति ॥१॥ दवए १ दुअए २ दोरवयवविगारो ३ गुणाण संदावो । दव्वं भव्वं भावस्स, भूअभावं च जं जोगं ॥२॥ [विशेषाव० २८] ति । व्या० दु द्रु गतौ [पा.धा. ९४४-९४५] इति धातुस्ततश्च द्रवति तांस्तान् पर्यायान् प्राप्नोति 10 मुञ्चति चेति, द्रव्यमित्युत्तरार्द्धादानीय सर्वत्र सम्बध्यते । तथा द्रूयते स्वपर्यायैरेव प्राप्यते मुच्यते चेति द्रव्यम्, यान् किल पर्यायान् द्रव्यं प्राप्नोति तैस्तदपि प्राप्यते याँश्च मुञ्चति तैस्तदपि मुच्यते इति भावः । तथा द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति द्रुः सत्ता, तस्या एवावयवो विकारो वेति द्रव्यम्, अवान्तरसत्तारूपाणि हि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो वा भवन्त्येवेति भावः । तथा गुणा रूपरसादयस्तेषां सन्द्रवणं सन्द्रावः समुदायो घटादिरूपो द्रव्यम्। 15 तथा भव्वं भावस्स त्ति भविष्यतीति भावस्तस्य भाविनः पर्यायस्य यद् भव्यं योग्यम्, तदपि द्रव्यम्, राज्यपर्यायाहराजकुमारवत् । तथा भूतभावं चेति भूतः पश्चात्कृतो भावः पर्यायो यस्य तद् भूतभावम्, तदपि द्रव्यम्, अनुभूतघृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवत् चशब्दाद्भूतभविष्यत्पर्यायं च द्रव्यमिति ज्ञातव्यम्, भूतभविष्यद्धृताधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवदिति । एतदपि भूतभावं तथा भूतभविष्यद्भावं च कथम्भूतं सद् द्रव्यमित्याह- यद्योग्यं भूतस्य भावस्य, भूतभविष्यतोश्च 20 भावयोरिदानीमसत्त्वेऽपि यद्योग्यम् अहं तदेव द्रव्यमुच्यते, नान्यत्, अन्यथा सर्वेषामपि पर्यायाणामनुभूतत्वादनुभविष्यमाणत्वाच्च सर्वस्यापि पुद्गलादेव्यत्वप्रसङ्गादिति गाथार्थः ।।२।। आह विनेयः- ननु सामान्येन द्रव्यलक्षणमवगतम्, परन्तु द्रव्यमङ्गलं किमभिधीयते । इति प्रस्तुतं निवेद्यतामित्याह आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । तन्नाणलद्धिजुत्तो वि ण उवउत्तो त्ति तो दव्वं ॥३॥ [विशेषाव० २९] व्या० इह द्रव्यमङ्गलं तावद् द्विधा भवति- आगमतः आगममाश्रित्य नोआगमतश्च नोआगममाश्रित्य । तत्रागमो मङ्गलशब्दार्थो ज्ञानस्वरूपोऽत्राभिप्रेतस्तमाश्रित्य द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमिति पर्यन्ते सम्बन्धः । कोऽसौ ? इत्याह- वक्ता मङ्गलशब्दार्थप्ररूपकः । किं सर्वोऽपि ? नेत्याह 25 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अनुपयुक्तः तदुपयोगशून्यः किंविशिष्ट इत्याह- मङ्गलशब्दानुवासितो मङ्गलशब्दार्थज्ञानावरणक्षयोपशमसंस्कारानुरञ्जितमनास्तज्ज्ञानलब्धिमानिति यावत् । ननु यदि तज्ज्ञानलब्धिमांस्तर्हि किमिति द्रव्यम् ? इत्याह तन्नाणेत्यादि, तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽपि मङ्गलशब्दार्थज्ञानावरणक्षयोपशमवानपि नोपयुक्तस्तत्र मङ्गलशब्दार्थे यस्मादसौ तो त्ति तस्माद् द्रव्यमङ्गलम् । इदमुक्तं 5 भवति - अनुपयोगो द्रव्यम् [ अनुयोग० सू०१४ ] इति वचनान्मङ्गलशब्दार्थं जानन्नपि तत्रानुपयुक्तस्तं प्ररूपयंस्तज्ज्ञान- लब्धिसहितोऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलमिति गाथार्थः ||३|| मंगलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा स जीवो त्ति । १०० नोआगमओ दव्वं, आगमरहिओ त्ति जं भणिअं ॥४॥ [विशेषाव० ४४] व्या० मङ्गलपदार्थज्ञस्य जो देह आत्मरहितः तदतीतकालानुभूततद्भावानुवृत्त्या 10 सिद्धशिलातलादिगतो घृतघटादिन्यायेन नोआगमतो द्रव्यमङ्गलमिति मङ्गलज्ञानशून्यत्वाच्च तस्येह सर्वनिषेध एव नोशब्दः । वाऽथवा भव्यो योग्यो मङ्गलशब्दार्थं ज्ञास्यति, यो न तावद्विजानाति, स भव्य इति, तस्य देहो भव्यदेहस्तदेव मङ्गलं भव्यदेहद्रव्यमङ्गलम् । अयमत्र भावार्थः- भाविनीं वृत्तिमङ्गीकृत्य मङ्गलोपयोगाधारत्वान्मधुघटादिन्यायेनैव तद्बालादिदेहः सजीवोऽपि भव्यहो द्रव्यमङ्गलमिति । नोशब्दः पूर्ववत् । यद्यस्मात् कारणादागमरहितो मङ्गलपदार्थज्ञदेहो भव्यदेहश्च, 15 आगमशब्देन ज्ञानम्, तेन रहितो मङ्गलज्ञानशून्यत्वादुभावपि देहौ द्रव्यमङ्गलमिति तात्पर्यम् ||४|| [पृ०१७६ ] एतेषु च नामादिमङ्गलेष्वाद्यत्रयस्यान्योन्यमभेदं पश्यन् परः प्रेरयति - अभिहाणं दव्वत्तं, तदत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाई । को भाववज्जिआणं, नामाईणं पइविसेसो ? || ५ || [विशेषाव० ५२] व्या० भाववर्जितानां भावमेकं वर्जयित्वा शेषाणां नामादीनां नाम - स्थापना - द्रव्याणा20 मित्यर्थः। कः प्रतिविशेषः ?, न कश्चिदित्यर्थः । कुतः ? इति चेदुच्यते यत एतानि त्रिष्वपि तुल्यानि । कानि पुनस्तानि ? इत्याह- अभिधानं तावन्नाम त्रिष्वपि तुल्यं नामवति पदार्थे स्थापनायां द्रव्ये च, मङ्गलाभिधानमात्रस्य सर्वत्र भावात् । तथा द्रव्यत्वमपि त्रिष्वपि तुल्यम्, यतो जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा मंगलं ति नाम कीरड़ [ ] इत्यादिवचनान्नाम्नि तावद् द्रव्यमेवाभिसम्बध्यते । स्थापनायामपि यत् स्थाप्यत इति वचनाद् द्रव्यमेव योज्यते । 25 द्रव्ये तु द्रव्यत्वं विद्यत एवेति त्रिष्वपि द्रव्यत्वस्य तुल्यता । तथा तदर्थशून्यत्वं च भावार्थशून्यत्वं चत्रिष्वपि समानम्, नाम - स्थापना - द्रव्येषु भावमङ्गलस्याभावात्, तस्मादभिधानद्रव्यत्वभावार्थशून्यत्वानां समानत्वान्नाम - स्थापना- द्रव्याणां परस्परमभेदः । भावे तु तदर्थशून्यत्वं नास्तीत्येतावताऽसौ नामादिभ्यो विशेष्यत इति भाव इति गाथार्थः ||५|| 1 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१७६] परेणैवमविशेषे प्रेरिते यो विशेषस्तमभिधित्सुः सूरिराहआगारोऽभिप्पाओ, बुद्धि किरिआ फलं च पाएणं । जह दीसइ ठवणिंदे, न तहा नामे न दव्विंदे ॥६॥ [विशेषाव० ५३] व्या० यथा स्थापनेन्द्रे आकारो लोचनसहस्र-कुण्डल-किरीट-शचीसन्निधानकरकुलिशधारण-सिंहासनाध्यासनादिजनितातिशयो देहसौन्दर्यभावो दृश्यते, तथा स्थापनाकर्तुश्च 5 यथा सद्भूतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, तथा द्रष्टश्च यथा तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिरुपजायते, यथा चैनमुपसेवमानानां तद्भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिका क्रिया संवीक्ष्यते फलं च यथा प्रायेणोपलभ्यते पुत्रोत्पत्त्यादिकं न तथा नामेन्द्रे नापि च द्रव्येन्द्रे । ततो नाम-द्रव्याभ्यां तावद् व्यक्त एव भेदः स्थापनाया इति भावः, इति गाथार्थः ॥६॥ पृ०१७६] तदेवं स्पष्टतया लक्ष्यमाणत्वादादावेव नाम-द्रव्याभ्यां स्थापनाया भेदमभिधाय 10 नाम-स्थापनाभ्यां द्रव्यस्य भेदमभिधित्सुराह भावस्स कारणं जह, दव्वं भावो अ तस्स पज्जाओ । उवओगपरिणइमओ, न तहा नामं न वा ठवणा ॥७॥ [विशेषाव० ५४] व्या० यथाऽनुपयुक्तवक्तृप्रभृतिकं साधुद्रव्येन्द्रादिकं वा द्रव्यं भावस्य उपयोगरूपस्य भावेन्द्रपरिणतिरूपस्य वा यथासङ्ख्येन कारणं निमित्तं भवति, यथा च उवओगपरिणइमओ 15 त्ति उपयोगमयो भावेन्द्रपरिणतिमयश्च भावो यथासङ्ख्येन तस्य अनुपयुक्तवक्तृप्रभृतिकस्य साधुद्रव्येन्द्रादिकस्य वा द्रव्यस्य पर्यायो धर्मो भवति, न तथा नाम नापि स्थापनेति । इदमुक्तं भवति-यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तत्वकाले तस्य उपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति, सोऽपि वा उपयोगलक्षणो भावः तस्य अनुपयुक्तवक्तृरूपस्य द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रस्सन् भावेन्द्ररूपायाः परिणतेः कारणं भवति, सोऽपि भावेन्द्रपरिणतिरूपो 20 भावस्तस्य साधुजीवद्रव्येन्द्रस्य पर्यायो भवति, न तथा नाम-स्थापने । अतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेदः । नाम्नस्तु स्थापना-द्रव्याभ्यां भेदः सामर्थ्यादेवावसीयत इति । तदेवं यद्यपि परप्रेरितप्रकारेण नाम-स्थापना-द्रव्याणामभेदस्तथाप्युक्तरूपेण प्रकारान्तरेण भेदः सिद्ध एव, नहि दुग्ध-तक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिनाऽपि न भेदः, अनन्तधर्माध्यासितत्वाद्वस्तुन इति गाथार्थः ॥७॥ [पृ०१७८] एगो व दो व तिण्णि व, संखमसंखा य एगसमएणं । 25 उववजंतेवइआ, उव्वटुंता वि एमेव ॥८॥ [बृहत्सं० १५६] व्या० भवनवास्यादिषु प्रत्येकमेकस्मिन् समये जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्पद्यन्ते, उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा । सहस्रारादूर्ध्वं सर्वेष्वपि देवलोकेषूत्कर्षतः सङ्ख्याता एवोत्पद्यन्ते, नासङ्ख्याताः, यतो मनुष्या एव सहस्रारादूर्ध्वं गच्छन्ति, न तिर्यञ्चः, मनुष्याश्च Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल - वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे सङ्ख्याता एवेति । उद्वर्त्तमाना अपि सन्तो भवनपति - व्यन्तरादिभ्य एवोद्वर्त्तन्ते । तथा जघन्यत को योवा, उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा यावत् सहस्रारकल्पः, सहस्रारकल्पादूर्ध्वम् उत्कर्षतः सङ्ख्याता एव च्यवन्ते । आनतादिच्युता हि मनुष्येष्वेवागच्छन्ति, न तिर्यक्षु, मनुष्याश्च सङ्ख्याता एवेति। एकेन्द्रियेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, 5 न त्वेकः सङ्ख्याता वा इति । आह च १०२ अणुसमयमसंखेज्जा, संखेज्जाऊअतिरिअमणुआ य । एगिदिएसु गच्छे, आरा ईसाणदेवा य || ९ || [ बृहत्सं० ३३५] व्या० एकेन्द्रियेषु अनुसमयं समयं समयं प्रति असङ्ख्येया जीवा उत्पद्यन्ते, ते के ? सङ्ख्येयायुषस्तिर्यमनुष्याः, असङ्ख्यातवर्षायुषां युगलिनां देवेष्वेवोत्पादात् । च पुनः 10 ईशानदेवलोकादर्वाग् ये देवाः, कोऽर्थः ? सौधर्मदेवलोकान्ता देवाः भवनपति - व्यन्तरज्योतिस्सौधर्मपर्यवसानाः गच्छन्ति यान्ति इत्यर्थः ||९|| अथवैकेन्द्रियेषु अनन्ता अपि उत्पद्यन्ते जीवा इति तदाह एगो असंखभागो, वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि । एगनिगोए निच्वं, एवं सेसेसु वि स एव ||१०|| [ बृहत्सं० प्रक्षेप० ३३५ ] 15 व्या० एकोऽसङ्ख्यभाग एकस्मिन्निगोदे उद्वर्त्तनोपपाते वर्त्तते, कोऽर्थः ? एकस्य निगोदस्यैकोऽसङ्ख्यभागोऽनन्तजीवात्मक उद्वर्त्तते उत्पद्यते च, समये समयेऽनन्तजीवात्मको निगोदासङ्ख्यभागः उद्वर्त्तते निस्सरति पुनरुत्पद्यते, एवं शेषेष्वपि विषयेषु द्वीन्द्रियादिषु उद्वर्त्तनमुपपातश्च विज्ञेयौ ॥१०॥ [पृ०१८०] इह च वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धि20 पूर्वमात्मनो वीर्यं योगः, तत्पर्यायानाह 25 जोगो वीरिअं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं ति अ, जोगस्स हवंति पजाया ॥११॥ [ पञ्चसंग्रहे ३९६ ] व्या० योगो १ वीर्यं २ स्थाम ३ उत्साहः ४ परिक्रमः ५ तथा चेष्टा ६ शक्तिः ७ सामर्थ्यम् ८ इति योगस्य भवन्ति पर्यायाः, घट- कुम्भ-कलशादिवत् । अथ योगशब्दस्य व्युत्पत्तिर्लिख्यते - युज्यते जीवः कर्मभिर्येन कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ ] इति वचनात्, युङ्क्ते वा प्रयुङ्क्ते वा यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति, आह च [ १ 'भवनपत्यादयः एकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु मध्ये समुत्पद्यन्ते, न तेजोवायुषु तथाभवस्वाभाव्यात् । ' - इति बृहत्सङ्ग्रहणीवृत्तौ ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १०३ [पृ०१८१] मणसा वयसा काएण, वा वि जुत्तस्स विरिअपरिणामो । जीवस्स अप्पणिज्जो, स जोगसनो जिणक्खाओ ॥१२॥ व्या० मनसा वचसा कायेन वाऽपि युक्तस्य जीवस्य आत्मीयो यो वीर्यपरिणामः स योगसञो जिनाख्यातः । एतावता मनोयुक्तस्य वचोयुक्तस्य अथवा काययुक्तस्य यो जीवस्य परिणामः स एव योग इति ॥१२॥ 5 तेओजोगेण जहा, रत्तत्ताइ पडस्स परिणामो । जीवकरणप्पओगे, विरिअमवि तहऽप्पपरिणामो ॥१३॥ व्या० तेजोयोगेन रञ्जकद्रव्ययोगेन यथा रक्तत्वं पटस्य परिणामः, अन्यथा रञ्जकं द्रव्यं भिन्नं पटोऽपि भिन्नः, परं तद्योगात् पटस्यापि रक्तपरिणामो लोके दृश्यते, एवं जीवकरणप्रयोगे वीर्यमप्यात्मपरिणामः, अन्यथा जीवो भिन्नस्तिष्ठति करणानि मनोवचनकायरूपाणि भिन्नानि 10 सन्ति, तथापि वीर्यमात्मपरिणाम एव, मनसा करणेन युक्तस्य योगो वीर्यपर्यायोऽन्धस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोगः । एवं वाग्योगोऽपि काययोगोऽपि ॥१३॥ [पृ०१८२] सच्चं १ मोसं २ मीसं ३, असच्चमोसं ४ मणो वई चेव ८ । काओ उराल १ विक्किअ २, आहारग ३ मीस ६ कम्मइगो ७ ॥१४॥ व्या० यद्यपि मनोवाक्कायावष्टम्भसमुत्थो जीवस्य परिस्पन्द एव योग उच्यते, तथापीह 15 योगशब्देन कारणे कार्योपचारात्तत्सहकारिभूतं मनःप्रभृत्येव विवक्षितम्, इति तैस्सह योगस्य सामानाधिकरण्यम् । तत्र मनश्चतुर्द्धा, तद्यथा-सत्यं मृषा मिश्रमसत्यमृषा च । तत्र सन्तो मुनयः पदार्था वा जीवादयस्तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकत्वे यथावस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन साधु सत्यम्, यथा अस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुप्रतिभासनपरम् सत्यम् १ । विपरीतमसत्यम्, यद्वा नास्ति जीव एकान्तसद्रूपो वेत्याद्ययथावस्थितवस्तुप्रतिभासनपरम् 20 २ । सत्यं च मृषा चेति मिश्रम्, यथा धव-खदिर-पलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनापरः । अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, तथाविकल्पितार्थायोगात् ३। तथा यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते, यथा-अस्ति जीवस्सदसद्रूप इति, तत् किल सत्यम्, परिभाषितस्याराधकत्वात्, 25 यत् पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तु प्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतोत्तीर्णं विकल्प्यते, यथा-नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेति, तदसत्यम्, विराधकत्वात् । यत् पुनर्वस्तु प्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरम्, यथा- हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यमित्यादि चिन्तनं Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे तदसत्यामृषा, इदं हि स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेति, इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यम्, निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यथा तु सत्ये इति ४। यथा मनः सत्यादिभेदाच्चतुर्द्धा तथा वागपि सत्यादिभेदाच्चतुर्द्धा । तथा औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकाणि, तत्र उदारं प्रधानम्, प्राधान्यं च तीर्थकर-गणधरशरीरापेक्षया 5 द्रष्टव्यम्, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनरूपत्वात् । अथवा उदारं सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वाच्छेषशरीरेभ्यो बृहत्प्रमाणम्, बृहत्ता चास्य वैक्रियमाश्रित्य भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथा उत्तरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यत इति। उदारमेव औदारिकम् । तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम्, तथाहियदेकं भूत्वाऽनेकम् अनेकं भूत्वा चैकं तथा अणु भूत्वा महद्भवति महद्भूत्वा अणु इत्यादि। 10 तथा चतुर्दशपूर्वविदां तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते निर्वर्त्यत इत्याहारकम् । तथा मिश्रशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते-औदारिकमिश्रं वैक्रियमिश्रम् आहारकमिश्रं च, तत्रौदारिकमिश्रं कार्मणेन, तच्चापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्घातावस्थायां वा, उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरागतो जीव आद्यसमये कार्मणेनैव केवलेनाहारयति, ततः परमौ दारिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः । केवलिसमुद्घातावस्थायां 15 तु द्वितीय-षष्ठ-सप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रम् औदारिकं प्रतीतमेव । तथा वैक्रियमिश्रं कार्मणेनौदारिकेण वा, तत्र कार्मणेन मिश्रं देव-नारकाणाम् अपर्याप्तावस्थायामाद्यसमयादनन्तरं द्रष्टव्यम्, बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां वैक्रियाहारकलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले औदारिकेण मिश्रम्, तथा सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविद आहारकं त्यजत औदारिकं गृह्णत आहारकं वा प्रारभमाणस्याहारकमिश्रमौदारिकेण ज्ञेयम् । तथा कम्मयगं ति कर्मणो जातं 20 कर्मात्मकमित्यर्थः, तदेव कर्मजकम्, किमुक्तं भवति ? कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणताः कर्मजं शरीरमिति, अत एव तदन्यत्र कार्मणमित्युक्तम्, कर्मणो विकारः कार्मणमिति । तथा चोक्तम् कम्मविवागो कम्मणमट्टविहचित्तकम्मनिप्फन्नं । सव्वेसिं सरीराणं कारणभूअं मुणेअव्वं॥ [ ] 25 अत्र सव्वेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं बीजभूतं कार्मणशरीरमिति, न खल्वामूलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः । इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं करणम्, तथाहि- कर्मजेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १०५ ननु यदि कार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सङ्क्रामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन्वा कस्मान्न दृश्यते ? उच्यते-कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वाच्च । तथा च परतीर्थिकैरप्युक्तम् अन्तराभवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् वा प्रविशन् वा, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥ [वार्तिकालं०] 5 तदेवं चतुर्द्धा मनोयोगश्चतुर्द्धा वाग्योग: सप्तधा काययोगः, इति पञ्चदश योगाः । ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते यद्भुक्ताहारपरिणमनहेतुर्यद्वशाद्विशिष्टतपोविशेषसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमस्तस्य तत् किमिह नोक्तमिति ? उच्यते-सदा कार्मणेन सहाव्यभिचारितया तस्य तद्ग्रहणेनैव गृहीतत्वादिति ॥१४॥ [पृ०१८२] जुंजणकरणं तिविहं, मण वइ काए अ मणसि सच्चाइ । 10 सट्ठाणे तेसि भेओ, चउ चउहा सत्तहा चेव ॥१५॥ [आव०नि० १०३८] व्या० योजनाकरणं त्रिविधं त्रिप्रकारं मण वइ काए अ त्ति मनोवाक्कायविषयम् । तत्र मनसि सत्यादिमनोविषयं सत्यादियोजनाकरणम्, तद्यथा-सत्यमनोयोजनाकरणम् असत्यमनोयोजनाकरणं सत्यासत्यमनोयोजनाकरणम् असत्यामृषामनोयोजनाकरणम् इति च । स्वस्थाने प्रत्येक मनोवाक्कायलक्षणे तेषां योजनाकरणानां भेदो विभागः चउ चउहा सत्तहा चेव त्ति, 15 अयम् अत्र भावार्थः-मनोयोजनाकरणं चतुर्भेदं सत्यमनोयोजनाकरणादि दर्शितमेव, एवं वाग्योजनाकरणमपि सत्यवाग्योजनादिकरणादिचतुर्भेदमेव द्रष्टव्यम् । काययोजनाकरणं तु सप्तभेदम्, तद्यथा-औदारिककाययोजनाकरणम्, एवमौदारिकमिश्रम्, एवं वैक्रियकायः, एवं वैक्रियमिश्रम्, एवमाहारककायः, एवमाहारकमिश्रम्, एवं कार्मणकाययोजनाकरणमिति गाथार्थः ॥१५॥ [पृ०१८३] संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो । 20 आरंभो उद्दवओ, सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ॥१६॥ __व्यवहारभा० ४६, निशीथ० १८१३, प्रवचनसारो० १०६०] व्या० प्राणातिपातं करोमीति यः सङ्कल्पोऽध्यवसायः स संरम्भः, यस्तु परस्य परितापकरो व्यापारः स समारम्भः, अपद्रावयतो जीवितात् परं व्यपरोपयतो व्यापार आरम्भः, आह च चूर्णिकृत्- पाणाइवायं करोमीति जो संकप्पं करेइ-चिन्तयतीत्यर्थः- संरंभे वइ । 25 परितावणं करेइ समारंभे वट्टइ इति । एतच्च संरम्भादित्रयं सर्वनयानामपि शुद्धानां सम्मतम्, अथवा सुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात् पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः सर्वनयानामप्यशुद्धानां एतत् संरम्भादित्रितयं सम्मतम्, न तु शुद्धानामिति ॥१६॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल - वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०१८४] असणं ओअण-सत्तुग- मुग्ग-जगाराइखज्जगविही अ । खीराइ सूरणाई, मंडगपभिई अ विन्नेयं ॥१७॥ [पञ्चाशक० ५।२७, प्रवचनसारो० २०७] व्या० आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः सर्वत्र सम्बध्यते, तत ओदनादि सक्त्वादि 5 मुद्गादि जगार्यादि, जगाराशब्देन समयभाषया रब्बा भण्यते । तथा खाद्यकविधिश्च, खाद्यकमण्डिका-मोदक-सुकुमारिका - घृतपूर-लपनश्री - स्वर्गच्युताप्रभृतिपक्वान्नविधिः । तथा क्षीरादि, आदिशब्दाद्दधि घृत-तक्र - तीमन - रसालादिपरिग्रहः । तथा सूरणादि, आदिशब्दादार्द्रकादिसकलवनस्पतिविकारव्यञ्जनपरिग्रहः । मण्डकप्रभृति च, मण्डकाः प्रभृतिर्यस्य ठोठिका - कुल्लरिकाचूरीयक- इड्डरिकाप्रमुखवस्तुजातस्य, तन्मण्डकप्रभृति विज्ञेयं ज्ञातव्यमिति अशनम् १ ||१७|| 10 सम्प्रति पानमाह १०६ पाणं सोवीर - जवोदगाइ चित्तं सुराइअं चेव । आउकाओ सव्वो, कक्कडगजलाइअं च तहा ॥ १८ ॥ [पञ्चाशक० ५।२८, प्रवचनसारो० २०८ ] व्या० सौवीरं काञ्जिकं यवोदकादि यवधावनम्, आदिशब्दाद् गोधूम - षष्टिकादितण्डुल15 कोद्रवधावनादिपरिग्रहः । तथा चित्रं नानाप्रकारं सुरादिकं चैव, आदिशब्दात् सरक-मैरेयकादिपरिग्रहः । तथा अप्कायः सर्वः सरः - सरित्- कूपादिस्थानसम्बन्धी । तथा कर्कटकजलादिकम्, कर्कटकानि चिर्भटिकानि, तन्मध्यवर्ति जलम्, तदादि यस्य तत् कर्कटकजलादिकम् । आदिशब्दात् खर्जूर-द्राक्षादि-चिञ्चिणिकापानकेक्षुरसादिपरिग्रहः । एतत् सर्वं पानकम् ॥१८॥ सम्प्रति खादिममाह 20 भत्तोसं दंताई, खज्जूरं नालिकेरदखाई । कक्वडिअंबगफणसाइ बहुविहं खाइमं नेअं ॥१९॥ [पञ्चाशक० ५।२९, प्रवचनसारो० २०९ ] व्या० भक्तं च तद्भोजनमोषं च दाह्यं भक्तौषम्, रूढितः परिभृष्टचणक- गोधूमादि, दन्तेभ्यो हितं दन्त्यं गुन्दादि, आदिशब्दाच्चारुकुलिका - खण्डेक्षु-शर्करादिपरिग्रहः । यद्वा दन्तादि 25 देशविशेषप्रसिद्धं गुडसंस्कृतं दन्तपवनादिस्तथा खर्जूर - नालिकेर - द्राक्षादि, आदिशब्दादक्षोटदाडिम-कर्कटिका-ऽऽम्रपनसादि, आदिशब्दात् कदल्यादिफलपटलपरिग्रहः, बहुविधं खादिमं ज्ञेयम् ||१९|| स्वादिममाह १ तुलना- प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः, एवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् दंतवणं तंबोलं, चित्तं तुलसी कुहेडगाईअं । महुपिप्पलिसुंठाई, अणेगहा साइमं होइ ॥ २०॥ [पञ्चाशक० ४।३०, प्रवचनसारो० २१०] व्या० दन्ताः पूयन्ते पवित्रीक्रियन्ते येन काष्ठखण्डेन तद्दन्तपवनम्, ताम्बूलं नागवल्लीपत्रपूगफलादिरूपम्, चित्रम् अनेकविधं तुलसी - कुहेडकादि, तुलसी पत्रिकाविशेषः, कुहेडकः 5 पिण्डार्यकः, आदिशब्दाज्जीरक- हरितादिपरिग्रहोऽनेकधा स्वादिमं ज्ञेयम् ||२०|| [पृ०१८६] भण्णइ जिणपूआए, कायवहो जइ वि होइ उ कहिंचि । तहवि तई परिसुद्धा, गिहीण कूवाहरणजोगा ॥ २१ ॥ असयारंभपवत्ता, जं च गिही तेण तेसिं विन्नेया । १०७ तन्निव्वित्तिफलच्चिअ, एसा परिभावणीयमिदं ॥ २२ ॥ पञ्चाशक० ४।४२,४३] 10 व्या० भण्यते ऽभिधीयते, समाधिरिति गम्यम्, जिनपूजायां कायवधो जीवनिकायहिंसा, यद्यपीति परवचनाभ्युपगमे, भवति जायते, तुशब्दः पादपूरणे, कथञ्चित् केनचित् प्रकारेण, यतनाविशेषेण प्रवर्त्तमानस्य सर्वथाऽपि न भवतीत्यपीति दर्शनार्थं कथञ्चिद्ग्रहणम्, यद्यपि चासौ प्रतिषिद्ध इत्येतदिह स्थाने द्रष्टव्यम्, तथापि तईति तका सा जिनपूजा परिशुद्धा निरवद्या, केषाम् ? गृहिणाम्, न तु साधूनाम्, यतः अधिकारवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ||१|| [हारि० अष्टक०२५] इति । कथं परिशुद्धा ? इत्याह- कूपोदाहरणस्य अवटखननज्ञातस्य योग: सम्बन्धो दान्तिकयोजनं कूपोदाहरणयोगस्तस्मादिति । उदाहरणयोजनं चैवम् - यद्विशिष्टगुणान्तरसम्पादकं तदीषद्दोषदुष्टमपि परिशुद्धमवसेयम्, यथा श्रम - तृष्णा - कर्दमलेपादिदोषयुक्तं जलोद्गमसम्पाद्या- 20 कालतृष्णाछेदादिमहागुणयुक्तं कूपखननम्, विशिष्टकर्मक्षयादिगुणसम्पादिका च जिनपूजेति गाथार्थः ॥२१॥ समाधानान्तरमाह- असयेति, असदारम्भप्रवृत्ताः प्राण्युपमर्दनहेतुत्वेनाशोभनकृष्यादिव्यापारप्रसक्ताः, यद्यस्माद्धेतोः, चशब्दः समुच्चये, गृहिणी गृहस्थास्तेन हेतुना तेषां गृहिणां विज्ञेया ज्ञातव्या तन्निवृत्तिफलैव देह - गेहादिनिमित्तजीवोपसंमर्दनरूपाशुभारम्भनिवृत्तिप्रयोजनैव, भवति हि जिनपूजाजनितभावविशुद्धिप्रकर्षेण चारित्रमोहनीयक्षयोपशमसद्भावात् कालेनासदारम्भेभ्यो 25 निवृत्तिः, तथा जिनपूजाप्रवृत्तिकाले च असदारम्भाणामसम्भवाच्छुभभावसम्भवाच्च तन्निवृत्तिफलाऽसौ भवतीत्युच्यते एषा जिनपूजा, परिभावनीयं पर्यालोचनीयमिदं जिनपूजाया असदारम्भ१ तुलना - पञ्चाशकवृत्तिः ॥ 15 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे निवर्तनफलत्वं भवद्भिरपि येनावबुध्यते तथैव प्रतिप(पा?)द्यत इति गाथार्थः ॥२२॥ [पृ०१८६] संविग्गभाविआणं, लोद्धयदिटुंतभाविआणं च । मुत्तूण खित्तकाले, भावं च कहिंति सुद्धंछं ॥२३॥ संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हंत-दितयाणऽहिअं । आउरदिटुंतेणं, तं चेव हिअं असंथरणे ॥२४॥ बृहत्कल्पभा० १६०७,१६०८ निशीथभा० १६४९] व्या० येषां श्राद्धानां पुरत एषणादोषाः कथ्यन्ते ते द्विविधाः-संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च । संविग्नरुद्यतविहारिभिर्भाविता: संविग्नभाविताः, ये तु पार्श्वस्थादिभि लुब्धकदृष्टान्तेन भावितास्ते लुब्धकदृष्टान्तभाविताः । कथम् ? इति चेदुच्यते-ते पार्श्वस्था: 10 श्राद्धानित्थं प्रज्ञापयन्ति-यथा कस्यापि हरिणस्य पृष्ठतो लुब्धको धावति, तस्य च हरिणस्य पलायनं श्रेयः, लुब्धकस्यापि तत्पृष्ठतोऽनुधावनं श्रेयः । एवं साधोरप्यनेषणीयग्रहणतः पलायितुमेव युज्यते, श्रावकस्यापि तेन तेनोपायेन साधोरनेषणीयमेषणीयं वा दातुमेव युज्यत इति । इत्थं द्विविधानामपि श्राद्धानां पुरतः शुद्धं द्विचत्वारिंशद्दोषरहितं यदुञ्छमिवोञ्छं स्तोक-स्तोकग्रहणात्, शुद्धोञ्छं उत्सर्गपदमित्यर्थः । तत् कथयन्ति । किं सर्वदैव ? नेत्याह- मुक्त्वा क्षेत्रकालौ 15 भावं चेति । क्षेत्रं कर्कशक्षेत्रम् अध्वानं वा कालं दुर्भिक्षादिकं भावं ग्लानत्वादिकं प्रतीत्य ते श्राद्धाः किञ्चिदपवादपदमपि ग्राह्यन्ते । अपि च, इदमपि ते श्राद्धा ज्ञापनीयाः । संथरेति संस्तरणं नाम प्रासुकमेषणीयं चाशनादि पर्याप्तं प्राप्यते न च किमपि ग्लानत्वं विद्यते, तत्राशुद्धम् अप्रासुकम् अनेषणीयं च गृह्णतो ददतश्च द्वयोरपि अहितम् अपथ्यम्, गृह्णतस्संयमबाधाविधायित्वाद्ददतश्च भवान्तरे स्वल्पायु20 र्निबन्धनकर्मोपार्जनात् । तदेवाशुद्धम् असंस्तरणे अनिर्वाहे दीयमानं गृह्यमाणं च हितं पथ्यं भवति । आह- कथं तदेवाकल्प्यं तदेव च कल्प्यं भवितुमर्हति ? इत्युच्यते- आतुरो रोगी, तस्य दृष्टान्तेनेदं मन्तव्यम् । यथा हि रोगिणः कामप्यवस्थामाश्रित्यौषधादिकम् अपथ्यं भवति काञ्चित् पुनः समाश्रित्य तदेव पथ्यमेवमिहापि भावनीयम् ॥२४॥ [पृ०१८६] णायागयाणं कप्पणिज्जाणं असणपाणमाईणं । दव्वाणं देस-काल-सद्धा-सक्कार-कमजुत्तं ॥२५॥ आव० प्रत्या० । व्या० न्यायागतानां न्यायोपार्जितद्रव्यागतानां कल्पनीयानामशन-पानादीनां द्रव्याणां दानमिति शेषः । कथम्भूतं दानम् ? देश-काल-श्रद्धा-सत्कार-क्रमयुक्तं देयमिति भावः ॥२५॥ १. वस्तुतो नेयं गाथा, किन्तु आवश्यकसूत्रस्य प्रत्याख्यानाध्ययने अतिथिसंविभागव्रतनिरूपणे सूत्रमिदम् ॥ 25 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१८७] देवायुर्बन्धनकारणमाह महव्वय - अणुव्वएहि अ बालतवोऽकामनिज्जराए अ । देवाउअं निबंध, सम्मद्दिट्ठी अ जो जीवो ||२६|| व्या० महाव्रताणुव्रतैः, महान्ति व्रतानि पञ्च, अणुव्रतानि द्वादश । बालतपोऽकामनिर्जराभिः, बालतपांसि अज्ञानितपस्याः, अकामेन अनिच्छया निर्जरणं क्षुधा तृषादिभिः, देवायुर्निबध्नाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः । एतावता एतैः कारणैर्देवायुर्बन्ध : शुभो दीर्घश्च भवति ॥ २६॥ दीर्घमनुष्यायुर्बन्धनकारणमाह पयइए तणुकसाओ, दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तो, मणुआउं बंधए जीवो ॥२७॥ १०९ व्या० प्रकृत्या तनुकषायः स्वाभावेनैव स्तोककषायः दानरतः सर्वदा दानदायकः, पुनः शीलसंयमविहीनः यम-नियमाभ्यां रहितः, मध्यमगुणैश्च युक्तः, मध्यमाः अनुत्कृष्टा अनपकृष्टा गुणास्तैर्युक्तः । उत्कृष्टगुणस्तु देवो भवति, अपकृष्टगुणस्तिर्यग् भवति । एतादृशो जीव मनुष्यायुर्बध्नाति ||२७|| समिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समिअत्तणम्मि भइयो । कुसलवयमुईरंतो, जं वयसमिओ वि गुत्तो वि ॥३०॥ निशीथभा० ३७, उपदेशपद० ६०५ ] [पृ०१८८] नरकायुष्कारणमाह मिच्छादिट्ठी महारंभ - परिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो । नरयाउअं निबंधड़, पावमई रुद्दपरिणामो ||२८|| व्या० मिथ्यादृष्टि: महारम्भपरिग्रहः, महानारम्भो महान् परिग्रहो यस्य, महारम्भस्तु अभ्रकद्रावणादिः, महापरिग्रहोऽपरिमितपरिग्रहः, तीव्रलोभो निःशीलः, एतादृशो जीवो नरकायुर्निबध्नाति पापमतिः रौद्रपरिणामः ॥ २८ ॥ [पृ०१८९] मणगुत्तिमाइआओ, गुत्तीओ तिण्णि समयकेऊहिं । पविआरेअररूवा, निद्दिट्ठाओ जओ भणिअं ॥ २९ ॥ व्या० मनोगुप्त्यादयः, मकारोऽलाक्षणिकः, गुप्तयस्तिस्रः समयकेतुभिः सिद्धान्तवेदिभिः प्रवीचारेतररूपाः प्रवीचाराप्रवीचारोभयरूपाः निर्दिष्टाः । प्रवीचारो नाम कायिको वाचिको वा व्यापारः, तद्वर्जितोऽप्रवीचारः । इह समितय: प्रवीचाररूपा उभयरूपास्तु गुप्तय इत्यर्थः 25 ॥२९॥ तदेवाह 5 10 15 20 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ___ व्या० समित: समितियुक्तो नियमाद् गुप्तः, गुप्तस्तु समितत्वे नियमाद्भाज्यः, यथा कुशलां निर्वद्यगुणोपेतां वाचं वाणीमुदीरयन् समितो गुप्तोऽपि च स्यात्, गुप्तेः प्रवीचाररूपतयाऽप्यभिधानात्, अतस्समितो नियमाद् गुप्तः गुप्तस्तु समितत्वे नियमाद्भाज्यः । यो हि कायवाचौ निरुद्ध्य शुभं मन उदीरयन्नेकाग्रमना: धर्मे स्यात् स गुप्तः स्यान्न समित: समितियुक्तो 5 न स्यात्, समितेः प्रवीचाररूपत्वात् । यस्तु कायवाचौ सम्यक् प्रयुङ्क्ते सम्यग्व्यापारवती कुर्यात् स गुप्तोऽपि समितोऽपि, गुप्तेरुभयरूपत्वादित्यर्थः ॥३०॥ [पृ०१९१] आगमतोऽणुवउत्तो, ईअरो दव्वपुरिसो तिहा तइओ । एगभविआइ तिविहो, मूलुत्तरनिम्मिओ वा वि ॥३१॥[विशेषाव० २०९१] व्या० इह नामस्थापनापुरुषौ नोक्तौ, तद्विचारस्यातिप्रतीतत्वात् । द्रव्यपुरुषस्तु द्विधा10 आगमतो नोआगमतश्च । तत्रागमतः पुरुषपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो द्रव्यपुरुष उच्यते, इतरस्तु नोआगमत इत्यर्थः, द्रव्यपुरुषो ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तभेदात् त्रेधा । तत्र ज्ञशरीरभव्यद्रव्यपुरुषौ द्रव्यावश्यकादिवत् सुचर्ची, तृतीयस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यपुरुषः, पुनरप्येकभविक-बद्धायुष्का-ऽभिमुखनामगोत्रभेदात् त्रेधा । अथवा व्यतिरिक्तो द्विविधः- कथम् ? मूलगुणनिर्मित उत्तरगुणनिर्मितश्च । तत्र मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तर15 गुणनिर्मितस्तु तान्येव तदाकारवन्तीति ॥३१॥ [पृ०१९२] उक्तो द्रव्यपुरुषः, इदानीमभिलाप-चिह्नपुरुषौ प्राहअभिलावो पुंलिंगाभिहाणमेत्तं घडोव्व चिंधे उ । पुरिसागिई नपुंसो, वेओ वा पुरिसवेसो वा ॥३२॥ [विशेषाव० २०९२] व्या० अभिलापः शब्दस्तद्रूपः पुरुषोऽभिलापपुरुषः, यथा पुरुषः इति पुंलिङ्गवृत्त्य20 भिधानमात्रं घटः पट इत्यादि । चिह्ने चिह्नविषये पुरुषश्चिह्नपुरुषः, पुरुषाकृति: नपुंसकात्मा श्मश्रुप्रमुखपुरुषचिह्नयुक्तः, अथवा वेदः पुरुषवेदः चिह्नपुरुष: चियते लक्ष्यते पुरुषोऽनेनेति कृत्वा, अथवा पुरुषस्य सम्बन्धी वेषो यस्य स पुरुषवेष: स्त्र्यादिरपि चिह्नमात्रेण पुरुषः चिह्नपुरुष इति ॥३२॥ वेद-धर्मपुरुषौ प्राह वेअपुरिसो तिलिंगो, वि, पुरिसवेआणुभूइकालम्मि । ___ धम्मपुरिसो तयजणवावारपरो जहा साहू ॥३३॥ [विशेषाव० २०९३] व्या० स्त्रीपुंन्नपुंसकलिङ्गत्रयवृत्तिरपि प्राणी यदा तृणज्वालोपमविपाकं पुरुषवेदमनुभवति तदा पुरुषवेदानुभवमाश्रित्य पुरुषो वेदपुरुषः स्त्र्यादिरप्युच्यते । धर्मार्जनव्यापारपरो धर्मपुरुषः, यथा साधुरिति ॥३३॥ अर्थ-भोगपुरुषौ प्राह Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०१९२] अत्थपुरिसो तयज्जणपरायणो मम्मणो व्व निहिपालो । भोगपुरिसो समज्जियविसयसुहो चक्कवट्टि व्व ॥ ३४|| [विशेषाव० २०९४] व्या० गाथार्थः सुगमः, नवरं राजगृहनगरनिवासी रत्नमयबलीवर्दनिर्मापको मम्मणो वणिगावश्यकवृत्तितोऽवसेयः । भोगपुरुषः सविशेषकष्टानुष्ठानसमर्जितविषयसुखश्चक्रवर्त्तीव । अत्रान्त्यं पदद्वयमेव लिखितमस्ति, तस्यैव प्रस्तुतत्वादिति ॥ ३४ ॥ 5 [पृ०१९२] उग्गा भोगा रायन्न खत्तिआ संगहो भवे चहा । आरक्खि गुरु वयंसा, सेसा जे खत्तिआ ते उ ।।३५।। [आव०नि० २०२, बृहत्कल्पभा० ३२६५ ] व्या० उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियाः, एषां समुदायरूपः सङ्ग्रहो भवेच्चतुर्द्धा । एतेषामेव यथासङ्ख्यं स्वरूपमाह- आरक्खीति, उग्रा उग्रदण्डकारित्वादुग्राः, आदिदेवेन ये आरक्षकत्वे 10 नियुक्ताः, भोगा ये गुरुत्वेन व्यवहृताः क्वचिद्भोजा इति पाठः, अर्थः स एव । राजन्या ये वयस्यतया स्थापिताः, समानवयस इति कृत्वा वयस्याः । शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये क्षत्रियास्ते तु, तुशब्दः पुनरर्थे, ते पुनः क्षत्रियाः प्रकृतितया स्थिताः राजकुलीनाः प्रजाभूता इत्यर्थः, इति गाथार्थः ।।३५।। [पृ०१९७] अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूअसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्वंति || ३६ || [ आव०नि० ९२६] व्या० अर्ह पूजायाम् [पा०धा० ५६४], अर्हन्तीति, पचाद्यच् कर्त्तरि, अर्हाः, किमर्हन्तीति ? वन्दन-नमस्कारकरणे । तत्र वन्दनं शिरसा, नमस्कारकरणं वाचा । तथा अर्हन्ति पूजासत्कारम्, तत्र वस्त्र-माल्यादिजन्या पूजा, अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः, तथा सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिर्लोकान्तक्षेत्रलक्षणा, वक्ष्यति च - इह बोंदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण 20 सिज्झति। तद्गमनं च प्रत्यर्हाः, अरहंता तेण वुच्छंति प्राकृतशैल्या अर्हास्तेनोच्यन्ते ||३६|| [पृ०२००] सूओ १ दणो २ जवऽन्नं ३, तिण्णि अ मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १०, मूलफला ११ हरिअगं १२ डागो १३ ||३७|| होइ रसालू १४ अ तहा, पाणं ९५ पाणीअ १६ पाणगं १७ चेव । अट्ठारसमो सागो १८, निरुवहओ लोइओ पिंडों ॥ ३८ ॥ [ प्रवचनसारो०१४११-२] 25 ९. इतः परं प्रवचनसारोद्धारे गाथात्रयं वर्तते, यथा- जलथलखहयरमंसाई तिन्नि जूसो उ जीरयाइजुओ । मुग्गरसो भक्खाणि य खंडखज्जयपमुक्खाणि ॥ १४१३|| गुललावणिया गुडपप्पडीउ गुलहाणिया उवा भणिया । मूलफलत्तिक्कपयं हरिययमिह जीरयाई य ॥ १४१४ || डाओ वत्थुलराईण भजिया हिंगुजीरयाइजुया । सा य रसालू जा मज्जिय त्ति तल्लक्खणं चेयं ॥ १४१५ ॥ १११ 15 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ___ व्या० गाथाद्वयं वृत्तिकृतैव व्याख्यातम्, नवरं सूपो दालिः, ओदन: कूरः, यवान्नं यवनिष्पन्नं परमान्नम्, गोरसो दुग्ध-दधि-घृतप्रभृतिकः । जलचर-स्थलचर-खचरसम्बन्धीनि त्रीणि मांसानि, तत्र जलचरा मत्स्यादयः, स्थलचरा हरिणादयः, खचरा लावकादयः । जूषो जीरक-कटुभाण्डादिभिर्युतस्सुसम्भृतो मुद्गरसः । तथा भक्ष्याणि खण्डखाद्यकप्रमुखाणि, खाद्यक 5 खज्जकम्, तच्च खण्डेन खरण्टितम्, तत्प्रमुखाणि, तथा गुललावणिका गुडपर्पटिका, पूर्वदेशीयप्रधानगुडकृता या पर्पटिकेत्यर्थः, अथवा गुडमिश्रा धाना गुडधाना भणिता गुडलावणिकेति। मूलफलानि एकम् एव पदं ग्राह्यम्, तत्र मूलानि अश्वगन्धादीनाम्, फलानि सहकारादीनाम्, हरितकमिह जीरकादिपत्रनिर्मितम्, डाको वस्तुलराजिकादीनां भर्जिका हिङ्गु जीरकादिभिर्युता सुसंस्कृता । रसालुर्मर्जिका, तल्लक्षणमिदम्10 दो घयपला महुपलं, दहिस्स अद्धाढयं मिरिय वीसा । दस खंडगुलपलाइं, एस रसालू निवइजोग्गा ॥३९॥ [प्रवचनसारो० १४१६] व्या० द्वे घृतपले एकं मधुपलं दध्नोऽर्द्धाढकं मरीचानि विंशतिः दश खण्डगुडपलानि, एषा रसालू पतियोग्या इति ॥३९॥ निरुपहतो निर्दोषो लौकिको निर्विवेकिलोकप्रतीतः पिण्ड आहारः ॥३७-३८॥ 15 [पृ०२०१] सज्जनप्रकारमाहकओवयारो जो होइ, सज्जणो होउ को गुणो तस्स । उवयारबाहिरा जे, हवंति ते सुंदरा सुअणा ॥४०॥ व्या० कृत उपकारो यस्य स कृतोपकारः पुरुषो यो भवति सज्जनः स भवतु सज्जनः, तस्य सज्जनतायां को गुणः?, न कोऽपीत्यर्थः । उपकारबाहिरा उपकाररहिता ये, येषूपकारः 20 कोऽपि कृतो नास्ति, ते सुजनाः सुन्दराः, निरुपकारसौजन्यगुणयुतत्वादिति गाथार्थः ॥४०।। सम्यक्त्वदायकं दुष्प्रतीकारमाहसम्मत्तदायगाणं, दुप्पडिआरं भवेसु बहुएसुं । सव्वगुणमेलिआहि वि, उवगारसहस्सकोडीहिं ॥४१॥ [उपदेशमाला० २६९] व्या० सम्यक्त्वदायकानां विशिष्टदेशनया सम्यग्भावसम्पादकानां दुष्प्रतीकारं प्रतिकर्तुमशक्यं 25 भवेषु वर्तमानाभिः सर्वगुणमीलिताभिरपि द्विगुणादिभिर्यावदनन्तगुणाभिरपीत्यर्थः, उपकारसहस्रकोटीभिर्न कथञ्चित्ते प्रत्युपका पार्यन्त इत्याकूतमिति ॥४१॥ पृ०२०२] जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा । सो तं तओ चुअं तम्मि चेव काउं भवे निरीणो ॥४२॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् व्या० यो येन धर्मोपदेशप्रदानादिना दर्शने चारित्रे वा स्थापितः, स तं गुरुं दर्शनचारित्राभ्यां च्यवन्तं तयोरेव दर्शन-चारित्रयोः स्थापयित्वा निर्गतं ऋणं यस्मात् स निर्ऋणो भवति, कृतप्रत्युपकार इत्यर्थः ।।४२।। [पृ०२०५] योनिस्वभावं प्राणिनामाहसीओसिणजोणीआ, सव्वे देवा य गब्भवक्वंता । उसिणा य तेउकाए, दुह निरए तिविह सेसाणं ॥४३॥ [जीवसमास०४७,बृहत्सं०३६०] व्या० सर्वे सुराः, च पुनः सर्वे गर्भव्युत्क्रान्ता गर्भजतिर्यङ्नराः शीतोष्णयोनिकाः उभयस्वभावाः, उष्णा च योनिस्तेजस्काये, जातावेकवचनम्, नरए नरके द्विधा शीता उष्णा च, तत्राद्यासूष्णवेदनासु तिसृषु पृथ्वीषु शीता, चतुर्थ्यां बहूपरितनेषूष्णवेदनेषु नरकावासेषु शीता, अधः स्तोकेषु शीतवेदनेषु उष्णा, पञ्चम्यां बहुषु शीतवेदनेषूष्णा स्तोकेषूष्णवेदनेषु शीता, षष्ठी- 10 सप्तम्योश्च शीतवेदनयो रकाणां योनिरुष्णैव । शीतयोनिकानां हि उष्णवेदनाऽत्यन्तं दुस्सहा उष्णयोनिकानां तु शीतवेदनेति । तिविहेति शेषाणां पृथिव्यम्बु-वायु-वनस्पति-सम्मूर्छिमतिर्यङ्नराणां त्रिविधा केषाञ्चिच्छीता केषाञ्चिदुष्णा केषाञ्चिन्मिश्रेति ॥४३॥ सच्चित्ताचित्तयोनिभेदमाह[पृ०२०५] अच्चिता खलु जोणी, नेरइआणं तहेव देवाणं । मीसा य गब्भवसही, तिविहा जोणी तु सेसाणं ॥४४॥ [बृहत्सं० ३५९] व्या० खलुनिश्चयार्थे, नैरयिकाणां तथा देवानां निश्चयेन अचित्ता योनिः सर्वथा जीवप्रदेशविप्रमुक्ता, यद्यपि च सूक्ष्मैकेन्द्रियास्सकललोकव्यापिनस्तथापि तत्प्रदेशैरुपपातस्थानपुद्गला अन्योन्यानुगमेन सम्बद्धा इत्यचित्तैव तेषां योनिः । मीसा य गन्भवसहीति प्राकृतत्वात् षष्ठीबहुवचनलोपः, गर्भवसतीनां गर्भजतिर्यङ्नराणां योनिर्मिश्रा सचित्ताचित्तरूपा, तथाहि-ये 20 शुक्रमिश्राः शोणितपुद्गला योन्याऽऽत्मसात्कृतास्ते सचित्ताः शेषाणां देवनारकगर्भजतिर्यङ्नरव्यतिरिक्तानाम् एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-सम्मूर्छिमतिर्यङ्नराणां योनिस्त्रिभेदा- सचित्ताऽचित्ता मिश्रा च, तत्र जीवति गवादावुत्पद्यमानानां कृम्यादीनां सचित्ता, अचित्ते काष्ठे घुणादीनाम् अचित्ता, सचित्ताचित्ते काष्ठ-गोक्षतादौ घुण-कृम्यादीनामेव मिश्रेति ॥४४॥ [पृ०२०६] एगिंदिअनेरइआणं, संवुडजोणी हवंति देवा य । विगलिंदिआण विअडा, संवुडविअडा य गब्भम्मि ॥४५॥ [बृहत्सं० ३५८] व्या० एकेन्द्रियनैरयिकाणाम्, एकेन्द्रिया नैरयिकाश्च, तेषां संवृता योनिः, तथाहिएकेन्द्रियाणां संवृता योनिः, स्पष्टमनुपलक्ष्यमाणत्वात्, नारकाणां पृथ्वीसप्तकवर्त्तिनां तु संवृता 15 ___25 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे योनिः, संवृतगवाक्षकल्पत्वात् । च पुनर्देवाश्च संवृतयोनयो भवन्ति, तेषां हि देवशयनीये देवदूष्यान्तरितानां समुत्पादात् । विकलेन्द्रियाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सम्मूर्च्छिमतिर्यङ्नराणां च, एतेषां मनोविकलत्वेन विकलेन्द्रियेष्वेवान्तर्भावः, एतेषां सर्वेषां विवृता योनिः, तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्टमुपलक्ष्यमाणत्वात् । गब्भम्मीति जातावेकवचनं तात्स्थ्यात् 5 तद्व्यपदेशश्च, तेन गर्भजतिर्यनरयोोनिस्संवृत-विवृतोभयरूपा, गर्भो ह्यन्तः स्वरूपतो नोपलभ्यते बहिस्तूदरवृद्ध्यादिनोपलक्ष्यत इति ॥४५।। [पृ०२०६] जे केइ नालिआबद्धा, पुप्फा संखेजजीविआ भणिआ । __णीहूआ अणंतजीवा, जे आवऽण्णे तहाविहा ॥४६॥ [प्रज्ञापना० १।८७] व्या० यानि कानिचिन्नालिकाबद्धानि पुष्पाणि जात्यादिगतानि, तानि सर्वाण्यपि 10 सङ्ख्यातजीवकानि भणितानि तीर्थकरगणधरैः । स्निहू स्निहपुष्पं पुनरनन्तजीवम्, यान्यपि चान्यानि स्निहूपुष्पकल्पानि तान्यपि तथाविधानि अनन्तजीवात्मकानि ज्ञातव्यानीति शेषः ॥४६॥ पउमुप्पलनलिणाणं, सुभगसोगंधिआण य । अरविंद कोंकणाणं, सयवत्तसहस्सवत्ताणं ॥४७॥ 15 बिंटे बाहिरपत्ता य, कण्णिआ चेव एगजीवा य । अभिंतरगा पत्ता, पत्तेयं केसरा मिंजा ॥४८॥ [प्रज्ञापना० १।९०-९१] व्या० पद्मानामुत्पलानां नलिनानां सुभगानां सौगन्धिकानाम् अरविन्दानां कोकनदानां शतपत्राणां सहस्रपत्राणां प्रत्येकं यद् वृन्तं प्रसवबन्धनं यानि च बाह्यपत्राणि प्रायो हरितरूपाणि, या च कर्णिका पत्राधारभूतानि त्रीण्यपि एकजीवात्मकानि, यानि पुनरभ्यन्तरपत्राणि 20 यानि च केसराणि याश्च मिञ्जा: फलानि, एतानि प्रत्येकमेकैकजीवाधिष्ठितानि इति गाथाद्वयार्थः ॥४७-४८।। णिबंबजंबुकोसंब-सालअंकुल्लपीलुसल्लूअ । सल्लइमोअइमालुअ-बउलपलासे करंजे अ ॥४९॥ [प्रज्ञापना० १।१३] व्या० तत्र निम्बाम्रजम्बुकोसम्बा: प्रतीताः, सालः सर्जः, अंकोल्लेति अङ्कोल्लः प्राकृतत्वात् 25 च सूत्रे ठकारस्य लादेशः, अंकोठे ल्लः [है० ८।१।२००] इति वचनात् । पीलुः प्रतीतः, शैलुः श्लेष्मातकः, शल्लकी गजप्रिया, मोचकीमालुकौ देशविशेषप्रतीतौ, बकुल: केशरः, पलास: किंशुकः, करञ्जो नक्तमालः । अत्र गाथात्रयम् उपर्येकालापकसहितं स्यात्तदा सुसङ्गतोऽर्थो भवति, परमभयदेवसूरिभिरेकैव गाथाऽऽनीता, परम् अर्थः सम्यङ् नावबुध्यत इति उपरित Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ११५ आलापकोऽर्थतो व्याख्यायते, येन सङ्गतार्था भवतीति । एएसि णमित्यादि, एतेषामेकास्थिकानां मूलान्यप्यसङ्ख्येयजीवकानि असङ्ख्येयप्रत्येकशरीरजीवात्मकानि, एवं कन्दा अपि स्कन्धा अपि त्वचोऽपि शाखा अपि प्रवाला अपि प्रत्येकमसङ्ख्येयप्रत्येकशरीरजीवकाः । तत्र मूलानि यानि कन्दस्याधस्ताद्भूमेरन्तः प्रसरन्ति, तेषामुपरि कन्दास्ते च लोकप्रतीताः, स्कन्धाः स्थुडाः, त्वचश्छल्लयः, शाला: शाखाः, प्रवाला: पल्लवाङ्कुराः। पत्ता पत्तेअजीविअ त्ति 5 पत्राणि प्रत्येकजीविकानि, एकैकं पत्रमेकैकेन जीवेनाधिष्ठितमिति भावः । पुष्पाण्यनेकजीवानि, प्राय: प्रतिपुष्पपत्रं जीवभावात् । फलान्येकास्थिकानि । गाथात्रयं दिदृक्षुणा प्रथमं पदं विलोक्यम् ॥४९॥ [पृ०२०८] भदि कल्लाणसुहत्थो, धाऊ तस्स य भदंतसद्दोऽयं । ___स भदंतो कल्लाणं, सुहो अ कल्लं किलारोग्गं ॥५०॥ [विशेषाव० ३४३९] 10 व्या० भदि कल्याणे सुखे [पा०धा०१२] इति भदिधातुः कल्याणार्थः सुखार्थश्च, तस्य च भदिधातोर्भदन्त इत्यौणादिकप्रत्यये भदन्तशब्दोऽयं निष्पद्यते, ततः स्थितम्-स भदन्त: कल्याण: सुखश्च । तत्र कल्याणशब्दव्युत्पादनार्थमाह- कल्यं किलारोग्यमुच्यत इति ॥५०॥ अथवा भंते त्ति नेदं भदन्त इत्यामन्त्रणं किन्तु भजन्त इति, कया व्युत्पत्त्या ? इत्याह[पृ०२०९] अहवा भय सेवाए, तस्स भयंतो त्ति सेवए जम्हा । 15 सिवगइणो सिवमग्गं, सेव्वो अ जो तदत्थीणं ॥५१॥ [विशेषाव० ३४४६] व्या० अथवा भजश्रिञ् सेवायाम् [का०धा० १६०४] ति भजधातुस्तस्य भजते सेवते इति भजन्तस्तस्य सम्बोधनं हे भजन्त गुरो ! स चेह कस्माद् ? उच्यते- यस्मात् सेवते, कान् ? शिवगतीन् सिद्धिगति प्राप्तान्, अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्रलक्षणं शिवमार्ग मोक्षमार्ग वा अथवा सेव्यश्च यस्मादसौ तदर्थिनां मोक्षमार्गार्थिनां तस्माद्भज्यते सेव्यते इति भजन्त 20 इत्युच्यते इति ॥५१॥ अथवा भान्तो भ्राजन्तो वा गुरुरुच्यते इति, कथम् ? इत्याहअहवा भा भाजो वा, दित्तीए होड़ तस्स भंतो त्ति । भाजतो चाऽऽयरिओ, सो नाणतवोगुणजुईए ॥५२॥ [विशेषाव० ३४४७] व्या० भा धातुर्धाजधातुर्वा दित्तीए दीप्तौ पठ्यते तस्य भान्त भ्राजन्त इति वा भवति। 25 १. एएसि णं मूला वि असंखेजजीविआ कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि पत्ता पत्तेयजीविया पुप्फा अणेगजीविया फला एगट्ठिया सेत्तं एगट्ठिया इति प्रज्ञापनासूत्रे प्रथमे पदे । २. भज सेवायाम - पा०धा० ९५८ ॥ ३. भा दीप्तौ- पा०धा० १०५९, भ्राज़ दीप्तौ- पा०धा० १८९ ॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे स चैवम्भूतः कः ? इत्याह- आचार्यः । स च कथं भाति भ्राजते वा ? इत्याह ज्ञानतपोगुणदीप्त्येति ॥५२॥ अथवा भ्रान्तो भगवान्वाऽसाविति दर्शयन्नाह अहवा भंतोऽपेओ जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ। 5 अहवेसरिआइ भगो, विजइ से तेण भगवंतो ॥५३॥ [विशेषाव० ३४४८] व्या० अथवा भ्रम अनवस्थाने इत्यस्य धातोर्भ्रान्त इत्युच्यते, यस्मादपेतोऽसौ मिथ्यात्वादिबन्धहेतुभ्य इति । अथवा ऐश्वर्यादिकः षड्विधो भगो विद्यते से तस्य, तेन भगवान् गुरुरिति ॥५३॥ अथवा भवान्तो भयान्तो वाऽयमित्यादि दर्शयन्नाहनेरइआइभवस्स व, अंतो जं तेण सो भवंतो त्ति । अहवा भयस्स अंतो, होइ भयंतो भयं तासो ॥५४॥ [विशेषाव० ३४४९] व्या० अथवा यस्मान्नारकादिभवस्यान्तहेतुत्वादन्तोऽसौ, तेन भवान्त इति । अथवा भयस्यान्तो भयान्तो भवति, भयं च त्रास उच्यत इति ॥५४॥ [पृ०२०९] धान्यप्रासुकाधिकारे गाथार्धम्अकुड्डो होइ मंचो, मालो अ घरोवरिं होइ । [ व्या० मञ्चः स्थूणानामुपरि स्थापितो वंशकटकादिमयो जनप्रतीतः । कथम्भूतो मञ्चः ? अकुड्यः, नास्ति कुड्यम् आधारो यस्य सोऽकुड्यः । मालश्च गृहस्योपरितनभागो यत्र धान्यं स्थाप्यते ॥ [पृ०२१०] सागरमेगं तिअ सत्त, दस य सत्तरस तह य बावीसा । तेत्तीसं जाव ठिई, सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ॥५५॥ [बृहत्सं० २३३, प्रवचनसारो० १०७५] व्या० सप्तस्वपि नरकपृथ्वीष्वियं यथासङ्ख्यमुत्कृष्टा स्थितिरिति । रत्नप्रभायां पृथिव्यां सागरोपममेकमुत्कृष्टा स्थितिः, शर्कराप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि, वालुकाप्रभायां सप्त, पङ्कप्रभायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश, तमःप्रभायां द्वाविंशतिः, तमस्तमःप्रभायां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाण्युत्कृष्टा 25 स्थितिरिति ॥५५॥ सम्प्रति सप्तस्वपि पृथिवीषु जघन्यां स्थितिमाह जा पढमाए जेट्ठा, सा बिइआए कट्ठिया भणिआ । तरतमजोगो एसो, दस वाससहस्स रयणाए ॥५६॥ [बृहत्सं० २३४] 15 20 १. भ्रम अनवस्थाने - पा०धा० १२०५ ।। २. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः ।। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् व्या० या प्रथमायां रत्नप्रभायां ज्येष्ठा उत्कृष्टा स्थितिरेकसागरोपमलक्षणा सा द्वितीयायां पृथिव्यां शर्कराप्रभाभिधानायां कनिष्ठा जघन्या भणिता । एष तरतमयोगो जघन्यतोत्कृष्टस्थितियोगः सर्वास्वपि पृथिवीषु भावनीयः, तद्यथा-या द्वितीयायामुत्कृष्टा सा तृतीयायां जघन्या, या तृतीयायामुत्कृष्टा सा चतुर्थ्यां जघन्या, चतुर्थ्यां या उत्कृष्टा सा पञ्चम्यां जघन्या, पञ्चम्यां या उत्कृष्टा सा षष्ठयां जघन्या, या षष्ठ्यामुत्कृष्टा सा सप्तम्यां जघन्या । रत्नप्रभायां जघन्या 5 स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, शर्कराप्रभायाम् एकं सागरोपमम्, वालुकाप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि, पङ्कप्रभायां सप्त, धूमप्रभायां दश, तमःप्रभायां सप्तदश, तमस्तमःप्रभायां कालादिषु चतुर्यु नरकावासेषु द्वाविंशतिस्सागरोपमाणि जघन्या स्थितिः । जघन्योत्कृष्टान्तरालवर्तिनी तु सर्वत्र मध्यमा बोद्धव्या ॥५६॥ [पृ०२११] पढमाऽसीइसहस्सा, बत्तीसा अट्ठवीस वीसा य । 10 ___ अट्ठार सोलसऽट्ट य, सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥५७॥ [बृहत्सं० २४१] व्या० प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे प्रथमा, प्रथमाद्यास्तत्रार्थे, प्रथमादीनां सप्तानामपि पिण्ड इति शेषः, प्रमाणाङ्गुलेनैकलक्षोपरि यथाक्रमम् अशीतिः१ द्वात्रिंशद्र अष्टाविंशतिः३ विंशति४ रष्टादश ५ षोडश ६ अष्टौ ७ च योजनसहस्रा: । भावना चेयम्-प्रथमाया नरकपृथिव्याः पिण्डस्थूलत्वम् एकं लक्षं योजनानामशीतिस्सहस्राणि च, एवं द्वितीयायाः पिण्ड एकं लक्षं 15 द्वात्रिंशत्सहस्राणि, तृतीयायाः पिण्ड एकं लक्षमष्टाविंशतिस्सहस्राणि, चतुर्थ्याः पिण्ड एकं लक्षं विंशतिस्सहस्राणि, पञ्चम्याः पिण्ड एकं लक्षमष्टादश सहस्राणि, षष्ठ्याः पिण्ड एकं लक्षं षोडश सहस्राणि, सप्तम्याः पिण्ड एकं लक्षमष्ट सहस्राणीत्यर्थः ॥५७।। समुद्रेषु मत्स्यादिसम्भावनामाह[पृ०२१२] लवणे उदगरसेसु अ, महोरगा मच्छ-कच्छहा भणिआ । अप्पा सेसेसु भवे, न य ते निम्मच्छया भणिआ ॥५८॥ [बृहत्सं० ७७] 20 व्या० लवणे लवणसमुद्रे उदकरसेषु च कालोद-पुष्करोद-स्वयम्भूरमणेषु महोरगा मत्स्यकच्छपा भणिताः । अल्पाः शेषेषु भवेयुः, न च ते निर्मत्स्यका भणिताः ॥५८॥ एतदेवाहलवणे कालसमुद्दे, सयंभुरमणे अ हुंति मच्छा उ । अवसेससमुद्देसुं, न हुंति मच्छा व मयरा वा ॥५९॥ [बृहत्सं० ९०] व्या० लवणे लवणोदकसमुद्रे कालोदकसमुद्रे स्वयम्भूरमणसमुद्रे च प्राचुर्येण मत्स्या भवन्ति । उपलक्षणमेतत्तेन शेषा अपि मकरादयो जलचरजीवविशेषास्तत्र भूयांसो भवन्तीति 25 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल- वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे प्रतिपत्तव्यम् । अवशेषेषु तु समुद्रेषु प्रायो न भवन्ति मत्स्या वा मकरा वा, वाशब्दादन्येऽपि कच्छपादयः ॥५९॥ प्राय इति कथं लब्धम् ? इति चेदुच्यते, यत आह नत्थि त्ति परभावं, पडुच्च न उ सव्वमच्छपडिसेहो । अप्पा सेसेसु भवे, न य ते निम्मच्छया भणिआ ||६० || [ बृहत्सं० ९९ ] व्या० इह 'नत्थि उ मयरा व मच्छा वा' इति यत् प्राङ्नास्तित्वं मत्स्यानामुक्तं तत् प्रचुरभावं प्राचुर्यं प्रतीत्य वेदितव्यम्, यथा- प्राचुर्येणावशेषेषु समुद्रेषु मत्स्यादयो न भवन्तीति, न तु सर्वथा, तत्र मत्स्यानामुपलक्षणम् एतत् तेन मकरादीनां च प्रतिषेधः, यतोऽल्पाः शेषेषु मत्स्यादयो नियमतः सम्भवन्ति, न खलु ते निर्मत्स्याः सर्वथा जलचरजीवरहिता भणिता10 स्तीर्थकरगणधरैः । तथा चात्रार्थे संस्कृतक्षेत्रसमाससूत्रं संवादि लवणः कालोद - स्वयम्भूरमणा बहुमत्स्यकच्छपा नेतरे [ ] इति ॥ ६०|| 5 15 ११८ 20 [पृ०२१३] सोहम्मि पंचवण्णा, इक्कगहाणी अ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेणं परं पुंडरीआ य ॥६९॥ [बृहत्सं० १३२] व्या० गाथेयं प्राग् व्याख्याता द्विस्थानकस्य तृतीयोद्देशकगाथाविवरणप्रान्ते । [इति त्रिस्थानके प्रथमोद्देशकटीकागतगाथाविवरणं समाप्तम् ।] [ अथ त्रिस्थानके द्वितीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ] [पृ०२१४] जीवमजीवे रूवमरूवी सपएसअप्प से अ । जाणाहि दव्वलोगं, णिच्चमणिच्चं च जं दव्वं ॥१॥ [ आव० भा० १९५ ] व्या० जीवमित्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः चः । एतौ च द्विभेदौ- रूप्यरूपिभेदात्, आह च-- रूप्यरूपिणाविति । तत्रानादिकर्मसन्तानपरिगता रूपिणः संसारिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहितास्सिद्धा इति । अजीवास्त्वरूपिणो धर्माधर्माकाशास्तिकायाः, रूपिणस्तु परमाण्वादय इति । एतौ च जीवाजीवावोघतः सप्रदेशाववगन्तव्यौ, तथा चाह - सप्रदेशाविति । तत्र सामान्यविशेषरूपत्वात् 25 परमाणुव्यतिरेकेण सप्रदेशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेव भावनीयम्, परमाणवस्त्वप्रदेशा एव । अन्ये तु व्याचक्षते - जीवः किल कालादेशेन नियमात् सप्रदेशः, लब्ध्यादेशेन सप्रदेशो वाऽप्रदेशो वेति । एवं धर्मास्तिकायादिष्वपि त्रिष्वपि कायेषु परापरनिमितं पक्षद्वयं वाच्यम् । पुद्गलास्तिकायस्तु Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके द्वितीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् द्रव्याद्यपेक्षया चिन्तनीयः, यथा- द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशः, व्यणुकादयस्सप्रदेशाः, क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढोऽप्रदेशः द्व्यादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशा एव, कालतोऽप्येकानेकसमयस्थितिर्भावतोऽप्येकानेकगुणकृष्णादिरिति कृतं विस्तरेण, प्रकृतमुच्यते- इदमेवम्भूतं जीवाजीवव्रातं जानीहि द्रव्यलोकम्, द्रव्यमेव लोक इति कृत्वा, अस्यैव शेषधर्मोपदर्शनायाह- नित्यानित्यं च यद् द्रव्यं, चशब्दादभिलाप्यानभिलाप्यादिसमुच्चय इति गाथार्थः ॥१॥ साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयतिपृ०२१४] उदइअ ओवसमिए अ, खइए अ तहा खओवसमिए अ । परिणामसन्निवाए अ, छव्विहो भावलोगो अ ॥२॥ [आव० मूलभा० २००] व्या० उदयेन निर्वृत्त औदयिकः, कर्मण इति गम्यते, तथोपशमेन निर्वृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः, एवं शेषेष्वपि वाच्यम्, ततश्च क्षायिकः क्षायोपशमिकश्च 10 पारिणामिकस्सान्निपातिकश्च, एवं षड्विधो भावलोकस्तु ॥२॥ [पृ०२१५] अहव अहोपरिणामो, खेत्तऽणुभावेण जेण उस्सन्नं । असुहो अहो त्ति भणिओ, दव्वाणं तेणऽहोलोगो ॥३॥ व्या० अथवाऽधःशब्दोऽशुभपर्यायः, तत्र च क्षेत्रानुभावात् उस्सन्नमिति बाहुल्येन अशुभ एव परिणामो द्रव्याणां जायते येन कारणेन, अतोऽशुभपरिणामवद्रव्ययोगादशुभो लोकः 15 अधोलोको भणितस्तेन कारणेन, ऊर्ध्वलोकापेक्षया अधोलोकवर्तिनां शुभानामपि द्रव्याणां हीनतरत्वादित्यर्थः । उड़े उवरिं जं ठिअ, सुहखेत्तं खेत्तओ अ दव्वगुणा । उप्पजति सुभा वा, तेण तओ उड्ढलोको त्ति ॥४॥ व्या० ऊर्ध्वम् उपरि यः स्थितो लोक ऊर्ध्वलोकः, अथ ऊर्ध्वशब्दः शुभपर्यायः, तेन 20 ऊर्ध्वं शुभं क्षेत्रम् ऊर्ध्वक्षेत्रम्, येन क्षेत्रतः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् क्षेत्रानुभावादेव क्षेत्रस्य शुभत्वात्तदनुभावद्रव्याणां गुणाः शुभा एव परिणामा उत्पद्यन्ते, तेन कारणेन ततो हेतोः ऊर्ध्वलोक इति ॥४॥ मज्झऽणुभावं खेत्तं, जं तं तिरिअं ति वयणपज्जवओ । भण्णइ तिरिअ विसालं, अओ व तं तिरिअलोगो त्ति ॥५॥ व्या० चतुर्थपदवर्ती वाशब्दोऽत्र सम्बध्यते, वा अथवा तिर्यक्शब्दोऽत्र मध्यमपर्यायः, तेन मध्यमानुभावं क्षेत्रं यत्तत्तिर्यगिति । कुत इदमायातम् ? तत्राह- वयणपज्जवओ त्ति मध्यमानुभाववचनस्य तिर्यग्ध्वनेः पर्यायतामाश्रित्येत्यर्थः । अतो मध्यमक्षेत्रानुभावात् प्रायो 25 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे मध्यमपरिणामवन्त्येव द्रव्याणि भवन्ति, अतस्तद्योगात्तिर्यग् मध्यमो लोकः । वा अथवा भण्यते तिर्यग्विशालो लोकस्तिर्यग्लोकः, मध्यपदलोपी समासः, स्वकीयोर्ध्वाधोभागात्तिर्यग्विशाल एकरज्जुप्रमाणत्वादित्यर्थः ॥५॥ [पृ०२१८] पव्वयणं पव्वजा, पावाओ सुद्धचरणजोगेसुं । __ इअ मोक्खं पइ वयणं, कारणकजोवयाराओ ॥६॥ [पञ्चव० ५] व्या० प्रव्रजनं प्रकर्षेण व्रजनं प्रव्रजनम्, कुतः क्व ? इत्यत आह-पापाच्छुद्धचरणयोगेषु, इह पापशब्देन पापहेतवो गृहस्थानुष्ठानविशेषा उच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात्, यथा-दधित्रपुषी प्रत्यक्षो ज्वर इति । शुद्धचरणयोगास्तु संयतव्यापारा मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादय उच्यन्त इति एवं मोक्षं प्रति व्रजनं प्रव्रज्या, कथम् ? इत्याह-कारणे कार्योपचारात्, कारणे शुद्धचरणयोगलक्षणे 10 मोक्षाख्यकार्योपचारात्, यथा आयुघृतमित्यायुषः कारणत्वात् घृतमेव आयुरित्थं मोक्षकारणत्वाच्छुद्धचरणयोगा एव मोक्ष इति । ततश्च मोक्षं प्रति प्रव्रजनं प्रव्रज्येति गाथार्थः ॥६॥ [पृ०२१९] सेहस्स तिण्णि भूमी, जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राइंदिसत्त चउमासिगा य छम्मासिआ चेव ॥७॥ [व्यव० १०।४६०४] व्या० सेहस्सेति शैक्षकस्य तिम्रो भूमयस्तद्यथा-जघन्या तथा मध्यमा उत्कृष्टा च । 15 तत्र जघन्या सप्तरात्रिन्दिवा, मध्यमा चातुर्मासिकी, उत्कृष्टा पाण्मासिकी ॥७।। पुव्वोवठ्ठपुराणे, करणजयट्ठा जहण्णिआ भूमी । उक्कोसा दुम्मेहं, पडुच्च असद्दहाणं च ॥८॥ [व्यवहारभाष्ये १०।४६०५] व्या० पूर्वम् उपस्थः उपस्थितः पूर्वोपस्थः, स चासौ पुराणस्तस्मिन् करणजयाय जघन्या भूमिर्भवति । इयमत्र भावना-यः पूर्वं प्रव्रज्योत्प्रव्रजितः, पश्चात् पुनरपि प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान्, 20 स सप्तमे दिवसे उपस्थापयितव्यः, तस्य हि तावद्भिर्दिवसैः पूर्वविस्मृतसामाचारीकरणम् अत्यन्तं दुष्प्रभवति, एषा जघन्या भूमिः, दुर्मेधसमश्रद्दधानं च प्रतीत्योत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिः ॥८॥ एमेव य मज्झिमगा, अणहिजंते असद्दहंते अ। भाविअमेहाविस्स वि, करणजयट्ठा य मज्झिमगा ॥९॥ [व्यवहारभा० १०।४६०६] व्या० एवमेव उत्कृष्टा अनधीयाने अश्रद्दधाने च माध्यमिका भूमिः प्रतिपत्तव्या । अथवा 25 भावितस्यापि श्रद्दधानस्यापि मेधाविनश्चापि च करणजयार्थं माध्यमिका भूमिः ।।९।। [पृ०२२०] आहारे उवही सिजा, संथारे खेत्तसंकमे । किइच्छंदाणुवत्तीहिं, अणुकंपइ थेरगं ॥१०॥ [व्यवहारभा० १०।४५९९] १ तुल्यप्रायं पञ्चवस्तुकवृत्तौ ॥ २. अणुवत्तंति थेरगं इति व्यवहारभाष्ये पाठः ।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके द्वितीयोदेशकटीकागतगाथाविवरणम् १२१ व्या० गुरोर्जातिस्थविरस्य कालस्वभावानुमत आहारो दातव्यः, उपधिर्यावता संस्तरति तावत्प्रमाणः, शय्या वसतिः स्यादृतुक्षमा दातव्या, संस्तारको मृदुकः, क्षेत्रसङ्क्रमे क्षेत्रान्तरं सङ्क्रामयितव्ये तस्योपधिमन्ये वहन्ति, पानीयेन चानुकम्पते जातिस्थविरस्यानुकम्पा । श्रुतस्थविरस्य पूजामाह-किइ इत्यादि, कृति- च्छन्दोऽनुवृत्तिभ्यां स्थविरं श्रुतस्थविरमनुवर्त्तयन्ति । किमुक्तं भवति ? श्रुतस्थविरस्य कृतिकर्म वन्दनकं दातव्यम्, छन्दतश्च तस्यानुवर्त्तनीयम् ||१०|| तथा - 5 [पृ०२२०] उट्ठाणासणदाणाई, जोग्गाहारप्पसंसणा । नीअसेज्जाइ निद्देसवत्तिते पूअए सुअं ॥११॥ [ व्यवहारभा० १० | ४६००] व्या० आगतस्योत्थानं कर्त्तव्यम्, आसनप्रदानम्, आदिशब्दात् पादप्रमार्जनादिपरिग्रहः, तथा योग्याहारोपनयनम्, समक्षं परोक्षे च प्रशंसना गुणकीर्त्तना, तथा तत्समक्षं नीचशय्यायामवस्थातव्यम्, निर्देशवर्त्तित्वम्, एवं श्रुतस्थविरं पूजयेत् ॥ ११ ॥ उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य । अरुण व अ निसे, तईआए पवत्तर || १२ || [ व्यवहारभा० १० |४६०१] व्या० तथा पर्यायस्थविरस्यागुरोरपि अप्रव्राजकस्याप्यवाचनाचार्यस्याप्यागच्छत उत्थानं कुर्वन्ति, वन्दनं च क्षमाश्रमणतः, दण्डकस्य ग्रहणमिति ॥ १२ ॥ [पृ०२२४] नामं १ ठवण २ दविए ३, खेत्तदिसा ४ तावखेत्त ५ पण्णव ६ । 15 सत्तमिआ भावदिसा ७, सा हो अट्ठारसविहा उ ॥ १३॥ [ आव०नि० ८०९ ] व्या० नाम १ स्थापना २ द्रव्य ३ क्षेत्र ४ ताप ५ प्रज्ञापक ६ भाव७रूपः सप्तधा दिङ्गनिक्षेपो ज्ञातव्यः । भावदिगष्टविधा । तत्र सचित्तादेर्द्रव्यस्य दिगित्यभिधानं नामदिक, चित्रलिखितजम्बूद्वीपादेर्दिग्विभागस्थापनं स्थापनादिक् ||१३|| द्रव्यदिनिक्षेपार्थमाह तेरसपएसिअं खलु तावइएसुं भवे पएसेसुं । जं दव्वं ओगाढं, जहन्नगं तं दसदिसागं || १४ || [आचाराङ्गनि० ४१] व्या० द्रव्यदिग् द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च । आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमत ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्वियम् - त्रयोदशप्रदेशिकं द्रव्यमाश्रित्य या प्रवृत्ता, खलुरवधारणे, त्रयोदशप्रदेशिकमेव दिक् न पुनर्दशप्रदेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाः परमाणवस्तैर्निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यद्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागकल्पनातो द्रव्य - 25 दिगियमिति, तत्स्थापना त्रिबाहुकं नवप्रदेशिकम् अभिलिख्य चतसृष्वपि दिक्षु १. 'परियायथेरगस्स करेंति अगुरो वि य ।' इति व्यवहारभाष्ये पाठः ॥ 10 20 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे एकैकगृहवृद्धिः कार्या । इयं गाथा परमगुरुभिः केनापि हेतुना दिग्विचारगाथाकदम्बकं लिखद्भिरपि नालेखि, परं नामं ठवणेत्यत्र द्रव्यदिगवश्यं वाच्येत्यर्थसङ्गतत्वेन लिखित्वेयं व्याख्यातेति ॥१४॥ क्षेत्रदिशमाह[पृ०२२४] अट्ठपएसो रुअगो, तिरियंलोअस्स मज्झयारम्मि । एस पभवो दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१५॥ [आचाराङ्गनि० ४२] व्या० तिर्यग्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेर्वन्तः द्वौ क्षुल्लकप्रतरौ, तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथा एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्रभव उत्पत्तिः । स्थापना चेयम् मन ॥१५॥ 10 आसामेव स्वरूपनिरूपणायाह[पृ०२२५] दुपएसाइ दुदुत्तर ४, एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो ४ चउरो अ दिसा, चउराइ अणुत्तरा दोण्णि ॥१६॥[आचाराङ्गनि० ४४] व्या० चतम्रो महादिशो द्विप्रदेशाद्याः द्विद्विप्रदेशोत्तरवृद्धा विदिशश्चतम्र एकप्रदेशरचनात्मिका: अनुत्तरा वृद्धिरहिताः, ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयं त्वनुत्तरमेव ॥१६॥ चतुष्प्रदेशादिरचनात्मकमासां संस्थानमाह सगडुद्धिसंठिआओ, महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावली उ चउरो, दो चेव य हुँति रुअगनिभा ॥१७॥ [आचाराङ्गनि० ४६] व्या० महादिशश्चतम्रोऽपि शकटोर्द्धिसंस्थाना विदिशश्च मुक्तावलिनिभाः, ऊर्ध्वाऽधो दिग्द्वयं रुचकाकारमिति ॥१७॥ अथ दशदिशां नामान्याह इंद १ ऽग्गेइ २ जम्मा ३ य, नेरई ४ वारुणी ५ अ वायव्वा ६ । 20 सोमा ७ ईसाणा वि ८, विमला ९ य तमा १० य बोद्धव्वा ॥१८॥ [आचाराङ्गनि० ४३] व्या० सुगमा चेयम्, नवरम्- आसामाद्यैन्द्री, विजयद्वारानुसारेण शेषाः प्रदक्षिणतः सप्तावसेयाः, ऊर्ध्वं विमला तमा चाध इति ॥१८॥ तापदिशमाह जेसिं जत्तो सूरो, उदेइ तेसिं तई हवइ पुव्वा । 25 तावक्खेत्तदिसाओ, पयाहिणं सेसिआओ सिं ॥१९॥ [विशेषाव० २७०१] व्या० तापयतीति तापः सविता, तदपलक्षिता दिक् तापदिक्, सा चानियतेति तदेवाहजेसिमिति सुगमम्, केवलं येषां भरतादिक्षेत्रनिवासिनां पुंसां यस्यां दिशि सूर्य उदेति उद्गच्छति, १. आचाराङ्गसूत्रस्य शीलाङ्काचार्यवृत्तौ ॥ २. नेरुती-आचाराङ्गनिर्युक्तौ ॥ 15 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके द्वितीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १२३ सा तेषां पूर्वेति व्यपदिश्यते, इह च सूर्यमाश्रित्यैतद्व्यपदेशप्रवृत्तेः तापक्षेत्रदिगियमुच्यते, एतस्याश्च प्रदक्षिणतः शेषाः अपि दक्षिणाद्या दिशोऽवगन्तव्यास्तद्यथा-दक्षिणभुजपक्षे दक्षिणा, पृष्ठतः पश्चिमा, वामभुजपक्षे पुनरुत्तरेति, दक्षिणदिग्व्यपदेश: पूर्वाभिमुखस्येति द्रष्टव्यः ॥१९।। प्रज्ञापकदिशमाहपण्णवओ जयभिमुहो, सा पुव्वा सेसिआ पयाहिणओ । 5 तस्सेवऽणुगंतव्वं, अग्गेयादी दिसा नियमा ॥२०॥ [विशेषाव० २७०२] व्या० प्रज्ञापको यत्र क्वचित् स्थितः कस्यचित् कथञ्चित् कथयति, स यदभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा पृष्ठतश्चापरेति ॥२०॥ भावदिशमाह पुढवि १ जल २ जलण ३ वाया ४, मूल ५ खंध ६ ऽग्ग ७ पोरबीया ८ य। बि ९ ति १० चउ ११ पंचिंदियतिरिय १२, नारगा १३ देवसंघाया १४ ॥२१॥ 10 सम्मुच्छिम १५ कम्मा १६ कम्मभूमिगनरा १७ तहंऽतरद्दीवा १८ । भावदिसा दिस्सइ जं, संसारी निययमेयाहिं ॥२२॥ [विशेषाव० २७०३-२७०४] व्या० पृथिव्यप्तेजोवायवश्चत्वारस्तथा मूल-स्कन्धा-ऽग्र-पर्वबीजाश्चत्वारः, तथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चश्चत्वारः नारका देवसङ्घाताश्च, द्वावेतौ, मनुष्याश्चतुर्धा- सम्मूर्च्छनजा कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा अन्तरद्वीपजाश्चेत्यष्टादश, एभिर्भावैर्भवनाज्जीवो 15 व्यपदिश्यत इति भावदिगष्टादशविधेति ॥२१-२२॥ [पृ०२२७] सत्थेण सुतिक्खेण वि, छेत्तुं भेत्तुं व जं किर न सक्का । तं परमाणु सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं ॥२३॥ [जम्बूद्वीपप्र०वक्ष० २।२८] व्या० शस्त्रेण खड्गादिना सुतीक्ष्णेनापि छेत्तुं द्विधा कर्तुं भेत्तुं वा खण्डशो विदारयितुं सच्छिद्रं वा कर्तुं यं पुद्गलविशेषं न शक्तास्तं परमाणु घटाद्यपेक्षयाऽतिसूक्ष्म सिद्धा: 20 सैद्धान्तिकतया प्रसिद्धाः, यद्वा ज्ञानसिद्धाः केवलिनो वदन्ति ब्रुवते प्रमाणानामङ्गुल-हस्तादीनाम् आदि मूलम्। अत्र किलशब्देनेदं सूच्यते-लक्षणमेवेदं परमाणोः, न पुनस्तं छेत्तुं भेत्तुं वा कोऽप्यारभत इति ॥२३॥ [पृ०२२८] कत्थइ पुच्छइ सीसो, कहिंचिऽपुट्ठा वयंति आयरिया ।। सीसाणं तु हियट्ठा, विउलतरागं तु पुच्छाए ॥२४॥ [दशवै०नि० ३८] 25 व्या० क्वचिदवगच्छन् पृच्छति शिष्यः, कथमेतदितीयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम्, १. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा. १३९० ॥ २. कहंति-इति दशवैकालिकनियुक्तौ ॥ ३ तुलना-दशवैकालिकसूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे इत्थमनयोः प्रवृत्तिः । तथा क्वचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशक्य किञ्चित् कथयन्त्याचार्याः प्रत्यवस्थानमिति गम्यते । किमर्थं कथयन्ति ? अत आह-शिष्याणामेव हितार्थम्, तुशब्द एवकारार्थः । तथा विपुलतरं तु प्रभूततरं तु कथयन्ति पुच्छाए त्ति शिष्यप्रश्ने सति प्राज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः ॥२४॥ पमाओ अ मुणिंदेहिं, भणिओ अट्ठभेअओ । अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य ॥२५॥ रागो दोसो मइन्भंसो, धम्मम्मि अ अणायरो । जोगाणं दुप्पणिहाणं, अट्टहा वज्जिअव्वओ ॥२६॥ [प्रवचनसारो० १२०७-८] व्या० प्रमाद्यति मोक्षमार्ग प्रति शिथिलो भवति अनेन प्राणीति प्रमादः, स च मुनीन्द्रैः 10 तीर्थकृद्भिर्भणितः प्रतिपादितोऽष्टभेदोऽष्टप्रकारः, तद्यथा-अज्ञानं मूढता, संशयः किमेतदेवं स्यादुतान्यथेति सन्देहः, मिथ्याज्ञानं विपर्यस्ता प्रतिपत्तिः, रागोऽभिष्वङ्गः, द्वेषोऽप्रीतिः, स्मृतिभ्रंशो विस्मरणशीलता, धर्मे चाहत्प्रणीतेऽनादरोऽनुद्यमः, योगानां मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानं दुष्टताकरणम्, अयं चाष्टविधोऽपि प्रमादः कर्मबन्धहेतुत्वाद्वर्जयितव्यः परिहर्त्तव्य इति त्रिस्थानकस्य द्वितीयोद्देशकविवरणगाथा । 15 [अथ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ] [पृ०२३३] “धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगो । दुविहेण वि सो कप्पड़, परिहारेणं तु परिभोत्तुं ॥२३६७॥ इह द्विधा परिहारः, तद्यथा- धारणा परिहरणा च । तत्र धारणा अभोगः अव्यापारणम्, 20 संयमोपबृंहणार्थं स्वसत्तायां स्थापनमित्यर्थः । परिहरणा नाम तस्य घटीमात्रकादेरुपकरणस्य परिभोग: व्यापारणम् ।” इति बृहत्कल्पभाष्यस्य क्षेमकीर्तिसूरिवरिचितायां टीकायाम् ॥ वेउव्विऽवाउडे वाइए अ हीरिखद्धपजणणे चेव । तेसिं अणुग्गहट्ठा, लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ ॥१॥ [ओघनि० ७२२,प्रवचनसारो० ५१८] व्या० यस्य साधोः प्रजननं साधनं वैक्रियं विकृतं भवति, यथा दाक्षिणात्यपुरुषाणामग्रभागे 25 विध्यते प्रजननम्, तच्च तथाविधं दृष्टं विकृतं भवति, ततस्तत्प्रच्छादनार्थं चोलपट्टोऽनुजज्ञे, अवाउडे त्ति पदं सर्वत्र सम्बध्यते, ततोऽप्रावृतेऽपरिहिते चोलपट्टके एते दोषा भवन्ति, यद्वा कश्चित् साधुरप्रावृतसाधनो भवति अग्रभागे चर्मणा अनाच्छादितलिङ्गो दुश्चर्मा इत्यर्थः, ततस्तदनुग्रहार्थं चोलपट्टोऽनुज्ञातः । तथा कश्चित् साधुर्वातिको भवति, वातेन च तदीयं १ तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा. ५१८ ।। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १२५ साधनमुच्छूनं भवति ततस्तदनुग्रहार्थं चोलपट्टो मतः । तथा प्रकृत्यैव कश्चित् साधुह्रीमान् लज्जालुर्भवति ततस्तत्प्रावरणाय चोलपट्टः । तथा स्वभावेन कश्चित् खद्धपजणण त्ति बृहत्साधनो भवति लोकश्च तं तथाविधं दृष्ट्वा हसति, ततस्तथाविधानुग्रहाय चोलपट्टः । तथा लिङ्गोदयार्थं चोलपट्टम्, कदाचिन्मनोहररूपामनुपमयौवनां वनितां विलोक्य लिङ्गस्योदयो भवति, अथवा तदीयं लिङ्गं मनोहरं चोलपट्टानाच्छादितं दृष्ट्वा स्त्रिया एव लिङ्गोदयो भवति, ततस्तत्प्रच्छादनाय 5 चोलपट्टोऽनुज्ञात इति । इति चोलपट्टप्रयोजनम् ॥१॥ अथ कल्पप्रयोजनमाह[पृ०२३४] तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणट्ठा । दिळं कप्पग्गहणं, गिलाणमरणट्ठया चेव ॥२॥ [ओघनि० ७०६, प्रवचनसारो० ५१७] व्या० तृणानां व्रीहिपलालादीनां ग्रहणं तृणग्रहणम्, अनलोऽग्निस्तस्य सेवा, तयोर्निवारणार्थं कल्पग्रहणम् । असति कल्पे शीतादौ सति गाढे पलाला-ऽग्निसेवामवश्यं 10 करोति, तत्करणे च जीववधः । तथा धर्म-शुक्लध्याननिमित्तं दृष्टम् अनुज्ञातं कल्पग्रहणं तीर्थकृद्भिः। शीताद्युपद्रवे हि कल्पप्रावृतः सुखेन धर्म-शुक्लध्याने करोतीति, अन्यथा शीतादौ कम्पमानकायो दन्तवीणामनवरतं वादयन् कथङ्कारं ते ध्याने विधास्यतीति ? । तथा ग्लानसंरक्षणार्थं दृष्टं कल्पग्रहणम्, अन्यथा शीतवातादिना बाध्यमानो ग्लानो गाढतरं ग्लानो भवति । तथा मरणार्थं कल्पग्रहणम्, मृतस्य ह्युपरि प्रच्छादनार्थं कल्पः क्रियते, इतरथा लोकव्यवहारादिबाधा 15 कृता भवति ॥२॥ पात्रग्रहणे गुणानाह अतरंतबालवुड्डा, सेहादेसा गुरू असहुवग्गे । साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा पायगहणं तु ॥३॥ [ओघनि० ६९२] व्या० अशक्नुवद्वालवृद्धा: ग्लान-बाल-वृद्धा इत्यर्थः, तथा शिक्षका-ऽऽदेशौ अभिनवप्रव्रजित-प्राघूर्णकौ, तथा गुरुराचार्यादिः, तथा असहिष्णुवर्गः क्षुत्पिपासाद्यसहनशीलः, 20 एतानाश्रित्य साधारणावग्रहकारणात् साधारणावग्रहनिमित्तम्, तथा अलब्धिकारणम् अविद्यमानलब्धिनिमित्तं पात्रग्रहणं तु पात्रग्रहणमेव जिनैरभिहितम् ॥३॥ [पृ०२३६] एगं व दो व तिण्णि व, आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं । आउटुंते वि तओ, परेण तिण्हं विसंभोगो ॥४॥ [निशीथ० २०७५] __ व्या० साम्भोगिकोऽशुद्धमेकवारं गृह्णन् चोदितो भणति-सती प्रतिचोदना कृता भवद्भिर्मिथ्या 25 मे दुष्कृतम्, न पुनरेवं करिष्यामि, एवमादृतस्सन् यत् प्रायश्चित्तमापन्नो भवति स तस्य तत् प्रायश्चित्तं दत्त्वा साम्भोगिकः क्रियते, एवं द्वितीयवारं तृतीयवारं यावदादृतस्य यथायोग्यं प्रायश्चित्तं दीयते । त्रिभ्यो वारेभ्यः परतश्चतुर्थवारं पुनस्तमेवातिचारं सेवित्वा आदृतोऽपि विसम्भोगोऽसाम्भोगिक एव क्रियत इति ॥४॥ १. तुलना-प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः गा. ५१७ ॥ २. तुलना-निशीथचूर्णिः ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता । आयारं दंसेन्ता, आयरिआ तेण वुच्चंति ॥५॥ [आव०नि० ९९८] व्या० पञ्चविधं पञ्चप्रकारम्, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपो-वीर्यभेदात्, आचारमिति आ मर्यादया काललक्षणया नियमादिलक्षणया वा चार: आचार इति, उक्तं च- काले विणए [ ] इत्यादि, 5 तम् आचरन्तस्सन्तोऽनुष्ठानरूपेण, तथा प्रभाषमाणा अर्थाद् व्याख्यानेन, तथा आचारं दर्शयन्तस्सन्तः प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्वारेण मुमुक्षुभिः सेव्यन्ते येन कारणेन आचर्यन्ते तेन कारणेनैवोच्यन्ते आचार्याः ॥५॥ सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ अ । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ ॥६॥ व्या० सूत्रं च अर्थश्च सूत्रार्थों, सूत्रार्थो वेत्तीति सूत्रार्थवित्, लक्षणानि मषी-तिलकादीनि, तैर्युक्तः, गच्छस्य साधुसमुदायस्य मेधिभूतः, खले गोबन्धदारु मेधिरुच्यते, यथा खले मेध्याधारा बलीवर्दाः परिभ्रमन्ति तथा साधवोऽपि आचार्याधारा विहरन्ति । गणतप्तिर्गणचिन्ता, तया विप्रमुक्तः, एतादृश आचार्यः स्व-परशिष्येभ्यः अर्थं शास्त्रार्थं वादयति अध्यापयतीत्यर्थः ।।६।। अथोपाध्यायमाह15 सम्मत्तनाणदंसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू । आयरिअठाणजोगो, सुत्तं वाएइ उवज्झाओ ॥७॥ व्या० सम्यक्त्वं च ज्ञानं च दर्शनं च सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनानि, तैर्युक्तः, सूत्रं च अर्थश्च तदुभयं च सूत्रार्थतदुभयानि तेषां विधिः, तं जानातीति सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः, आचार्यस्थानयोग्यः, यस्याचार्यपदाधानयोग्यता वर्त्तते आचार्यगुणैः षट्त्रिंशद्भिरपि स्वरूपतः 20 आश्रितो भवति, एतादृश उपाध्यायः स्व-परशिष्यान् सूत्रं द्वादशाङ्गीगतं वादयति अध्यापयतीति गाथार्थः ॥७॥ आचार्यपदयोग्यतामाहजम्हा वयसंपन्ना, कालोचिअगहिअसयलसुत्तत्था । अणुजोगाणुनाए, जोग्गा भणिआ जिणिंदेहिं ॥८॥ [पञ्चव० ९३२] व्या० यस्माद् व्रतसम्पन्नाः साधवः कालोचितगृहीतसकलसूत्रार्थास्तदात्वानुयोगवन्त ___ इत्यर्थः । अनुयोगानुज्ञाया आचार्यपदस्थापनारूपाया योग्या भणिता जिनेन्द्रैर्नान्ये इति ॥८॥ कस्मादित्याह इहरा उ मुसावाओ, पवयणखिंसा य होड़ लोगम्मि । सेसाण वि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ अ भावेणं ॥९॥ [पञ्चव० ९३३] 30 व्या० इतरथाऽनीदृश्यनुयोगानुज्ञायां मृषावादो गुरोस्तमनुजानतः, प्रवचनखिंसा च १. पभासंता आवश्यकनियुक्तौ ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् भवति लोके तथाभूतप्ररूपकात्, शेषाणामपि गुणहानिः सन्नायकाभावात्, तीर्थोच्छेदश्च भावेन, ततः सम्यग्ज्ञानाद्यप्रवृत्तेरिति ॥९॥ पृ०२३७] सुत्तत्थे निम्माओ, पिअदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । ___ जाईकुलसंपन्नो, गंभीरो लद्धिमंतो अ ॥१०॥ [पञ्चव० १३१५] व्या० सूत्रार्थे निर्मातो निष्ठितः, प्रियदृढधर्म: उभययुक्तः, अनुवर्त्तनाकुशल: उपायज्ञः, 5 जातिकुलसम्पन्न: एतद्द्वयसमन्वितः, गम्भीरो महाशयः लब्धिमांश्चोपकरणाद्यधिकृत्येति ॥१०॥ संगहुवग्गहनिरओ, कयकरणो पवयणाणुरागी अ । एवंविहो उ भणिओ, गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥११॥ [पञ्चव० १३१६] व्या० सङ्ग्रहोपग्रहनिरतः सङ्ग्रह उपदेशादिना उपग्रहो वस्त्रादिना, अन्ये पुनरत्र व्यत्ययं 10 वदन्ति, कोऽर्थः ? सङ्ग्रहो वस्त्रादिना उपग्रह उपदेशादिना, कृतकरणोऽभ्यस्तक्रियः, प्रवचनानुरागी च प्रकृत्या परार्थप्रवृत्तः, एवंविध एव भणित: प्रतिपादितो गणस्वामी गच्छाधिपो जिनवरेन्द्रैः भगवद्भिरित्यर्थः ॥११।। जे आवि मंदे त्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुए त्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करति आसायण ते गुरूणं ॥१२॥ दशवै० ९।१।२] 15 व्या० ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीरा मन्द इति गुरुं विदित्वा तन्त्रयुक्त्याऽऽलोचनाऽसमर्थस्सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्यं ज्ञात्वा तथा कारणान्तरस्थापितम् अप्राप्तवयसं डहरोऽयम् अप्राप्तवयाः खलु अयम्, तथा अल्पश्रुत इति अनधिगतागम इति विज्ञाय, किम् ? हीलयन्ति सूयया असूयया वा खिंसयन्ति, सूयया अतिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति असूयया तु मन्दप्रज्ञस्त्वमित्यादि अभिदधति । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना गुरुर्न हीलनीय इति तत्त्वमन्यथा- 20 ऽवगच्छन्तः कुर्वन्त्याशातनां लघुताऽऽपादनरूपां ते द्रव्यसाधवः गुरुणाम् आचार्याणां तत्स्थापनाया अबहुमानेन, एकाशातनया सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम्, अथवा कुर्वन्ति आशातनां स्वसम्यग्दर्शनादिभावस्य ह्रासरूपाम् ॥१२॥ उवसंपया य तिविहा, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ । दंसणनाणे तिविहा, दुविहा य चरित्तअट्ठाए ॥१३॥ [आव०नि० ६९८] 25 व्या० उपसम्पत् त्रिविधा ज्ञाने ज्ञानविषया तथा दर्शनविषया चरित्रविषया च, तत्र दर्शन-ज्ञानयोस्सम्बन्धिनी त्रिविधा, द्विविधा च चारित्रार्थायेति गाथार्थः ॥१३॥ निअगच्छादन्नम्मि उ, सीअणदोसाइणा होइ [आव.नि. ७१८] त्ति गाथार्द्धम् । १. तुल्यप्रायम् आवश्यकहारि' वृत्तौ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० निजगच्छादन्यस्मिन् गच्छे उपसम्पत् सीदनदोषादिना भवति ॥ पृ०२३८] उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं अपूरितो । ___ अहवा समाणिअम्मी, सारणया वा विसग्गो वा ॥१४॥ [आव०नि० ७२०] व्या० उपसम्पन्नो यत्कारणं यन्निमित्तम्, तुशब्दादन्यच्च सामाचार्यन्तर्गतं किमपि गृह्यते, 5 तत् कारणं वैयावृत्यादि अपूरयन् अकुर्वन्, यदा वर्त्तत इत्यध्याहारः, किम् ? तदा सारणा वा विसर्गः, तस्य सारणा चोदना वा क्रियते अविनीतस्य पुनर्विसर्गो वा परित्यागो वा क्रियत इति । तथाऽनापूरयन्नेव तदा वर्त्तते तदैव सारणा विसर्गो वा क्रियते किन्तु अथवा समाणिअम्मि त्ति अथवा समाप्तिं नीते अभ्युपगतप्रयोजने स्मारणा वा क्रियते यथा समाप्त तद्विसर्गो वेति गाथार्थः ॥१४।। 10 [पृ०२४२] तव-संजम-जोगेसुं, जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ । __ असहं च निअत्तेई, गणतत्तिल्लो पवत्ती उ ॥१५॥ [व्यवहारभा० १/९५९] व्या० तपस्संयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्त्तयन्ति, असहांश्च असमर्थांश्च निवर्त्तयन्ति, एवं गणतप्तिप्रवृत्ताः प्रवर्तिनः ॥