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पाइअसहमहण्णवो
फलअ-फार
कुंताइफलेणं' (प्राचा १, ६, ३, १०) फलासव [फलासव मद्य-विशेष (पएण फलिहि देखो परिहि (प्राकृ १५) । मंत, व वि [वत् ] फलवाला (णाया १७)।
फलिही देखो फलही-दे (प्रणु ३५ टी)। १, ४, पंचा ४), वढिय, वद्धिय न | फलि पुं[दे] १ लिंग, चिह्न। २ वृषभ,
फली स्त्री [फली] काठ आदि की छोटी [वर्द्धिक] १ नगर-विशेष, फलोधि-नामक | वैल (दे ६, ८६)।
तस्ती; 'तत्तो चंदणफलीउ बणियहट्टम्मि मरुदेशीय नगर । २ वहाँ का एक जैन मन्दिर | फलिअ वि [फलित] १ विकसित, 'फुडिनं |
विक्किउं कहवि (सुपा ३८५)। (ती ५२)। फलिनं च दलिअमुद्दरिनं (पाप)। २ फल
फलोवय वि [फलोपग फल-प्राप्त, फलफलअपुंन [फलक] १ काष्ठ आदि का युक्त, जिसको फल हुआ हो वह (णाया
फलोवा सहित (ठा ३,१ पत्र-११३)। फल्ग तख्ता (प्राचा; गा ६५६; तंदु २६ सुर १०, १६१; प्रौप)। २ जुए का फलिअ न [दे] वायन, बायन, भोजन आदि का |
फल्ल वि [फल्य सूते का वस्त्र, सूती कपड़ा एक उपकरण (प्रौप; धण ३२)। ३ ढाल;
(बृह १)। बाँटा जाता उपहार (ठा ३,३-पत्र १४७)। 'भरिएहि फलएहि (विपा १, ३, कुमा; फलिआरी स्त्री [दे1 दूर्वा, कुश तृण (दे |
फव्वीह सक [लभ ] यथेष्ट लाभ प्राप्त साधं १०१)। ४ देखो फल (प्राचा)।
करना, गुजराती में ‘फावत्"। फव्वीहामो ६, ८३)। सज्जा स्त्री [शय्या] काष्ठ का तख्ता | फलिणी श्री [फलिनी] प्रियंगु-वृक्ष (दे १, |
(बृह १)। फव्व (दश० अगस्त्य० सू० जिसपर सोया जाय (भग)।
३२, ६, ४६; पान, कुमाः गा ६६३)।
फसल वि [दे] १ सार, चितकबराः 'फसलं फलण न [फलन] फलना (सुपा ६)। फलिह पुं[परिघ १ अर्गला, पागल
सबलं सारं किम्मोरं चित्तलं च बोगिल्लं' फलह । पुन [फलह, क] फलक, काठ 'अग्गला फलिहों (पात्र औप), 'ऊसिय
(पाम दे ६,८७ । २ स्थासक (दे ६,८७)।। फलहग आदि का तख्ता: 'अस्संजए भिक्खु- फलिहा' (भग २, ५--पत्र १३४)। २ पडियाए पीढं वा फलहगं वा णिस्सेरिंग का
फसलाणिअ) वि [दे] कृत-विभूष, जिसने अस्त्र-विशेष, लोहे का मुद्गर आदि अन । ३
फसलिअविभूषा की हो वह, शृङ्गारित उदूहलं वा प्राह टु उस्सविय दुरुहेज्जा' गृह, घर । ४ काच-घट । ५ ज्योतिष शास्त्र
(दे ६, ८३); 'फसलियारिण कुंकुमराए' (प्राचा २, १, ६, १), 'भूमिसेज्जा फलह- प्रसिद्ध एक योग (हे १, २३२, प्राप्र)।
(स ३६०)। सेज्जा' (प्रौप), 'घरफलहे' (दे १, ८; पि फलिह पुं[स्फटिक १ मरिण-विशेष, स्फटिक मणि (जी ३, हे १, १९७; कप्पू)। २ एक
