Book Title: Paia Sadda Mahannavo
Author(s): Hargovinddas T Seth
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 821
________________ ववण- बव्वाड ववण [प] बोगा (१) aaण स्त्रीन [ दे ] कार्पास, तुला, रूई; 'पलही ववरणं तूलो रूवों' (पान)। स्त्री. 'णी (दे ६, ८२७, ३२ ) 1 [ [ [] पराक्रम (दे ७, Yε) 1~ ववत्था श्री [व्यवस्था]] १ मर्यादा स्थिति ( स १३; कुप्र ११४) । २ प्रक्रिया, रीति । ३ इंतजाम, प्रबन्ध (सुपा ४१) । ४ निर्णय (१३) पन्तयन [पत्रक ] दातावेज ( स ४१० ) 1 ववत्थावण न [ व्यवस्थापन ] व्यवस्था करना जीवववत्थावरणादिरणा' ( धर्मसं ५२०) 1 ववत्थावान [ व्यवस्थापना ] ऊपर देखो (२०) V ववत्थिवि [ व्यवस्थित ] व्यवस्था-युक्त ( स ४६ ७२७: सुर ७, २०५३ सरग ) 1[व्यवस्थित ] जिसने व्यवस्था को हो वह (सनि ४, ३५) ववदेस देखो ववएस ( उवा; स्वप्न १३२ ) । ययदेखि [व्यपदेशिन] व्यपदेश करने वाला (नाट - शकु ६) ववधाण न [ व्यवधान ] अन्तर, दो पदार्थों के बीच का अन्तर (प्रभि २२२) ववरोव सक [ व्यप + रोपय् ] विनाश करना, मार डालना । ववशेवेसि, ववशेवेजसि, वबरोवेज्जा (उवा)। कर्म. ववरोविज्जसि (उमा) सं. पयरोवित्ता (उमा) 1 यपरोपण न [व्यपरोपण] विनाश, दिया (सण) । बचरोषि [यपरोपित ] विनाशित मार डाला गया 'जीविभाओ ववरोविप्रा' (पडि) | ववस सक [ व्यव + सो] १ करना । २ करने की इच्छा करना । ववसs ( राय १०८) । वस सक [ व्यय + सो] १ प्रयत्न करना, चेष्टा करना । २ निर्णय करना । ववसइ ( स २०२ ) । वकृ. ववसंत, ववसमाण (सुपा २१८५६२) संकृऊिण Jain Education International पाइअसद्दमणवो (सुपा ११८) मा म ५७, ३६) । हे. ववसिदुं (शौ ) ( नाट शकु ७१) 1 ववसाय [व्यवसाय ] १ निर्णय, निश्चय । २ धनुष्ठान (ठा ३, ३ - पत्र १५१६ मंदि) । ३ उद्यम, प्रयत्न ( से ३, १४; सुपा ३५२; स६८३; हे ४, ३८५३ ४२२; कुप्र २९ ) । ४ व्यापार, कार्य, काम ( श्रौप राय ) । ववसायसभा स्त्री [ व्यवसायसभा ] कार्यं करने का स्थान, कार्यालय (राय १०४ ) 1 ववसिअ न [ दे ] बलात्कार (दे ७, ४२) । ववसिअ वि [ व्यवसित ] १ उद्यत, ववरिस उद्यम-युक्तः सेणिश्रो नाम राया पाहे सुहं वसियों (उत २२ ३०; उब)। २ व्यक्तः 'अवि जीवियं ववसियं न चैव परिभवो सही (उप) ३ निश्चयवाला । ४ पराक्रमी (ठा ४, १ - - पत्र } ( स १७६) । ५ न. व्यवसाय, कर्म (गाया १, १ - पत्र ५० ) । ६ चेष्टित (स ७५६) । ७ उद्यम, प्रयत्न ( से ३,२२) ववहर सक [ व्यव + हृ] १ व्यापार करना । २ प्रक. वर्तना, आचरण करना । ववहरई, बहए उस १० १० १०० पिते २२१२ ) । वकृ. वत्रहत, ववहरमाण (उत्त २१, २३ भग ८८ सुपा १५० ४४६). हरि (१०२) क्र. ववहरणिज्ज, रणिज हरियण्य (उप २११ टी वव १ सुपा ५८५ ) 1 ववहरग वि [ व्यवहारक ] व्यापार करनेवाला, व्यापारी (कुप्र २२४ ) I बवहरण न [ व्यवहरण ] व्यवहार (गाया १, ८- १३५; स५८५ उप ५३० टी; सुपा ४६७ विसे २२१२) ववहरय देखो ववहग (सुपा ५७८) । ववयिव्व देखो ववहर बबहार [व्यवहार] वर्तन धारण भग ८ ८; विसे २२१२ ठा ५, २ प १२६ ) । २ व्यापार, धन्धा, रोजगार (सुपा ३३४) ३ नव-विशेष वस्तु-परीक्षा का एक दृष्टिकोण (विसे २२१२; ठा ७पत्र ३६० ) । ४ मुमुक्षु की प्रवृत्ति निवृत्ति का कारण-भूत ज्ञान विशेष (भग ८ ८ - पत्र ( वय १३ For Personal & Private Use Only ७५१ ८ ३८३३ व १३ पव १२६६ द्र ४९ ) । ५ जैन श्रागम-ग्रंथ विशेष (वव १) । ६ दोष के नाशार्थं किया जाता प्रायश्चित्तः 'आयारे ववहारे पन्नत्ती चैव दिट्ठिवाए य' (दसनि ३) । ७ विवाद, मामला, मुकद्दमा 'ववहारवियारणं कुणई' (पउम १०५, १००, स ४६०; चेइय ५६० उप ५६७ टो) । विवादनिय फैसला चुकादा (उप २८३) । ६ व्यवस्था ( सू २, ५, ३) । १० काम काज (विसे २२१२ २२१४) । ११ जीवराशि-विशेष (सखा वि [व] व्यवहार (४९) राखिय ["राशिक] जीवराश-विशेष में स्थित ( सिक्खा 8 ) 1 ववहार पुं [ व्यवहार ] १ पूर्व-ग्रंथ । २ जीतकल्प सूत्र । ३ कल्पसूत्र ४ मार्ग, रास्ता । ५ आचरण । ६ ईप्सितव्य ( वव १) | ववहारि पुं [ व्यवहारिन् ] १ ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न एक जिन-देव (सम १५३) । २ वि. व्यापारी, वणिक् (मोह ६४० या १४० सुपा ३३४) । ३ व्यवहार किया प्रवर्तक (वय १) बवहारिअ नि [व्यावहारिक] व्यवहारसम्बन्धी घोष २०१ ववहिअ वि [व्यवहित] व्यवधान-युक्त (गु श्रवम) । V बहिन वि [दे] मत मत्त (७, ४१) IV देशमा (ख) विवि [A] बोया हुआ (उप ७२८ टी प्रासू ६) । वविज्जत देखो वव । ववेअ वि [ व्यपेत] व्यपगत ( सू २, १, ४७) 1 बक्सा श्री [व्यपेक्षा] विशेष पेक्षा परवाह (धर्मसं १९६७) वय [वल्वज ] तृण-विशेष : मूययवक्क (?) (पह २, ३ पत्र १२३; कस २, ३०) 1 वर [पर] १ पामर चव्वा देखो वव्वय (कस २, ३० ) । वाड पुं [दे] अर्थ धन (दे ७, ३६) (B www.jainelibrary.org

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