१५॥ उक्तं च प्रवर्तिस्वरूपम्, अधुना स्थविरस्वरूपमाह15 थिरकरणा पुण थेरो, पवत्तिवावारिएसु अत्थेसु । जो जत्थ सीअइ जई, संतबलो तं थिरं कुणइ ॥१६॥ व्यवहारभा० १/९६१] व्या० स स्थिरीकरणात् स्थविर इति, यो ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु मध्ये यानर्थानुपादेयान अनुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति तान् संस्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान् साधून ऐहिकामुष्मिकापायदर्शनतो मोक्षमार्गे स्थिरीकरोति, केषु ? प्रवर्त्तिव्यापारितेषु अर्थेषु यो 20 यत्र सीदति यतिः, सद्विद्यमानं बलं यस्य स सद्बलस्तथाभूतस्सन् प्रणोदयति प्रकर्षेण शिक्षयति स स्थिरीकरणात् स्थविर इति ॥१६॥ गणाधिपस्वरूपमाह पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज ओअतेअंसी । संगहउवग्गहकुसलो, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥१७॥ निशीथभा० २४४९, बृहत्कल्पभा० २०५०] 25 व्या० प्रिय इष्टो धर्मः श्रुतचारित्ररूपो यस्य स प्रियधर्मा, यस्तु तस्मिन्नेव धर्मे दृढो द्रव्य-क्षेत्राद्यापदुदयेऽपि निश्चलः स दृढधर्मा, राजदन्तादित्वाद् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः । संविग्नो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मृगः, सदैव त्रस्तमानसत्वादिति । भावतो यः संसारभयोद्विग्नः १. तुल्यप्रायं बृहत्कल्पभाष्यवृत्तौ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १२९ पूर्वरात्रापररात्रकाले सम्प्रेक्षते- किं मया कृतम् ? किं वा मे कर्त्तव्यशेषम् ? किं वा शक्यमपि तपःकर्मादिकमहं न करोमि ? इत्यादि । वज त्ति अकारप्रश्लेषादवद्यं पापम्, सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा तद्भीरुरवद्यभीरुः । ओजस्तेजश्चोभयं विद्यते यस्य स ओजस्वी तेजस्वी चेति, ओजो नाम शरीरेण नातिदैर्घ्य नातिह्रस्वता नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता, अथवा शरीरोच्छ्रयः बाह्वोर्विष्कम्भश्च, एतौ द्वावपि तुल्यौ, न हीनाधिकप्रमाणौ, चितमांसत्वं यद्वपुषः पांसुलिका 5 नावलोक्यन्ते, तथा इन्द्रियाणि च प्रतिपूर्णानि, न चक्षुःश्रोत्राद्यवयवविकलतेति भावः, एतत् सर्वम् ओज उच्यते, तद्यस्यास्ति स ओजस्वी । तेजः पुनर्देहे शरीरेऽनपत्रप्यता अलज्जनीयता दीप्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम्, तद्विद्यते यस्य स तेजस्वी । यदाह भाष्यकारः आरोहपरीणाहो, चिअमंसो इंदिआ य पडिपुण्णा । अह ओअ तेओ पुण होइ अणोतप्पया देहे ॥ [बृत्कल्पभा० २०५१] सङ्ग्रहो द्रव्यतो वस्त्रादिभिर्भावतः सूत्रार्थाभ्याम्, उपग्रहो द्रव्यत औषधादिभिर्भावतो ज्ञानादिभिरेतयोः संयतीविषययोः सङ्ग्रहोपग्रहयोः कुशलस्तथा सूत्रार्थविद् गीतार्थः, एवंविधो गणाधिपतिरार्यिकाणां गणधरः स्थापनीयः ॥१७॥ [पृ०२४३] उद्धावणा पहावण-खेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई । __सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होइ ॥१८॥ [व्यवहारभा० १/९६२] 15 व्या० उत् प्राबल्येन धावनम् उद्धावनम्, प्राकृतत्वाच्च स्त्रीत्वनिर्देशः, किमुक्तं भवति ?, तथाविधगच्छप्रयोजनेषु समुत्पन्नेषु आचार्येण सन्दिष्टोऽसन्दिष्टो वाऽऽचार्यान् विज्ञप्य यथैतत् कार्यमहं करिष्यामीति तस्य कार्यस्यात्मानुग्रहबुद्ध्या करणे उद्धावनम्, शीघ्रं तस्य कार्यस्य निष्पादनं प्रधावनम्, क्षेत्रमार्गणा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा, उपधिमार्गणा उपधेरुत्पादनम्, एतासु ये अविषादिनो न विषादं गच्छन्ति । तथा सूत्रार्थतदुभयविदः, अन्यथा हेयोपादेयपरिज्ञानायोगात्, 20 एतादृशा एवंविधा गीतार्था गणावच्छेदिनो भवन्ति, क्वचिद् ‘गणवच्छो एरिसो होईति पाठस्तत्र स्पष्टतरमेव ॥१८॥ [पृ०२४५] देवा वि देवलोए, दिव्वाभरणाणुरंजिअसरीरा । जं परिवडंति तत्तो, तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥१९॥ [उप० माला० २८५] व्या० देवा अपि देवलोके दिव्यैराभरणैरनुरञ्जितं मण्डितं शरीरं येषां ते तथापि यत् 25 प्रतिपतन्ति अशुचौ गर्भादिकलिमलोदधौ मज्जन्ति ततो देवलोकात् तद् दुःखं दारुणं रौद्रं तेषां देवानाम् इति ॥१९॥ प्रागपरिमितं सुखवर्णनं तेषामनेन विरुद्धयेत इति चेत्तन्न, अभिप्रायापरिज्ञानातू, तद्ध्येतदर्थं Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १३० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे वर्णितं किल वैषयिकसुखार्थिनाऽपि सत्त्वेन धर्म एव यत्नः कार्यः, तस्मिन् सति तस्य प्रासङ्गिकत्वात्, न पुनस्तत् परमार्थतः सुखम्, विपर्यासाद् दु:खेऽपि सुखबुद्धिप्रवृत्तेर्विपाकदारुणत्वात्, तथा चाह तं सुरविमाणविहवं, चिंतिअ चवणं च देवलोगाओ । अइबलिअं चिअ जं नवि फुइ सयसक्करं हिअयं ॥२०॥ [उप० माला० २८६] व्या० तमिति प्राग्वर्णितं सुरविभवं चिन्तयित्वा पर्यालोच्य च्यवनं च पतनं च देवलोकात्, किम् ? अतिबलिनमेव गाढं निष्ठुरमेव यन्नापि नैव स्फुटति शतशर्करं हृदयम्, अस्त्येव तस्य स्फोटे महत् कारणमिति ॥२०॥ [पृ०२४६] सव्वेसु पत्थडेसुं, मज्झे वर्ट अणंतरं तंसं । ___एअंतरचउरंसं, पुणो वि वढे पुणो तंसं ॥२१॥ [विमान० २४५] व्या० सर्वेषु प्रस्तटेषु मध्ये वृत्तम्, तदनन्तरं त्र्यसम्, तदनन्तरं चतुरस्रम् । पुनरपि वृत्तम्, तदनन्तरं त्र्यम्रम्, ततश्चतुरस्रम् । ततो भूयोऽपि वृत्तम्, तदनन्तरं त्र्यम्रम्, एवं तावद् द्रष्टव्यं यावदावलिकायाः पर्यन्तः ॥२१।। वढे वस्सुवरिं, तसं तंसस्स उप्परिं होई । चउरंसे चउरंसं, उटुं तु विमाणसेढीओ ॥२२॥ [विमान० २४६] व्या० प्रथमप्रस्तटाच्चोर्ध्वं द्वितीयादिषु यान्यावलिकाप्रविष्टविमानानि तानि प्रथमप्रस्तटगतावलिकाप्रविष्टैर्विमानस्सह समश्रेण्या व्यवस्थितानि, तद्यथा- वृत्तं वृत्तस्योपरि, त्र्यसं व्यस्रस्योपरि भवति, चतुरस्र चतुरस्रम्, ऊर्ध्वं तु विमानश्रेणय एव भवन्तीति गाथार्थः ॥२२॥ 20 वटं च वलयगं पिव, तंसं सिघाडगं पिव विमाणं । चउरंस विमाणं पि य, अक्खाडगसंट्ठिअं भणिअं ॥२३॥ [विमान० २४७] व्या० वृत्तं च नाम वलयाकारकमवसेयम्, त्र्यसं शृङ्गाटकसंस्थानम् इव विमानम्, चतुरस्रं विमानं पुन: अक्षपाटकसंस्थानं जानीहि ॥२३॥ सव्वे वट्टविमाणा, एगदुवारा हवंति विन्नेया । 25 तिण्णि अ तंसविमाणे, चत्तारि अ होंति चउरंसे ॥२४॥ [विमान० २४८] व्या० सर्वे वृत्तविमाना एकद्वारा भवन्ति विज्ञेयाः, त्रीणि च द्वाराणि त्र्यसविमाने, जातावेकवचनं सर्वत्र, चत्वारि द्वाराणि भवन्ति चतुरस्रे ॥२४।। 15 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १३१ पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हवंति सव्वे वि । चउरंसविमाणाणं, चउद्दिसिं वेइआ होई ॥२५॥ [विमान० २४९] व्या० तत्र प्राकारपरिक्षिप्ता: वृत्तविमाना: भवन्ति सर्वेऽपि, कपिशीर्षविभूषितप्राकारपरिक्षिप्तास्सर्वे वृत्तविमाना इत्यर्थः । चतुरस्रविमानानां पुनः चतसृषु दिक्षु वेदिका भवन्ति, वेदिकानाम्नाऽत्र मुण्डप्राकारा वेदितव्याः ॥२५॥ जत्तो वट्टविमाणा, तत्तो तंसस्स वेइआ होइ । पागारो बोधव्वो, अवसेसेहिं तु पासेहिं ॥२६॥ [विमान० २५०] व्या० यत इति यस्यां दिशि वृत्तविमानं ततस्तस्यां दिशि त्र्यम्रस्य वेदिका भवति, प्राकारो बोद्धव्योऽवशेषैः पार्वैः अवशिष्टेषु पार्श्वेषु प्राकारो ज्ञातव्यः ॥२६॥ आवलिआसु विमाणा, वट्टा तंसा तहेव चउरंसा ।। पुप्फावगिण्णया पुण,अणेगविहरूवसंठाणा ॥२७॥ [विमान० २५१] व्या० आवलिकासु विमाना आवलिकाप्रविष्टविमानाः केचिद् वृत्ताः, केचित् त्र्यम्राः, केचिच्चतुरस्राः, अन्यत् संस्थानं तेषां सर्वथा न विद्यते, तथाऽत एव निश्चयेन, पुष्पावकीर्णकाः पुनरनेकविधरूपसंस्थानाः, तद्यथा- किंचिन्नन्द्यावर्त्ताकारं किंचित् स्वस्तिकाकारं किंचित् खड्गाकारमित्यादि, सर्वत्र विमानशब्दस्य पुंन्नपुंसकत्वादेवं निर्देशः ॥२७॥ [पृ०२४७] घणउदहिपइट्ठाणा, सुरभवणा होंति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपइट्ठाणा, तदुभयसुपइट्ठिया तिसु ॥२८॥ [बृहत्सं० १२६] ___ व्या० घनोदधिप्रतिष्ठानाः सुरभवना: सुरविमानानि, भवनशब्दस्य पुन्नपुंसकत्वादेवं निर्देशः, यदाह हेमसूरिः स्वोपज्ञलिङ्गानुशासने- भवन-भुवन-यानोद्यान-वातायनानि [लिङ्गा० २०] इति । प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रतिष्ठानम् आश्रयः, क्व ?, द्वयोः कल्पयोस्सौधर्मेशानयोर्विमाना: 20 त्रिषु सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मकल्पेषु विमानाः वातप्रतिष्ठानाः, तदुभयेति घनोदधिघनवातप्रतिष्ठानास्त्रिषु लान्तक-शुक्र-सहस्रारकल्पेषु विमानाः । तत्र घनोदधिः स्त्यानीभूतो जलराशिः, स च तथा जगत्स्वाभाव्यान्नापि स्पन्दते नापि तत्राश्रितानि विमानानि विलयमुपयान्ति, घनवातोऽत्यन्तनिचितोऽपरिस्पन्दो वातराशिः ॥२८॥ तेण परं उवरिमगा, आगासंतरपइट्ठिआ सव्वे । [बृहत्सं० १२७] व्या० ततः परमानतादिविमानान्याकाशप्रतिष्ठितानीति सार्द्धगाथार्थः ।। [पृ०२४९] फलिअं पहेणगाई, वंजणभक्खेहि वा विरइअं जं । __ भोत्तुमणस्सोवहिअं, पंचमपिंडेसणा एसा ॥२९॥ [व्यवहारभा० ९।३८२१] 25 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ___ व्या० फलिअं इति फलितं नाम यद् व्यञ्जनैर्भक्ष्यैर्वा नानाप्रकारैर्विरचितं प्रहेणकादि, प्रहेणकं लंभनकम्, आदिशब्दात् सरजस्कानां दानाय कल्पितं परिगृह्यते। उपहृतशब्दस्यार्थमाहयत् भोक्तुमनस उपहृतं तदुपहतमित्युच्यते । एषा पञ्चमी पिण्डैषणा ॥२९॥ [पृ०२५०] सुद्धं तु अलेवकडं, अहवण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । 5 संसटुं आदत्तं, लेवाडमलेवडं चेव ॥३०॥ व्यवहारभा० ९।३८२०] ___व्या० यदलेपकृतं काञ्जिकेन पानीयेन वा सन्मिश्रीकृतं तच्छुद्धम्, अथवा शुद्धौदनो व्यञ्जनरहितो भवति शुद्धम्, तदपि नियमादलेपकृतम् । संसृष्टं नाम भोक्तुकामेन आदत्तं गृहीतम्, किमुक्तं भवति ? यत् स्थाले परिवेषितं तत्र ग्रहणाय हस्तः क्षिप्तः, न तावदद्यापि मुखे प्रक्षिपति, अत्रान्तरे साधुरागतो भिक्षार्थम्, तल्लेपकृतमलेपकृतं वा संसृष्टमित्युच्यते ॥३०॥ 10 भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं तं च तेण उ । जहन्नोवहडं तं तु, हत्थस्स परिअत्तणा(णे?) ॥३१॥ व्यवहारभा० ९।३८३८] व्या० परिवेषकः पिटिकायां कूरं गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन परिवेषयन् यस्य दातुकामस्तस्य भाजने क्षिपामीति व्यवसितः, तस्य तथा भुञ्जानस्योत्क्षिप्तम्, तद्भुञ्जानेन प्रतिषिद्धम् पर्याप्तम्, मा मह्यं देहि । अस्मिन् देशकाले साधुना तत्र प्राप्तेन धर्मलाभितम्, तत: परिवेषको ब्रूते15 साधो ! साधय पतद्ग्रहम्, साधुना पात्रं धारितम्, तत्र तेन प्रक्षिप्तम्, इदं हस्तमात्रस्य परिवर्तनात्, गाथायां सप्तमी पञ्चम्यर्थे, जघन्यमुपहृतं भवति ॥३१।। अह साहीरमाणं तु वट्टेउं जो उ दावए । दलेजऽचलिओ तत्तो, छट्ठी एसा वि एसणा ॥३२॥ [व्यवहारभा० ९।३८२९] व्या० अथ वर्तयितुं संह्रियमाणं यो दापयेत्, तस्य वचनतः स परिवेषकस्तस्मात् 20 स्थानान्मनागप्यचलितो दद्यात्, एतत् संह्रियमाणमुच्यते, एषाऽपि षष्ठी एषणा द्रष्टव्या ॥३२॥ [पृ०२५१] भुत्तसेसं तु जं भूओ, छुन्भंती पिठरे दए । संवटुंती व अन्नस्स, आसगम्मि पगासए ॥३३॥ व्यवहारभा० ९।३८३०] व्या० प्रह्लादननिमित्तं कलिञ्जभाजने विशाले उत्ताने च क्षिप्तम्, ततो भोक्तुमुपविष्टान् दत्त्वा यद्भक्तशेषं तद् भूयः पिठरे क्षिपन्ती साधवे दद्यात्, यदिवा अन्यस्य भाजने प्रकाशके 25 प्रकाशे आस्यके तस्य मुखे संवर्द्धयन्ती दद्यात् ॥३३॥ [पृ०२५१] साहिरमाणं गहिअं, दिजंतं जं च होति पाजोग्गं । पक्खेवए दुगुंछा, आएसो कुडमुहाईसु ॥३४॥ गाथार्द्धम् । [व्यवहारभा० ९।३८२६] व्या० इहानानुपूर्व्या ग्रहणं बन्धानुलोमतस्तत एवं द्रष्टव्यम्, गृहीतं नाम यद्दीयमानं यच्च Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् भवति प्रायोग्यम्, संहृतं नाम संह्रियमाणम्, आस्ये प्रक्षिप्यमाणं प्रतीतम् । अत्राह- ननु 'जं च आसगम्मि पक्खिवई' [व्यवहारसू० २४४] इत्यस्यायमर्थः- यत् आस्यके मुखे प्रक्षिपति, तथो(च्चो?)च्छिष्टमिति लोके जुगुप्सा, ततः कथं तद् गृह्यते ? सूरिराह- आदेसो इति, कुटो घटस्तस्य यन्मुखम्, तदादिषु, आदिशब्दात् पिठरमुखादिपरिग्रहस्तत्र आदेशो व्याख्यानम्, किमुक्तं भवति ? पिठरमुखादीन्यधिकृत्य ‘जं च आसगम्मि पक्खिवई' इति सूत्रं व्याख्यातमत्र 5 न कश्चिद्दोषः । अत्र च श्रीगुरुभिः केनापि हेतुनाऽऽद्यं पदद्वयं विहायान्त्यमेव तल्लिखितम्, परम् अर्थसङ्गतये सुखावबोधाय चास्माभिः पूर्णा गाथा लिखिता व्याख्याता च ॥३४॥ जं वदृइ उवयारे, उवगरणं तं से होइ उवगरणं । अइरेगं अहिगरणं, अजओ अजयं परिहरंतो ॥३५॥ व्या० यदुपकरणं पात्रकादि उपकारे ज्ञानादीनामुपयुज्यते तदेवोपकरणं से अस्य 10 साधोर्भवतीति, यत् पुनरतिरेकं ज्ञानादीनामुपकारे न भवति तत् सर्वमधिकरणं भवति । किंविशिष्टस्य सतः? अयतोऽयत्नवतः, अयतनया परिहरन् प्रतिसेवमानः तदुपकरणं भवतीति। परिहरंतो त्ति इयं सामयिकी परिभाषा प्रतिसेवनार्थे वर्त्तत इति ॥३५॥ बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥३६॥ [पिंडनि० ६४२] 15 व्या० पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणो द्वात्रिंशत् कवला:, किलेत्याहारस्य मध्यमप्रमाणतासंसूचकः, महेलाया: कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिः कवला इति ॥३६॥ कवलाण य परिमाणं, कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगिअवयणो, वयणम्मि छुहेज्ज वीसत्थो ॥३७॥ व्या० कवलानां च परिमाणं कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रम्, तत्र कुक्कुटी द्विधा-द्रव्यकुक्कुटी भावकुक्कुटी च, तत्र साधोः शरीरमेव कुक्कुटी, तन्मुखमण्डकम्, तत्राऽक्षि-कपोलौष्ठ-भ्रुवां विकृतिमनापाद्य यः कवलो मुखे प्रविशति, तत् प्रमाणं कवलस्य । अथवा कुक्कुटी पक्षिणी, तस्या अण्डकं प्रमाणं कवलस्य । तथा यावन्मात्रेणाहारेण भुक्तेन न न्यूनं नाप्याध्मातम् उदरं भवति धृतिश्च विशिष्टा सम्पद्यते ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां च वृद्धिरुपजायते तावत्प्रमाण आहारो 25 भावकुक्कुटी, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डकम्, तत् प्रमाणं कवलस्य, शेषमुक्तार्थमेव ॥३७॥ अप्पाहार १ अवड्डा २, दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५ । अट्ठ १ दुवालस २ सोलस ३, चउवीस ४ तहेक्कतीसा ५ य ॥३८॥ 20 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे व्या० अल्पाहारोनोदरिका १ अपार्द्धानोदरिका २ द्विभागोनोदरिका ३ प्राप्तोनोदरिका ४ तथा किञ्चिदूनोदरिका ५ अष्ट- द्वादश-षोडश- चतुर्विंशतिस्तथैकत्रिंशच्च यथासङ्ख्यं योजनीयम्। इदमत्र तात्पर्यम्- अल्पाहारोनोदरिका नाम एककवलादारभ्य यावदष्टौ कवला इति, अत्र चैककवलमाना जघन्याऽष्टकवलमाना उत्कृष्टा द्व्यादिकवलमानभेदा मध्यमा, एवं नवभ्यः 5 कवलेभ्य आरभ्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपार्द्धानोदरिका, अत्रापि नवकवला जघन्या द्वादशकवलोत्कृष्टा शेषा तु मध्यमा, एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत् षोडश कवलास्तावद् द्विभागोनो दरिका, भेदत्रयभावना पूर्ववत्, एवं सप्तदशभ्य आरभ्य यावच्चतुर्विंशतिक वलास्तावत्प्राप्तोनोदरिका, एवं पञ्चविंशतेराभ्य यावदेकत्रिंशत् कवलास्तावत्किञ्चिदूनोदरिका, जघन्यादिभेदत्रयं पूर्ववद्भावनीयम्। एवमनेनानुसारेण पानीयेऽपि 10 भावनीया । तथा स्त्रीणामप्येवं पुरुषानुसारेण द्रष्टव्या ||३८|| भावत ऊनोदरिकामाहकोहाईणमणुदिणं, चाओ जिणवयणभावणाओ । भावेणोणोदरिआ, पन्नत्ता वीअरागेहिं ॥३९॥ व्या० क्रोधादीनाम् अनुदिनं प्रतिवासरं त्यागो जिनवचनभावनातः, इयं भावेनाऽवमोदरिका भावेनोनोदरिकेत्यर्थः, प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥ ३९ ॥ 15 १३४ प्रतिमाः प्रतिपादयति [पृ०२५३] मासाई सत्ता ७, पढमा १ बिइ२ तइअ३ सत्तराइदिणा१० । अहराइ ११ एगराई१२, भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥४०॥ [आव०मू०भाष्य, पञ्चाशक० १८।३, प्रवचनसारो० ५७४ ] व्या० मासादयो मासप्रभृतयः सप्तान्ताः सप्तमासावसाना एकैकमासवृद्ध्या सप्त 20 भवन्ति । तत्र मासः परिमाणमस्यां मासिकी प्रतिमा प्रथमा, एवं द्विमासिकी द्वितीया, त्रिमासिकी तृतीया, यावत् सप्तमासिकी सप्तमी । पढमा बिइअ तइअ सत्तराइदिण त्ति सप्तानां प्रतिमानामुपरि प्रथमा द्वितीया तृतीया च सप्त रात्रिदिनानि रात्रिन्दिवानि प्रमाणतो यस्यां सा तथा प्रतिमा भवति । तदभिलापश्चैवम् - प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवा, द्वितीया सप्तरात्रिन्दिवा, तृतीया सप्तरात्रिन्दिवा च, एताश्च तिम्रोऽपि क्रमेणाष्टमी नवमी दशमी चेति । अहराइ त्ति अहोरात्रं 25 परिमाणमस्याः सा अहोरात्रिकी एकादशी प्रतिमा । एगराइ त्ति एकरात्रिर्यस्यां सा एकरात्रि:, एकरात्रिरेवैकरात्रिकी द्वादशी प्रतिमा च, इत्येवं भिक्षुप्रतिमानां साधुप्रतिमाविशेषाणां द्वादशकं भवतीति ॥४०॥ अथ य एताः प्रतिपद्यते तमाह १. तुलना- प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः भाग - १ पृ. १७३ । २. तुलना - पञ्चाशकवृत्तिः प्रवचनसारोद्धारवृत्तिश्च ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ 10 त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् पडिवज्जइ एआतो, संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ भाविअप्पा, सम्मं गुरुणा अणुनाओ ॥४१॥ [पञ्चा० १८।४, प्रव० ५७५] व्या० प्रतिपद्यते अभ्युपगच्छति एता अनन्तरोक्ताः प्रतिमाः संहननधृतियुतः । तत्र संहननं वज्रर्षभनाराचादेरन्यतरत्, तद्युक्तो ह्यत्यन्तं परीषहसहनसमर्थो भवति, धृतिश्चित्तस्वास्थ्यम्, तद्युक्तश्च रत्यरतिभ्यां न बाध्यते । महासत्त्व: सात्त्विकः, स ह्यनुकूल-प्रतिकूलोपसर्गेषु हर्ष- 5 विषादौ न विधत्ते । भावितात्मा सद्भावनाभावितान्तःकरणः, प्रतिमानुष्ठानेन वा भावितात्मा, तद्भावना च तुलनापञ्चकेन तवेण सत्तेणे [बृहत्कल्पभा० १३२८]त्यादिरूपेणान्यत्र व्याख्यातेन। कथं भावितात्मा ? इत्याह- सम्यग् यथाऽऽगमम्, तथा गुरुणाऽऽचार्येणानुज्ञातोऽनुमतः, अथ गुरुरेव प्रतिपत्ता तदा व्यवस्थापिताचार्येण गच्छेन वाऽनुमत इति ॥४१॥ गच्छे च्चिअ निम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइअवत्थू, होइ जहन्नो सुआभिगमो ॥४२॥ [पञ्चाशक० १८।५, प्रव० ५७६] व्या० गच्छ एव साधुसमुदायमध्य एव तिष्ठन् निर्मात आहारादिविषये प्रतिमाकल्पपरिकर्मणि परिनिष्ठितः । कियांस्तस्य श्रुताभिगम इत्याह-यावत् पूर्वाणि दश असम्पूर्णानि किञ्चिदूनानि, सम्पूर्णदशपूर्वधरो ह्यमोघवचनत्वाद्धर्मदेशनया भव्योपकारित्वात्तीर्थवृद्धिकारित्वात् प्रतिमादिकल्पं न प्रतिपद्यते । भवेत् स्यात्, श्रुताधिगम इति योगः, उत्कृष्टश्चायम्, जघन्यस्य वक्ष्यमाणत्वाद- 15 तस्तमेवाह- नवमस्य पूर्वस्य प्रत्याख्याननामकस्य तृतीयं वस्तु आचाराख्यं तद्भागविशेष यावदिति वर्त्तते, स्याजघन्योऽल्पीयान् श्रुताधिगमः श्रुतज्ञानं सूत्रतोऽर्थतश्च, एतच्छ्रुतविरहितो हि निरतिशयज्ञानत्वात् कालादि न जानाति ॥४२।। वोसट्टचत्तदेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीआ, भत्तं च अलेवडं तस्स ॥४३॥ [पञ्चाशक० १८।६, प्रव० ५७७] 20 व्या० व्युत्सृष्टः परिकर्माभावेन, त्यक्तो ममत्वत्यागेन, देहः कायो येन सः तथा, उपसर्गसहो दिव्य-मानुष-तैरश्चोपद्रवसोढा, यथैव यद्वदेव जिनकल्पी जिनकल्पिकस्तद्वदुपसर्गसह इत्यर्थः । एषणा पिण्डग्रहणप्रकारः, सा च सप्तविधा संसंढेत्यादिरूपा, तत्राभिगृहीता अभिग्रहवती, अभिग्रहश्चैवम्- तासां सप्तानामेषणानां मध्ये आद्ययोर्द्वयोरग्रहणं पञ्चसु ग्रहणम्, पुनरपि विवक्षितदिवसे अन्त्यानां पञ्चानां मध्ये द्वयोरभिग्रहः, एका भक्ते एका च पानके । तथा 25 १. पञ्चाशकवृत्ति- प्रवचनसारोद्धारटीकयोः तुलनार्थं द्रष्टव्यम् । २. तवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य । तुलणा पंचहा वुत्ता पडिम पडिवज्जओ ।। इति सम्पूर्णा गाथा ॥ ३. संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह अप्पलेवडा चेव । उग्गहीया पग्गहीया उज्झियधम्मा य सत्तमिआ ॥ इति सम्पूर्णा गाथा।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे भक्तं चान्नं पुनरलेपकृतम् अलेपकारकं वल्ल-चनकादि तस्य प्रतिमाप्रतिपत्तुकामस्य परिकर्म कुर्वतः, चशब्दादुपधिश्च अस्य स्वकीयैषणाद्वयलब्ध एव, तदभावे यथाकृतोऽप्युचितप्राप्तिं यावत् स्यात् ॥४३।। अथैवं कृतपरिकर्मा यत् करोति तदाह गच्छा विणिक्खमित्ता, पडिवज्जइ मासिअं महापडिमं । दत्तेग भोअणस्सा, पाणस्स वि एग जा मासं ॥४४॥ [पञ्चा०१८।७, प्रव०५७८] व्या० गच्छात् साधुसमुदायाद्विनिष्क्रम्य तं विमुच्येत्यर्थः, तत्र यद्याचार्यादिः प्रतिपत्ता तदा अल्पकालिकं साध्वन्तरे स्वपदनिक्षेपं कृत्वा शुभेषु द्रव्यादिषु शरत्काले सकलसाध्वामन्त्रणक्षामणपूर्वकं प्रतिपद्यते अभ्युपगच्छति मासिकी मासप्रमाणां महाप्रतिमां गुरुप्रतिज्ञाम् । तत्र च दत्तिरविच्छिन्नदानरूपा एका एकैव भोजनस्य अन्नस्याज्ञातोञ्छरूपस्य 10 उद्धृताद्युत्तरैषणापञ्चकोपात्तस्यालेपकारिणः कृपणादिभिरजिघृक्षितस्य एकस्वामिसत्कस्यैवाऽ गुर्विणी-बालवत्सापीयमानस्तनाभिः एलुकस्यान्तरे एकं पादं विन्यस्यापरं बहिर्व्यवस्थाप्य दीयमानस्य, तथा पानस्यापि पानकाहारस्य चैकैव मासिकप्रतिमायां दत्तिर्भवेदिति ॥४४॥ पच्छा गच्छमईई, एवं दुमास तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तिविवड्डी, जा सत्त उ सत्तमासीए ॥४५॥ [पञ्चा० १८।१३, प्रव० ५८१] 15 व्या० पश्चात् मासपूरणानन्तरं गच्छं साधुसमूहमत्येति प्रविशति विभूत्या, तथाहि गच्छस्थानासन्नग्रामे आगच्छत्यसौ, आचार्यस्तु तत्प्रवृत्तिमन्विच्छति ततो नृपादीनां निवेद्यते, यथा-परिपालितप्रतिमारूपमहातपाः साधुरत्रागतस्ततो नृपादिलोकैः श्रमणसङ्घन चाभिनन्द्यमानस्तत्र प्रवेक्ष्यते, तपोबहुमानार्थं तस्य तदन्येषां श्रद्धावृद्ध्यर्थं प्रवचनप्रभावनार्थं चेति, एवमाद्योक्ता, शेषाः षडतिदिशन्नाह- एवं अनेनैव क्रमेण द्विमासिकी यावत् सप्त प्रतिमाः सप्तमासिक्यन्ताः, 20 नवरं केवलम्, प्रथमाया मासिक्याः प्रतिमायाः सकाशाद् द्विमासिक्यादीनामयं विशेषः, यथा दत्तयस्तासु वर्द्धन्ते, तत्र द्वैमासिक्यां भक्तस्य पानस्य च प्रत्येकं दत्तिद्वयम्, त्रैमासिक्यां भक्तस्य पानस्य च प्रत्येकं दत्तित्रयम्, एवं यावत् सप्तमासिक्यां भक्तस्य पानस्य च सप्त सप्त दत्तयः ॥४५॥ अथाष्टमीमाह तत्तो अ अट्ठमी खलु, हवइ इहं पढम सत्तराइंदी । 25 तीए चउत्थचउत्थेण, अपाणएणं अह विसेसो ॥४६॥ उत्ताणगपासल्ली, नेसज्जी वावि ठाणं ठाइत्ता । इइ उवसग्गे घोरे, दिव्वाई सहइ अविकंपो ॥४७॥ [प्रवचनसारो० ५८२-५८३, पञ्चाशक० १८।१४-१५] । १. द्विमासा एवं त्रिमासा यावत्-पञ्चाशकवृत्तौ । द्वैमासिकी त्रैमासिकी यावत्-प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १३७ व्या० ततश्च सप्तम्यनन्तरम् अष्टमी प्रथमसप्तरात्रिन्दिवा प्रतिमा भवति, इह प्रक्रमे, तस्यां प्रथमसप्तरात्रिन्दिवायां चतुर्थचतुर्थेन एकान्तरोपवासेन आसितव्यमिति शेषः । अपानकेन पानकाहाररहितेन, चतुर्विधाहाररहितेनेत्यर्थः । इह च पारणके आचाम्लं कर्त्तव्यम्, दत्तिनियमस्तु नास्तीति । तथा उत्तानक ऊर्ध्वमुखशयितः पासल्लीति पार्श्वशयितः नेसजीति निषद्यावान्, समपुततयोपविष्टः वा वीति विकल्पार्थः, स्थानम् उक्तमेव कायचेष्टाविशेषरूपं स्थित्वा कृत्वा, 5 ग्रामादिभ्यो बहिरिति शेषः । सहते क्षमते उपसर्गान् उपद्रवान् घोरान् रौद्रान् दिव्यादीन् देवकृतादीन्, आदिशब्दान्मानुष-तैरश्चादिग्रहः । तत्र तस्यां प्रतिमायाम् अविकम्पो मनःशरीराभ्यामचल इति ॥४६-४७।। नवमीमाह दोच्चा वि एरिसि च्चिअ, बहिआ गामाईआण नवरं तु । उक्कुडुलगंडसाई, डंडायइउ व्व ठाइत्ता ॥४८॥ [पञ्चा० १८।१६, प्रव० ५८४] 10 व्या० द्वितीया सप्तरात्रिन्दिवा प्रतिमाऽपि ईदृश्येव प्रथमसप्तरात्रिन्दिवप्रतिमासदृश्येव, तपः-पारणसाधाद् ग्रामादिबहिर्वत्तिसाधर्म्याच्च । अत एवाह- बहिस्तादेव बहिरेव ग्रामादीनां सन्निवेशविशेषाणाम् । नवरं केवलमयं विशेषः, तुशब्दोऽवधारणे स च योजित एव । उत्कुटुको भूमावन्यस्तपुततयोपविष्टः । तथा लगण्डं दुस्संस्थितं काष्ठम्, तद्वच्छेते य एवंशीलोऽसौ लगण्डशायी मस्तक-पार्णिकाभिरेव पृष्ठप्रदेशेनैव वा स्पृष्टभूभागः, तथा दण्डवद् यष्टिवदायतो 15 दी? दण्डायत:, पादप्रसारणेन भूमिन्यस्तायतशरीरः, स एव दण्डायतकः । वाशब्दो विकल्पार्थः। स्थित्वा अवस्थाय दिव्याधुपसर्गान् सहत इति प्रक्रमात् ॥४८॥ दशमीमाहतच्चाए वी एवं, नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमहवा वी, ठाएज व अंबखुजो उ ॥४९॥ [पञ्चा० १८।१७, प्रव० ५८५] 20 व्या० तृतीयाऽपि सप्तरात्रिन्दिवा प्रतिमाऽपि ईदृश्येव उक्तस्वरूपैव, तपः-पारणकग्रामादिबहिर्वृत्तिसाधर्म्यात् प्रथमसप्तरात्रिन्दिवप्रतिमातुल्यैवेत्यर्थः । नवरं केवलं स्थानं शरीरावस्थानं तस्य प्रतिमाप्रतिपत्तुर्गोदोहीति गोदोहकसमाकारत्वाद् गोदोहिका, गोदोहनप्रवृत्तस्येव पुतयोः पाणिभ्यां संयोगे अग्रपादतलाभ्यामवस्थानक्रिया, सा विधेयेति शेषः। वीराणां दृढसंहनानाम् आसनं वीरासनम्, सिंहासनाद्यधिरूढस्य भूमिन्यस्तपादस्य सिंहासनाद्यपनयने सत्यचलितस्य 25 तथैवावस्थानरूपम्, तदपि स्थानं तस्येति प्रक्रमः । यद्वा वामपादो दक्षिणस्योरोरुपरि दक्षिणश्च वामस्योरोरुपरि यत्र क्रियते, वामकरतलस्य चोपरि दक्षिणकरतलमुत्तानं नाभिलग्नं च यत्र १. द्वितीयसप्त० - पञ्चाशक-प्रवचनसारोद्धारवृत्त्योः ।। २. उक्कुटुओ-पञ्चाशकवृत्तौ । उत्कटुको-प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे विधीयते तद्वीरासनम् । अहवा वि त्ति अथवेति प्रकारान्तरद्योतनार्थः, अपि: समुच्चये, अवतिष्ठेदाम्रकुब्जो वा आम्रफलवद्वक्राकारेणावस्थितः । एवमेतास्तिस्रोऽपि प्रथमसप्तरात्रिन्दिवाद्याः प्रतिमा एकविंशत्या दिवसैर्यान्तीति ॥४९।। एकादशीमाह5 एमेव अहोराई, छठे भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिआ, वग्धारिअपाणिए ठाणं ॥५०॥ [पञ्चा० १८।१८, प्रव० ५८६] व्या० एवमेव अनन्तरोक्तनीत्या अहोरात्रिकी प्रतिमा भवति । नवरं केवलं षष्ठं भक्तं भोजनं वर्जनीयतया यत्र तत् षष्ठभक्तमुपवासद्वयरूपं तपः, तत्र ह्युपवासद्वये चत्वारि भक्तानि छिद्यन्ते, एकाशनेन तदारभ्यते तेनैव च निष्ठां यातीत्येवं षड्भक्तवर्जनरूपं तदिति, षष्ठम् इत्यत्र 10 चानुस्वारोऽनागमिकः । अपानकं पानकाहाररहितं तस्यां विधेयमिति शेषः । तथा ग्रामनगरेभ्यो बहिस्ताद् व्याघारितपाणिके प्रलम्बभुजस्य स्थानम् अवस्थानं भवति प्रतिमाप्रतिपन्नस्येति, इयं चाहोरात्रिकी प्रतिमा दिनत्रयेण याति, अहोरात्रस्यान्ते षष्ठभक्तकरणात् ॥५०॥ द्वादशीमाह[पृ०२५४] एमेव एगराई, अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरओ । ईसिंपन्भारगए, अणिमिसनयणेगदिट्ठीए ॥५१॥ साहह दोवि पाए, वग्घारिअपाणि ठायइ ठाणं । वग्घारिलंबिअभुओ, सेस दसासु जहा भणियं ॥५२॥ (प्रवचनसारो० ५८७-५८८, पञ्चाशक० १८।१९-२०] व्या० एवमेव अहोरात्रिकीवदेव एकरात्रिकी प्रतिमा भवति, विशेषमाह-अष्टमभक्तेन उपवासत्रयेण पानकाहाररहितेन स्थानम् अवस्थानं कर्तुः बहिस्ताद् ग्रामादेः, तथाहि-ईषत्प्राग्भारगत 20 ईषत्कुब्जो नद्यादिदुस्तटीस्थितो वाऽसौ स्यात्तथाऽनिमिषनयनो निर्निमेषनेत्रस्तथा एकदृष्टिः एकपुद्गलगतदृष्टिर्यथास्थितगात्रो गुप्तसर्वेन्द्रिय इति । साह त्ति संहृत्य द्वावपि पादौ क्रमौ जिनमुद्रया व्यवस्थाप्येत्यर्थः, व्याघारितपाणिर्वक्ष्यमाणोऽर्थः ठायति त्ति तिष्ठति करोति स्थानं कायावस्थानविशेषम्, अथवा व्याघारितपाणि त्ति पदं सूत्रकृदेव व्याख्याति-व्याघारितपाणि लम्बितभुजोऽवलम्बितबाहुरुच्यते, सम्यक्पालने चास्या यत् स्यात्तदाह- अन्ते च सम्यक्पर्यन्तं 25 नयने पुनरस्या एकरात्रिकीप्रतिमाया लब्धिाभविशेष: स्यात् ।।५१-५२।। चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात्, यच्चोच्यते१. सेस दसासु जहा भणिअं-इति पाठस्य स्थाने 'अंते अ इमीइ लद्धित्ति' इति पञ्चाशकादौ पाठः ॥ २. ठायए-प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। 15 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् [पृ०२५६] सच्चरणाणुट्ठाणं, विहिपडिसेहाणुगं तत्थ । गाथार्द्धम् । व्या० सच्चारित्रमनुष्ठानं वर्तते, कीदृशम्? विधिप्रतिषेधानुगम, विधिश्च प्रतिषेधश्च विधिप्रतिषेधौ, तावनुगच्छतीति विधिप्रतिषेधानुगं किञ्चिद्विध्यनुगं किञ्चिन्निषेधानुगम्, तत्र कथं व्यवसायः? तत्रोत्तरम्-तद् बाह्यचारित्रापेक्षमवगन्तव्यमिति ॥ [पृ०२५८] वत्थू वसइ सहावे, सत्ताओ चेअण व्व जीवम्मि । न विलक्खणत्तणाओ, भिन्ने अन्यत्र छायातवे चेव ॥५३॥ [विशेषाव० २०४२] व्या० सर्वमेव वस्तु आत्मस्वभावे वसति, सत्त्वात् जीवे चेतनावत्, भिन्ने त्वात्मविलक्षणस्वरूपे वस्तुनि न वसति, यथा छायाऽऽतपे । यच्च सत् तत् स्वभावे वसति, जीवे चेतनावत् । भिन्ने अन्यत्र विलक्षणत्वाच्चेतना न वसति । किंवत् ? छायाऽऽतपाविव, यथा- छाया यदा भवति तदा आतपो न भवति यदाऽऽतपो भवति तदा छाया न भवति, 10 तत्र हेतुः स्वभाव एव ॥५३।। पृ०२६०] अथ यथा मति-श्रुतयोः कार्यकारणभावाद्भेदस्तथा तयोः प्रत्येकं स्वस्थानेऽपि सम्यक्त्व-मिथ्यात्वपरिग्रहाद्भेद एवेत्यनुषङ्गतो दर्शयितुं नन्द्यध्ययनागमे मतिश्रुतयो: कार्यकारणभावेन भेदप्रतिपादनानन्तरमिदं सूत्रमस्ति, तद्यथा अविसेसिआ मई मइनाणं च मइअन्नाणं च, विसेसिआ मई सम्मदिट्ठिस्स मई मइनाणं, 15 मिच्छादिहिस्स मईअन्नाणं । एवं अविसेसिअं सुअं सुअनाणं च सुअअन्नाणं च, सम्मदिहिस्स सुअं सुअनाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुअं सुअअन्नाणं । [सू. ४६] सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिसम्बन्धतोऽविशेषितेन मतिशब्देन मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च द्वे अपि प्रतिपाद्येते, सम्यग्दृष्टित्वविशेषितेन तु मतिध्वनिना मतिज्ञानमेवोच्यते, मिथ्यादृष्टित्वविशेषितेन तु तेनैव मत्यज्ञानमेवाभिधीयते, एवं श्रुतेऽपि वाच्यमिति सूत्रभावार्थः । तदेतदानुषङ्गिकं 20 सूत्रोक्तमनुवर्त्तमानो भाष्यकारोऽप्याह अविसेसिआ मइ च्चिअ, सम्मद्दिट्ठिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुअं पि एमेव ॥५४॥ [विशेषाव० ११४] व्या० सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिभावेनाविशेषिता मतिः मतिरेवोच्यते, न तु मतिज्ञानं मत्यज्ञानं चेति निर्धार्य व्यपदिश्यते, सामान्यरूपायां तस्यां ज्ञाना-ऽज्ञानविशेषयोर्द्वयोरप्यन्तर्भावात् । यदा 25 तु सम्यग्दृष्टेरेव सम्बन्धिनी सा मतिर्विवक्ष्यते तदा मतिज्ञानमिति निर्दिश्यते यदा तु मिथ्यादृष्टिसम्बन्धिनी तदा मत्यज्ञानम् । एवं श्रुतमप्यविशेषितं श्रुतमेव, विशेषितं तु सम्यग्दृष्टे: श्रुतज्ञानं मिथ्यादृष्टेस्तु श्रुताज्ञानम्, सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनो बोधस्य सर्वस्यापि ज्ञानत्वात् मिथ्यादृष्टिसत्कस्य त्वज्ञानत्वादिति गाथार्थः ॥५४॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०२६१] दुविहो उ भावधम्मो, सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ । सुअधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥५५॥ [दशवै०नि० ४३] व्या० द्विविधस्तु द्विप्रकारो भावधर्मः, तथा चाह-श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्मश्च । तत्र श्रुतं द्वादशाङ्गम्, तस्य धर्मः श्रुतधर्मः । खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि? स 5 हि वाचनादिभेदाच्चित्र इति, आह च-श्रुतधर्म: स्वाध्यायः वाचनादिरूपस्तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुत्वाद्धर्म इति । तथा चारित्रधर्मश्च, तत्र चर गति-भक्षणयोः [पा.धा.५५९?]इत्यस्य अतिलू-धू-सू-खनि-सहि-चरिभ्य इत्रन् [का० ३।२।१८४] इतीत्रन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपम्, तस्य भावश्चारित्रम्, अशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः । तत्र चारित्रमेव धर्मश्चारित्रधर्मः इति, चः समुच्चये । अयं च श्रमणधर्म एवेत्याह- चारित्रधर्मः 10 श्रमणधर्म इति । तत्र श्राम्यतीति श्रमणः कृत्यल्युटो बहुलम् [पा० ३।३।११३] इति वचनात् कर्तरि ल्युट्, श्राम्यतीति तपस्यति, एतदुक्तं भवति- प्रव्रज्यादिनादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतो गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याऽऽप्राणोपरमात्तपश्चरतीति, यदुक्तम् - यः समः सर्वभूतेषु, बसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥ [ ] इति । 15 तस्य धर्मः स्वभावः श्रमणधर्मः । स च क्षान्त्यादिलक्षणो वक्ष्यमाणः [इति] दशवैकालिकनियुक्तिटीका ॥५५॥ [पृ०२६३] अनुशिष्टिरनुशासनम्, तत्रात्मनो यथाबायालीसेसणसंकडम्मि गहणम्मि जीव ! नहु छलिओ । इण्हिं जह न छलिजसि, भुंजंतो रागदोसेहिं ॥५६॥ [ओघनि० ५४५, पञ्चव. ३५४] 20 व्या० इहैषणाग्रहणेन एषणागता दोषा अभिधीयन्ते, ततोऽयमर्थः- द्विचत्वारिंशत्सङ्ख्या ये एषणादोषा गवेषणाग्रहणैषणादोषास्तैः सङ्कटे विषमे ग्रहणे भक्त-पानादीनामादाने हे जीव! त्वं नैव छलितस्तत इदानीं सम्प्रति भुञ्जानो राग-द्वेषाभ्यां यथा न छल्यसे तथा कर्त्तव्यमिति शेषः ॥५६॥ परानुशिष्टिर्यथा25 ता तंसि भाववेजो, भवदुक्खनिपीडिआ तुहं एते । हंदि सरणं पवन्ना, मोएअव्वा पयत्तेणं ॥५७॥ [पञ्चव० १३५१] व्या० तत् त्वमसि भाववैद्यो वर्त्तसे, भवदुःखनिपीडितास्सन्तस्तवैते साध्वादयो हन्दि शरणं प्रपन्नाः प्रव्रज्यादिप्रतिपत्त्या मोचयितव्याः प्रयत्नेन सम्यक्प्रकारेणेति गाथार्थः ॥५७॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके तृतीयोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १४१ तदुभयानुशिष्टिर्यथा[पृ०२६३] कहकह वि माणुसत्ताइ, पाविअं चरणपवररयणं च । ता भो एत्थ पमाओ, कइआ वि न जुज्जए अम्हं ॥५८॥ व्या० कथं कथमपि महता कष्टेन मानुषत्वादि प्राप्तं च पुनः चरणप्रवररत्नं प्राप्तम्, ता तस्मात् भो ! इति शिष्यामन्त्रणम् । अत्र चरणे प्रमादो निद्राविकथादिरूपः कदापि 5 न युज्यते अस्माकमिति ॥५८॥ चोल्लगदिटुंतेणं, दुलहं लहिऊण माणुसं जम्मं । जं न कुणसि जिणधम्मं, अप्पा किं वेरिओ तुज्झ ? ॥५९॥ व्या० चोल्लग इति देशीशब्दो भोजनपर्यायः, तस्य दृष्टान्तः, चक्रवर्तिगृहभोजनं यथा तस्य ब्राह्मणस्य द्वितीयं वारं दुष्करम्, तद्वल्लब्ध्वा मानुषं जन्म यज्जिनधर्मं न करोषि तर्हि 10 आत्मा किं वैरी तव, यदि आत्मनः सज्जनत्वं तवास्ति तदा आत्मनो हितं धर्मं कुरु इति शिक्षावचः ॥५९॥ परोपालम्भो यथाउत्तमकुलसंभूओ उत्तमगुरुदिक्खिओ तुमं वच्छ । उत्तमनाणगुणड्ढो कहं सहसा ववसिओ एवं ॥६०॥ व्या० त्वं वत्स ! उत्तमकुलसम्भूतः, पुनस्त्वम् उत्तमगुरुदीक्षितः, उत्तमज्ञानगुणाढ्यः एतावता पक्षत्रयेऽप्युत्तमत्वं दर्शितम्, कथं सहसा एकपदेनैव व्यवसितः अवसन्नीभूतः एवममुना प्रकारेणेत्यर्थः ॥६०॥ तदुभयोपालम्भो यथाएगस्स कए नियजीविअस्स, बहुआओ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे केइ ताणं किं सासयं जीयं ॥६१॥ व्या० एकस्य निजजीवितस्य कृते निजायुष्कारणाय बह्वीः जीवकोटी: दुःखे स्थापयन्ति दुःखिताः कुर्वन्ति तेषां किं शाश्वतं जीवितमिति ॥६१।। त्रिस्थानकस्य तृतीय उद्देशः । - 15 25 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [अथ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् ] पृ०२६६] आगंतुगारत्थजणो जहिं तु संठाइ जं वाऽऽगमणेण तेसिं । तं आगमोकं तु विदू वयंति सभा-पवा-देउलमाइअं च ॥६२। [बृहत्कल्पभा० ३४८६] 5 व्या० आगन्तुकः पथिकादिरगारस्थजनो यत्राऽऽगत्य सन्तिष्ठते यच्च तेषां पथिकादीनामागमने वर्तते तत् आगमौकः आगमनगृहं विद्वांसः श्रुतधरा वदन्ति । तच्च सभा वा प्रपा वा देवकुलादिकं वा मन्तव्यम् ॥- इति क्षेमकीर्तिसूरिविरचितायां बृहत्कल्पभाष्यटीकायाम् । पुनरपि गृहविशेषमाह10 अवाउडं जं तु चउद्दिसिं पि दिसामहो तिनि दुवे अ एक्का । अहे भवे तं विअडं गिहं तु उ8 अमालं च अतिच्छदं वा॥६३॥ [बृहत्कल्पभा० ३५००] व्या० विवृतगृहं द्विधा, अधो विवृतम् ऊर्ध्वं विवृतम् च । यत् पार्श्वतश्चतसृषु तिसृषु वा दिक्षु द्वयोर्वा दिशोरेकस्यां वा दिशि अपावृतं कुड्यरहितं परमुपरिच्छन्नं तदधोविवृतं गृहं भवेत् । यत् पुनरमालं मालरहितम्, अच्छन्नं वा छाद्यरहितम्, परं पार्श्वतः कुड्ययुक्तं तदूर्ध्वविवृतं 15 भवति । [पृ०२६८] ओराल १ वेउव्वा २ तेअ ३ कम्म ४ भासा ५ णुपाण ६ मणगेहिं। फासेवि सव्वपुग्गल मुक्का अह बायरपरट्टो ॥६४॥ [प्रवचनसारो०१०४१] व्या० एकेन जन्तुना विकटां भवाटवीं पर्यटता अनन्तेषु भवेषु औदारिक-वैक्रिय-तैजसकार्मण-भाषा-ऽऽनपान-मनोलक्षणपदार्थसप्तकरूपतया चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकवर्तिनः सर्वेऽपि 20 पुद्गलाः सर्वेऽपि स्पृष्ट्वा परिभुज्य यावता कालेन मुक्ता भवन्ति, एष बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः। किमुक्तं भवति ? यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्तिनः परमाणवो यथायोगमौदारिकादिसप्तकस्वभावत्वेन परिभुज्य परिभुज्य परित्यक्तास्तावान् कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः। आहारकशरीरं चोत्कृष्टतोऽप्येकजीवस्य वारचतुष्टयमेव सम्भवति, ततस्तस्य पुद्गलपरावर्त प्रत्यनुपयोगान्न ग्रहणं कृतमिति ॥१॥ १. “आगन्तुकश्चासौ अगारस्थजनश्च आगन्तुकागारस्थजनः पथिकादिः यत्र तु सन्तिष्ठते, कोऽर्थः ? पथिकागमनोपेतमेकं गृहम्, तेषां पथिकादीनाम् आगमनेन तदर्थम् आगमोक इति द्वितीयं गृहम्, तु पुनः सभाप्रपा-देवकुलादिकं तृतीयम्, एतत् त्रयं प्रतिमापन्नस्य वसतीनां विद्वांसो वदन्ति ॥” - इति सुमतिकल्लोलहर्षनन्दनगणिविरचिता व्याख्या तु अत्र असंगतैव प्रतीयते इति टिप्पणे उपन्यस्तास्माभिः ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् दव्वे सुहुमपरट्टो, जाहे एगेण अह सरीरेणं । लोगम्मि सव्वपोग्गल परिणामेऊण तो मुक्का ॥२॥ [प्रवचनसारोद्धारे १०४३] व्या० अथ द्रव्ये द्रव्यविषयः सूक्ष्मः पुद्गलपरावर्तो भवति, यदा औदारिकशरीराणामेकेनान्यतमेन शरीरेणैको जीवस्संसारे परिभ्रमन् सर्वानपि पुद्गलान् स्पृष्ट्वा परिभुज्य परिभुज्य मुञ्चति । इयमत्र भावना-यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशभाविनः 5 परमाणवः औदारिकाद्यन्यतमैकविवक्षितशरीररूपतया परिभुज्य परिभुज्य निष्ठां नीयन्ते तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्तः । पुद्गलानां परमाणूनामौदारिकादिरूपतया विवक्षितैकशरीररूपतया वा सामस्त्येन परावर्त्तः परिणमनं यावति काले स तावान् कालः पुद्गलपरावर्त्तः, इदं च शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तमात्रम्, तेन च व्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानत्वरूपं लक्ष्यते, तेन क्षेत्रपुद्गलपरावर्तनादौ 10 क्षेत्रपुद्गलपरावर्त्तनाभावेऽपि प्रवृत्तिनिमित्तस्यानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानत्वरूपस्य विद्यमानत्वात् पुद्गलपरावर्तनशब्दः प्रवर्त्तमानो न विरुध्यते, यथा गोशब्दः पूर्वं गमने व्युत्पादितस्तेन च गमनेन व्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिखुर-ककुद-लाफूलसास्नादिमत्त्वरूपं प्रवृत्तिनिमित्तमुपलक्ष्यते, ततो गमनरहितेऽपि गोपिण्डे प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावाद् गोशब्दः प्रवर्त्तत इति । अणुक्कमेण नणु गणिज्ज त्ति एताँश्च पुद्गलान् अनुक्रमेण विवक्षितैकशरीरस्पृष्टतारूपया परिपाट्या ननु निश्चितं 15 गणयेत् । इदमत्र तात्पर्यम्- एतस्मिन् सूक्ष्मे द्रव्यपुद्गलपरावर्ते विवक्षितैकशरीरव्यतिरेकेणान्यशरीरतया ये परिभुज्य परिभुज्य त्यज्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्तु प्रभूतेऽपि काले गते सति ये विवक्षितैकशरीररूपतया परिणम्यन्ते त एव परमाणवो गण्यन्त इति । प्रथमपक्षाभिप्रायेण तु औदारिकादिसप्तकमध्यादन्यतमेन केनचित् पूर्वोक्तरीत्या सर्वपुद्गलस्पर्शेन सूक्ष्मपुद्गलपरावर्तो भवतीति ॥२॥ [पृ०२६९] तत्थुग्गमो पसूई, पभवो एमादि होंति एगट्ठा । सों पिंडस्सिह पगओ, तस्स य दोसा इमे होंति ॥३॥ पञ्चव०७४०, पञ्चा०१३/४] व्या० तत्रोद्गम: प्रसूति: प्रभव एवमादय एकार्थाः, स उद्गमादिः इह पिण्डस्य प्रकृत: प्रस्तावापन्नः, तस्य च पिण्डस्य इमे वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ॥३॥ 25 20 १. फासेवि सव्वपोग्गल अणुक्कमेणं नणु गणिजा- इति प्रवचनसारोद्धारे उत्तरार्धम् ॥ २. तुलाप्रवचनसारोद्धारवृत्तिः।। ३. 'सो पिंडस्साहिगओ तस्स य भेया इमे होंति'- इति पञ्चवस्तुके पाठः । ‘सो पिंडस्साहिगओ इह दोसा तस्सिमे होंति' इति पञ्चाशके पाठः । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे तानेवाहआहाकम्मु १ देसिअ २, पूइकम्मे अ ३ मीसजाए ४ अ । ठवणा ५ पाहुडिआए ६, पाओअर ७ कीअ ८ पामिच्चे ९ ॥४॥ परिअट्टिए १० अभिहडे ११, उब्भिन्ने १२ मालोहडे १३ इअ । 5 अच्छिज्जे १४ अणिसढे १५, अज्झोअरए य १६ सोलसमे ॥५॥ [पिण्डनि० ९२-९३, बृहत्कल्पभा० ४२७५-४२७६, पञ्चाशक० १३/५-६, पञ्चव० ७४१-२, प्रवचनसारो० ५६४-५६५] व्या० आधाकर्मेति, आधानम् आधा, उपसर्गादात: [सि. ५।३।११०] इत्यङ् प्रत्ययः, साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानम्, यथा अमुकस्य साधोः कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति 10 आधया कर्म पाकादिक्रिया आधाकर्म, तद्योगाद्भक्ताद्यपि आधाकर्म । इह दोषाभिधान प्रक्रमेऽपि यद्दोषवतोऽभिधानं तद्दोषदोषवतोरभेदविवक्षया द्रष्टव्यम्, यद्वा आधाय साधुं चेतसि प्रणिधाय यत् क्रियते भक्तादि तदाधाकर्म, पृषोदरादयः [सि. ३।२।१५५] इति यलोप: १। तथा उद्देशनमुद्देशो यावदर्थिकादिप्रणिधानम्, तेन निर्वृत्तमौदेशिकम् २। तथा उद्गमादिदोषरहिततया स्वतः पवित्रस्य सतो भक्तादेरन्यस्याविशुद्धिकोटिभक्तादेरवयवेन सह सम्पर्कतः पूतेः पूतीभूतस्य 15 कर्म करणं पूतिकर्म, तद्योगाद्भक्ताद्यपि पूतिकर्म ३। तथा मिश्रेण कुटुम्बप्रणिधान साधुप्रणिधानमीलनरूपेण भावेन जातं यद्भक्तादि तन्मिश्रजातम् ४। तथा स्थाप्यते साधुनिमित्तं कियन्तं कालं यावन्निधीयते इति स्थापना, यद्वा स्थापनं साधुभ्यो देयमिति बुद्ध्या देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना, तद्योगाद्देयमपि स्थापना ५ । तथा कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत् प्राभृतमुच्यते, ततः प्राभृतमिव प्राभृतं 20 साधुभ्यो भिक्षादिकं देयं वस्तु, प्राभृतमेव प्राभृतिका । अतिवर्त्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानि [ ] इति वचनात् पूर्वं नपुंसकत्वेऽपि के प्रत्यये समानीते सति स्त्रीत्वम्, यद्वा प्र इति प्रकर्षण आ इति साधुदानलक्षणमर्यादया भृता निर्वर्त्तिता यका भिक्षा सा प्राभृता, ततः स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् प्राभृतिका ६ । तथा साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्त्याद्यपनयनेन वा प्रादुः प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः करणम्, तद्योगाद्भक्ताद्यपि प्रादुष्करणम्, 25 यद्वा प्रादुः प्रकटं करणं यस्य तत् प्रादुष्करणम् ७ । तथा क्रीतं यत् साध्वर्थं मूल्येन परिगृहीतम् ८ । तथा पामिच्चे इति अपमित्य ‘भूयोऽपि तव दास्यामि'इति एवमभिधाय यत् साधुनिमित्तं १. 'सोलस पिंडुग्गमे दोसा' इति पञ्चवस्तुके प्रवचनसारोद्धारे च पाठः ॥ २. तुलना-पिण्डनियुक्तिवृत्तिः, प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् १४५ उच्छिन्नं गृह्यते तदपमित्यम्, इह यदपमित्य गृह्यते तदप्युपचारादपमित्यमित्युक्तम् ९ । तथा परिवर्तितं यत् साधुनिमित्तं कृतपरावर्त्तम् १० । तथा अभिहृतं यत् साधुदानाय स्वग्रामात् परग्रामाद्वा समानीतम्, अभि साध्वभिमुखं हृतं स्थानान्तरादानीतमभिहतमिति व्युत्पत्तेः ११। तथा उद्भेदनमुद्भिन्नम्, साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घट्टनम्, तद्योगाद्देयमपि घृतादि उद्भिन्नम् १२ । तथा मालात् मञ्चादेरपहृतं साध्वर्थमानीतं यद्भक्तादि 5 तन्मालापहृतम् १३ । तथा आच्छिद्यतेऽनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेस्सकाशात् साधुदानाय परिगृह्यते यत्तदाच्छेद्यम् १४ । तथा न निसृष्टम् सर्वैः स्वामिभिस्साधुदानार्थमनुज्ञातं यत्तदनिसृष्टं १५। तथा अधि आधिक्येन अवपूरणं स्वार्थं दत्ताद्रहणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थं प्राचुर्येण भरणम् अध्यवपूरः, स एव स्वार्थिककप्रत्ययविधानादध्यवपूरकः, तद्योगाद्भक्ताद्यप्यध्यवपूरकः १६ । षोडश उद्गमदोषाः ॥४-५॥ [पृ०२७०] उप्पायण संपायण, णिव्वत्तण मो अ होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया, तीए दोसा इमे होंति ॥६॥ [पञ्चव० ७५३,पञ्चाशक १३/१७] व्या० उत्पादनमुत्पादना एवं सम्पादना निवर्त्तना च । इह च पदत्रयेऽपि ह्रस्वता मोकारश्च निपातः प्राकृतत्वात्, चशब्दस्समुच्चये । भवन्ति स्युरेकार्था अनन्याभिधेयाः, सर्वेषामेवैषामुत्पादनाबोधकत्वात्, एते शब्दा इति गम्यम् । सा च सचेतना-ऽचेतनद्रव्यादिविषय- 15 त्वेनानेकविधेत्यत उच्यते-आहारस्याशनादेः, उपलक्षणत्वादस्य वस्त्र-पात्रादिपरिग्रहः, इह पिण्डाधिकारे प्रकृता प्रस्तुता तद्दोषाधिकारात् । तीए त्ति तस्याः पुनरुत्पादनाया गृहस्थात् सकाशात् साधुना स्वार्थं भक्ताद्युपार्जनरूपाया दोषा दूषणानि इमे त्ति वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्ना भवन्ति स्युरिति गाथार्थः ॥६।। अथोत्पादनादोषान् गाथाद्वयेनाहधाई १ दुई २ निमित्ते ३, आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा ६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९, लोहे १० अ हवंति दस एए ॥७॥ पुव्विं पच्छा संथव ११, विजा १२ मंते १२ अ चुण्ण १३ जोगे १४ अ । उप्पायणाए दोसा, सोलसमे मूलकम्मे १६ अ ॥८॥ [पिण्डनि० ४०८-४०९, पञ्चव.७५४-५, पञ्चा० १३/१८-१९, प्रव० ५६६-७] 25 व्या० धात्री बालकपरिपालिका, इह धात्रीत्वस्य यत् करणं कारणं वा तद् धात्रीशब्देनोक्तं 20 १. "द्घाटनम्' इति पिण्डनियुक्तिवृत्तौ प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ च पाठः ॥ २. तुलना-पञ्चाशकवृत्तिः ॥ ३. तुलनापिण्डनियुक्तिटीका, पञ्चाशकवृत्तिः, प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे द्रष्टव्यम्, तथाविवक्षणात् १। एवं दूत्यपि भावनीया, नवरं दूती परसन्दिष्टार्थकथिका २ । निमित्तम् अतीताद्यर्थपरिज्ञानहेतुशुभाशुभचेष्टादि ३ । आजीवो जीविका ४। वनीपको भिक्षाचरः, तस्येव यत् समाचरणं तदपि वनीपकः ५। चिकित्सा रोगप्रतीकारः ६। क्रोध मान-माया-लोभाः प्रतीताः ७-१० । पूर्वसंस्तवो मात्रादिकल्पनया परिचयकरणम्, पश्चात्संस्तवः 5 श्वश्र्वादिविकल्पनया परिचयकरणम् ११। विद्या स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता ससाधना वा अक्षरविशेषपद्धतिः १२। सैव पुरुषदेवताधिष्ठितोऽसाधनो वा मन्त्रः १३। चूर्ण: सौभाग्यादिजनको द्रव्यक्षोदः १४। योग आकाशगमनादिफलो द्रव्यसङ्घातः १५ । एतेऽनन्तरोक्ता उत्पादनादोषाः। षोडशो दोषो मूलकर्म वशीकरणम् १६। इह धात्र्या पिण्डो धात्रीपिण्डः, किमुक्तं भवति? धात्रीत्वस्य करणेन कारणेन च य उत्पाद्यते पिण्डः स धात्रीपिण्डः, यस्तु दूतीत्वस्य 10 करणेनाऽऽसाद्यते स दूतीपिण्डः, एवं निमित्तादिष्वपि भावनीयम् ॥७-८॥ एसण गवेसणऽन्नेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया, तीए दोसा इमे होंति ॥९॥ [पञ्चव० ७६१, पञ्चा० १३/२५] व्या० एषणमेषणा, एवं गवेषणा अन्वेषणा च ग्रहणं चेति भवन्ति स्युरेकार्थाः अनन्याभिधेया एते शब्दाः, एषणामात्राभिधायित्वात् । सा चानेकविषया, अत उच्यते15 आहारस्य भक्तादेः, न तु द्विपदादेः । इह एषणादोषप्रस्तावे प्रकृताः प्रस्तुताः । तस्याश्चैषणायाः पुनर्दोषा दूषणानि इमे एते वक्ष्यमाणा भवन्तीति गाथार्थः ॥९॥ संकिअ १ मक्खिअ २ निक्खित्त ३, पिहिअ ४ साहरिअ ५ दायगु ६ म्मीसे ७। अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिअ १०, एसणदोसा दस हवंति ॥१०॥ [पिण्डनि० ५२०, पञ्चव० ७६२, पञ्चाशक० १३/२६, प्रवचनसारो० ५६८] 20 व्या० शङ्कितं सम्भाविताधाकर्मादिदोषम् १ । म्रक्षितं सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्ठितम् २। निक्षिप्तं सचित्तस्योपरि स्थापितम् ३। पिहितं सचित्तेन स्थगितम् ४। संहृतम् अन्यत्र क्षिप्तम् ५। दायकं दायकदोषदुष्टम् ६। उन्मिश्रं पुष्पादिसम्मिश्रम् ७। अपरिणतम् अप्रासुकीभूतम् ८ । लिप्तं छर्दितं च भूमावा?]वेडितम् ९-१० । एते दश एषणादोषा भवन्ति ॥१०॥ सोलस उग्गमदोसा, गिहिआओ समुट्ठिए विआणाहि । 25 उप्पायणाए दोसा, साहूओ समुट्ठिए जाण ॥११॥ [पिण्डनि० ४०३] व्या० एतान् अनन्तरोक्तान् षोडशसङ्ख्यान् उद्गमदोषान् गृहिणः सकाशाद् उत्थितान् विजानीहि । तथाहि- आधाकर्मादिदोषदुष्टभक्तादि गृहस्थैरेव क्रियते । ये तु उत्पादनादोषा १. परस्परस्य स०- पञ्चाशकवृत्तौ । परस्परस० - प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। २. तुलना-पञ्चाशकटीका ॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् १४७ वक्ष्यमाणास्तान् साधुतः साधोः सकाशादुत्थितान् जानीहि, धात्रीत्वादीनां साधुभिरेव क्रियमाणत्वादिति । इयं च गाथा उद्गमदोषेभ्योऽग्रतो विलोक्यते, तथैव सुसङ्गतत्वादिति ॥११॥ [पृ०२७१] आहाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ १ । पयभेआइ वइक्कमु २, गहिए तइए ३ अरो ४ गलिए ॥१२॥ [पिण्डनि० १८२, व्यवहारपीठिका ४३] व्या० आधाकर्मनिमन्त्रणे सति तदाधाकर्म प्रतिशृण्वति अभ्युपगच्छति अतिक्रमो भवति, स च पात्रोद्ग्रहणादारभ्य तावद्यावन्नाद्याप्युपयोगकरणानन्तरं ग्रहणाय प्रचलति १ । पदभेदादौ च पदस्य चरणस्य भेद उत्पाटनम्, तदादौ, आदिशब्दाद् गमने गृहप्रवेशने करोटिकोत्पाटने ग्रहणाय पात्रप्रसारणे च व्यतिक्रमो दोषः २। गृहीते त्वाधाकर्मणि तृतीयोऽतिचारलक्षणो दोषः, स च तावद्यावद्वसतावागत्य गुरुसमक्षमालोच्य स्वाध्यायं कृत्वा 10 गले तदाधाकर्म नाद्यापि प्रक्षिपति ३। गलिते त्वाधाकर्मणि इतरश्चतुर्थो दोषोऽनाचारलक्षणः ४ ॥१२॥ [पृ०२७१] साम्प्रतमस्यानेकभेदभिन्नस्य भावव्रणस्य विचित्रप्रायश्चित्तभेषजेन विचिकित्सा प्रतिपाद्यते भिक्खायरिआइ सुज्झइ, अइयारो को वि विअडणाए व । बीओ अ असमिओ मि त्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ॥१३॥ __ [आव०नि० १४३९, पञ्चा० १६।१६] व्या० भिक्षाचर्यादिजः शुद्धयत्यतिचारः कश्चिद्विकटनयैव आलोचनयैवेत्यर्थः, आदिशब्दाद्विचारभूम्यादिगमनजो गृह्यते । इह चातिचार एव व्रणः, एवं सर्वत्र योज्यम् । बितिओ त्ति द्वितीयो व्रणः अप्रत्युपेक्षिते खेलविवेकादौ हा !! असमितोऽस्मीति, किमिति 20 सहसा अगुप्तो वा ? मिथ्या दुष्कृतमिति चिकित्सेत्ययं गाथार्थः ॥१३॥ सद्दाइसु रागं दोसं च मणोगओ तइयगम्मि । गाथार्द्धम् । [आव०नि० १४४०, पञ्चा० १६।१७] व्या० शब्दादिषु इष्टानिष्टेषु विषयेषु रागं वा द्वेष वा मनोगतः, तदा तृतीयो व्रणः, स आलोचनेन प्रतिक्रमणेन च चिकित्स्यते । यद्यपि दशधा प्रायश्चित्तं वर्त्तते तथापि 25 त्रिस्थानकानुरोधात् त्रिधैवोक्तम्- आलोचनाहँ १ प्रतिक्रमणार्ह २ तभयाहमिति गाथार्थः ॥ 15 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०२७५] नाणस्स केवलीणं, धम्मायरिअस्स सव्वसाहणं । माई अवण्णवाई, किब्बिसिअं भावणं कुणइ ॥१४॥ बृहत्कल्पभा० १३०२, पञ्चव० १६३६] व्या० प्रकटम्, नवरं ज्ञानस्यावर्णवादी यथाकाया वया य ते च्चिअ, ते चेव पमायमप्पमाया वा । मुक्खाहिगारिआणं, जोइसजोणीहिं किं कजं ॥१॥ [पञ्चव० १६३७] धर्माचार्यस्य- जच्चाईहिं भासई, वट्टइ न या वि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाइ अणणुकूलो सो ॥२॥ [पञ्चव० १६३९] साधूनां च- अविहसणाऽतुरिअगइ, अणाणुवत्ती इमे गुरूणं पि । खिणमित्तपीइदोसा, गिहिवच्छलयगा य संचइया ॥३॥ [पञ्चव० १६४०] माया स्वस्वभावगूहनादेः भावः, यथोक्तम् - गृहइ आयसभावं, छायइ अ गुणे परस्स संते वि । चोरु व्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहभासी ॥४॥ (पञ्चव० १६४१] इति गाथासक्षेपार्थः। विस्तरार्थं तु चतुर्थस्थानकतृतीयोद्देशकगाथाविवरणे लिखिष्यामः ॥१४॥ आचारस्य प्रथमाङ्गस्य पदविभागसामाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् प्रकल्पः आचारप्रकल्प: निशीथाध्ययनम्, स च पञ्चविधः, पञ्चविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात् तथाहितत्र केषुचिदुद्देशकेषु लघुमासप्रायश्चित्तापत्तिरुच्यते१ केषुचिच्च गुरुमासापत्तिः२, एवं लघुचतुर्मास३ गुरुचतुर्मास ४ [आरोपणाश्चेति ५ । तत्र मासेन निष्पन्नं मासिकं तपः, तच्च उद्घातो भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं लघ्वित्यर्थः ॥ यत उक्तम्-- पृ०२७६] अद्धेण छिन्नसेसं, पुव्वद्धणं तु संजुअं काउं । दिजाहि लहुअदाणं, गुरुदाणं तत्तिअं चेव ॥१५॥ व्या० एतद्भावना मासिकतपोऽधिकृत्योपदर्श्यते, मासस्य विच्छिन्नस्य वा शेषं दिनानां पञ्चदशकम्, तन्मासापेक्षया च पूर्वस्य पञ्चविंशतिकस्यार्द्ध सार्द्धद्वादशकेन संयुतं कृतम्, सार्द्धा सप्तविंशतिर्भवतीति, इदं लघुकं मासदानम्, गुरुदाणं तत्तिअंचेव त्ति गुरुमासदानं तावन्मात्रमेव, १. भासं अवण्ण माई- इति पञ्चवस्तुके । “भाषमाणोऽवर्णम्- अश्लाघारूपम् तथा मायी'' इति तत्र वृत्तौ।। २. अवण्णं विहसइ- इति पञ्चवस्तुके । “अवर्णं विभाषते” इति तत्र वृत्तौ ॥ ३. पगासवाइ अणणुलोमोपञ्चवस्तुके । 'प्रकाशवादी' इति तत्र वृत्तौ ॥ ४. अ अवि- पञ्चवस्तुके ॥ ५. पीइरोसा-पञ्चवस्तुके ॥ ६. हवइ माइ- पञ्चवस्तुके, भवति मायी-तत्रैव वृत्तौ ॥ 15 20 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशंटीकागतगाथाविवरणम् कोऽर्थः ? त्रिंशद्दिनप्रमाणमेव देयमेव, अत्रोद्घातो न कर्त्तव्यः, अयमेव लघुमास-गुरुमासयोर्विशेषः इति गाथार्थः ॥१५॥ आसायण पडिसेवी, दुविहो पारंचिओ समासेणं । एक्केक्कम्मि अ भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते ॥१६॥ [बृहत्कल्पभा० ४९७२] व्या० पाराञ्चिकः समासेन द्विविधः, तद्यथा- आशातनापाराञ्चिकः प्रतिसेविपाराञ्चिकश्च, 5 पुनरेकैकस्मिन् द्विविधा भजना कर्त्तव्या, कथम् ? इत्याह- द्वावप्येतौ सचारित्रिणौ वाऽचारित्रिणौ वा ॥१६॥ कथं पुनरेषा भजना ? इत्याह सव्वचरित्तं भस्सइ, केण वि पडिसेविएण उ पएणं । कत्थइ चिट्ठइ देसो, परिणामवराहमासज्ज ॥१७॥ [बृहत्कल्पभा० ४९७३] व्या० केनचिदपराधपदेन पाराञ्चिकापत्तियोग्येन प्रतिसेवितेन सर्वमपि चारित्रं भ्रश्यति, 10 कुत्रापि पुनश्चारित्रस्य देशोऽवतिष्ठते, कुतः? इत्याह- परिणामं तीव्र-मन्दादिरूपमपराधं चोत्कृष्टमध्यम-जघन्यरूपमासाद्य चारित्रं भवेद्वा न वा ॥१७।। इदमेव भावयति - तुल्लम्मि वि अवराहे, परिणामवसेण होइ नाणत्तं ।। कत्थइ परिणामम्मि वि, तुल्ले अवराहनाणत्तं ॥१८॥ [बृहत्कल्पभा० ४९७४] व्या० तुल्येऽप्यपराधे परिणामवशेन तीव्रमन्दाध्यवसायवैचित्र्यबलाच्चारित्रभ्रंशादौ नानात्वं 15 भवति, कुत्रचित् पुनः परिणामे तुल्येऽप्यपराधनानात्वं प्रतिसेवनावैचित्र्यं भवति ।।१८।। अथाशातनापाराञ्चिकं व्याचिख्यासुराहतित्थयर पवयण सुए, आयरिए गणहरे महिड्डीए । एते आसायंते, पच्छित्ते मग्गणा होई ॥१९॥ [बृहत्कल्पभा० ४९७५] व्या० तीर्थकरं प्रवचनं श्रुतम् आचार्यान् गणधरान् महर्द्धिकाँश्च, एतान् य आशातयति 20 तस्य प्रायश्चित्ते वक्ष्यमाणलक्षणा मार्गणा भवति ॥१९॥ पढमबितिएसु चरमं, सेसे एक्केक्क चउगुरू हति । सव्वे आसायंतो, पावति पारंचिअं ठाणं ॥२०॥ [बृहत्कल्पभा० ४९८३] गाथार्द्धम्। व्या० अथ प्रथमस्तीर्थकरो द्वितीयः सङ्घस्तयोर्देशतस्सर्वतो वा आशातनायां पाराञ्चिकम्, शेषेषु श्रुतादिषु, एकैकस्मिन् देशत आशात्यमाने चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तं भवति । अथ 25 सर्वतस्तानाशातयति ततस्तेष्वपि पाराञ्चिकं स्थानं प्राप्नोति । अत्र वृत्तिकृद्भिरन्त्यमेव पदद्वयं लिखितम्, परमर्थसङ्गतये मूलग्रन्थान्तरात् पदद्वयमाकृष्य पूर्णा गाथा लिखिता विवृता च ।।२०।। १. 'न्ति-बृहत्कल्पवृत्तौ ॥ २. "न्याशा' बृहत्कल्पवृत्तौ ।। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०२७७] पडिसेवणपारंचिअ, तिविहो सो होइ आणुपुव्वीए । दुढे अ पमत्ते आ, नेअव्वो अन्नमन्ने अ ॥२१॥ [बृहत्कल्पभा० ४९८५] व्या० प्रतिसेवनापाराञ्चिकः स इति पूर्वन्यस्तस्त्रिविधस्त्रिप्रकारः आनुपूर्व्या सूत्रोक्तपरिपाट्या भवति । तद्यथा- दुष्टः पाराञ्चिकः प्रमत्तः पाराञ्चिकोऽन्योन्यं च कुर्वाण: 5 पाराञ्चिको ज्ञातव्यः ॥२१॥ तत्र दुष्टं तावदाह दुविहो अ होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो अ विसयदुट्ठो अ । दुविहो कसायदुट्ठो, सपक्ख परपक्ख चउभंगो ॥२२॥ [बृहत्कल्पभा० ४९८६] व्या० द्विविधश्च दुष्टः भवति- कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च । तत्र कषायदुष्टो द्विविध:स्वपक्षदुष्टः परपक्षदुष्टश्च । अत्र चतुर्भङ्गी, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्, तद्यथा- स्वपक्षः स्वपक्षे 10 दुष्टः१, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः२, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः३, परपक्षः परपक्षे दुष्टः ४ ॥२२॥ लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जो णिगच्छई पावो । सव्वजिणाणऽज्जाओ, संघो आसाइओ तेण ॥२३॥ [बृहत्कल्पभा० ५००८] व्या० लिङ्गेन रजोहरणादिना युक्तो लिङ्गिन्याः संयत्याः संपत्तिं यदि अधमतया कथमपि कश्चित् पापो नियच्छति प्राप्नोति, तर्हि तेन पापेन सर्वजिनानां आर्याः संयत्यः सङ्घश्च 15 भगवानाशातितो मन्तव्यः ॥२३।। पावाणं पावयरो, दिट्टिब्भासे वि सो न कप्पति हु ।। जो जिणपंगवमुदं, नमिऊण तमेव धरिसेड़ ॥२४॥ बृहत्कल्पभा० ५००९] व्या० पापानां सर्वेषामपि स पापतरः, अत एव लोचनस्याभ्यासेऽपि समीपेऽपि कर्तुं स न वर्त्तते न कल्पते यो जिनपुङ्गवमुद्रां श्रमणीं नत्वा तामेव धर्षयति ॥२४॥ 20 संसारमणवयग्गं, जाइजरामरणवेअणापउरं । पावमलपडलच्छन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेणं ॥२५॥ [बृहत्कल्पभा० ५०१०] व्या० संसारम् अनवदग्रम् अपर्यन्तं जातिजरामरणवेदनाप्रचुरं पापमलपटलच्छन्ना मुद्राधर्षणेन परिभ्रमन्ति ॥२५॥ प्रतिसेवनापाराञ्चिकमाह जो अ सलिंगे दुट्ठो, कसायविसएहिं रायवहगो अ । 25 रायग्गमहिसिपडिसेवओ अ बहुसो पयासो अ ॥२६॥ [ ] व्या० इह प्रतिसेवनापाराञ्चिकस्त्रिधा-दुष्टो मूढोऽन्योन्यं कुर्वाणश्च । यश्च दुष्टः स द्विधाकषायतो विषयतश्च, पुनरेकैको द्विधा सलिंगे त्ति समानलिङ्गे स्वपक्षे श्रमण-श्रमणीरूपे, १. जइ- बृहत्कल्पभाष्ये ॥ २. वदृति- बृहत्कल्पभाष्ये ॥ ३. एव दृष्टेः लो बृहत्कल्पवृत्तौ ।। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् १५१ चकारात् परलिङ्गे च परपक्षे गृहस्थेऽन्यतीर्थिके वा । ततश्च स्वपक्ष-परपक्षाभ्यां कषायदुष्टे विषयदुष्टे च चत्वारो विकल्पा भङ्गा भवन्ति । तत्रैवं कषायदुष्टे भङ्गचतुष्टयम्- स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्टश्चेत्येको भङ्गः, स्वपक्षकषायदुष्टो न परपक्षकषायदुष्ट इति द्वितीयः, न स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्ट इति तृतीयः, उभाभ्यामपि न दुष्ट इति चतुर्थः शुद्धो भङ्गः। तत्र स्वपक्षकषायदृष्टे चत्वारि उदाहरणानि- सासवनाले मुहणंतए य सिहरिणी उलूगच्छी य। 5 [ ] सासवनाल त्ति सर्षपभर्जिका । साधुः कोऽपि गतो भिक्षाम्, लब्ध्वा सर्षपभर्जिकाम् । रुच्यां सुसंस्कृतां गृद्धोऽप्याचार्याणामढौकयत् १। भुक्ता सर्वाऽपि साऽऽचार्यैः साधुश्चाक्रोशयत् स तान् । ततस्तैः क्षमितोऽप्युच्चैरूचे भक्ष्यामि ते रदान् २॥ गुरुणाऽचिन्ति- मां सैष मा वधीदसमाधिना । स्वगणेष्वन्यमथाचार्यं कृत्वाऽगात् स गणान्तरे ३ ॥ मृतश्चानशनात्तत्र, सोऽथ दुष्टोऽवदन्मुनीन् । गुरवः क्वागमन्नूचे तैः न विद्मोऽन्यतोऽथ सः ४॥ ज्ञात्वा तत्रागमत्तांश्चापृच्छत् साधून गुरुः क्व मे ? । तैरूचेऽद्य मृतस्त्यक्तः श्मशानेऽस्ति च तद्वपुः ५।। गत्वा तत्राथ तद्दन्तान् सम्भक्ति च प्रवक्ति च । खादिष्यसि पुनः किं मे रुच्यां सर्षपभर्जिकाम् ? ६॥ अन्यः कोऽपि मुनिर्लब्ध्वा मुखानन्तकमुज्ज्वलम् । गुरोरढौकयत् तच्चाददे तैः सोऽपि रुष्टवान् ७॥ तदथाऽर्पयतोऽप्यस्य नाददे किं पुनर्निशि । तल्लास्यसीति जल्पन् स गुरुं गाढं गलेऽग्रहीत् ८॥ स मूढो गुरुरप्येनं ततो द्वावपि तौ मृतौ । साधुना केनचित् क्वापि लब्धा शिखरिणी शुभा ९।। तयाऽभिमन्त्रितस्तेन गुरुस्तां निखिला पपौ । तं सोऽथाऽश्मानमुद्गीर्य हिंसन्नन्यैर्यवार्यत १०॥ तथाप्यनुपशान्ते च तस्मिन्ननशनं गुरुः । स्वगच्छ एव विदधे नान्यं गच्छं जगाम सः ११॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १५२ अस्तङ्गतेऽपि कोऽप्यर्के सीव्यन् गुरुभिरौच्यत । उलूकाक्षोऽसि भिक्षो ! त्वं स रुष्टो गुरुमूचिवान् १२ ॥ तदेवं तावके द्वे अप्यक्षिणी उद्धराम्यहम् । अथासौ गुरुणा गाढं क्षमितोऽपि न शान्तवान् १३ ॥ ततो रजोधृतां लोहमयीमाकृष्य कीलिकाम् । रोषाध्मातः स दुष्टात्मा समुद्दधेऽक्षिणी गुरोः १४ ॥ एते चत्वारोऽपि साधवो दुष्टत्वाल्लिङ्गपाराञ्चिकाः । परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधक उदायिनृपमारकवत् । विषयदुष्टे चैवं भङ्गचतुष्टयम् - स्वलिङ्गी स्वलिङ्गिनीं साध्वीं सेवते १, स्वलिङ्गी गृहिलिङ्गिनीं स्त्रियम् २, स्वलिङ्गी अन्यलिङ्गिनीं परिव्राजिकादिकाम् ३, अन्यलिङ्गी 10 चान्यलिङ्गामिति शून्योऽयं भङ्गः । तत्राद्यो विषयदुष्ट: पावाणं पावयरो, दिट्ठिsoभासे वि सो न कायव्वो । 20 वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे जो जिणमुदं समणिं, नमिऊण तमेव धरिसे ||१|| [बृहत्कल्पभा० ५००९ ] द्वितीयो विषयदुष्टः बहुश: पौनःपुन्येन प्रकाशो लोकविदितो राजग्रमहिषीप्रतिसेवकः । अग्रमहिषीग्रहणादन्याऽपि या काचिदिष्टा राज्ञस्तत्सेवकस्य च चशब्दाद्युवराजसेनापत्याद्यग्र15 महिषीप्रतिसेवकश्च, द्वावप्येतौ लिङ्गपाराञ्चिकौ । तृतीयविषयदुष्टस्याप्यतिशयी लिङ्गं दद्यान्नान्यः, अनतिशय तु तस्य लिङ्गपाराञ्चिकमेव दत्त इत्यर्थः । अत्राह शिष्यः - सामान्यस्त्रीसेवकः साधुः किमपाराञ्चिकः?, उच्यते - बह्वपाया राजाद्यग्रमहिष्यः, तत्सेवने कुल-गण-सङ्घाचार्याणां प्रस्तारः संहाररूपो निर्विषयता वा स्यात्, इतरस्त्रीषु पुनर्व्रतभङ्ग एव दोषः, दोषवत एवैकस्यापाय इति तस्य मूलम् ॥२६॥ अवि केवलमुप्पाडे, ण य लिंगं देइ अणइसेसी से । " देसवय दंसणं वा, गेह अणिच्छे पलायंति ||२७|| [बृहत्कल्पभा० ५०२४] व्या० अपिः सम्भावने, स चैतत् सम्भावयति - यद्यपि तेनैव भवग्रहणेन केवलमुत्पादयति, तथापि से तस्य स्त्यानर्द्धिमतो लिङ्गमनतिशयी न ददाति यः पुनरतिशयज्ञानी स जानातिन भूय एतस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो भविष्यति, ततो लिङ्गं ददाति, इतरथा न ददाति । लिङ्गापहारे 25 पुनः क्रियमाणेऽयमुपदेशो दीयते - देशव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि गृहाण, तानि चेत् प्रतिपत्तुं न समर्थस्ततो दर्शनं सम्यक्त्वं गृहाण, अथैवमप्यनुनीयमानो लिङ्गं मोक्तुं नेच्छति तदा रात्रौ तं सुप्तं मुक्त्वा पलायन्ते देशान्तरं गच्छन्ति ॥२७॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् आसयपोसयसेवी, केवि मणूसा दुवेअगा होति । तेसिं लिंगविवेगो, बितियपयं रायपव्वइते ॥२८॥ [बृहत्कल्पभा० ५०२६] व्या० आस्यं मुखम्, आस्यमेवास्यकम्, पोसकः पायुः, आस्यक-पोसकाभ्यां सेवितुं शीलमेषाम् इत्यास्यकपोसकसेविनः केचित् पुरुषाः साधवो द्विवेदकाः स्त्रीपुरुषवेदयुक्ता भवन्ति, नपुंसकवेदिन इत्यर्थः, तेषां लिङ्गविवेकः कर्त्तव्यः । द्वितीयपदमत्र भवति- यो 5 राजा प्रव्रजितः, तस्याऽऽस्यक-पोसकसेविनोऽपि लिङ्गं नापह्रियते, परं यतनया स परित्यज्यते ॥२८॥ [पृ०२७८] उक्कोसं बहुसो वा, पदुट्ठचित्तो व तेणियं कुणइ । पहरइ य जो सपक्खे, निरवेक्खो घोरपरिणामो ॥२९॥ व्या० प्रदुष्टचित्तः, प्रदुष्टं द्वेषयुक्तं चित्तं यस्य स प्रदुष्टचित्तः बहुशोऽनेकवारं तेणियं 10 ति स्तैन्यं चौर्यं करोति उत्कृष्टं यथा स्यात्, कोऽर्थः? साधर्मिकाणां साधूनां सत्कस्योत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वाऽथवा अन्यधार्मिकाः शाक्यादयो गृहस्था वा, तेषां सत्कस्योपध्यादेश्चौर्यं करोति । च पुनर्यः स्वपक्षे परपक्षे वा निरपेक्षो घोरपरिणाम: प्रहरति, कोऽर्थः? यष्टि-मुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष आत्मनः स्वस्य परस्यात्मनोऽन्यस्य प्रहरति, एतादृशो यः सोऽनवस्थाप्यः। आसेविताचारविशेषः सन्ननाचरिततपोविशेषस्तद्दोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु 15 नावस्थाप्यते । अनवस्थाप्यं तदतिचारजातं तच्छुद्धिरपि वाऽनवस्थाप्ययमुच्यते ॥२९॥ महिलासहावो सरवण्णभेओ, मेंढं महंतं मउई अ वाया । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च, एआणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥३०॥ [बृहत्कल्पभा० ५१४४, निशीथभा० ३५६७] व्या० महिलास्वभाव इति महिलास्वभावत्वं पण्डकस्यैकं लक्षणम्, गतिः स्त्रीवद् मन्दा 20 च सविभ्रमा भवति, पार्श्वतः पृष्ठतश्च प्रत्यवलोकितं कुर्वन् गच्छति, शरीरस्य च त्वक् मृद्वी भवति, शीतलगात्रता चाङ्गोपाङ्गानां शीतलः स्पर्शो भवति, यथा स्त्री तथा शनैस्सविकारं गच्छति, स्त्रीवद्भाषां भाषते, तथा वस्त्रं यथा स्त्री तथा परिधत्ते शिरो वा वस्त्रेण स्थगयति, हस्तौ कपोलयोर्विन्यस्य जल्पति, अभीक्ष्णं च कटीभङ्गं करोति, पृष्ठं वस्त्रेण सुस्थगितं करोति, भाषमाणश्च सविभ्रम भ्रूयुगमुत्क्षिपति भूरोमाणि वा स्त्रीसदृशानि, स्त्रीवत् केशानामोटयति, 25 महिलानामलङ्कारानपिनाति, प्रच्छन्ने च प्रदेशे मजनानि स्नानादीनि करोति, प्रच्छन्नतरं नीहार १. केवि पुरिसा-बृहत्कल्पभाष्ये ॥ २. प्रवचनसारोद्धार [७९४] गाथाया वृत्तावपि उद्धृतेयं गाथा व्याख्याता च ॥ ३. अत्र बृहत्कल्पभाष्यस्य ५१४४-५१४५-५१४६-५१४७ गाथानां टीकातः सम्पिण्ड्यार्थोऽत्र लिखितः।। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे उच्चार-प्रसवणात्मकस्तेन क्रियते, पुरुषमध्ये भीरुः सभयः शङ्कमान आस्ते, महिलासु सङ्करस्संमीलनशीलो निःशङ्को निर्भयस्तिष्ठति, स्त्रीणां यत् कर्म कंडन-दलन-पचनपरिवेषणोदकाहरण-प्रमार्जनादिकम्, तत् स्वयमेव करोतीति, इति महाग्रन्थान्महिलास्वभावत्वं लिखितम् । तथा स्वर-वर्णभेदः, स्वरभेदो नाम पुरुषस्य स्त्रियाश्च स्वरात् विलक्षणस्तस्य 5 स्वरो भवति, वर्ण: शरीरसम्बन्धी, उपलक्षणत्वाद् गन्ध-रस-स्पर्शाश्च स्त्री-पुरुषापेक्षया विलक्षणास्तस्य भवन्तीत्यर्थः । मेण्द्रं पुरुषचिह्नं महद्भवति, मृद्वी च वाणी ललनाया इव सञ्जायते, तथा स्त्रिया इव सशब्दं मूत्रं जायते, फेनरहितं च तद्भवति, एतानि षट् पण्डकलक्षणानि भवन्ति ॥३०॥ [पृ०२७९] जिणवयणे पडिकुटुं, जो पव्वावेइ लोभदोसेणं । 10 चरणट्ठिओ तवस्सी, लोवेइ तमेव उ चरित्तं ॥३१॥ [निशीथभा० ३७४५] __ व्या० जिनवचनप्रतिक्रुष्टं प्रतिषिद्धं यः प्रव्राजयेत्, पूर्वोक्तस्वरूपं पुरुषमिति शेषः, लोभदोषेण चरणस्थितस्तपस्वी, स लोपयति तदेव जिनवचनं तु पुनश्चारित्रम् ॥३१॥ बाले वुड्ढे नपुंसे अ, जड्डे कीवे अ वाहिए । तेणे रायावगारी अ, उम्मत्ते अ अदंसणे ॥३२॥ ___15 दासे दुढे अ मूढे अ, अणत्ते जुगिए इअ ।। ओबद्धए अ भयए, सेहनिप्फेडिआ इअ ॥३३॥ [पञ्चकल्पमहाभाष्य० गा० २००-२०१, प्रवचनसारो० ७९०-७९१] गुठ्विणी बालवच्छा य, पव्वावेउं न कप्पइ। गाथार्द्धम् ।। [निशीथभा० ३५०६-३५०८] व्या० जन्मत आरभ्य अष्टौ वर्षाणि यावद् बालोऽत्राभिधीयते, स किल गर्भस्थाने 20 नव मासान् सातिरेकान् गमयति, जातोऽप्यष्टौ वर्षाणि यावद्दीक्षां न प्रतिपद्यते, वर्षाष्टकादधो वर्तमानस्य सर्वस्यापि तथास्वाभाव्याद्देशतः सर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तेरभावात् । अन्ये तु गर्भाष्टमवर्षस्यापि दीक्षां मन्यन्ते । भगवद्वज्रस्वामिना व्यभिचार इति चेत्, तथाहि-भगवान् वज्रस्वामी पाण्मासिकोऽपि भावतः प्रतिपन्नसर्वसावधविरतिः श्रूयते, तथा च सूत्रम्- छम्मासिअं छसु जयं, माऊय समन्निअं वंदे [आव०नि० ७६४] । सत्यमेतत्, किन्त्वियं शैशवेऽपि 25 भगवद्वज्रस्वामिनो भावतश्चरणप्रतिपत्तिराश्चर्यभूता कादाचित्कीति न तया व्यभिचारः । ततो वर्षाष्टकादधः परिभवक्षेत्रत्वाच्चरणपरिणामाभावाच्च न दीक्ष्यते इति । अन्यच्च- बालदीक्षणे १. जिणवयणपडिकुडे-निशीथभाष्ये ॥ २. एतत्स्थाने 'जे अट्ठारस भेया पुरिसस्स तहित्थियाए ते चेव । गुब्विणी सबालवच्छा दुन्नि इमे हुँति अन्ने वि ॥७९२।।' इति प्रवचनसारोद्धारे गाथा वर्तते ॥ ३. तुलना-धर्मबिन्दुवृत्ति: ५।३३ । ४. 'तुंबवणसन्निवेसाओ निग्गय पिउसगासमल्लीणं ।' इति पूर्वार्धम् ॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशकटीकागतगाथाविवरणम् १५५ संयमविराधनादयो दोषाः, स हि अयोगोलकसमानो यतो यतः स्पन्दते ततस्ततोऽज्ञानित्वात् षड्जीवनिकायवधाय भवति, तथा निरनुकम्पा अमी श्रमणा यदेवं बालानपि बलाद्दीक्षाकारागारे प्रक्षिप्य स्वच्छन्दतामुच्छिन्दन्तीति जननिन्दा, तत्परिचेष्टायां च मातृजनोचितायां क्रियमाणायां स्वाध्यायपलिमन्थः स्यादिति । तथा सप्ततिवर्षेभ्यः परतो वृद्धो भण्यते, अन्ये त्वाहुःअर्वागपीन्द्रियादिहानिदर्शनात् षष्टिवर्षेभ्य उपरि वृद्धोऽभिधीयते, तस्यापि च समाधानं कर्तुं 5 दुस्सहम्, यदुक्तम् उच्चासणं समीहइ, विणयं न करेइ गव्वमुव्वहइ । वुड्डो न दिक्खिअव्वो, जइ जाओ वासुदेवेण ॥१॥ [ ] इत्यादि । इदं च वर्षशतायुष्कं प्रति द्रष्टव्यम्, अन्यथा यद् यस्मिन् काले उत्कृष्टमायुस्तद्दशधा विभज्याऽष्टमनवमदशमभागेषु वर्तमानस्य वृद्धत्वमवसेयम् । तथा स्त्रीपुंसोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः 10 पुरुषो नपुंसकः, सोऽपि बहुदोषकारित्वाद्दीक्षितुमनुचितः । तथा स्त्रीभिर्भोगैर्निमन्त्रितोऽसंवृताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्टवा शब्दं वा मन्मथोल्लापादिकं तासां श्रुत्वा समुद्भूतकामाभिलाषोऽधिसोढुं यो न शक्नोति, स पुरुषाकृतिः पुरुषः क्लीबः, सोऽप्युत्कटवेदोदयाद्बलात्कारेणालिङ्गनादि कुर्यात्तत उड्डाहादिकारित्वाद्दीक्षाया अनोऽत एव । तथा जड्डस्त्रिविधो-भाषया शरीरेण करणेन च, भाषाजड्डः पुनस्त्रिविधो-जलमूको मन्मनमूक एलाकामूकश्च, तत्र जलमग्न इव बुडबुडायमानो 15 यो वक्ति स जलमूकः, यस्य तु वदतः खञ्च्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः, यश्चैलक इवाव्यक्तमूकतया शब्दमात्रमेव करोति स एलाकामूकः । तथा य: पथि भिक्षाऽटने वन्दनादिषु चाऽतीव स्थूलतया अशक्तो भवति स शरीरजड्डः, करणं क्रिया, तस्यां जड्ड: समिति-गुप्तिप्रतिक्रमण-करणजड्डः, प्रत्युपेक्षणा-संयमपालनादिक्रियां पुन: पुनरुपदिश्यमानामप्यतीव जड्डतया यो ग्रहीतुं न शक्नोति स करणजड्ड इत्यर्थः । तत्र भाषाजड्डस्त्रिविधोऽपि ज्ञानग्रहणेऽसमर्थत्वान्न 20 दीक्ष्यते, शरीरजड्डस्तु मार्गगमन-भक्त-पानाद्यानयनादिष्वसमर्थो भवति, तथाऽतिजड्डस्य प्रस्वेदेन कक्षादिषु कुथितत्वं भवति, तेषां जलेन क्षालनादिषु क्रियमाणेषु कीटिकादीनां प्राणिनां प्लावना सम्पद्यते, ततस्संयमविराधना, तथा लोको निन्दा करोति-असौ बहुभक्षकः, कथमन्यथा एवंविधं स्थूलत्वमेतस्य मुण्डितकस्येति, तथा तस्योर्ध्वश्वासो भवति अपरिक्रमश्च सर्प-जल-ज्वलनादिषु समीपमागच्छत्सु स भवति, ततोऽसौ न दीक्षणीयः । तथा करणजड्डोऽपि समिति-गुप्त्यादीनां 25 शिक्ष्यमाणोऽप्यग्राहकत्वान्न दीक्षणीय इति । तथा वाहिए त्ति भगन्दरा-ऽतिसार-कुष्ठप्लीहकार्श (W)-कास-ज्वरादिरोगग्रस्तो व्याधितः, सोऽपि न दीक्षार्हस्तच्चिकित्सने १. मन्मनोल्ला' प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ॥ २. तुलना-पारिष्ठापनिकानिर्युक्तौ गा० २०, आवश्यकहारिभद्रीवृत्तिः, निशीथभा. ३६२५ तः ॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे षट्कायविराधना स्वाध्यायादिहानिश्च । तथा क्षत्रखनन-मार्गपातनादिचौर्यनिरतः स्तेनः, सोऽपि गच्छस्य वध-बन्धन-ताडनादिनानाविधानर्थनिबन्धनतया दीक्षाऽनर्ह एव । तथा श्रीगृहा-ऽन्तःपुरनपतिशरीर-तत्पुत्रादिद्रोहविधायको राजापकारी, चः समुच्चये, तद्दीक्षणे रुष्टराजकृता मारणदेशनिस्सारणादयो दोषा भवन्ति । तथा यक्षादिभिः प्रबलमोहोदयेन वा परवशतां नीत उन्मत्तः, सोऽपि न दीक्षाऽर्हः, यक्षादिभ्यः प्रत्यवायसम्भवात् स्वाध्याय-ध्यान-संयमादिहानिप्रसङ्गाच्च । तथा न विद्यते दर्शनं दृष्टिरस्येत्यदर्शनोऽन्धः, स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवानप्यत्र द्रष्टव्यः, न विद्यते दर्शनं सम्यक्त्वमस्येति व्युत्पत्तेः, अयं च दीक्षितस्सन् दृग्विकलतया यत्र तत्र वा सञ्चरन् षट्कायान् विराधयेत्, विषमकीलकण्टकादिषु च प्रपतेत्, स्त्यानर्द्धिस्तु प्रद्विष्टो गृहिणां साधूनां च मारणादि कुर्यात्। तथा गृहदास्याः सञ्जातो दुर्भिक्षादिष्वर्थादिना वा क्रीतो ऋणादिव्यतिकरे 10 वाऽवरुद्धो दास उच्यते, तस्यापि दीक्षादाने तत्स्वामिकृता उत्प्रव्राजनादयो दोषाः । तथा दुष्टो द्विधा- कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च, तत्र गुरुगृहीतसर्षपभर्जिकाव्यतिकराभिनिविष्टसाध्वादिवदुत्कटकषायः कषायदुष्टः, अतीव परयोषिदादिषु गृद्धो विषयदुष्टः, सोऽपि दीक्षाऽनर्होऽतिसक्लिष्टाध्यवसायत्वात्। तथा स्नेहादज्ञानादिपरतन्त्रतया यथावस्थितवस्त्वधिगमशून्यमना मूढः, सोऽपि ज्ञानविवेकमूलायामार्हतदीक्षायां नाधिक्रियते, अज्ञानत्वात् कृत्यादिविवेकविकलत्वात् च । तथा 15 यो राज-व्यवहारिकादीनां हिरण्यादिकं धारयति स ऋणातस्तस्य दीक्षादाने राजादिकृता ग्रहणाकर्षणकदर्थनादयो दोषाः । तथा जाति-कर्म-शरीरादिभिर्दूषितो जुङ्गितस्तत्र मातङ्गकोलिक-वरुड-सूचिक-छिम्पादयोऽस्पृश्या जातिजुङ्गिताः स्पृश्या अपि स्त्री-मयूर-कुर्कुटशुकादिपोषका वंश-वरत्रारोहण-नखप्रक्षालन-सौकरिकत्व-वागुरिकत्वादिनिन्दितकर्मकारिण: कर्मजुङ्गिताः, कर-चरण-कर्णादिवर्जिताः कुब्ज-वामनक-काणकप्रभृतयः शरीरजुङ्गितास्तेऽपि न 20 दीक्षार्हाः, लोकेऽवर्णवादसम्भवात् । तथाऽर्थग्रहणपूर्वकं विद्यादिग्रहणनिमित्तं वा एतावन्ति दिनानि त्वदीयोऽहम् इत्येवं येनात्मनः परायत्तता कृता भवति सोऽवबद्धकः, सोऽपि न दीक्षाऽर्हः कलहादिदोषसम्भवात् । तथा रूप्यकादिमात्रया वृत्त्या धनिनां गृहे दिनपाटिकादिमात्रेण तदादेशकरणाय प्रवृत्तो यः स भृतकः, सोऽपि न दीक्षोचितः, यस्यासौ वृत्तिं गृह्णाति स दीक्ष्यमाणे तस्मिन् महतीमप्रीतिमादधाति । तथा शैक्षस्य दीक्षितुमिष्टस्य निस्फेटिका अपहरणं शैक्षनिस्फेटिका, 25 तद्योगाद्यो मातापित्रादिभिरमुत्कलितोऽपहृत्य दीक्षितुमिष्यते सोऽपि शैक्षनिस्फेटिका, सोऽपि न दीक्षोचितः, मातापित्रादीनां कर्मबन्धसम्भवाददत्तादानादिदोषप्रसङ्गाच्च। इत्येतेऽष्टादश पुरुषस्य पुरुषाकारवतो दीक्षानर्हभेदा इति । येऽष्टादश भेदाः पुरुषेष्वदीक्षणार्हा उक्तास्तथा तेनैव प्रकारेण स्त्रिया अपि त एव भेदा अष्टादश विज्ञेयाः । अयमत्राशयः-यथा पुरुषाकारवतस्तथा स्त्रीजनाकारवतोऽपि व्रतायोग्या बालादयोऽष्टादश भेदास्तावन्त एव, अन्यौ च द्वाविमावधिको Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् भवतः, यथा-गुर्विणी सगर्भा, सह बालेन स्तनपायिना वत्सेन वर्त्तत इति सबालवत्सा। एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभेदा व्रतायोग्याः । दोषा अप्यत्र पूर्ववद्वाच्याः ॥३२-३३।। “पव्वाविओ सिय त्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽणिवारिता दोसा ॥५१९०॥ स पण्डकः स्यात् कदाचिदनाभोगादिना प्रव्राजितो भवेत्, इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शार्थः। 5 एवं प्रवाजितोऽपि यदि पश्चाद् ज्ञातस्तदा सेसं पणगं ति विभक्तिव्यत्ययात् शेषपञ्चकस्य मुण्डापनादिलक्षणस्यानाचरणयोग्यः, न तद् आचरणीयमिति भावः । अथ लोभाद्यभिभूततया तदपि समाचरति तत: पूर्वस्मिन् प्रव्राजनाख्ये पदे ये प्रवचनापयशःप्रवादादयो दोषा उक्तास्ते अनिवारिताः, तदवस्था एव मन्तव्या इति भावः ।" इति बृहत्कल्पभाष्यस्य क्षेमकीर्तिसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ 10 [पृ०२८०] इहरह वि ताव थब्भइ, अविणीओ लंभिओ किमु सुएणं । मा णट्ठो नासिहिई, खए व खारावसेगो उ ॥३४॥ [बृहत्कल्पभा० ५२०१] व्या० इतरथाऽपि श्रुतप्रदानमन्तरेणापि तावदविनीतः स्तभ्यते स्तब्धो भवति, किं पुनः श्रुतेन लम्भितस्सन् ?, महिमानमिति शेषः । अतः स्वयं नष्टोऽसावन्यानपि मा नाशयिष्यति, क्षते वा क्षारावसेको मा भूदिति कृत्वा नासौ वाचनीयः ॥३४॥ अपिच 15 गोजूहस्स पडागा, सयं पलायस्स वड्डइ अ वेगं । दोसोदए य समणं, न होइ न नियाणतुल्लं वा ॥३५॥ [बृहत्कल्पभा० ५२०२] व्या० इह गोपालको गवामग्रतो भूत्वा यदा पताकां दर्शयति तदा ताः शीघ्रतरं गच्छन्तीति श्रुतिः, ततो गोयूथस्य स्वयं प्रयातस्य यथा पताका वेगं वर्द्धयति, तथा दुर्विनीतस्यापि श्रुतप्रदानमधिकतरं दुर्विनयं वर्द्धयति । यथा दोषाणां रोगाणामुदये चः समुच्चये, शमनम् 20 औषधं न दीयते, यतश्च निदानादुत्थितो व्याधिस्तत्तुल्यं तत्सदृशमेव वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते । यद्वा दोषोदये दीयमानं शमनं न न निदानतुल्यं भवति, किन्तु भवत्येव, ततो न दातव्यम् । एवमस्यापि दुर्विनयदोषभरे वर्तमानस्य श्रुतौषधमहितमिति कृत्वा न दातव्यम् ॥