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अपोरिसिय) वि [अपौरुषिक ] पुरुष से अपोरिसीय | ज्यादा परिमारण वाला, अगाध ( खाया १, ५, १४) ।
अपोरिसीय वि [अपौरुषेय] पुरुष से नहीं
बनाया हुआ, नित्य (ठा १० ) । अपोह सक [ अप + ऊह् ] निश्चय करना, निश्चय रूप से जानना । पोह (विसे ५६१) ।
अपोह पुं [अपोह] १ निश्रय-ज्ञान (विसे ३६) । २ पृथग्भाव, भिन्नता (प्रोध ३ ) । अप्प देखो अत्त = प्राप्त; प्रप्पोलंभनिमित्तं
पढमस्स गायज्झयणस्स श्रयमठ्ठे पण्णत्तेति | अप्पभरि
बेम' (गाया १, २ ) ।
अप्प व [अल्प ] ? थोड़ा. स्तोक (सुपा २८०, स्वप्न ६७) । २ प्रभाव ( जीव ३ भग १४, १) ।
अप्प [आत्मन् ] १ आत्मा, जीव, चेतन ( गाया १, १ ) । २ निज, स्व 'प्रणा पण कमक्खयं करित्तए ' ( खाया १, ५) । ३ देह शरीर (उत्त ३) । ४ स्वभाव, स्वरूप (श्राचा)। घाइ वि [ 'घातिन् ] श्रात्म-हत्या करनेवाला ( उप ३५७ टी) । 'छंद वि[च्छन्द] स्वैरी, स्वच्छन्दी ( उप ८३३ टी) । 'जवि [ज्ञ] १ आत्मज्ञ ( हे २, ५३ ) । २ स्वाधीन (निचू १) । 'जोइ पुं [ 'ज्योतिस् ] ज्ञानस्वरूप, 'किजोइरयं पुरिसो अप्पत्जोइ ति रिगडिट्टो' (विमे । oणुवि [ज्ञ] श्रात्म-ज्ञानी (षड् ) । सवि [व] स्वतन्त्र, स्वाधीन (पान) पउम ३७, २२) । वह पुं [वध] श्रात्म-हत्या, अपघात (सुर २, १९६; ५, २३७) । वाइ वि [वादिन] आत्मा के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ को नहीं माननेवाला (दि) ।
पाइस दमणवो
अप्पट्ठाण पुंन [ अप्रतिष्ठान] १ मोक्ष, मुक्ति (प्राचा) । २ सातवीं नरक भूमि का बीचला आवास (सम २ ठा ५, ३ ) ।
बद्ध ।
अपइट्रिअ वि [अप्रतिष्ठित ] १ प्रति २ अशरीरी, शरीर-रहित (प्राचा २, १६, १२) । देखो अपइट्ठिअ । अपलिय वि [ अपक्वौषधि ] नहीं पकी हुई फल - फलहरी ( स ५० ) । अप्पओजग वि [ अप्रयोजक ] श्रगमक, - नायक ( हेतु ) ( धर्मसं १२२३) । [आत्मम्भरि] अकेलपेट्स,
अप पुं [दे] पिता, बाप (दे १, ६) । अपक [ अ ] अर्पण करना, भेंट करना । अप्पेइ (हे १, ६३) । अप्पनइ (नाट)। संकृ. अप्पिअ (सुपा २८० ) । कृ. अप्पेयव्व (सुपा २६५: ५१६ ) । अप्पस देखो अपगास (नाट) । अप्पस तक [ श्लिष् ] श्रालिङ्गन करना । पास (षड् ) ।
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स्वार्थी (उप ५७०) । अप्पकंप वि[अप्रकम्प] निश्चल, स्थिर (ठा १० ) ।
अप्पर वि[आत्मीय] स्वकीय, निजी (प्रामा) ।
अप्पक्क वि [अपक्क] नहीं पका हुआ, कच्चा (सुपा ४१३) ।