फसुल वि [दे] मुक्त (दे ६, ८२) । २०६), 'पेक्खइ मन्दिराई फलहद्धग्धाडियजालगवक्खाई', 'ग्रह फलहंतरेण दरिसिय
विमानावास, देव-विमान-विशेष (देवेन्द्र १३२, फाइ स्त्री [स्फाति] वृद्धि (प्रोघ ४७) । गुज्झंतरदेसई (भवि);
इक)। ३ रत्नप्रभा पृथिवी का एक स्फटिक-फाईकय विस्फीतीकृत] १ फैलाया हुआ। 'पिहुपत्तासयमयलं गुणनियरनिबद्धफलहसंघायं ।
मय काण्ड (ठा १०)। ४ गन्धमादन पर्वत २ प्रसिद्ध किया हुआ; 'वइसेसियं पणीयं संजमियसयलजोगं बोहित्थं मुरिणवरसरिच्छे
का एक कूट (इक)। ५ कुण्डल पर्वत का | फाईकयमरणमरणेहि' (विसे २५०७)। (सुर १३, ३६) ।
एक कूट । ६ रुचक पर्वत का एक शिखर फागुण देखो फग्गुण (पि ६२) ।
(राज) - गिरि [गिरि] कैलास पर्वत फलहिआ) स्त्री [फलहिका, फलही] काठ
फाड सक [पाटय , स्फाटय फाड़ना । फलही आदि का तख्ता; 'सूरिए अत्यमिए (पास)।
फाडेइ (हे १, १६८ २३२)। वकृ. फाडंत फल हिनं घडेउमाढवई', 'इत्थ पहाणफलहो ! फलिह पु[फलिह] फलक, काठ प्रादि का
(कुमा)। चिटुइ' (ती ११), 'कलावईए रूवं सिग्धं तख्ता; 'अवेसिणो फलिहा' (पान), 'नाणो- | फाडिय वि [फाटित, स्फाटित] विदारित प्रालिहसु चित्तफलहोए' (सुर १, १५१)।
वगरणभूयाणं कवलियाफलिहपुत्थियाईणं' (भवि)।
(आप ८)। फलही स्त्री [दे] १ कपास, कपास (दे ६,
फाणिअ 'न [फाणित] १ गुड़, फाणिमो फलिह पुन [स्फटिक] प्राकाश (भग २०, गुडो भएपति' (निचू ४)। २ गुड़ का ८२: गा १६५, ३५६)। २ कपास की
विकार-विशेष, पाद्र गुड़, पानी से द्रावित लताः 'दरफुडिप्रवेटभारोणपाइ हसिनं व
फलिह न [दे] कपास का टेंटा, टेंट या गुड़ (प्रौप; कस; पिंड २३६; ६२५, पव फलहीए' (गा ३६०)। ढेढ़ी (अणु ३५ टी)।
४) । ३ क्वाथ (पएण १७-पत्र ५३०) । फलाव सक [फलाय] फलवान् बनाना, फलिहंस पू' फिलिहंसक] वृक्ष-विशेष (दे | फाय वि स्फिीत] १ वृद्ध । २ विस्तीर्ण । ३ सफल करना: 'तत्तोवि अ घएणतमा निमय- ४,१२)
ख्यात (विसे २५०७)। फलेणं फलावंति' (रत्न २९) ।
फलिहा स्त्री [परिखा] खाई, किले या नगर फार वि [स्फार] १ प्रचुर, बहुत; 'फारफल. फलावह वि [फलावह] फलप्रद, फल को के चारों ओर की नहर (प्रौपः हे १, २३२; भारभज्जिरसाहासयसंकुलो महासाही' (धर्मवि धारण करनेवाला (पउम १४, ४४)। कुमा)।'
५५)। २ विशाल, विपुल । ३ विस्तृत,
२)।
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