३५।। विणयाहीआ विजा, देई फलं इह परे अ लोगम्मि । न फलंतऽविणयगहिआ, सस्साणि व तोयहीणाई ॥३६॥ [बृहत्कल्पभा० ५२०३] 25 व्या० विनयेनाधीता विद्या इह परत्र च लोके फलं ददति जनपूजनीयता-यशःप्रवाद-लाभादिकमैहिकं निःश्रेयसादिकं चामुष्मिकं फलं ढोकयन्तीति । विनयहीनास्तु ता अधीता न फलन्ति, सस्यानीव तोयहीनानि यथा जलमन्तरेण धान्यानि न फलन्ति ॥३६॥ १. देति- बृहत्कल्पभाष्ये ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अतवो न होइ जोगो, न य फलए इच्छिअं फलं विज्जा । अवि फलति विउलमगुणं, साहणहीणा जहा विजा ||३७|| [बृहत्कल्पभा० ५२०६] व्या० अतपाः तपसा विहीनो योगः श्रुतस्योद्देशनादिव्यापारो न भवति, न च तपसा विना गृह्यमाणा विद्या श्रुतज्ञानरूपा ईप्सितं मनोऽभिप्रेतं फलं फलति, अपीत्यभ्युच्चये, प्रत्युत 5 विपुलमगुणमनर्थं फलति, यथा साधनहीना विद्या, यस्याः प्रज्ञप्तिप्रभृतिकाया विद्याया उपवासादिको यः साधनोपचारः सा तमन्तरेण गृह्यमाणेति भावः ||३७|| 10 १५८ 20 अथ अव्यवशमितप्राभृतं व्याचष्टे अप्पे व पारमाणिं, अवराहे वयड़ खामिअं तं च । बहुसो उदीरयंतो, अविओसिअपाहुडो स खलु ||३८|| [बृहत्कल्पभा० ५२०७] व्या- अल्पेऽपि परुषभाषणादावपराधे पारमाणिं परमं क्रोधसमुद्घातं यो व्रजति, तच्च अपराधजातं क्षामितमपि यो बहुश उदीरयति, स खल्वव्यवशमितप्राभृत उच्यते ॥ ३८ ॥ अस्य वाचने दोषानाह दुविहो उ परिच्चाओ, इह चोयण कलह देवयाछलणं । परलोगम्मि अ अफलं, खित्तंमि व ऊसरे बीयं ||३९|| [बृहत्कल्पभा० ५२०८ ] 15 व्या० दुर्विनीतादेरपात्रस्य वाचनादाने द्विविधः परित्यागः इह-परलोकभेदाद् भवति । तत्रेहलोकपरित्यागो नाम स यदि स्मारणादिना प्रेर्यते तदा कलहं करोति, अपात्रवाचनेन च प्रमत्तं प्रान्तदेवता छलयेत्, परलोके तु परित्यागस्तस्य श्रुतदानमफलं सुगतिबोधिलाभादिकं पारत्रिकं फलं न प्रापयति, ऊषर इव क्षेत्रे बीजमुप्तं यथा निष्फलं भवति ॥ ३९ ॥ [पृ०२८१] पुव्वं वुग्गाहिआ केइ, बाला पंडियमाणिणो । नेच्छति कारणं सोउं, दीवजाए जहा नरे ||४०|| [बृहत्कल्पभा० ५२२४] व्या० पूर्वं व्युद्ग्राहिताः केचिन्नराः पण्डितमानिनो नेच्छन्ति कारणं किञ्चिच्छ्रोतुं द्वीपजातो यथा नर इति गाथार्थः ॥४०॥ द्वीपजातो नरो यथा - एको वणिक्, तस्य भार्या अतीवेष्टा, तेन पोतव्यवहारे गन्तुकामेन साऽप्रच्छि, तयोक्तमहमपि सहागच्छामि, तेन सा सहानीता, सा च गुर्विणी, समुद्रमध्ये विनष्टं 25 यानपात्रम्, फलकं विलग्ना अन्तरद्वीपे प्राप्ता तत्रैव प्रसूता दारकम् । स वणिग् मृतस्समुद्रे । सा च यौवनप्राप्तं स्वपुत्रमेव सम्प्रलग्ना, तया च स व्युद्ग्राहितः, यदुत यदा मानुषमीक्षेथास्तदा नश्येः, ते मनुष्यरूपेण हि राक्षसा इति । अन्यदा दुर्वातभग्नपोताः केचन वणिजस्समागताः, स तान् दृष्ट्वा नश्यति, तैर्ज्ञातम् अयं व्युद्ग्राहितः केनापि, कथमपि पृष्टस्तेन सर्वं प्रत्यादि । १. किंची - बृहत्कल्पभाष्ये ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् तैरुक्तं त्यज महापापम्, बहूक्तोऽपि पूर्वं मात्रा व्युद्ग्राहितत्वेन न मानितं तद्वचनम् । एवं यः कुप्रवचनव्युद्ग्राहितः स स्वं पण्डितम्मन्यो न मन्यते किमपीत्यर्थः ॥ पुक्खरवरदीवटुं, परिक्खिवइ माणुसुत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवो, विभयंतो माणुसं लोगं ॥४१॥ [द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसं० १] व्या० पुष्करैः पौर्वरः प्रधान: पुष्करवरः, स चासौ द्वीपश्च पुष्करवरद्वीपः, तस्यार्द्धं 5 पुष्करवरद्वीपार्द्धम्, परिक्षिपति मानुषोत्तरः शैलः, मानुषस्य मानुषक्षेत्रस्य सीमाकारितया उत्तरः परो मानुषोत्तरः प्राकारसदृशरूपो मनुष्यलोकं विभजन् वर्त्तत इति शेषः ॥४१।। सम्प्रत्यस्योच्छ्रयादिपरिमाणमाह सत्तरस एगवीसाइं, जोअणसयाई सो समुव्विद्धो । चत्तारि अ तीसाइं, मूले कोसं च ओगाढो ॥४२॥ [द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसं० २] 10 व्या० सप्तदश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि [१७२१] समुद्विद्धः समुच्छ्रितः, चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि क्रोशं चैकं मूले अवगाढः अधो भूमौ निमग्नः ४३० क्रो०१ ॥४२॥ दस बावीसाइ अहे, विच्छिण्णो होइ जोअणसयाई । सत्त य तेवीसाइं, विच्छिण्णो होइ मज्झम्मि ॥४३॥ [द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसं० ३] 15 व्या० दश योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकानि १०२२ अधो भूतले विस्तीर्णः, सप्त योजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ७२३ विस्तीर्णो मध्यभागे ॥४३।। चत्तारि अ चउवीसे, वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अड्डाइज्जे दीवे, दो अ समुद्दे अणुपरीई ॥४४॥ [द्वीपसागरप्र० ४] व्या० चत्वारि योजनशतानि चतुर्विंशत्यधिकानि ४२४ उपरि विस्तीर्ण: शेषं सुगमम् 20 ॥४४॥ द्वीपनामान्यमूनि जंबुद्दीवो १, धायइ २, पुक्खरदीवो अ ३ वारुणिवरो ४ अ । खीरवरो वि अ दीवो ५, घयवरदीवो ६ अ खोअवरो ७ ॥४५॥ [पृ०२८२] नंदीसरो ८ अ अरुणो ९, अरुणोववाओ १० अ कुंडलवरो ११ अ । तह संख १२ रुअग १३ भुअवर १४, कुस १५ कुंचवरो १६ तओ दीवो ॥४६॥ 25 [बृहत्सङ्ग्रहणी ८२-८३] व्या० पूर्वं जम्बूद्वीप: १, धातकीखण्ड: २, पुष्करवरद्वीप: ३, च पुनर्वारुणीवरः ४, क्षीरवरः अपि च द्वीपः ५, घृतवरद्वीपश्च ६, क्षोदवरः ७। नन्दीश्वरश्च ८, अरुण: ९, अरुणोपपातः १०, कुण्डलवरः ११, तह शखः १२, रुचकः १३, भुजवरः १४, कुशः १५, १. इक्षुवर:- बृहत्सङ्ग्रहणीवृत्तौ । २. भुअगवरः-बृहत्संग्रहणीवृत्तौ । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे क्रुञ्चवरः १६ इति ॥४५-४६॥ अथैकादशे कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकाराकृतिः कुण्डलनग इति तद्रूपमिदम्कुंडलवरस्स मज्झे, णगुत्तमो होति कुंडलो सेलो । पागारसरिसरूवो, विभयंतो कुंडलं दीवं ॥४७।। बायालीससहस्से, उव्विद्धो कुंडलो हवइ सेलो । एगं चेव सहस्सं, धरणिअलमहे समोगाढो ॥४८॥ दस चेव जोअणसए, बावीसे वित्थडो य मूलम्मि । सत्तेव जोअणसए, बावीसे वित्थडो मज्झे ॥४९॥ चत्तारि जोअणसए, चउवीसे वित्थडो उ सिहरतले । द्वीपसागरप्र० ७२-७५गाथार्द्धम् ॥ व्या० कुण्डलवरद्वीपस्य मध्ये नगोत्तमो भवति कुण्डल: शैलः प्राकारसदृशरूप: कोट्टाकारः। किं कुर्वन् ? कुण्डलद्वीपं विभजन् कुण्डलद्वीपं द्विधा कुर्वन् इति प्रथमगाथार्थः। कुण्डलः शैलो द्विचत्वारिंशत् सहस्राणि योजनानाम् उद्विद्ध उच्च इत्यर्थः । एकं सहस्रं योजनानां धरणितलमधः समवगाढः पृथिव्यां प्रविष्ट इति द्वितीयगाथार्थः । दश योजनशतानि 15 द्वाविंशत्यधिकानि स मूले विस्तीर्णः पृथिव्युपरि जड्ड इत्यर्थः । सप्त योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकानि मध्ये मध्यभागे विस्तीर्णः मध्ये जड्ड इति तृतीयगाथार्थः । चत्वारि योजनशतानि चतुर्विंशत्यधिकानि विस्तीर्णः शिखरतल इति चतुर्थगाथार्द्धम् ॥ तथा त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे कुण्डलाकृती रुचकनामा पर्वत इति, एतस्य त्विदं स्वरूपम् रुअगवरस्स उ मज्झे, नगुत्तमो होइ पव्वओ रुअगो । पागारसरिसरूवो, रुअगं दीवं विभयमाणो ॥५१॥ रुअगस्स य उस्सेहो, चउरासीई भवे सहस्साइं । एगं चेव सहस्सं, धरणियलमहे समोगाढो ॥५२॥ दस चेव सहस्सा खलु, बावीसा जोअणाण बोधव्वा । 25 मूलम्मि य विक्खंभो, साहीओ रुअगसेलस्स ॥५३॥ [द्वीपसागरप्र० ११२-११४] 20 १. क्रौञ्च - बृहत्सङ्ग्रहणीवृत्तौ ॥ २. तेवीसे-द्वीपसागरप्रज्ञप्तौ ॥ ३. बावीसं जोयणाई-द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्याम् ।। ४. सिहरतले विक्खंभो रुयगस्स उ पव्वयस्स भवे-द्वीपसागरप्र. ।। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् १६१ सत्त य चेव सहस्सा, बावीसा जोअणाई बोधव्वा । मज्झेण य विक्खंभो, साहीओ रुअगसेलस्स ॥५४॥ चत्तारि सहस्साइं, चउवीसा जोअणाई बोधव्वा । सिहरतले विक्खंभो, रुअगस्स उ पव्वयस्स भवे ॥५५॥ [ ] व्या० रुचकरवरद्वीपस्य मध्ये नगोत्तमो रुचकनामा पर्वतः प्राकारसदृशरूपो रुचकद्वीपं 5 विभजमानो वर्त्तत इति गाथार्थः । रुचकस्य चतुरशीतिसहस्राणि उद्वेधः उच्चत्वम्, एकं सहस्रं धरणीतलमधः समवगाढ इति गाथार्थः । दश सहस्राणि द्वाविंशतिः योजनानि रुचकरवरशैलस्य मूले विष्कम्भस्साधिक [इति गाथार्थः] । सप्त सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि मध्ये विष्कम्भः साधिको रुचकशैल इति गाथार्थः । चत्वारि सहस्राणि चतुर्विंशतिश्च योजनानाम्, एतत्प्रमाणः शिखरतले विष्कम्भो रुचक पर्वतस्य भवति [इति गाथार्थः] । 10 मध्यविस्तारान्त्यविस्तारप्रतिपादकं गाथाद्वयं परमगुरुभिः श्रीमदभयदेवसूरिभिवृत्तिकृद्भिर्न लिखितम्, संस्कृतपाठेनैव तत्प्रमाणस्योक्तत्वात् ॥५१-५५॥ [पृ०२८३] सिज्जायरपिंडे १ या, चाउज्जामे २ अ पुरिसजिढे ३ अ । किइकम्मस्स य करणे ४, चत्तारि अवट्ठिआ कप्पा ॥५६॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६१, पञ्चाशक० १७।१०, प्रवचनसारो० ६५०] 15 व्या० चत्वारोऽवस्थितकल्पा भवन्ति, इह कल्पः साधुसमाचारः, मध्यमजिनसाधूनामपि चतुर्षु स्थानेषु सदैवावस्थितत्वेन षट्सु च स्थानेषु कादाचित्कावस्थानेन स्थितोऽस्थितश्च द्विधा कल्पः सम्भवति । तत्र तेषां स्थितकल्पस्तावदुच्यते- शय्यातरपिण्डे, तथा चतुर्णा यामानां व्रतानां समाहारश्चतुर्यामम् तदेव चातुर्यामम्, तत्र, तथा पुरुष एव ज्येष्ठो रत्नाधिकः पुरुषज्येष्ठः, तत्र, तथा कृतिकर्मणो वन्दनकस्य करणे विधाने स्थितोऽवस्थित: कल्पो मर्यादा मध्यमानां 20 मध्यमद्वाविंशतिजिनसाधूनां महाविदेहसाधूनां च, तदेवमेतानि चत्वार्यपि स्थानानि सर्वेषामपि साधूनां नित्यमवस्थितानीति स्थितकल्पः ॥५६।। आचेलुक्कु १ देसिअ २, सप्पडिक्कमणे ३ अ रायपिंडे ४ अ । मासं ५ पज्जोसवणा ६, छप्पे अणवट्ठिआ कप्पा ॥५७॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६२] व्या० आचेलक्ये औद्देशिके प्रतिक्रमणे राजपिण्डे मासकल्पे पर्युषणाकल्पे च 25 सततसेवनीयत्वाभावाद् मध्यमजिनसाधूनामस्थितकल्पो ज्ञातव्यः । ते हि एतानि स्थानानि कदाचिदेव पालयन्ति, तत्राचेलस्य भेदद्वयमाहुः१ तुला- प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ ।। २. तुलनार्थं प्रवचनसारोद्धारस्य ६५१ तम्या गाथाया वृत्तिः विलोकनीया । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे [पृ०२८४] दुविहो होइ अचेलो असंतचेलो अ संतचेलो अ । तत्थ असंतेहि जिणा संताचेला भवे सेसा ॥५८॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६५] व्या० द्विधा भवति अचेलः- असद्भिर्वस्त्रैरचेलः, सद्भिर्वस्त्रैरचेलश्च। तत्र तीर्थकरा अविद्यमानवस्त्राः सन्तोऽचेला भवन्ति पुरुहूतोपनीतदेवदूष्यापगमानन्तरम्, तीर्थकरव्यतिरिक्तास्तु साधवो 5 विद्यमानैरपि वस्त्रैरचेलाः स्वल्पमूल्य-श्वेत-खण्डितवस्त्राश्रयणात् । दृश्यते च लोके विवक्षितवस्त्राभावे सचेलत्वे विशिष्टार्थाप्रसाधकत्वेन असत्त्वाविशेषादचेलव्यवहारः । तदेव प्रादुः कुर्वन्नाह सीसावेढिअपोत्तं, नइउत्तरणम्मि नग्गयं बिंति ।। जुन्नेहिं नग्गिअ म्हि, तुर सालिअ ! देहि मे पोत्तिं ॥५९॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६६] व्या० सीसेति जलतीमनभयात् शीर्षे शिरसि आवेष्टितं पोतं परिधानवस्त्रं येन स 10 शीर्षावेष्टितपोतस्तमेवंविधं सचेलमपि नद्युत्तरणे अगाधायाः कस्याश्चिन्नद्या उत्तरणं कुर्वन्तं दृष्ट्वा नग्नकं ब्रुवते, नग्नोऽयमिति लोके वक्तारो भवन्तीत्यर्थः । यथा वा काचिदविरतिका परिजीर्णवस्त्रपरिधाना प्राक्समर्पितवेतनं तन्तुवायं शाटिकानिष्पादनालसं ब्रवीति, यथा जीर्णैर्वस्त्रैः परिहितैनग्निकाऽहमस्मि, तत् त्वरस्व हे शालिक ! तन्तुवाय ! देहि मे पोतिकां शाटिकाम् ॥५९॥ 15 जुण्णेहिं खंडिएहिं, असव्वतणुपाउएहिं ण य णिच्चं । संतेहि वि णिग्गंथा, अचेलया होति चेलेहिं ॥६०॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६७] व्या० एवं जीर्णैः पुराणैः खण्डितैः छिन्नैरसर्वतनुप्रावृतैः स्वल्पप्रमाणतया सर्वस्मिन् शरीरेऽप्रावृतैः प्रमाणहीनैरित्यर्थः, न च नित्यं सदैव प्रावृतैः, किन्तु शीतादिकारणसद्भावे, एवंविधैश्चेलैस्सद्भिरपि विद्यमानैरपि निर्ग्रन्था अचेला भवन्ति ॥६०।। दसठाणठिओ कप्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुअरय कप्पो, दसठाण पइट्ठिओ होइ ॥६१॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६३] व्या० दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे छेदोपस्थापनीयसाधूनां मन्तव्यः, तदेवम् एष धुतरजाः कल्पो दशस्थानप्रतिष्ठितो भवति ॥६१।। अथ स्थितास्थितकल्पदशकं नामत आह25 आचेलुक्कु १ देसिअ २, सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ । वय ६ जिट्ठ ७ पडिक्कमणे ८, मासं ९ पज्जोसवणकप्पे १० ॥६२॥ [बृहत्कल्पभा० ६३६४, पञ्चाशक० १७।६] १. तुलना- प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ, गा० ६५२ ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् व्या० अविद्यमानं चेलं वस्त्रं यस्यासावचेलकस्तद्भाव आचेलक्यम् १ । उद्देशेन साधुसङ्कल्पेन निर्वृत्तमौदेशिकम् आधाकर्म २ । शय्यया वसत्या तरति संसारसागरमिति शय्यातरः, स च, राजा च नृपश्चक्रवर्त्यादिस्तयोः पिण्डः समुदानमिति शय्यातर-राजपिण्डः ३-४ । कृतिकर्म वन्दनकम् ५ । एतेषां च समाहारद्वन्द्वत्वात् सप्तम्येकवचनम्, ततश्चाचेलक्यादिषु यथास्वं विधिनिषेधाभ्यां स्थिता-ऽस्थिताः साधवो भवन्तीत्ययमोघकल्पः । एतेष्वेव च प्रथम- 5 चरमजिनसाधवः स्थिता एवेति स्थितकल्पः तेषाम्, तथा व्रतानि महाव्रतानि ६ ज्येष्ठो रत्नाधिक: ७ प्रतिक्रमणम् आवश्यककरणम् ८, सप्तम्येकवचनं प्राग्वत्, मासमिति प्राकृतत्वादनुस्वारः, परि सर्वथा वसनम् एकत्र निवासो निरुक्तविधेः पर्युषणमेतद्वयलक्षण: कल्प आचारो मासपर्युषणकल्पः ९-१० । तत्र च स्थितास्थितेत्यादि प्राग्वदिति गाथासमासार्थः ॥६२।। [पृ० २८४] परिहारिकसामाचारीमाह 10 बारस १ दस २ अट्ठ ३ दस १ ऽट्ठ २, छट्ठ ३ अट्ठेव १ छट्ठ २ चउरो ३ अ। उक्कोस-मज्झिम-जहन्नगा उ वासा-सिसिर-गिम्हे ॥६३॥ [बृहत्कल्पभा० ६४७२] व्या० द्वादशम् १ दशमम् २ अष्टमम् ३, दशमम् १ अष्टमं २ षष्ठम् ३, अष्टमं १ षष्ठं २ चतुर्थम् ३, एते उपवासा उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्या वर्षा-शिशिर-ग्रीष्मे, समाहारद्वन्द्वेनैकवचनम्। अत्रेयं भावना-पारिहारिकस्य वर्षासूत्कृष्टं तपो द्वादशम् 15 उपवासपञ्चकलक्षणम्, मध्यमं दशमम् उपवासचतुष्टयलक्षणम्, जघन्यमष्टमम् उपवासत्रयलक्षणम्। शिशिरे शीतकाले ग्रीष्मतः किञ्चित्साधारणे उत्कृष्टं तपो दशमम् उपवासचतुष्कम्, मध्यममष्टममुपवासत्रयम् जघन्यं षष्ठम् उपवासद्वयम् । अतिरूक्षत्वात् ग्रीष्मे उष्णकाले उत्कृष्टं तपः अष्टममुपवासत्रयम्, मध्यमं षष्ठं द्वावुपवासौ, जघन्यं चतुर्थमेकोपवासः ॥६३।। पारणगे आयामं, पंचसु गहो दोसुऽभिग्गहो भिक्खे । 20 कप्पट्ठिया य पइदिण, करेंति एमेव चायामं ॥६४॥ [प्रवचनसारो० ६०५] व्या० पारणके त्रिष्वपि कालेषु तेषामाचाम्लं भवति । तथा संसृष्टादयः सप्त भिक्षा भवन्ति, तत्र पञ्चसु उत्तरासु उद्धृतादिषु ग्रहो ग्रहणम्, संसृष्टासंसृष्टे आद्ये द्वे भिक्षे वर्जयित्वा उद्धृतादयः पञ्चैव ग्रहीतव्या इत्यर्थः । दोसु इति पुनरपि विवक्षितदिनेऽन्त्यानां मध्ये द्वयोरभिग्रहः अद्य मया द्वे एव विवक्षिते भिक्षे ग्राह्ये इत्येवंरूपः । तत्राप्येका भक्ते एका पानके चेति। 25 इदं चतुर्णां पारिहारिकाणां तपः, ये तु कल्पस्थितादयः पञ्च एको वाचनाचार्यश्चत्वारोऽनुचारिणस्ते सर्वेऽपि एवमेव पूर्वोक्तभिक्षाऽभिग्रहयुक्तास्सन्तः प्रतिदिनमाचाम्लं कुर्वन्तीति ॥६४।। १. तुलना- पञ्चाशकवृत्तिः १७६ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे ___ एते च निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उच्यन्ते, तेषां च नवको गणो भवति, ते चैवंविधा:[पृ०२८५] सव्वे चरित्तवंतो उ, दंसणे परिनिट्ठिया । नवपुव्विआ जहन्नेणं, उक्कोसेणं दसपुव्विआ ॥६५॥ पंचविहे ववहारे, कप्पम्मि दुविहम्मि अ । दसविहे अ पच्छित्ते, सव्वे ते परिनिट्ठिया ॥६६॥ [बृहत्कल्पभा० ६४५४-६४५५] व्या० सर्वे निर्विशमानका निर्विष्टाः [च] परिहारविशुद्धिकाः चरित्रवन्तः परिहारविशुद्धिचारित्रवन्तो दर्शने सम्यक्त्वे परिनिष्ठिता: क्षायोपशमिके क्षायिके [च] परिनिष्णाताः देवा-ऽसुर-यक्ष-राक्षसाद्यचालितसम्यक्त्वाः, नवपूर्विकाः, नव पूर्वाणि पूर्वं रचितत्वात् पूर्वाणि 10 उत्पादादीनि येषामध्ययनं ते नवपूर्विकाः । अत्र सामान्योक्तावपि नवमं पूर्वं वस्तूनं जघन्यं श्रुतम्, वस्त्विति अधिकारविशेषः । उत्कृष्टतोऽध्ययनं संपूर्णानि देश पूर्वाणि येषां ते दशपूर्विकाः । पुनः कथम्भूतास्ते ? परिनिष्ठिता: परिनिष्णाताः, क्व ? पञ्चविधे व्यवहारे आगम १ श्रुत २ आज्ञा ३ धारणा ४ जीत ५ रूपे, यत उक्तम्- [व्यवहारसूत्रे दशमे उद्देशके] पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, आगमे सुते आणा धारणा जीते । जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं 15 व्यवहारं पट्ठवेज्जा, णो से तत्थ आगमे सिआ, जहा से तत्थ सुते सिआ सुतेण ववहारं पट्ठवेज्जा, णो से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा, णो से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा, णो से तत्थ धारणा सिया, जहा तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा, इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारेहिं ववहारं पट्ठवेज्जा, तंजहा आगमेण जाव जीतेणं, जधा जधा से तत्थ आगमे जाव जीते तहा तहा ववहारं पट्ठवेजा । 20 पुनः क्व? द्विविधे कल्पे अवस्थितानवस्थितरूपे, आचेलक्यादिषट्सङ्ख्ये अवस्थितकल्पे, राजपिण्डादिचतुस्सङ्ख्ये अनवस्थितकल्पे । पुनः क्व ? दशविधे प्रायश्चित्ते- तं च दसविहं आलोअणारिहं १ पडिक्कमणारिहं २ तदुभयारिहं ३ विवेगारिहं ४ उस्सग्गारिहं ५ तवारिहं ६ छेदारिहं ७ मुलारिहं ८ अणवठ्ठप्पारिहं ९ पारंचिआरिहं १० [ ] इति । एवंविधा महानुभावा: साधवः परिहारविशुद्धं चारित्रं पालयन्तीति परमार्थः ॥६५-६६।। 25 गच्छम्मि अ निम्माया, धीरा जाहे अ गहिअपरमत्था । अग्गहि जोग अभिग्गहि, उविंति जिणकप्पिअचरित्तं ॥६७॥ [बृहत्कल्पभा० ६४८३] व्या० यदा गच्छे प्रव्रज्या-शिक्षापदादिक्रमेण निर्माता निष्पन्ना धीरा औत्पत्तिक्यादिबुद्धिमन्तः परीषहोपसर्गरक्षोभ्या वा, मुणितपरमार्था अभ्युद्यतविहारेण विहर्तुमवसरस्साम्प्रत१. दशपूर्विणः किञ्चिन्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः' इति बृहत्कल्पवृत्तौ ॥ २. मुणिय-बृहत्कल्पभाष्ये । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् यास्तु मस्माकमित्येवमवगतार्थास्तथा ययोः पिण्डैषणयोरसंसृष्टा-संसृष्टाख्ययोरग्रहस्ते परिहर्त्तव्ये, उपरितन्यः पञ्चैषणास्तासामभिग्रह एता एव ग्रहीतव्या इत्येवंरूपस्तत्राप्येकदैकतरस्यां योगो व्यापारः परिभोग इत्यर्थः । एवं भावितमतयो यदा भवन्ति तदा जिनकल्पिकचारित्रमुपयान्ति प्रतिपद्यन्ते ॥६७॥ धिइबलिआ तवसूरा, निंती गच्छाउ ते पुरिससीहा । बलवीरिअसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरू अ ॥६८॥ [ बृहत्कल्पभा० ६४८४] व्या० धितिबलीति, धृतिर्वज्रकुड्यवदभेद्यं चित्तप्रणिधानम्, तया बलिका बलवन्तस्तथा तपश्चतुर्थादिकं षण्मासिकान्तम्, तत्र शूराः समर्थाः, एवंविधाः पुरुषसिंहास्ते गच्छान्निर्गच्छन्ति। बलं शारीरम्, वीर्यं जीवप्रभवम्, तद्धेतुः संहननमस्थिनिचयात्मकं येषां ते तथा, बलवीर्यग्रहणं च चतुर्भङ्गीज्ञापनार्थम्, सा चेयम् - धृतिमान्नामैको न संहननवान् १, संहननवान्नामैको न धृतिमान् 10 २, एको धृतिमानपि संहननवानपि ३, एको न धृतिमान् न संहननवान् ४, तत्र तृतीयभङ्गेनाधिकारः । उपसर्गादिव्यादयस्तेषां सहाः सम्यगध्यासितारस्तथाऽभीरवः परीषहेभ्यो न बिभ्यति ॥६८॥ पव्वज्जा सिक्खावयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो ।. निष्पत्ती अ विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥ ६९ ॥ [विशेषाव० ७, बृहत्कल्पभा० ११३२ ] व्या० प्रथमं प्रव्रज्या वक्तव्या कथमसौ जिनकल्पिकः प्रव्रजति इति १, ततः शिक्षापदं ग्रहणासेवनाविषयम् २, ततो ग्रहणशिक्षयाऽधीतसूत्रार्थग्रहणम् ३, ततो नानादेशदर्शनं कुर्वतो यथा अनियतो वासो भवति ४, ततः शिष्याणां निष्पत्ति: ५, तदनन्तरं विहार : ६, ततो जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य सामाचारी ७, ततस्तस्यैव स्थितिः क्षेत्र - कालादिकाऽभिधातव्येति गाथासमुदायार्थः । इयं च बृहत्कल्पे द्वारगाथेति मन्तव्यम् ॥६९॥ १६५ 5 15 [पृ०२८६] जच्चाईहिं अवण्णं, विभासइ वट्टइ न यावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुलोमो ॥ ७० ॥ [ बृहत्कल्पभा० १३०५] व्या० जात्या, आदिशब्दात् कुलादिभिश्च सद्भिरसद्भिर्वा दोषैरवर्णं भाषते, यथा नै विशुद्धजातिकुलोत्पन्नाः, न वा लोकव्यवहारकुशलाः, नाप्येते औचित्यं विदन्ति इत्यादि । न चापि वर्त्तते उपपाते गुरूणां सेवावृत्तौ, अहितोऽनुचितविधायी, छिद्रप्रेक्षी मत्सरितया 25 गुरोर्दोषनिरीक्षणशीलः, प्रकाशवादी सर्वसमक्षं गुरुदोषभाषी, अननुकूलो गुरूणामेव प्रत्यनीकः कूलवालकवत्, एष धर्माचार्यावर्णवादः ॥ ७०॥৷ १. प्रव्रजित इति - बृहत्कल्पभाष्यवृत्तौ ॥ २. णुकूलो - बृहत्कल्पभाष्ये ॥ 20 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे अहवा वि वए एवं, उवएसं परस्स दिति एवं तु । दसविहवेयावच्चं, कायव्वं सयं न कुव्वंति ॥७१॥ [ ] व्या० अथवा धर्माचार्यावर्णवाद एवम्, तदाह- अथवाऽपि वदेदेवम् अवर्णवादीति शेषः, एते धर्माचार्यादयः परस्य पृच्छकस्य शिष्यादेर्वा उपदेशं शिक्षाम् एवं ददति । एवमिति 5 किम् ? दशविधं वैयावृत्त्यं कर्त्तव्यम्, आचार्योपाध्यायकुलगणसङ्घादेरिति शेषः, परं स्वयं न कुर्वन्ति, कृतकृत्यत्वात्, परोपदेशे कुशला इति चाणाक्यनीतिशास्त्रोक्ता इव दृश्यन्त इति ॥७१॥ [पृ०२८७) अथ कुल-गण-सङ्घलक्षणं वक्ति एत्थ कुलं विन्नेयं, एगायरियस्स संतई जाओ । 10 तिण्ह कुलाण मिहो पुण, साविक्खाणं गणो होइ ॥७२॥ [ ] व्या० अत्र कुलं विज्ञेयम् एकाचार्यस्य सन्ततयः कुलम्, यथा वज्रसेनस्य सन्ततयश्चन्द्रकुलम् । तथा त्रयाणां कुलानां मिथ: सापेक्षाणां सम्बद्धानां समुदायो गणो भवति, यथा इन्द्र-चन्द्र-नागेन्द्रकुलानां गणः कोटिको भवति ॥७२।। सव्वो वि नाण-दसण-चरणगुणविभूसियाण समणाणं । 15 समुदाओ पुण संघो, गुणसमुदाओ त्ति काऊणं ॥७३॥ [ ] व्या० सर्वोऽपि ज्ञानदर्शनचरणगुणविभूषितानां श्रमणानां समुदायः सङ्घो भवति, भगवदाज्ञया ज्ञानदर्शनचारित्रवन्तस्साधवस्सङ्घः, तत्र कारणमाह- गुणसमुदाय इति कृत्वा, गुणानां पूर्वोक्तानां समुदायस्सङ्घ इत्यर्थः, अत एवोक्तम्-आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अट्ठिसंघाओ [संबोधसत्तरि ३७] ॥७३॥ 20 अथ सिद्धान्तावर्णवादमाह पागयसुत्तनिबद्धं, को वा जाणइ पणीय केणेयं । किंवा चरणेणं तु, दाणेण विणा उ हवइ त्ति ॥७४॥ [ ] व्या० प्राकृतसूत्रनिबद्धम्, प्रकृतौ भवानि प्राकृतानि च तानि सूत्राणि च प्राकृतसूत्राणि, तैर्निबद्धं सूत्रम् । अथवा प्राकृतभाषानिबद्धम् एकादशाङ्गीरूपम्, को जानाति? केनेदं प्रणीतम्?, 25 गणधरास्तु सकलाक्षरसंयोगवेदिनो गीर्वाणवाणीविशारदाः संस्कृतवाणीं विहाय प्राकृतभाषया कथं सूत्रं निबध्नन्तीति सिद्धान्तावर्णवादः । अथ चारित्रावर्णवादः तु पुनश्चारित्रेण किं दानं विना भवति ? चारित्रं पाल्यते दानं च दीयते तदा सिद्धिर्भवति नान्यथेति भावः ॥७४।। सिद्धान्तावर्णवादमाह Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् या वया य ते च्चिअ, ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिआणं, जोइसजोणीहिं किं कज्जं ? ॥७५॥ [ बृहत्कल्पभा० १३०३] व्या० सिद्धान्ते कायाः षट् कायास्त एव, व्रतानि तान्येव, प्रमादास्त एव, अप्रमादास्तएव, वारंवारं कथनेन पुनरुक्तदोषो भवति । अथ च मोक्षाधिकारिणां गणधराणां ज्योतिर्योनिकथने किं प्रयोजनम् ?, यतो ज्योतिःशास्त्रं मोक्षसाधनं नास्ति, मृगशीर्षे मृगमांसं 5 भुक्त्वा कार्यं साधयति, एतस्य किं प्रयोजनम् ? | योनिस्त्रिधा - वंशीपत्रा कूर्मोन्नाशखावर्ता, तासां प्ररूपणे किं प्रयोजनम् ? इति सिद्धान्तावर्णवादः ॥ ७५ ॥ [पृ०२९१] बत्तीसऽट्ठावीसा, बारस अट्ठ य चउर सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा, विमाणसंखा भवे एसा ॥७६॥ [ बृहत्सं० १९७, प्रव० ११५१] व्या० द्वात्रिंशदष्टाविंशतिर्द्वादश अष्टौ चत्वारि शतसहस्राणि यथासङ्ख्यं ब्रह्मलोकं यावत् 10 पञ्चसु देवलोकेषु, अयमर्थः - सौधर्मे विमानानां द्वात्रिंशल्लक्षाणि ३२०००००, एवमीशानेऽष्टाविंशतिः २८०००००, सनत्कुमारे द्वादश १२०००००, माहेन्द्रेऽष्टौ ८०००००, ब्रह्मलोके चत्वारि ४०००००, एषा विमानसङ्ख्या भवेत् ॥ ७६ ॥ पंचास चत्त छच्चेव, सहस्सा लंत - सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणय-पाणएसु तिन्नारण- ऽच्चुअए ॥ ७७ ॥ [ बृहत्सं० १९८, प्रव० ११५२] 15 व्या० पञ्चाशच्चत्वारिंशत् षट् सहस्राणि, लान्तक - शुक्र - सहस्रारे यथासङ्ख्यम्, तथाहिलान्तके विमानानां पञ्चाशत् सहस्राणि ५००००, एवं शुक्रं चत्वारिंशत् सहस्राणि ४००००, सहस्रारे षट् सहस्राणि ६०००, चत्वारि शतानि आनत-प्राणतयोस्समुदितयोः, एवं त्रीणि शतानि आरणा-ऽच्युतयोस्समुदितयोः ॥७७॥ १६७ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु, सत्तुत्तरं च मज्झिमए । 20 सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा || ७८ || [बृहत्सं० १९९, प्रव० ११५३ ] व्या० एकादशाधिकं शतम् १११ अधस्तनग्रैवेयकत्रिके, सप्तोत्तरं शतं १०७ मध्यमत्रिके, शतमेकं १०० विमानानामुपरितनत्रिके, पञ्चैवानुत्तरविमानानि ॥ ७८ ॥ [पृ०२९३] नाणं पगासयं सोहओ तवो संजमो अ गुत्तिकरो । तिन्हं पि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ ७९ ॥ [ आव०नि० १०३ ] 25 व्या० तत्र कचवरसमन्वितमहागृहशोधनप्रदीपपुरुषादिव्यापारवदिह जीवगृहकर्मकचवरभृतशोधनालम्बनो ज्ञानादीनां स्वभावभेदेन व्यापारोऽवसेय इति समुदायार्थः । तत्र ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्, तच्च प्रकाशयतीति प्रकाशकम्, तच्च ज्ञानं प्रकाशकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वाद्, १. महाशुक्रे - इति प्रवचनसारोद्धार - बृहत्संग्रहणीवृत्त्योः ॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे गृहमलापनयने प्रदीपवत् । क्रिया तु तपस्संयमरूपत्वादित्थमुपकुरुते- शोधयतीति शोधकम्, किं तदित्याह-तापयत्यनेकविधभावोपात्तमष्टविधं कर्मेति तपः, तच्च शोधकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वाद्, गृहकचवरोज्झनक्रियया तच्छोधने कर्मकरपुरुषवत् । तथा संयमनं संयमः भावेऽप्प्रत्ययः, आश्रवद्वारविरमणमिति यावत्, चशब्दः पृथग् ज्ञानादीनां प्रक्रान्तफलसिद्धौ 5 भिन्नोपकारकर्तृत्वाच्चावधारणार्थः । गोपनं गुप्तिः, स्त्रियां क्तिन् [पा. ३।३।९४] आगन्तुककर्म कचवरनिरोध इति हृदयम्, गुप्तिकरणशीलो गुप्तिकरः । ततश्च संयमोऽप्यपूर्वकर्मकचवरागमनिरोधतयैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वाद्, गृहशोधने पवनप्रेरितकचवरागमननिरोधेन वातायनादिस्थगनवत् । एवं त्रयाणामेव, अपिशब्दोऽवधारणार्थः, अथवा सम्भावने, किं सम्भावयति ? त्रयाणामपि ज्ञानादीनाम्, किंविशिष्टानाम् ? निश्चयतः क्षायिकाणाम्, न तु क्षायोपशमिकानामिति, 10 समायोगे संयोगे मोक्षः सर्वथाऽष्टविधकर्ममलवियोगलक्षणः, जिनानां शासनं जिनशासनम्, तस्मिन् भणित उक्तः । आह- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः [तत्त्वार्थ० १।१] इत्यागमो विरुद्ध्यते, सम्यग्दर्शनमन्तरेणोक्तलक्षणज्ञानादित्रयादेव मोक्षप्रतिपादनादिति, उच्यते- सम्यग्दर्शनस्य ज्ञानविशेषत्वाद् रुचिरूपत्वाज्ज्ञानान्तर्भावाददोष इति ॥७९॥ [पृ०२९४] कसिणं केवलकप्पं, लोगं जाणंति तह य पासंति । 15 केवलचरित्तनाणी, तम्हा ते केवली होति ॥८०॥ [आव० नि० १०९२] व्या० केवलिशब्दस्य व्युत्पत्तिं करोति, कृत्स्नं केवलकल्पम् अनन्तं पूर्णं वा लोकं जानन्ति तथा च पश्यन्ति, केवलम् एकं चारित्रं यथाख्यातरूपं ज्ञानं केवलज्ञानम्, तद् यस्यास्तीति केवलचरित्रज्ञानी, तस्मात्ते केवलिनो भवन्ति ॥८०॥ [पृ०२९५] जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । ___ एत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥८१॥ [उत्तराध्ययनसू० ३४/१६] व्या० यथा गवां मृतकं मृतकशरीरम्, तस्य गन्धः, श्वमृतकस्य च, यथा अहिः सर्पस्तन्मृतकस्य, गन्ध इति सम्बन्धः, सूत्रत्वान्मृतकशब्दे कलोपः, अतोऽपि एतत्प्रकारादपि गन्धादनन्तगुणोऽतिदुर्गन्धतया लेश्यानामप्रशस्तानामशुभानाम्, कोऽर्थः ? कृष्णनीलकापोतानां __ गन्ध इति प्रक्रमः । इह च लेश्यानामप्रशस्तत्वं गन्धस्याप्यशुभत्वे हेतुरिति तद्विशेषादनुक्तोऽप्यस्य 25 विशेषोऽवगम्यत इति नोक्तः ॥८॥ जह सुरभिकुसुमगंधो, गंधो वासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥८२॥ [उत्तराध्ययन सू० ३४/१७] १. यमः समुपनिविषु च - पा० ३।३।६३ ॥ २. तुल्यप्रायं वादिवेतालशान्तिसूरिकृतोत्तराध्ययनवृत्तौ पाइयटीकायाम्॥ ३. गंधवासाण- इति पाइयटीकायाम् ।। 20 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगोथाविवरणम् व्या० यथा सुरभिकुसुमानां जाति-केतक्यादिसम्बधिनां सुगन्धिनां सुगन्धिपुष्पाणां गन्धः परिमलः सुरभिकुसुमगन्धः, तथा गन्धाश्च कोष्ठपुटपाकनिष्पन्ना वासाश्चेतरे गन्धवासाः, इह चैतदङ्गान्येवोपचारादेवमुक्तानि, तेषाम्, पाठान्तरतश्च गन्धानां पिष्यमाणानां सञ्चूर्ण्यमानानां यथा गन्ध इति प्रक्रमः, तथा चातिप्रबलतरोऽसौ प्रादुर्भवतीत्येवमभिधानम्, अतोऽपि एतत्प्रकारादपि गन्धादनन्तगुणोऽतिशयसुगन्धितया प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि तैजसीपद्मशुक्लानां 5 गन्ध इति प्रक्रमः । इहापि प्रशस्तत्वविशेषोऽनुमीयत इति नोक्तः ॥८२॥ [पृ०२९८] न वि अ फुसंति अलोगं, चउसुं पि दिसासु सव्वपुढवीओ । संगहिआ वलएहिं, विक्खंभं तेसि वोच्छामि ॥८३॥ [बृहत्संग्रहणी २४३] व्या० नापि स्पृशन्त्यलोकं चतसृष्वपि दिक्षु सर्वाः सप्तापि पृथिव्यः, यतो वलयैर्घनोदधि-घनवात-तनुवातसत्कैः सगृहीता वेष्टिताः, यतोऽमी त्रयोऽपि स्वां स्वां पृथिवीं 10 वलयाकारेणावृत्य स्थितास्सन्तीति । विष्कम्भं विस्तारं तेषां घनोदधि-घनवात-तनुवातवलयानां वक्ष्यामि ॥८३॥ तेषां तमेवाहछच्चेव १ अद्धपंचम २, जोअणमद्धं ३ च होंति रयणाए । उदहीघणतणुवाया, जहासंखेण निद्दिट्ठा ॥८४॥ [बृहत्संग्रहणी २४४] । 15 व्या० षड् योजनानि १, अर्द्ध पञ्चमं येषु तान्यर्द्धपञ्चमानि सार्द्धचत्वारि योजनानीत्यर्थः, सार्द्ध योजनं चेत्यर्थः [योजनमर्द्धं च], यथासङ्ख्यं वलया विष्कम्भतो निर्दिष्टाः । तथाहिरत्नप्रभायाः घनोदधिवलयविष्कम्भः षड् योजनानि, घनवातवलयविष्कम्भः सार्द्धानि चत्वारि योजनानि, तनुवातवलयविष्कम्भः सार्धं योजनम्, ततः परमलोकः ॥८४॥ अथ शेषासु पृथ्वीषु वलयत्रयविष्कम्भपरिज्ञापनाय क्षेप्तव्यगाथामाह 20 तिभागो गाउअं चेव, तिभागो गाउअस्स य । आइधुवे पक्खेवो, अहो अहो जाव सत्तमिआ ॥८५॥ [बृहत्संग्रहणी० २४५] व्या० एष्वेव त्रिषु प्रथमपृथ्वीवलयेषु ध्रुवेषु यथासङ्ख्यमेतत् क्षिपेत्, तदेवाह- त्रिभागो योजनस्येति गम्यते, गव्यूतं सत्रिभागम् इत्यर्थः १, तथा पूर्णं गव्यूतम् २, गव्यूतस्य च त्रिभागः, योजनस्य च द्वादशो भाग इत्यर्थः ३, ततो द्वितीयस्याः शर्कराप्रभाया वलयानां 25 विष्कम्भो भवति, तद्यथा-घनोदधिवलये षड् योजनानि योजनस्य च त्रिभागः, घनवाते पञ्च पादोनानि, तनुवाते योजनमेकं सप्त च द्वादशभागा योजनस्य, अहो अहो इति अधोऽधो १. विशेषाद्गन्धविशेषोऽनुमीयते- इति उत्तराध्ययनशान्त्याचार्यवृत्तौ । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० वाचकसुमतिकल्लोल-वाचकहर्षनन्दनलिखिते स्थानाङ्गटीकागतगाथाविवरणे यावत् सप्तमी पृथ्वी तावद्वलयेषु एवं कर्त्तव्यम् । कोऽर्थः ? द्वितीयायां यद्वलयविष्कम्भमानं जातं तदेव पूर्वोक्तप्रक्षेपयुक्तं तृतीयाया वलयविष्कम्भमानं भवति । तृतीयाया वलयविष्कम्भमानं पूर्वोक्तप्रक्षेपयुतं चतुर्थ्यां वलयविष्कम्भमानं भवति । एवं सर्वत्र योज्यं यावत् सप्तम्यां वलयविष्कम्भमानमिति। अयं तु फलितार्थ:- रत्नप्रभायाः सर्वासु दिक्षु तिर्यग् 5 द्वादशभिर्योजनैरलोकः । एवं द्वितीयस्यास्त्रिभागोनैस्त्रयोदशभिः, तृतीयस्याः सत्रिभागैस्त्रयोदशभिः, चतुर्थ्याश्चतुर्दशभिः, पञ्चम्यास्त्रिभागोनैः पञ्चदशभिः, षष्ठ्याः सत्रिभागैः पञ्चदशभिः, सप्तम्या: सम्पूर्णैः षोडशभिरिति ॥८५॥ [पृ०२९९] विदिसाउ दिसिं पढमे, बीइए पइसरइ लोअनाडीए । तइए उप्पिं धावइ, चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥८६॥ 10 पंचमए विदिसाए, गंतुं उप्पज्जई उ एगिंदी ॥८७॥ गाथार्द्धम् ॥ व्या० एके न्द्रियजीवस्य पञ्चसामयिकी गतिर्भवति, तमस्तमायाः पृथिव्या अधस्त्रसनाडीबहिर्विदिस्थित एकेन्द्रियो यदा त्रसनाडीबहिर्ब्रह्मलोकविदिशि उत्पद्यते तदा पञ्च समया लगन्ति, तथाहि- प्रथमसमये विदिशि मृत्वा दिशि याति, द्वितीये समये प्रतिसरति लोकनाड्याम्, तृतीये समये ऊर्ध्वं धावति यावद् ब्रह्मलोकसमश्रेणिः, चतुर्थके समये याति 15 सनाडीबहिर्दिशि, पञ्चमके समये विदिशि गत्वा उत्पद्यते तु एकेन्द्रिये एकेन्द्रियः तदा पञ्च समया संभवन्ति ॥८६-८७॥ अत्र विरोधोद्भावनेन समाधानं विशेषणवत्याम्सुत्ते चउसमयाओ, नत्थि गई उ परा विनिद्दिट्ठा । जुज्जइ य पंचसमया, जीवस्स इमा गई लोए ॥८॥ जो तमतमविदिसाए, समोहओ बंभलोगविदिसाए । उव्वजई गईए, सो नियमा पंचसमयाए ॥८९॥ [विशेषणवती २३,२४] उजुयाइ एगवक्का दुहओ वक्का गई विनिद्दिट्ठा । जुज्जइ तिचउवक्का तमेव उ पंचसमयाए ॥ व्या० सूत्रे सिद्धान्ते चतुस्समयात् परा उत्कृष्टा पञ्चसामयिकी गतिर्नास्तीति निर्दिष्टा, 25 पञ्चसमया च युज्यते जीवस्य इमा गतिर्लोके, यस्तमस्तमाविदिश: समवहतो मरणसमुद्घातेन ब्रह्मलोकविदिशि उत्पद्यते गत्या स नियमात् पञ्चसमयया उत्पद्यते तदा पञ्च समया भवन्ति । तथा ऋजुकायां गतौ एका वक्रा गतिः एकसमयोऽनाहारकः, द्विधा वक्रा गतिरपि विनिर्दिष्टा, युज्यते त्रिसमया चतुस्समया च वक्रगतिः, कुत्र ? तमायां तमस्तमायां 20 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानके चतुर्थोद्देशटीकागतगाथाविवरणम् १७१ वा चतुष्पञ्चसमयायां गतौ पूर्वोक्तप्रकारेण ॥८८-८९ ॥ अथ विरोधभञ्जनार्थमुत्तरं भणति - उववायाभावाओ, न पंचसमयाऽहवा न संता वि । भणिया जह चउसमया, महल्लबंधे न संतावि ॥ ९० ॥ [ विशेषणवती २६] व्या० उपपाताभावान्न पञ्चसमया गतिः, कोऽर्थः ? तमायास्तमस्तमाया अधः पृथिव्या विदिशि स्थितो जन्तुर्ब्रह्मलोके त्रसनाडीबहिर्विदिशि नोत्पद्यते, अथवा प्रकारान्तरेण पञ्चसामयिकीं 5 गतिं समर्थयति-सती अपि पञ्चसामयिकी गतिर्न भणिता, यथा चतुस्सामयिकी गतिर्महाप्रबन्धे न सत्यपि उक्ता । वस्तुतः पञ्चसामयिकी गतिरस्तीति विचारलेशः ॥ ९०॥ एवं चिण उवचिण बंधोदी रखेय तह निज्जरा चेव । गाथार्द्धम् । [ 1 व्या० मिथ्यात्वा-ऽविरति-कषाय-योगैरर्जितान् पुद्गलानशुभाध्यवसायतः पूर्वं जीवश्चिनोति आसकलतः, तत उपचिनोति परिपोषणतः, ततो बध्नाति निर्मापणतः, तत उदीरयति अध्यव - 10 सायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतः, ततो वेदयति अनुभवनतः, ततो निर्जरयति प्रदेशपरिशाटनतः ॥ [पृ०३००] चरमे नाणावरणं, पंचविहं दंसणं चउविगप्पं । पंचविहमंतरायं, खवइत्ता केवली होइ ॥ ९१ ॥ [ 1 व्या० चरमे समये ज्ञानावरणं पञ्चविधं मति - श्रुताऽवधि-मनः पर्याय- केवलावरणरूपम्, तथा दर्शनं चतुर्विकल्पं चक्षुर्दर्शनादि, एवं पञ्चविधमन्तरायं च दान - लाभ - भोगोपभोग - 15 वीर्यान्तरायाख्यं क्षपयित्वा केवली भवतीति गाथार्थः ॥ ९१ ॥ धम्मजिणाओ संती आव० नि० १३ ]ति पादोना गाथा एगो भगवं वीरो [आव ० नि० २२४] इति गाथार्द्धं च नोल्लिखितमत्र । [पृ०३०१] संती कुंथू अ अरो, अरिहंता चेव चक्कवट्टी अ । अवसेसा तित्थयरा, मंडलिआ आसि रायाणो || १२ || [ आव० नि० २२३] 20 व्या० शान्तिः कुन्थुररोऽरिहन्तार एते त्रयः तीर्थकराश्चक्रवर्त्तिन एतावन्तः अर्हत्पदवीं चक्रवर्त्तिपदवीं च भुक्ता अवशेषा एकोनविंशतितीर्थकरा माण्डलिका राजान आसन्, एतावन्तः चक्रवर्त्तिपदवीं न प्राप्ताः ॥ ९२ ॥ सर्वगाथा २३२ गाथार्थः ॥ इति श्रीवाचनाचार्यसुमतिकल्लोलगणि-वादिहर्षनन्दनगणिभ्यां लिखिते श्रीस्थानाङ्गटीकालिखितोक्तगाथाविवरणे तृतीयस्थानटीकालिखितगाथाविवरणं सम्पूर्णम् ।। १. आवश्यकनिर्युक्तौ उसभे अरिहा [गा०४१६] इत्यतः पूर्वं प्रक्षिप्ताः सप्तदश गाथा वर्तन्ते, तत्रेयं त्रयोदशी गाथा || 25 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । [स्थानाङ्गसूत्रटीकायां प्रथमे विभागे आ०म० श्री अभयदेवसूरिभिः गद्यरूपाः पद्यरूपा [गाथारूपाः] वा बहवः पाठा ग्रन्थान्तरेभ्य उद्धृताः, विविधानां कथादीनामपि च उल्लेखस्तत्र तत्र विहितः । तेषु प्रायः सर्वा अपि गाथा गाथाविवरणे विवृताः । अवशिष्टानां पाठानां विवरणं कथादिकं चात्रास्मिन् परिशिष्टे यथायोगमुपन्यस्यते ] १ [पृ०१०] “उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खित्त काल पुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण नए समोयारणाऽणुम ॥१४०॥ किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवागरिस फासण निरुत्ती ॥ १४१ ॥ ।” व्याख्या - उद्देशो वक्तव्यः, एवं सर्वेषु क्रिया योज्या, उद्देशनमुद्देशः सामान्याभिधानम् अध्ययनमिति, निर्देशनं निर्देश: विशेषाभिधानं सामायिकमिति, तथा निर्गमनं निर्गमः, कुतोऽस्य निर्गमनमिति वाच्यम्, क्षेत्रं वक्तव्यं कस्मिन् क्षेत्रे ?, कालो वक्तव्यः कस्मिन् काले ?, पुरुषश्च वक्तव्यः कुतः पुरुषात् ?, कारणं वक्तव्यं किं कारणं गौतमादयः शृण्वन्ति ?, तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः स च वक्तव्यः, केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टम् ? को वा गणधराणां श्रवण इति, तथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि, तथा नया नैगमादयः, तथा तेषामेव समवतरणं वक्तव्यं यत्र संभवति, वक्ष्यति च ' मूढणइयं सुयं कालियं तु' [ आव० नि० ७६२] इत्यादि, अनुमतम् इति कस्य व्यवहारादेः किमनुमतं सामायिकमिति, वक्ष्यति - 'तवसंजमो अणुमओ' [आव० नि० ७८९] इत्यादि, किं सामायिकम् ? ' जीवो गुणपडिवण्णो' [ आव० नि० ७९२] इत्यादि वक्ष्यति, कतिविधं सामायिकम् ? 'सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरितं च ' [ आव० नि० ७९६] इत्यादि प्रतिपादयिष्यते, कस्य सामायिकमिति, वक्ष्यति - 'जस्स सामाणिओ अप्पा' [ आव० नि० ७९७] इत्यादि, क्व सामायिकम्, क्षेत्रादाविति, वक्ष्यति - 'खेत्त दिसि काल गति भविय' [आव० नि० ८०४] इत्यादि, केषु सामायिकमिति, सर्वद्रव्येषु, वक्ष्यति - 'सव्वगतं सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सव्वे' [ आव० नि० ८३०] इत्यादि, कथमवाप्यते ?, वक्ष्यति- ‘माणुस्सखित्तजाइ’ [आव० नि० ८३१] इत्यादि, कियच्चिरं भवति कालमिति, वक्ष्यति - ‘सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाइंठिती' [ आव० नि० ८४९] इत्यादि, कति इति कियन्तः प्रतिपद्यन्ते पूर्वप्रतिपन्ना वेति वक्तव्यम्, वक्ष्यति च - 'सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमित्ता उ' [ आव० नि० ८५६] इत्यादि, सान्तरम् इति सह अन्तरेण वर्त्तत इति सान्तरम्, किं सान्तरं निरन्तरं वा ?, यदि सान्तरं किमन्तरं भवति ?, वक्ष्यति - 'कालमणतं च सुते अद्धापरियट्टगो य देसूणो' [आव० नि० ८५३] इत्यादि, अविरहितम् इति अविरहितं कियन्तं कालं प्रतिपद्यन्त इति, वक्ष्यति- 'सुतसम्मअगारीणं आवलियासंखभाग' [आव० नि० ८५४] इत्यादि, तथा भवा इति कियतो भवानुत्कृष्टतः खल्ववाप्यते 'सम्मत्तदेसविरता पलियस्स असंखभागमित्ता उ । अट्ठ भवा उ चरित्ते' [ आव० नि० ८५६ ] इत्यादि, Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । आकर्षणमाकर्षः, एकानेकभवेषु ग्रहणानीति भावार्थ:, 'तिह सहस्सपुहुत्तं सयपुहुत्तं च होंति विरईए । एगभवे आगरिसा' [ आव० नि० ८५८] इत्यादि, स्पर्शना वक्तव्या, कियत्क्षेत्रं सामायिकवन्तः स्पृशन्तीति, वक्ष्यति- 'सम्मत्तचरणसहिआ सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं' [ आव० नि० ८५९ ] इत्यादि, निश्चिता उक्तिर्निरुक्तिर्वक्तव्या 'सम्मद्दिट्ठी अमोहो सोही सब्भाव दंसणे बोही' [आव० नि० ८६१ ] इत्यादि वक्ष्यति । अयं तावद् गाथाद्वयसमुदायार्थः । आवश्यक निर्युक्ति० हारि० । [पृ०१३] “सिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ।।१७।। ज्ञातप्रयोजनं ज्ञातसम्बन्धं च शास्त्रं श्रोतुं श्रोतारः प्रवर्तन्ते, तस्मात् प्रयोजनवदेव सम्बन्धोऽपि शास्त्रावतारहेतुभूतः शास्त्रादावेव वक्तव्यः - अनेन सम्बन्धेनेदं शास्त्रमायातमिति । यथा शास्त्रान्तरेषु' अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः ] इत्यादिषु शिष्यप्रश्नान्तर्यरूपसम्बन्धोऽभिधीयते, अन्यथा ह्यसङ्गताभिधायितां सूत्रकारस्याशङ्क्य श्रोतारो नातीव तद्वचने श्रधीरन्निति ||१७|| " मीमांसा - श्लोकवार्त्तिकन्यायरत्नाकरव्याख्या । २ - "ताः [पृ०५०] चोद्दस तस सेसया मिच्छा [जीवसमा०२६ ] || अस्य टीका द्वितीये विभागे द्रष्टव्या । [पृ०५० ] तत्र लेश्या इति कः पदार्थः ? कति वा भवन्ति लेश्या इत्याहकृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुक्लनामान: । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ||३८|| टीका - षट् लेश्यानां भेदाः । स च परिणामापेक्षः तीव्रोऽध्यवसायोऽशुभो जम्बूफलबुभुक्षुषट्पुरुषदृष्टान्तादिसाध्यः । अपरे त्वाहुः-योगपरिणामो लेश्या । यस्मात्कायवाग्व्यापारोऽपि मनः परिणामापेक्षस्तीव्र एवाशुभो भवति । अशुभशुभकर्मद्रव्यसदृशाः स्वान्तः परिणामा जायन्ते प्राणिनां वर्णाश्चेति । का हरिताल - हिंगुलिकादयः, तेषां कुड्यादौ चित्रकर्मणि स्थैर्यमापादयति श्लेषो वर्णानां बन्धे दृढीकरणम् । एवमेता लेश्याः कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यस्तीव्रपरिणामाः स्थितिं कर्मणामतिदीर्घां विदधति, दुःखबहुलां कृष्णनीलकापोताख्या निकाचनावस्थास्थापनेन, तैजसीपद्मशुक्लनामानः शुभस्य कर्मबन्धस्यानुफलदाः शुभबहुलामेव कर्मस्थितिं विदधति महतां ( तीं ? ) विशुद्धा विशुद्धतमाश्चोत्तरोत्तरा भवन्तीति ॥ ३८॥ " - प्रशमरतिप्रकरणटीका ॥ [पृ०६६] “इरियावहिया सा अप्पमत्तसंजतस्स वीतरागछउमत्थकेवलिस्स वा आउत्तं गच्छमाणस वा आउत्तं चिट्ठमाणस्स वा आउत्तं भुंजमाणस्स वा आउत्तं भासमाणस्स वा आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स निक्खेवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवातमवि अत्थि माता सुमा किरिया इरियावहिया कज्जति, सा पढमसमये बद्धपुट्ठा, बितियसमये वेदिता, ततियसमये निज्जिण्णा । सा बद्धा पुट्ठा उदिता वेदिता निज्जिण्णा सेअकाले अकम्मं वा वि भवति" इति आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'पंचहिं किरियाहिं' इत्यस्य चूर्णौ । “इरियावहिया किरिया दुविहा- कज्जमाणा वेइज्जमाणा य, सा अप्पमत्तसंजयस्स वीयरायछउमत्थस्स केवलिस्स वा आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं निसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स निक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवायमवि सुहुमा इरियावहिया कज्जइ, सा पढमसमए बद्धा बिइयसमए वेइया, सा बद्धा पुट्ठा वेइया निजिण्णा सेअकाले अकम्मं से यावि भवइ ।" इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ । [पृ०७७] “सद्धर्मश्रवणादेवं नरो विगतकल्मषः । ज्ञातत्त्वो महासत्त्व: पर संवेगमागत: ॥१३॥ सद्धर्मश्रवणात् पारमार्थिकधर्माकर्णनात् एवम् उक्तनीत्या नरः श्रोता पुमान् विगतकल्मषः व्यावृत्ततत्त्वप्रतिपत्तिबाधकमिथ्यात्वमोहादिमालिन्यः सन्, अत एव ज्ञाततत्त्वः करकमलतलकलितनिस्तलस्थूलामलमुक्ताफलवच्छास्त्रलोचनबलेना-लोकितसकलजीवादिवस्तुवादः, तथा महत् शुद्धश्रद्धानोन्मीलनेन प्रशस्यं सत्त्वं पराक्रमो यस्य स तथा, परं प्रकृष्टं संवेगम् उक्तलक्षणमागतः अवतीर्णः सन् किं करोतीत्याह धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा संजातेच्छोऽत्र भावतः । दृढं स्वशक्तिमालोच्य ग्रहणे संप्रवर्तते ॥१४॥ धर्मोपादेयताम् ‘एक एव सुहृद्धर्मो मृतमप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत् तु गच्छति ॥१०२॥' [ ] इत्यादिवचनात् धर्मोपादेयभावं ज्ञात्वा अवगम्य संजातेच्छः लब्धचिकीर्षापरिणामः अत्र धर्मे दृढम् अतिसूक्ष्माभोगेन स्वशक्तिं स्वसामर्थ्यमालोच्य विमृश्य ग्रहणे वक्ष्यमाणयोगवन्दनादिशुद्धिविधिना प्रतिपत्तावस्यैव धर्मस्य संप्रवर्त्तते सम्यक् प्रवृत्तिमाधत्ते, अदृढालोचने हि अयथाशक्ति धर्मग्रहणप्रवृत्तौ भङ्गसंभवेन प्रत्युतानर्थभाव इति दृढग्रहणं कृतमिति। - धर्मबिन्दुटीका॥ [पृ०९४ पं०२२] “सचरित्तपच्छयावो निंदा...... ॥१०४९।। व्याख्या- स(स्व?)चरित्रस्य सत्त्वस्य पश्चात्तापो निन्दा, स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सेत्यर्थः, उक्तं च- “आत्मसाक्षिकी निन्दा” [ ] _ [पृ०९४ पं०२४] “गरहा वि तहाजाईयमेव नवरं परप्पगासणया ।..... ॥१०५०॥ व्याख्या- गर्दापि तथाजातीया एवेति निन्दाजातीयैव, नवरम् एतावान् विशेषः परप्रकाशनया गर्दा भवति या गुरोः प्रत्यक्षं जुगुप्सा सा गर्हेति ‘परसाक्षिकी गर्हा' [ ] इति वचनात्'' - आवश्यकनियुक्ति० हारि० ॥ [पृ०९७] “उववजेजा से चेव णं असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सेसु वा गच्छेज्जा तिरिक्खजोणिएसु वा गच्छेज्जा एवं जाव थणियकुमारा । पुढविक्काइया दुगइया दुआगइया पण्णत्ता, तंजहा- पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा नोपुढविकाइएहितो वा उववज्जेज्जा से चेव णं पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा नोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा एवं जाव मणुस्सा । वाणमंतर जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा।" - भां० ॥ [पृ०१०९ पं०१०] "भावपडिमा पंचविधा, तंजधा- समाहिओवहाणे य विवेकपडिमाइ य । पदिसंलीणा य तहा एगविहारे य पंचमीया ॥ [नि० ४८], चूर्णि:- समाधिपडिमा, Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । उवधानपडिमा, विवेगपडिमा, पडिसलीनपडिमा, एगविधारपडिमा । समाधिपडिमा द्विविधासुत्तसमाधिपडिमा चरित्तसमाधिपडिमा य, दर्शनं तदन्तर्गतमेव । सुतसमाधिपडिमा छावडिं, कहं ? उच्यते- आयारे बायाला पडिमा सोलस य वन्निया ठाणे । चत्तारि अ ववहारे मोए दो दो चंदपडिमाओ॥ [नि.४९] चूर्णि:- आयारे बातालीसं, कहं ? आयारग्गेहिं सत्तत्तीसं, बंभचेरेहि पंच, एवं बातालीसं आयारे, ठाणे सोलस विभासितव्वा, ववहारे चत्तारि, दो मोयपडिमा खुड्डिगा महल्लिगा य मोयपडिमा, दो चंदपडिमा-जवमज्झा वइरमज्झा य । एवं एता सुयसमाधिपडिमा छावट्ठि। एवं च सुयसमाधिपडिमा छावट्ठिया य पन्नत्ता । समाईयमाईया चारित्तसमाहिपडिमाओ॥ [नि.५०] चूर्णि:- इमा पंच चारित्तसमाहिपडिमातो, तंजधा- समाइयचरित्तसमाधिपडिमा जाव अधक्खातचरित्तसमाधिपडिमा । उवहानपडिमा दुविधा- भिक्खूणं उवहाणे उवासगाणं च वन्निया सुत्ते । गणकोवाइ विवेगो सन्भिंतरबाहिरो दुविहो ॥ [नि.५१] चूर्णि:- भिक्खूणं उवहाणे बारसपडिमा सुत्ते वन्निजति । उवासगाणं एक्कारस सुत्ते वन्निता, विवेगपडिमा एक्का, सा पुन कोहादि, आदिग्रहणात् सरीरउवधिसंसारविवेगा । सा समासतो दुविधा अभिंतरगा बाहिरा य । अभिंतरिया कोधादीणं। आदिग्रहणात् मानमायालोभकम्मसंसाराण य । बाहिरिया गणसीरभत्तपाणस्स य अनेसणिज्जस्स। पडिसलीणपडिमा चउत्था । सा एक्का चेव । सा पुन समासेण दुविधाइंदियपडिसलीणपडिमा य नोइंदियपडिसलीनपडिमा य । इंदियसंलीणपडिमा पंचविधा- सोइंदियमादीआ पदिसंलीणया चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य एगविहारिस्स पंचमिया ॥ [नि.५२] चूर्णिः-सोतिदियविसयपयारणिसेहो वा सोतिंदियपजुत्तेसु वा अत्थेसु रागद्दोसणिग्गहो । एवं पंचण्ह वि। नोइंदियपडिसलीणता तिविधा-जोगपडिसलीनता कसायपडिसलीनता विचित्तसयणासनसेवणता जधा पन्नतीए । अहवा अभिंतरिया बाहरिगा य । एगविहारिस्स एगा चेव, सा य कस्स ? कप्पति आयरिस्स अट्ठगुणोववेतस्स अट्टगुणा आयारसंपदादी समग्गो उववेतो किं सव्वस्सेव, नेत्युच्यते- जो सो अतिसेसं गुणेति विज्जादि पव्वेसु। उक्तं च- अंतो उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा तिरातं वा वसभस्स वा गीतत्थस्स विज्जादिनिमित्तं ।” - दशाश्रुतस्कन्ध०चूर्णिः । [पृ०११२ पं०११] “जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे णेरइएसु..... ॥ गब्भगए समाणे त्ति गर्भगतः सन्, मृत्वेति शेषः ‘एगइए'त्ति सगर्वराजादिगर्भरूपः, सञ्जित्वादिविशेषणानि गर्भस्थस्यापि नरकप्रायोग्यकर्मबन्धसम्भवाभिधायकतयोक्तानि, वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्या संग्रामयतीति योगः, अथवा वीर्यलब्धिको वैक्रियलब्धिकश्च सन्निति, पराणीएणं ति परानीकं शत्रुसैन्यं सोच्च त्ति आकर्ण्य निशम्य मनसाऽवधार्य पएसे निच्छुभइ त्ति [प्रदेशान्] गर्भदेशाद् बहिः क्षिपति समोहणइ त्ति समवहन्ति समवहतो भवति तथाविधपुद्गलग्रहणार्थम्, सङ्ग्रामं सङ्ग्रामयति युद्धं करोति, अत्थकामए इत्यादि अर्थे द्रव्ये कामो वाञ्छामात्रं यस्यासावर्थकामः, एवमन्यान्यपि विशेषणानि, नवरं राज्यं नृपत्वं भोगा गन्धरसस्पर्शा कामौ शब्दरूपे काङ्क्षा गृद्धि: आसक्तिरित्यर्थः, अर्थे काङ्क्षा Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । संजाताऽस्येत्यर्थकाङ्क्षितः, पिपासेव पिपासा प्राप्तेऽप्यर्थेऽतृप्तिः, तच्चित्ते त्ति तत्र अर्थादौ चित्तं सामान्योपयोगरूपं यस्यासौ तच्चित्तः, तम्मणे त्ति तत्रैव अर्थादौ मनो विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः, तल्लेसे त्ति लेश्या आत्मपरिणामविशेषः, तदज्झवसिए त्ति इहाध्यवसायोऽध्यवसितम् । तत्र तच्चित्तादिभावयुक्तस्य सतस्तस्मिन् अर्थादावेवाध्यवसितं परिभोगक्रियासंपादनविषयमस्येति तदध्यवसितः, तत्तिव्वज्झवसाणे त्ति तस्मिन्नेव अर्थादौ तीव्रम् आरम्भकालादारभ्य प्रकर्षयायि अध्यवसानं प्रयत्नविशेषलक्षणं यस्य स तथा, तदट्ठोवउत्ते त्ति तदर्थम् अर्थादिनिमित्तमुपयुक्तः अवहितस्तदर्थोपयुक्तः, तदप्पियकरणे त्ति तस्मिन्नेव अर्थादावर्पितानि आहितानि करणानिइन्द्रियाणि कृत-कारिता-ऽनुमतिरूपाणि वा येन स तथा, तब्भावणाभाविए त्ति असकृदनादौ संसारे तद्भावनया अर्थादिसंस्कारेण भावितो यः स तथा, एयंसि णं अंतरंसि त्ति एतस्मिन् सङ्ग्रामकरणावसरे कालं मरणमिति ॥" - भगवती० अभय० ११७।१९ ।। [पृ०१३३] “अश्वियमददहनकमलजशशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः । योन्यर्यमदिनकृत्त्वष्टपवनशक्राग्निमित्राश्च ॥४॥ शक्रो निर्ऋतिस्तोयं विश्वे ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः । अजपादोऽहिर्बुध्न्यः पूषा चेतीश्वरा भानाम् ॥५॥ अश्वियमदहनेति । अश्व्यादीनां क्रमेण भानां नक्षत्राणामीश्वराः । तद्यथा- अश्विनावश्विन्याः । यमो भरण्याः । दहनोऽग्निः कृत्तिकायाः । कमलजो ब्रह्मा रोहिण्याः । शशी चन्द्रो मृगशिरसः । शूलभृद्रुद्र आर्द्रायाः । आदित्यः पुनर्वसोः । जीवो बृहस्पतिस्तिष्यस्य । फणी सर्प आश्लेषायाः । पितरो मघायाः । योनिर्भगः पूर्वफल्गुन्याः । अर्यमा उत्तरफल्गुन्याः । दिनकृदादित्यो हस्तस्य । त्वष्टा चित्रायाः । पवनो वायुः स्वातेः । शक्राग्नी इन्द्राग्नी विशाखायाः । मित्रोऽनुराधायाः । शक्र इन्द्रो ज्येष्ठायाः । निर्ऋती राक्षसो मूलस्य । तोयं जलं पूर्वाषाढायाः । विश्वे देवा उत्तराषाढायाः । ब्रह्माऽभिजितः । हरिर्विष्णुः श्रवणस्य । वसुर्धनिष्ठायाः । वरुणोऽपाम्पतिः शतभिषजः । अजपादोऽजैकपात् पूर्वभद्रपदायाः । अहिर्बुध्न्य उत्तरभद्रपदायाः । पूषा रेवत्याः । चशब्दः समुच्चये । इत्येवंप्रकारा भानां नक्षत्राणामीश्वराः स्वामिनो नक्षत्रदेवताः ॥९७।४-५॥ - वाराही बृहत्संहिता भट्टोत्पलटीका ॥ [पृ०१३३ पं० १३] “तत्थ खलु इमे अट्ठासीती महग्गहा पं०, तं०- इंगालए वियालए लोहितके सनिच्छरे आहुणिए पाहुणिए कणओ कणए कणकगए कणविताणए १० कणगसंताणे सोमे सहिते अस्सासणो कज्जोवए कब्बडए अयकरए दुंदुभए संखे संखनाभे २० संखवण्णाभे कंसे कंसनाभे कंसवण्णाभे नीले नीलोभासे रुप्पे रुप्पोभासे भासे भासरासी ३० तिले तिलपुप्फवण्णे दगे दगवण्णे काये काकंधे इंदग्गी धूमकेतू हरी पिंगलए ४० । बुधे सुक्कबहस्सती राहू अगत्थी माणवए कासे फासे धुरे पमुहे वियडे ५० विसंधीकप्पे नियल्ले पइल्ले जडियायलए अरुणे अग्गिल्लए काले महाकाले सोत्थिए सोवत्थिए वद्धमाणगे ६० पलंबे निच्चालोए निच्चुजोते सयंपभे ओभासे सेयंकरे खेमकरे आभंकरे पभंकरे अरए ७० विरए असोगे Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । वीतसोगे य विमले वितत्ते विवत्थे विसाले साले सुव्वते अनियट्टी एगजडी ८० दुजडी करकरिए रायऽग्गले पुप्फकेतू भावकेतू, संगहणी इंगालए वियालए लोहितके सनिच्छरे चेव । आहुणिए पाहुणिए कणकसणामावि पंचेव ॥ सोमे सहिते अस्सासणे य कज्जोवए य कब्बरए । अयकरए दुंदुभए संखसणामावि तिन्नेव ॥ तिन्नेव कंसणामा नीले रुप्पी य हुति चत्तारि । भास तिलपुप्फवण्णे दगवण्णे काल वंधे य ॥ इंदग्गी धूमकेतू हरि पिंगलए बुधे य सुक्के य । बहसति राहु अगत्थी माणवए कामफासे य ॥ धुरए पमुहे वियडे विसंधिकप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अग्गिल काले महाकाले । सोत्थिय सोवत्थिय वद्धमाणगे तधा पलंबे य । निच्चालोए निच्चुजोए सयंपभे चेव ओभासे ॥ सेयंकर खेमंकर आभंकर पभंकरे य बोद्धव्वे । अरए विरए य तहा असोग तह वीतसोगे य । विमले वितत्त विवत्थे विसाल तह साल सुव्वते चेव । अनियट्टी एगजडी य होइ बिजडी बोद्धव्वो ॥ करकरिए रायऽग्गल बोद्धव्वे पुप्फ भावकेतू य । अट्ठासीति गहा खलु नेयव्वा आनुपुव्वीए॥ सम्प्रति पूर्वमष्टाशीतिसङ्ख्या ग्रहा उक्तास्तान् नामग्राहमुपदिदर्शयिषुराह 'तत्थ खलु' इत्यादि तत्र- तेषु चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र-तारारूपेषु मध्ये ये पूर्वमष्टाशीतिसङ्ख्या ग्रहाः प्रज्ञप्ताः से इमे तद्यथा- 'इंगालए' इत्यादि सुगमम्, एतेषामेव नाम्नां सुखप्रतिपत्यर्थं सङ्ग्रहणिगाथा: आसां व्याख्या- अङ्गारकः १ विकालकः २ लोहित्यकः ३ शनैश्चरः ३ आधुनिकः ५ प्राधुनिकः ६ कणगसनामावि पंचेव'त्ति कनकेन सह एकदेसेन समानं नाम येषां ते कनकसमाननामानस्ते पञ्चैव प्रागुक्तक्रमेण द्रष्टव्याः, तद्यथा- कण: ७ कणकः ८ कणकणक: ९ कणवितानक: १० कणसन्तानकः ११ । सोमेत्यादि सोमः १२ सहित- १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कर्बटक: १६ अजकरक: १७ दुन्दुभकः १८ शंखसमाननामस्त्रयस्तद्यथा- शङ्ख: १९ शङ्खनामः २० शङ्खवर्णाभः २१ । तिन्नेवेत्यादि त्रयः कंसनामानः, तद्यथा- कंसः २२ कंसनाभ: २३ कंसवर्णाभः २४ 'नीले रुप्पी य हवंति चत्तारि'त्ति नीले रुप्पे च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसम्भवात् सर्वसङ्ख्यया चत्वारः, तद्यथा- नीलः २५ नीलावभासः २६ रूप्पी २७ रूप्यवभास: २८ भासेति नामद्वयोपलक्षणं तद्यथाभस्म २९ भस्मराशि ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णकः ३२ दक: ३३ दकवर्ण ३४ काय: ३५ वन्ध्य ३६ । इन्द्राग्नि ३७ धूमकेतुः ३८ हरि ३९ पिङ्गलः ४० बुधः ४१ शुक्रः ४२ बृहस्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ । धुर: ४८ प्रमुखः ४९ विकट: ५० विसन्धिकल्प: ५१ प्रकल्प: ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्नि ५५ काल: ५६ महाकालः ५७ । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । स्वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्द्धमानकः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयम्प्रभः ६४ अवभासः ६५ । श्रेयस्करः ६६ खेमकर ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजा ७० विरजा ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ । विवर्त्तः ७४ विवस्त्रः ७५ विशाल: ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ । करः ८२ करिकः ८३ राजः ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः ८८ ।” इति मलयगिरिसूरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तौ ।। [पृ०१५१] “माया लोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुनद्वैष इति समासनिर्दिष्टः ॥३२॥ टीका- उक्तलक्षणौ मायालोभौ । तावेव द्वन्द्वं मिथुनं रागसंज्ञितं रागनामकम् । क्रोधमानौ चोक्तलक्षणावेव । एतदपि द्वन्द्वं द्वयं द्वेष इति निर्दिश्यते संक्षेपतः ॥३२॥" - प्रशमरतिटीका ॥ [पृ०१५१] 'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ ।..... ॥९९॥' व्या० 'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ' त्ति जोगाओ पगतिबंधो पदेसबंधो य भवति, कहं ? भन्नइ, जोगाओ पएसगहणं पदेसविरहिओ पगतीणं बंधो पत्थिः, तेण जोगा पगतिपदेसबंधो। ठितिबंधं अणुभागबंधं च कसायतो करेइ । कहं ? भन्नइ, कम्मस्स णिबद्धस्स ट्ठिई रसभावो य कसायतो भवति, ते चेव ठितिअणुभागा। एत्थ अद्दहणतंदुलदिढतो, अद्दहणतुल्लो अणुभागो, तंदुलत्थाणीया पदेसा, जो रद्धो सो चिरकालठाति, इतरो वा पगतीबलातिकरणं ।" - बन्धशतक० चूर्णिः ॥ [पृ०१८१ पं०२०] “औदारिकशरीरकायप्रयोगः, इहौदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात् उपचीयमानत्वात् कायः औदारिककायः, तस्य प्रयोग इति समासः, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः तथौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगः, अयं चापर्याप्तकस्येति, आह- केन सहौदारिकं मिश्रम् ?, उच्यतेकार्मणेन, तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शस्त्रपरिज्ञाध्ययने- 'जोएण कम्मएणं आहारेती अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स णिप्फत्ती ॥१।।' आह- यद्येवं किमयं कार्मणमिश्र इति न व्यपदिश्यते ? मिश्रभावस्य द्विष्ठत्वात् विशेषाभावाच्च, उच्यते- कार्मणस्यासंसारमविच्छेदेनावस्थितत्वात् [सर्व शरीरेष्वेव भावात् तिर्यङ्मनुष्यवैक्रियाद्यारम्भसमयेऽनेकधा मिश्रोपपत्तेः, सूत्रे च विचित्रमिश्रताया अनभिधानात्, तस्मादुत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात् कादाचित्कत्वाच्चौदारिकमिश्र एव व्यपदिश्यत इति, यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिको वा पर्याप्तकबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकशरीरकाययोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय यावद्वैक्रियशरीरपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति तावद्वैक्रियेण मिश्रताऽव्यपदेशश्चौदारिकस्य Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । प्रारम्भकत्वादिति । एवमाहारकेणापि सह मिश्रता वेदितव्या, आहारयति च तेनैवेत्यलं विस्तरेण, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगस्तदपर्याप्तकस्य कार्मणेनैव एतदुक्तं भवति - देवनारकेषूत्पद्यमानस्य अपर्याप्तकस्येति, आक्षेपपरिहारौ प्राग्वत् । लब्धिवैक्रियपरित्यागे चौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्तेर्वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि मिश्रतेत्येके । तथा आहारकशरीरकायप्रयोगस्तदभिनिवृत्तौ सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात्, तथा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदारिकेन सह, तत्परित्यागेनेतरग्रहणायोद्यतस्य, एतदुक्तं भवतियदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत् सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति । " - प्रज्ञापना० हारि० ॥ [पृ०१८५] “अधिकारिवशात् शास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या विज्ञेया गुणदोषयोः ||२५|| ( वृत्तिः ) अधिकारोऽस्यास्तीति अधिकारी योग्याऽनुष्ठाता, तस्य वशोऽपेक्षा अधिकारिवशस्तस्मात्, न यथाकथञ्चिदित्यर्थः । शास्त्रे सुनिश्चितासागमे, धर्मसाधनयो: प्रस्तुतयोर्द्रव्यस्नानभावस्नानलक्षणयोः संस्थितिः सम्यग्व्यवस्था, धर्मसाधनसंस्थितिः, किंरूपेयमित्याह । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या रोगचिकित्साव्यवस्थासमाना, विज्ञेया सद्गुरूपदेशादर्थिभिरवसेया । कयोर्विषय इत्याह गुणदोषयोः गुणदोषावाश्रित्येत्यर्थः । इयमत्र भावना । यथातुरवशाद्व्याधिचिकित्सा गुणकरी दोषकरी च तथा मलिनारम्भीतरलक्षणानुष्ठातृवशाद् द्रव्येतरस्नानरूपे धर्मसाधने गुणदोषकरे, द्रव्यस्नानं मलिनारम्भिण एव गुणकरं नेतरस्येति हृदयम्, यतो मलिनारम्भी देवतोद्देशेन स्नानादावधिकारी न त्वितरः । श्री अष्टकप्रकरणटीका ॥ - [पृ०१८६] “एतदिह भावयज्ञः सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयाविच्छित्त्या नियमादपवर्गबीजमिति || ६ |१४|| विवरणम् :- किमिति शस्तं निदर्शितमित्याह- एतदित्यादि । एतद् जिनभवनम् इह लोके भावयज्ञो भावपूजा सद्गृहिणः सद्गृहस्थस्य जन्मफलमिदं परमं जन्मफलमिदं प्रधानं वर्त्तते, अभ्युदयाव्युच्छित्त्या, अभ्युदयस्य स्वर्गादेरव्यवच्छेदेन सन्तत्या नियमादपवर्गबीजमिति नियमेनापवर्गस्य मोक्षस्य कारणमिति कृत्वा ||६|१४|| योगदीपिका एतदित्यादि । एतद् जिनभवनविधानम् इह लोके भावयज्ञो यजेर्देवपूजार्थत्वाद्भावपूजा द्रव्यस्तवस्याप्यस्योक्तविधिशुद्धिद्वाराऽऽज्ञाराधन-लक्षणभावपूजागर्भितत्त्वात् । सद्गृहिणः सद्गृहस्थस्य जन्मनः फलमिदं परमं प्रधानमाजन्मार्जितधनस्यैतावन्मात्रसारत्वात् । अभ्युदयस्य स्वर्गादेरव्यवच्छेदेन सन्तत्या नियमात् निश्चयेन अपवर्गतरोः मोक्षवृक्षस्य बीजमेतत् ||६| १४ || ” - षोडशकटीका ॥ " -: [ पृ०१८७ ] “पयईअ तणुकसायो दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तो माउं बंध जीवो ||२२|| व्या० 'पयईअ तणुकसायो' त्ति पगईए अप्पकसाओ, पगईए भद्दगो, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । पगईए विणीओ, जहिं तहिं वा दाणरओ, वालुकराइसरिसरोसो, सीलसंजमरहिओ, 'मज्जिमगुणेहि जुत्तो' त्तिणाइकिलिट्टो, ण विसुद्धो, उज्जु, उज्जुकम्मसमाचारो, मणुयाउगं कम्मं बन्धइ ||२२|| इयाणिं देवाउअस्स पच्चओ भन्नइ - “अणुवयमहव्वएहि य बालतवाकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिट्ठी उ जो जीवो ||२३|| व्या० 'अणुवयमहव्वयएहिं' ति अणुव्वयगहणणं पंचणुव्वयधरो, सत्तसिक्खाणिरओ सावगो । महव्वयगहणेण छज्जीवनिकायसं जमरओ, तवणियमबम्भचारी, सरागसंजओ । 'बालतव' त्ति अणहिगयजीवाजीवा, अणुवलद्धसब्भावा, अन्नाणकयसंजमा, मिच्छद्दिट्टिणो गहिया । 'अकामणिज्जराए य' त्ति अकामतण्हाए, अकामच्छुहाए, अकामबंभचेरेणं, अकामसेयजल्लपरियावणयाए, चारगणिरोहबन्धणाईया, दीहकालरोगिणो य, असंकिलिट्ठा, उदगराइसरिसरोसा, तरुवरसिखरणिवाइणो, अणसणजलजलणपवेसिणो य गहिया, ‘देवाउगं णिबन्धन्ति' एए सव्वे देवाउगं कम्मं बन्धन्ति । 'सम्मद्दिट्ठी जो जीवो' त्ति तिरियमणुया अविराहियसम्मदंसणा अविरयावि देवाउगं णिबन्धंति ||२३|| ' बन्धशतक० चू० ॥ [पृ०१८८] " इयाणिमाउगस्स पच्चओ भन्नइ - 'मिच्छद्दिट्ठी महारम्भपरिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो । निरयाउयं निबंधइ पावमई रुद्रपरिणामो ||२०|| व्या० 'मिच्छद्दिट्ठी' धम्मस्स परम्मुहो, ‘महारम्भपरिग्गहो' त्ति जम्मि आरम्भे बहूणं जीवाणं धाओ भवइ सो महारम्भो, जम्मि परिग्गहे बहूणं जीवाणं घाओ भवइ सो महापरिग्गहो, 'तिव्वलोभ णिस्सीलो' त्ति णिम्मेरपच्चक्खाणपोसहोववासो, अग्गिरिव सव्वभक्खी णिरयाउगं कम्मं बन्धइ । 'पावमइ रुद्दपरिणामो' त्ति | पावमई असुभचित्तो पत्थरभेयसमाणचित्तोति । रोद्दपरिणामो सव्वकालं मारणाइचित्तो ||२०||” बन्धशतक० चू० ॥ [पृ०१९०] “पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक्परिशुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः ||४|५|| विवरणम् :- पापजुगुप्सालक्षणमाह- पापेत्यादि । पापजुगुप्सा तु तथा पापपरिहाररूपा, सम्यक्परिशुद्धचेतसा अविपरीतपरिशुद्धमनसा, सततम् अनवरतं पापोद्वेगः अतीतकृतपापोद्विग्नता, अकरणं पापस्य वर्त्तमानकाले, तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः- तस्मिन् भाविनि पापे अचिन्ता अचिन्तनम्, अनुक्रमेणआनुपूर्व्या कालत्रयरूपया अथवा पापोद्वेगः पापपरिहारः कायप्रवृत्तया, अकरणं वाचा, तदचिन्ता पापाचिन्ता मनसा, सर्वाऽपीयं पापजुगुप्सा धर्मतत्त्वस्य लिङ्गम् ||४|५|| - - योगदीपिका :- पाप-जुगुप्सालक्षणमाह-पापेत्यादि । पापजुगुप्सा तु तथा तेन प्रकारेण पापनिषेधकमुखकराद्यभिनयविशेषेणाभिव्यज्यमाना सम्यग् अविपरीतं परिशुद्धं यच्चेतो मनस्तेन सततमनवरतम्, पापस्यातीतकृतस्य उद्वेगो निन्दा, अकरणं पापस्य वर्तमानकाले, तस्मिन् भाविनि पापेऽचिन्ताऽचिन्तनमित्यनुक्रमतआनुपूर्व्या कालत्रयरूपया । यद्वा पापोद्वेगः पापपरिहारः कायप्रवृत्तया, अकरणं वाचा, तदचिन्ता पापाचिन्तनं मनसा । सर्वापीयं पापजुगुप्सा धर्मतत्त्वस्य लिङ्गम् ||४|५||” षोडशकटीका ॥ ९ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । [पृ०१९९] “दुष्प्रतिकारौ माता पितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः ॥७१॥ टीका- दुःखप्राप्यप्रतीकारो दुःकर इति वा दुष्प्रतिकारः । मातापितरौ तावदुष्प्रतिकारौ । माता तु जातमात्रस्यैवाभ्यङ्गस्नान-स्तनक्षीरदान-मूत्रा-ऽशुचिक्षालनादिनोपकारेण वृद्धिमुपनयति कल्प[ल्य]वार्ताद्याहारप्रदानेनोपकारवती अदृष्टपूर्वस्याकृतोपकारस्य वा अपत्यस्य दुःप्रतिकारा । न हि तस्याः प्रत्युपकारः शक्यते कर्तुम्। पितापि हितोपदेशदानेन शिक्षाग्राहणेन भक्तपरिधानप्रावरणादिनोपग्रहेणानुगृह्णानो दुःप्रतिकारः । स्वामी राजादि त्यानां जलदानाकरादिना कृत्वेत्युपकारकः । भृत्यास्तु न तथा प्रत्युपकारसमर्थाः । प्राणव्ययमहा( यद्यपि श्रियमानयन्ति स्वामिनो भृत्यास्तथापि पूर्वमकृतोपकाराणामेव भृत्यानामुपकारकः स्वामी, भृत्यास्तु कृतोपकाराः प्रत्युपकुर्वन्ति। गुरुराचार्यादिः, स च दुःप्रतिकारः, सन्मार्गोपदेशदायित्वात् शास्त्रार्थप्रदानात् संसारसागरोत्तारणहेतुत्वात् इहामुत्र च इहलोके परलोके सुदुर्लभतरः प्रतीकारो यस्य गुरोरिति सुष्ठ दुर्लभतर: प्रतीकार इति ॥७१॥” - प्रशमरतिटीका ॥ [पृ०२१८ पं०९] मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव.... साएते णगरे चंडवडंसओ राया, तस्स दुवे पत्तीओ- सुदंसणा पियदसणा य, तत्थ सुदंसणाए दुवे पुत्ता-सागरचंदो मुणिचंदो य पियदंसणाएवि दो पुत्ता-गुणचंदो बालचंदो य, सागरचंदो जुवराया, मुणिचंदस्स उज्जेणी दिण्णा कुमारभुत्तीए । इओ य चंडवडंसओ राया माहमासे पडिम ठिओ वासघरे जाव दीवगो जलइत्ति, तस्स सेज्जावाली चिंतेइ- दुक्खं सामी अंधतमसे अच्छिहिति, ताए बितिए जामे विज्झायंते दीवगे तेल्लं छूढं, सो ताव जलिओ जाव अद्धरत्तो, ताहे पुणोवि तेल्लं छूढं ताव जलिओ जाव पच्छिमपहरो, तत्थवि छूढं, ततो राया सुकुमारो विहायंतीए रयणीए वेयणाभिभूओ कालगओ, पच्छा सागरचंदो राया जाओ । अण्णया सो माइसवत्तिं भणइ- गेण्ह रजं पुत्ताण ते भवउत्ति, अहं पव्वयामि, सा णेच्छइ एएण रजं आयत्तंति, तओ सा अतिजाणनिजाणेसु रायलच्छीए दिप्पंतं पासिऊण चिंतेइ-मए पुत्ताण रजं दिजंतं ण इच्छियं, तेवि एवं सोभन्ता, इयाणीवि णं मारेमि, छिद्दाणि मग्गइ, सो य छूहालू, तेण सूतस्स संदेसओ दिण्णो, एत्तो च्वेव पुव्वण्हियं पट्ठविज्जासि, जइ विरावेमि, सूएण सीहकेसरओ मोदओ चेडीए हत्थेण विसज्जिओ, पियदसणाए दिट्ठो, भणइ-पेच्छामि णं ति, तीए अप्पितो, पुव्वं णाए विसमक्खिया हत्था कया, तेहिं सो विसेण मक्खिओ, पच्छा भणइ-अहो सुरभी मोयगोत्ति पडिअप्पिओ, चेडीए ताए गंतूण रण्णो समप्पिओ, ते य दोवि कुमारा रायसगासे अच्छंति, तेण चिंतियं- किह अहं एतेहिं छुहाइएहिं खाइस्सं ?, तेण दुधा काऊण तेसिं दोण्हवि सो दिण्णो, ते खाइउमारद्धा, जाव विसवेगा आगंतुं पव्वत्ता, राइणा संभंतेण वेजा सद्दाविता, सुवण्णं पाइया, सज्जा जाया, पच्छा दासी सद्दाविया, पुच्छिया भणइ- ण केणवि दिट्ठो, णवरं एयाणं मायाए परामुट्ठो, सा सद्दाविया भणिया- पावे ! तदा णेच्छसि रजं दिजंतं, इयाणिमिमिणाहं ते अकयपरलोयसंबलो संसारे छूढो होतो त्ति तेसि रजं दाऊण Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । पव्वइओ । अण्णया संघाडओ साहूण उज्जेणीओ आगओ, सो पुच्छिओ- तत्थ णिरुवसग्गं ?, ते भणंति- णवरं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य बाहिति पासंडत्थे साहूणो य, सो गओ अमरिसेणं तत्थ, विस्सामिओ साहूहिं, ते य संभोइया साहू, भिक्खावेलाए भणिओ- आणिजउ, भणइ-अत्तलाभिओ अहं, णवरं ठवणकुलाणि साहह, तेहिं से चेल्लओ दिण्णो, सो तं पुरोहियधरं दंसित्ता पडिगओ, इमोवि तत्थेव पइट्ठो वड्डवड्डेणं सद्देणं धम्मलाभेइ, अंतउरिआओ निग्गयाओ हाहाकारं करेंतीओ, सो वड्डवड्डेणं सद्देणं भणइ-किं एवं साविए त्ति, ते णिग्गया बाहिं बारं बंधंति, पच्छा भणंतिभगवं ! पणच्चसु, सो पडिग्गहं ठवेऊण पणच्चिओ, ते ण याणंति वाएउं, भणंति- जुज्झामो, दोवि एक्कसरा ते आगया, मम्मेहिं आहया, जहा जंताणि तहा खलखलाविआ, तओ णिसिटुं हणिऊण बाराणि उग्घाडित्ता गओ, उज्जाणे अच्छति, राइणो कहियं, तेण मग्गाविओ, साहू भणंतिपाहूणओ आगओ, ण याणामो, गवेसंतेहिं उजाणे दिट्ठो, राया गओ खामिओ य, णेच्छइ मोत्तुं, जइ पव्वयंति तो मुयामि, ताहे पुच्छिया, पडिसुयं, एगत्थ गहाय चालिया जहा सट्ठाणे ठिया संधिणो, लोयं काऊण पव्वाविया, रायपुत्तो सम्मं करेति मम पित्तियत्तो त्ति, पुरोहियसुयो दुगंछइ अम्हे एएण कवडेण पव्वाविया, दोवि मरिऊण देवलोगं गया, संगारं करेंति- जो पढमं चयइ तेण सो संबोहेयव्वो, पुरोहियसुओ चइऊण तीए दुगुंछाए रायगिहे मेईए पोट्टे आगओ, तीसे सिट्टिणी वयंसिया, सा किह जाया !, सा मंसं विक्किणइ, ताए भण्णइ- मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं सव्वं किणामि, दिवसे दिवसे आणेइ, एवं तासिं पीई घणा जाया, तेसिं चेव घरस्स समोसीइयाणि ठियाणि, सा य सेट्ठिणी शिंदू, ताहे मेईए रहस्सियं चेव तीसे पुत्तो दिण्णो, सेट्ठिणीए धूया मइया जाया, सा मेईए गहिया, पच्छा सा सेट्ठिणी तं दारगं मेईए पाएसु पाडेति, तुब्भ पभावेण जीवउ त्ति, तेण से नाम कयं मेयज्जो त्ति, संवडिओ, कलाओ गाहिओ, संबोहिओ देवेण, ण संबुज्झइ, ताहे अट्ठण्हं इब्भकण्णगाणं एगदिवसेण पाणी गेण्हाविओ, सिबियाए णगरि हिंडइ, देवोवि मेयं अणुपविट्ठो रोइउमारद्धो, जइ ममवि धूया जीवंतिया तीसेवि अज्ज विवाहो कओ होतो, भत्तं च मेताण कयं होतं, ताहे ताए मेईए जहावत्तं सिटुं, तओ रुट्ठो देवाणुभावेण य ताओ सिबियाओ पाडिओ तुम असरिसीओ परिणेसि त्ति खड्डाए छूढो, ताहे देवो भणइ- किह ?, सो भणइअवण्णो, भणइ-एत्तो मोएहि किंचिकालं, अच्छामि बारस वरिसाणि, तो भणइ-किं करेमि ?, भणइ-रण्णो धूयं दवावेहि, तो सव्वाओ अकिरियाओ ओहाडियाओ भविस्संति, ताहे से छगलओ दिण्णो, सो रयणाणि वोसिरइ, तेण रयणाण थालं भरियं, तेण पिया भणिओ रण्णो धूयं वरेहि, रयणाणं थालं भरेत्ता गओ, किं मग्गसि ?, धूयं, णिच्छूढो, एवं थालं दिवसे दिवसे गेण्हइ, ण य देइ, अभओ भणइ- कओ रयणाणि ?, सो भणइ- छगलओ हगइ, अम्हवि दिजउ, आणीओ, मडगगंधाणि वोसिरइ, अभओ भणइ- देवाणुभावो, किं पुण ?, परिक्खिजउ, किह ?, भणइराया दुक्खं वेब्भारपव्वतं सामिं वंदओ जाति, रहमग्गं करेहि, सो कओ, अज्जवि दीसइ, भणिओ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । पागारं सोवण्णं करेहि, कओ, पुणोवि भणिओ - जइ समुदं आणेसि तत्थ हाओ सुद्धो होहिसि तो ते दाहामो, आणीओ, वेलाए ण्हाविओ, विवाहो कओ सिबियाए हिंडतेण, ताओवि से अण्णाओ आणियाओ, एवं भोगे भुंजति बारस वरिसाणि, पच्छा बोहितो, महिलाहि वि बारस वरिसाणि मग्गियाणि, दिण्णाणि य, चउव्वीसाए वासेहिं सव्वाणिवि पव्वइयाणि, णवपुव्वी जाओ, एकल्लविहारपडिमं पडिवण्णो, तत्थेव रायगिहे हिंडइ, सुवण्णकारगिहमागओ, सो य सेणियस्स सोवणियाणं जवाणमट्ठसतं करेइ, चेइयच्चणियाए परिवाडिए सेणिओ करेइ तिसंझं, तस्स हिं साहू अइगओ, तस्स एगाए वायाए भिक्खा ण णीणिया, सो य अइगओ, ते य जवा कोंचएण खाइया, सो आगओ ण पेच्छइ, रण्णो य चेतियच्चणियवेला ढुक्कइ, अज्ज अट्ठिखंडाणि कीरामि त्ति, साधुं संकइ, पुच्छइ, तुण्डिक्को अच्छइ, ताहे सीसावेढेण बंधति, भणिओ य- साह जेण गहिया, तहा आवेढिओ जहा अच्छीणि भूमीए पडियाणि, कोंचओ य दारुं फोडेंतेण सलिंकाए आओ गलए, तेण वंता, लोगो भणइ- पाव ! एए ते जवा, सोवि भगवं कालगओ सिद्धो य, लोगो आगओ, दिट्ठो मेत्तज्जो, रण्णो कहियं, वज्झाणि आणत्ताणि, दारं ठइत्ता पव्वइयाणि भांति - सावग ! धम्मेण वड्ढाहि, मुक्काणि, भणइ - जइ उप्पव्वयह तो भे कविल्लीए कड्डेमि । जो कोंचगावराहे पाणिदया कोंचगं तु णाइक्खे । जीवियमणपेतं मेयज्जरिसिं णमंसामि ॥८६९॥” आवश्यक० हारि० ॥ [पृ०२१८ पं०१०] बुयावइत्ता संभाष्य गौतमेन ..... “इतश्च यः सुदंष्ट्राहिकुमारो नौजुषः प्रभोः । उपसर्गानकृत स क्वचिद् ग्रामेऽभवद्धली ॥१॥ स कृष्याजीवकोऽन्येद्युः सीरेण क्रष्टुमुर्वराम् । यावत्प्रवृत्तस्तावत्तं श्रीवीरो ग्राममाययौ ||२|| स्वामिना तस्य बोधाय प्रेषितो गौतमोऽवदत् । किमिदं क्रियते ? दैवनियुक्तमिति सोऽब्रवीत् ||३|| भूयोऽपि गौतमोऽवोचत् क्षुद्रजीविकयाऽनया । जीवतस्तव किं सौख्यं किं वा सुचरितं भवेत् ! ॥४॥ न केवलमिहैवेदं कष्टकृद्भद्र ! कर्म ते । प्राणातिपातभूयिष्ठं कष्टायान्यभवेष्वपि ॥ ५ ॥ कर्मणोऽमुष्य कष्टस्य कष्टं लक्षांशतोऽपि हि । क्रियते धर्मकार्ये चेत्कष्टान्तः स्यात्तदा खलु ||६|| इत्यादि गौतमेनोक्तः स ऊचे साध्वहं त्वया । बोधितोऽद्य भवद्विनं परिव्राजय मां ततः ||७|| प्रबुद्ध इति विज्ञाय गौतमस्तमदीक्षयत् । गन्तुं श्रीवीरपादान्ते समं तेन चचाल च ॥ ८ ॥ पप्रच्छ हालिकर्षिस्तं गन्तव्यं भगवन् ! क्व नु । गौतमोऽप्यवदत् साधो ! गन्तव्यमुपमद्गुरु ||९|| हालिकोऽप्यब्रवीदेवं न तुल्यः sud ध्रुवम् । तवापि किं गुरुः कोऽपि ! स च स्यात्कीदृशो ननु ? ॥ १०॥ अथाख्यद् गौतमोऽस्तीह ते मम विश्वगुरुर्गुरुः । चतुस्त्रिंशदतिशयः सर्वज्ञश्चरमो जिनः || ११|| तच्छ्रुत्वा हालिकमुनिः सर्वज्ञे प्रीतिमुद्वहन् । उपार्जयद् बोधिबीजं प्रययौ चानुगौतमम् ॥ १२ ॥ प्रभुं प्रेक्ष्य च संक्रुद्धः सिंहादिभववैरतः । सौऽवोचद् गौतममुनिं भगवन् ! कोऽयमग्रतः ? || १३ || जगाद गौतमोऽसौ मे धर्माचार्यो जिनेश्वरः । सोऽप्यूचे चेद् गुरुस्तेऽसौ तदा नार्थस्त्वयाऽपि मे || १४ || त्वद्दीयाऽप्यलमिति स रजोहरणादिकम् । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । त्यक्त्वा ययौ निजक्षेत्रे सीरादि पुनराददे ॥१५।। स्वामिनं गौतमो नत्वा पप्रच्छ भगवन्निदम् । आश्चर्यमेष विद्वेषी लोकानन्देऽपि यस्त्वयि ॥१६|| प्रतिपन्नं स्वयमपि व्रतं प्रोज्झितवानसौ । युष्मदालोकनादेव कारणं तत्र नाथ ! किम् ? ॥१७॥ मय्यसौ प्रीतिमान् पूर्वं गुरुर्मेऽसावितीरिते । त्वयि नाथ ! झगित्येव द्वेष्यजायत मय्यपि ॥१८॥ स्वाम्यथाऽऽख्यन्मया सिंहो यस्त्रिपृष्ठेन दारितः । क्रोधात् स्फुरंस्त्वया साम्ना शान्तः सारथिना मम ॥१९॥ तत्प्रभृत्येष मद्वेषी जज्ञे स्निग्धः पुनस्त्वयि । तत्प्रेषयं गौतम ! त्वां बोधिबीजकृतेऽस्य हि ॥२०॥ एवमाख्याय भगवान् प्रययौ पोतनं पुरम् । मनोरमाभिधोद्याने तद्बहि: समवासरत् ॥२१॥” इति त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते नवमे सर्गे।। [पृ०२१८ पं०९] “इतश्चौद्रायणनृपो जज्ञे दशपुरे पुरे । सोमदेवोऽभवद्विप्रो रुद्रसोमा तु तत्प्रिया ॥१॥ ब्राह्मणी रुद्रसोमा सा बभूव परमाहती । दयादिभिर्गुणैर्धर्मद्रुमबीजैरलङ्कृता ॥२॥ तयोरजनिषातां द्वौ तनयौ नयशालिनौ । नाम्नार्यरक्षितो ज्यायान्कनीयान्फल्गुरक्षितः ॥३॥ तत्रार्यरक्षितो मौञ्जीबन्धनादप्यनन्तरम् । अधीयाय पितुरेव सकाशे यद्विवेद सः ॥४॥ ततोऽनुज्ञाप्य पितरावध्येतुमधिकाधिकम् । पाटलीपुत्रनगरे प्रययावार्यरक्षितः ॥५॥ सोऽङ्गानि वेदांश्चतुरो मीमांसान्यायविस्तरम् । पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्राध्यैष्ट विशिष्टधीः ॥६॥ चतुर्दशापि हि विद्यास्थानानि निजनामवत् । कृत्वा कण्ठगतान्यागात्पुरं दशपुरं पुनः ॥७॥ चतुर्वेदोऽयमायातः पूज्य इत्यवनीभुजा। अधिरोह्य करिस्कन्धे स प्रावेश्यत पत्तने ।।८॥ विविधोपायनकरा लोका अपि तमभ्यगुः । राजभिः पूज्यते यो हि पूजनीयो न कस्य सः ॥९।। गृहस्य बाह्यशालायामध्युवासाऽऽर्यरक्षितः । कुटुम्बे दददानन्दमुपदामिव नूतनम् ॥१०॥ तं ब्रह्मचर्यसधनं पूज्यमानं महीभुजा । दृष्ट्वा तद्बन्धवो गोत्रं पवित्रं मेनिरे निजम् ॥११|| स्वजनैस्तद्गृहद्वारे रम्यमाबन्धि तोरणम् । चिरेष्टायाः समेष्यन्त्या लीलादोलोपमं श्रियः ॥१२॥ तद्गृहे तत्सुवासिन्यः स्वस्तिकान्स्वस्तिकारकान् । लिलिखुस्तद् गुणाख्यान प्रशस्त्यक्षरसन्निभान् ॥१३।। बाह्यावासस्थितोऽप्यार्यरक्षितोऽल्पैर्दिनैरपि । श्रीमान्बभूव भूयोभिरागच्छद्भिपायनैः ॥१४॥ अन्यदा चिन्तयामास शुद्धधीरार्यरक्षितः । अहो प्रमादो नाद्यापि जननीमभिवादये ।।१५।। भवन्ति पुत्ररूपेण बाह्याः प्राणा हि योषिताम् । तस्य प्रवासजं दुःखं तासामति हि दुःसहम् ।।१६।। मत्प्रवासेन मन्माता भविष्यति कथं हि सा । निद्रायामपि या नित्यं मन्नामाक्षरवाग्मिनी ॥१७॥ इदमेव हि धीरत्वमहो मन्मातुरद्भुतम् । अपि देशान्तरे प्रेषीद्या मां मद्धितकाम्यया ||१८|| तद्गुणोपार्जनामूलां सम्पदं दर्शयन्निजाम् । आनन्दयामि स्वामम्बामुत्कण्ठाम्भस्तरङ्गिणीम् ॥१९॥ इत्यार्यरक्षितः सद्यो दिव्ये संवीय वाससी । कश्मीरजाङ्गरागेण संवर्मितवपुर्युतिः ॥