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पाइअसहमहण्णवो
सायंदूर-सारक्खिा
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१०-पत्र ४६५), कार पु कार] १ ३ प्रेरणा करना। ४ उन्नत करना, उत्कृष्ट १०० प्राप्र)। ४ विष्णु का धनुष (हे २ सत्य। २ सत्य-करण (ठा १०-पत्र बनाना। ५ सिद्ध करना। ६ अन्वेषण १००%; सुपा ३४८) पाणि पुं[पाणि] ४६५) तण वि [तन] सन्ध्या-समय करना, खोजना । ७ सरकाना, खिसकाना, विष्णु (प्राकृ २७)। का (विक्र १९)
एक स्थान से अन्य स्थान में ले जाना।
| सारंग सारंग] १ सिंह, मृगेन्द्र (सुर १, सायंदूर न [दे] नगर-विशेष (दे ८. ५१ टी)M सार, (सुपा १५४), सारंति, सारयइ (सूम
११, सुपा ३४८)। २ चातक पक्षी (पाय; सायंदूला स्त्री [दे] केतकी, केवड़े का गाछ
१, २, २, २६; २, ६, ४); 'सारेहि वीणं' से ६, ८२)। ३ हरिण, मृग (से ६, ८२
(स ३०६), सारेह (सूत्र १, ३, ३, ६)। (दे ८, २५)।
कप्पू)। ४ हाथी। ५ भ्रमर । ६ छत्र । ७ कम. 'हसाण सरेहि सिरि सारिज्जइ प्रह सायकुंभ न [शातकुम्भ] १ सुवर्ण, सोना।
राजहंस । ८ चित्र-मृग, चितकबरा हरिण । सराण हंसेहि (गा ६५३; काप्र ८६२)। ६ वाद्य-विशेष । १. शंख। ११ मयूर । २ वि. सुवर्ण का बना हुआ (सुपा २०१) कवकृ. सारिज्जंत (सुपा ५७)।
१२ धनुष । १३ केश। १४ प्राभरण, सायग पुं [सायक] बाण, तीर (सुपा
सार सक [स्वरय ] १ बुलवाना। २ अलंकार । १५ वस्न। १६ पद्म, कमल । ६५१)।
उच्चारण-योग्य करना। सारंति (विसे १७ चन्दन । १८ कपूर। १६ फूल । २० सायग वि [स्वादक] स्वाद लेनेवाला (दस |
कोयल । २१ मेघ (सुपा ३४८) रूअक्क, ४, २६)। सायणा स्त्री [शातना] खण्डन, छेदन
सार वि [शार] १ शबल, चितकबरा (पापा रूपक (अप) पुन [रूपक] छन्द-विशेष (सम ५८)
गउड ३७८, ५३०)। २ पृ. सार, पासा, सायणी श्री [शायनी, स्वापनो] मनुष्य
खेलने के लिए काठ आदि का चौपहल सारंग न [साराङ्ग] प्रधान दल, श्रेष्ठ अवयव की दस दशामों में दसवीं-६० से १००
(पएह २, ५---पत्र १५०; सुपा ३४८) । रंगबिरंगा साँचा (सुपा १५४) वर्ष की उम्रवाली-दशा (तंदु १६)। सार पुन [सार] १ धन, दौलत (पापा से | सारंगि पू[शाङ्गिन् ] विष्ण, श्रीकृष्ण सायत्त वि [स्वायत्त] स्वाधीन, स्वतन्त्र
२,१२६, मुद्रा २६७)। २ न्याय्य, न्याय- (कुमा)
युक्त; 'एयं खु नारिणणो सारं जन हिसइ सारंगिका।नी [सारङ्गिका ] छन्द-विशेष (स २७६)
किंचण' (सूम १, १, ४, १०)। ३ बल, सारंगिक) (पिंग) सायय देखो सायग (पानः स ५४८)।
पराक्रम (पाम से ३, २७)। ४ परमार्थ सारंगी स्त्री सारङ्गी]१ हरिणी (पान)। सायर ' [सागर] १ समुद्र (सुपा ५६ः | (प्राचानि २३६ )। ५ प्रकर्ष (प्राचानि २ वाद्य-विशेष (सुपा १३२)।८८ जी ४४, गउड प्रासू ८७ १४४ २४०)। ६ फल (प्राचानि २४१)। ७ सारंभ देखो संरंभ (ठा ७--पत्र ४०३)। प्राप्र; हे २, १८२)। २ ऐरवत वर्ष में परिणाम (ठा ४, ४ टी-पत्र २८३) । होनेवाले चौथे जिन-देव (पव ७)। ३ मृग
सारकल्लाग पुं[सारकल्याण ] वलयाकार ८ रस, निचोड़ (कप्पू)। ६ एक देव-विमान विशेष । ४ संख्या-विशेष (प्राप्र)। ५ एक
वनस्पति-विशेष (पएण १--पत्र ३४)। (देवेन्द्र १४३)। १० स्थिर अंश (से ३, सेठ का नाम (सुपा २८०)
देखो सालकल्लाण । घोस पुं
२७; गउड)। ११ पृ. वृक्ष-विशेष (परण [घोष] एक जैन मुनि जो आठवें बलदेव
सारक्ख सक [सं + रक्ष ] परिपालन १--पत्र ३४)। १२ छन्द विशेष (पिंग)। के पूर्वजन्म में गुरु थे (पउम २०, १६३)।
करना, अच्छी तरह रक्षण करना । सारक्खइ १३ वि. श्रेष्ठ, उत्तमः 'जह चंदो ताराणं भद्द [ भद्र] इक्ष्वाकुवंश का एक राजा
(तंदु १३)। वकृ.सरक्खंत, सारक्खमाग गुणाण सारा तहेह दया' (धम्मो ६; से २, (पउम ५, ४)। देखो सागर = सागर।।
(पि ७६; उवा)२६), कंता श्री [°कान्ता] षड्ज ग्राम सायर वि[सादर] आदर-युक्त (गउड सुर की एक मुर्छना (ठा ७–पत्र ३६३)। °य | सारक्खण न [संरक्षण] सम्यग् रक्षण, २, २४५)।
वि [द] सार देनेवाला (से ९, ४०) त्राण (णाया १, २-पत्र ६०; सून १, सायार देखो सागार = साकार (सम्म ६४; वई स्त्री [वती] छन्द विशेष (पिंग) ११, १८ प्रौप)पउम ६, ११८)।
वंत वि [वत् ] सार-युक्त (ठा ७--पत्र सारक्खणया स्त्री [संरक्षणा] ऊपर देखो सार सक [प्र + ह] प्रहार करना। सारइ ३६४ गउड)। वंती देखो वई (पिग)। (पि ७६) - (हे ४, ८४) । वकृ. सारंत (कुमा)। सारइय वि [शारदिक] शरद् ऋतु का सारक्खि वि [संरक्षिन् ] संरक्षण-कर्ता सार सक [स्मारय ] याद दिलाना। सारे (उत्त १०, २८; पएण १७--पत्र ५२६; (पि ७६) । (वव १)। ती ५; उवा)
सारक्खिअ वि[संरक्षित] जिसका संरक्षण सार सक [ सारय ] १ ठीक करना, दुरुस्त सारंग वि [शाङ्ग] १ सोंग का बना हुआ। किया गया हो वह (पएह २, ४-पत्र करना। २ प्रख्यात करना, प्रसिद्ध करना। २ न. धनुष । ३ भाद्र'क, आदी (हे २, १३०)।
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