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________________ ४७ श्रीसिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री सद्गुरुभ्यो नमः । किञ्चित् प्रास्ताविकम् । अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । अरिहंत परमात्मा अर्थ की देशना देते हैं, और गणधर भगवान उसीके अनुसार सूत्रों की रचना करते हैं। ___ भगवान महावीर की देशना के आधार से गणधरभगवंतोने द्वादशांगी (बार अंग सूत्रों) की रचना की थी। यह द्वादशांगी समस्त जैन प्रवचन-जैन शासन की आधार शिला है। द्वादशांगी में भिन्न भिन्न विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है । इस में यह स्थानांग तीसरा अंगसूत्र है। बारहवाँ अंग का विच्छेद तो दो हजार वर्ष पूर्व हो गया है । ग्यारह अंगसूत्रों में विषम काल के प्रभाव से कुछ हानि और परिवर्तन भी हुआ है । वल्लभीपुर में भगवान् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वीरनिर्वाण के बाद ९८० या ९९३ वर्ष में जो सूत्रवाचना पुस्तकारूढ- पुस्तकमें लिपीबद्ध हुई यही वाचना आज विद्यमान है। स्थानांग सूत्र के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। विक्रम संवत् २०४१ (इस्वी. १९८५) में श्री महावीर जैन विद्यालय से विशिष्ट संस्करण प्रकाशित हुआ है। इस में प्राचीन-प्राचीनतम ताडपत्र एवं कागज पर लिखित अनेक अनेक प्रतिओं के आधार से संशोधित पाठ दिया है। अनेक पादटिप्पन, पाठान्तर, परिशिष्ट आदि से परिष्कृत इस संस्करण में प्रस्तावना आदि भी विस्तार से है। ___मूल सूत्र ग्रंथों को समजने के लिये टीका आदि व्याख्या ग्रंथ अति आवश्यक है। स्थानांग आदि नव अंगो का ऐसा विवेचन नहीं था । इसलिये विक्रमकी १२ वीं शताब्दी के महाविद्वान् आचार्य भगवान् श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने स्थानांग आदि नव अंगसूत्रों पर टीका लिखी थी। इस से नवांगी टीकाकार के नाम से वे अत्यंत विख्यात हैं। इस टीका को अत्यंत प्राचीन हस्तलिखित आदर्शों के आधार से संशोधन करने के लिये प्राचीनप्राचीनतम ताडपत्रलिखित जैसलमेर, खंभात एवं पाटण के आदर्शों का उपयोग कर के यह विक्रम संवत् ११२० में रचित श्री अभयदेवसूरिविरचित टीका का प्रथम विभाग आज देवगुरु कृपा से ही प्रकाशित हो रहा है इसका हमें बडा हर्ष है। स्थानांगसूत्र के दश अध्ययन है। टीका सहित यह ग्रन्थ अति महाकाय होने से चार विभागो में प्रकाशित करने की हमारी विचारणा है । प्रथम विभाग में १-३ अध्ययन प्रकाशित कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001027
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages828
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size39 MB
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