२०॥ सुगन्धिसुमनोदामगर्भिताबद्धकुन्तलः । ग्रीवापाण्यं ह्रिविन्यस्तकार्तस्वरविभूषणः ।।२१।। कर्पूरफालकिामिश्रताम्बूललटभाननः । विशदच्छत्रसश्रीकमौलिः स्वसदनं ययौ ॥२२॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। स आदावेव विनयी मातुः पादानवन्दत । कण्ठावलम्बिसौवर्णशृङ्खलाश्लिष्टभूतलः ॥२३॥ दीर्घायुरक्षयो भूयाः स्वागतं तव दारक ! । इत्युक्त्वा साऽवदत्प्रातिवेश्मिकीवापरं न हि ॥२४॥ स Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । पुत्रप्रेमसंरम्भोचितसंलापलक्षणम् । प्रसादं पूर्ववन्मातुरपश्यन्निदमब्रवीत् ॥२५॥ अधीताशेषविद्योऽहं त्वत्पादान्द्रष्टुमागमम् । किं नालपसि मां भक्तिमर्यादामकराकरम् ।।२६।। मम पूजां करोत्येष राजा राजगुरोरिव । महिमानमिमं सूनोदृष्ट्वा किं न हि हृष्यसि ?॥२७॥ रुद्रसोमावदद्भद्र ! किं विद्योपार्जनेन ते । हिंसोपदेशकं ह्येतदधीतं नरकप्रदम् ॥२८॥ दृष्ट्वा नरकपाताभिमुखं त्वां कुक्षिसम्भवम् । कथं हृष्यामि मग्नास्मि खेदे गौरिव कर्दमे ॥२९॥ यदि त्वं मयि भक्तोऽसि यदि मां मन्यसे हिताम् । दृष्टिवादं तदधीष्व हेतुं स्वर्गापवर्गयोः ॥३०॥ इत्यार्यरक्षितो दध्यौ किमधीतमिदं मया । न यन्मातुः प्रमोदाय तज्जया सम्पदापि किम् ॥३१॥ विमृश्यैवमुवाचाम्बामार्यधीरार्यरक्षितः । दृष्टिवाद् पठिष्यामि मातराख्याहि तद्गुरुम् ॥३२॥ रुद्रसोमावदद्वत्स ! श्रमणोपासको भव । दृष्टिवादस्य गुरवः श्रमणा एव नापरे ॥३३॥ दृष्टिवादो हि दर्शनविचार इति शोभनम् । नामाप्यस्येति मनसि श्रद्दधावार्यरक्षितः ॥३४॥ ऊचे च मातुरादेशः प्रमाणं गुरवस्तु ते । क्व द्रष्टव्या दृष्टिवादं यथाधीये तदन्तिके ||३५|| रुद्रसोमापि तनयविनयोच्छ्वसिता सती । भ्रमयन्त्यञ्चलं तस्य निजगाद प्रसादभाक् ॥३६।। इदानीं हि न जिहेमि त्वयाहं तनुजन्मना । मदादेशमनुष्ठातुं यदकार्षीमनोरथम् ॥३७।। सन्ति तोसलिपुत्राख्या आचार्या आर्यरक्षित ! । इतो ममैवेक्षुवाटे प्रतिपन्नप्रतिश्रयाः ॥३८॥ तत्पादपङ्कजोपास्तिहंसतामुररीकुरु । ते त्वामध्यापयिष्यन्ति दृष्टिवादं तनूद्भव ॥३९।। एवं प्रातः करिष्यामीत्यभिधायार्यरक्षितः । दृष्टिवादाभिधां ध्यायन्नाशेत रजनावपि ॥४०॥ प्रातश्चचाल पृष्ट्वाम्बामार्यरक्षितकुम्भभूः । दृष्टिवादोदधिं प्राज्ञः पातुं गण्डूषलीलया ॥४१॥ पितृमित्रमितश्चार्यरक्षितस्य महाद्विजः । अभूदुपपुरं ग्रामे पितेवात्यन्तवत्सलः ॥४२॥ सोऽचिन्तयन्मया हि ह्यो दृष्ट न ह्यार्यरक्षितः । आयुष्मन्तं तदद्यापि तं पश्यामि सुहृत्सुतम् ॥४३॥ इति द्विजाग्रणीरिक्षुयष्टी: स सकला नव । तत्खण्डं चैकमादायार्यरक्षितगृहं ययौ ॥४४।। सोमदेवसुतं ज्येष्ठं निर्यान्तं च निकेतनात् । ददशॆष विभातत्वात्तमुपालक्षयन्न च ॥४५॥ को नाम त्वमसीत्युच्चैः सोऽपृच्छदार्यरक्षितम् । आर्यरक्षित एषोऽस्मीत्यब्रवीच्चार्यरक्षितः ॥४६॥ द्विजो जगाद हे भ्रातुः पुत्र ! ह्यस्तनवासरे । कुटुम्बकृत्यकरणप्रमादान्नासि वीक्षितः ॥४७।। एकेनापि गतेनाला मन्ये गतमहः शतम् । यत्र त्वां नाहमद्राक्षं हत्कैरवनिशाकरम् ॥४८॥ इत्यार्यरक्षितं प्रेम्णा द्विजन्मा परिरभ्य सः । अवोचदिक्षवो ह्येते मयानीयन्त त्वत्कृते ॥४९।। उवाच सोमभूरिझूस्तात ! मन्मातुरर्पयेः। अहं शरीरचिन्तार्थं गच्छन्नस्मि बहिर्भुवि ॥५०॥ इदं च मातुराख्याया यद्गच्छन्नार्यरक्षितः । अधुनेक्षुलतापाणिमद्राक्षीदादितोऽपि माम् ॥५१॥ इत्यार्यरक्षितेनोक्तः स द्विजन्मा तथाकरोत् । आर्यरक्षितमातापि सा दक्षैवमचिन्तयत् ॥५२॥ मम सूनोरिदं श्रेयोऽभूच्छकुनमतश्च सः । नव पूर्वाणि खण्डं च नूनमादास्यते सुधीः ॥५३।। नवाहं दृष्टिवादस्य पूर्वाण्यध्ययनानि वा । दशमं खण्डमध्येष्ये दध्यौ यानिति सोमभूः ॥५४॥ गत्वा चेक्षुगृहद्वारे स्थिरधीरार्यरक्षितः । अचिन्तयदविज्ञातः कथमन्तर्विशाम्यहम् ॥५५॥ राज्ञामिव गुरूणां हि सन्निधाने यतस्ततः । विदितोऽपि नोपसर्पदहं तु विदितोऽपि न ॥५६॥ तदत्रैव क्षणं स्थित्वा वसत्यन्तर्विशाम्यहम् । प्रातर्वन्दनकायातश्रमणोपासकैः Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । सह ||५७|| इत्यार्यरक्षितस्तस्थौ द्वारेऽपि द्वारपालवत् । विदुषां रभसारम्भे विवेको लाते ॥ ५८ ॥ मालवकैशिकीमुख्यग्रामरागपरिस्पृशा । स्वाध्यायेनापि साधूनां स ययौ लयमेणवत् ||५९।। तत्रागाड्ढड्ढरो नाम श्रमणोपासकः प्रगे । वन्दनाय महर्षीणां हर्षेणोत्फुल्ललोचनः ||६०|| स त्रिर्नैषेधिकीं कुर्वन्प्रविवेश प्रतिश्रयम् । अथैर्यापथिकीं प्रत्यक्रामदुच्चैस्तरस्वरम् ॥ ६१ ॥ तदनन्तरमाचार्यान्साधूनपि यथाविधि । वन्दित्वा निषसादाग्रे विष्टरं प्रतिलिख्य सः ॥६२॥ अथार्यरक्षितो धीमांस्तेन सार्धं प्रविश्य सः । वन्दनैर्यापथिक्यादि तस्माच्छ्रुतमधारयत् ॥ ६३ ॥ तद्दर्शितविधिं चाभिनयन्पठनपूर्वकम् । अवन्दताचार्यपादान्साधूनप्यार्यरक्षितः ||६४|| ढड्ढरश्रावकं त्वार्यरक्षितो न ह्यवन्दत । सुधीरपि निम्न कियद्विज्ञातुमीश्वरः ।।६५।। निषण्णं सोमतनयं तमवन्दितढड्डरम् । आचार्या विविदुः कोऽपि श्राद्धोऽयं नूतनः खलु ||६६|| धर्मलाभाशिषं दत्त्वा शरदम्भोडमलाशयाः । पृच्छन्ति स्म तमाचार्याः कुतो धर्मागमस्तव ||६७|| औरसो रुद्रसोमाया स जगाद यथातथम् । श्रमणोपासकादस्मादात्तधर्मोऽस्मि नान्यतः ||६८|| ऊचिरे साधवोऽप्येवं भगवन्नार्यरक्षितः । तनयो रुद्रसोमाया विद्वान्वेदाब्धिपारगः ||६९॥ चतुर्दशविद्यास्थानोपाध्यायः पृथिवीभुजा । करिस्कन्धाधिरूढोऽयं पत्तनेऽस्मिन्प्रवेशितः ॥७०॥ अयमाद्यगुणस्थानस्थितानां धुरि गण्यते । आश्चर्यं श्रावकाचारं परिस्पृशति किं ह्यदः ॥७१॥ अथार्यरक्षितः माह श्रावकोऽस्मि हि सम्प्रति । किं नवो न भवेद्भावपरिणामः शरीरिणाम् ॥ ७२ ॥ इति विज्ञपयामास चाचार्यान्रचिताञ्जलिः । दृष्टिवादाध्यापनेन भगवंस्त्वं प्रसीद मे || ७३ || मया विवेकहीनेनोन्मत्तेनेव दुरात्मना । हिंसोपदेशकं सर्वमधीतं नरकावहम् ||७४ || आचार्या अपि तं शान्तं योग्यं ज्ञात्वैवमूचिरे । यदि त्वं दृष्टिवादाधिजिगांसुस्तत्परिव्रज ॥ ७५ ॥ किं चान्यदप्युपात्तायां प्रव्रज्यायां द्विजोत्तम ! | दृष्टिवादं क्रमेण त्वं विद्वन्नध्यापयिष्यसे ॥ ७६ ॥ सोऽप्युवाच परिव्रज्यामिदानीमपि दत्त मे । मया न दुष्करा ह्येषा मन्मनोरथकामधुक् ॥ ७७॥ किं तु प्रसादं कुर्वाणैर्भगवद्भिर्निजे शिशौ । विहारक्रमजं कष्टमादृत्यान्यत्र गम्यताम् ||७८|| मामत्र स्थितवन्तं हि राजा पुरजनोऽपि च । अत्यन्तमनुरागेण प्रव्रज्यां त्याजयेदपि ॥७९॥ आचार्या अपि तस्योपरोधेन सपरिच्छदाः । ययुरन्यत्र सोऽप्यग्रे स्थितो याति स्म भृत्यवत् ॥८०॥ तीर्थे श्रीवर्धमानस्य तदानीमनगारिणाम् । शिष्यचौर्यव्यवहारः प्रथमोऽयमवर्तत ॥ ८१ ॥ तदार्यरक्षितं भट्टमाचार्या पर्यविव्रजन् । साक्षीकृतगुरुश्चाभूद्गीतार्थः सोऽचिरादपि ॥ ८२ ॥ तप्यमानस्तपस्तीव्रं सहमानः परीषहान् । मातृकावदधीयाय सोऽङ्गान्येकादशापि हि ||८३|| तेषामाचार्यमिश्राणां दृष्टिवादः परिस्फुटः। यावान्बभूव तावन्तमग्रहीदार्यरक्षितः ॥ ८४॥ तदा वृद्धजनोक्त्यैवमश्रौषीदार्यरक्षितः । यद्भूयान्दृष्टिवादोऽस्ति वज्रर्षेः साम्प्रतं स्फुटम् ||८५ || अभूच्च समवसृतः पुर्यां वज्रमुनिस्तदा । इति प्रतस्थे तत्रैव गन्तुं सोमात्मजो मुनिः ||८६ ॥ ययौ चोज्जयिनीमध्ये भगवानार्यरक्षितः । भद्रगुप्ताभिधानानामाचार्याणां प्रतिश्रयम् ||८७|| गुणवन्तं तपोराशिं पूर्वावस्थाकुतीर्थिकम् । उपलक्ष्य तमाचार्याः परिषस्वजिरे मुदा ॥८८॥ ऊचुश्च वत्स धन्योऽसि कृतार्थोऽसि सुधीरसि । विहाय यो हि ब्राह्मण्यं श्रामण्यं प्रत्यपद्यथाः ॥ ८९ ॥ अद्याहं क्षीणाशेषायुः कर्मा त्वामर्थयेऽनघ ! | कर्तुकामोऽस्म्यनशनं १५ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । मम निर्यामको भव ॥९०॥ तथेति प्रतिपेदानं रुद्रसोमात्मजं मुनिम् । विहितानशनो भद्रगुप्ताचार्योऽन्वशादिति ।।९१।। मा वज्रस्वामिना सार्धं वसेरेकप्रतिश्रये । किं तु वत्स त्वमन्यस्मिन्नधीयीथाः कृतस्थितिः ॥९२॥ यो हि सोपक्रमाको वज्रेण सह यामिनीम् । एकामपि वसेत्सोऽनुम्रियते तं न संशयः ॥९३॥ एवं करिष्येऽहमिति प्रतिपद्यार्यरक्षितः । तेषां निर्यामणां कृत्वा पुरीं वज्राश्रितां ययौ ॥ ९४|| नगर्या बहिरेवास्थात्तां निशामार्यरक्षितः । निशाशेषे स्वप्नममुं वज्रस्वामी ददर्श च ॥ ९५ ॥ यदद्य पयसा पूर्णः केनाप्यस्मत्पतद्गृहः । अपाय्यागन्तुना भूरि किंचिदस्थाच्च तत्पयः || ९६॥ वज्रस्वामी महर्षीणां स्वप्नार्थं व्याकरोत्प्रगे । बहुपूर्वश्रुतग्राही कोऽप्येष्यति ममातिथिः ||१७|| स उपादास्यतेऽस्मत्तो बहुपूर्वश्रुतं सुधीः । पूर्वश्रुतावशेषं तु मत्पार्श्वेऽपि रहिष्यति ॥ ९८ ॥ उपवज्रमुनि प्रातराययावार्यरक्षितः । ववन्दे द्वादशावर्तवन्दनेन च तं गुरुम् ॥ ९९ ॥ तं च पप्रच्छ वज्रर्षिः कुत आगाः स चावदत् । तोसलिपुत्राचार्याणां पादमूलादिहागमम् ॥ १०० ॥ वज्रस्वाम्यब्रवीदार्यरक्षितस्त्वं किमाख्यया । सोऽप्याख्यादेवमिति च पुनर्वन्दनपूर्वकम् ॥ १०१ ॥ वज्रस्वाम्यपि तं ज्ञात्वा सप्रसादमदोऽवदत् । स्वागतं तव कुत्र त्वं प्रतिश्रयमशिश्रियः || १०२ || बहिरावासितोऽस्मीति तेनोक्ते स्वाम्यदोऽवदत् । महात्मन्किं न जानासि बहिः स्थोऽध्येष्यसे कथम् ||१०३ || सोमभूरभिधत्ते स्म स्वामिन् भिन्ने प्रतिश्रये । उदतारिषमाचार्यभद्रगुप्तानुशासनात् ॥ १०४॥ उपयोगेन वज्रर्षिर्विदित्वैवमुवाच च । युक्तमेतद्धि पूज्यास्ते स्थविरा नाहुरन्यथा ॥ १०५ ॥ वज्रोऽथ पृथगावासस्थितमप्यार्यरक्षितम् । अध्यापयितुमारेभे पूर्वाणि प्रतिवासरम् ||१०६|| अचिरेणापि कालेन सोमदेवभवो मुनिः । पूर्वाण्यपूर्वप्रतिभो नवाधीयाय लीलया ॥१०७॥ दशमं पूर्वमध्येतुं प्रवृत्तं चार्यरक्षितम् । दशमपूर्वयमकान्यधीष्वेत्यादिशद् गुरुः ॥ १०८॥ ततो दशमपूर्वस्य बहूनि विषमाणि च । अध्येतुं यमकान्यार्यरक्षितर्षिः प्रचक्रमे || १०९ || इतश्च सन्दिदिशतुः पितरावार्यरक्षितम् । नागच्छसि किमद्यापि विस्मृतास्तव किं वयम् ॥ ११० ॥ त्वं नः करिष्यस्युद्योतमिति ह्याशामकृष्महि । तवानागमने सर्वं पश्यामस्तु तमोमयम् ॥ १११ ॥ एवमाहूयमानोऽपि सन्देशवचनैस्तयोः। यावदध्ययनासक्तो ववले नार्यरक्षितः ॥ ११२ ॥ । तावत्ताभ्यां तमाह्वातुमनोभ्यां फल्गुरक्षितः । प्राणप्रियोऽनुजस्तस्य प्रैषि निर्बन्धशिक्षया ॥ ११३ ॥ युग्मम् | द्रुतं गत्वा च नत्वा च सोऽवादीदार्यरक्षितम्। किमेवं कठिनोऽभूस्त्वमनुत्कण्ठः कुटुम्बके ॥११४॥ वैराग्यपर्शुना छिन्नं यद्यपि प्रेमबन्धनम् । तथापि तव कारुण्यमस्ति स्वस्तिनिबन्धनम् ||११५ || शोकपङ्कनिमग्नोऽस्ति बन्धुवर्गश्च साम्प्रतम् । तदागत्य तमुद्धर्तुं भगवंस्तव साम्प्रतम् ॥ ११६ ॥ इति तेनानुजेनोक्तो गन्तुं तत्रार्यरक्षितः । श्रीवज्रस्वामिनं नत्वा पप्रच्छ स्वच्छमानसः ।। ११७ || अधीष्वेति ततस्तेन प्रत्युक्तः स पुनः पठन् । किं तेऽस्मि विस्मृतः फल्गुरक्षितेनेत्यजल्प्यत ॥११८ || बान्धवाश्च परिव्रज्यामनोरथरथस्थिताः । न कुत्रापि प्रवर्तन्ते त्वया सारथिना विना ॥११९॥ तदेहि देहि प्रव्रज्यां जगत्पूज्यां स्वगोत्रिणाम् । श्रेयस्यपि सकर्णोऽपि किमद्यापि प्रमाद्यसि ॥१२०॥ अथार्यरक्षितः स्माह यदि सत्यमिदं वचः । ततस्त्वं तावदादत्स्व वत्स सत्त्वहितं व्रतम् ॥१२१॥ एवमुक्तस्ततस्तेन श्रद्धानिर्धीतमानसः । सोऽवदद्देहि को हि स्यात्पीयूषस्य पराङ्मुखः १६ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । १७ ॥१२२॥ अथार्यरक्षितः प्रीतस्तस्यामृतकिरा गिरा । स्वयं तमनुजग्राह दीक्षया शिक्षयापि च ॥१२३।। यातुमुक्तोऽन्यदा फल्गुरक्षितेनार्यरक्षितः। अधीताशेषयमको गन्तुमूचे पुनर्गुरुम् ॥१२४।। प्राग्वन्निवारितस्तेन स खेदादित्यचिन्तयत्। स्वजनाह्वानगुर्वाज्ञासङ्कटे पतितोऽस्मि हा ॥१२५॥ अधीयानः पुनः प्राग्वद्यमकेभ्यः पराजितः । कृताञ्जलिपुटो भूत्वा गुरून्नत्वा च सोऽब्रवीत् ॥१२६।। दशमस्यास्य पूर्वस्य मयाधीतं कियत्प्रभो !। अवशिष्टं कियच्चेति सप्रसादं समादिश ॥१२७।। जगाद गुरुरप्येवं स्मितविच्छुरिताधरः । बिन्दुमात्रं त्वयाधीतमब्धितुल्यं तु शिष्यते ॥१२८॥ इति श्रुत्वा गुरोर्वाचमूचिवानार्यरक्षितः । परिश्रान्तोऽहमध्येतुं प्रभु तः परं प्रभो ! ।।१२९।। शेषमप्यचिरेणापि त्वमागमयसि श्रुतम् । धीमन्नधीष्व धीरोऽसि किमकाण्डे विषीदसि ।।१३०।। एवमाश्वासितस्तेन गुरुणा करुणावता । पुनः प्रवृत्तः सोऽध्येतुं भग्नोत्साहोऽपि भक्तिभाक् ॥१३१॥ युग्मम् ॥ फल्गुरक्षितमन्येधुर्मूर्तिमबन्धुवाचिकम् । दर्शयन्नुत्सुको गन्तुं श्रीवजं स पुनर्जगौ ॥१३२॥ अयमुत्साह्यमानोऽपि हन्त गन्तुमनाः कथम् । एवं विचिन्तयन्वज्रस्वाम्यभूदुपयोगवान् ॥१३३॥ सोऽथामस्तेत्यतो यातो नायमायास्यति ध्रुवम् । स्तोकं ममायुर्मय्येव पूर्वं च दशमं स्थितम् ॥१३४।। अनुज्ञातस्ततस्तेन गमनायार्यरक्षितः । स फल्गुरक्षितः शीघ्रं पुरं दशपुरं ययौ ॥१३५॥ तत्रायातं च तं ज्ञात्वा सपौरः पृथिवीपतिः । सरुद्रसोमः सोमश्च भक्त्या वन्दितुमाययौ ॥१३६।। प्रमोदाश्रुपयः पूर्णलोचनास्ते च तं मुनिम् । मूर्तं धर्ममिवानम्य यथास्थानमुपाविशन् ॥१३७॥ विदित्वा धर्मशुश्रूषां तेषां कारुण्यवारिधिः । देशनां विदधे सोऽपि मेघगम्भीरया गिरा ॥१३८॥ श्रोत्रपत्रपुटीपीतदेशनात्यच्छवारिभिः । तत्कालं क्षालयन्ति स्म विस्मितास्ते मनोमलम् ॥१३९।। अथार्यरक्षितस्यान्ते नृपः सम्यक्त्वमग्रहीत् । ततः सपौरस्तं नत्वा ययौ निजनिकेतनम् ॥१४०॥ ससोमा रुद्रसोमापि बन्धुभिर्बहुभिः समम् । संसारचारकावासविरक्ता व्रतमाददे ॥१४१॥" इति परिशिष्टपर्वणि त्रयोदशे सर्गे ॥ [पृ०२४५] “देवावि देवलोए,.....॥२८५॥ व्या० देवा अपि देवलोके दिव्यैराभरणैरनुरंजितं मंडितं शरीरं येषां ते तथा, तेऽपि यत्प्रतिपतंति अशुचौ गर्भादिकलमले निमजंति, ततो देवलोकात्तद् दुःखं दारुणं रौद्रं तेषां देवनामामिति, प्रागपरिमितसुखवर्णनं तेषामनेन विरुद्धयते इति चेन्न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तद्धयेतदर्थं वणितं, किल वैपयिकसुखार्थिनापि सत्त्वेन धर्म एव यत्नः कार्य तस्मिन् सति तस्य प्रासंगिकत्वात्, न पुनस्तस्य परमार्थतः सुखं विपर्यासात्, दुःखेऽपि सुखवुद्धिप्रवृत्तेः, विपाकदारुणत्वाच्च ॥२८५।। तथा चाह- तं सुरविमाणविभवं, चिंतिय..... ॥२८६॥ व्या० तमिति प्राग्वर्णितं सुरविमानविभवं चिंतयित्वा पर्यालोच्य च्यवनं च पतनं च देवलोकात्, किं ? अतिबलिनमेव गाढं निष्ठुरमेव यन्नापि नैव स्फुटितं शतशर्करं शतखंडं हृदयं. अस्त्येव तस्यास्फोटे महत्कारणमिति ॥२८६॥" - इति उपदेशमालाटिकायाम् ॥ [पृ०२५२] “एगं पायं जिनकप्पियाणं थेराण मत्तओ बिइओ । एयं गणणपमाणं पमाणमाणं अओ वुच्छं ॥१०३१॥ एकमेव पात्रकं जिनकल्पिकानां भवति, स्थविरकल्पिकानां Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । तु मात्रको द्वितीयो भवति, इदं तावदेकद्व्यादिकं गणणाप्रमाणम्, इत ऊर्ध्वं प्रमाणप्रमाणं वक्ष्ये ॥१०३१॥" - ओघनिष्टीका ।। [पृ०२६४] “धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ॥२॥ धनं धान्य-क्षेत्र-वास्तु-द्विपद-चतुष्पदभेदभिन्नं हिरण्य-सुवर्ण-मणि-मौक्तिक-शङ्खशिला-प्रवालादिभेदं च धनपतिधनर्द्धिप्रतिस्पर्धि तीर्थोपयोगफलं ददाति प्रयच्छति यः स तथा, धनार्थिनां धनमन्तरेण गृहिणो न किञ्चिदिति बुद्ध्या धनविषयातिरेकस्पृहावतां प्रोक्तः शास्त्रेषु निरूपितः, धर्म एवेत्युत्तरेण योगः, तथा कामिनां कामाभिलाषवतां प्राणिनाम्, काम्यन्ते इति कामा: मनोहरा अक्लिष्टप्रकृतयः परमाह्लाददायिनः परिणामसुन्दराः शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शलक्षणा इन्द्रियार्थाः, ततः सर्वे च ते कामाश्च सर्वकामाः, तान् ददातीति सर्वकामदः । इत्थमभ्युदयफलतया धर्ममभिधाय निःश्रेयसफलत्वेनाह- धर्म एव नापरं किञ्चित्, अपवृज्यन्ते उच्छिद्यन्ते जाति-जरामरणादयो दोषा अस्मिन्नित्यपवर्गः मोक्षः, तस्य, पारम्पर्येण अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानाधारोहणलक्षणेन सुदेवत्व-मनुष्यत्वादिस्वरूपेण वा साधकः सूत्रपिण्ड इव पटस्य स्वयं परिणामिकारणभावमुपगम्य निर्वर्त्तक इति ।।२।।' - धर्मबिन्दु टीका ॥ [पृ०२६५] “संयममधिकृत्याह । सम्यगुपरमः पापस्थानेभ्यः संयमः सप्तदशप्रकार:पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१७२॥ टीका- पञ्चाश्रवाः प्राणातिपात-मृषाभाषणा-दत्तादान-मैथुन-परिग्रहाः कर्मादानहेतवस्तेभ्यो विरमणं विरतिकरणं संयमः । पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां निग्रहः नियमनं निरोधः । शब्दादिषु गोचरप्राप्तेष्वरक्तद्विष्टतामाध्यस्थ्यम् । कषः संसार: कष्यते यत्र जीवः स्वकृतैः कर्मभिः कदर्थ्यते पीड्यते तस्यायाः प्राप्तिहेतवः क्रोधादयश्चत्वारस्तेषां जयोऽभिभव उदयनिरोधः, उदितानां वा विफलतापादनम् । दण्डा मनोवाक्कायाख्याः । अभिद्रोहाभिमानेादिलक्षणो मनोदण्डः । हिंम्रपरुषानृतादिलक्षणो वाग्दण्डः । धावन-वल्गन-प्लवनादिरूपः कायदण्डः । एभ्यो विरतिर्निवृत्तिः। एवमेष संयमः सप्तदशभेदो भवति । आर्षे त्वन्येन क्रमेणायमेवार्थो निबद्धः । पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पति-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियेषु संयमः। तथा पुस्तकाद्यपरिग्रहः अजीवकायसंयमः । प्रेक्षोपेक्षाप्रमार्जनापरिष्ठापनसंयमः मनोवाक्कायसंयम इति ॥१७२॥" - प्रशमरतिप्रकरणटीका ।। [पृ०२८१ पं०८] “केइ पुण मंदभग्गा नियमइउप्पेखिए बहू दोसे । उन्भाति जईणं जय-देवड-दुद्ददिटुंता ॥१८॥ व्या० केचन मन्दभाग्या: प्रणष्टपुण्याः, निजमत्युत्प्रेक्षितान् स्वकीयबुद्धिविकल्पितान्, बहून् प्रचुरान्, दोषान् भ्रष्टब्रह्मचर्यादीन्, उद्भावयन्ति प्रकाशयन्ति, यतीनां साधूनाम् । अत्रार्थे जय-देवड-दुद्दका वक्ष्यमाणा दृष्टान्ता इति । भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः। तत्रादौ जयकथानकमुच्यते Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । जयदेवकथानकम् । इहेव भारहे वासे साकेयं नाम नयरं । तत्थ जउ नाम राया । सो य तच्चण्णियभत्तो, तेसिं समए विणिच्छियट्ठो भिक्खुमयमेव अट्ठो सेसो अणट्ठो त्ति भावियमई न साहुणो बहु मन्नइ, पच्चुलं उवहसइ- 'सियवायमुव्वहंति साहुणो । तम्मि य लोगववहारो वि न सिज्झइ । माया वि अमाया, पिया वि अपिया, धम्मो वि अधम्मो, मोक्खो वि अमोक्खो, जीवो वि अजीवो । ता कहमेयं घडइ । एत्तो च्चिय कहमरिहंतो सव्वण्णू, एवं पण्णवेई'- अत्थआणिआगओ एवं बहुहा उवहसइ। तत्थ य जयस्स रन्नो मंती समाणोवासगो सुबंधू नाम । तेण नियपक्खउवहसणमसहंतेण दूमिज्जमाणमाणसेण तत्थागयसुचंदसूरीण सिट्ठो वइयरो- ‘एवं एवं च राया उल्लवई' । भणियं सूरिणा- ‘वच्छ ! वाडियाए जे तड्डुति ते घरे घरे संति । जायखंधसुवितिक्खसिंगवसहपुरओ दुक्खं तड्डिज्जइ । ता न किंचि वि एएण' । पच्छन्नचरेण निवेइयं रन्नो । तेण वि भणियं जयगुत्तो भिक्खू सेयंवराणं पत्तं देहि। तेण वि दिन्नं, सीहदुवारे ओलइयं । सुचंदसूरिणा गहियं भिन्नं च । गओ रायकुले वाहाराविओ जयगुत्तो सुचंदसूरिणा । वक्खाणियं पत्तं । एसो एत्थ पत्तत्थो पइण्णा य । किं तुजमलजणणीसरिच्छा पासणिया सव्वनयसमग्गा य । सच्चपइण्णा निउणा तारिति नरीसरं नियमा ॥ जाइ-कुलपक्खवाया लोभेण व अन्नहा वइत्ता णं । पच्चंति कुंभिपागे वाससहस्साई नरएसु ॥ दंडधरो अण्णाणा लोभेण व पक्खवायदोसेण । वितहं परूवयंतो नरए कुंभीसु पच्चेज्जा ।। इय नाऊणं सव्वे पेच्छह सम्मं जहट्ठियं वायं । तारेह जं कुलाई सत्तमहादुक्खनरयाओ । अण्णं च, का जय-पराजयववत्था ?वग्गक्खराइचागा णाणाछंदेहिं पुव्वपक्खो णे । अहवा गेण्हह तुब्भे अणुवायं तो करिस्सामो ॥ न हि न हि पमेयमेत्ते अक्खरसव्वाणुपायरूवेणं । वायं छंदनिबद्धं वग्गक्खरचागरूवेण ॥ काऊण य अणुवायं उत्तरपक्खं तहा करेस्सामो । एगत्थ वि अवराहे सव्वत्थ जिया न संदेहो। तओ खणिगवायं अहिगिच्च भणिउमाढत्तो जयगुत्तो । अणुवइऊण दूसियं सूरिणा । निरुत्तरीकओ भिक्खू । तहा वि जयवत्तं न देइ राया- अज्ज वि वायं करेह त्ति भणइ । उढेह ताव । समुट्ठिया तत्तो सव्वे भिक्खुणो भणंति लोयपुरओ- ‘अम्हेहिं जियं' । विजिया मह गुरुणो त्ति राया पओसमावण्णो साहूणं छिद्दाणि मग्गइ । नायं सूरिणा । तच्चण्णिया रायाणं भणंति- 'निव्विसए करेसु सेयंबरे' । राया भणइ- ‘अवसरे करिस्सामि । बहू लोगो एएसिं भत्तो । ता मा पयइविरागो होउ' । सूरीहिं खवरिसी भणिओ- 'देवयं सुपराहि' । ठिओ सो काउस्सग्गेण । समागया देवया भणइ- ‘संदिसह किं करेमि ?' । खमरिसिणा भणियं- ‘राया पउट्ठो, तं अणुसासेहि । भणियं देवयाए- 'जया अवरज्झिही तया अणुसासिस्सामि । अच्छह निरुव्विग्गा संपई' । इओ य जएण एगा चरिया भणिया- ‘सुचंदाण छोभगं देहि' । पडिस्सुयं तीए । समागच्छइ साहुवसहीए अवेलाए। पडिसिद्धा सूरिणा- ‘एगागिणी इत्थिया न एइ साहुपडिस्सए' । सा भणइ- 'अहं धम्मं सोउमागच्छामि' । सूरी भणइ- 'संजइपडिस्सए गच्छ' । सा भणइ- 'किं मए आगच्छंतीए तुम्ह अवरज्झइ; तुम्हेहिं Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । चित्तसुद्धीए जइयव्वं । किं रायमग्गे चेइयालये गोयरे य गच्छंता अच्छीसु पट्टबंधं काऊण विहरह । ता न किंचि चक्खिंदियनिरोहेण । अंतरकरणं निरुभह । तस्सिं निरुद्धे पच्चलं थिरया बंभचेरे निव्विडइ । मए आगच्छंतीए ता निरहं लोयपूयणिज्जा होह । मुहा ममं पडिसेहेह' । भणियं सूरीहिं- 'एयं लोयसमक्खं वियारेज्जासि । संपयं न जुज्जइ तुमए एगागिए सह वयणक्कमो काउं' । सा रुट्ठा उट्ठिया । तओ लोयाण पुरओ भणइ - 'साहुणो बंभचेरभग्गा, वयं मुयंता मए पडिचरिय पुणो संठाविय' त्ति । तओ ते लोगा सावगे दडुं सहत्थतालं हसंता भणति - 'सुणेह, नियगुरूणं पउत्ति' । तओ सा हक्किया सावगेहिं- पावे ! महामुणीण उवरि एरिसं भणंती नरयं वच्चसि । पडियत्थणि चुडियगल्ले भूसणपरिवज्जिए सह तुमाए । को सेवइ विसयसुहं इयरो वि हु दढनिल्लज्जे ! || उम्मूलियमयणाणं निच्चं सज्झायभावियमईणं । देवीओ विन चित्तं हरति किमु अन्ननारीओ I रायामच्चपुरोहियखत्तियसत्थाहसेट्ठिधूयाओ । भूसियअलंकियाओ पाए वंदंति या नय तेसि तासु भणयं दिट्ठिनिवाओ हवा भणेज्जासि । लोयाणं लज्जाए हयासि एयं निसामेहि ॥ अण्णावएसओ विहु कलुसियहिययाण नज्जए दिट्ठी । मयणाउरस्स दिट्ठी लक्खिज्जइ लक्खमज्झमि ॥ सा भइ- 'अरे ! किं तुब्भे जाणह ?, अहं जाणामि, जीए अट्ठ वि अंगाई तेहिं भुत्ताई' । भणियं सावगेहिं- 'जाणिहिसि एवमुल्लवंती जाहे रायकुले ढोइज्जसि । गया दिसोदिसिं सव्वे वि । सुबंधुमंतिणा सह मेलावं काऊण समागया सुचंदगुरुसमीवे । सिट्ठा पत्ती गुरूणं । भणियं सूरीहिं'सा इहागया एवं एवं भणंती अम्हेहिं सव्वहा निद्धाडिया । एवं उल्लवंतीए नज्जइ रायसेगो वि को वि अत्थि । तहावि पुणो भणंती बाहाए घेत्तूण रायकुले नेयव्वा । न विलंबो कायव्वो । पज्जवसाणं सोहणं भविस्सइ' । पुणो वि सा दिट्ठा जणमज्झे उल्लवंती गहिया बाहाए । समप्पिया बंधु । तेण वि भणिया- 'पावे ! वच्चसु रायकुलं' । सा झत्ति पयट्टा । नायं सावगेहिं - रायसेगो धुवं अत्थि एईए । किं तु सासणदेवया' भलिस्सइ । भणियं सुबंधुणा- 'राया पउट्ठो तेणेसा एवं करियति । तहावि गम्मउ रायकुले । पत्ता जयराइणो समीवे सव्वे वि । २० भणियं जक्खसेट्टिणा - 'देव ! रायरक्खियाइं तवोवणारं सुव्वंति । उक्तं च धर्मात् षड्भागमादत्ते न्यायेन परिपालयन् । सर्वदानाधिकं तस्मात् प्रजानां परिपालनम् ॥ एसा य पडियपूयत्थणी चुडियकवोला दिट्ठा वि य उव्वेयणिज्जा जम्मंतरोवज्जियसुहतरुफलमुवभुंजमाणा वि कुओ वि साहूण पडिनिविट्ठा असमंजसाई जंपइ । ता देवो पमाणं' । भणियं रन्ना - 'हयासि ! जइ ते अप्पा समप्पिओ धम्मनिमित्तं ता को विवाओ। अह भाडी एसा जइ लद्धा ता को विवाओ । अह न लद्धा ते भाडी, ता धम्मो ते भविस्सइ, न किंचि विवाएणं । अह भाडिं मग्गसि, सावगा दाहिंति; तहा वि को विवादो । अह सावगा न देंति मम धम्मो हवउ, अहं दाहामि । गच्छह न किंचि विवाएणं' । भणियं जक्खेण - 'देव ! किं ते बंभचेरभट्ठा, जं देवो एवं भणइ ?' । भणइ रन्ना - 'मए दाणं पि दाउं नियदंडं परिच्चज्ज तुम्ह विवादो छिन्नो । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । जइ न रोयइ ता साहुणो सुद्धिं कुणंतु' । भणियं जक्खेण- ‘देव ! जो जो जस्स पउट्ठो होज, सो सो निविण्णजीविएण पंगुलंधलकोढियाइणा जइ छोभगं दवावेज्जा, तत्थ तत्थ जइ सुद्धी कज्जिही, ता हगियमुत्तियए सुद्धीए पओयणं । निरहिट्ठाणाणि य दिव्वठाणाणि किं न होति । तओ जे च्चिय रक्खगा ते च्चिय विलुपग त्ति कत्थ गम्मउ ?' । भणियं रन्ना- 'अहो पेच्छह वाणियगाणं वयणाणि ? तुब्भे च्चिय भणह- का अन्ना गई ?। तुम्ह भज्जा सुण्हा धूयाओ विडाणं कह छुट्ठिस्संति; जइ सुद्धी न कीरइ ?' । भणियं सोमेण- देव ! समाणधणेणं छोभगे दिन्ने दिव्वाइणा सुद्धी कीरइ । हीणो छोभगदाया निगहिजउ' । भणियं रन्ना- 'अखंडबंभयारी भिक्खुणो चेव, सेयंवरा पुण न तहा । तो ते जइ दिव्वेणं न सुज्झेज, तहा वि नाहं तेसिं जीवियहरणं करेमि तुम्हाणं दक्खिन्नेणं । नासाइच्छेए वि कते तुम्ह उवग्घाओ भविस्सइ । ता वरं अच्छउ एसा भणंती । नाहं नासाछेएण वि ते निग्गहिस्सामि। वच्चह घरेसु' । भणियं जक्खेण- ‘को एईए एद्दहमेत्तो अवटुंभो जा एवमुल्लवइ । नासो सिरए कज्जउ जो एवं भणेई' । भणियं रन्ना- 'सो कहिं नज्जइ । नासओ वि सो तुम्ह गोयरो भविस्सइ न वा न नज्जई' । भणियं दत्तेण- 'देवस्स गोयरो अम्ह गोयरो'त्ति । भणियं रन्ना- नासो अम्हाण न दंडगोयरो त्ति ता किं कायव्वं' । भणियं जक्खेण- ‘देव ! नणु तुब्भे च्चिय अणुमण्णह एयं । तओ एसा न निग्गहिज्जइ । किं तु न सोहणमेयं वंसस्स व विणाससमए फलं । एवंविहा तुम्ह मई संजाया । किं अम्हे भणामो' । तओ रुट्ठो राया भणइ- 'अरे रे ! ते दुरायारे साहुणो खिवह गोत्तीए । एए पुण किराडगे अवहडसव्वस्से काउं निखाडेह' । उठ्ठिया सावगा । साहुणो वि रायपुरिसेहिं अक्खित्ता पक्खित्ता गोत्तीए । ठिओ काउस्सग्गेण खमरिसी । आगया देवया भणइ- 'अच्छह निरुव्विग्गा, सोहणं करिस्सामि' । तओ उत्तट्टा देवयाहिट्ठिया' करिणो । तेहिं उम्मिठेहिं विच्छोलिआओ जच्चतुरयवंदुराओ । मारेंति रायंगणे संचरंतं जणं, भंजंति रायभवणभित्तीओ । जाओ कोलाहलो। विदलियाई कोट्ठागाराई । ठुक्का कोट्टिकारा, ते वि चुण्णिजंति हत्थीहिं । गया करिणो भिक्खुगालए; मारिजंता नट्ठा भिक्खुणो । भंजंति विहाराई । संमुहीभूयं पि न मारेंति सावगसमूहं । करीहिं भग्गा आवणा । जाओ जणसम्मद्दो । महाकोलाहलीभूयं नयरं । एयं दद्दूण अद्दन्नो जयराया । तओ उल्लपडसाडगो धूयकडच्छयहत्थो सह पहाणसामंतेहिं भणिउमाढत्तो- 'दिट्ठो कोवो, खमउ जस्स मए अवरद्धं । पसायं करेउ, उवसंपन्नो अहं ति । एत्थंतरे अंतरिक्खपडिवन्नाए देवयाए भणियं- ‘मओ सि दास ! कहिं जासि' । राया भणइ- 'भणउ सामिणी, जं मए अयाणमाणेण अवरद्धं । तेण खामेमि । देवयाए भणियं- ‘पाविट्ठ ! साहूण कलंकदाणकाले बुद्धिमंतो आसि । संपयं अयाणगो जाओ । कीस तुमे देविंदवंदिया साहुणो अवमणिया ?, कीस सावगा नायमुल्लवंता निरसिया ?, कहिं ते भिक्खुणो जे साहू निव्विसए कारेंति ? ता सुमराहि इट्ठदेवयं । नत्थि ते जीवियं' । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । भीओ राया भणइ- ‘मा सामिणि ! एवं कुण । देहि पाणभिक्खं । कयस्स पायच्छित्तेण पओयणं'। देवयाए भणियं- 'तुमं अभव्वो इव लक्खीयसि । ता संपयं मुक्को, पुणो वि जइ साहूणमुवरि पओसं काहिसि सावगाण वा, ता तहा करिस्सामि जहा भग्गो न लग्गसि' । राइणा भणियं'जं सामिणी भणइ तं सव्वहा करिस्सामि' । 'जइ एवं ता गच्छ, साहुणो सक्कारेहि; सम्माणेहि सावगजणं' ति । तओ तह त्ति संपाडियं जयराइणा । सट्ठाणं गया हत्थिणो । नियत्तं विड्डरं । किं तु साहुपदोसजणियकम्मुणा अणंतसंसारं भमिही, दुक्खपरंपरमणुहवंतो त्ति । ज उ त्ति ग यं ॥२६॥ - कथाकोशप्रकरणे ॥ ___ “सम्प्रति व्युद्ग्राहितं व्याचिख्यासुर्तीपजातदृष्टान्तमाह- पोतविवत्ती आवण्णसत्त फलएण गाहिया दीवं । सुतजम्म वड्ढि भोगा, वुग्गाहण णाववणियाऽऽया ॥५२२३॥ एगो वणितो। तस्स भज्जा अईव इट्ठा । सो वाणिज्जेण गंतुकामो तं आपुच्छति । तीए भणियं- अहं पि आगच्छामि। तेण सा नीता । सा गुम्विणी । समुद्दमज्झे विणढं जाणवत्तं । सा फलगं विलग्गा अंतरदीवे पत्ता। तत्थेव पसूता दारगं । सो वणिओ समुद्दे मओ । सा महिला तम्मि चेव दारए संपलग्गा । ताए सो वुग्गाहितो- जइ माणुसं पिच्छिज्जासि तो नासेज्जासि, ते माणुसरूवेण रक्खसा । अन्नया दुव्वायहयपोएण वाणिया आगया । ते दटुं सो नासेइ । तेहिं नायं वुग्गाहिओ केणावि । कह वि अल्लीणो पुच्छिओ सव्वं कहेइ । तेहिं बहुसो पन्नविओ- एयं महापावं, परिच्चयाहि । तहा वि नो परिच्चयति ॥ अथाक्षरार्थ:- पोत: प्रवहणं तस्य विपत्तिः । आपन्नसत्त्वा च सा फलकेन द्वीपं ग्राहिता। सुतस्य जन्म वृद्धिश्चाभवत्, भोगांश्च तेन स भोक्तुमारब्धा । व्युद्ग्राहणकं च कृतम् । नौवणिजश्च चिरादायाताः । एवंविधा व्युद्ग्राहिताः प्रज्ञापनाया अयोग्याः ॥५२२३॥ तथा चाह- पुव्विं वुग्गाहिया केई, णरा पंडियमाणिणो । णिच्छंति कारणं किंची, दीवजाते जहा नरे ॥५२२४॥ पूर्वं व्यद्ग्राहिताः केचिद् नराः पण्डितमानिनो नेच्छन्ति कारणं किञ्चित् श्रोतुमिति शेष: द्वीपजातो यथा नरः ॥५२२४॥" - बृहत्कल्पसूत्रटीका ॥ [पृ०२८५ पृ०११] “सुय संघयणुवसग्गे, आतंके वेदण कइ जणा य । थंडिल्ल वसहि केच्चिर, उच्चारे चेव पासवणे ॥१३८२॥ ओवासे तणफलए, सारक्खणया य संठवणया य । पाहुडि अग्गी दीवे, ओहाण वसे कइ जणा य ॥१३८३॥ भिक्खायरिया पाणग, लेवालेवे तहा अलेवे य । आयंबिल पडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य ॥१३८४।। श्रुतम् १ संहननम् २ उपसर्गाः ३ आतङ्कः ४ वेदना: ५ कतिजनाश्च ६ स्थण्डिलम् ७ वसतिः ८ कियच्चिरम् ९ उच्चारश्चैव १० प्रश्रवणम् ११ अवकाशः १२ तृणफलकं १३ संरक्षणता च १४ संस्थापनता च १५ प्राभृतिका १६ अग्निः १७ दीपः १८ अवधानम् १९ वत्स्यथ कति जनाश्च २० भिक्षाचर्या २१ पानकम् २२ लेपालेपः २३ तथा अलेपश्च २४ आचाम्लम् २५ प्रतिमाः २६ मासकल्पश्च २७ 'जिणकप्पे' त्ति एतानि सप्तविंशतिद्वाराणि जिनकल्पविषयाणि वक्तव्यानीति' Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । द्वारगाथात्रयसमुदायार्थः ।। १३८२ - १३८४ ।। अतावयवार्थं प्रतिद्वारं प्रतिपिपादयिषुः 'यथोद्देशं निर्देशः ' इति न्यायात् प्रथमतः श्रुतद्वारमाह आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होड़ नवमपुव्वस्स । तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई ।।१३८५।। जिनकल्पिकस्य जघन्यकं श्रुतं ' नवमपूर्वस्य' प्रत्याख्याननामकस्याचाराख्यं तृतीयं वस्तु तस्मिन्नधीते सति कालज्ञानं भवतीत्यतस्तदर्वाक्छुतपर्याये वर्त्तमानस्य न जिनकल्पप्रतिपत्तिः । उत्कर्षतो दश पूर्वाणि भिन्नानि श्रुतपर्यायः । सम्पूर्णदशपूर्वधरः पुनरमोघवचनतया प्रवचनप्रभावनापरोपकारादिद्वारेणैव बहुतरं निर्जरालाभमासादयति अतो नासौ जिनकल्पं प्रतिपद्यते || १३८५ ।। उक्तं श्रुतद्वारम् १। अथ संहननद्वारमाह पढमिल्लुगसंघयणा, धिईए पुण वज्जकुड्डुसामाणा । उप्पज्जंति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ ।।१३८६॥ जिनकल्पिकाः प्रथमिल्लुकसंहननाः' वज्रर्षभनाराचसंहननोपेताः ‘धृत्या' अङ्गीकृतनिर्वाहक्षममनःप्रणिधानरूपया वज्रकुड्यसमानाः २ । अथोपसर्गद्वारम् - उत्पद्यन्ते न वा अमीषामुपसर्गा देव्यादयः ? इत्येषा पृच्छा || १३८६ ॥ अत्रोत्तरमाह जड़ व य उपजंते, सम्मं विसहंति ते उ उवसग्गे । रोगातंका चेवं, भइआ जइ होंति विसर्हति ।।१३८७।। नायमेकान्तो यदवश्यमेतेषामुपसर्गा उत्पद्यन्ते, परं यद्युत्पद्यन्ते तथापि सम्यगदीनमनसो विषहन्ते तानुपसर्गान् ३ । आतङ्कद्वारमतिदिशति - रोगाश्च कालसहाः आतङ्काश्च सद्योघातिनः एवमेव 'भाज्या: ' उत्पद्यन्ते वा न वा । यदि ' भवन्ति उत्पद्यन्ते ततो नियमाद् विषहन्ते ४ ॥ १३८७ || वेदनाद्वारमाह अब्भोवगमा ओवक्कामा य तेसि वियणा भवे दुविहा । धुवलोआई पढमा, जराविवागाइ aिsat || १३८८ || आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च 'तेषां जिनकल्पिकानां द्विविधा वेदना भवति । तत्र प्रथमा 'ध्रुवलोचादि' ध्रुवः प्रतिदिनभावी लोचः, आदिशब्दादातापनातपःप्रभृतिपरिग्रहः । ‘द्वितीया तु' औपक्रमिकी 'जरा - विपाकादिः' जरा प्रतीता विपाकः कर्मणामुदयस्तत्समुत्था ५ । अथ कियन्तो जनाः ? इति द्वारम् - 'एक्को' त्ति एक एवायं भगवान् भवति ६ । यदि वा इदं द्वारमुपरिष्टाद् व्याख्यास्यते || १३८८ || अथ स्थण्डिलद्वारमाह २३ उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे । तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झई वत्थे ||१३८९ ।। उच्चारस्य प्रश्रवणस्य च ' उत्सर्गं' परित्यागं 'प्रथमे' अनापाते असंलोके स्थण्डिले करोति। ‘तत्रैव' प्रथमस्थण्डिले 'कृतकार्यः' विहितशीतत्राणादिवस्त्रकार्य उज्झति वस्त्राणि ॥ १३८९।। अयं च संज्ञां व्युत्सृज्य न निर्लेपयति, कुतः ? इति चेद् उच्यते अप्पमभिन्नं वच्चं, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं । दीहे वि उ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे ||१३९० ।। अल्पमभिन्नं च वर्चः पुरीषमस्य भवति, कुतः ? इत्याह- यतोऽल्पं रूक्षं च भोजनमस्य भणितं भगवद्भिः । अल्पा - ऽभिन्नवर्चस्कतया तथाकल्पत्वाच्चासौ न निर्लेपयति । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । न चासौ 'दीर्धेऽपि' बहुदैवसिके उपसर्गे ‘उभयमपि' संज्ञां कायिकी च ‘अस्थण्डिले' आपातादिदोषयुक्ते भूभागे करोति ७ ॥१३९०॥ वसतिद्वारमाह अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ । एमेव य थेराणं, मुत्तूण पमजणं एक्कं ॥१३९१॥ अममत्वा ममे यमित्यभिष्वङ्गरहिता अपरिकर्मा साध्वर्थमुपलेपनादिपरिकर्मवर्जिता नियमाद् जिनकल्पिकानां वसतिः । स्थविरकल्पिकानामप्येवमेव वसतिरममत्वा अपरिकर्मा च द्रष्टव्या, मुक्त्वा प्रमार्जनामेकामन्यत् परिकर्म तेऽपि न कुर्वन्तीत्यर्थः ॥१३९१।। एतदेव स्पष्टयति विले न ढक्कंति न खजमाणिं, गोणाइ वारिंति न भजमाणिं । दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिंति, दप्पेण थेरा भइआ उ कज्जे ॥१३९२॥ एते भगवन्तो बिलानि धूल्यादिना न स्थगयन्ति, न वा गवादिभिः खाद्यमानां भज्यमानां वा वसतिं निवारयन्ति, द्वारे न ढक्कंति कपाटाभ्यां न संयोजयन्ति, न वा अर्गलयन्ति नार्गलया नियत्रयन्ति । स्थविरकल्पिका अपि 'दर्पण' कार्याभावे एवमेव न वसतेः पकिरर्म कुर्वन्ति, 'कार्ये तु' पुष्टालम्बने ‘भाज्याः' परिकर्म कुर्वन्त्यपीति भावः ८ ॥१३९२॥ कियच्चिरोच्चार प्रश्रवणा-ऽवकाश-तृणफलक-सरंक्षण-संस्थापनाद्वाराणि गाथाद्वयेन भावयति किच्चिरकालं वसिहिह, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु । इह अच्छसु मा य इहं, तणफलए गिण्हिमे मा य ॥१३९३॥ सारक्खह गोणाई, मा य पडिंति उविक्खहउ भंते ! । अन्नं वा अभिओगं, नेच्छंतऽचियत्तपरिहारी ॥१३९४॥ यस्यां वसतौ याच्यमानायां तदीयस्वामिन इत्थं भणन्ति- कियच्चिरं कालं वत्स्यथ यूयम् ? ९, यद्वा ‘अत्र' प्रदेशे उच्चारादीनि पुरीषप्रश्रवणादीनि कुरु, अत्र तु मा कुरु १०-११, ‘इह' अस्मिन्नवकाशे आसीथाः, इह मेति १२, ‘एतानि वा' हस्तसंज्ञया निर्दिश्यमानानि तृण-फलकानि गृह्णीयाः मा एतानीति १३, संरक्षत वा गवादीन् बहिर्निर्गच्छतो यूयमस्माकं क्षेत्रादौ गतानां व्याकुलानां वा १४, मा च पतन्तीं वसतिमुपेक्षध्वं किन्तु ‘संस्थापना' पुनःसंस्काररूपा विधेया १५। 'संठवणया य' त्ति (गाथा १३८३) द्वारगाथायां यश्चशब्दस्तेन सूचितमन्यं वा स्वाध्यायनिषेधादिरूपं यत्र वसतिस्वामी अभियोगं नियन्त्रणं करोति तं समनसाऽपि नेच्छन्ति, सूक्ष्मस्याप्यप्रतीतिकस्य परिहारिणोऽमी भगवन्त इति ॥१३९३-१३९४॥ प्राभृतिका-ऽग्नि-दीपा-ऽवधानद्वाराणि व्याचष्टे पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न वसन्ति । जत्थ य भणंति ठंते, ओहाणं देह गेहे वि ॥१३९५॥ यस्यां वसतौ ‘प्राभृतिका' बलिः क्रियते १६ दीपको वा यस्यां विधीयते १८ ‘अग्निः' अङ्गार-ज्वालादिकस्तस्य प्रकाशो वा यत्र भवति तत्र न वसन्ति १७ । यत्र च तिष्ठति सत्यगारिणो भणन्ति अस्माकमपि गेहे 'अवधानम्' उपयोगं ददतेति तत्रापि नावतिष्ठन्ते १९ ॥१३९५॥ वत्स्यथ कति जनाः? इति द्वारमाह Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि । वसहिं अणुण्णविंतो, जइ भण्णइ कइ जण त्थ तो न वसे । सुहुमं पि न सो इच्छ, परस्स अप्पत्तियं भगवं ॥१३९६ ॥ वसतिमनुज्ञापयन् यद्यसौ भण्यते 'कति जना यूयं वत्स्यथ ?' इति तत्रापि न वसति, कुतः ? इत्याह- सूक्ष्ममपि नासाविच्छति परस्याप्रतीतिकं भगवान् । 'कइ जणा उ' त्ति अत्र यस्तुशब्दस्तेनान्यामपीषदप्रीतिकजननीं वसतिमसौ परिहरतीति गम्यते २० । उक्तञ्च पञ्चवस्तुके- 'सुहुमं पि हु अचियत्तं, परिहरए सो परस्स नियमेणं । जं तेण तुसद्दाओ, वज्जइ अन्नं पि तज्जणणिं ॥ ' ( गा० १४५० ) ॥१३९६ ॥ भिक्षाचर्या-पानक-लेपालेप - ( अलेप) द्वाराणि विवृणोति तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वत्ता । एमेव पाणगस्स वि, गिues अ अलेवडे दो वि ॥१३९७ ॥ ततीयस्यां पौरुष्यां भिक्षाचर्या एषणा च ' प्रगृहीता' अभिग्रहयुक्ता, सा च 'पंचसु गह दोसऽग्गहु' (गा० १३६२ ) इत्यादिना पूर्वमेवोक्ता २१ । एवमेव पानकस्यापि तृतीयपौरुष्यां प्रगृहीतया चैषणया ग्रहणं करोति २२ । अत्र शिष्यः पृच्छति - 'लेवालेवे' त्ति मिसौ जिनकल्पिको लेपकृतं गृह्णाति ? उतालेपकृतम् ? २३ । अत्र सूरिः - 'अलेवे' त्ति पदं विवृण्वन्नुत्तरमाह- ‘द्वे अपि' भक्त - पाने 'अलेपकृते' वल्ल - चणक - सौवीरादिरूपे गृह्णाति न लेपकृते २४ ॥१३९७॥ आयामाम्ल - प्रतिमाद्वारद्वयमाह आयंबिलं न गिves, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं । न य पडिमा अडिवज्जइ, मासाई जा य सेसाओ ।। १३९८ ।। आयामाम्लमसौ न गृह्णाति, पुरीषभेदादिदोषसम्भवात्; अनायामाम्लमपि यद् लेपकृतं तन्न गृह्णाति २५ । न च प्रतिमा मासिक्यादिका असौ प्रतिपद्यते । याश्च 'शेषाः ' भद्र- महाभद्रादिकाः प्रतिमास्ता अपि न प्रतिपद्यते, स्वकल्पस्थितिप्रतिपालनमेव तस्य विशेषाभिग्रह इति भावः २६ || १३९८ || अथ मासकल्प इति द्वारमभधित्सुराह २५ कप्पे सुत्त - ऽत्थविसारयस्स संघयण - विरियजुत्तस्स । जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निच्चं ।। १३९९॥ कल्पे जिनकल्पविषयौ यौ सूत्रार्थी तत्र विशारदस्य निपुणस्य संहननं शारीरबलं वीर्यं धृतिस्ताभ्यां युक्तस्य जिनकल्पिकस्य कल्पते अभिगृहीता साभिग्रहा एषणा || १३९९ ।। सा च मासकल्पस्थितिमनुपालयतो भवतीत्यतस्तस्यैव विधिमाह - छव्वीहीओ गामं, काउं एक्किक्वियं तु सो अडइ । वज्जेउं होइ सुहं, अनिययवित्तिस्स कम्माई ||१४००|| यत्रासौ मासकल्पं करोति तं ग्रामं 'षड् वीथीः' गृहपङ्क्तिरूपाः कृत्वा ततः प्रतिदिनमेकैकां वीथीमटति यावत् षष्ठे दिवसे षष्ठीम् । कुतः ? इत्याह- अनियतवृत्तेरपरापरवीथीषु पर्यटतः ‘कर्मादि' आधाकर्म- पूतिकर्मादिकं सुखं वर्जयितुं भवति' सुखेनैव परिहर्तुं शक्यत इति भावः ॥ १४००||” - बृहत्कल्पसूत्रटीका । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्कः m m m m m द्वितीयं परिशिष्टम् । श्रीस्थानाङ्गसूत्रटीकायाः प्रथमे विभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः। गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा तस्स फल-जोग-.....[विशेषाव० २] २ होइ कयत्थो.... [विशेषाव० १००९] १० तिवरिसपरियागस्स ......[पञ्चवस्तु० ५८२] २ जत्थ उ जं....[आचा०नि० ४, दस-कप्प- .......[पञ्चवस्तु० ५८३] अनुयोग०सू० ८] ११ बहुविग्घाई सेयाइं .....विशेषाव० १२] ३ | नामं १ ठवणा २.... [आव० नि० १०५६, तं मंगलमाईए..... [विशेषाव० १३] विशेषाव० ३५१० ] तस्सेव य थेज्जत्थं.... [विशेषाव० १४] ३ किं एत्तो पावयरं ?.....[ ] १२ नोआगमओ भावो.... [विशेषाव० ४९] ३| धम्ममइएहिं....[उपदेशमाला १०४] १२ नामं ठवणा..... [आचाराङ्गनि० १८४] ४|सव्वे पाणा....[आचाराङ्ग० सू०७८ ] नामंगं ठवणंगं.....[उत्तराध्ययननि० १४४] ५ तृणायापि न.......[ ] अणुजोजणमणुजोगो ....[विशेषाव० १३८६] ६ वुढे वि दोणमेहे.....[विशेषाव० १४५८] १२ अहवा जमत्थओ.....[विशेषाव० १३८७] ६ | आयरिए सुत्तम्मि य....[विशेषाव० १४५७] १२ दारक्कमोऽयमेव उ....[विशेषाव० ९१५] ७| सिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं...[मी० श्लो०वा० १७] १३ छव्विहनामे भावे..... [विशेषाव० ९४५] ७| वेयवयणं न माणं.....[पञ्चव० १२७८] १३ दव्वादी चउभेयं....विशेषाव० ९४६] ७|जं वुच्चइ त्ति..... [पञ्चव० १२७९] १३ मूढनइयं सुयं...[आवश्यकनि०७६२, | तस्मिन ध्यानसमापन्ने....[तत्त्वसं० ३२४०] विशेषाव० २२७९] ७ | कुड्यादिनिःसृतानां....तत्त्वसं० ३२४३] जीवाणण्णत्तणओ.....[विशेषाव०९४७] ८ | भत्तीए जिणवराणं....[आव०नि० १११०] १४ अणंता गमा....[समवायाङ्गे सू०१३७] जानिनो धर्मतीर्थस्य..... ] परसमओ उभयं.....[विशेषाव० ९५३] ८|णाणस्स होइ....[विशेषाव० ३४५९] १४ अहुणा य समोयारो.... [विशेषाव० ९५६] ८|गीयावासो रती....[विशेषाव० ३४६०] भण्णइ घेप्पइ य..... [विशेषाव० ९५७] ८|जहाऽऽहिअग्गी.....[दशवै० ९।१।११] ओहो जं सामन्नं..... [विशेषाव० ९५८] ९| निद्दा-विगहापरिवज्जिएहिं .... नामादि चउब्भेयं.....[विशेषाव० ९५९] / [आव० नि० ७०७,पञ्चव० १००६] १५ जेण सुहज्झप्पयणं....[विशेषाव० ९६०] ९|सव्वं चिय पइसमयं....[विशेषाव० ५४४, अज्झीणं दिज्जंतं.....विशेषाव० ९६१] ३४३५] नामं १ ठवणा २....[दशवै०नि० ८, २१८] ९| सुत्तं सुत्ताणुगमो.....[विशेषाव० १००१] उद्देसे निद्देसे... [आव०नि० १४०-१४१, होइ कयत्थो वोत्तुं....विशेषाव० १००९] १६ विशेषाव० १४८४-१४८५] १० सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति-... [विशेषाव० १०१०] १६ सुत्तं १ पयं २....[विशेषाव० १००२] १० | अत सातत्यगमने [पा० धा० ३८] १६ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुळूतानां साक्षिपाठानां सूचिः २७ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः गुणपच्चखत्तणओ....[विशेषाव० १५५८] १८| जो तुल्साहणाणं....[विशेषाव० १६१३] २७ अन्नोऽणन्नो व्व गुणी...[विशेषाव० १५५९] १८ बालसरीरं देहतरपुव्वं...[विशेषाव० १६१४] २७ अह अन्नो तो....विशेषाव० १५६०] १८ पावुक्करिसेऽधमया.... [विशेषाव० १९१०] २८ जो कत्तादि स...[विशेषाव० १५७०] १८ | नाणंतरायदसगं १०.....[ ] सोऽणेगंतो जम्हा...[विशेषाव० १५६६] १९| निरयदुर्ग २ तिरियदुगं.... [ ] न हि सव्वहा....[विशेषाव० २३९३] १९ उवघाय २३ कुविहयगई.....[ ] कह वा सव्वं....[विशेषाव० २४०१] २० कम्मप्पगरिसजणियं.....[विशेषाव० १९३१] न उ पइसमयविणासे...[विशेषाव० २४०२] २० | इंदिय ५ कसाय ४.....[ ] संखेज्जपयं वक्कं....[विशेषाव० २४०३] २० | समिई ५ गुत्ती ३.....[ ] तित्ती समो किलामो....[विशेषाव० २४०४] २० | देवे णं भंते !...[भगवती० ६।९।२-३] जमणंतपज्जयमयं...[विशेषाव० २४१६] २० | दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्,.....[ ] सुह-दुक्ख-बंध-...[विशेषाव० २४१७] २० | समयातिसुहुमयाओ....[विशेषाव० २४३३] ३५ निर्विशेषं गृहीताश्च.....[ ] २१ अन्नविणिउत्तमन्नं....[विशेषाव० २४३६] वैषम्यसमभावेन ज्ञायमाना....[ ] २१ आणागेज्झो अत्थो....[आव० नि० १६६९] ३६ स्याद्वादाय नमस्तस्मै......[ ] २१ अब्भुट्ठाणे विणये...[आव० नि० ८४८] नयास्तव स्यात्पद-.....[बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रे ] २१] जं सामन्नग्गहणं.... [ ] धर्मादीनां वृत्तिव्याणां....[ ] २२ आभिनिबोहियनाणे ....[आव० नि० १६] नाम ठवणा दविए....[आवश्यकनि० १०७०] २२ नाणमवाय-धिईओ....[ ] लोगस्सऽत्थि विवक्खो...[विशेषाव० १८५१] २३ कारणमेव तदन्त्यं..... [ ] तम्हा धम्माधम्मा....[विशेषाव० १८५२] २४ इहं बोंदी चइत्ताणं....[आव० नि० ९५८] लोगविभागाभावे....[विशेषाव० १८५३] २४ | बारसहिँ जोयणेहिं...[आव० नि० ९५९] जह वेह कंचणो-....[विशेषाव० १८१९] २५ निम्मलदगरयवण्णा ...[आव०नि० ९६१] ३९ अन्नतरमणिव्वत्तियकज्ज...[विशेषाव० १८१८] २५ पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं.....[ ] कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः [तत्त्वार्थ० १०१३] २५ | तप्पज्जायविणासो....[श्रावकप्र० १९१] ४२ जं नारगादिभावो....[विशेषाव० १९७८] २६ | नेरइया १ असुरादी....[ ] न हि नारगादि-.... [विशेषाव० १९७९] २६ | असुरा नाग सुवण्णा....प्रज्ञा० १३७] कम्मकओ संसारो....[विशेषाव० १९८०] २६ | पावफलस्स पगिट्ठस्स...[विशेषाव० १८९९] ४६ सायं १ उच्चागोयं....[ ] २६ | अच्चत्थदुक्खिया जे.... [विशेषाव० १९००] ४६ अंगोवंगतियं पि य...[ ] २६ | देव त्ति सत्थयमिदं...[विशेषाव० १८८०] ४७ अगुरुलहु २५ पराघायं...[ ] २६ | तं न जओ तच्चत्थे....[विशेषाव० १८८१] ४७ सुपसत्था विहयगई ३०....[ ] २७ | देवेसु न संदेहो जुत्तो...[विशेषाव० १८७०] ४७ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् ५८ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्क: आलयमेत्तं व मई....[विशेषाव० १८७१] ४७ | ऐश्वर्यस्य समग्रस्य,..... [ ] को जाणइ व....[विशेषाव० १८७२] ४७ | विदारयति यत् कर्म,.... [ ] ५८ मंसंकुरु व्व....[विशेषाव० १७५६] ४७ | तिहुयणविक्खायजसो.....[विशेषाव० १०५९] ५८ भूमिक्खयसाभावियसंभवओ... | इरेइ विसेसेण व....[विशेषाव० १०६०] ५८ [विशेषाव० १७५७] ४८ | एगो भगवं वीरो... [आव० नि० ३०८] ५९ अपरप्पेरियतिरियानिय-...[विशेषाव० १७५८] ४८ छ ६ प्पंच ५.... ...[ ] तणवोऽणब्भाइवि-....[विशेषाव० १७५९] ४८ | चउरो ४ तिन्नि य ३....[ ] जम्म-जरा-जीवण-...[विशेषाव० १७५३] ४८ | विज्ञप्तिः फलदा पुंसाम्,.....[ ] छिक्कप्परोइया ....[विशेषाव० १७५४] ४८| क्रियैव फलदा......[ ] सम्मादयो व साव-....[विशेषाव० १७५५] ४८ हयं नाणं कियाहीणं....[आव०नि० १०१] दव्वाइत्ते तुल्ले जीव-....[विशेषाव० १८२३] ४९ | संजोगसिद्धीए फलं.... [आव०नि० १०२] ६० सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरो-......[ ] ४९ नाणाहीणं सव्वं.... [विशेषाव० ३५९१] चोद्दस तस सेसया मिच्छा [जीवसमा०२६] ५० | एक निच्चं निरवयव-....[विशेषाव० ३२] ६१ जेसिमवड्डो पोग्गलपरियट्टो....[श्रावकप्र० ७२] ५० | सामन्नओ विसेसो......[विशेषाव० ३४] ६१ श्लेष इव वर्णबन्धस्य....प्रशम० ३८] ५० न विसेसत्यंतरभूयमत्थि....[विशेषाव० ३५] ६१ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्.... [ ] ५० | वस्तुन एव समानः......[ ] ६१ योगपरिणामो लेश्या,... [प्रज्ञापनावृ० १७।२] ५० | चिय च्येय एवार्थ [ ] कर्मनिस्यन्दो लेश्या [ ] ५१ | इरियावहिया किरिया.....[आव० हारि० ] ६६ काऊ नीला किण्हा... [बृहत्सं०२८८] ५२ | तं तं भावमायरइ.... [आव० हारि०] किण्हा नीला काऊ....[बृहत्सं० १९३] ५२ अप्पाहने वि इहं.... [पञ्चा० ६।१३] कप्पे सणंकुमारे....बृहत्सं० १९४] ५२ अइयं निंदामि पडुप्पन्नं....[पाक्षिकसू०] ७२ पुढवी आउ वणस्सइ....[बृहत्सं० ३४२] ५२ आह पहाणं नाणं....[विशेषाव० ११३३] ७३ ओहो १, भव्वाईहिं..... [ ] ५२ जह सा नाणस्स.....[विशेषाव० ११३४] ७३ जं णाण-दसण-....[विशेषाव० १०३३] ५३ जं च मणोचिंतिय-....[विशेषाव० ११३५] ७३ दाहोवसमादिसु वा.... [विशेषाव० १०३५] ५३ | तो तं कत्तो ?.... [विशेषाव० ११४१] ७४ कोहग्गिदाहसमणादओ...[विशेषाव० १०३६] ५३ | सम्यग्दर्शन-ज्ञान-.... [तत्त्वार्थ० १।१] ७४ अहवा सम्मइंसण-...[विशेषाव० १०३७] ५३ | सद्धर्मश्रवणादेव.... [धर्मबिन्दौ ३।१] ७७ अणुलोम-हेउ-.....[विशेषाव० १०४७] ५३ | धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा.... [धर्मबिन्दौ ३।२] ७७ पत्तं १ पत्ताबंधो....[ओघनि० ६६८] ५४ | उवसामगसेढिगयस्स ....[विशेषाव० ५२९] ७९ तिन्नेव य पच्छागा... [ओघनि० ६६९] ५४ | खीणम्मि उदिन्नम्मी.... [विशेषाव० ५३०] ७९ बत्तीसा अडयाला.....[बृहत्सं० २४७] ५४ | मिच्छत्तं जमुइन्नं तं..... [विशेषाव० ५३२] ८० Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः गाथा खीणे दंसणमोहे तिविहम्मि..... [ अक्खो जीवो अत्थव्वावण...[विशेषाव० ८९] ८१ अक्खस्स पोग्गलकया जं... [विशेषाव० ९०] ८१ ओही खओवसमिए.... [[विशेषाव० ५७३ ] सो वि हु खओवसमओ... [विशेषाव०५७४] उदयक्खयखओवसमोवसमा... ८२ ८२ [विशेषाव० ५७५ ] ऋजु सामन्नं तम्मत्तगाहिणी... पृष्ठाङ्कः गाथा पृष्ठाङ्कः ९५ ] ८० पावं छिंदइ जम्हा... [ व्यवहारभा० ३५ ] किरियावाई भव्वे..... [ ] १०१ १०४ सारस्वता १-ssदित्य... [ तत्त्वार्थ० ४।२६ ] ततं वीणादिकं..[ १०५ 1 पुट्ठे रेणुं व तणुम्मि... [विशेषाव० ३३७] १०७ पुट्ठे सुणेइ सद्दं..... [ विशेषाव० ३३६ ] ८२ काले विणए.... [दशवै०नि० १८४, निशीथभा० ८ ] १०७ [विशेषाव० ७८४ ] विउलं वत्थुविसेसणमाणं... [विशेषाव० ७८५] पुव्वं सुयपरिकम्मिय-.. [विशेषाव० १६९ ] वंजिज्जइ जेणऽत्थो.... [ विशेषाव० १९४] अन्नाणं सो बहिराइणं... [विशेषाव० १९५ ] किह पडिकुक्कुडहीणो.... [ विशेषाव० ३०४ ] गणहर १ थेराइकयं ... [विशेषाव० ५५० ] समणेण सावएण य....[विशेषाव० ८७३] सिंचति खरइ जमत्थं.... [ विशेषाव० १३६८ ] अविवरियं सुत्तं पि....[विशेषाव० १३६९ ] जो सुत्ताभिप्पाओ सो....[विशेषाव० १३६९] ८५ कोहाइ संपराओ तेण.... [विशेषाव० १२७७] ८७ आहार १ सरीरिंदिय - . [ जीवसमास० २५] आहारपज्जत्तीए.... [ प्रज्ञा० १९०५ ] सिय आहारए सिय... [ प्रज्ञा० १९०५ ] जोयणसयं तु ... [निशीथभा० ४८३३] हरियाल मणोसिल.. [निशीथभा० ४८३४] आरुहणे ओरुहणे... [ .[निशीथभा० ३४३५] घट्टग - डगलग-लेवो.... [ओघनि० ३४२, पिण्डनि० १५] पुव्वामुहो उ उत्तरमुहो.... [ पञ्चव० १३१] सचरित्तपच्छयावो.....[आव०नि० १०६२] गरहा वि तहाजाती-... [आव०नि० १०६३ ] २९ १०८ ८३ णिस्संकिय १ निक्कंखिय.... ८३ [दशवै०नि० १८२, निशीथभा० २३] ८३ | पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं.... ८३ [दशवै०नि० १८५, निशीथभा० ३५ ] ८४ बारसविहम्मि वि तवे .... ८४ [दशवै०नि० १८६, निशीथभा० ४२] ८४ अणिगूहियबलविरिओ...... १०९-११० ११२ ११३ ११४ ८४ [दशवै०नि० १८७, निशीथभा० ४३ ] १०८ ८५ खुड्डियं णं..... [ व्यवहार० ९।२४२] ८५ जीवे णं भंते !.... [ भगवती ०१।७।१९] देवा नेरइया वि... [श्रावकप्र० ७४] भरहं हेमवयं ति.... [ बृहत्क्षेत्र० २३] ८९ हिमवंत १ महाहिमवंत... [ बृहत्क्षेत्र० २४] ११४ ८९ चोद्दस य सहस्साइं .... [बृहत्क्षेत्र० ४९ ] ८९ पंच सए छव्वीसे.... [ बृहत्क्षेत्र० २९ ] ९० चोद्दस य.... [ बृहत्क्षेत्र० ५०] ९० अनुवादादरवीप्सा ... [ ] ९० अट्ठ सया बायाला.... [बृहत्क्षेत्र० २६३] ११४ ११४ ११४ ११५ ११६ ११६ ११६ रयणमया पुप्फफला.... [ बृहत्क्षेत्र० २८६ ] ९० दो कोसे वित्थिन्नो.... [ बृहत्क्षेत्र० २८७ ] ९४ भवणं कोसपमाणं.... [ बृहत्क्षेत्र० २८८] ९४ चउवीस सहस्साइं .... [ बृहत्क्षेत्र० ५२] ९४ | पणयालीस सहस्सा... [ ] ११६ ११७ ११७ १०८ १०८ १०८ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० द्वितीयं परिशिष्टम् गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः पंच सए छव्वीसे.... [बृहत्क्षेत्र० २९] ११७/ ऐन्द्रो निर्ऋतिस्तोय....[वाराही हेमवए पंचहिया....[बृहत्क्षेत्र० ३०] ११७ | __ बृहत्संहिता ९७।५] १३३ हरिवासे इगवीसा....[बृहत्क्षेत्र० ३१] ११७ | तत्थ खलु इमे..... [ ] १३३ तेत्तीसं च सहस्सा....[बृहत्क्षेत्र० ३२] ११८ | इंगालए १ वियालए २,....[सूर्यप्र० २०] १३४ जोयणसयमुग्विद्धा...[बृहत्क्षेत्र० १३०] ११८ | पंचसयजोयणुच्चा....[बृहत्क्षेत्र० ३।४] १३८ चत्तारि जोयणसए.... बृहत्क्षेत्र० १३१] ११८ | दो उसुयारनगवरा.....[बृहत्क्षेत्र० ३५] १३८ उस्सेहचउब्भागो.....[ ११८ पुव्वद्धस्स य मज्झे.... [बृहत्क्षेत्र० ३।६] १३९ वासहरगिरी तेणं.... [बृहत्क्षेत्र० २६०] ११९ / अरविवरसंठियाई चउरो....[बृहत्क्षेत्र० ३।७] १३९ पंचसए उव्विद्धा.... [बृहत्क्षेत्र० २६१] ११९ | भरहे मुहविक्खंभो....[बृहत्क्षेत्र० ३।१३] १३९ वक्खारपव्वयाणं ..... [बृहत्क्षेत्र० २५९] ११९ | अट्ठारस य सहस्सा....[बृहत्क्षेत्र० ३।२६] १३९ पणुवीसं उव्विद्धो.....[बृहत्क्षेत्र० १७८] १२० चउगुणिय भरहवासो,....[बृहत्क्षेत्र० ३।३०] १३९ कत्थइ देसग्गहणं......[विशेषाव० ३८८] १२१ जह विक्खंभो....[बृहत्क्षेत्र० ३।३१] १३९ वेयड्ड ९ मालवंते ९....[बृहत्क्षेत्र० १३२] १२१ | सत्ताणउई सहस्सा....बृहत्क्षेत्र० ३।४३] १३९ रुप्पि ८ महाहिमवंते...[बृहत्क्षेत्र० १३३] १२१ अडवण्णसयं तेवीस.....[बृहत्क्षेत्र० ३।४८] १३९ पउमे य १ महापउमे...[बृहत्क्षेत्र० ५६८] १२२ | वासहरगिरी १२......[बृहत्क्षेत्र० ३।३८] १३९ अद्भुट्ठ अद्धपंचम...[बृहत्सङ्ग्र० ६] कंचणगजमगसुरकुरुनगा...[बृहत्क्षेत्र० ३।४१] १३९ लक्खाई तिन्नि दीहा....[बृहत्क्षेत्र० ३।४९] १३९ एएसु सुरवहूओ....[बृहत्क्षेत्र० १७०] १२३ अउणट्ठा दोनि सया....[बृहत्क्षेत्र० ३५०] १३९ गंगा सिंधू १....[बृहक्षेत्र० १७१] १२८ | सव्वाओ वि णईओ....[बृहत्क्षेत्र० ३।४०] १३९ सीया य ४....[बृहक्षेत्र० १७२] १२८ वासहरकुरुसु दहा.... बृहत्क्षेत्र० ३।३९] १४० दोसु वि कुरासु.....[बृहत्क्षेत्र० ३०१] | दो चंदा इह...[बृहत्क्षेत्र० ५।७२, सुसमसुसमाणुभावं....[बृहत्क्षेत्र० ३०२] १३० बृहत्संग्र० ६४] १४० हरिवासरम्मएसु.... [बृहत्क्षेत्र० २५५] १३० | महाहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ..[सू० ८९] १४१ छट्ठस्स य आहारो...[बृहत्क्षेत्र० २५६] १३० | भूमीए भद्दसाल.....[बृहत्क्षेत्र० १।३१६] १४२ गाउयमुच्चा पलिओवमाउणो... | पंडगवणम्मि चउरो.... [बृहत्क्षेत्र० ११३५५] १४२ [बृहत्क्षेत्र० २५३] | पंचसयायामाओ मज्झे..[बृहत्क्षेत्र० १।३५६] १४२ चउसट्ठी पिट्ठिकरंडयाण... बृहत्क्षेत्र० २५४] १३० | मेरुस्स उवरि चूला...... [ ] १४२ मणुयाण पुवकोडी..... [ ] १३० | ईयालीस सहस्सा... [बृहत्क्षेत्र० ५।१७] १४२ न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] १३२ पन्नट्ठि सहस्साई चत्तारि..[बृहत्क्षेत्र० ५।२६] १४२ अश्वियमदहनकमलज-.... | चउगुणिय भरहवासो.... [बृहत्क्षेत्र० ३।३०] १४२ _[वाराही बृहत्संहिता ९७।४] १३३ | सत्तत्तरि सयाई चोद्दस...[बृहत्क्षेत्र०५।४२] १४३ HHHHHHHHHHHHHHH १३० Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः चत्तारि लक्ख छत्तीस...[बृहत्क्षेत्र० ५।४७] १४३ | गद्धादिभक्खणं....[उत्तरा० नि० २२३] १६१ सोमणस-मालवंता...[बृहत्क्षेत्र० ५।४८] १४३ | सीहाइसु अभिभूओ....[पञ्चव० १६२०] १६१ सोलहियं सयमेगं...[बृहत्क्षेत्र० ५।४९] १४३ | चत्तारि विचित्ताई....[आचा० नि० २७१] १६१ धायइवरम्मि दीवे...[बृहत्क्षेत्र० ५।३७] १४३ णाइविगिट्ठो य तवो....[आचा०नि० २७२] १६१ वासहरा वक्खारा....[बृहत्क्षेत्र० ५।३८] १४३ | वासं कोडीसहिय...[आचा०नि०२७३/१] १६१ उसुयार जमग....[बृहत्क्षेत्र० ५।३९] १४३ | संघयणादणुरूवं एत्तो...[पञ्चव० १५७४] १६१ सोहम्मे पंचवन्ना....[बृहत्संग्र०१३२] १४५ | देहम्मि असंलिहिए....[पञ्चव० १५७७] १६१ हट्ठस्स अणवगल्लस्स,...[जम्बूद्वीपप्र० २।१, | भावमवि संलिहेइ....[पञ्चव० १५९३] १६१ बृहत्सं० २०७] __ १४८ | भावेइ भावियप्पा.... [पञ्चव० १५९४] १६१ सत्त पाणूणि से...[जम्बू० २।२,, जम्म-जरा-मरणजलो....[पञ्चव० १५९५] १६२ बृहत्सं० २०८] १४८ धन्नोऽहं जेण मए....[पञ्चव० १५९६] । तिण्णि सहस्सा सत्त... [जम्बू० २।३, एयस्स पभावेणं....[पञ्चव० १५९७] १६२ बृहत्सं० २०९] १४८ चिंतामणी अउव्वो.... [पञ्चव० १५९८] १६२ पुव्वस्स उ परिमाणं...[बृहत्सं० ३१६] १४८ | एत्थं वेयावडियं....[पञ्चव० १५९९] १६२ इच्छियठाणेण गुणं... [ ] १४९ / तेसि नमो तेसि....[पञ्चव० १६००] १६२ माया लोभकषायश्चेत्येतद्... [प्रशम० ३२] १५१ | संलिहिऊणऽप्पाणं एवं... जोगा पडिपदेसं... [बन्धशतके ९९] १५१] [आचा० नि० २७३/२] १६२ अप्पं बायर मउयं.... [ ] १५१ सव्वत्थापडिबद्धो.... [पञ्चव० १६१३] १६२ को दुक्खं पावेज्जा...[उपदेशमाला०१२९] १५२ पढमिल्लयसंघयणे.....[पञ्चव० १६१८] १६२ उद्धारसागराणं अड्वाइज्जाण..[बृहत्क्षेत्र० १।३] १५५ भत्तपरिन्नाणसणं......[ ] १६२ अविसेसिया मइ च्चिय...विशेषाव० ११४] १५८ | इंगियदेसम्मि सयं...... [ ] १६३ जह दुव्वयणमवयणं...[विशेषाव० ५२०] १५८| पंचत्थिकायमइयं...... [ध्यानश० ५३] १६३ सदसदविसेसणाओ...[विशेषाव० ११५] १५८ | सरउग्गयससिनिम्मल-... [प्रथमकर्म० १०] १६४ जं सामन्नग्गहणं भावाणं.... [ ] १५८ केवलणाणावरणं १...[बन्धश० ७९] १६५ ओयाहारा जीवा ...[बृहत्सं० १९८-१९९] १५९ मतिसुयणाणावरणं....विशेषाव० २८९५] १६५ एगिदिय देवाणं.....[बृहत्सं० १९८-१९९] १५९ सव्वेसु सव्वघाइसु... [विशेषाव० २८९६] १६५ विग्गहगइमावण्णा १....[जीवसमासे ८२] १५९ पढमं लहइ नगारं... [विशेषाव० २८९७] १६५ णिग्गंथ १ सक्क २...[पिण्डनि० ४४५] १६० | दसणसीले जीवे... [प्रथमकर्म० १९] १६५ शंसु स्तुतौ [पा०धा० ७२८] १६० महुलित्तनिसियकरवालधार..प्रथमकर्म० २८] १६५ संजमजोगविसन्ना..[उत्तरा० नि० २१६] १६० | जह मज्जपाणमूढो....प्रथमकर्म० ३४] १६५ मोत्तुं अकम्मभूमगनर-..[उत्तरा० नि० २२०] १६० दुक्खं न देइ आउं....[प्रथमकर्म० ६३] १६५ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः जह चित्तयरो निउणो....[प्रथमकर्म० ६७] १६६ कम्मं जोगनिमित्तं....[उपदेशपद०४७१] १८१ तह नाम पि हु...[प्रथमकर्म० ६८] १६६ | मणसा वयसा काएण....[ ] १८१ जह कुंभारो भंडाई.... [ ] १६६ | तेओजोगेण जहा.... [ ] १८१ जह राया दाणाइ ण..... [ ] १६६ | सच्चं १ मोसं २.... [ ] १८२ पउमाभ वासुपुज्जा....[आव०नि० ३७६] १६८ कतिविहे णं भंते !.[प्रज्ञापना० १५/१०६८] १८२ चमर १ बलि २... [बृहत्सं० ५] १७० | जुंजणकरणं तिविहं....[आव०नि० १०३८] १८२ दस भवण-वणयराणं....[बृहत्सं० ४] १७० | संकप्पो संरंभो.... [व्यवहारभा० ४६] १८३ दो १ साहि २ सत्त...[बृहत्सं० १२] १७० असणं ओदण-सत्तुग-...[पञ्चाशक० ५।२७] १८४ पलियं १ अहियं २...[बृहत्सं० १४] १७० | पाणं सोवीरजवोदगाइ... [पञ्चाशक० ५।२८] १८४ किण्हा नीला काऊ...[बृहत्सं० १९३] १७० | भत्तोसं दंताई.... [पञ्चाशक० ५।२९] १८४ दो कायप्पवियारा....[बृहत्सं० १८१] १७१ | दंतवणं तंबोलं.... [पञ्चाशक० ५।३०] १८४ जावुक्कोसियाए विसेसहीणं णिसिंचइ [ ] १७१ समणोवासगस्स ....[भगवती० ८।६।२] १८५ यद्वस्तुनोऽभिधानं .....[ ] १७३ | समणोवासयस्स णं भंते !.. यत्तु तदर्थवियुक्तं.....[ ] १७३ [भगवती० ८।६।३] १८५ लेप्पगहत्थी हत्थि त्ति...[आव०नि० १४४७] १७४ अधिकारिवशाच्छास्त्रे,..[हरि०अष्टक० २।५] १८५ दवए १ दुयए २..:.[विशेषाव० २८] १७४ | एतदिह भावयज्ञः....[षोडशक० ६।१४] १८६ भूतस्य भाविनो वा....[ ] १७४ | भण्णइ जिणपूयाए....[पञ्चाशक० ४।४२] १८६ आगमओऽणुवउत्तो...[विशेषाव० २९] १७४ | असदारंभपवत्ता जं...[पञ्चाशक० ४।४३] १८६ मंगलपयत्थजाणयदेहो...[विशेषाव० ४४] १७४ | संविग्गभावियाणं....[निशीथभा० १६४९] १८६ भावो विवक्षितक्रिया.... [ ] १७५ | संथरणम्मि असुद्धं....निशीथभा० १६५०] १८६ अभिहाणं दव्वत्तं....[विशेषाव० ५२] १७६ | णायागयाणं कप्पणिज्जाणं..[आव० सू० ६] १८६ आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी...[विशेषाव० ५३] १७६ | महवय अणुव्वएहि य... [बन्धशतक० २३] १८७ भावस्स कारणं जह....[विशेषाव० ५४] १७६ पयईए तणुकसाओ...[बन्धशतक० २२] १८७ एगो व दो व....बृहत्सं० १५६] १७८ समणोवासयस्स णं भंते !..... अणुसमयमसंखेज्जा.....[बृहत्सं० ३३५] १७८ [भगवती० ८।६।१] १८७ एगो असंखभागो...[बहत्सं० ३३५ प्रक्षेप०] १७८ | मिच्छादिट्ठी महारंभ-...[बन्धशतक० २०] १८८ योनि १ म॒दुत्व २....[ ] | मणगुत्तिमाइयाओ....(निशीथभा० ३७, मेहनं १ खरता २....[ ] १८० बृहत्कल्प० ४४५१, उपदेशपद० ६०४] १८९ स्तनादि-श्मश्रु-.... [ ] १८० | समिओ णियमा गुत्तो... [निशीथभा० ३७, स्तन-केशवती स्त्री.... [ ] बृहत्कल्प० ४४५१, उपदेशपद० ६०५] १८९ जोगो वीरियं थामो... [पञ्चसं० ३९६] १८० | पापजुगुप्सा तु तथा....[षोडशक० ४।५] १९० १८० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः २१५ २१५ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः आगमओऽणुवउत्तो...(विशेषाव० २०९१] १९१ | अकुड्डो होइ मंचो मालो... [ ] २०९ अभिलावो पुल्लिंगाभिहाणमेत्तं... | सागरमेगं तिय सत्त.... [बृहत्सं० २३३] २१० [विशेषाव० २०९२] १९२ जा पढमाए जेट्ठा सा.... [बृहत्सं० २३४] २१० वेयपुरिसो तिलिंगो....[विशेषाव० २०९३] १९२ पढमाऽसीइसहस्सा बत्तीसा..[बृहत्सं० २४१] २११ धम्मपुरिसो तयज्ज-...[विशेषाव० २०९३] १९२ | लवणे उदगरसेसु य....[ ] २१२ उग्गा भोगा रायन्न... [आव० नि० २०२] १९२ | लवणे कालसमुद्दे....[बृहत्सं० ९०] २१२ तत्थ णं जे से....[जम्बूद्वीपप्र० ७।३५०] १९५ | नत्थि त्ति पउरभावं....[बृहत्सं० ९१] २१२ अरहंति वंदण-.....[विशेषाव० ३५६४] १९७| सोहम्मे पंचवन्ना....[बृहत्सं० १३२] २१३ दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ...[प्रशम० ७१] १९९ जीवमजीवे रूवमरूवी...[आव०भा० १९५] २१४ सूओ १ दणो २.....[ ] २०० ओदइय उवसमिए...[आव०भा० २००] २१४ होइ रसालू व....[ ] २०० | अहवा अहपरिणामो...[ ] २१५ दो घयपला महुपलं...[ ] २०० | उड्ढे उवरिं जं ठिय....[ ] कयउवयारो जो होइ.... [ ] २०१ | मज्झणुभावं खेत्तं...[ ] सम्मत्तदायगाणं....[उपदेशमाला० २६९] २०१ | आ षोडशाद्भवेद् बालो.....[ ] २१७ जो जेण जम्मि.... [निशीथभा० ५५९३] २०२ | पव्वयणं पव्वज्जा.... [पञ्चव० ५] २१८ सीओसिणजोणीया.... [जीवस० ४७, | तुद व्यथने [पा०धा० १२८२] बृहत्सं० ३६०] २०५ | प्लुङ् गतौ [पा०धा० ९५८] अच्चित्ता खलु जोणी....[जीवस० ४६, | सेहस्स तिन्नि भूमी....[व्यव० १०।४६०४] २१९ बृहत्सं० ३५९] | २०५ | पुव्वोवठ्ठपुराणे.....[व्यव० १०।४६०५] २१९ एगिदिय-नेरइया... [जीवस० ४५, एमेव य मज्झिमगा...[व्यव० १०।४६०६] २१९ बृहत्सं० ३५८] २०६ | आहारे उवही सेज्जा,..व्यव० १०१४५९९] २२० जे के वि....प्रज्ञा० ११८७] २०६ | उट्ठाणासणदाणाई...[व्यव० १०।४६००] २२० पउमुप्पलनलिणाणं,....प्रज्ञा० १।९०] २०६ | उट्ठाणं वंदणं चेव.....[व्यव० १०।४६०१] २२० बिट बाहिरपत्ता य... [प्रज्ञा० ११९१] २०६ / उपपातो देव-....[तत्त्वार्थ० २/३५] २२३ लिंबंब जंबु कोसंब....प्रज्ञा० १३] २०६ / नामं १ ठवणा.... [आव०नि० ८०९] २२४ एएसिं मूला वि.... [प्रज्ञापना० १।४०] २०७| अट्ठपएसो रुयगो....[आचाराङ्गनि० ४२] २२४ भदि कल्लाणसुहत्थो....विशेषाव० ३४३९] २०८ | दुपएसादि दुरुत्तर....[आचाराङ्गनि० ४४] २२५ अहवा भज सेवाए... [विशेषाव० ३४४६] २०९ सगडुद्धिसंठियाओ...[आचाराङ्गनि० ४६] २२५ अहवा भा भाजो.... [विशेषाव० ३४४७] २०९ | इंद १ ग्गेयी २....[आचाराङ्गनि० ४३] २२५ अहवा भंतोऽपेओ.... [विशेषाव० ३४४८] २०९ जेसिं जत्तो सूरो....[विशेषाव० २७०१] २२५ नेरइयाइभवस्स व.... [विशेषाव० ३४४९] २०९ पन्नवओ जयभिमुहो.... [ ] २२५ २१८ २१८ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ द्वितीयं परिशिष्टम् २४६ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः पुढवि १ जल २.... [विशेषाव० २७०३] २२५ माल्यम्लानि: कल्पवृक्ष-...[ ] २४५ समुच्छिम १५ कम्मा...[विशेषाव० २७०४] २२५ | देवा वि देवलोए....[उपदेशमाला० २८५] २४५ सत्थेण सुतिक्खेण वि..जम्बूद्वीपप्र० २।२८] २२७ | तं सुरविमाणविभवं...[उपदेशमाला० २८६] २४५ कत्थइ पुच्छइ सीसो...[दशवै०नि० ३८] २२८ | सव्वेसु पत्थडेसु... [विमान० २४५] २४६ पमाओ य मुणिदेहिं....[ ] २२८ वटुं वट्टस्सुवरिं तसं...[विमान० २४६] २४६ रागो दोसो मइब्भंसो,...[ ] २२८ वट्टं च वलयगं पि व...[विमान० २४७] २४६ प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता....[ ] २३० | सव्वे वट्टविमाणा... [विमान० २४८] २४६ दानपुण्यफला कीर्तिः,..... [ ] २३२ | पागारपरिक्खित्ता...[विमान० २४९] २४६ रणया उवभोगो...बृहत्कल्पभा० २३६७] २३३ | जत्तो वट्टविमाणं...[विमान० २५०] वेउव्विऽवाउडे वाइए....[ओघ०नि० ७२२] २३३ | आवलियासु विमाणा...[विमान० २५१] २४६ तणगहणा-ऽनलसेवा... [ओघनि० ७०६] २३४ घणउदहिपइट्ठाणा...[बृहत्सं० १२६] २४७ अतरंत-बाल-वुड्डा.... [ओघनि० ६९२] २३४ तेण परं उवरिमगा...[बृहत्सं० १२७] २४७ एगं व दो व तिन्नि...[निशीथभा० २०७५] २३६ जाहे णं भंते !.... भगवती० १४।६।६] २४७ संभोइओ असुद्धं.... [निशीथचू० ] २३६ फलियं पहेणगाई ... [व्यव० ९।३८२१] २४९ पंचविहं आयारं... [आव०नि० ९९८] २३६ सुद्धं च अलेवकडं.... [व्यव० ९।३८२०] २५० सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो.... [ ] भुंजमाणस्स उक्खित्तं,...[व्यव० ९।३८३८] २५० सम्मत्तनाणदंसणजुत्तो.... [] २३६ अह साहीरमाणं तु,...[व्यव० ९।३८२९] २५० तम्हा वयसंपन्ना... [पञ्चव० ९३२] २३६ भुत्तसेसं तु जं भूओ, ...[व्यव० ९।३८३०] २५१ इहरा उ मुसावाओ.... [पञ्चव० ९३३] २३६ | पक्खेवए दुगुंछा.... [व्यव० ९।३८२६] २५१ सुत्तत्थे निम्माओ.... [पञ्चव० १३१५] २३७ जं वट्टइ उवगारे..... [ ] २५१ संगहुवग्गहनिरओ... [पञ्चव० १३१६] २३७ | बत्तीसं किर कवला.... [पिण्डनि० ६४२] २५१ जे यावि मंदि....[दशवै० ९।१।२] २३७ | उवसंपया य तिविहा...[आव० नि० ६९७, कवलाण य परिमाणं......[ ] २५१ पञ्चा० ५८६] २३७ अप्पाहार १ अवड्डा २......[ ] २५१ नियगच्छादन्नम्मि उ....[आव०नि० ७१८] २३७ | कोहाईणमणुदिणं चाओ.....[ ] २५१ उवसंपन्नो जं कारणं....[आव०नि० ७२०] २३८ एग ७२० २३ एगं पायं जिणकप्पियाणं [ओघनि० ६७९] २५२ तवसंजमजोगेसुं जो....व्यव० १९५९] २४२/ जे णं गोसाला !...[भगवती०१५।५४] २५२ थिरकरणा पुण.... [व्यव० १९६१] २४२ / मासाई सत्तता...[आव०भा०, पञ्चाशक० १८।३] पियधम्मे दढधम्मे...[निशीथभा० २४४९, बृहत्कल्प० २०५०] २४२ | पाडवज्जइ एयाआ... [पञ्चाशक० १८।४] २५३ २५३ उहावणा-पहावण-...व्यव० १२९६२] २४३ गच्छे च्चिय.... [पञ्चाशक० १८५] २३६ २५३ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पृष्ठाङ्कः २६३ २६४ २६४ २६४ २६४ २६४ [ 1 वोसट्टचत्तदेहो.... [पञ्चाशक० १८ ६ ] गच्छा विणिक्खमित्ता...[ पञ्चाशक० १८।७] पच्छा गच्छमतीती....[ पञ्चाशक० १८|१३] तत्तो य अट्ठमी.... [ पञ्चाशक० १८।१४] पढमसत्तराइंदियं.... [ दशाश्रुत० ७/५१] उत्ताणग पासल्ली.... [ पञ्चाशक० १८ । १५ ] दोच्चा वि एरिसि .... [ पञ्चाशक० १८ १६ ] तच्चाए वी एवं नवरं...[पञ्चाशक० १८/१७] एमेव अहोराई . [ पञ्चाशक० १८ १८ ] एमेव एगराई....[पञ्चाशक० १८/१९ ] साहट्टु दो वि....[पञ्चाशक० १८/२० ] अर्थस्य मूलं निकृतिः.... [ ] सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपडिसेहाणुगं तत्थ [] २५६ आगंतु गारत्थजणो.....[बृहत्कल्प० ३४८६] २६६ परस्परोपकाराणां ......[ २६४ २५३ धनदो धनार्थिनां धर्म:.. [ धर्मबिन्दु० १ २] २६४ २५३ शल्यं कामा विषं.....[ २५४ | पञ्चाश्रवाद्विरमणं २६४ २६५ २५४ २५६ दाप् लवने [पा० धा० १०५९] २६५ दैप् शोधने [पा० धा० ९२४] २६५ २५६ | अवाउडं जं तु ... [ बृहत्कल्प० ३५०० ] २६६ भवति स नामातीत:.....[ ] २६७ कतिविहे णं भंते !.. स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचि: ] वाचा पेशलया साधु ... [ ] वधश्चैव १ परिक्लेशो.....[ स्नेहरागापनयनं ९. यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्ग:,. ......[ द्रव्यदानमपूर्वं च ३, उत्तमं प्रणिपातेन, त्युं वस [ ] २५७ [विशेषाव० २०४२] २५८ अविसेसिया मइच्चिय... [विशेषाव० ११४] २६० सरुषि नुतिः स्तुतिवचनं ....[ ] दुविहो उ भावधम्मो.....[दशवै० नि० ४३] बायालीसेसणसंकडम्मि ..... [ओघनि० ५४५, पञ्चव० ३५४] ता तंसि भाववेज्जो....[पञ्चव० १३५१] कहकहवि माणुसत्ताइ.... [ चोल्लगदिट्टंतेणं दुलहं.... [ 1 उत्तमकुलसंभूओ [ 1 एगस्स कए नियजीवियस्स..... [ ] ..... ] पृष्ठाङ्कः गाथा २५३ | सामादि-धातुवादादि ....[ २५३ अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं.....[ २५३ दया दान - क्षमाद्येषु... [ २५३ |धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं.... [ २५३ कामोपादानगर्भा च..... [ २५३ स्मितं न लक्षेण [ २५३ अर्थानामर्जने J २५६ २५६ २५६ २५७ २५७ ] 1 ] ] ] . [प्रशम० १७२] [ भगवती० १२|४|१५ ] २६७-२६८ से केणऽट्टेणं भंते !.. [ भगवती० १२|४|४७] २६८ | ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते !.. 1 [भगवती० १२|४|५०] ओराल १ विउव्वा २.. [ दव्वे सुहुमपरट्टो जाहे ....[ २६१ तत्थुग्गमो पसूई पभवो... [ पञ्चाशक० १३।४, ] २६० पञ्चवस्तुक० ७४०] २६३ | आहाकम्मु १ द्देसिय २ ... २६३ २६३ | परियट्टिए १० अभिहडे.. २६३ [पञ्चा०१३।६, पिण्डनि०९३] २६३ | उप्पायण संपायण.... [ पञ्चाशक० १३।१७, २६३ पञ्चव० ७५३ ] ३५ २६८ २६८ २६८ २६९ [पञ्चा०१३।५, पिण्डनि० ९२] २६९ २६९ २७० Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ द्वितीयं परिशिष्टम् २८१ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः धाई १ दूइ २ निमित्ते...[पञ्चाशक० १३।१८, महिलासहावो १... [बृहत्कल्प० ५१४४] २७८ पञ्चव० ७५४ पिण्डनि० ४०८] २७० जिणवयणे पडिकुटुं...[निशीथ० ३७४५] २७९ पुव्विं पच्छा संथव... [पिण्डनि० ४०९, बाले वुड्ढे नपुंसे... [निशीथ० ३५०६] २७९ पञ्चा० १३।१९, पञ्चव० ७५५] २७० | दासे दुढे [य]....[निशीथ० ३५०७] २७९ एसणगवेसणन्नेसणा य.... [पञ्चा० १३।२५, | गुब्विणी बालवच्छा...[निशीथ० ३५०८] २७९ पञ्चव० ७६१] २७० | पव्वाविओ सिय त्ति,..[बृहत्कल्प० ५१९०] २७९ संकिय १ मक्खिय.... [पञ्चा० १३।२६, । | इहरह वि ताव...[बृहत्कल्प० ५२०१] २८० पञ्चव० ७६२, पिण्डनि० ५२०] २७० | गोजूहस्स पडागा.... [बृहत्कल्प० ५२०२] २८० सोलस उग्गमदोसा... [पिण्डनि० ४०३] २७० | विणयाहीया विज्जा...[बृहत्कल्प० ५२०३] २८० आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे... अतवो न होइ... बृहत्कल्प० ५२०६] २८० व्यवहारपीठिका ४३] २७१ अप्पे वि पारमाणिं...[बृहत्कल्प० ५२०७] २८० भिक्खायरियाइ... [आव०नि० १४३९] २७१ | दुविहो उ परिच्चाआ... बृहत्कल्प० ५२०८] २८० सद्दाइएसु रागं दोसं...[आव०नि० १४४०] २७१ पुव्वं कुग्गाहिया...[बृहत्कल्प० ५२२४] २८१ किंपत्तियण्णं भंते !..[भगवती० ३।२।१३] २७४ | पुक्खरवरदीवड्ढं....[द्वीपसागर० १] २८१ नाणस्स केवलीणं....[बृहत्कल्प० १३०२] २७५ | सत्तरस एगवीसाई... [द्वीपसागर० २] अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं....[ ] २७६ | दस बावीसाइं अहे... [द्वीपसागर० ३] २८१ आसायण पडिसेवी....[बृहत्कल्प० ४९७२] २७६ | चत्तारि य चउवीसे....[द्वीपसागर० ४] २८१ सव्वचरित्तं भस्सइ...[बृहत्कल्प० ४९७३] २७६ | जंबूदीवो १ धायइ....[बृहत्सं० ८२] २८१ तुल्लम्मि वि अवराहे...[बृहत्कल्प० ४९७४] २७६ नंदीसरो य ८.....[बृहत्सं० ८३] २८२ तित्थयरपवयणसुए आयरिए... | कुंडलवरस्स मज्झे... [द्वीपसागर० ७२] २८२ [बृहत्कल्प० ४९७५, ५०६०] २७६ | बायालीससहस्से... [द्वीपसागर० ७३] २८२ सव्वे आसायंते....[बृहत्कल्प० ४९८३] २७६ | दस चेव जोयणसए.... [द्वीपसागर० ७४] २८२ पडिसेवणपारंची.. [बृहत्कल्प० ४९८५] २७७ | चत्तारि जोयणसए... [द्वीपसागर० ७५] २८२ दुविहो य होइ... [बृहत्कल्प० ४९८६] २७७ | रुयगवरस्स उ मज्झे...[द्वीपसागर० ११२] २८२ लिंगेण लिंगिणीए.. [बृहत्कल्प० ५००८] २७७ | रुयगस्स उ उस्सेहो...[द्वीपसागर० ११३] २८२ पावाणं पावयरो... [बृहत्कल्प० ५००९] २७७ | दस चेव सहस्सा...[द्वीपसागर० ११४] २८२ संसारमणवयग्गं जाइ-..[बृहत्कल्प० ५०१०] २७७ | सामर्थ्य वर्णनायां च... [ ] २८३ जो य सलिंगे दुट्ठो..... [ ] २७७ | सिजायरपिंडे या १...[बृहत्कल्प० ६३६१] २८३ अवि केवलमुप्पाडे... [बृहत्कल्प० ५०२४] २७७ | आचेल १ कुद्देसिय...[बृहत्कल्प० ६३६२] २८३ आसय-पोसयसेवी के..[बृहत्कल्प० ५०२६] २७७ | दुविहो होइ अचेलो..[बृहत्कल्प० ६३६५] २८४ उक्कोसं बहुसो वा....[ ] २७८ | सीसावेढियपोत्तं....[बृहत्कल्प० ६३६६] २८४ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः जुन्नेहिं खंडिएहिं... [बृहत्कल्प० ६३६७] २८४ | चमरे णं भंते !.. [भगवती० ३।१।३,१५] २९१ दसठाणठिओ कप्पो....[बृहत्कल्प० ६३६३] २८४ | नाणं पयासयं....[आव० नि० १०३] २९३ आचेल १ कुद्देसिय....[बृहत्कल्प० ६३६४] २८४ | रागो द्वेषस्तथा....[ ] २९४ बारस १ दस २... [बृहत्कल्प० ६४७२] २८४ | कसिणं केवलकप्पं....[आव०नि० १०९२] २९४ पारणगे आयाम पंचसु...[ ] २८४ | जह गोमडस्स गंधो...[उत्तरा० ३४।१६] २९५ कप्पट्ठिया वि पइदिण... [ ] २८४ | जह सुरभिकुसुमगंधो...[उत्तरा० ३४।१७] २९५ सव्वे चरित्तवंतो उ,...[बृहत्कल्प० ६४५४] २८५/ से णूणं भंते !..[भगवती० १३।१।२९-३०] २९६ पंचविहे ववहारे,...[बृहत्कल्प० ६४५५] २८५ / न वि य फुसंति... [बृहत्सं० २४३] २९८ गच्छम्मि य निम्माया...[बृहत्कल्प० ६४८३] २८५ छच्चेव १ अद्धपंचम... [बृहत्सं० २४४] २९८ धिइबलिया तवसूरा...[बृहत्कल्प० ६४८४] २८५ | तिभागो १ योजनस्य,... [बृहत्सं० २४५] २९८ पव्वज्जा सिक्खावय-..[बृहत्कल्प० ११३२, विदिसाउ दिसं पढमे.... [ ] २९९ १४४२, विशेषाव० ७] २८५ | पंचमए विदिसीए... [ ] जच्चाईहि अवनं... [बृहत्कल्प० १३०५] २८६ अपज्जत्तगसुहुम-... [भगवती० ३४।१।३८] २९९ अहवा वि वए.... [ २८६ | सुत्ते चउसमयाओ...[विशेषणवती २३] २९९ एत्थ कुलं विनेयं.... [ ] २८७ | जो तमतमविदिसाए.... [विशेषणवती २४] २९९ सव्वो वि नाण-.... [ ] २८७ | उववायाभावाओ न...[विशेषणवती २६] २९९ पाययसुत्तनिबद्धं को वा.... [ ] २८७ | चरमे नाणावरणं पंचविहं.....[ ] ३०० काया वया य ते...[बृहत्कल्प० १३०३] २८७ | धम्मजिणाओ संती....[आव० नि० १३] ३०० बत्तीस अट्ठवीसा....[बृहत्सं० ११७] २९१ | एगो भगवं वीरो पासो...[आव०नि०२२४ पंचास चत्त छच्चेव...[बृहत्सं० ११८] २९१ विशेषाव० १६४२] ३०१ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु....[बृहत्सं० ११९] २९१ संती कुंथू य अरो....[आव० नि० २२३] ३०१ २९९ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् सटीकश्रीस्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः । ग्रन्थनाम प्रकाशकादि अनुयोगद्वारसूत्रम् श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई अमरकोषः आचाराङ्गसूत्रम् श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई आचाराङ्गसूत्रवृत्तिः आचाराङ्गनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकचूर्णिः श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम आवश्यकनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकभाष्यम् आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः उत्तराध्ययनभाष्यम् (नियुक्तिपञ्चकान्तर्गतम्) उत्तराध्ययनसूत्रम् उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिः उपदेशमाला सिद्धर्षिगणिविरचितटीकासहिता उपदेशपदम् ओघनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) ओघनियुक्तिटीका (द्रोणाचार्यविरचिता) कथाकोषप्रकरणम् भारतीय विद्याभवन, मुम्बई कल्पसूत्रम् चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः जीवसमासप्रकरणम् जीवाभिगमसूत्रम् तत्त्वसंग्रहः पञ्जिकाटीकासहितः बौद्धभारती, वाराणसी तत्त्वार्थसूत्रम् तत्त्वार्थभाष्यम् Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचिता वृत्तिः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् दशवैकालिकसूत्र-निर्युक्ति- हारिभद्री वृत्तिः दशाश्रुतस्कन्धः निर्युक्तिः चूर्णिश्च दशवैकालिकनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता) धर्मबिन्दुः टीका च ध्यानशतकम् (आवश्यकहारिभद्रीवृत्यन्तर्गतम्) नन्दीसूत्रम् निर्युक्तिपञ्चकम् निर्युक्तिसंग्रहः निशीथभाष्यम्, निशीथचूर्णिः पञ्चवस्तुकम् (स्वोपज्ञटीकासहितम्) पञ्चाशकम् (अभयदेवसूरिविरचितटीकासहितम्) परिशिष्टपर्व पाक्षिकसूत्रम् पा० = पाणिनीयव्याकरणम् पाणिनीयसिद्धान्तकौमुदी पा० धा० = पाणिनीयो धातुपाठः पिण्डनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता) प्रकीर्णक (पइन्नयसुत्ताइं) प्रज्ञापनासूत्रम् प्रज्ञापनासूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः प्रथमकर्मग्रन्थः (प्राचीनः ) तृतीयं परिशिष्टम् प्रवचनसारोद्धारः वृत्तिसहितः प्रशमरतिप्रकरणम् (टीकासहितम्) प्राकृतव्याकरणस्वोपज्ञटीका ( हेमचन्द्रसूरिविरचिता) बन्धशतकम् (चूर्णिसहितम्) बृहत्कल्पसूत्रभाष्यम् प्रकाशकादि जिनशासन आराधना ट्रस्ट जैन विश्व भारती, लाडनूं श्री हर्षपुष्पामृतजैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई ३९ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तृतीयं परिशिष्टम् ग्रन्थनाम प्रकाशकादि बृहत्क्षेत्रसमासः (मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहितः) बृहत्संग्रहणी (मलयगिरिविरचितवृत्त्या सहिता) बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् भगवतीसूत्रम् भगवतीसूत्रवृत्तिः (अभयदेवसूरिविरचिता) मीमांसाश्लोकवार्तिकम् (न्यायरत्नाकरव्याख्यासहितम्) रत्ना पब्लिकेशन्स, वाराणसी वाराही बृहत्संहिता (भट्टोत्पलविवृतिसहिता) सम्पूर्णानन्दसंस्कृत-विश्वविद्यालय, वाराणसी विशेषणवती विमान-नरकेन्द्रकम् टीका च जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर विशेषावश्यकभाष्यम् __(मलधारिश्री हेमचन्द्रसूरिविरचितवृत्तिसहितम्) व्यवहारभाष्यम् विश्वभारती, लाडनूं श्रावकप्रज्ञप्तिः (टीकासहिता) षोडशकप्रकरणम् (टीकासहिता) समवायाङ्गसूत्रम् सिद्धहेमशब्दानुशासनम् (बृहवृत्तिसहितम्) सूर्यप्रज्ञप्तिः (मलयगिरिसूरिविरचितटीकासहिता) हारिभद्राष्टकप्रकरणम् (टीकासहितम्) है० धा० = हैमधातुपाठः अपरे संकेताः - गा० = गाथा । भा० = भाष्यम् । टि० = टिप्पनम् । पृ० = पृष्ठम् । पं० = पङ्क्तिः । व्या० = व्याख्या । सू० = सूत्रम् । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jeducation Interation For Private Personal use only www. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाकोडा जैन तीर्थ Jain Educationalionai For Private & Personal use. Only ww e library.org Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________