अप्प देखो अप्प (याव ४: श्राचा) । अप्पगास पुं [अप्रकाश ] प्रकाश का प्रभाव, अन्धकार ( निन्नू १ ) । अप्पगुत्ता स्त्री [दे] कपिकच्छू, कौंच वृक्ष (दे १, २९ ) । अप्पजाणुअ वि [आत्मज्ञ ] श्रात्मा का जानकार ( प्राकृ १८ ) । अप्पाणुअवि [अल्पज्ञ ] अज्ञ, मूर्ख (प्राकृ १८) ।
अप्पज्झवि [दे] श्रात्म-वश, स्वाधीन (दे १, १४) ।
अप्पडिआर वि [अप्रतिकार ] इलाज-रहित, उपाय-रहित ( मा ४३ ) । अप्पडिकंटय वि [अप्रतिकण्टक ] प्रतिपक्षशून्य प्रतिस्पध-रहित (राय) । अपड+म्म वि [ अप्रतिकर्मन् ] संस्काररहित, परिष्कार-वर्जितः 'सुरणागारे व अप्पडिकम्मे' ( परह २, ५ ) । अपडिक्कत वि [अप्रतिक्रान्त ] दोष से अनिवृत्त व्रत नियम में लगे हुए दूषरणों की जिसने शुद्धि न की हो वह (प) । अप्पांडकुद वि [अप्रतिक्रुष्ट ] श्रनिवारित, नहीं रोका हुआ (ठा २, ४) ।
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अपोरिसिय- अप्पडीबद्ध
अप्पडिचक्क वि [ अप्रतिचक ] अतुल्य, समान (दि) । अप्पाडण्ण
अपडिण्ण (आचा) ।
अप्पडिबंध पुं [ अप्रतिबन्ध] १ प्रतिबन्ध का प्रभाव । २ वि. प्रतिबन्ध - रहित (सुपा ६०८ ) । अप्पडिबद्ध देखो अपडिबद्ध ( उत्त २६ पि २१८) ।
अप्पडिबुद्ध वि [अप्रतिबुद्ध] १ अ-जागृत । २ कोमल, सुकुमार (अभि १९१) । अप्पडिमवि [अप्रतिम ] श्रसाधारण, धनु(उप ७६८ टी सुपा ३५) । अप्पडिरूव वि [अप्रतिरूप] ऊपर देखो (उप
७२८ टी) । अप्पडिलद्ध वि [ अप्रतिलब्ध] अप्राप्त ( गाया १, १ ) ।
अप्पडिलेस्स वि [अप्रतिलेश्य ] असाधारण मनो-बलवाला (प) । अप्पडिलेहण न [अप्रतिलेखन ] श्रपयँवेक्षरण, अनवलोकन, नहीं देखना (श्राव ६) । अप्पडिलेहा स्त्री [अप्रतिलेखना ] ऊपर देखो (कप्प) ।
पडिले हिय वि [अप्रतिलेखित ] श्र-पर्यवे क्षित, अनवलोकित, नहीं देखा हुआ (उवा) । अपडलोम वि[अप्रतिलोम ] अनुकूल (भग २५, ७ अभि २४) । अप्पडिवरिय पुं [अप्रतिवृत ] प्रदोष काल (बृह १) ।
अपडिवाइवि [अप्रतिपातिन् ] १ जिसका नाश न हो ऐसा, नित्य (सुर १४, २६) । २ श्रवविज्ञान का एक भेद, जो केवल ज्ञान को बिना उत्पन्न किये नहीं जाता (विसे) । अपहित्य वि [ अप्रतिहस्त ] असमान, अद्वितीय (से १३, १२) । अयि वि [अप्रतिहत] १ किसी से नहीं रुका हुम्रा ( परह २, ५ ) । २ श्रखण्डित, बाधितः अप्पsिहसासणे' (गाया १,१६) । ३ विसंवाद रहित 'अप्पडियवरनारणदंसरणघरे' (भग १, १) । अप्पडीबद्ध देखो अपडिबद्धः 'निम्ममनिरहंकारा निश्रयसरीरेवि अप्पडीबद्धा' (संथा ६० ) ।
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