________________
६१० पाइअसहमहण्णवो
सीह-सुअर देखना (महा) सण न [Iसन] प्रासन- वकृ. सुयंत, सुयमाण (सुर ५, २१६ शास्त्रों की अधिष्ठात्री देवी (पडि), "देवी विशेष, सिंहाकार प्रासन, सिंहाङ्कित प्रासन, सुपा ५०५; महा ३७, १२ पि ४६७)। स्त्री ["देवी] वही (सुपा १; कुमा)। 'धम्म राजासन (भग) । देखो सिंह ।।
हेकृ. सोउं (पि ४६७) । कृ. सोएवा (अप) [ धर्म] १ जैन अंग-ग्रंथ (ठा २, १सीह वि [सैंह ] सिंह-संबन्धी। श्री. 'हा। (हे ४, ४३८)।
पत्र ५२)। २ शास्त्र-ज्ञान (प्रावम)। ३ (णाया १, १-पत्र ३१)
सुअ सक [२] सुनना। वकृ. सुअंत आगमों का अध्ययन, शास्त्राभ्यास (णंदि)।'सीह [सिंह] श्रेष्ठ, उत्तम (सम १ पडि) (धात्वा १५६) ।
धर वि [धर] शास्त्रज्ञ (सुपा ६५२;
पएह २, १-पत्र ६६) सुअ पुं[सुत] पुत्र) लड़का (सुर १, १०; सीहंडय पुं[दे] मत्स्य, मछली (दे ८, २८)
नाण पुन
["ज्ञान] शास्त्रज्ञान (ठा २, १--पत्र प्रासू८६; कुमाः उव) । सीहणही स्त्री [दे] १ वृक्ष-विशेष, करौंदी का
४६; भग)। नाणि देखो णाणि (वव गाछ । २ करौंदी का फल (दे ८, ३५) सुअ (शुक] १ पक्षि-विशेष, तोता (परह
१०) निस्सिय देखो "णिस्मिय (ठा सीहपुर वि [सैंहपुर] सिंहपुर-संबन्धी (पउम । १,१-पत्र ८ उत्त ३४, ७; सुपा ३१)।
२,--पत्र ४६)। पंच-नीस्त्री [पञ्चम] २ रावण का मन्त्री (से १२, ६३)। ३ ५५, ५३)।
कार्तिक मास की शुक्ल प.चवीं तिथि (भवि)। रावरणाधीन एक सामंत राजा (पउम८ सीहर देखो सीअर (हे १, १८४; कुमा)।
पुव्य वि [पूर्वी पहले सुना हुआ (उप १३३)। ४ एक परिव्राजक (णाया १, सीहरय [दे आसार, जोर की वृष्टि (दे
१४२ टो)। "सागर पु सागर] ऐरवत ५-पत्र १०५)। ५ एक अनार्य देश ८,१२)
क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (सम १५४) । (पउम २७, ७)। सीहल देखो सिंहल (पएह १, १-पत्र
सुअवि [श्रुत] १ सुना हुआ, प्राकणित
| सुअ वि [स्मृत] याद किया हुआ (भग)। १४ इक पउम ६६, ५५)।
(हे १, २०६, भगः ठा१-पत्र ६)। २ सुअध पु[सुगन्ध १ अच्छी गन्ध, खुशब सीहलय पु[दे] वस्त्र प्रादि को धूप देने का
-ज्ञान (विसे (गा १४)। २ वि. सुगन्धी (से ८, ६२ यन्त्र (३८, ३४)
७६; ८१, ८५, ८६, ६४ १.४ १०५
___ सुर १, २८)। सीहलिआ स्त्री [द] १ शिखा, चोटी। २ एंदि; अणु)। ३ शब्द, ध्वनि, आवाज । सुअंधि वि [सुगन्धि] सुन्दर गन्धवाला (से नवमालिका, नवारी का गाछ (दे ८, ५५)। ४ क्षयोपशम, श्र तज्ञान के प्रावरक कर्मों का १, ६२, दे८.८)। देखो सुगंधि । सीहलिपासग पुन [दे] ऊन का बना हुआ नाश-विशेष । ५ आत्मा, जीव; 'तं तेण सुअक्खाय वि [स्वाख्यात] अच्छी तरह ककरण, जो वेणी बांधने के काम में आता तमो तम्मि व सुणेइ सो वा सुग्रं तेणं' (विसे कहा हुपा (सूम २,१, १५, १६, २०; है (सूत्र १, ४, २, ११)।
८१)। ६ पागम, शास्त्र, सिद्धान्त (भग; । २९)।सीही स्त्री [सिह स्त्री-सिंहः सिंह की मादा
एंदिः अणुः से ४, २७; कम्म ४. ११;
सुअच्छ वि [स्वच्छ] निर्मल, विशुद्ध (भवि)। (नाट)।
१४, २१; बृह १, जी८)। ७अध्ययन, सीहु न सीधु] १ मद्य, दारू । २ मद्य
स्वाध्याय (सम ५१; से ४, २७)। सुअण [सुजन सज्जन, भला आदमी श्रवण (प्राकृ७०), केवलि पुं[केवलिन]
। (गा २२४; पाम प्रासू ८ ४, सुर २, विशेष (पराह २, ५-पत्र १५०; दे १,
चौदह पूर्व-ग्रथों का जानकार मुनि (राज) ४६ गउड). ४६, पान गा ५४५: मा ४३)
क्खंध, खंध पुं[स्कन्ध] १ अंग-ग्रन्थ सुअण न [स्वपन] सोना, शयन (सूक्त ३१)। सुप्र[स] इन अर्थों का सूचक अव्यय-१
का अध्ययन-समूहात्मक महान् अंश-खण्ड सुअणा स्त्री [दे] अतिमुक्तक, वृक्ष-विशेष प्रशंसा, श्लाघा (विसे ३४४३; सूअनि ८८)। (सून २, ७, ४०, विपा १, १-पत्र ३)। (दे ८, ३८) २ अतिशय, अत्यन्तता (श्रु १९)। ३
२ बारह अंग-ग्रंथों का समूह । ३ बारहवा सअण वि सुितनु] १ सुन्दर शरीरवाला। समीचीनता (सट्ठि १६)। ४ अतिशय
अंग-ग्रंथ, दृष्टिवाद (राज)। जाण देखो योग्यता (पिंग)। ५ पूजा। ६ कष्ट,
२ स्त्री. नारी, महिला (गा २६६, ३८४; नाण (ठा २, १टा-पत्र ५१) णाणि मुश्किली। ७ अनुमति । ८ समृद्धि (षड्
५६६ पि ३४६ गउड)।वि [ज्ञानिन] शास्त्र-ज्ञान-संपन्न, शास्त्रों १२२; १२३ १३५)। ६ अनायास (ठा
सुअण्ण देखो सुवण्ण (प्राकृ ३०)।
का जानकार (भग)। णिस्सिय न ५,१-पत्र २६६)। [निश्रित मति-ज्ञान का एक भेद (णंदि)। 3
सुअम वि [सुगम] सुबोध (प्राकृ ११)। सुअ अक [स्वप्] सोना। सुप्रइ (हे ४, "तिहि स्त्री [तिथि] शुक्ल पंचमी तिथि सुअर वि[सुकर जो अनायास से हो सके १४६; प्राकृ ६६; पि ४६७; उव), सुयामि (रयण २) थेर स्थविर] तृतीय वह, सरल (अभि६६)। (निसा १); "खणंपि मा सुय वीसत्थी' और चतुर्थ अंग-ग्रंथ का जानकार मुनि (ठा सुअर पुं [शूकर] सूअर, वराह (विपा १, (आत्महि ६) । कर्म. सुप्पइ (हे २, १७६)। ३, २) । "देवया स्त्री ["देवता] जैन ७–पत्र ७५; नाट–मृच्छ २२२) ।
खण्ड
विपा १,
२ बारह
* अतिशय
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org